डायरी
- सत्यनारायण व्यास
08 अक्टूबर, 2024 / होना सत्य
यह ब्रह्माण्ड, जितना दिखता है और जो नहीं दिखता- किसी के द्वारा बनाया नहीं गया बल्कि ‘हुआ’ है। बनाने और होने में फ़र्क है। बनाने में, बनाने वाला, साधन और पदार्थ(कर्ता, निमित्त व उपादान) की आवश्यकता, जबकि ‘होने’ में कुछ भी नहीं चाहिए। ‘होना’ तो स्वतःस्फूर्त है, ऑटोमेटिक है। माँ के उदर में शिशु होता है, बनाया नहीं जाता। सभी कुछ ‘हुआ’ है, बनाया नहीं गया। सो, जगत् से भिन्न ईश्वर, ब्रह्म आदि की सत्ता मानव मस्तिष्क का फितूर है। हम ईश्वर नामक काल्पनिक सत्ता से भयभीत हुए बिना ढंग से जी भी नहीं पाते। इतना ज़रूर है कि यह सारी सृष्टि और हम एक ही परमतत्त्व- परमाणु की निर्मिति हैं, इसमें कोई दो राय नहीं। परमाणु और परिवर्तन दोनों सत्य हैं और एक-दूजे से जुड़े हुए, बल्कि अभिन्न हैं- जल और तरंग की भांति। परमाणु के बदलते ही प्राणि-पदार्थ के रूपाकार बदल जाते हैं- भीतरी सत्ता अक्षुण्ण रहती है।
हमें ईश्वर और मौत का डर ज़ोरदार सताए रहता है। जबकि न तो ईश्वर है न हमारी मौत। ‘ईश्वर’ नामक सत्ता है ही नहीं और मौत सिर्फ़ एक परिवर्तन है। अतः भय का कोई कारण नहीं। हमारा सारा डर मनगढ़ंत है। अगर सृष्टि बनाने वाला होता तो कहाँ वह बैठा होगा, कहाँ से यह अपार सामग्री लाया होगा और औजार-पानी कहाँ से जुटाए होंगे। हज़ारों बरस की दार्शनिकता में इनसान का पागलपन भी शामिल है। किसी एक के दिमाग़ से निकली बात, जो शुद्ध कल्पना मात्र है- को सारे दिमाग़ और दिल क्यों मान लें? क्यों?
प्रश्न-चिह्न
राहुल सांकृत्यायन कह गए हैं की भारतीय दर्शन धर्म का लग्गू-भग्गू रहा है, बात में दम है। धर्म आस्था का विषय। दर्शन, तर्क और बुद्धि का। सो, जैन-बौद्ध को छोड़कर बाक़ी भारतीय चिंतन धर्म और ईश्वर के प्रत्यय से दूषित हैं। शुद्धता, निस्संगता नहीं रही। ईश्वर को मानकर चलें, वेद को परम सत्य मानकर चलें, तो दर्शन तो वहीं अंधा और विकलांग हो गया। न तो निष्पक्षता रही और न तत्त्व चिंतन की शुचिता। दर्शन पर धर्म हावी हो तो दर्शन खतम। क्या बचा? धर्म और ईश्वर की वकालत और पैरवी। न्याय और नव्य-न्याय तो अधिकांश में प्रतिभा का प्रलाप है। चिंतन पहाड़ जितना और तत्त्व चने जितना। बुद्धि, तर्क और भाषा की खिलवाड़। कोरा शब्दजाल। ख़ुद शंकर ‘विवेक चूड़ामणि’ में इसे तसदीक कर गए हैं- ‘शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमकारणं’ और वे ख़ुद इसके शिकारी और शिकार दोनों रहे। भारतीय दर्शन में गांभीर्य के साथ वितंडा भी कम नहीं। कहीं तो घनघोर बौद्धिक कसरत। विवेकानंद षड्दर्शन को विरोधी के बजाय पूरक बनाते हैं। पर ऐसा लगता नहीं। पूरे विरोधी भी नहीं। हाँ, अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग तो है। हटकर अलग सोचने की भूख। इस भूख ने ही दर्शन का बखेड़ा खड़ा किया है। अपने-अपने झंडे गाड़े। नागार्जुन का ‘शून्य’, वेदांत का ‘ब्रह्म’, वैशेषिक का ‘अणु’, सांख्य के ‘प्रकृति-पुरुष’, न्याय का ‘प्रमाण’, योग का ‘विरोध’ और मीमांसा का ‘कर्म’- सबके सब दूर की कौड़ियाँ लेकर आए हैं। द्रविड़ प्राणायाम के साथ।
10 अक्टूबर, 2024 / रहस्य
