शोध आलेख : अवध की दरबारी राजनीति में बेगमें और ख्वाजासराय (1760-1818 ईस्वी) / समीर मणि त्रिपाठी

अवध की दरबारी राजनीति में बेगमें और ख्वाजासराय (1760-1818 ईस्वी)
- समीर मणि त्रिपाठी


शोध सार : अवध के इतिहास लेखन में नवाब, कुलीन वर्ग और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के के संबंधों को प्रमुखता से दर्शाया गया है। प्रस्तुत शोध आलेख अवध के इतिहास में विद्यमान, महत्वपूर्ण परंतु कम चर्चित अन्य किरदारों, बेगमों और ख्वाजासरायों की भूमिका पर प्रकाश डालने  का एक प्रयास है। अवध की स्थापना से लेकर 1857 ईस्वी की क्रांति तक अवध के दरबार में बेगम और उनके ख्वाजासरायों का  सक्रिय और महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ये दोनों समूह नवाब शुजा-उद-दौला (1754-1775 ईस्वी ) के शासनकाल तक अथाह सम्पत्ति और सम्मान के मालिक थे। हालांकि आने वाले समय में उनकी सम्पत्ति और सत्ता ही उनके और नवाब के बीच संघर्ष का कारण बनती है। नवाब आसफ-उद-दौला(1775-1797 ईस्वी) के राज्यकाल में बेगमों और ख्वाजासरायों को उनकी पद और प्रतिष्ठा के कारण दरबार राजनीति के कुटिल षडयंत्रों का प्रतिभागी बनना पड़ा। इस आलेख का उद्देशय उन ऐतिहासिक परिस्थितियों का विश्लेषण करना है, जिनमें बेगमों और ख्वाजासरायों ने नवाब और उनके दरबारियों का सामना किया और विषम परिस्थितियों में भी अपनी एक पहचान बनाए रखी और सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं किया।  यह शोधपत्र ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की इस पूरे मामले में भूमिका की समीक्षा करेगा कि किस प्रकार कंपनी ने बेगमों के खिलाफ नवाब की सहायता की।

 

बीज शब्द : अवध, नवाब, बेगम, ख्वाजासराय, बहू बेगम, जवाहर अली खान, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, आसफ-उद-दौला, वारेन हेस्टिंग्स, फैजाबाद।

 

प्रस्तावना : भारतीय इतिहास में 18वीं शताब्दी को संक्रमण काल माना जाता है। इस शताब्दी में मुगल साम्राज्य अपनी अवनति की ओर अग्रसर था। ऐसे परिस्थितियों में तीन राज्य मुगलों के उत्तराधिकारियों के रूप में उभरे : अवध, हैदराबाद, और बंगाल। उत्तर भारत में अवध, पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य के राजनीतिक और सांस्कृतिक विरासत के उत्तराधिकारी के रूप में उभर कर सामने आता है। 1724 ईस्वी में, सआदत अली खान ने अवध राज्य की स्थापना की, जो लखनऊ से बनारस और रोहिलखंड से गोरखपुर तक फैला हुआ था। गंगा, यमुना और सरयू नदियों के उपजाऊ कृषि उत्पादन क्षेत्रों में स्थित होने के कारण अवध तत्कालीन भारत के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक था हालांकि, अवध के स्वायत्त दरबार की राजनीति ने जल्दी ही एक ऐतिहासिक मोड़ ले लिया और यह विभिन्न शक्तिशाली समूहों के लिए टकराव का एक केंद्र बिंदु बन गया। 1764 ईस्वी में बक्सर की लड़ाई में नवाब शुजा-उद-दौला की हार के बाद, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध के आंतरिक मामलों में में हस्तक्षेप करना प्रारंभ किया, जिसके परिणामस्वरूप 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अवध की राजनीतिक आबोहवा में काफी बदलाव आया। 

 

