शोध आलेख : अम्बेडकर की दृष्टि में वंचित समुदाय का सामाजिक पुनरूत्थान / कन्हैया त्रिपाठी एवं ब्रजेन्द्र कुमार

अम्बेडकर की दृष्टि में वंचित समुदाय का सामाजिक पुनरूत्थान
- कन्हैया त्रिपाठी एवं ब्रजेन्द्र कुमार


शोध सार : प्रायः वंचित समुदाय की सामाजिक स्थिति को निर्धारित करने में ज्ञान का प्रयोग करते हुए संसाधन संपन्न और प्रभुत्वशाली वर्ग ने अपने एकाधिकार को बढ़ाने के लिए कार्य किया है। वंचित समुदाय का संपूर्ण जीवन सामाजिक नियमों से संचालित होता रहा है। इसलिए डॉ.आंबेडकर ने वंचित समुदाय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को तय करने में सामाजिक कारकों की भूमिका के बारे में अपने विचारों की अभिव्यक्ति की। भारत में जाति व्यवस्था स्तरीकरण पर आधारित व्यवहार की सीमाएँ हैं। ऐसी स्थिति में जातिगत, नस्लीय और सांस्कृतिक भेदभाव के कारण जातियों के बीच संघर्ष होने की संभावना होती है। इसके लिए विभेदीकरण और विलय की प्रक्रियाएँ निरंतर चलती रहती हैं तथा उनके आधार समयानुसार बदलते रहते हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के सूत्र राजनीतिक प्राथमिकताओं पर भी आश्रित होते हैं। अध्ययन में देखने का प्रयास किया गया है कि किसी समुदाय विशेष की स्थिति निर्धारण में भूमिका निभाने वाले तत्वों का संगठन और उनका प्रभाव निश्चित करने में किस प्रकार का रहा है?

बीज शब्द : हाशिआकरण, प्राकृतिक संसाधन, पर्यावरण संरक्षण, क्षरण, मुख्यधारा, ढांचा, यायावर, निकाय, अछूत, बहिष्कृत, आत्मसातीकरण।

मूल आलेख : डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भारत में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत के रूप में कुछ नई सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक पहचान को विश्व में स्थापित करने का काम किया है। डॉ. आंबेडकर उन परिस्थितियों की उपज थे जिनसे ब्रिटिशकालीन भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक संक्रमण हो रहा था। इस संक्रमण की प्रक्रिया ने नये तरह के नगरीकरण को विकसित किया था। ये नवीन नगर लोगों को नये अवसर उपलब्ध करा रहे थे। धनंजय कीर बताते हैं कि डॉ. आंबेडकर का संबंध तत्कालीन मध्य प्रांत की महू छावनी से रहा है।1 जो ब्रिटिशकालीन भारत में नव विकसित छावनी नगरों में से एक था। डॉ. आंबेडकर को बचपन से छावनी का सामाजिक वातावरण मिला हुआ था, जिसमें उनके समाजीकरण की प्रक्रिया पूर्ण हुई थी। डॉ. आंबेडकर का जीवन समानान्तर चल रहा था क्योंकि उनका सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश से संघर्ष का भी ये दौर था। क्रिस्तोफ़ जाफ्रलो ने महाराष्ट्र और उनके पारिवारिक सामाजिक पर्यावरण के सन्दर्भ में बताया कि आंबेडकर ने सर्वप्रथम अस्पृश्यों को सुधारने के कार्यों को प्राथमिकता दी ताकि वे हिन्दू समाज के अन्दर विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सकें।2 अमेरिकी प्रवास के दौरान वहाँ की संस्कृति के साथ जो संपर्क हुआ और किये गये अध्ययन ने उनकी विचार पद्धति को मजबूती से निखार कर उन्हें एक आकार में पिरोया था।