आत्मज्ञान सबसे बड़ा और सच्चा ज्ञान। ख़ुद को जान लिया- शरीर में छिपी अपनी सत्ता को। इसका मतलब सब कुछ जान लिया। सबको जान लिया। फिर क्या बचा? अनेक में छिपी एक मूल सत्ता सर्वस्व ज्ञान का उत्स। सबकी चेतना एक तो सबका दुःख भी एक। उसे दूर करो। सबके दुःख को जानना, उसे दूर करने में अपना योगदान सबसे बड़ा और महान कर्म। कर्म के साथ है दायित्व। इनसान होने का। करुणा से उत्पन्न अहिंसा, अंहिंसा से उपजा प्रेम। यही रहस्य है, जो खुल गया।
16 अक्टूबर, 2024 / चलते रहो
सूर्य चल रहा है। पृथ्वी, चंद्रमा सभी ग्रह नक्षत्र चल रहे हैं। लगातार बिना रुके। बिना एक क्षण विश्राम के। कीट, पतंगे तमाम प्राणी भी चलते हैं। मनुष्य भी चलता है। लेकिन ये सब विश्राम करते हैं। सोते हैं। विश्राम-सोना ग़लत नहीं है। निर्जीव-सजीव का फ़र्क है। चलना कर्म है। सूर्यादि ग्रहों से सीखने की बात है, कर्मरत रहने की। आलस्य न करने की। आलस्य और विश्राम में अंतर है। आलस्य बुरा है, प्रकृति-विरुद्ध है। विश्राम जीवित की शर्त है, ज़रूरी है। पर आलस्य तो मनगढ़ंत छूट है, जो ग़लत है।
उपनिषद कथन है- ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा। एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।’ गीता कहती है- ‘न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।’ चलना, कर्मशील रहना, अच्छे मनुष्य की पहचान है। उसके तन-मन से सदा स्वस्थ रहने का वरदान है।
17 अक्टूबर, 2024 / दृश्य-अदृश्य
वे सब काल के रथ पर बैठकर चले गए, जाने कहाँ? बाई, काकासा, जीजी, दादा, भाईसा, मुरली, धर्म पिता-माता- सब उसी रथ में चले गए। रथ के पहियों की आवाज़ तक नहीं आई। अदृश्य रथ आया था बार-बार। अदृश्य में आया, अदृश्य होकर आया और उन्हें लेकर चला गया। दृश्य से अदृश्य तक जगत का फैलाव है। दिखे तो क्या और न दिखे तो क्या? पुरखे गीता में कह गए हैं- अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्त मध्यानि भारत। अव्यक्त निधनान्येव तत्र का परिदेवना। काल यहाँ भी है और वहाँ भी है। पर कहीं दिखता नहीं। न दिखने वाले की ताक़त इतनी ज़बरदस्त। दिखता है जग असहाय और लाचार। पर हम छीजें क्यों? यह क्यों न मान लें कि यह दृश्य दुनिया तो हमारी है ही, वह अदृश्य दुनिया भी हमारी ही है बस।
18 अक्टूबर, 2024 / भीतर-बाहर एक
देखो, ईश्वर ईश्वर की पूजा कर रहा है। पूजाकर्ता में ईश्वर न होता तो वह पूजा नहीं कर सकता था। एक ईश्वर बाहर है और एक ईश्वर देह में है- यह सोचना खंडित है। ईश्वर दो नहीं हो सकते। भीतर-बाहर और सर्वत्र एक ही सत्ता है- जिसे ‘ईश्वर’ संज्ञा दी गई है।
मनुष्य को अपने भीतर ईश्वर मान लेने में जाने क्या तकलीफ़ है? उसके भीतर मौज़ूद होते, जाने क्यों वह ख़ुद को तुच्छ, अकिंचन, शरणागत और दास समझता है जबकि वह क्षेत्रज्ञ है, देह नहीं देह का धारक है। इसी कमज़ोरी और नासमझी ने अद्वैतवाद से अपना माथा भिड़ाया। मगज़मारी की और सार कुछ नहीं निकला। चाहे वह द्वैताद्वैत हो, शुद्धाद्वैत हो या विशिष्टाद्वैत हो। शब्दों से खिलवाड़ है। बौद्धिक व्यायाम किया और परास्त हुए। तमाम विभिन्नताओं में एकमात्र अद्वितीय चेतना सत्ता प्रतिभाषित है, इसमें क्या संदेह है भला?
