कालजयी कृतियों का बारम्बार अनुवाद साहित्य की जीवंतता और गतिशीलता का महत्त्वपूर्ण रूप भी है औरप्रमाण भी। किसी भी उत्कृष्ट रचना के पूर्व-अनूदित पाठ भ्रष्ट या अधूरे लगने पर या फिर नए अर्थ-संदर्भों की तलाश भी नए अनुवाद की प्रेरणा उत्पन्न करती है। यह अंततः साहित्य एवं प्रतिनिधि रचना-दोनों के हित में है। मानव जीवन की मूलभूत समस्याओं तथा सार्वभौमिक प्रवृत्तियों के सफल उद्घाटन के कारण अंग्रेजी साहित्य के महान नाटककार तथा कवि शेक्सपियर की रचनाएँ विश्व की विभिन्न भाषाओं में अनूदित होती रही हैं। हिन्दी में भी औपनिवेशिक काल से ही शेक्सपियर की रचनाओं के अनुवाद का क्रम प्रारंभ हो गया था। शेक्सपियर के नाटकों के हिन्दी अनुवादकों में श्री रघुवीर सहाय का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
रघुवीर सहाय के आरंभिक दौर की कविता की एक पंक्ति है - ‘यह दुनिया बहुत बड़ी है/जीवन लम्बा है’। सहाय जी का रचनात्मक जीवन इसे पूर्णतः प्रतीकित करता है। वे मौलिक साहित्य-सर्जना, अनुवाद, पत्रकारिता, राजनीति तथा रेडियो से लम्बे समय तक जुड़े रहे। नाटक व रंगमंच की ओर उनका झुकाव प्रारंभ से ही था। उनका ‘इप्टा’ से संबंध रहा, उन्होंने रेडियो-नाटक लिखे और
1958 ई. में वे एशियन थियेटर इंस्टीट्यूट (आज का एन.एस.डी.) में रिसर्च आफिसर भी रहे।
1971 ई. में उन्होंने ‘दिनमान’ में तीन अंकों में ‘नटकही’ के अंतर्गत तीन लघु नाटकों की शृंखला प्रस्तुत की। प्रेमचंद की कहानियों - ‘नैराश्य’ तथा ‘सुभागी’ पर बनी टी.वी. फिल्मों के लिए भी उन्होंने पटकथा तथा संवाद-लेखन किया। उन्होंने शेक्सपियर के नाटकों - मैकबेथ (बरनम वन), ओथेलो, टोवेल्थ नाइट (बारहवीं रात), ए मिडसमर नाइट्स ड्रीम (फागुन मेला) के अतिरिक्त कई स्पेनिश, जापानी, हंगरी, युगोस्लाव तथा चीनी नाटकों, उपन्यासों, कहानियों के भी अनुवाद किए हैं। सहायजी की उपर्युक्त पृष्ठभूमि, बतौर नाट्यानुवादक, उनकी योग्यता को प्रमाणित करती है।
रघुवीर सहाय ने शेक्सपियर के नाटकों का अनुवाद सिर्फ कथानक बताने और पाठकों को साहित्यिक आस्वादन कराने के लिए नहीं किया, बल्कि उन्होंने रंगमंच की आवश्यकता के अनुरूप हिन्दी में शेक्सपियर का पुनःसृजन किया है। शेक्सपियर के नाटकों के उनके अनुवादों में ‘बरनम वन’ (‘मैकबेथ‘ का हिन्दी अनुवाद,
1979 ई. में प्रकाशित) उल्लेखनीय है। वस्तुतः यह अनुवाद एन.एस.डी. के रंगमंडल के आग्रह पर किया गया था। इसकी प्रथम प्रस्तुति रंगमंडल द्वारा ही दिल्ली में खुले रंगमंच पर की गई। इसके प्रकाशित पाठ में स्वयं ब.व. कारन्त ने ‘निर्देशकीय’ टिप्पणी की है। इस तरह ‘बरनम वन’ की समीक्षा में रंगमंचीय आग्रह को केंद्र में रखकर ही प्रवृत्त होना लाज़िमी है।
