साक्षात्कार : डायरी हमारे अतीत के दिनों को आज के संदर्भ में परखने की आँख देती हैं / सत्यनारायण

डायरी हमारे अतीत के दिनों को आज के संदर्भ में परखने की आँख देती हैं
- सत्यनारायण

(अपनी माटी के लिए हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण विधा कथेतर पर वरिष्ठ लेखक डॉ. सत्यनारायण से माधव राठौड़ की बातचीत)

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि राजेश जोशी कहते हैं कि हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहाँ चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं। बदलाव की वजह से चीजें टूटती हैं, नया आकार लेती हैं। उदारवाद आया, समाजवाद आया, नेहरू युग आया। इसी तरह कहानी, उपन्यास में भी बदलाव आया। शिल्प बदला, भाषा बदली तो विधा में भी बदलाव आया

दरअसल, हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ धुंध है,संक्रमण है। चारों तरफ घटाटोप या यूं कहें कि सब गड्डमड्ड है। हालांकि बदलते समय समाज के साथ ट्रांजैक्शन फेस तो हर पीरियड में रहता है लेकिन हमारे से आगे वाली पीढ़ी के पास  कुछ सहारे थे- चाहे विचार के हो या विचारधारा के या फिर पत्र पत्रिकाओं के सहारे। लेकिन इस समय की पीढ़ी के पास कोई सहारा नहीं है। नया लिखने वाला सब कुछ लिखना चाहता है और रातों-रात प्रसिद्ध होना चाहता है, वायरल हो जाना चाहता है। वह सब कुछ पाना चाहता है जो 40- 50 साल की साहित्य साधना के बाद किसी लेखक ने पाया। लेकिन उसे पता नहीं कि उसे ठीक से किस तरफ जाना चाहिए। हमारे समय के महत्वपूर्ण लेखक असगर वज़ाहत कहते हैं कि आज का हर बड़ा कथाकार यह चाहता है कि उसकी कथा कथेतर हो जाये। वह इतनी यथार्थ लगे की लोग सच माने "उसने कहा था" की तरह।

डॉ. सत्यनारायण  लंबे समय से  कथेतर विधा में लिख रहें हैं। जानने वाले यह भी जानते हैं कि कई लोगकथादेशपत्रिका को पीछे के पृष्ठ से पढ़ना शुरू करते हैं कि इस बार यायावर की डायरी में क्या आया है।

प्रस्तुत है उनसे की गई बातचीत :-

1. सबसे पहले तो विधा पर बात करें कि कथेतरमाने क्या?

पता नहीं यह नाम कैसे पड़ा क्योंकि कथेतर में भी तो कथा ही होती है किसी व्यक्ति की, स्थान की, स्मृति या और कोई। शायद शिल्प के कारण नाम दिया गया होगा क्योंकि कथा में कुछ बंधा बंधाया होता है, एक अनुशासन। हालांकि वह भी -कहानी के दौर में टूट गया। मैं तो इसे भी कथा ही मानता हूँ, कथाचित्र, कथायात्रा, कथा स्मृति आदि।

2.   पिछले दो दशकों को देखें तो लेखक पाठक दोनों कथेतर तरफ मुड़े। आप इस परिवर्तन की वजह क्या मानते हैं? आप भी कहानियाँ लिखते थे फिर ये बदलाव तथ्य के प्रति आकर्षण या यथार्थ की चाह के कारण हुआ?