माया और ब्रह्म गप्पाष्टक
शंकर का सविशेष और निर्विशेष ब्रह्म तथा माया की अवधारणा शुद्ध गप्पबाज़ी है। बिना बात की बात है। बातें हैं, बातों का क्या? कल्पना की अद्भुत उड़ान। जड़-चेतन में भीतर-बाहर सर्वत्र एक सत्ता का साम्राज्य स्वतःसिद्ध सच्चाई है। इसे सीधे-सीधे मान लेने में क्या दिक्क़त है? बुद्धि की तीक्ष्णता और अधिकता वितंडा उत्पन्न करती है।
मेधा से अनुभूति बड़ी है। शंकर की स्थापना मेधाजन्य है, अनुभूति के विरुद्ध। अनुभूति स्वयंसिद्ध प्रमाण है- परम विश्वसनीय। अनुभूति सर्वव्यापी एक ही सत्ता की होती है। इससे परे अननुगम्य निष्फल, निरंजन, निर्विशेष की स्थापना प्रतिभा और तर्क का अतिक्रमण है, उल्लंघन है। अनुभवकर्ता और अनुभाव्य दो नहीं हैं। ख़ुद ही ख़ुद को देख रहा है। ज्ञाता और ज्ञेय की अभिन्नता में स्वरूपस्थ है।
21 अक्टूबर, 2024 / लोक और उसकी ताक़त
लोक समस्त ज्ञान-विज्ञानों, कला, संस्कृति और सभ्यता का जन्मदाता है। लोक से बड़ा कोई नहीं, कुछ नहीं। इसी में जड़ता, रूढ़ियाँ, परंपरा, विवेक, प्रगतिशीलता और प्रतिक्रियावाद- सब समाया हुआ एक साथ है।
जो तुर्रम खां लोक से ख़ुद को बड़ा मानता है, लोक उसे पटखनी देकर धराशायी कर डालता है। फिर चाहे वह चार्वाक हो, रावण हो, हिरण्यकश्यप हो, सम्राट अशोक हो या अभी कुछ काल पहले के स्वामी दयानंद सरस्वती और ओशो रजनीश ही क्यों न हों। लोक से टक्कर लेना इन्हें भारी पड़ा। जान से हाथ धोना पड़ा। इसका ये मतलब नहीं कि ये महापुरुष बुरे थे। इनका दुस्साहस ये था कि इन्होंने लोक-सत्ता और लोक-भावना को चुनौती दी थी। लोक-रूढ़ियों और जड़ता पर प्रहार किया था। प्रहार सही किया था लेकिन लोक-मानस में जो जड़ता, कट्टरता और रूढ़ियाँ हमेशा रहती हैं, उन पर चोट पड़ते ही लोक क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाता है और अपने ख़िलाफ़ चलने और बोलने वाले के प्राण ले लेता है। इसलिए संस्कृत में एक कहावत चल पड़ी कि- यद्यपि सिद्धं लोकविरुद्धं, नाचरणीयं नाचरणीयम्। अर्थात् कैसा ही कोई सिद्ध पुरुष, महात्मा या महाविद्वान क्यों न हो, यदि वह लोक-मानस और लोक-भावना के विरुद्ध बातें कहता है, शिक्षा देता है तो लोक उन्हें आचरण में नहीं लेता। उनकी बातें स्वीकार नहीं करता।
हक़ीक़त यह है कि वे महापुरुष सही, सत्य बातें कह रहे हैं, जो लोकहित की ही हैं। पर लोक तो लोक ठहरा। उसका खून ठंडा होता है। बुद्ध, ईसा, सुकरात, मार्क्स, गाँधी- सब सत्य के प्रवक्ता और उपासक होते हुए भी घोर विरोध या मृत्यु के पात्र बने। लोक में उसकी विराटता दुखदायी है। यहाँ जड़ता है तो ज्ञान भी है। परंपरा है तो विवेक भी है। रूढ़ियाँ और अन्धविश्वास है तो प्रगतिशीलता भी है। ऐसा भानमती का पिटारा है जो उचित-अनुचित और अच्छे-बुरे को साथ लिए हुए धीमी गति से चलता रहता है।
इस बात को विष्णुगुप्त/ चाणक्य ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि से नोट किया था और स्वयं द्वारा अभिषिक्त सद्य:सम्राट चन्द्रगुप्त को सावधान करते हुए शिक्षा दी थी, जो ‘कौटिलीय अर्थशास्त्र’ में अभी भी अंकित है- सर्वज्ञता लोकज्ञता इति। सर्वज्ञोɜपि अलोकज्ञ: मूर्खतुल्य:।।
