शोध आलेख : नरेंद्र कोहली के उपन्यासों में स्त्री-विषयक अवधारणा / तरुण किशोर नौटियाल

नरेंद्र कोहली के उपन्यासों में स्त्री-विषयक अवधारणा
- तरुण किशोर नौटियाल  

शोध-सार : समाज के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका हर युग में अग्रणी रही है। सदियों से सामाजिक सशक्तिकरण की दृष्टि से महिला सशक्तिकरणएक महत्वपूर्ण स्तंभ रहा है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अमूल्य आधारभूत ग्रंथों रामायण तथा महाभारत में पितृसत्तात्मक समाज की संरचना के भीतर स्त्री-विषयक अवधारणा का जो चित्र प्रस्तुत किया गया है; वह महिला सशक्तिकरण के लिए जिम्मेदार कई गुत्थियों को सुलझाता है। एक स्त्री को अपने परिवार के भीतर तथा समाज एवं कार्यस्थल पर जिन समस्याओं से जूझना पड़ता है, वह इन ग्रंथों के स्त्री-पात्रों के चित्रण में सहजता से दिखाया गया है। महाभारतकालीन स्त्री पात्रों यथा-कुंती, हिडिंबा, सुभद्रा, सैरंध्रीतथा रामायणकालीन स्त्री-पात्र 'अहल्या' के चरित्र-वर्णन स्त्री-विषयक अवधारणा का पौराणिक चिंतन अवश्य है किंतु आधुनिक भारतीय और वैश्विक समाज में उनकी प्रासंगिकता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए हिंदी साहित्य के अग्रणी लोकप्रिय साहित्यकार नरेंद्र कोहली जीने ‘कुंती’, ‘अहल्या’, ‘सुभद्रा’, ‘हिडिम्बा’, ‘सैरंध्री’ जैसे उपन्यासों का सृजन किया है। पौराणिकता की मजबूत जड़ों से सिंचित उनका साहित्य आधुनिकता तथा तार्किकता का अद्‌भुत वितान तैयार करता है। 'महाभारत' तथा 'रामायण' के इन स्त्री पात्रों पर आधारित उपन्यासों में नरेंद्र कोहली ने स्त्री-विषयक अवधारणाओं का निरुपम विश्लेषण प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत शोध-पत्र उनके इन उपन्यासों के विशिष्ट संदर्भ में स्त्री-विषयक अवधारणा का सम्यक और सार्थक अनुशीलन करने का सुंदर प्रयास है।

बीज-शब्द : सशक्तिकरण, पौराणिकता, आधुनिकता, तार्किकता, समानता, स्वतंत्रता, सुरक्षा, सभ्यता, संस्कृति, व्यथा, जड़ता, रूढ़िवादी, पितृसत्ता, अस्मिता, परंपरा, सम्मान, वस्तुकरण,सतीत्व, मातृत्व, पुरुषत्व, नैतिकता, समता, सामाजिक न्याय, आचार-संहिता।

मूल आलेख : भारतीय पौराणिक साहित्य पर अपनी लेखनी चलाने वाले साहित्यकारों में नरेंद्र कोहली अत्यंत समादृत हैं। अपने मौलिक-तार्किक सृजन-कौशल तथा आधुनिक जीवन दृष्टि के उपयुक्त उनका साहित्य पौराणिकता के भीतर से आधुनिकता का अनोखा वितान तैयार करता है। साहित्य तथा समाज की समृद्धि के साथ भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती का संरक्षण उनका महत्वपूर्ण अवदान है। आधुनिक समाज की समस्याओं के समाधानउन्हें पौराणिक तथा मिथकीय चरित्रों की जीवन-पद्धति तथा कार्य प्रणाली में दिखाई देते हैं। भारत की पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना के भीतर स्त्री-विषयक चिंतन प्रायः पूर्वाग्रही रहा है तथा उन्हें समाज में पुरुषों से कमतर ही माना जाता रहा है। अतः महिला सशक्तिकरण का विमर्श हर युग में युगानुकूल होते हुए भी एक समान ही रहा है। नरेंद्र कोहली ने मानव मन की सूक्ष्मता तथा स्थूलता को कालातीत बनाकर जीवन को समग्रता में देखने का अद्भुत प्रयास किया है एवं आधुनिक समय के स्त्री-विषयक चिंतन को पौराणिक एवं मिथकीय चरित्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। समाज में महिलाओं के प्रति व्याप्त पूर्वाग्रहों से स्त्रीके विरुद्ध पितृसत्ता की रुढ़िवादी मान्यताओं से उपजी विसंगतियों तथा उनके समाधान की दृष्टि से नरेंद्र कोहली के स्त्री-विषयक उपन्यास अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। पौराणिक मिथकीय स्त्री-पात्रों को लेकर लिखे गए उनके उपन्यास यथा- 'कुंती', 'अहल्या’, ‘सुभद्रा’, ‘हिडिम्बा’, ‘सैरंध्री' स्त्री-जीवन की व्यथा-कथा का ज्वलंत दस्तावेज बनकर उभरे हैं।

