शोध आलेख : प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज / अमित यादव, गौतम कुमार लामा एवं सोमप्रियो समद्दार

प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में वर्णित भारतीय समाज का स्वरूप
- अमित यादव, गौतम कुमार लामा, सोमप्रियो समद्दार





शोध
सार : ईसा पूर्व छठीं सदी में बौद्ध धर्म का उदय भारतीय समाज में एक धार्मिक क्रान्ति के रूप में हुआ,जब वैदिक धर्म का यज्ञ-कर्मकाण्डीय स्वरूप अत्यधिक जटिल हो गया था, आत्म-कल्याण की मनोभावना में अत्यन्त कमी आयी एवं आडम्बर अत्यधिक चरमोत्कर्ष पर था। तत्कालीन परिस्थितियों में परिवर्तन के लिए बौद्ध धर्म के प्रवतर्क गौतम बुद्ध द्वारा दिए गए वचनों (उपदेशों) का संकलन ही प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य है,जिसे त्रिपिटक (विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक) के रूप में संकलित किया गया, जो मूलतः पालि भाषा में है। बुद्ध ने उस काल की सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों पर विचार व्यक्त किए एवं जनमानस को उपदेश दिए। उन्होंने समाज को एक जीवन प्रणाली एवं संगठन दिया, जिसके अर्न्तगतपरिवारिकव्यवस्था,वर्ण-व्यवस्था, विवाह, खान-पान, वेश-भूषा एवं मनोरंजन इत्यादि सम्मिलित थे, जो प्रस्तुत लेख मेंवर्णित किए गए है।

बीज शब्द : बौद्ध धर्म, समाज, यज्ञ-कर्मकाण्ड, आडम्बर, वचन, त्रिपिटक, संकलन, जीवन प्रणाली, संगठन, व्यवस्था।

मूल आलेख : प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य का संकलन पालि भाषा में त्रिपिटक (विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा अभिधम्मपिटक) के रूप में हुआ है। सुत्तपिटक के पाँच भेदोंके अंग हैं-दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय एवंखुद्दकनिकाय खुद्दकनिकायमें बुद्ध के उन सभी उपदेशों का संकलन है, जो अन्यचारों निकायों मेंसंकलित नहीं है। खुद्दकनिकाय को पन्द्रह भागों में विभक्त किया गया हैखुद्दकपाठ, धम्मपद, उदान, इतिवुत्तक, सुत्तनिपात, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, जातक, निद्देस, पटिसम्मिदा, अपदान, बुद्धवंशएवं चारियापिटक(1)इन ग्रंथों में सुत्तनिपात, इतिवुत्तक एवं उदान विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं।(2)सुत्तनिपातमें सांस्कृतिक जीवन प्रणाली वर्णित है, तो वही इतिवुत्तक में दार्शनिक पक्षों का वर्णन दिया गया है। धम्मपदको बौद्ध अनुनायियों की गीता  का स्वरूप माना गया है, जिसमें जनमानस के भौतिक पक्षों को बतालाया गया है।

पारिवारिक-व्यवस्था : बौद्ध कालीनपरिवारसामाजिक व्यवस्था की मूल इकाई थी, जो समाज की सभी संस्थाओं की मूल थी। इस काल में परिवार को छोटा समाज एवं समाज को बड़ा परिवार समझा जाता था।

बुद्धकालीन समाज में परिवार संयुक्त था। परिवार का मुखिया गहपति कहलाता था। इनमें माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री एवं शेष सम्बन्धित सदस्य सम्मिलित थे।(3)परिवार के सभी लोगों के कर्तव्य एवं अधिकार बटे हुए होते थे। कर्तव्यों का पालन करते हुए, परिवार के प्रत्येक जन अपने सुनिश्चित अधिकारों का ध्यान भी रखते थे।  अतःबौद्ध कालीन परिवार बहुत ही अनुशासित होते थे।