                 ईस्ट इण्डिया कंपनी की राजनीतिक विजय के भारतीय समाज पर दो परस्पर विरोधी परिणाम दिखाई पड़ते हैं- पहला- ब्राह्मण वर्ग अंग्रेजी प्रशासनिक नौकरशाही और व्यवसायों को अपना कर अपने दबदबे को पुनः स्थापित करने में संलग्न थे। दूसरा- अंग्रेजों ने अपने विद्यालयों और ईसाई मिशनरियों के माध्यम से जाति संरचना का एक उत्तेजक और आलोचनात्मक विश्लेषण पेश कर रखा था। इन दो परिणामों ने सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों को संगठित होने में सहयोग किया था।3 भारत में नौकरी के दौरान उन्हें अमानवीय सामाजिक अनुभव हुए, जो भारतीय समाज में समाहित थे। डॉ. आंबेडकर ने पाक्षिकमूकनायक4 में वंचित समाज की आवाज़ को उजागर किया। अब हाशिए के लोगों ने संगठित प्रयास शुरू कर दिए थे। 1920 . में नागपुर मेंअखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद्के आयोजन में सम्मिलित होकर एक प्रभावशाली भाषण दिया।5 अब डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व की प्रभावशीलता और विश्वानीयता वंचित समुदाय में स्वीकार होती जा रही थी। जिससे वंचित समुदाय की सोच और गतिविधियों को नये आधार मिलने लगे थे।

                 डॉ. आंबेडकर ने अस्पृश्य समाज के लोगों में सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से 9 मार्च, 1924 . को बंबई के परेल में दामोदर ठाकरसी सभागृह में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसके अनुसार 20 जुलाई, 1924 . कोबहिष्कृत हितकारिणी सभाका गठन किया जाना था।6 सभा का उद्देश्य अस्पृश्यों के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक उत्थान के लिए साधनों और रास्तों की खोज कर उनकी स्थिति में सुधार लाना था। गेल ओमवेट के अनुसारबहिष्कृतशब्द का प्रयोग 1920 . में एक छोटे संगठन द्वारा अकोला जिले में किया गया था।7 इस प्रकार से महाराष्ट्र के समाज में चेतनागत भावों के विकास के साथ, वंचित लोंगों का साझा मुद्दों पर जुड़ाव होना तेज हो गया था।

1926 . से डॉ. आंबेडकर के राजनीतिक जीवन की शुरूआत का पहला जन-संघर्ष कोंकड़ के महाड़ में पीने के पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मानव जीवन के लिए महत्ता को लेकर ही शुरू होता है। महाड़ नगरपालिका ने एक संकल्प पारित कर पानी के तालाबों को अछूतों के लिए खोलने की घोषणा की थी।8 इसी घोषणा के अनुसार 20 मार्च, 1927 को डॉ. बाबासाहेब ने चवदार तालाब की सीढ़ियाँ उतर कर एक अंजुली पानी भर कर पिया और इतिहास के एक नये दौर की शुरूआत कर,9 सामाजिक परिवर्तन की क्रियाओं को दिशा देना शुरू कर दिया था।

                 डॉ. आंबेडकर ने वंचित समुदाय में अपनी बात पहुँचाने के लिए 3 अप्रैल, 1927 कोबहिष्कृत भारतनाम से एक पाक्षिक पत्र की शुरूआत की।10 जिसका नाम बदल कर 1930 मेंजनतारखते हुए कहा किये लेख केवल दलित सम्मेलनों और बैठकों के बारे में ही नहीं बल्कि मजदूर वर्गों की हड़तालों और किसान आन्दोलनों के बारे में भी होते थे। क्रांति के लिए दलित लोगों का दबाव भी बढ़ रहा था, वे मूल रूप से काश्तकार, किसान मजदूर थे, जो कृषिगत भूमिहीन होते थे।11 वंचित समुदाय के लिए अनेक स्तरों पर काम किया जा रहा था। जैसे- भारतीय बहिष्कृत समाज शिक्षण मण्डल, दलित वर्ग शिक्षण मण्डल, समता सैनिक दल आदि। 1936 . में उन्होंने अपनी पहली राजनीतिक पार्टी इन्डिपेंडेंट लेबर पार्टी (आई.एल.पी.) के माध्यम से चुनावों में दलितों की समस्याओ को सीधे प्रतिनिधित्व देने की रणनीति अपनायी। जुलाई, 1942 में नागपुर मेंअनुसूचित जाति संघ’ (एस.सी.एफ.) ने पूरे भारत में राष्ट्रीय स्तर पर दलित आंदोलन की नई शुरूआत की।12 इसी समय डॉ. आंबेडकर वायसराय मत्रिमंडल में श्रम मंत्री बनाये गये थे।