काव्य तथा नाटक के अनुवाद के क्रम में कुछ बातें समान होती हैं। यथा; दोनों विधाओं की व्यंजना-शक्ति, बिम्बविधान एवं दृश्य-बंध, काव्यमय अंश और अलिखित ;चंबमद्ध का महत्त्व। दोनों विधाएँ अपने संबोध्य (दर्शक/पाठक) से सीधा संवाद भी करती हैं और उन्हें कल्पना-लोक के निर्माण का अवसर भी देती हैं। इसके बरक्स, हरेक संवादात्मक कृति को ‘नाटक’ नहीं कहा जा सकता। नाटक हेतु मंचन का तत्त्व महत्त्वपूर्ण होता है। प्रतिपाद्य का रंग-विधान द्वारा सम्प्रेषण ही दृश्यत्व को संभव करता है। यदि नाटक मात्र पठनीय हो (हालाँकि बिना अभिनय के नाटक कैसा!) तो कोई बात नहीं, लेकिन यदि यह अभिनेय हो और शेक्सपियर का हो तो उसके अनुवाद का मामला विशिष्ट बन जाता है।
प्रसंगवश; समीक्षा के संदर्भ में अनुवाद को एक ‘संबंध’ के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस संदर्भ में अनुवाद उस इकतरफा संबंध का नाम हो जाता है जो दो सममूल्य अथवा समतुल्य पाठों के बीच होता है। तात्पर्य यह कि दो सममूल्य पाठों के बीच ‘समानता’ के इकतरफा संबंध को अनुवाद कहा जाता है। अनूदित पाठ के गुण-दोष विवेचन के कारण अनुवाद समीक्षा एक अनुप्रयोगात्मक प्रक्रिया होती है। अनूदित कृति की समीक्षा निश्चय ही, किसी प्रचलित विमर्श को धार देने से कहीं अधिक अनुवाद-कार्य के स्तर को उन्नत करने के उद्देश्य से की जाती है। इस क्रम में नाइडा का मानना है कि सभी श्रेष्ठ अनुवादों में मूल से अधिक लम्बे होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। लेकिन यह अनिवार्यतः सत्य नहीं है। विस्तारण के इस पहलू के साथ-साथ एक मजेदार बात यह है कि अनुवाद यदि मूल से बेहतर हो तो भी समस्या और मूल से हीन हो तो भी समस्या; जबकि मूल वह हो नहीं सकता और यह सबसे बड़ी समस्या है। बहरहाल, अनुवादक द्वारा अपनाई जाने वाली पद्धतियों या युक्तियों या दोषों - आगम, लोप, अर्थ-संकोच, अर्थ-विस्तार, अर्थादेश, स्थान-विपर्यय, अनुकूलन आदि को ध्यान में रखते हुए ‘बरनम वन’ की समीक्षा के क्रम में मूलतः शेक्सपियर-योग्य नाटकोचित प्रभाव की पड़ताल लाजिमी है।
एक ऐसे दौर में, जब मौलिक कथानकों का अभाव था और रंगमंच भी आज की तरह तकनीकी या समृद्ध नहीं था, शेक्सपियर के नाटक अपने प्रभाव हेतु संवादों, वार्तालापों, बहसों, स्वगत कथनों, अर्थ-छवियों और रंग-कौशल पर आधारित थे। इन नाटकों की भाषा की काव्य-संरचना, छंद-विन्यास, पदों एवं शब्दों पर बलाघात, श्लेष, कहावतों-मुहावरों - इन सबकी एक विशिष्ट शैली तथा अनोखी प्रभावोत्पादकता है। विभिन्न स्थलों पर शेक्सपियर की भाषा के तेवर अलग-अलग होते हैं - दार्शनिक स्वगत कथनों में गंभीर तो प्रणय-व्यापार में कथात्मक।
‘बरनम वन’ की भाषा में गरमाहट, जिंदादिली और लयात्मकता मौजूद है। सहायजी का यह पद्यानुवाद है। उन्होंने इसकी भूमिका में शेक्सपियर के नाटकों के अभिनय में भाषा के महत्त्व को रेखांकित किया है। आवाज के उतार-चढ़ाव की सुविधा से युक्त होने के कारण ही उन्होंने शेक्सपियर के ब्लैंक वर्स हेतु हिन्दी के वर्णिक छंद-कवित्त छंद का प्रयोग किया है। हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने भी शेक्सपियर के ‘मैकबेथ’ एवं अन्य नाटकों के पद्यानुवाद किए हैं। लेकिन उन्होंने मात्रिक छंद - रोला छंद - का प्रयोग किया है। दोनों छंदों में, निश्चय ही, कवित्त छंद अभिनय की दृष्टि से ज्यादा प्रभावी जान पड़ता है। हालाँकि, एक-दो स्थलों पर ‘बरनम वन’ में भी मात्रिक छंद का उपयोग किया गया है।