कुंती के जीवन की विपरीत परिस्थितियों को देखें तो जन्म कहीं ओर हुआ तथा पालन-पोषण कहीं ओर; अपनी किशोरावस्था में दुर्वासा से प्राप्त मंत्रणा से कर्ण को जन्म दिया लेकिन त्वरित रुप से पितृसत्ता के दबाव में त्याग करना पड़ा । विवाह के पश्चात पाण्डु जैसा उपेक्षा करने वाला पति मिला, नियोग प्रथा के माध्यम से पांडवों को जन्म तो दिया किंतु सम्राट पांडु की मृत्यु के पश्चात हस्तिनापुर के, राजप्रासादों में अभावों से भरा एवं सुविधाओं रहित जीवन जीना पड़ा।[i] अपने पुत्रों पांडवों के विरुद्ध हो रहे अत्याचारों से कुंती के हृदय का रोम-रोम जलता रहा, उत्पीड़ित होता रहा तथा महाभारत के युद्ध तक यही स्थिति रही। जीवन की विसंगति को देखें तो कुंती के पुत्र जब‘महाभारत' का ‘महासमर' जीत कर आते हैं तथा हस्तिनापुर पर शासन स्थापित करते हैं, तब कुंती, धृतराष्ट्र-गांधारी के साथ वानप्रस्थ हेतु वन चली जाती है। यह संपूर्ण जीवनवृत्त प्रत्येक पाठक को अपनी ओर आकर्षित करता हैक्योंकि ऐसी विकट परिस्थितियों में कोई भी व्यक्ति टूट सकता है, किसी का भी विश्वास डगमगा सकता है; कोई भी प्रतिहिंसा की संचितभावना का शिकार हो सकता है, किंतु यह कुंती के जीवन का उदात्त पक्ष है कि अनासक्त एवं निर्लिप्त होकर जीते हुए भी जीवन को समग्रता में जीती रही। नरेंद्र कोहली लिखते हैं- “कुंती के जीवन का जो गौरवपूर्ण पक्ष है, वह उसकी सफलता नहीं, उसकी कटुता-शून्यता, प्रतिहिंसा का अभाव, प्रतिशोध का निषेध, दया, करुणा, परदुखकातरता, उदारता तथा धर्म पर अडिग रहना है।"[ii] एक सामान्य स्त्री से परेकुंती का मन अपमान की पीड़ा से पूर्णतः असंपृक्त नहीं रहा होगा लेकिन उसके व्यक्तित्व की समायोजन की क्षमता ने उसके चरित्र का ऐसा वैशिष्ट्य स्थापित किया है कि भारतीय समाज की विवाह संस्था और परिवार व्यवस्था के लिए कुंती का चरित्र महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है।