                 14 अक्टूबर, 1956 को बाबासाहेब ने बौद्व धर्म को अंगीकार कर लिया और इसके कुछ ही समय बाद 6 दिसम्बर, 1956 को महापरिनिर्माण की प्राप्ति हुई।13 इस प्रकार से उन्होंने अपने जीवन को उन मूक और बहिष्कृत समाज के लोगों को समर्पित किया, जो सदियों से उपेक्षित और अमानवीय जीवन व्यतीत करते रहे थे। आनंद तेलतुमड़े लिखते हैं कि डॉ. आंबेडकर का अपनी स्थिति पर के बराबर या बहुत कम नियंत्रण था। उन्हें स्वयं के लिए स्थान बनाना पड़ा और अपने हित में स्थिति को प्रभावित करने की योजना बनाते रहनी पड़ती थी।14 जीवन पर्यन्त वे हाशिए के समुदाय को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए संघर्ष करते रहे। . आर. देसाई के अनुसारडॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में चलाया गया महान सत्याग्रह हरिजनों के लिए समान सामाजिक हक हासिल करने के लिए लड़ा गया महान संघर्ष था।15 इस संघर्ष को उन्होंने सांस्कृतिक स्तर पर लड़ा था। उस समय भारतीय समाज का विभाजन उन आधारों पर टिका हुआ था, जिन पर समाज के एक तबके को सम्पत्ति और प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता से वंचित रखने की रणनीति अपनायी गई थी।

                 डॉ. आंबेडकर ने जातीय और धार्मिक गुटों में बंटे भारत को सामंजस्यपूर्ण जीवन और वैचारिक समानता के लिए गैर ब्राह्मण वर्ग में शिक्षा के पिछड़ेपन और हिंदुओं में एक नई चेतना के रूप में अस्पृश्यों के अलग हितों के मौजूद होने की बात उजागर की।16 उन्होंने उन साधनों की पहचान की जिनसे समाज में असमानता और विषमता का सृजन किया गया था। इनके आधारों को धार्मिक रूप देकर समायोजित किया गया था। सुनील खिलनानी का मानना है किभारतीय समाज व्यवस्था द्वारा राजसत्ता के प्रतिरोध का आधार गाँव और समुदाय के विशिष्ट रूप जाति में निहित था। सजातीय विवाह और छुआछूत के आग्रहों से संचालित हजारों की संख्या में ये जाति-समूह वर्ण के सामाजिक श्रेणी क्रम में व्यवस्थित थे।17 समाज में प्रतिरोध को नियंतित्र करने के साधनों के रूप में उच्चता और निम्नता जैसे हथियारों का प्रयोग कर वैयक्तिक भावना को उभरने नहीं दिया गया और लोग अपनी यथास्थिति के प्रति समर्पित बने रहे।

                 प्राचीनकाल से स्तरीकृत और स्थिर बने हुए समाज में ब्रिटिश शासन के अधीन प्रशासनिक परिवर्तनों ने समाज के सामने संक्रमण की स्थिति को खड़ा कर दिया था। इस सांस्कृतिक संपर्क ने भारत की वैचारिक दृष्टि में भी परिवर्तन का नया वातावरण तैयार किया। डॉ. आंबेडकर की विचार दृष्टि को इस वातावरण में अपने निजी अनुभवों और शैक्षिक वैचारिकी के प्रयोगों के लिए जमीनी आधार उपलब्ध हो गये थे। उन्होंने अपने चिंतन में वंचित समुदाय की स्थिति के कारणों का पता लगा कर उनमें सुधार के उपायों पर अपनी संवेदनशीलता को व्यक्त किया। उन्होंने अपने सामाजिक जीवन के आदर्श को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व से प्रभावित बताते हुए बंधुत्व को सर्वोच्च स्थान देकर भाईचारे को मानव धर्म की संज्ञा दी है।18 ताकि समाज के अपने तत्त्व विकसित होकर राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करें। 28 अक्टूबर, 1954 के भाषण में बताते हैं किवे गौतम बुद्ध, कबीर और महात्मा फुले के भक्त हैं तथा ज्ञान, आत्म-सम्मान एवं चरित्र के पुजारी हैं।19 इन महात्माओं ने समस्याओं को पहचान कर उनके निदान के लिए अपरिवर्तनकारी तत्वों को चुनौती देकर परिवर्तन के मार्ग प्रशस्त किये थे। इन संतों ने श्रम की महत्ता के आधार पर समाजिक-धार्मिक सुधार की प्रक्रिया को प्रारम्भ किया था।