जिन स्थलों पर मूल नाटक में गद्य है, वहाँ ‘बरनम वन’ में भी गद्यानुवाद किया गया है। इसके अतिरिक्त, सहाय जी ने मैलकम-मैकडफ संवाद (चतुर्थ अंक, तीसरा दृश्य) के अधिकांश पद्य-स्थलों को भी गद्य में परिवर्तित कर दिया है। प्रतीत होता है कि यह अनुकूलन संभवतः एलिजाबेथ युगीन रंगमंचीय प्रभाव की सृष्टि करने के उद्देश्य से किया गया है।
सहायजी ने अपने अनुवाद में तद्भव या उर्दू शब्दों से परहेज नहीं बरता है। ‘बरनम वन’ में कपार, चाँपे, पस्ती, जमा-जथा, घरदुआर, किफायतशारी जैसे अपनत्व-भरे शब्दों की मौजूदगी उल्लेखनीय है। रघुवीर सहाय शब्दानुवाद की लीक के गाड़ीवान नहीं हैं। मूल संदेश हेतु उन्होंने सार्थक सम्प्रेषणात्मक शब्द भी रचे हैं। उदाहरण के तौर पर,
‘when the hurlyburly's done, When the battle's lost and won'1 के लिए उन्होंने अनुवाद किया है - ‘हम्म मिलैंगे जब्ब/कटाजुज्झ हुई ले।’
‘बरनम वन’ में सहायजी शेक्सपियरोचित काव्यात्मकता के निर्वहन में भी सक्षम हो सके हैं। निम्न पंक्तियों के द्वारा मैकबेथ के स्वगत कथन में मानसिक द्वंद्व और भाषा की प्रसंगानुकूल गंभीरता एक साथ देखी जा सकती है -
काव्यसौंदर्य का एक और नमूना है -
इसी प्रकार सुर-लहर और लयात्मकता भी जगह-जगह पर चित्त को प्रफुल्लित कर देती है। बानगी के तौर पर:
लयात्मकता के लिए अनुवादक ने कहीं ‘और’ तथा कहीं ‘औ’ का चतुर प्रयोग किया है। पर्यायों के चयन में भी उन्होंने स्वर के आरोह-अवरोह को ध्यान में रखा है। उदाहरण के लिए, एक ही संवाद में उन्होंने आवश्यकतानुसार ‘वृक्ष’ और ‘तरु’ का सार्थक प्रयोग किया है।
नाटकीयता हेतु ‘बरनम वन’ में प्रसंगोचित और पात्रोचित भाषा का इस्तेमाल हुआ है। इस संदर्भ में सर्वाधिक उल्लेखनीय डायनों का प्रसंग है। प्रथम अंक के प्रथम दृश्य में ही डायनों से साक्षात्कार होता है और पहला संवाद ही नाटकीय प्रभाव की सृष्टि प्रारंभ कर देता है -
यहाँ ‘आज मिले हैं हम्म’ के लिए मूल नाटक में कुछ भी नहीं है, फिर भी सहायजी ने उपयुक्त सूचनात्मक संयोजन किया है। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्होंने लोकभाषा द्वारा चरित्र को विश्वसनीयता प्रदान की है। भारतीय रीति-नीति में डायनों के मिथक से जुड़े विश्वासों को उन्होंने अलग-अलग दृश्यों में रूपायित किया है। डायनों द्वारा किए जाने वाले लोमहर्षक मंत्रोच्चार की कर्कश शब्द-योजना द्रष्टव्य है -
डाइनें:
प्रसंगवश; मूल नाटक में डायनों के लिए प्रयुक्त
'beards' को सहाय जी ने ‘सूरत’ कर दिया है। भारतीय मिथक परम्परा में यह माना जाता है कि औरतें ही डायन होंगी, अतः अनुवादक ने यह अनुकूलन किया है। इसी तरह, द्वितीय अंक के तीसरे दृश्य में दरबान के संवादों में वर्गोचित हल्की-फुल्की और कहावतों से सनी छिछली भाषा का रूप देखा जा सकता है।