प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, विभिन्न राजपरिवारों के वंशवादी इतिहास में महिलाओं और उनके निकट सेवकों की भागीदारी, भारतीय इतिहास का  निरंतर तत्व रहा है। परंतु जब भी अवध के इतिहास को संबोधित किया जाता है, तो ज्यादातर विद्वानों ने अवध के नवाबों के इतिहास और अवध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते प्रभाव का विश्लेषण करने का प्रयास किया है, जबकि सदर--जहाँ बेगम से लेकर बेगम हजरत महल तक, बेगमों ने अवध के इतिहास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। नवाबों के हरम में पत्नियों के अतिरिक्त भी कई सारी नौकरानियाँ और रखैलें हुआ करती थीं। बेगम सामान्यतया नवाब की माँ और उनकी कानूनी पत्नियों का सामूहिक नाम था। हरम में एक पदानुक्रम था और केवल कुछ बेगमों के साथ सम्मान के साथ व्यवहार किया जाता था। बहू बेगम के मामले में, जो नवाब शुजा-उद-दौला की विधवा और नवाब आसफ-उद-दौला की मां थीं, के समक्ष बाकी बेगमों को बैठने की अनुमति नहीं थी और उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था (सांथा: 1980: 65) अठारहवीं शताब्दी में दरबार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली दो बेगम सदर--जहान बेगम और बहू बेगम थीं। "इस राज्य के शासकों की लगभग सभी मुख्य पत्नियां (बेगम) ईस्ट इंडिया कंपनी और अवध के नवाबों के बीच पत्राचार में लगातार शामिल रही हैं, और वारेन हेस्टिंग्स जैसे कुछ गवर्नर-जनरल का अध्ययन सदर--जहान बेगम और बहू बेगम के अध्ययन के बिना अधूरा है।( सांथा: 1980: 6) अवध की बेगमों से सम्पत्ति की लूट, इंग्लैंड की संसद में वारेन हेस्टिंग्स पर चलाए गए महाभियोग में एक प्राथमिक आरोप था। इसी तरह, अवध मेंख्वाजासराय (हिजड़े) केवल हरम तक सीमित नहीं रहे. अपितु उन्होंने राजस्व अधिकारियों और सैन्य कमांडरों जैसी प्रशासनिक भूमिकाओं में भी कुशलतापूर्वक  कार्य किया। दक्षिण एशिया में किसी भी समकालीन राज्य (और शायद व्यापक इस्लामी दुनिया में भी) की तुलना में अवध के नवाबों द्वारा ख्वाजासरायों को दरबार में अधिक महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व दिए गए थे। ( एबोट: 2019: 79) उदाहरण के लिए, जवाहर अली खान  बहू बेगम के कोषाध्यक्ष और बेगम की जागीरों नाजिम (उप-प्रबंधक) थे। हिंची के अनुसार  “अल्मास अली खान नाम का एक ख्वाजासराय अवध के एक तिहाई से अधिक का आमिल (भू-राजस्व का अधिकारी), एक महत्वपूर्ण सैन्य बल का कमांडर था।” (हिंची: 2013 : 56) रूबी लाल के अनुसार हरम की महिलाएँ आंतरिक मसलों के साथ-साथ सार्वजनिक-राजनीतिक मामलों में भी सक्रिय भूमिका का निर्वहन करती थीं और घरेलु जीवन से सार्वजनिक जीवन तक की उनकी यात्रा पर विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है। ( रूबी लाल: 2005: भूमिका)

  

दरबारी राजनीति, सत्ता संघर्ष और बेगमों और ख्वाजासरायों से धन की लूट :

 