यानी सब विषयों का ज्ञाता होने का तात्पर्य है लोकचित्त का ज्ञाता होना। पर, जो व्यक्ति ख़ुद को सर्वज्ञ मानता हो और लोकचित्त से अनभिज्ञ हो तो उस जैसा मूर्ख दुनिया में नहीं मिलेगा। यह सच है कि लोकरूढ़ियाँ, जड़ता और अंधविश्वास दूरदर्शी, लोकहितैषी महापुरुषों के दुश्मन और प्राणलेवा सिद्ध होते हैं। संसार की भलाई के लिए जन्म लेने वाले महात्माओं को संसार की एक कट्टर प्रजाति मार डालती है। अतः लोक में सद्-असद्, दैविक और आसुरी शक्तियाँ एक साथ रहती हैं। महापुरुष अपने प्राणों का मूल्य देकर भी दुनिया की भलाई के लिए सत्य और न्याय पर अडिग रहते हैं। यह मानव जाति की सबसे बड़ी विडंबना है।
22 अक्टूबर, 2024 / पेड़ों का अस्तित्व
पेड़ों का भी अपना व्यक्तित्व होता है। पर्सनलिटी का ठेका इनसान ने ही तो नहीं ले रखा है। लेकिन पेड़ों से पहले घास की बात। घास अद्भुत जीवनी शक्ति की चिरंजीवी वनस्पति है। कितना ही काटो, खींचो, नोचो और कुचलो, यह पुनर्नवा हो जाती है। गर्मी में पीली पड़कर लगभग मृतप्राय और बरसात आते ही हरी-भरी होकर सिर उठा लेती है। घास की जिजीविषा अनुकरणीय है। घास की किस्मों का अंत नहीं। गन्ना भी एक किस्म की घास ही है। एक होती है कुशा या कुश, जिसे डाभ भी कहते हैं और हिंदुओं की पूजा और कर्मकांड में बहुत श्रेष्ठ मानी जाती है। इसकी नोक बहुत तीखी होती है। सो, जिसकी बुद्धि तीक्ष्ण हो उसे कुशाग्र मति कहा जाता है। यानी कुश की नोक के समान तीक्ष्ण और सूक्ष्म बुद्धि वाला। सरकंडा ऐसी घास है जो चटाई, घर की छत, मूढ़े, लिखने की कलम और पुराकाल में बाण के साथ लगने में प्रयुक्त होती रही। शास्त्र में इसे दूर्वा कहा गया है और शुभ-मंगल सूचक माना गया। ऋग्वेद के एक मंत्र भी इस निमित्त है- 'कांडात कांडात प्ररोहन्ति पुरुष:' इत्यादि।
बात है पेड़ों के व्यक्तित्व की। यह शब्द क्रमशः इस तरह माना- व्यक्त, व्यक्ति और व्यक्तित्व। व्यक्त वह है जो प्रकट हो, साकार हो, देहधारी हो। वाणी मुँह से प्रकट होकर 'अभिव्यक्ति' हो जाती है। जो वाणी के चार सोपानों में अंतिम 'वैखरी' नामक है। शेष तीन पूर्वस्तर हैं- परावाणी, पश्यंती वाणी और मध्यमा वाणी। ऐसा 'पाणिनीय शिक्षा' ग्रंथ में उल्लेख है। ख़ैर। 'व्यक्तित्व' वह छवि है जिसमें उसकी अदा, स्टाइल, बॉडी लैंग्वेज, शान, शोभा और दूसरों से हटकर कुछ खासियत हो। इनसानों में तो यह सर्वज्ञात है, पर पेड़ों में भी आपको ये सब खूबियाँ मिलेंगी। ध्यान से देखने पर।
हर पेड़ की अपनी आदत है। कोई दुबला, कोई मोटा-भारी तो कोई छतनार। कोई खिला हुआ प्रसन्न और खुशहाल हो कोई शुष्क और उदास। कोई ध्यान में लीन समाधिस्थ तो कोई हवा से चंचल और झूमता हुआ। कोई रुग्ण, हताश तो दूसरा स्वस्थ, मस्त और उत्साहपूर्ण। एक पेड़ तांडव नृत्य की मुद्रा में एक टाँग उठाए दिखेगा तो अन्य भरतनाट्यम की शैली में। कोई पेड़िका पार्वती की भाँति लास्य-नृत्य की शृंगारिक भाव-भंगिमा लिए दिखेगी। एक पेड़ पहलवान तो जैसा दूसरा मुरझाया हुआ, टी बी का मरीज़। सब प्रकृति की लीला के अंग। यहाँ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के ललित निबंध 'कुटज' की याद आती है। जो इतना पल्लवित-पुष्पित है कि 'कमबख़्त कंधों से फूट पड़ा है और खिलखिला रहा है। मानो बेहया हो।'
बात यह है कि प्रायः हम देखते हुए भी नहीं देखते। देखने के पीछे जो 'देखना' चाहिए, उसका अभाव है। इस अंतर्दृष्टि में पेड़ों का व्यक्तित्व निखरेगा। आँखों के पीछे मन की आँखें, सौंदर्यबोध की आँखें होनी चाहिए। रवींद्रनाथ ठाकुर के पास थी, द्विवेदी जी के पास थी और 'अज्ञेय' के पास थी। लगभग हर संवेदनशील रचनाकार-कलाकार के पास ऐसी मन की आँखें होती हैं।