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में परिवार संस्था के जो स्थापित मानदंड हैं, उनके आधार पर स्त्री-पुरुष का विवाह अत्यंत पवित्र विधान है। धर्मसम्मत विवाह विधान में स्त्री-पुरुष को समान दर्जा देते हुए सामाजिकव्यवस्था को सुदृढ़ करने का प्रयास किया जाता है।[iii] यद्यपि पितृसतात्मक समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों में समानता की यह भावना अपने मूल स्वरूप से विकृत हुई है तथा स्त्री केवस्तुकरण की प्रक्रिया का आरंभ होता है। भारतीय सभ्यता एवं संरक्षण के नाम पर महिलाओं कोएक प्रकार से दंडित करने का प्रयास किया जाता रहा है। आधुनिक समय में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के जन्म से यद्यपि स्त्री-पुरुष विवाह में समानता की अनुगूँज सुनाई देती है। ‘महाभारत’ की कुंती और हिडिम्बा के संवाद से तत्कालीन स्थिति स्पष्ट होती है। धर्मसम्मत विवाह-विधान की दृष्टि से हिडिम्बा और कुंती के मध्य का निम्नलिखित संवाद स्त्री-विषयकअवधारणा का समर्थ परिचायक बनकर उभरता है-"विवाह, केवल एक स्त्री और एक पुरुष का मात्र देह-संबंध नहीं है। है। यह यह उनका अपना स्वतंत्र संबंध नहीं है। यह तो पूरे परिवार में एक नये सदस्य का जुड़ना है।…… उसके लिए आवश्यक है कि तुम्हारा पूरा परिवार इस संबंध की स्वीकृति दे। हमारा पूरा परिवार तुम्हें स्वीकार करने को तैयार हो।"[iv] भारतीय परिवार व्यवस्था और सामाजिक एकता की दृष्टि से यह विचार आज के वैयक्तिकवादी दौर में पूर्णतः प्रासंगिक है।एक स्त्री के सम्मुख विवाह-प्रस्ताव के दौरान भारतीय परंपराओं के सम्मान की अपेक्षा की जाती रही है। मानव-मन की संकीर्ण दृष्टि कभी-कभी इस पर हावी होकर मन‌मानी करने का प्रयास करती है। ऐसी स्थिति तब अधिक विध्वंसक होती है जब बचपन से स्त्री को 'स्वतंत्रता’ और 'आत्मनिर्भरता' की शिक्षा दी जाती रही हो। महाभारतकालीन स्त्री-पात्र‘सुभद्रा' को बाल्यावस्था से ही स्त्री की स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता तथा स्वावलंबन की शिक्षा दी गई थी।[v] जब उसका वय विवाह‌योग्य हो गया तब उसके परिवार के सभी बड़े सदस्य उस पर अपनी-अपनी इच्छा थोपने का प्रयास करते हैं। आज भी एक स्त्री के जीवन के महत्वपूर्ण निर्णयों को पुरुष सदस्यों द्वारा लिए जाने की प्रवृत्ति देखी जाती है। ‘सुभद्रा’ उपन्यास में कृष्ण का निम्नलिखित कथन सुभद्रा के माध्यम से हर आधुनिक स्त्री की पीड़ा को प्रस्तुत करता है-"स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की जितनी शिक्षा सुभद्राको दी गयी है, स्वावलम्बन का जितना गौरव-गान उसके सम्मुख किया गया है, अब वहीस्वतंत्रता, अधिकार तथा आत्मनिर्भरता हम लोग उसे नहीं देना चाहते।"[vi] एक स्त्री के मानवीय अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए आवश्यक है कि महिलाओं को सिद्धांततः और व्यवहारतः स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता तथा अधिकार जैसे मूल्यों से साक्षात्कार करवाया जाए।

