साक्षात्कार : डायरी हमारे अतीत के दिनों को आज के संदर्भ में परखने की आँख देती हैं / सत्यनारायण

डायरी हमारे अतीत के दिनों को आज के संदर्भ में परखने की आँख देती हैं
- सत्यनारायण

(अपनी माटी के लिए हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण विधा कथेतर पर वरिष्ठ लेखक डॉ. सत्यनारायण से माधव राठौड़ की बातचीत)

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि राजेश जोशी कहते हैं कि हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहाँ चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं। बदलाव की वजह से चीजें टूटती हैं, नया आकार लेती हैं। उदारवाद आया, समाजवाद आया, नेहरू युग आया। इसी तरह कहानी, उपन्यास में भी बदलाव आया। शिल्प बदला, भाषा बदली तो विधा में भी बदलाव आया

दरअसल, हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ धुंध है,संक्रमण है। चारों तरफ घटाटोप या यूं कहें कि सब गड्डमड्ड है। हालांकि बदलते समय समाज के साथ ट्रांजैक्शन फेस तो हर पीरियड में रहता है लेकिन हमारे से आगे वाली पीढ़ी के पास  कुछ सहारे थे- चाहे विचार के हो या विचारधारा के या फिर पत्र पत्रिकाओं के सहारे। लेकिन इस समय की पीढ़ी के पास कोई सहारा नहीं है। नया लिखने वाला सब कुछ लिखना चाहता है और रातों-रात प्रसिद्ध होना चाहता है, वायरल हो जाना चाहता है। वह सब कुछ पाना चाहता है जो 40- 50 साल की साहित्य साधना के बाद किसी लेखक ने पाया। लेकिन उसे पता नहीं कि उसे ठीक से किस तरफ जाना चाहिए। हमारे समय के महत्वपूर्ण लेखक असगर वज़ाहत कहते हैं कि आज का हर बड़ा कथाकार यह चाहता है कि उसकी कथा कथेतर हो जाये। वह इतनी यथार्थ लगे की लोग सच माने "उसने कहा था" की तरह।

डॉ. सत्यनारायण  लंबे समय से  कथेतर विधा में लिख रहें हैं। जानने वाले यह भी जानते हैं कि कई लोगकथादेशपत्रिका को पीछे के पृष्ठ से पढ़ना शुरू करते हैं कि इस बार यायावर की डायरी में क्या आया है।

प्रस्तुत है उनसे की गई बातचीत :-

1. सबसे पहले तो विधा पर बात करें कि कथेतरमाने क्या?

पता नहीं यह नाम कैसे पड़ा क्योंकि कथेतर में भी तो कथा ही होती है किसी व्यक्ति की, स्थान की, स्मृति या और कोई। शायद शिल्प के कारण नाम दिया गया होगा क्योंकि कथा में कुछ बंधा बंधाया होता है, एक अनुशासन। हालांकि वह भी -कहानी के दौर में टूट गया। मैं तो इसे भी कथा ही मानता हूँ, कथाचित्र, कथायात्रा, कथा स्मृति आदि।

2.   पिछले दो दशकों को देखें तो लेखक पाठक दोनों कथेतर तरफ मुड़े। आप इस परिवर्तन की वजह क्या मानते हैं? आप भी कहानियाँ लिखते थे फिर ये बदलाव तथ्य के प्रति आकर्षण या यथार्थ की चाह के कारण हुआ?

पाठकों को यथार्थ चाहिए, जीवन चाहिए, कथा में गुँथा। बीच में एक ऐसा दौर भी आया जब कहानियां अपठनीय होने लगी या संदेश, विचार ठूंसे जाने लगे तब फ़ीचर, रिपोर्ताज़, यात्रा वृतांत आदि में पाठक को लगा कि यह मेरे जीवन के ज्यादा करीब है। शायद इसी कारण

जहाँ  तक मेरा प्रश्न है मेरा जीवन बीहड़ रहा है, बे-लीक। कहानी का अपना अनुशासन तो होता ही है फिर मेरे पास इतने भांत भांत लोग थे, जो कहीं अंटते नहीं थे। किसी भी फ्रेम से परे। वे सोते जागते मेरा आगा- पीछा करते। आज भी करते हैं। मैं नवभारत टाइम्स,राजस्थान पत्रिका, इतवारी पत्रिका, खबरनवीस, दैनिक भास्कर और फिर कथादेश जिसमें आज भी बरसों से यायावर की डायरी लगातार लिख रहा हूँ। पाठकों को तो वे कहानियाँ ही लगती हैं लेकिन आलोचक कथेतर कहते रहे हैं।