अज्ञेय प्रातः घूमने निकले। जंगल में। एक हरा-भरा छतनार वृक्ष मिला, जो उन्हें अपने आत्मीय दोस्त जिसया लगा।मिलने का मन हुआ। अज्ञेय ने एक हरी डाली से अपना हाथ मिलाते हुए कहा- 'हेल्लो, दोस्त कैसे हो?' तो वृक्ष ने काँपती डाली और हिलते पत्तों से जवाब दिया- 'सांय! सांय!!' यानी मैं अच्छा हूँ, खुश हूँ। हमारी शब्दों वाली भाषा से परे भी एक भाषा होती है जो नैसर्गिक भाषा है। उस भाषा मे संवेदना और स्पंदन शब्दों का काम करते हैं और उनका अर्थ अनुभूति में ढलता है। यह शब्दहीन चेतना-जीवन की निगूढ़ वाणी है, जो पेड़ों के पास ही नहीं,वनस्पति-मात्र में होती है।
पेड़-पौधे और तमाम वनराशि जीवित सत्ता है, जिसे पुरानी क़िताबों में 'उद्भिज' प्रजाति माना गया है। प्राणवंत की चार श्रेणियाँ हैं- जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्भिज यानी गर्भाशय, अंडे, पसीने और धरती से फूटकर जन्मने वाले प्राणी। इनमें क्रमशः मनुष्य व स्तनपायी; पक्षी, जुंएँ-खटमल-कीड़े तथा पेड़-पौधे समझने चाहिए। सबको मालूम है कि महान् वनस्पति वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु ने प्रयोग के साथ सप्रमाण पेड़-पौधों को जीवित के साथ सुख-दुःख, हर्ष-वेदना महसूस करने वाली प्रजाति बताया था और सिद्ध किया था। फिर भी हम पर्यावरण -प्रदूषण के प्रति घोर लापरवाह हैं। पुरखों ने अनेक पेड़ों में देवताओं का निवास बताया- वटवृक्ष में शंकर, पीपल में विष्णु, शमी में ब्रह्मा।
इधर तुलसी कृष्ण की पटराणी। गाँवों ने आज भी तुलसी विवाह होता है- मंदिर से कृष्ण(विकल्प में विष्णु या चारभुजा नाथ) की बरात आती है। आयुर्वेद में तो वनस्पति मात्र औषधि मानी गई है। वेद और उपनिषद् वन-संपदा की स्तुति और प्रशंसा से भरे पड़े हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् में आकाश से लेकर पुरुष के उत्पन्न होने तक की शृंखला में अन्न को सर्वोत्तम औषधि माना गया है। पाठ का अंश यह है-
तस्माद्वा एतस्माद् आकाशः सभूत:।
आकाशद् वायु: वायोराग्नि:
अग्नेराप: अद्मय: पृथिवी।
पृथिव्या औषेधय: औषधीभ्यो अन्नम्।
अन्नात् पुरुष: स एव पुरुष अन्नरसमय: ।।
अर्थ यह कि जिस किसी तत्त्व से आकाश हुआ। आकाश से वायु जन्मी। वायु से अग्नि। अग्नि से जल। जल से पृथ्वी निकली। पृथ्वी से औषधियां जन्मीं। औषधियों में अन्न हुआ। अन्न से पुरुष की उत्पत्ति हुई। ऐसा यह रस से जीवंत पुरुष है। ध्यातव्य यह है कि अन्न और वनस्पति हमें पैदा करने वाली पूर्वज हैं। हमें अन्न के साथ समस्त वन-संपदा का हृदय से आभार मानना चाहिए।
23 अक्टूबर, 2024 / डरावना दार्शनिक
चूँकि यह डायरी है, सो मुझे इसे डायरी का रूप देना चाहिए। विधागत सम्मान है। सुबह से दिमाग़ में नीत्शे घूम रहा था। फ्रेडरिक, नीत्शे, जर्मन दार्शनिक और एक खतरनाक दिमाग। पुराने को छोड़कर नए का आकांक्षी। उसकी इतनी हिम्मत कि चर्च और पोप के यूरोपीय घनघोर वर्चस्व के बावज़ूद उसने बुलंद घोषणा की- "ईश्वर मर गया है। मैंने उसकी हत्या कर डाली।" (The God is dead. I have killed him.) बोलो, ऐसी घोषणा क्या मामूली बात है? उसके समकालीन डार्विन, मार्क्स, एमेनुएल कांट और सिग्मंड फ्रायड जैसे महान चिंतक आ चुके थे। लेकिन, नीत्शे इन सबका बाप निकला। दर्शन का प्रोफेसर रहा, फ्रीलांसर रहा। इतनी बेचैनी थी कि अपनी ही आँच में झुलसता गया और अंत मे विस्फोटक और विध्वंसक विचारों के चलते वह लगभग विक्षिप्तता की हालत में पहुँच गया और छप्पन वर्ष की आयु में समाया।