18वीं शताब्दी में, अवध की दरबारी राजनीति में आर्थिक कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नवाब और ईस्ट इंडिया कंपनी दोनों अपने आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए नए तरीके खोज रहे थे; कंपनी दक्षिण में युद्धों का आर्थिक बोझ अवध पर डालना चाहती थी, जबकि नवाब आसानी से पैसा निकालने का तरीका ढूंढकर कंपनी की आर्थिक मांगों और व्यक्तिगत खर्चों को पूरा करना चाहते थे। नवाब और कंपनी दोनों अवध की बेगमों को अपनी आर्थिक मांगों को पूरा करने के लिए सबसे अच्छा विकल्प मानते थे। शुजा-उद-दौला की पत्नी बहू बेगम ने अपनी सास सदर--जहाँ बेगम की सलाह के खिलाफ आसफ़-उद-दौला को शुजा-उद-दौला के उत्तराधिकारी के रूप में यह कहकर चुना था कि उनके पूरे जीवन में उनका केवल एक ही बेटा है, बुरा या अच्छा, वह उनका एकमात्र खजाना था। (फैज़ बख्श: 1888: 12) हालाँकि, बाद की घटनाओं से पता चला कि नया उत्तराधिकारी नवाब के पद के लिए अक्षम था। जिस बेटे को बहू बेगम ने चुना था, उसी बेटे ने सेना को फैजाबाद में उसके महल में भेजकर अपनी माँ से पैसे वसूलने की कोशिश की। जब आसफ-उद-दौला नवाब बना, तो उसने अपनी राजधानी लखनऊ स्थानांतरित कर दी, जिससे अवध में सत्ता के दो केंद्र केंद्र बनेः लखनऊ और फैजाबाद। नए नवाब ने ईस्ट इंडिया कंपनी के ऋणों को चुकाने के लिए अपने पिता के खजाने का उपयोग करने की मांग की। ईस्ट इंडिया कंपनी का आर्थिक बोझ कुछ इस प्रकार था कि प्रत्येक वर्ष पिछले वर्ष से अधिक धनराशि चुकाने के बाद भी कंपनी की  मांग हर साल बढ़ जाती थी और नवाब इन मांगों को पूरा करने में विफल रहता था। कंपनी नवाब से प्रति वर्ष धन की माँग इसलिए कर रही थी क्योंकि उसने अवध की सुरक्षा की जिम्मेदारी के लिए एक सहायक सेना का गठन किया था और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि अवध के उपर यह सहायक सेना बक्सर के युद्ध के बाद ज़बरदस्ती थोपी गई थी।

इस पूरे प्रकरण में बहस का प्राथमिक मुद्दा यह था कि शुजा-उद-दौला की मृत्यु के बाद उसके बेगमों के पास सुरक्षित खजाने पर अधिकार किसका था? अवध के नवाब या फिर बेगम का? इसके अलावा, शुजा-उद-दौला की मृत्यु के समय, बेगमों और उनके ख्वाजासरायों के पास कई जागीरें थीं, जिनका राजस्व शाही खजाने के बजाय बेगमों को जाता था। विद्वानों ने अवध के कोषागार पर नवाब और बेगम के दावे  और कम्पनी की आर्थिक माँगों को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया। कॉलिन डेविस और रिचर्ड बार्नेट उपनिवेशवादी जैसे विद्वानों ने तर्क दिया कि नए नवाब के पास खजाने से धन हस्तांतरित करने और जागीरों को फिर से आवंटित करने का अधिकार था क्योंकि नवाब शुजा-उद-दौला अपने राजस्व का एक हिस्सा बेगम के पास जमा करते थे, और बेगमों और उनके हिजड़ों को जागीरों की जिम्मेदारी केवल कार्यवाहक के रूप में सौंपी गई थी। ( डेविस: 1939: 125) दूसरी ओर के.एस. सांथा के विचार इन विद्वानों के विपरीत हैं। उनका तर्क है कि बेगम के पास जमा किया गया पैसा उनकी निजी संपत्ति थी क्योंकि पूर्व नवाब शुजा-उद-दौला ने बक्सर की हार के बाद अंग्रेजों की आर्थिक क्षतिपूर्ति की माँगों को पूरा करने के लिए बहू बेगम की निजी संपत्ति का इस्तेमाल किया था। (सांथा: 1980: 64)  इस पूरे घटनाक्रम में नवाब, ईस्ट इंडिया कंपनी और बेगमों  के बीच खजाने और जागीरों से संबंधित किस तरह की बातचीत हुई? उन समझौतों के परिणाम क्या थे? नवाब और बेगम दोनों अपने अधिकारों की पुष्टि करने के लिए कंपनी को पत्र लिखते थे, और अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से कंपनी की मध्यस्थता की माँग करते थे। बहू बेगम ने बहार अली खान को अपने प्रतिनिधि के रूप में कलकत्ता भेजा और नवाब ने भी पत्रों के माध्यम से कंपनी से तटस्थ रहने की मांग की थी विद्वानों ने इस पूरे घटनाक्रम की व्याख्या इस तरह से की कि नवाब और बेगमों ने कंपनी को सर्वोच्च शक्ति माना और अपने राज्य के आंतरिक मामलों में कंपनी की सहायता मांगी। इन प्रयासों ने अंग्रेजों को दोनों तरफ से प्रवेश करने और उन दोनों से उपहार और धन प्राप्त करने की अनुमति दी। यह पूरा घटनाक्रम इस कहावत को चरितार्थ करता है कि कैसे दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर पूरी रोटी खा जाता है।