पाठकों को यथार्थ चाहिए, जीवन चाहिए, कथा में गुँथा। बीच में एक ऐसा दौर भी आया जब कहानियां अपठनीय होने लगी या संदेश, विचार ठूंसे जाने लगे तब फ़ीचर, रिपोर्ताज़, यात्रा वृतांत आदि में पाठक को लगा कि यह मेरे जीवन के ज्यादा करीब है। शायद इसी कारण

जहाँ  तक मेरा प्रश्न है मेरा जीवन बीहड़ रहा है, बे-लीक। कहानी का अपना अनुशासन तो होता ही है फिर मेरे पास इतने भांत भांत लोग थे, जो कहीं अंटते नहीं थे। किसी भी फ्रेम से परे। वे सोते जागते मेरा आगा- पीछा करते। आज भी करते हैं। मैं नवभारत टाइम्स,राजस्थान पत्रिका, इतवारी पत्रिका, खबरनवीस, दैनिक भास्कर और फिर कथादेश जिसमें आज भी बरसों से यायावर की डायरी लगातार लिख रहा हूँ। पाठकों को तो वे कहानियाँ ही लगती हैं लेकिन आलोचक कथेतर कहते रहे हैं।

यह तथ्य के प्रति आकर्षण था और यथार्थ का आग्रह। अपने अनुभव खंडों को कैसे तो अभिव्यक्त करना ही था क्योंकि कई चेहरे, कई घटनाएँ , मुझे अक्सर बेचैन किये रहती।  मुझे लगा इन्हें मैं इसी तरह अभिव्यक्त कर सकता हूँ। विधा क्या है, मुझे आज तक समझ में नहीं आई। यह तो आलोचक तय करें।

3.  कथेतर की यह विशेषता होती हैं कि वह कल्पना को अस्वीकार करता है और इसमें यथार्थ होने के कारण लेखक को फ्रीडम लेना थोड़ा कठिन होता है। आप से यह जानना चाहेंगे कि नॉन फिक्शन में फिक्शन कितना आना चाहिए?

असल में देखा जाए तो कहानी में भी यथार्थ ही होता है और कथेतर में यथार्थ होते हुए भी कल्पना से गढ़ना तो पड़ता ही है। कहानी में समूची कल्पना होती हैं और कथेतर में समूचा यथार्थ।दोनों में यथार्थभास कल्पनाभास होता है। हाँ,कथेतर का आधार यथार्थ तो होता ही है, वही उसे विश्वसनीय बनाता है।

4.  साहित्य में डायरी की कितनी महत्ता होती है?

यह सवाल ही उलझा हुआ है, क्योंकि डायरी असल में तो व्यक्ति के अपने जीवन की दैनंदिनी होती है, एकांत में, गोपनीय स्वयं से संवाद या एकालाप जिसे लेखक स्वयं से बात करते हुए लिखता है। इसलिए काफ्का ने कहा था कि डायरी हमारे स्वयं के परिवर्तनों की साक्षी होती है। डायरी हमारे अतीत की उन गलतियों, स्थितियों तथा संघर्ष के दौरान के दिनों के संदर्भ में आज को परखने की आँख देती है। मैं स्वयं अपने अतीत को डायरी के पन्ने में देखता हूँ तो संघर्ष,अवसाद तथा जीवन के साथ अपने सोच के बदलाव को देखता हूँ कि किन-किन पगडंडियों से चलता हुआ या रबड़ता हुआ यहाँ तक आया। खुद की यात्रा से रूबरू होता हूँ तो रोमांच होता है। उन परिवर्तनों को भी देखता हूँ जो समय के साथ आए या नहीं आने चाहिए थे।

5.  आपके यहाँ दो तरह की डायरियाँ हैं- एक नितांत व्यक्तिगत डायरी जो आपके भीतरी संसार की तरफ ले जाती है, दूसरी यायावर की डायरी जो बाहरी संसार को अभिव्यक्त करती है। कई बार दोनों में विरोधाभास दिखता है। जहाँ एक तरफ निर्मल वर्मा की तरह निजता वहीं दूसरी तरफ नागार्जुन ,राहुल सांकृत्यायन जैसी यायावरी झलकती है। इसे किस तरह कैसे बांट लेते हैं?