गौतम बुद्ध के अनुसार, वह सभी मनुष्य जो अपने माता-पिता, पति-पत्नी, बहन आदि को कष्ट पहुँचातेहैं, उनकी सेवा नहीं करते हैं, वह अधर्मीय है।(4) वृद्ध, माता-पिता का पालन-पोषण करना पुत्र का परम एवं पवित्र कर्तव्य माना गया है।(5)सुत्तनिपात में वर्णित है किसामर्थ होने पर भी, माता-पिता की सेवा करना, जो मनुष्य अकेले ही स्वादिष्ट खान-पान करता है, जो जाति, धर्म एवं गोत्र का अभिमान करता है तथा मित्रों का अपमान करता है, जो अपनी स्त्री से असन्तुष्ट रहता है तथावैश्याओं के पास जाता है एवं जो प्रशासक लोभी एवं सम्पत्ति को बर्बाद करने वाले किसी स्त्री या पुरुष को मुख्य स्थान पर नियुक्त करता है, ये सभी स्थितियांमनुष्य के पतन का कारण है(6)सिगालोवादसुत्त में वर्णित है किगहपति को माता-पिता, आचार्यों, स्त्री, पुत्र, मित्र, कर्मकार तथा श्रमण-ब्राह्मण का अनुपालन करना चाहिए(7)अंगुत्तर निकाय में उल्लेखित है कियदि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता की हत्या कर देता है तो उन बुरे कर्म करने वालों को बुरे फल का हिस्सेदार होना पड़ता है(8)एक अन्य स्थान पर माता-पिता की हत्या करने वाले को निन्दा का पात्र बताया गया है।(9)

स्त्रियों की दशा : स्त्रियाँ परिवार की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सदस्य होती थी। माँ, पत्नी एवं पुत्री के रूप में इनका उल्लेख बौद्ध साहित्य में वर्णित किया गया है।(10)महाहंस जातकमें कहा गया है कि उन्हीं में क्रीड़ाप्रतिष्ठित है, जो रति का आधार है, उन्हीं में बीज अंकुरित होते है तथा उन्हीं में प्राणी उत्पन्न होते है। जो स्त्री दरिद्र पति के साथ दरिद्री बनकर रहती है और धनी होने पर धनवान बनकर रहती है, वही कीर्तिमान नारी उसकी श्रेष्ठ भार्या है।(11) गौतम बुद्ध ने एक तरफ़ पुत्र के धार्मिक स्वरूप को महत्त्व नहीं दिया वहीं दूसरी ओर उन्होनें कन्याओं में स्वाभिमान एवं स्वावलम्बन की भावना उत्पन्न करने वाले सिद्धान्त का प्रचार किया। यहाँ उल्लेखनीय है कि बौद्ध साहित्य मेंऋणसिद्धान्त का कोई उल्लेख होने सेपुत्र-प्राप्तिके आवश्यक सिद्धान्त को ठुकरा दिया गया। वीणथूल जातक के अनुसारएक बार एक लड़की एक कुबड़े के साथ भाग गयी थी, जिसे बोधिसत्त्व ने घर पहुँचाया और परिवार वालों ने उसे स्वीकार भी कर लिया।(12)कभी-कभी विवाह में पुत्रियों को वर चुनने की भी स्वतंत्रता थी।(13)

वर्ण-व्यवस्था :

जच्चा बाह्मनो होति, जच्चा होति वसलो।
कम्मुनाबाह्मनो होति,कम्मुना होति वसलो।।

बुद्ध की इस प्रसिद्ध युक्ति को आधार बनाकर अधिकांश विद्वानों ने बुद्ध को वर्ण-व्यवस्था का विरोधी बताया है। मेरे विचार में विरोध का अर्थ किसी विशिष्ट व्यवस्था को पूर्णतया अस्वीकार करना है, किन्तु बुद्ध ऐसा नहीं करते वरन वे वर्ण-व्यवस्था के पोषकप्रतीत होते हैं। उनका विरोध केवल इतना ही था कि यह जन्म आधारित होकर कर्म आधारितहोना चाहिए। बौद्ध धर्म में क्षत्रियों को क्रमानुसार प्रथम स्थान पर रखा गया है। इस सन्दर्भ में भ्रांति-वश कुछ विद्वान यह कहते हैं कि स्वयं बुद्ध क्षत्रिय थेअतः उन्होंने ऐसा किया होगा, किन्तु यह पूर्णतया असत्य है। इसका प्रमाण दीघनिकायके अग्गगन्न सुत्त में मिलता है जिसमें बुद्ध वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते है।बुद्ध कहते है कि वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति का मूल कारण मानव आलस्य एवं लालची स्वभाव था। जब कृषि समुन्नत अवस्था में पहुँची और अधिशेष उत्पादन होने लगा तब समाज के कुछ अराजक तत्वों ने निःसहाय लोगों की भूमि हड़प्पनी शुरू कर दी। ऐसी अवस्था में जनता ने यह निर्णय लिया कि समाज के शक्तिशाली व्यक्तियों को क्षेत्र (खेत) की रक्षा का प्रभार सौंपा जाएऔर उसके बदले उन्हें उपज का कुछ हिस्सा अर्पित किया जाए। खेत अथवा क्षेत्र की रक्षा करने के कारण,‘खत्तियअथवाक्षत्रीयकहलाये। चूँकि उत्पत्ति की दृष्टि से प्रथम वर्णक्षत्रीयथा, इस लिए बौद्ध साहित्य में क्षत्रीय को प्रथम स्थान पर रखा गया है। इन्हीं क्षत्रीयों में सर्वसम्मति से एक प्रधान (महासम्मत) चुना गया जो बाद में राजन् अथवा राजा कहलाया। जब समाज में शान्ति-व्यवस्था कायम हो गई तो जिस वर्ग ने अध्ययन-अध्यापन एवं लेखन का बीड़ा उठाया उन्हेंअज्झायक’ (अध्यापक) कहा गया, जो बाद मेंब्राह्मणकहलाये। जिन लोगो ने कृषि, पशुपालन एवं व्यापार तथा वाणिज्य को अपनाया वे वैश्य कहलाये। इतने सारे कार्यों के वाबजूद जो केवल आखेटक जीवन व्यतीतकर रहे थे, वे शूद्र कहलाये।(14) अतः बौद्ध परम्परा कीवर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी परम्परा की वर्ण-व्यवस्था से अलग दिखती है।