यह तथ्य के प्रति आकर्षण था और यथार्थ का आग्रह। अपने अनुभव खंडों को कैसे तो अभिव्यक्त करना ही था क्योंकि कई चेहरे, कई घटनाएँ , मुझे अक्सर बेचैन किये रहती।  मुझे लगा इन्हें मैं इसी तरह अभिव्यक्त कर सकता हूँ। विधा क्या है, मुझे आज तक समझ में नहीं आई। यह तो आलोचक तय करें।

3.  कथेतर की यह विशेषता होती हैं कि वह कल्पना को अस्वीकार करता है और इसमें यथार्थ होने के कारण लेखक को फ्रीडम लेना थोड़ा कठिन होता है। आप से यह जानना चाहेंगे कि नॉन फिक्शन में फिक्शन कितना आना चाहिए?

असल में देखा जाए तो कहानी में भी यथार्थ ही होता है और कथेतर में यथार्थ होते हुए भी कल्पना से गढ़ना तो पड़ता ही है। कहानी में समूची कल्पना होती हैं और कथेतर में समूचा यथार्थ।दोनों में यथार्थभास कल्पनाभास होता है। हाँ,कथेतर का आधार यथार्थ तो होता ही है, वही उसे विश्वसनीय बनाता है।

4.  साहित्य में डायरी की कितनी महत्ता होती है?

यह सवाल ही उलझा हुआ है, क्योंकि डायरी असल में तो व्यक्ति के अपने जीवन की दैनंदिनी होती है, एकांत में, गोपनीय स्वयं से संवाद या एकालाप जिसे लेखक स्वयं से बात करते हुए लिखता है। इसलिए काफ्का ने कहा था कि डायरी हमारे स्वयं के परिवर्तनों की साक्षी होती है। डायरी हमारे अतीत की उन गलतियों, स्थितियों तथा संघर्ष के दौरान के दिनों के संदर्भ में आज को परखने की आँख देती है। मैं स्वयं अपने अतीत को डायरी के पन्ने में देखता हूँ तो संघर्ष,अवसाद तथा जीवन के साथ अपने सोच के बदलाव को देखता हूँ कि किन-किन पगडंडियों से चलता हुआ या रबड़ता हुआ यहाँ तक आया। खुद की यात्रा से रूबरू होता हूँ तो रोमांच होता है। उन परिवर्तनों को भी देखता हूँ जो समय के साथ आए या नहीं आने चाहिए थे।

5.  आपके यहाँ दो तरह की डायरियाँ हैं- एक नितांत व्यक्तिगत डायरी जो आपके भीतरी संसार की तरफ ले जाती है, दूसरी यायावर की डायरी जो बाहरी संसार को अभिव्यक्त करती है। कई बार दोनों में विरोधाभास दिखता है। जहाँ एक तरफ निर्मल वर्मा की तरह निजता वहीं दूसरी तरफ नागार्जुन ,राहुल सांकृत्यायन जैसी यायावरी झलकती है। इसे किस तरह कैसे बांट लेते हैं?

बहुत अच्छा सवाल है। दिन भर काम करते हुए, भटकते हुए किस तरह भांत भांत के लोगों से साबका पड़ता हैकितने तरह के अनुभव होते हैं। कितने तरह के संघर्षों के बीच से गुजरते हुए स्वयं को बचते- बचाते, कितने लहूलुहान होकर घर लौटते हैं। बाहर से भीतर से। बाहर का तो हम अपने परिवार से, दोस्तों से साझा कर लेते हैं पर भीतर कितनी टूट-फूट होती हैं- दफ्तर में, दोस्तों के साथ, पत्नी से या फिर प्रेमिका के कारण। तब स्वयं से ही संवाद होता है। खुद ही खुद का आपा खोलता है।