महाभारतकालीन स्त्री पात्र ‘सुभद्रा’ एक बालिका, एक युवती, एक पत्नी इत्यादि सभी भूमिकायों में परम स्वतंत्र, प्रखर तथा तेजमयी रही है। अपने स्वतंत्र विचारों के बल पर अपने जीवन केसभी निर्णयों में उसकी भूमिका सर्वोपरि रही है। यद्यपि‘सुभद्रा’ महाभारतकालीन मिथकीय चरित्र है लेकिन उनका व्यक्तित्व सम‌कालीन आधुनिक स्त्री को अपने दीप्तिमान संस्पर्श से आंदोलित करने की क्षमता रखता है। रथ का सारथ्य करने से लेकर अपने सोलह वर्षीय पुत्र अभिमन्यु को रणभूमि में जाने की आज्ञा देना सुभद्रा को वीर क्षत्राणी के रूप में प्रतिष्ठित करता है। जीवन की अनिश्चितता के मध्य भी सावधानी, सतर्कता, उदारता एवं वीरता से जीवन जीकर ‘सुभद्रा' प्रत्येक भारतीय स्त्री के लिए प्रेरणास्रोत बन सकती है। नरेंद्र कोहली ‘सुभद्रा' उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं-"सुभद्रा एक अक्षुण्ण स्त्री की ऐसी कथा है जो मानवीय भावनाओं और मान्यताओं को स्वीकार करने के लिए कृष्ण की सहायता से चैतन्यभाव में स्वयं के भीतर की यात्रा करती है और असत्य व आभासी सत्यों की उन चेष्टाओं को समझने का प्रयास करती है जोन कभी विलुप्त होती है न पूर्णतः सापेक्ष।"[vii] सुभद्रा के व्यक्तित्व की विशदता से निश्चित रूप से नरेंद्र कोहली केस्त्री पात्रों की अवधारणा का साधारणीकरण हो सकता है तथा प्रत्येक भारतीय स्त्री आत्मावलोकन की प्रक्रिया से गुजर सकती है। यद्यपि महिलाओं में व्याप्त असुरक्षा की भावना ने ही उनका वास्तविक स्वरुप अभिव्यक्त नहीं होने दिया। पुरुष-मात्र के प्रति महिलाओं का ऐसा अविश्वास सामाजिक एकता एवं प्राकृतिक रूप से बनाई स्त्री-पुरुष संयोग की सृष्टि की उत्पत्ति के अस्तित्व को खतरे में डालने का प्रयास करता है। समाज के सर्वांगीण विकास तथा सृष्टि के शाश्वत नियमों के अधीन होकर एक स्त्री, पुरुष की सहचरी बनकर तो रह सकती है किंतु परस्पर विरोधी भाव प्राकृतिक असंतुलन स्थापित करने का माध्यम बन सकता है। यह स्त्री-विमर्श का उदात्त पक्ष है कि आज की स्त्री, पुरुष-समाज के विरुद्ध इसलिए जाने का सामर्थ्य रखती है क्योंकि वह पुरुष से अपने लिए समानता, सहअस्तित्व एवं नैसर्गिक वैयक्तिक मूल अधिकारों की मांग करती है। पुरुष को अपना समकक्ष मानते हुए भी अपना पूरक मानना हर युग की स्त्री की वैचारिकता का मूलभाव रहा है। ‘सैरंध्री' उपन्यास में भी 'द्रौपदी' कहती है-"समाज इस प्रकार बँट कर नहीं चल सकता कि पुरुषों का राज्य है तो स्त्री असुरक्षित रहे और स्त्रियों का राज्य आए तो पुरुष स्वयं को असुरक्षित पाए।.. प्रकृति ने तो उन्हें एक-दूसरे का पूरक बनाया है। यदि वे एक-दूसरे को अपना शत्रु मानने लगें, तो कोई पत्नी अपने पति, और कोई पति अपनी पत्नी की निकटता में सुरक्षित नहीं रहेगा?"[viii] ‘सैरंध्री’ उपन्यास में प्रस्तुत किया गया यह दृष्टिकोण आधुनिक समय में नारीवादी दृष्टिकोण के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में भूमिका निभा सकता है। पुरुष मन द्वारा एक स्त्री को वासना की दृष्टि से देखकर उसके 'शरीर' को अपनी कामना-पूर्ति का उपकरण मात्र मानकर समाज की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने अंतर्मन में प्रवेश कर नारी-सौन्दर्य और स्त्री-पुरुष संबंधों का गहन विश्लेषण करने की आवश्यकता है। जरूरत यह भी है कि एक समाज केतौर पर 'मन' पर नियंत्रण की नितांत जरूरत पर बल दिया जाना चाहिए ताकि समाज के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़े एवं चहुंमुखी सामाजिक उन्नयन हो सके। सभी के समान अधिकारों का सम्मान करते हुए अपने मनोविकारों को समुचित नियंत्रण के दायरे में रखा जाना चाहिए, क्योंकि स्त्रियों की सुरक्षा के लिए ‘पुरुष’ मन की वासना अधिक जिम्मेदार है नकि किसी स्त्री की सुंदरता। युधिष्ठिर यानी कंक, राजा विराट से कहते भी हैं-”पुरुष मन में वासना भड़काने का कारण सैरंध्री के शरीर का सौंदर्य नहीं, पुरुष के मन की वासना है.... इसलिए नियंत्रण उस मन और उसकी वासना का होना चाहिए, जो पर-स्त्री के रूप को देखकर अपना संयम खोता है।”[ix] स्त्रियों के प्रति अपनी लंपटता एवं लोलुपता की प्रवृत्ति पर पुरुषों से समुचित संयम की अपेक्षा आवश्यक है। जब-जब ऐसा नहीं हुआ है तब-तब समाज स्त्रियों को भोग्या मानकर कलंकित करता रहा है तथा उसके पैरों में बेड़ि‌याँ बांधकर जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति से रोकता रहा है।