वैवाहिक-जीवन : ब्राह्मण धर्म मेंविवाहको एक अत्यन्त पवित्र एवंउदात्त स्वरूप प्रदान किया गया है।गृहस्थ-आश्रमसभी आश्रमों का मूल तथा गृहस्थ जीवन का आधारविवाहमाना गया। वही पालि त्रिपिटक में भी इस प्रकार की परिकल्पना का संक्षिप्त वर्णन मिलता है, परन्तु पुरुष की अपेक्षा स्त्री के लिए विवाह की अनिवार्यता पर अधिक ज़ोर दिया गया है और इस प्रसंग से प्रतीत होता है कि तत्कालीन समाज में अविवाहित स्त्रियों को घृणा की भावना से देखा जाता रहा होगा। जातकों में गृहस्थ जीवन का वर्णन करते हुए पत्नियों के स्थान उपयोगीता पर बल दिया गया है।सुजाता जातक में माता भार्या, भगिनीभार्याएवं दासी भार्याके रूप में कुशल गृहिणी का उल्लेख आता है। मृदुलम्खण जातक में पत्नी का महत्त्व बताते हुए वर्णन मिलता है कि स्त्री के लिए पुरुष पुरुष के लिए स्त्री आलम्बन है।(15)अंगुत्तरनिकाय में वर्णित है किपुरुष-स्त्री का अलंकरण है, आश्रय है और वही आच्छादक भी है(16)

बौद्ध साहित्य में ब्राह्मण साहित्य मेंउल्लेखित आठ प्रकार के विवाह का विधान नहीं मिलता, बल्कि इनमें केवल ब्रह्म, प्रजापत्य, असुर, गन्धर्व एवं राक्षस प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। समाज में ब्रह्म विवाहअधिक लोकप्रिय था।(17) बौद्ध साहित्य में वर्णित विवाहों का जो स्वरूप है वह ब्रह्म एवं प्रजापत्य विधियों से ब्राह्मण धर्म जैसा दिखाई देता है। ये दोनों माता-पिता की अनुमति से निश्चित किया जाता है तथा इसमें वर के कुल, आचरण, विद्या, स्वास्थ्य आदि का विशेष ध्यान रखा जाता था।अतः वर एवं कन्या का एक शुभ घड़ी में विवाह सम्पन्न होता है।(18) कन्या का पिता, कन्या को वस्त्र एवं आभूषण दान करता था। विवाह के पश्चात, वर अपनी वधू को स्वगृह लेकर आता था।(19) असुर, गन्धर्व एवं राक्षस - ये तीनों विवाह के प्रकारअधर्मयमाने जाते थे जिसमें कन्या को बेचकर, जबरन रात में सोई कन्या को उठा कर तथा धन द्वारा पत्नी की प्राप्ति के बहुत से उदाहरण उल्लेखनीय है।