 दूसरा, इन सबके बीच कैसे-कैसे, कितने-कितने तो लोग मिलते हैं, रोज,हर रोज। जाने भी अनजाने भी। भटकते हुए, व्यर्थ डोलते, रात-बिरात, कहीं भी चल जाने पर। जीवन का यही तो बीहड़ है। लोगों की भीड़ में कितना कुछ देखते भोगते हैं। जिसे आप 'यायावर की डायरी' कह रहे हैं, वह उसी बीहड़ की देन है। उसमें मिले लोगों, अनुभवों, घटनाओं और इन्हीं के बीच रुळते पड़ते खुद की डायरी भी साथ चलती है।

यह विरोधाभास नहीं बल्कि दोनों के बीच की आवाजाही कह सकते हैं। अपनी कहानियों रिपोर्तोजों में तो मैं मुखर रहा ही हूं आज भी हूँ। रही निज की तो कभी सोचा ही नहीं था। मित्र रघुनंदन त्रिवेदी और शेष के संपादक कहानीकार हसन जमाल के कारण ही थोड़ा बहुत अपने निज को डायरी में उजागर कर पाया और सबसे ज्यादा संबल माधुरी के संपादक थिसारस कोष के श्री अरविंद कुमार जी का रहा। जिनके के कारण ही पुस्तक के रूप में तैयार कर सका। वे तो अनुवाद के लिए भी कहते रहे। एक टिप्पणी भी लिखी इन्हें  किसी बड़े प्रकाशक से छपवाने के लिए,पर मैं ही संकोचवश भेज नहीं पाया। 

6.  आपकी डायरियों को देखें तो क्या कारण है कि आप डायरी में भी अपने को खुलकर क्यों नहीं कह पाते?

अब क्या कहा जाए खुद ही डरता हूँ, खुद से संवाद करते हुए और यह भी कि वैसे भी अपनी बात संक्षेप में ही करता रहा हूँ।दिनभर की घटनाओं,टकराहटों के विवरण के बजाय मैं स्वयं के मन पर पड़ने वाले प्रभावों,खरोंचों को ही अभिव्यक्त करने में ही विश्वास करता हूँ।

7.   अच्छान सर,डायरी में भाषा की बात करें तो आप करेक्टर की भाषा को कैसे साधते हो,यायावर की डायरी की अलग भाषा तोतारीख की खँजड़ीकी अलग?

करेक्टर की भाषा का जहाँ तक सवाल है, मैं बराबर उसका पीछा करता हूँ। जीवन में भी, भाषा में भी। दिनों, महीनों बल्कि बरसों तक। तब जाकर उसकी भाषा पकड़ पाता हूँ। यदि उसे पकड़ना कहें तो। कई बार यह पकड़ना छूट भी जाता है।पर मेरी कोशिश रहती है परकाया प्रवेश की। और अपनी स्वयं की 'तारीख की खँजड़ी' वह तो जब से होश संभाला बजती रही है। लेकिन मुझे लगता है कि खुद की भाषा भी अभी कहाँ ढूंढ पाया? तलाश कर रहा हूँ। काश, मौला कभी हिम्मत दे कि स्वयं  की भाषा में  स्वयं की बात, और नहीं तो स्वयं से ही कह पाऊं।

8.    नए लिखने वाले जानना चाहेंगे कि डायरी लिखते वक्त क्या सावधानी रखें कि लेखक का निज या गोपन बचा रहे?

डायरी लिखते वक्त कैसी सावधानी?डायरी तो बेध्यानी  में ही लिखी जाती है। वहीं अपना आपा नहीं खोलोगे तो कहाँ ? यह लिखने वाले पर निर्भर करता है कि वह डायरी क्यों लिख रहा है। आजकल छपास का रोग भी हैं कि आज लिखी कल छपा लें। उनके लिए क्या कहा जाए? निज गोपन तो गोपन ही रहता है। स्वयं अपने से ही पूछना चाहिए कि मैं डायरी क्यों लिख रहा हूँ? वह अपना आपा अपने ही सामने खोलने के लिए डायरी लिख रहा है तो निश्चित रूप से उन प्रभावों को ईमानदारी से अभिव्यक्त करेगा।और यदि वह चाहता है कि उसे छपाना ही है तो वह सावधानी से लिखनी होगी।यहाँ छल जल्दी पकड़ में आता है

9.  आपकी डायरी में दिन की घटनाओं व्यक्तियों के ब्यौरे कम आते हैं,ऐसा क्यों?