 

हालांकि, कॉलिन डेविस और रिचर्ड बार्नेट दोनों का तर्क है कि बेगमों के प्रति कंपनी का सहानुभूतिपूर्ण रवैया बनारस के राजा चेत सिंह (1781 ईस्वी ) के विद्रोह के बाद ही बदलता है और कंपनी बेगमों को संदिग्ध निगाहों से देखने लगती है। कॉलिन डेविस के अनुसार, बनारस में विद्रोह के समय बेगमों ने अपनी शक्ति को मजबूत करने और लाभ उठाने के लिए अवध के अन्य हिस्सों जैसे बहराइच और गोरखपुर में विद्रोहियों का समर्थन किया था। (डेविस: 1939: 138) रिचर्ड बार्नेट का तर्क है कि कंपनी द्वारा विद्रोह की जाँच में अवध और बिहार में अंग्रेजों के खिलाफ हिंसा को भड़काने में बेगमों और उनके ख्वाजासरायों की भूमिका की पुष्टि की गयी। (बर्नेट: 1980: 199-200) हालाँकि, किसी भी अन्य स्रोत से इस दावे की पुष्टि नहीं होती है। यह ध्यान देने योग्य है कि बार्नेट ने   इस पूरे प्रकरण का एकपक्षीय विवरण दिया है। अगर उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों के पत्राचार विश्लेषण भी किया होता तो, यह स्पष्ट था कि बेगमों की प्रत्यक्ष संलिप्तता का कोई सबूत नहीं था, हालांकि हम कह सकते हैं कि उन्हें यह पता था कि  अंग्रेजों के खिलाफ क्या चल रहा था। इस मामले पर बेगमों के क्या विचार थे? बहू बेगम द्वारा कंपनी के बोर्ड को लिखे एक पत्र से पता चलता है कि बेगमों ने कंपनी के खिलाफ कोई शत्रुतापूर्ण भूमिका नहीं निभाई और उन्होंने केवल उस विद्रोह के परिणामस्वरूप आत्मरक्षा के उद्देश्यों से खुद को सशस्त्र किया | (ईस्ट इंडिया कम्पनी पत्राचार: 1786: 16-17) जैसा कि सांथा का तर्क है कि; "चेत सिंह के विद्रोह में बेगमों के खिलाफ एकमात्र सबूत अफवाह और केवल अफवाहों पर आधारित है, और यह सबूत हेस्टिंग्स द्वारा कंपनी का समर्थन वापस लेकर बेगमों को दंडित करने के फैसले के बाद लिए गए हलफनामों के रूप में है।" (सांथा: 1980: 94) चूंकि कंपनी ने अब बेगमों और नवाब के मामलों में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था, इसलिए नवाब को अपनी मां और दादी की संपत्ति को लूटने और उनकी जागीरों को फिर से वितरित करने से रोकने वाला कोई नहीं था। इसके बारे में अजीब बात यह थी कि जहां अंग्रेजों यह दावा करते थे कि वे अवध के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते, वहीं वे बेगमों के खिलाफ नवाब के साथ मिलकर एक सेना भी तैनात कर रहे थे। तो फिर, इस सत्ता संघर्ष का परिणाम क्या था? बेगमों ने नवाब और कंपनी की संयुक्त सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उनके किले और फैजाबाद की अन्य संपत्तियों पर नवाब और ब्रिटिश कंपनी ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजों और अवध की इस संयुक्त सेना ने 1781 ईस्वी में बहू बेगम और सदर--जहान बेगम को 100 लाख रुपये देने के लिए मजबूर किया। इसके परिणामस्वरूप हेस्टिंग्स को अपने मराठा और कर्नाटक युद्धों से लड़ने के लिए आवश्यक धन प्रदान किया गया और आसफ-उद-दौला को अपनी मां द्वारा प्रशासित कई जागीरों को पुनः प्राप्त करने की अनुमति मिली। ( Chancey: 2007: 176) बेगम के विश्वस्त सेवकों (ख्वाजासरायों) के लिए इससे भी बुरा होने वाला था, जिन्हें बेगम और नवाब के बीच अविश्वास की खाई को बढ़ाने के लिए दोषी ठहराया गया था। बेगमों के दो प्रिय ख्वाजासरायों जवाहर अली खान और बहार अली खान को हिरासत में लिया गया और लखनऊ भेज दिया गया, जहाँ उनसे बेगमों की अन्य संपत्तियों के बारे में पूछताछ की गई तथा जेल से उनकी रिहाई के बदले पैसे की मांग की गई। फैज बख्श के अनुसारजवाहर अली खान और बहार अली खान को लूटी गई विभिन्न वस्तुओं के साथ लखनऊ ले जाया गया, जहां उन्हें शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया और उनके पैरों में जंजीरों से बाँध कर घसीटा गया। बहू बेगम के 5 लाख रुपये देने के लिए सहमत होने के बाद ही जवाहर अली को जेल से रिहा किया गया। ( फैज़ बख्श: 1888: 205-206) इस घटना की प्रमाणिकता ब्रिटिश स्रोतों से भी ज्ञात होती है, " कि फैजाबाद में अशांति के लिए जिम्मेदार और बड़ी राशि की संपत्ति रखने वाले दो नपुंसकों को बंदी बना लिया गया था।" (ईस्ट इंडिया कम्पनी पत्राचार: 1786: 48)  यह कितना शर्मनाक था कि इतने बड़े क्षेत्र के राजा ने पैसे के लिए हिजड़ों को भी कैद कर लिया और अपनी मां से फिरौती लेने के बाद ही उन्हें मुक्त किया।  