‘बरनम वन’ में सहायजी ने कई सुंदर प्रतिशब्द भी दिए हैं जैसे,
antidote के लिए ‘विस्मरणवटी’,
banners के लिए ‘ध्वजकेतन’ आदि। कहावतों-मुहावरों के रूप में ‘आवताव के भगत’, ‘अभाव में बेभाव की’, ‘दो-दो हाथ करना’ आदि सार्थक रूप से प्रयुक्त हुए हैं। कुत्तों की विभिन्न प्रजातियों का भी उन्होंने भरसक अनुवाद किया है - श्वान, शुनक, आखेटक, कूकुर, मृगदंशक आदि। कई स्थलों पर शब्दों का सुघड़ अनुप्रासात्मक संयोजन मिलता है जिनके उच्चारण में बलाघात की संभावना से संवादों की नाटकीयता बढ़ाई जा सकती है; जैसे - ‘विचित्र चित्र’, ‘अंधकार के अनुचर’, ‘रूपहली धूप’ एवं ‘मनहूस धुंध’ जैसे शब्द-प्रयोगों में शब्द-सौंदर्य तथा अर्थ-सौंदर्य परस्पर युग्मित हैं।
लेकिन ‘बरनम वन’ में कहीं-कहीं जटिल तत्सम प्रधान शब्दावली अरुचिकर प्रतीत होती है। बानगी के तौर पर -
पत्नी: \
उस पर भी विरोधाभास यह है कि यही पात्र इसी दृश्य में अलग किस्म की भाषा बोल रहा होता है -
पत्नी:
एक ही दृश्य में एक ही पात्र के ये दो संवाद अनुवादक की अक्षमता के नहीं, लापरवाही या उदासीनता के साक्ष्य हैं। इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं ‘उनहार’, ‘आदिष्ट’, ‘बिलमो’ जैसे अप्रचलित शब्दों से भी साबका पड़ता है। उदाहरण के तौर पर, प्रथम अंक के दूसरे दृश्य में
'Bellona's bridegroom' की जगह ‘मैकबेथ’ अनुवाद किया गया है, जिसकी उपस्थिति उस दृश्य में है भी नहीं। यहाँ संदेश का थोड़ा लोप भी हुआ है।
मूल नाटक के कुछ स्थानों पर शेक्सपियर ने योजनाबद्ध ढंग से लय का सृजन किया है, लेकिन सहायजी ने उसकी अनदेखी कर दी है। इन स्थलों का अनुवाद लयात्मकता की मांग करता है। बानगी के तौर पर -
एकाध जगहों पर उन्होंने अनुवादक-विवेक के नाम पर संवाद के मूल मन्तव्य को बदल दिया है। प्रथम अंक के चैथे दृश्य में बाँको कहता है -
‘There if I grow, The harvest is your own’
इसका अनुवाद किया गया है - ‘हृदय लगूँ तो भी मैं अर्पित हूँ चरणों में’। इस वाक्य में भी कृतज्ञता का स्वर है, लेकिन मूल मन्तव्य यह है कि ‘मेरी उन्नति आपके ही प्रसाद से है और उस पर आपका ही अधिकार है।’ इसी दृश्य में राजा डंकन अपने पुत्र मैलकम के उत्तराधिकारी की घोषणा करता है। यहाँ
'We' के लिए सहायजी ने ‘मैं’ कर दिया है। जबकि राजकीय शिष्टाचार की दृष्टि से भी ‘हम’ का प्रयोग ही उचित होता। इसी तरह
‘What! can the devil speak true?’ में निहित विस्मय एवं अविश्वास का भाव अनुवाद में बुझा-सा लगता है - ‘अरे! क्या प्रेतात्मा ने सच कहा था?’ इस अनुवाद में अन्तर्निहित है कि प्रेतात्मा सच बोल सकती है; लेकिन इस संदर्भ-विशेष में उसने सच कहा, इस पर विस्मय है। वस्तुतः यहाँ अविश्वास का भाव गायब है। ज्यादा सही होता - ‘क्या! प्रेतात्मा भी सच बोल सकती है?’