लेकिन, वह जो विरासत छोड़ गया है, बड़े काम की है। ध्यान खींचती है। कई क़िताबें लिखीं, जिनमें सर्वाधिक चर्चित रही- "जरथुष्ट्र ने कहा" (Thus Jarthushtra spoke) नीत्शे तमाम स्थापित मूल्यों और धारणाओं के पुनर्मूल्यांकन का आग्रहकर्ता था। दुनिया में ऐसे हथौड़ा-मार चिंतक की ज़रूरत रहती है। मार्क्स भी इसी प्रकृति का था। हालाँकि, उसके निष्कर्ष नीत्शे से कहीं अधिक वैज्ञानिक और तर्क पर आधारित थे। सो, जो प्रभाव और क्रियान्विति मार्क्स के विचारों की हुई, वह नीत्शे से नहीं हो सकी। नीत्शे ने ध्वंस के साथ नए निर्माण और सृजन का कोई ब्लू-प्रिंट पेश नहीं किया। इन सबके बावज़ूद नीत्शे को विस्मृति की हवा में नहीं उड़ाया जा सकता है। उसकी अप्रोच नेगेटिव नहीं थी और न पॉजिटिव थी, बल्कि डिस्ट्रक्टिव और रिकंस्ट्रक्टिव थी। इसी में उसकी महत्ता और देन है। लेकिन, दुनिया और लोग हैं कि डरपोक और कायर हैं। नीत्शे के विचारों को अपनाकर या क्रियान्वित करके कोई रिस्क नहीं लेना चाहते।
25 अक्टूबर, 2024 / क्या और क्या नहीं के बीच
मेरे जीवन और विचारों में अंतर्विरोध आते हैं। क्यों? क्योंकि यह प्रगति और विकास की शर्त है। जड़ता से मुक्ति पाने की यह प्रक्रिया है। होनी चाहिए। अंतर्विरोध जागरूक चेतना और विवेक का स्वभाव है। सो यह दोष नहीं है। सभी महापुरुषों की महानता इसी प्रक्रिया से गुज़री है। विशेषकर महात्मा गांधी के। निरंतर अपने को सुधारना, ठीक करना अंतर्विरोधों की देन है। इसमें लज्जित होने या लांछित होने की कोई बात नहीं। व्यापक रूप में मार्क्सवादी विचारधारा को स्वीकार करके चलने वाले भारतीय विचारकों की ज़िंदगी अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। क्योंकि यहाँ धर्म और पूँजीवाद का दबदबा है। आदमी चाहकर भी एकदम उत्कट कॉमरेड नहीं बन सकता। बंगाली कम्यूनिस्ट दुर्गा-पूजा भी ज़ोर-शोर से करेंगे और कॉमरेड भी बने रहेंगे।
अंतर्विरोध सच्चाई की तरफ़ बढ़ने की सीढ़ियाँ हैं। इनसे डरना नहीं चाहिए। हाँ, जो इन्हीं में उलझकर रह जाए तो ये उसी का प्रमाद होगा। आगे बढ़ते रहने की इच्छा और जिज्ञासा न हो तो अंतर्विरोध उसे नष्ट कर देंगे। मध्यवर्ग की सबसे बड़ी कठिनाई इन्हीं अंतर्विरोधों से जूझते हुए आगे बढ़ना है। मतलब, बुद्धिजीवियों के लिए। आम आदमी का कोई सरोकार नहीं। नास्तिक कॉमरेड हवाई जहाज़ में बैठेगा, जो धर्म को अफ़ीम और ईश्वर को नकारता है। यदि हवाई जहाज़ गिरने लगे और प्राण संकट में हों तो क्या वह मार्क्स को पुकारेगा? नहीं। ज़रूर वह किसी अज्ञात पराशक्ति से व्याकुल होकर बचाने की मन ही मन गुहार लगाएगा। इससे उसकी पार्टी या विचारधारा में आस्था कम नहीं हो जाएगी।
26 अक्टूबर, 2024 / सुंदर-असुंदर
मैं जब छठी-सातवीं में पढ़ता था, तब दो चीज़ों को सुंदर बनाने के प्रति प्रबल आकर्षण हुआ। एक तो मेरे बाल घुँघराले हो जाएँ और दूसरे मेरी हस्तलिपि सबसे सुंदर हो। कोशिश ज़ारी रही। तब 12-13 साल का रहा होऊँगा। अपने को खास मानने लगा। औरों से अच्छा दिखूँ। सो एक आने(छह पैसे) का कंघा ख़रीद लाया। घर में ग़रीबी थी। एक धुँधले काँच का टुकड़ा आले में पड़ा था। और क्या चाहिए? तीनों चीज़ें हो गईं- तेल, काँच और कंघा। काँच ऐसा कि बाल देखूँ तो चेहरा न दिखे और चेहरा देखूँ तो बाल अदृश्य। कंघे से बालों में कर्व बनाने लगा। कृष्ण के बाल भी घुँघराले थे। यही प्रेरणा थी। काश, मेरे बाल भी ऐसे हो जाएँ। सुंदर बनने, सुंदर दिखने की चाह। भीतर से ऐसी अर्ज क्यों थी?