विधवा-विवाहका वर्णन अनेक जातकों से प्राप्त होता है। एक जातक में सन्दर्भ आता है कि एक राजा के मरने के पश्चात्, उनकी पत्नी राजपुरोहित के संग विवाह सम्बन्ध में पुनः बन्ध गई। एक स्थान पर वर्णन आता है कि एक स्त्री ने राजा को उत्तर में कहा था किपुत्र तो गोद में है, “पति रास्ते-रास्ते सुलभहैं।(20) इससे पता चलता है कि तत्कालीन समाज में नैतिकता का पतन हो रहा था। स्त्रियों पर किसी प्रकार के बन्धन नहीं थे। विधवा-विवाह पूर्ववर्ती काल (वैदिक काल) से होता रहा था।

खान-पान : बुद्धकालीन समाज में भोजन मुख्यतः दो प्रकार के थेशाकाहारी एवं मांसाहारी। प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में मध्य देश के खान-पान का वर्णन किया गया है। यहाँ के लोगों का मुख्य भोजनधानया उससे सम्बन्धित बनी वस्तु थीं।(21) उस काल में धान की अनेकों किस्में उगायी जाती थीं, त्रिपिटक मेंसालि’ (शाली), ‘वीही’ (व्रीहि) औरतण्डुलप्रकार की धान की किस्मों का उल्लेख आया है।(22)खान-पान मेंयवागू भातका भी जातकों में कई बार उल्लेख हुआ है। विसवन्तर जातक में विशेष कर यवागू भात की चर्चा हुई है। इसीजातक से ज्ञात होता है कि बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र कोखाजाअतिप्रिय था।महाउम्मग जातक मेंपूआलोक प्रिय मिष्ठान था।(23)

तत्कालीन समाज में दाल की भी कई किस्में उगायी जाती थीं जिसमें मुख्यतः मूंग, मटर, मसूर और कुल्थी का उत्पादन होता था। कुल्थी कोकुल्माषकी संज्ञा दी गई है। कुल्माष को भात के साथ खाया जाता था। सुत्तनिपातसे ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में तिल भी उगाया जाता था जिसकातिलोदकनाम से पालि साहित्य में उल्लेख कई बार आया है।(24)

खान-पान में मसालों का भी प्रयोग होते थे। गोध जातक में वर्णित तेल, ‘नमकके साथपिप्पलीनाम का कोई वस्तु प्रयोग में लाया जाता था। नड़गुट्ट जातक मेंनमकवर्णन मिलता है। मिर्च, अदरक, राई, लहसुन, जीरा इत्यादि का भी उल्लेख मिलता है।(25)

दीघनिकाय के अनुसार बुद्ध ने पावा में चुन्दकर्मार पुत्र के गृह परशूकर-मद्यव(सूअर का माँस या शकरकन्द)’ ग्रहण किया था।(26)अट्टकथासे ज्ञात होता है कि शूकर-मद्यव(सूअर का माँस या शकरकन्द) इन दोनों में से कोई एक ही था। ब्राह्मण धम्मिक सुत्त में ब्राह्मणों द्वारा गो-हत्या किए जाने का वर्णन मिलता है, इससे यह पता चलता है कि तत्कालीन समाज माँस-भक्षण को लेकर अति उत्साहित था। बहुत से जातकों में माँस की दुकानों एवं मांसाहार का वर्णन मिलता हैं।(27) वाराणसी के बाहर चौराहों पर मृग के माँस की दुकान बहुत प्रसिद्ध थी।इसके अलावे पक्षियों में कबूतर, हंस क्राँच, मोर एवं कौवे की माँस का वर्णन पालि साहित्य मे आया हैं।(28)

वेश-भूषा : बुद्धकालीन समाज में विभिन्न विचारधाराओं के अनुयायियों की वेश-भूषा अलग-अलग थी, जैसे - साधु, संन्यासी, धर्मोपदेशक तथा भिक्षु-भिक्षुणियों के कपड़े, गृहस्थों के वस्त्र अलग प्रचलित थे। प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में भिक्षुओं के वस्त्र के अलावा अन्य मतावलम्बियों के वस्त्रों का उल्लेख प्रसंग वश कियेगये हैं। दीघनिकायके अनुसार तत्कालीन समाज में श्रमण-ब्राह्मणों के भिन्न-भिन्न वर्गों में अलग-अलग प्रकार के वस्त्र प्रचलित थे, जैसे सन का बना वस्त्र (शाणानि), घूरों पर के चिथड़ों के बने वस्त्र (पांसुदुकूलानि), तिरीट छाल के बने वस्त्र(तिरीगनि), मृग के चर्म का बना वस्त्र(अजिनानि), कृष्ण मृग के चर्म की पट्टियों से बने वस्त्र (अजिनम्खिय), कुश के बने वस्त्र(फलकचीरं), मनुष्य के बालों से बने वस्त्र कम्बल(केस कम्बल), घोड़ों के दुम के बालों से बने कम्बल(बाल्कबलं), उल्लू के पंखों से बने कम्बल (उलूकपम्ख) इत्यादि।(29)