जिस प्रकार कुंती औरद्रौपदी को सामाजिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा तथा पग-पग पर समाज की जड़बद्ध मान्यताओं ने उनके व्यक्तित्व को सहज नहीं रहने दिया और न उनको मूल मानवीय अधिकार सुलभ्य हो सके; उसी प्रकार रामायण-कालीन स्त्री-पात्र 'अहल्या' का जीवन भी उत्पीड़न और शोषण का शिकार रहा है। एक आश्रम के कुलपति गौतम की पत्नी ‘अहल्या' पर एक ज्ञान सम्मेलन के दौरान जब उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली सत्ताधारी इंद्रकी नजर पड़ती है तो वह विचलित होकर मन का संयम खो देता है।[x] अपनी अनुचित वासना की पूर्ति के लिए इन्द्र मौके का फायदा उठाकर अहल्या के साथ दुराचार करता है। इतना ही नहीं इंद्र उसे सामाजिक रूप से कलंकित कर जाता है। तत्कालीनआर्यावर्त की संपूर्ण राजसत्ता और सारा समाज इंद्र के सम्मुख असहाय होकर उसके इस जघन्य अपराध के प्रति मूकदर्शक बन जाते हैं।न कोई उस समय ‘अहल्या' के मन की पीड़ा समझता है न ही ऋषि गौतम की व्यथा को। सत्ता के शीर्ष पर बैठे शक्तिशाली सत्ताधारी द्वारा एक दंपत्ति के प्रति ऐसे निंदनीय कृत्य के विरुद्ध न कोई आवाज उठती है न कोई अन्याय के विरुद्ध प्रतिशोध की भावना। यह एक जड़ हो चुके समाज की निशानी है जो अन्याय के प्रति भी असहाय एवं संवेदनहीन हो चुका है। नरेंद्र कोहली ‘अहल्या’ उपन्यास में ऋषि गौतम एवं अहल्या का वर्णन करते हुए लिखते हैं-"वे अनुभव कर रहे थे कि इंद्र ने उनको कितना अपमानित, पीड़ित और प्रवंचित किया था... अहल्या! जो उनकी संपूर्ण कोमलभावनाओं, प्रेम तथा संवेदनाओं की पूंजीभूत मूर्ति थी, उसके साथ इंद्र ने बलात्कार किया था.... अहल्या के मन में कितनी पीड़ा होगी!……… क्या सोचती होगी अहल्या? सतीत्व की रक्षा के जो संस्कार पीढ़ियों से उसे दिए गए है, और जो इस समय उसके जीवन-मरण का प्रश्न है, वह सतीत्व भंग किया है इंद्र ने।”[xi] आज भी प्रताड़ना एवं शोषण की शिकार महिलाएँ ही समाज की नजरों में दोषकी भागी बनती है तथा यदि कोई उसका समर्थन करता है तो उसी का बहिष्कार होने लगता है। इन विपरीत परिस्थितियों में एक स्त्री को सांत्वना, प्रेम तथा देखभाल वाले ऐसे स्पर्श की आवश्यकता होती है जो न केवल उनके मानसिक अवसाद से उबारने में सहायक हो अपितु उसको यह विश्वास भी दिला सके कि उसके विरुद्ध हुए अन्याय का प्रतिशोध अवश्य लिया जाएगा। ‘अहल्या’ उपन्यास में ऋषि गौतम अपनी उत्पीड़ित पत्नी के लिए यही भूमिका निभाते हुए कहते हैं-“मैं तुम्हारी सहनशीलता और उदारता पर मुग्ध हूँ। जितनी पीड़ा तुमने सही है, उसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। तुम्हारी इस अवस्था में चाहिए तो यह था कि मैं तुम्हें संभालूँ, तुम्हें स्नेह और सांत्वना दूँ। तुम्हारी देखभाल करूँ, तुम्हारी रक्षा करूँ, तुम्हारे अपमान का प्रतिशोध लूँ।“[xii] इन विपरीत परिस्थितियों में एक स्त्री को सह‌योग, सांत्वना तथा स्नेह का संस्पर्श उसके मानसिक घावों के उपचार में लाभकारी हो सकता है। ऋषि गौतम ‘अहल्या’ के प्रति अपने प्रेम को अधिक जीवंत बनाकर उसे उसका वास्तविक तेज लौटाने का प्रयास करते हैं तथा समस्त सांसारिक लोभों का तिरस्कार करते हुए भी अपनी पत्नी के साथ खड़े रहतेहैं। नरेंद्र कोहली ने अहल्या के चरित्र का आधुनिक दृष्टि से विश्लेषण करते हुए आज के समय में भी महिलाओं के विषय में प्रगतिशील दृष्टिकोण उपस्थित किया है। प्रसिद्ध आलोचक यशपाल कहते हैं- “अहल्या के चरित्र को अपनी सोच के अनुसार आधुनिक नजरिए से देखना, सोचना और लिखना, फिर भी पाठकों में उसकी लोकप्रियता बनाए रखना एक नूतन प्रयोग ही माना जाएगा।”[xiii] इस कथन से अहल्या के माध्यम से भारतीय स्त्री के सशक्तिकरण की अनुगूँज सुनाई देती है।