 

इस घटना के तथ्यों के विश्लेषण से काफी दिलचस्प बातों का पता चलता है। इस तथ्य के बावजूद कि उस समय संसद में बेगमों से धन-सम्पति की जबरन वसूली पर चर्चा और आलोचना की गई थी, फिर नवाब या बेगम कोई भी पक्ष किसी भी चीज के लिए अंग्रेजों की आलोचना नहीं करता है। यहां मैं बेगमों और नवाब के बीच हुए एक समझौते का उदाहरण देना चाहूंगा, जिसे अंग्रेजी अधिकारियों के पत्रों से भी सत्यापित किया जा सकता है। जब नवाब लगातार अपनी माताओं से पैसे मांग रहा था, तो उनके बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, और वे दोनों इस बात पर सहमत हुए कि एक निश्चित राशि (लगभग 60,00,000 रुपये) देने के बाद नवाब अपनी माताओं से आगे कोई पैसा नहीं मांगेगा। "इसके बाद, मैं, आसफ-उद-दौला, शुजा-उद-दौला के समय में संचित धन या कीमती वस्तुओं, या गुलामों, पुरुष या महिला, या जागीरों या महलों पर कोई दावा या मांग नहीं करूंगा।” (फैज़ बख्श: 1888: 48) ब्रिटिश रेसीडेंट भी बेगम को आश्वासन देते हैं, " इस संधि, जिसमें ब्रिटिश प्रेसीडेंट ब्रिस्टो एक पक्ष हैं, के उपरांत यह सरकार खुद को आगे किसी भी प्रकार से बेगमों को धन की मांग या छेड़छाड़ से बचाने के लिए बाध्य समझेगी।" ((ईस्ट इंडिया कम्पनी पत्राचार: 1786: 46) के.एस. सांथा का तर्क है कि कंपनी के लखनऊ के रेजीडेंट (प्रशासनिक अधिकारी) मिडलटन ने भी बेगमों से वादा किया था कि अगर वे नवाब को एक विशिष्ट राशि प्रदान कर देती हैं  तो नवाब और पैसे की मांग नहीं करेगा। (सांथा: 1980: 70) हालांकि बेगमों द्वारा नवाब को नियमित रूप से पैसे देने के बावजूद, नवाब की बेगमों से पैसे की मांग कभी नहीं रुकी और ना ही अंग्रेजों ने अपने वचन के बावजूद नवाब की अनुचित मांग करने से रोका।