मुझे लगता है कि दिनभर में जो जीकर आया हूँ उसमें अधिकांश तो रोजमर्रा का पार्ट है। लेकिन यह जीवन जीते हुए दिल पर जो खरोचें आयी। जिनके कारण उद्विग्न हुआ, प्रेम उमड़ा  या जिनके कारण जीने के कण मिले। मूर्त के साथ अमूर्त चीजों चीजें भीतर कहीं ज्यादा कचोटती हैं, शायद यह कारण रहा हो।

10. आपकी नजर में साहित्य की कुछ महत्वपूर्ण डायरियों के बारे में बतायें,साथ ही उनकी विशेषताएं भी ?

 विशेषताएं तो यह है कि यह बेहद ईमानदारी से, स्वयं से संवाद की डायरियाँ हैं।अपने संघर्षों की परतें खोलती हैं। जब आँख खुल गई, डुबोया मुझको होने ने कृष्ण बलदेव वैद,एक विस्थापित की डायरी- परमानन्द श्रीवास्तव,डायरी में साहित्य- बलराज पाण्डेय,इनके अलावा  फ्रांज काफ्का, एन फ्रेंक, मलयज, निर्मल वर्मा, मुक्तिबोध, ऋतुराज, जयशंकर, सुधीर विद्यार्थी, मोहन राकेश, माधव नागदा,अम्बिका दत्त रमेश चंद्र शाह की डायरी इस वक्त याद रही है  

11.  रिपोर्ताज़ पत्रकारिता की विधा है उसमें लिटरेरी टच किस तरह आये, इसके लिए आप रिपोर्ताज़ में रिपोर्ट संवेदना का बैलेंस कैसे बनाते हैं?

अर्नेस्ट हेमिंग्वे के कारण यह पत्रकारिता से साहित्य की विधा बना तथ्यों के साथ उससे जुड़ी घटनाओं लोगों के बारे में यदि आप संवेदनात्मक ढंग से अभिव्यक्त करेंगे तो निश्चित रूप से संवेदित और संप्रेषणीय होगा। मैं स्वयं को उन पात्रों की जगह रखकर महसूस करने की कोशिश करता हूं,उन्हीं स्थितियों में उन्हीं की भाषा में उनके वातावरण में उनसे बतळवण करता हूं, शायद इसलिए आपको बैलेंस लगता हो।

12.   आपके पढ़े हुए कुछ महत्वपूर्ण रिपोर्ताज?

ऋणजल -धनजल -रेणु, चीड़ों पर चॉँदनी- निर्मल वर्मा,सूखे सरोवर का भूगोल-मणि मधुकर,तूफानों के बीच-रांगेय राघव, अपोलो का रथ- श्रीकांत वर्मा, एक देश बारह दुनिया -शिरीष खरे,जंगल जंगल जलियांवाला -हरीराम मीणा।

13.  आपने रिपोर्ताज डायरी के अलावा संस्मरण भी लिखे हैं- यादों का घर सुन रहे हो रघु जी।संस्मरण बारे में ऐसा कहा जाता है कि उसमें भाषाई कौशल इतना हो कि वह पठनीय होने के साथ-साथ वह संस्मरण सच के करीब लगे। इस बारे में आपका क्या मानना है?

सच तो आधार होता है ही। हालांकि कई इसमें घालमेल भी करते हैं, विशेषकर जब किसी की मृत्यु के बाद के संस्मरण में। वैसे संस्मरण सच के करीब ही होते हैं।

14.  अच्छा सर, संस्मरण से ही मिलती-जुलती कथेतर की विधा है रेखा चित्र या शब्द चित्र। इस के बारे में आप थोड़ा बताएं कि यह संस्मरण से किस तरीके से अलग है?

 संस्मरण और रेखाचित्र में मोटा अंतर तो यही है कि संस्मरण व्यक्ति या स्थान से जुड़ी स्मृतियों पर आधारित होता है जबकि रेखाचित्र में व्यक्ति का खाका होता है शब्दों के माध्यम से। आज जो मुझे याद रहे हैं उनमें महत्वपूर्ण हैं- रवींद्र कालिया- स्मृतियों की जन्म पत्री, ग़ालिब छुटी शराब, प्रभात रंजन- पालतू बोहेमियन, नीलाक्षी सिंह- हुकम देश का खोटा सिक्का, रामानंद राठी- गूंती गाथा, ममता कालिया-रवि कथा, काशीनाथ सिंहयाद हो कि याद हो, वह गरबीली गरीबी, आछे दिन पाछे गए, अखिलेश- अक्स, वह जो यथार्थ था, कमलेश्वर- आईने के सामने, अपनी निगाह में, कांति कुमार जैन- लौट जाती है उधर कोई नजर, लौटकर आना नहीं होगाहेतु भारद्वाज, सुधीर विद्यार्थी- शहर के भीतर शहर, बरेली : एक कोलाज, मेरे हिस्से का शहर,उमा-किस्सागोई,गगन गिल- दिल्ली में उनींदे, पंकज चतुर्वेदी-यही तुम थे, मणि मधुकर- उड़ती हुई नदियाँ 