                 आधुनिक भारत में डॉ. आंबेडकर के उदय से पहले ही सामाजिक-धार्मिक सुधार की प्रक्रिया विकसित होने लगी थी तथा आंदोलन का रूप धारण करती जा रही थी। जाति पर आधारित ग्रामीण समुदाय ने जीवित संसाधनों का उपयोग करने के लिए बहुत सी संस्थाओं का विकास कर लिया था। महाराष्ट्र में महार जाति के लोग लकड़ी जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अवैध बर्बादी रोकने और उनको अन्य परिवारों तक सतत् आपूर्ति से जुड़े हुए काम को करती थी।20 ब्रिटिशकाल में विकसित हो रहे शहरीकरण ने इसको और अधिक तीव्र बना दिया था। उनकाभारत में जातिके उद्भव, प्रसार और स्वरूप के बारे में मानना है किजाति कोई नस्लीय परिघटना नहीं है, बल्कि एक सामाजिक परिघटना है।21 वे अछूतों तथा भारत के सभी गरीबों का भविष्य गाँवों में निहित होने के बजाय शहरीकृत एवं आधुनिक औद्योगिक अर्थव्यवस्था कायम करने में मानते हैं। 22 उनका अस्पृश्यता के खिलाफ संघर्ष जाति व्यवस्था की धारणओं को सीधे तौर पर चुनौती देता है। उमा चक्रवर्ती के अनुसारआंबेडकर ने जाति आधारित भेदभाव का राजनीतिकरण कर पिछड़ेपन की पूर्तिकारी प्रावधानों के लिए आवाज़ उठाई। जाति की कठोर आलोचना की वजह से ही वे स्त्री पराधीनता की समझ के स्तर पर दूसरों से बहुत आगे पहुंच गये।23 जाति के आधार पर स्तरीकृत व्यवस्था के लिए स्त्रियों को जिम्मेदार मानते हुए उनका आवाहन करते हुए कहा किजिन रीती-रिवाजों और प्रथाओ का आप पालन करती हैं उससे दूसरों पर यही जाहिर होता है कि अमुक व्यक्ति अछूत हैं। रीति-रिवाज और परम्पराएँ कुछ समय पहले हम पर थोप दी गयी थीं। लेकिन अंग्रेजी शासन में उनका पालन करने की कोई बाध्यता नहीं है। आपके साड़ी पहनने का तरीका निश्चित रूप से अछूत की पहचान है और सस्ते गहने भी आपको अछूत की पहचान देते हैं। इन गहनों की अपेक्षा कपड़े ज्यादा शोभा देते हैं। इसलिए पीतल के जेवरो में खर्च करने की बजाए अच्छे कपड़ो पर खर्च कीजिए। यदि आप गहना पहनें भी तो वह सोने का हो। उसी तरह आप साफ-सफाई पर ध्यान दीजिए। मार्च से हमारे लोगों ने मरे जानवरों का मांस खाना बंद कर दिया है। मुझे बड़ी खुशी है कि आपको आपनी बेटियों को भी शिक्षित करना चाहिए।24 उन्होंने वंचित समुदायों में स्त्रियों की उत्पादक भूमिकाओं को उजागर करते हुए महत्तवपूर्ण आधार दिए ताकि समाज उन्नति के मार्ग पर जा कर भविष्य के लिए तैयार हो। बच्चों की कम उम्र में शादी को हाशियाकरण का एक कारण बताया गया है।