नाटक के प्रतिपाद्य-पक्ष के अनुवाद में अनुवादक का विवेक महत्त्वपूर्ण होता है। रघुवीर सहाय ने ‘बरनम वन’ की भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया है कि ‘‘मैंने मैकबेथ और बरनम वन तथा उसके वाहक जन को मुख्य मानकर स्काटलैंड और इंग्लैंड के राजवंशगत और देशकालपरक सभी संदर्भ छोड़ दिए हैं। इसी तरह शेक्सपियर की भाषा में जहाँ-जहाँ अत्यंत स्थानीय पहचान के प्रसंग आते हैं - जैसे डाइनों के एकाधिक दृश्यों में जो कि तत्कालीन पिशाच विद्या से आक्रान्त हैं - वहाँ-वहाँ उन्हें छोड़ या बदल दिया है। पात्रों के नाम यथावत् रखते हुए भी कथा को सार्वजनीन बनाना चाहा है और सप्रयास देशीकरण तो नहीं ही किया है।’’
निश्चय ही, ‘बरनम वन’ में अनुवादक ने कथ्य के साथ छेड़छाड़ नहीं की है। हाँ, कुछ अनुकूलन उन्होंने अवश्य किया है। जहाँ तक शीर्षक का प्रश्न है तो इसमें सहायजी की मौलिकता दिखती है। ‘मैकबेथ’ के अन्य अनुवाद भी हुए हैं, लेकिन उनका शीर्षक वही रखा गया है। रघुवीर सहाय ने कथ्य या संदेश को ध्वनित करने वाले शीर्षक - ‘बरनम वन’ - का चयन किया है, जिससे महत्त्वाकांक्षाओं के किसी असीम जंगल का ध्वनन एवं रूपायन हो जाता है।
इसी प्रकार, द्वितीय अंक के पहले दृश्य का एक संवाद है -
‘And she goes down at eleven’. सहाय जी का अनुवाद अर्थादेश का उपयुक्त उदाहरण है - ‘और चांद बारह बजे डूबता है।’ यहाँ दो दृष्टियों से अनुवाद सराहनीय है। एक तो
'She' के लिए संदर्भगत संज्ञा (चांद) दे दी गई है और दूसरे, भारतीय परम्परा के अनुसार चांद को पुल्लिंग रखा गया है। इसी तरह से
'everlasting bonfire' के लिए उन्होंने लक्ष्यभाषा की संस्कृति का सार्थक प्रतीक लिया - ‘कौरव का अग्निकुंड’। लेकिन
'Neptune's ocean' का उन्होंने ‘सातों सिन्धु’ अनुवाद किया है, जिसमें अर्थ-संकोच है। रोमन मिथकशास्त्र में
‘Neptune’ समुद्र का देवता है। ‘सातों सिंधु’ से संदर्भगत अर्थ तो ध्वनित हो जाता है, लेकिन ‘देवता’ वाला भाव नहीं आ पाता है। वस्तुतः यहाँ ‘समुद्र देवता’ अनुवाद उपयुक्त होता।
सहाय जी ने जो अनुकूलन किए हैं, उसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मंचीय विधान की दृष्टि से किए गए अनुकूलन हैं। जगह-जगह उन्होंने आवश्यकतानुसार मंचन हेतु निर्देश दिए हैं और पात्रों के संवादों को छोटा या विभाजित किया है। जैसे, दरबान की लम्बी झंुझलाहट और डायनों का संवाद। शेक्सपियर के पात्र अपने संवाद के क्रम में विभिन्न पात्रों से एक-साथ मुखातिब होते हैं। शेक्सपियर ने वहाँ स्पष्ट संकेत नहीं दिए हैं कि कौन-सी पंक्ति किस पात्र को संबोधित कर कही गई है। रघुवीर सहाय ने ‘बरनम वन’ में मंचन की सुविधा हेतु इसे निर्दिष्ट कर दिया है।