अहल्या के आग्रहपूर्ण हठ के कारण ऋषि गौतम को उससे अलग रहकर कुलपति बनने के प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ता है लेकिन इंद्र के विरुद्ध प्रतिशोध की तृष्णा ऋषि गौतम को कुलपति बनने के लिए बाध्य करतीहै। कुलपति बनकर ही वह अपनी पत्नी अहल्या के विरुद्ध हुए अत्याचार का प्रतिकार कर सकते थे जिस शक्तिशाली सत्ताधारी इन्द्र के विरुद्ध वर्षों तक मूकदर्शक बने समाज द्वारा बहिष्कृत अहल्या को पाषाणवत् जीवन जीना पड़ता है। आज के समय में भी एक स्त्री किसी न किसी रूप में पाषाणवत् जीवन जीते हुए भी मुख्यधारा से बहिष्कृतप्रतीत होती है।रामायणकाल की अहल्या को तो तत्कालीन राजसत्ता के नायक ‘राम’ राजनीतिक मान्यता प्रदान कर अभय देते हैं।[xiv] लेकिन वर्तमान मेंसमाजद्वाराउत्पीड़ित, शोषित कई महिलाएँ सामाजिक न्याय, महिला सुरक्षा तथा लैंगिक संवेदनशीलता की प्रतीक्षा के लिए अभिशप्त है।रामायणकालीनऋषि विश्वामित्र 'अहल्या' के माध्यम से प्रत्येक स्त्रीके मन के उद्‌गारों को व्यक्त करते हुए कहते हैं- “आज भी अहल्या, सामाजिक रूप से परित्यक्त मानवीय समाज से असंपृक्त, अपने इस आश्रम मेंसर्वथा एकाकी, जड़वत, शिलावत् निवास कर रही है। वह सामाजिक मर्यादा पाने की प्रतीक्षा कर रही है।"[xv] महिला सशक्तिकरण के लिए समाज के वंचित वर्गों में शामिल महिलाओं की समस्याओं का गहन अन्वेषण, अध्ययन तथा निराकरण करने की दृष्टि से नरेंद्र कोहली के ‘कुंती', 'हिडिम्बा', ‘सुभद्रा’, ‘सैरंध्री’, 'अहल्या' आदि उपन्यास नवीन दृष्टि प्रदान कर सकते हैं यद्यपि ये पात्र रामायण तथा महाभारत काल के होने के कारण मिथकीय हैं, किंतु स्त्री-विषयक अवधारणा के आधुनिक स्त्री-जीवन के सभी आवश्यक पक्ष इसमें शामिल हो जाते हैं जो प्रत्येक युग में प्रासंगिक हैं। प्रसिद्ध आलोचक और साहित्यकार कमल किशोर गोयनका कहते हैं- “मेरे लिए तथा मेरे समय के समाज के लिए रामायण तथा महाभारत की कथाओं तथा पात्रों के व्यापक संसार के धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय तथा मानवीयता-अमानवीयता आदि के शाश्वत प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं के उत्तर पाने का मार्ग सुलभ कराया।”[xvi] यह नरेंद्र कोहली की निरुपम विशेषता है कि आधुनिक समय में ‘महिला सशक्तिकरण’, ‘सामाजिक न्याय' तथा ‘स्त्री-जीवन की व्यथा-कथा’ की सार्थक अभिव्यक्तिउनके उपरोक्त उपन्यासों में सहजता से हो जाती है।