                 डॉ. आंबेडकर स्पष्ट करते हैं किआर्थिक संबंधों के आधार पर ही धार्मिक-सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएं बनती हैं। यह रचना उतनी ही यथार्थ है जितनी की आधार की। यदि हम आधार को बदलना चाहते हैं तो हमें सबसे पहले खड़े हुए भवनों को गिराना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि हमें संबंधों में परिवर्तन लाना है तो पहले हमें पूर्व स्थापित सामाजिक-आर्थिक तथा अन्य को नष्ट करना पड़ेगा।25 वे कार्ल मार्क्स की आलोचना करते हुए वर्ग संघर्ष को भारत में संभव नहीं मानते हैं क्योंकि अस्पृश्य इस स्थिति में नहीं थे कि वो संगठित हो पाते। इसलिए वे प्रजातांत्रिक क्रांति की बात करते हैं। वे संपत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व के सन्दर्भ में स्वीकार करते हैं कि समाज के अच्छे के लिए आवश्यक है कि व्यक्तिगत संपत्ति को नष्ट कर लोगों के दुखों का अंत किया जाए।26 वे इस बात से सहमत दिखते हैं कि व्यक्तिगत संपत्ति समाज में विषमता पैदा करती तथा उसका संग्रह उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करता है। प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रयण जाति व्यवस्था के माध्यम से सुनिश्चित किया गया था। जाति के स्तरीकरण को व्यक्तिगत संपत्ति ने लम्बे समय तक स्थायी बना कर रखा हुआ था। इसीलिए जाति व्यवस्था की समाप्ति का एक मजबूत आधार व्यक्तिगत संपत्ति को नष्ट करने में ही था। पुरुषोत्तम अग्रवाल जाति को एक साँस्कृतिक जीवन दृष्टि व्यक्त करने वाली व्यवस्था के रूप में देखते हुए कहते हैं किजाति धर्म की मोक्षकामी अवधारणा का अनिवार्य अंग होने के कारण लौकिक, अलौकिक और दैवीय समर्थन हासिल कर दीर्घजीवी साबित हुई और दलितों द्वारा उसका आत्मसातीकरण कर लिया गया था।28

                 डॉ. आंबेडकर शिक्षा की महत्ता को सिद्ध करते हैं किहमारे पास ज्ञान या चतुराई नहीं है, जिनके पास ये हैं, वे इसका इस्तेमाल हमारे लोगों को दबाने और उस तरीके से ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर करने में इस्तेमाल करते हैं, जो उन्होंने हमारे लिए तय कर रखा है। हमारे समाज में लोगों को अपने बच्चों का जल्दी विवाह करने के अलावा कोई काम नहीं है।29 शिक्षा एक ऐसा साधन है जिसने मनुष्य जाति के जीवन को आसान और मजबूत बनाया है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति अपना मानसिक विकास कर शासक भी बन सकता है। जाति के विकास में इसी शिक्षा ने अपनी अहम् भूमिका निभाई हुई थी। अतः उसके विनाश में भी वह एक महत्त्वपूर्ण हथियार के रूप में कार्य करेगी। वे मनुष्य को इतिहास निर्माण की प्रक्रिया में भौतिक स्थिति के समकक्ष भागीदारी को देखते हैं। उनके अनुसार मनुष्य की भागीदारी बढ़ाने के लिए आवश्यक है किशिक्षा का प्रबंध इस तरह से होना चाहिए कि वह साधारण जनता को सुलभता से प्राप्त हो तथा वंचित समुदायों को शिक्षा उपलब्ध कराने में सहूलियतें देनीं चाहिए। शिक्षा एक पवित्र संस्था है और पाठशाला में मन सुसंस्कृत होते हैं। विद्यालय नागरिक तैयार करने वाला एक पवित्र क्षेत्र होता है, जहाँ पर राष्ट्रीयता, मानवता और अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने जैसे पवित्र कार्य किये जाते हैं। विद्यालय में उदार, संतुलित बुद्धिवाले, निष्पक्ष और विशाल हृदय वाले शिक्षक होने चाहिए।30 तत्कालीन नई शिक्षा व्यवस्था से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारतीयों में एक नई चेतना का विकास हुआ और इसीलिए लोगों ने अंग्रेजी शासन को खत्म कर आजाद भारत में अपना अस्तित्व स्थापित करने के मूल्य स्थापित किये थे।