हैंड राइटिंग का क्या कहना। मेरे पड़ोस में एक कवि गीतकार बंशी बेकारी थे। उनके घर जाता और उनके गीतों की डायरी देखता तो मन प्रफुल्लित हो जाता। मोती जैसे गोल-गोल अक्षर। कमाल के सुंदर। काश, मेरी भी राइटिंग ऐसी हो। प्रयत्न ज़ारी रहा। कुछ सफलता भी मिली। और छात्रों से मेरे अक्षर सुंदर बनने लगे। लेकिन दो साथी ऐसे थे जिनकी राइटिंग मुझसे ज़्यादा सुंदर थी- एक तो सत्तू जागोटिया और दूसरा सुरेंद्र सामर। उनसे मुझे ईर्ष्या होने लगी। स्वाभाविक था। बाल हों या राइटिंग- यह सुंदरता की इतनी लालसा क्यों? तब कारण नहीं ढूंढ पाया। अब, आज गंभीरता से इसी बात की तह में जाना चाहता हूँ। हम सुंदरता के उपासक क्यों हैं? हमें बदसूरत और कुरूपता से नफ़रत क्यों है? बात एक ही है, पर उसका विलोम है- कुरूपता से नफ़रत।
क्या है सुंदरता? क्यों है सुंदरता? असुंदर नापसंद क्यों है? सोचने की बात है। अन्सर्ट फिशर की एक पुस्तक पढ़ने में आई- 'नेसेसिटी ऑफ आर्ट' (कला की ज़रूरत)। जिसमें उसने दो लाख बरस पहले के आदिमानव द्वारा गुफाओं में बनाए गए शैल चित्रों का ज़िक्र किया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी सवाल उठाते हैं कि "घी का लड्डू गोल ही क्यों अच्छा लगता है, टेढ़ा क्यों नहीं?" सीधी रेखा की बज़ाय वक्ररेखा क्यों ध्यान खींचती है? विद्वानों ने इस पर दिमाग़ लड़ाया है। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जो व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ हमारी इंद्रियों के लिए अनुकूल हो, प्रीतिकर हो और हमारे लिए पोषक और विकासक हो- वह सब सुंदर होता है। देखने में, गुणधर्म में, रंग-रूप में, शोभा में। कई केक्टस और ज़हरीले पौधों के फूल बड़े रंगीन और आकर्षक होते हैं, जैसे- धतूरा। लेकिन वे विषैले और प्राणघातक हैं। अतः असुंदर की कोटि में आएँगे। इससे उलट गुलाब, कमल, मोगरा, हरसिंगार सुंदर और खुशबूदार और प्रसन्नताकारक हैं।
इसी तरह, सुगंधित बाग-बगीचे, शानदार महल, होटल, इत्र-परफ्यूम तो सर्वप्रिय हैं, मगर नगरपालिका या रेलवे स्लीपर क्लास के टॉयलेट से आने वाली मल-मूत्र की दुर्गंध क्यों अप्रिय लगती है? क्योंकि वह जीवन विरोधी है, नुक़सानदायक है। सो, सुंदरता का सीधा संबंध हमारे जीवन के पोषण, विकास और इन्द्रिय समूह की प्रीति और अनुकूलता से है। हिंदी के महान समीक्षक आचार्य शुक्ल ने यह बात भी उठाई है कि काव्य और कला में भूकंप, दावानल, तूफान और भयंकर दृश्य हमें प्रिय क्यों नहीं लगते? जबकि वह भी प्रकृति के अंग हैं। सुंदर लगने चाहिए। डरावने और विनाशकारी दृश्य भी साहित्य में पठनीय और ग्रहणीय होने चाहिए। उन्होंने प्रमाणस्वरूप वाल्मीकि रामायण के कुछ संदर्भ भी दिए हैं। यह बात भी सोचने की है।
सुंदरता में भी चक्कर है। सौंदर्य दो तरह का होता है- स्थिर सौंदर्य और गतिमय सौंदर्य(स्टेटिक ब्यूटी एंड डाइनेमिक ब्यूटी)। एक तो खड़े घोड़े का चित्र है और दूसरा दौड़ते हुए घोड़े का, जिसके अयाल और पूँछ हवा में लहरा रहे हैं। तो यह दूसरा चित्र ज़्यादा आकर्षक है क्योंकि उसमें गति है। सो, वक्रता, गति, रंग, क्रियाशीलता सौन्दर्यवर्द्धक है। हवा में उड़ते सुंदरी के केश, लहराता आँचल इसीलिए सुंदर लगते हैं। प्रकृति का सौंदर्य, सुंदर चेहरों का सौंदर्य, कलाकृतियों का सौंदर्य- इन सबसे बढ़कर है चरित्र और आचरण का सौंदर्य। अन्याय-अत्याचार से लड़ने का सौंदर्य। किसान-मज़दूर के मेहनतकश जीवन में पसीने में टपकता श्रम-सौंदर्य। इस तरह, सौंदर्य फूल और चेहरे से लेकर अनंत विस्तार और विविधता में निहित है। उसे पहचानने की ज़रूरत है।
27 अक्टूबर, 2024 / स्त्री