सुत्तनिपात में बहुत से स्थान परचीवरका उल्लेख मिलता है।(30)इसके अलावासंघाटीभिक्षुओं के उपयोगी वस्त्र में से एक था। इसी ग्रन्थ में वर्णित भिक्षुणियों के बहुत से प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख मिलता है। चीवर को रंगने के लिए छः रंगों का ज्यादातर प्रयोग किए जाता थामूल रंजक, खन्ध रंजक, तच रंजक, पत्तर रंजक, पुष्प रंजक, फल रंजक। रंगने के लिए पके रंगों का प्रयोग होता था तथा इससे सम्बन्धित वर्णनमहावग्ग में मिलता है।(31)

पुरुषों की वेश-भूषा में उष्णिष (पगड़ी) का भी उल्लेख मिलता है - उदाहरणार्थ भरहुत स्तूप के चित्रों में उकेरागया है। पैरों की सुरक्षा के लिए जूते का भी प्रयोग किया जाता था महावग्ग में जूते की कई किस्मों का उल्लेख आया है, यथा- पुटकद्धक, गूंठिक,तित्तिरपट्टिक इत्यादि।

बुद्ध कालीन स्वर्णकार बहुत से प्रकार के आभूषणों का निर्माण करते थे, जैसेकुण्डल (वल्लिक), कर्णफूल (पामङ्ग), गले के हार (कण्ठसुन्तक), अँगूठी (मुद्रिका) इत्यादि।गले का माला प्रसाधन में बहुत प्रसिद्ध थी।(32)

मनोरंजन : बुद्धकालीन समाज में मनोरंजन के साधनखेलकूद, आखेट, घुड़दौड़, नृत्य एवं संगीत इत्यादि थे। प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि भारतीय समाज बहुत धूम-धाम से धार्मिक एवं लौकिक उत्सवों को आयोजितकरते थे।त्रिपिटक में वर्णन आता है कि उन दिनों मनने वाले महोत्सवों का स्वरूप बहुत दिनों तक चलने वाले मेलों जैसा था। इन मेलों में खेल-तमाशों में बहुत भीड़ होती थी। दीघनिकाय के अनुसारदर्शकों को मेले के कार्यक्रम में देखने को बहुत कुछ मिलता था, जैसेनाटक,समूहगान, गीत, नृत्य, हस्तियुद्ध, महिषयुद्ध, मुर्गे का युद्ध, लाठी खेल इत्यादि(33)

निष्कर्ष : उपर्युक्तसंदर्भ से ज्ञात होता है कि प्रारम्भिक बौद्ध साहित्यमें वर्णित  भारतीय समाजसुव्यवस्थित था, जिसके अर्न्तगत पारिवारिक-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, वैवाहिक-जीवन, खान-पान, वेश-भूषा एवं मनोरंजन का अनुपालन किया जाता था। अल्प दोष होने के बावजूद भी, बौद्ध समाज में व्यक्तियों का जीवन काफ़ी उत्कृष्ट था। बौद्ध धर्म की लोकप्रियता ने पूर्ववर्ती सामाजिक-व्यवस्था को कई सारी चुनौतियाँ दीं एवं सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का यथा-सम्भव प्रयास किया, यथावर्ण एवं जाति व्यवस्था स्त्री-पुरुष भेद, बहुविवाह, प्राणी-हिंसा इत्यादि। बुद्ध द्वारा किए गए सामाजिक सुधारों को शासक वर्ग का भी समर्थन मिला। कालान्तर में विवश होकर ब्राह्मण धर्म में भी अनेकानेक सुधार किए गए।

सन्दर्भ :