 

पूरी राशि देने के बाद भी नवाब ने और अधिक पैसे की मांग की क्योंकि नवाब नें बहुमूल्य रत्नों और हाथियों के मूल्य को खजाने का वास्तविक हिस्सा मानने से इंकार कर दिया। इस बार यह भी कहा गया कि बेगमों की जागीरों को उनके ख्वाजासरायों द्वारा अच्छे  से प्रशासित नहीं किया गया था। (फैज़ बख्श: 1888: 100)  कम्पनी ने नवाब की अनुचित माँगों को इस तर्क के आधार पर समर्थन दिया कि नवाब, अवध राजघराने का वास्तविक उत्तराधिकारी था | (ईस्ट इंडिया कम्पनी पत्राचार: 1786: 36)  यह निश्चित रूप से नवाब और कंपनी द्वारा बेगमों के पास वर्षों से संचित धन को लूटने का एक बहाना था।

 

यहाँ एक प्रश्न पर विचार-विमर्श करना आवश्यक है कि क्या अगर  बेगम और ख्वाजासराय भी पुरुष होते तो क्या नवाब उनके खिलाफ इस तरह के कठोर कदम उठाते? यदि किसी पुरुष के पास इतना धन और शक्ति होती, तो नवाब ने उसके खिलाफ इस तरह की कार्रवाइयों को लागू करने से पहले लंबा और कठिन विचार किया होता, क्योंकि उसे उस समय सैन्य प्रतिरोध की उम्मीद होती, जो बेगम के मामले में नहीं था। बेगमें नवाब की माँ और दादी थीं और उन्होंने नवाब के राजनीतिक वर्चस्व को कभी चुनौती नहीं दी। जब आसफ-उद-दौला ने अपनी सेना के साथ फैजाबाद शहर आक्रमण किया तो बेगमों ने अपने सैनिकों को प्रतिरोध करने से यह कहते हुए रोक दिया किनवाब आपका स्वामी है और सैनिक नवाब गुलाम हैं, और यह आपकी वफादारी कैसे है? क्या आप अपने स्वामी से हथियारों से लड़ने के लिए तैयार हैं? “(फैज़ बख्श: 1888: 105) इस प्रकार की घटनाओं से पता चलता है कि हालाँकि बेगम संपत्ति और भूमि के मामले में शक्तिशाली थीं, लेकिन वे नवाब की शक्ति के लिए खतरा नहीं थीं।

 

निष्कर्ष : 18वीं शताब्दी में, अवध के इतिहास को सदर--जहान और बहू बेगम जैसी उल्लेखनीय बेगमों और उनके भरोसेमंद हिजड़ों द्वारा प्रबुद्ध किया गया था।  ऐसा प्रतीत होता है कि सभी बेगमों को नवाब की प्रमुख बेगमों के रूप में उनके कंधों पर पड़े राजनीतिक कर्तव्यों के बारे में पूरी तरह से पता था। शासकों की उदासीनता, यहां तक कि लापरवाही के बावजूद, बेगमों ने नवाब और राज्य के हितों के प्रति उल्लेखनीय निष्ठा प्रदर्शित की।

 

इस आलेख में मैंने ज्यादातर 18वीं शताब्दी के दौरान अवध में दरबारी राजनीति और धन और शक्ति के संघर्षों को चित्रित करने का प्रयास किया है। आसफ-उद-दौला के राज्यारोहण से अवध का इतिहास दरबार में राजनीति की ओर बढ़ा और इसने नवाब और ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए बेगमों और ख्वाजासरायों की संपत्ति और शक्ति को हड़पने का अवसर पैदा किया। इन सभी विकासों का अब तक केवल आर्थिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया गया है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, लैंगिक असमानता आदि जैसे तत्वों की अनदेखी की गई है। स्रोतों से यह स्पष्ट है कि उनकी महत्वपूर्ण भूमिका केवल आर्थिक रूप के संदर्भ में नहीं थी, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव के संदर्भ में भी थी।

 

सन्दर्भ :
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समीर मणि त्रिपाठी

शोध छात्र, जवाहरलाल नेहरुविश्वविद्यालय, नई दिल्ली

sameercpj2001@gmail.com, 7880311832

  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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