15.  इन दिनों शहरों पर खूब लिखा जा रहा है, आपकी भी एक किताब हैं- 'यहीं कहीं नींद थी' कमलेश्वर ने भी शहरों पर एक अंक निकाला था। पिछले दिनों ममता कालिया काजीते जी इलाहाबादआया है। इस तरह के प्रयोग जो कथेतर में हो रहे हैं,उसके बारे में आपका क्या कहना है, सर?

यह साहित्य के विस्तृत फैलाव का ही उदाहरण है जो समय के साथ अभिव्यक्ति के नए माध्यम तलाशता है। सारिकामें एक स्तंभ था- ‘रात की बाहों में जिसमें अपने समय के मशहूर साहित्यकारों ने अपने-अपने शहरों की रात के बारे में लिखा था।  इस तरह बाद में सारिका में ही शहर के बीच उभरता शहरस्तंभ में लेखकों ने अपने-अपने शहरों के बारे में रिपोर्ताज लिखे थे। उसी में मैंने जयपुर के बारे में लिखा था, जिसका शीर्षक था- रोशनी के गांव में कराहता शहर मनोहर श्याम जोशी ने लखनऊ के बारे में, रघुवीर सहाय ने दिल्ली के बारे में – ‘दिल्ली मेरा परदेश’, सुधीर विद्यार्थी ने बरेली फतेहगढ़ के बारे में लिखा हैं।

16.  लेखक और यात्राओं का गहरा संबंध रहा है। पिछले कई महीनों से दैनिक भास्कर में आपके कॉलम को पढ़ रहा हूँ - मुनाबाव, भादरिया, मीरा की कुड़की, टॉडगढ़, हल्दीघाटी, गडरा रोड़। कथेतर में यात्रा वृतांत का अपना महत्व है हम उस शहर या जगह को लेखक की आँख से देखते हैं। यात्रा वृतांत लिखते हुए एक पर्यटक लेखक की यात्रा में फर्ककैसे बनाये रखें?

सामान्य पर्यटक घूमने जाता है। नई जगह देखने का रोमांच। इतिहास में पढ़ी जगहें उसके लिए भ्रमण मात्र होती हैं लेकिन एक लेखक इतिहास में डुबकी लगाकर वह कुछ सुनने  की कोशिश करता है, जो इतिहास की तारीखोंमें आने से रह गया। उसमें दबी सिसकियां, आम आदमी के शोषण की, उसके संघर्ष की अदेखी। उसके पीछे का अलिखा पर किवदन्तियों में अटका इतिहास जीवन। असल में, वह लिखे या सता द्वारा लिखवाए इतिहास से परे लोक की जुबान पर अटका इतिहास होता है। यही तलाश मेरी भी रही है।लिखे हुए के साथ जुबान पर अटका इतिहास जो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आता है।मैंने जो जो जो देखा जो लिखा वह इतिहास तो था, पर उससे भी छिटका जो पकड़ से रह गया था, उसे ही पकड़ने की कोशिश करता रहा हूँ- चाहे वह टॉडगढ़ हो, हल्दीघाटी , कुड़की हो, मुनाबाव, किराडू आदि।