इस प्रकार महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से आज काविश्व-समाज स्त्री-विषयक अवधारणामें नरेंद्र कोहली के इन स्त्री-विषयकउपन्यासों से मौलिक उद्भावनाओं को ग्रहण कर महिला सशक्तिकरण के नवीन प्रतिमानों को आत्मसात् कर सकता है तथा सामाजिक उन्नयन के अनछुए क्षितिज का साक्षात्कार कर सकता है।

संदर्भ :
i. नरेंद्र,कोहली;कुंती,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2012, पृष्ठ संख्या 255
ii. नरेंद्र,कोहली; आनुषंगिक, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2010, पृष्ठ संख्या 51
iii. नरेंद्र,कोहली;कुंती,वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2012, पृष्ठ संख्या 36
iv. नरेंद्र,कोहली; हिडिंबा, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2012, पृष्ठ संख्या 33
v. नरेंद्र,कोहली; सुभद्रा, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2021, पृष्ठ संख्या 79
vi. वही, पृष्ठ संख्या 26
vii. नरेंद्र,कोहली; सुभद्रा की भूमिका, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2021
viii. नरेंद्र,कोहली; सैरंध्री, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2016, पृष्ठ संख्या 15
ix. वही, पृष्ठ संख्या 126
x. नरेंद्र,कोहली; अहल्या, हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशक हरियाणा, प्रकाशन वर्ष 2021, पृष्ठ संख्या 81
xi. वही, पृष्ठ संख्या 71
xii. वही, पृष्ठ संख्या 92
xiii. जनमेजय,प्रेम;संपादक:नरेंद्र कोहली के न होने का अर्थ,वाणी-प्रकाशन;प्रकाशन-वर्ष2022,पृष्ठ संख्या 213
xiv. नरेंद्र,कोहली; अहल्या, हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशक हरियाणा, प्रकाशन वर्ष 2021, पृष्ठ संख्या 106
xv. वही, पृष्ठ संख्या 116
xvi. जनमेजय,प्रेम;संपादक:नरेंद्र कोहली के न होने का अर्थ,वाणी-प्रकाशन;प्रकाशन-वर्ष2022,पृष्ठ संख्या 20

तरुण किशोर नौटियाल
शोधार्थी, हिन्दी-विभाग, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय ,श्रीनगर, उत्तराखंड

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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