      1.    डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय : बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 2018,पृष्ठ संख्या-185
2.    मोरिज़ विन्टरनित्ज : हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, मोतीलालबानारसी दास, 1996, भाग-2, पृष्ठ संख्या-113
3.    निमकाफ : फेमली, पृष्ठ संख्या-8
4.    एण्डरसन डी0 और एस0स्मिथ(सम्पादक) : सुत्तनिपात, भाग-1, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1913, पृष्ठ संख्या-719
5.    स्टाइनयल पी0 (सम्पादक) : खुद्दक निकाय, भाग-1, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1885, पृष्ठ संख्या-308
6.    एण्डरसन डी0 और एस0स्मिथ(सम्पादक) : सुत्तनिपात, भाग-1, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1913, पृष्ठ संख्या-6,8,12,14,22  
7.    जे0 तकाकुश और एस0 नागी (सम्पादक) : समन्तपासादिका, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1924-47, पृष्ठ संख्या-1076-77  
8.    आनन्द कौसल्यायन (अनु0 2010) : अंगुत्तर निकाय, भाग-2, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1957,  पृष्ठ संख्या-205
9.    स्टाइनयल पी0 (सम्पादक) : खुद्दक निकाय, भाग-1, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1885, पृष्ठ संख्या-42 
10. तेलपत्त जातक, पृष्ठ संख्या-96;जनसंघ जातक, पृष्ठ संख्या-468; महासंघ जातक, पृष्ठ संख्या-534
11. वही, पृष्ठ संख्या-534
12. वीणधूल जातक, पृष्ठ संख्या-232
13. साधुसील जातक, पृष्ठ जातक-200
14. जगदीश कश्यप (अनु0 2015) : दीघ निकाय, भाग-1, नवनालन्दा महाविहार, 1958, पृष्ठ संख्या-11
15. जनसंघ जातक, पृष्ठ संख्या–486; सुजाता जातक, पृष्ठ संख्या–369;तेलपत्त जातक, पृष्ठ संख्या–96;मृदुलम्खण जातक पृष्ठ संख्या-66
16. आनन्द कौसल्यायन (अनु0 2010) : अंगुत्तर निकाय, भाग-4, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1957, पृष्ठ संख्या-368-70
17. साधुसील जातक, पृष्ठ संख्या-200
18. भदन्त कौसल्यायन (अनु0 2013) : जातक, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, 1913, पृष्ठ संख्या-285
19. कुणाल जातक पृष्ठ संख्या-536
20. सुस्सीम जातक, पृष्ठ संख्या-163, उच्छाग जातक, पृष्ठ संख्या-67 
21. एण्डरसन डी0 और एस0 स्मिथ(सम्पादक)  : सुत्तनिपात, भाग-1, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1913, पृष्ठ संख्या-60 
22. जगदीश कश्यप (अनु0 2015) : संयुक्त निकाय, भाग -1, नवनालन्दा महाविहार, 1958, पृष्ठ संख्या-79
23. विसवन्त जातक, पृष्ठ संख्या - 69; महाउम्मग जातक, पृष्ठ संख्या -  546
24. एण्डरसन डी0 और एस0 स्मिथ (सम्पादक)  : सुत्तनिपात, भाग-1, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1913, पृष्ठ संख्या-60 
25. नड़गुट्टा जातक पृष्ठ संख्या-144,
26. जगदीश कश्यप (अनु0 2015) : दीघ निकाय, भाग-2, नवनालन्दा महाविहार, 1958, पृष्ठ संख्या-127
27.  उदान कथा, भाग-1, पृष्ठ संख्या-394
28. भदन्त कौसल्यायन (अनु0 2013) : जातक, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, भाग-6 1913, पृष्ठ संख्या-23
29. जगदीश कश्यप (अनु0 2015) : दीघ निकाय, भाग-2, नवनालन्दा महाविहार,1958, पृष्ठ संख्या-63
30. एण्डरसन डी0 और एस0 स्मिथ (सम्पादक) : सुत्तनिपात, भाग-2, पालि टेक्स्ट सोसाइटी, 1913, पृष्ठ संख्या-66 
31. राहुल सांस्कृत्यायन (अनु0 1935): विनय पिटक, महाबोधि सभा,1823,पृष्ठ संख्या-233
32. महावग्ग, भाग- 6, पृष्ठ संख्या-302;चूल्लवग्ग, पृष्ठ संख्या-195
33. जगदीश कश्यप (अनु0 2015) : दीघ निकाय, भाग-1, नवनालन्दा महाविहार, 1958, पृष्ठ संख्या-8

 

अमित यादव
शोध छात्र, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005

गौतम कुमार लामा
प्रोफेसर, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005
gklama09@gmail.com9956275758

सोमप्रियो समद्दार
शोध छात्र, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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