महत्वपूर्ण यात्रा वृतान्तों में मेरी तिब्बत यात्रा- राहुल सांकृत्यायन,अरे यायावर रहेगा- अज्ञेय, आखिरी चट्टान तक- मोहन राकेश, तीरे तीरे नर्मदा, सौदंर्य की नदी नर्मदा- अमृत लाल वेगड़, पहियों पर रात दिन- महेश कटारे, एक बार आयोवा- मंगलेश डबराल, अवाक्-गगन गिल,खरामा खरामापंकज बिष्ट,वह भी कोई देस है महाराज तथा कीड़ा जड़ी-अनिल यादव, होना अतिथि कैलाश का- मनीषा कुलश्रेष्ठ, उम्र भर सफ़र में रहा- असगर वजाहत, किसी वक्त किसी जगह - अशोक अग्रवाल, साइबर सिटी में नंगे आदिवासियों तक- हरिराम मीणा और भी हैं,अब याद नहीं रहते, काफी समय भी हो गया इन्हें पढ़ें हुए को। इस तरह की बात होती है तब याद आते हैं।

17.  कथेतर की एक और विधा है- आत्मकथा जीवनी। हालांकि हम नवोदित हैं फिर भी कुछ ऐसी जीवनियाँ जो आपको महत्वपूर्ण लगती हैं जिन्हें हमें पढ़ना चाहिए, उनके बारे में आपसे जानना चाहूँगा?

हिंदी में अब आत्मकथा और जीवनी भी लिखी जाने लगी हैं। पहले बहुत कम थी। जिसमें हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा के तीन भाग, पांडे बेचन शर्मा उग्रकी अपनी खबरजो मुझे सबसे बेहतर लगती हैं। भीष्म साहनी की मेरी साहित्य यात्रा,प्रभा खेतान की अन्या से अनन्या’, मैत्रेयी पुष्पा की गुड़िया भीतर गुड़िया’,कस्तूरी कुण्डल बसे,देवेंद्र मेवाड़ी की पीछे छूटा पहाड़तुलसीराम की मुर्दहिया,मणिकर्णिका, धीरेन्द्र अस्थाना की जिन्दगी का क्या किया  इसके अतिरिक्त मन्नू भंडारी स्वयं प्रकाश कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथाएँ। मैं स्वयं अपना लेखा-जोखा टुकड़ों में लिख रहा हूं- खेड़ा उजड़ चुका है

जीवनी में विष्णु प्रभाकर की आवारा मसीहासर्वश्रेष्ठ हैं। रजा फाउंडेशन द्वारा भी कई लेखकों की जीवनी लिखवाई गई हैं, जिनमें रघुवीर सहाय, नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, हिना कौल नाम याद रहे हैं। मुक्तिबोध की विष्णु चंद्र शर्मा द्वारा लिखी जीवनी बहुत अच्छी हैं, जिसका शीर्षक है- मुक्तिबोध की आत्मकथा।

18.  साक्षात्कार की बात करें तो इस समय पत्र-पत्रिकाओं के अलावा सोशल मीडिया पर भी खूब बातचीत, संवाद हो रहे हैं तो हम नए रचनाकारों को किसी वरिष्ठ साहित्यकार का साक्षात्कार लेते हुए किन चीजों का विशेष ख्याल रखना चाहिए?

अब यह तो मैं क्या बता सकता हूँ।पर हाँ साक्षात्कार से पहले लेखक की रचनाओं को अच्छी तरह पढ़ समझने के साथ उसके व्यक्तित्व परिवेश के बारे में जान लेना चाहिए, जिसके बीच उसके लेखकीय व्यक्तित्व का विकास हुआ है। हिंदी में मुझे सबसे अच्छी मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक बातों बातों मेंलगी, जिसमें नागार्जुन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, कृष्णा सोबती आदि के साक्षात्कार हैं। श्रीकांत वर्मा की भी किताब हैबीसवीं शताब्दी के अंधेरे में

 

माधव राठौड़
 हाईकोर्ट कॉलोनी, रातानाडा जोधपुर


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक कुमार

2 टिप्पणियाँ

  1. बेनामीजून 13, 2024 6:58 pm

    सत्यनारायण जी के लिखे हुए को पढ़ना असीम आनंद देता है | उनका बोला हुआ गद्य भी जीवन को व्यापकता प्रदान करता है | आप दोनों का विशेष आभार |

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  2. कथेतर पर कम शब्दोंं में अच्छी बातचीत । खासकर डायरी लेखन पर सत्यनारायण जी की बातचीत महत्त्वपूर्ण है। एक मुख्य पक्ष जिस पर हमें लगता है बात होनी चाहिए । डायरी की सैद्धांतिकी एवं उसका मूल्यांकन किस निकष पर किया जाना चाहिए है? इस उपयोगी प्रस्तुति के लिए आपका आभार।

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