बहुत अच्छा सवाल है। दिन भर काम करते हुए, भटकते हुए किस तरह भांत भांत के लोगों से साबका पड़ता हैकितने तरह के अनुभव होते हैं। कितने तरह के संघर्षों के बीच से गुजरते हुए स्वयं को बचते- बचाते, कितने लहूलुहान होकर घर लौटते हैं। बाहर से भीतर से। बाहर का तो हम अपने परिवार से, दोस्तों से साझा कर लेते हैं पर भीतर कितनी टूट-फूट होती हैं- दफ्तर में, दोस्तों के साथ, पत्नी से या फिर प्रेमिका के कारण। तब स्वयं से ही संवाद होता है। खुद ही खुद का आपा खोलता है।

 दूसरा, इन सबके बीच कैसे-कैसे, कितने-कितने तो लोग मिलते हैं, रोज,हर रोज। जाने भी अनजाने भी। भटकते हुए, व्यर्थ डोलते, रात-बिरात, कहीं भी चल जाने पर। जीवन का यही तो बीहड़ है। लोगों की भीड़ में कितना कुछ देखते भोगते हैं। जिसे आप 'यायावर की डायरी' कह रहे हैं, वह उसी बीहड़ की देन है। उसमें मिले लोगों, अनुभवों, घटनाओं और इन्हीं के बीच रुळते पड़ते खुद की डायरी भी साथ चलती है।

यह विरोधाभास नहीं बल्कि दोनों के बीच की आवाजाही कह सकते हैं। अपनी कहानियों रिपोर्तोजों में तो मैं मुखर रहा ही हूं आज भी हूँ। रही निज की तो कभी सोचा ही नहीं था। मित्र रघुनंदन त्रिवेदी और शेष के संपादक कहानीकार हसन जमाल के कारण ही थोड़ा बहुत अपने निज को डायरी में उजागर कर पाया और सबसे ज्यादा संबल माधुरी के संपादक थिसारस कोष के श्री अरविंद कुमार जी का रहा। जिनके के कारण ही पुस्तक के रूप में तैयार कर सका। वे तो अनुवाद के लिए भी कहते रहे। एक टिप्पणी भी लिखी इन्हें  किसी बड़े प्रकाशक से छपवाने के लिए,पर मैं ही संकोचवश भेज नहीं पाया। 

6.  आपकी डायरियों को देखें तो क्या कारण है कि आप डायरी में भी अपने को खुलकर क्यों नहीं कह पाते?

अब क्या कहा जाए खुद ही डरता हूँ, खुद से संवाद करते हुए और यह भी कि वैसे भी अपनी बात संक्षेप में ही करता रहा हूँ।दिनभर की घटनाओं,टकराहटों के विवरण के बजाय मैं स्वयं के मन पर पड़ने वाले प्रभावों,खरोंचों को ही अभिव्यक्त करने में ही विश्वास करता हूँ।

7.   अच्छान सर,डायरी में भाषा की बात करें तो आप करेक्टर की भाषा को कैसे साधते हो,यायावर की डायरी की अलग भाषा तोतारीख की खँजड़ीकी अलग?

करेक्टर की भाषा का जहाँ तक सवाल है, मैं बराबर उसका पीछा करता हूँ। जीवन में भी, भाषा में भी। दिनों, महीनों बल्कि बरसों तक। तब जाकर उसकी भाषा पकड़ पाता हूँ। यदि उसे पकड़ना कहें तो। कई बार यह पकड़ना छूट भी जाता है।पर मेरी कोशिश रहती है परकाया प्रवेश की। और अपनी स्वयं की 'तारीख की खँजड़ी' वह तो जब से होश संभाला बजती रही है। लेकिन मुझे लगता है कि खुद की भाषा भी अभी कहाँ ढूंढ पाया? तलाश कर रहा हूँ। काश, मौला कभी हिम्मत दे कि स्वयं  की भाषा में  स्वयं की बात, और नहीं तो स्वयं से ही कह पाऊं।

8.    नए लिखने वाले जानना चाहेंगे कि डायरी लिखते वक्त क्या सावधानी रखें कि लेखक का