मैं अपने कमरे में पढ़ रहा हूँ और वह रोटियाँ बना रही है। रोटियाँ बनाते उसे साठ साल हो गए। यह पहला काम है जो उसे बचपन से सिखा दिया गया क्योंकि यह औरतों का ही काम है। सिमोन द बोउआर याद आती है, जिसने पुरुष वर्चस्व की पोल खोलते हुए यह कहा- "स्त्री वह जन्म से नहीं होती, उसे 'स्त्री' बनाया जाता है।"(The second sex) यानी शरीर से वह स्त्री ज़रूर है, पर पुरुष की गुलाम और दोयम दर्जे की 'स्त्री' उसे बनाया जाता है। उसे ऐसी स्त्री बनाने में पुरुष से बढ़कर परिवार की स्त्रियाँ आगे रहती हैं। क्या औरत केवल रोटियाँ बनाने और बच्चे पालने के लिए जन्मी हैं? यह दुनिया का सबसे बड़ा सवाल है। गुफावासी आदिमानव शिकार पर बाहर जाता, तब स्त्रियाँ गुफा में घर का काम संभालती थीं। शिकार में लाए गए मृत पशु को काट-पीटकर पकाने का काम करती थीं। तब से उसने जो चूल्हा-चौका संभाला, वह आज तक ज्यों का त्यों बरकरार है।
इंग्लैंड में पहले रोटियाँ बनाने वाली को लेडी(Lady) कहा जाता था, जो आगे चलकर सम्मानसूचक संबोधन हो गया। अब लेडी संभ्रांत महिला का वाचक है, जो रोटियाँ भले न बनाए, लेकिन कुलीन, संपन्न, हाई प्रोफाइल मानी जाती है। मनोवैज्ञानिकों ने यह प्रमाणित किया है कि पुरुष में शरीर-बल चाहे अधिक होता हो, परंतु मनोबल स्त्री में ज़्यादा होता है। किसी पेचीदा विपत्ति में जहाँ पुरुष हार मानकर खिसक जाता है, वहाँ स्त्री खड़ी रहती है और जूझती है। परिवार में जितनी ममता स्त्री के हृदय में होती है, उस तुलना में पुरुष के मन में नहीं। संतान को बड़ा करने में स्त्री की संपूर्ण ऊर्जा खप जाती है, पुरुष की ऊर्जा कम लगती है। उसमें उतनी करुणा, उत्कट वात्सल्य भी नहीं होता, जितना स्त्री में होता है। मनुष्य को श्रेष्ठ गढ़ने में स्त्री का योगदान सर्वाधिक है।
मुझे याद है जब मैं छोटा था और शैतानी या भारी ग़लती करता था तो माँ मुझे दंड देना चाहती थी। उसका मन तो होता कि वह ज़ोर से मुँह पर चाँटा मारे। चाँटा गाल और कान के पास सांघातिक होता था, अतः गाल पर न मारकर मुझे घूमाकर कूल्हों पर हाथ मारने की सोचती। ऐसा करते समय भी हाथ को ज़ोर से प्रहार की मुद्रा में लातीं, लेकिन कूल्हों तक आते-आते वह प्रहार थपकी में बदल जाता। माँ भी क्या मार सकती है? खुद रो लेगी पर बच्चों को रहम के साथ पीटने का अभिनय करती है। मुनव्वर राणा ने इस पर अच्छा शेर कहा है-
इस तरह वो मेरे गुनाहों को धो देती है।
माँ जब ग़ुस्से में होती है तो रो देती है।।
मारना पिता का होता है। बच्चे से माँ कहती है, आने दे तेरे पापा को। तू ऐसे नहीं मानेगा। पापा के आ जाने पर और पीटने पर वही माँ ढाल बनकर खड़ी हो जाती है। माँ, पत्नी, बहन, बेटी- कितने प्यारे-प्यारे रूप हैं स्त्री के। और पुरुष है कि इस बारे में कभी सोचता ही नहीं। उसे घर से क्या, किचन से बाहर निकलने देना भी पसंद नहीं करता। यह हज़ारों बरसों से चला आ रहा घोर अन्याय है। यही नहीं, पिछड़े, अशिक्षित, ग़रीब और ग्रामीण इलाक़ों में स्त्री पर आदमी के अत्याचार की तो पराकाष्ठा है। शराब पीकर आएगा, स्त्री को बिना बात पीटेगा। उसकी मज़दूरी या बचत की कमाई छीन लेगा। खुद काम पर नहीं जाएगा। डरे-सहमे बच्चों को, जो भूखे बैठे हैं- उन्हें भी पीटेगा। यह करोड़ों परिवारों की करुण कहानी नहीं, हक़ीक़त है। दिल तो यह कहता है कि ऐसे धौंसबाज़ तमाम पुरुष अगले जन्म में स्त्री के रूप में पैदा हों तो उन्हें पता चले कि स्त्री होना क्या होता है।
सत्यनारायण व्यास
(राजस्थान के वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि)
नीलकंठ, छतरी वाली खान के पास, सेंथी (चित्तौड़गढ़) 312001
9461392200
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
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