लेकिन अनुकूलन के क्रम में कुछ चीजें खटकने वाली भी हैं। प्रथम अंक के दूसरे दृश्य में उन्होंने रोस के साथ एंगस का भी प्रवेश दिखाया है। जबकि वहाँ उसका कोई संवाद तक नहीं है। पूरे दृश्य में एंगस की (मौन) उपस्थिति का कोई औचित्य नजर नहीं आता है। आगे चतुर्थ अंक के पहले दृश्य में ‘हेकेट’ नामक पात्र को गायब कर दिया गया है। ग्रीक मिथक में यह काले जादू की देवी है। ‘बच्चन’ ने अपने अनुवाद में ‘मसानी देवी’ के नाम से इसकी उपस्थिति बरकरार रखी है। साथ ही, ‘बरनम वन’ के इस दृश्य में डायनों के मंत्रोच्चार के समय मैकबेथ का प्रवेश नहीं दिखाया गया है, सीधे संवाद शुरू हैं। वस्तुतः इस दृश्य के अनुकूलन से नाटकीय आवेग की गत्वरता और वातावरण-सृष्टि थोड़ी बाधित होती है। इसी अंक के तीसरे दृश्य में भी ‘डाॅक्टर’ को सहाय जी ने नदारद कर दिया है।
द्वितीय अंक के प्रथम दृश्य में, पहरे पर बैठा बाँको मैकबेथ के प्रवेश करते ही पूछता है -
‘Who's there’ तब मैकबेथ जवाब देता है -
‘A Friend’ ‘बरनम वन’ में बाँको का संवाद अपनी जगह से गायब है और मैकबेथ के प्रवेश के पूर्व ही फ्लियांस के साथ बातचीत में जुड़ा है। बाँको की चैकसी और परिस्थिति की नाटकीयता इससे ह्रासित होती दिखती है। मैकबेथ-बाँको संवाद में मैकबेथ के प्रति बाँको के आदरसूचक संबोधनों को ‘तुम’ से प्रतिस्थापित करने का कारण भी समझ में नहीं आता।
‘बरनम वन’ के अनुवादक ने मूल नाटक के पंचम अंक के छठे दृश्य को पूरा-का-पूरा गायब कर दिया है और सातवें दृश्य को (अंतिम दृश्य) सुविधानुसार दो दृश्यों में बाँट दिया है। इस प्रकार कुल दृश्यों की संख्या मूल के अनुरूप ही है। लेकिन अंतिम दृश्य का विभाजन कुछ जमता नहीं। नाटक के चरम,
(climax) पर जब मैकबेथ और मैकडफ खून के प्यासे होकर एक-दूसरे का पीछा करते हुए बार-बार मंच पर आते-जाते हैं और अभी तक मैकबेथ की अमरता (नारी के गर्भ से उत्पन्न कोई उसे मार नहीं सकता था) को भी चुनौती नहीं दिख रही होती है, दर्शकों या पाठकों की उत्तेजना या नाटकीय आवेग को इस तरह से खंडित करना महज सुविधाजनक हो सकता है, तर्कसंगत नहीं।
बहरहाल, इस नुक्ताचीनी का यह अर्थ नहीं कि रघुवीर सहाय का अनुवाद महज दोषों से ही आबाद है। सच्चाई यह है कि इन छिटपुट कमियों के बावजूद ‘बरनम वन’ नाट्यानुवाद का एक आदर्श प्रस्तुत करता है। नाटक संवादात्मक कथा, कार्य-व्यापार और अभिनय का समन्वित रूप होता है। शेक्सपियर के नाटकों के विषय में यह प्रसिद्ध है कि -
‘He wrote not for the page, but for the stage’. ‘बरनम वन’ की भाषा, भाव या अर्थ तथा परिवेश का समन्वित प्रभाव ;
Total integrated effect, अपवादों को छोड़कर, अपने सुंघड़ मंचीय विधान के कारण निःसंदेह सराहनीय है। सफल नाट्यानुवाद के विभिन्न पक्षों - अर्थ, शैली, सम्प्रेषणीयता एवं सौंदर्यात्मकता की इसमें आदर्श उपस्थिति है। वस्तुतः, सहायजी के इस अनुवाद में अनुवादक की स्वायत्तता और निष्ठा का यथोचित तालमेल है और इसका प्रमाण इसकी प्रस्तुतियाँ हैं। इसका वाचन भी प्रवाहमय और प्रभावोत्पादक हो सकता है।
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, देवचंद महाविद्यालय, हाजीपुर
aloksinghjnu@gmail.com
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