                 डॉ. आंबेडकर की विचार दृष्टि में प्रजातंत्र एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों के ही निर्माण में सहायक हो सकती थी। इसीलिए उनकी स्थिति बेहतर करने के लिए लोकतंत्र की स्थापना को आवश्यक मानते थे। अपने अध्ययन काल में अमेरिका और ब्रिटेन की लोकतांत्रिक व्यवस्था से संपर्क के दौरान यह अच्छे समझ लिया था कि भारत में इसी व्यवस्था से लोगों को अभिव्यक्ति मिल पायेगी।राज्य और अल्पसंख्यक में लिखते हैं कीभूमि का भी राष्ट्रीयकरण किया जाए तथा सामूहिक खेती प्रारंभ हो। किसानों को राज्य का जोतदार समझा जाए, विकास की आवश्यताओं का आकलन, मजदूरों की सुरक्षा के अधिकार दोनों को ही ध्यान में रखते हुए वह भारत के द्रुत औद्योगीकरण के लिएराज्य-समाजवादको आवश्यक मानते हैं।31 अनिल सद्गोपाल के अनुसारडॉ. आंबेडकर ने आल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेज एसोशिएशन की तरफ से संविधान सभा को प्रेषित ज्ञापन में कहा था कि भारत के लिए जरूरी है कि देश की खेती-योग्य समस्त जमीन का जोतदारों के बीच बराबरी से बँटवारा कर दिया जाए। यह ज्ञापन वंचित वर्ग के पक्ष में जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधन को सुनिश्चित करने के लिए किया गया था। इसका कारण है कि अधिकाँश भूमिहीन मजदूर, आदिवासी, दलित, अन्य पिछडे़ और मुस्लिम हैं, जो देश की 80 प्रतिशत से अधिक बहुजन आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।32 भूमि के वितरण और उस पर अधिकार को लेकर उनका मानना था कि अस्पृश्यों की इस दयनीय स्थिति का उत्तरदायी कारण कहीं कहीं भूमि पर उनका अधिकार होना था। इस वर्ग के पास जब भूमि नहीं थी तो मजबूरी में ही उन्हें दूसरों पर निर्भर रहकर उनकी सेवा के कार्य करके अपने परिवार का पालन करना पड़ता था।

                 डॉ. आंबेडकर ने श्रम मंत्री के रूप में कहा किश्रमिक को स्वतंत्रता चाहिए। उनका यह विचार बहुत सकारात्मक है तथा उसमें जनता की सरकार की भावना निहित है। श्रमिक एक ऐसी सरकार चाहते हैं जो नाम और काम दोनों से ही जनता की सरकार हो तथा उसकी स्वतंत्रता में समान अवसर का अधिकार शामिल है और जिसमें राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार आगे बढ़ने की पूरी सुविधा प्रदान करें।उनके विचार मेंश्रमिक समानता चाहता है और जिसका अभिप्राय है सिविल सेवा, सेना, कराधान, व्यवसाय, और उद्योग में हर प्रकार के विशेषाधिकार समाप्त करनाश्रमिक भाईचारा चाहता है जिसका अर्थ है भाईचारे के सभी मानव उद्देश्य जो सभी श्रमिकों और राष्ट्रों को पृथ्वी पर मनुष्य मात्र के प्रति शांति और सद्भावना के लक्ष्य की ओर ले जाते हों।33 श्रमिकों की स्थिति को ठीक करने की दिशा में जो दूरगामी उद्देश्यों और आदर्शों को रखा, निश्चित ही वे हाशिए के समुदायों को सामाजिक स्तर पर सम्मान दिलाने वाले और सराहनीय थे।

निष्कर्ष : डॉ. आंबेडकर ने सिर्फ वंचित समुदाय में बल्कि प्रबुद्ध लोगों में यह विश्वास पैदा करने में सफल हुए कि आज़ाद भारत का जो निर्माण होगा उसमें सभी को सहभगिता करने का अवसर प्राप्त होगा। इसीलिए जब संविधान सभा का गठन किया गया तो उन्हें प्रमुख वास्तुकार के रूप उत्तरदायित्व सौंपा गया। उन्होंने भी अपनी जिम्मेदारी इतने समर्पण के साथ निभाई कि संविधान के तहत् एक राष्ट्र के रूप में भारत का जो निर्माण हुआ, उसने पूरे विश्व में अपने अस्तित्व को स्थापित कर वैश्विक पहचान स्थापित की है। भारत की सामाजिक व्यवस्था का ऐतिहासिक अध्ययन कर उस ढांचे को समझने का प्रयास किया है, जिसने व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वंचित समुदाय की सामाजिक स्थिति निर्धारण करने में उपलब्धता और वंचना की भूमिका महत्वपूर्ण है। डॉ. आंबेडकर ने ऐसे समाज के लिए अपना समस्त अवदान दिया और एक ऐसी सामाजिक संरचना की वकालत की जो हमारी भावी पीढ़ी को भी गरिमा के साथ जीने का अवसर प्रदान करे। उनका संघर्ष इस बात के प्रमाण हैं कि समतामूलक समाज ही सही भारत हो सकता है। इसीलिए वंचित समुदाय को संदेश देते रहे कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए स्वयं प्रयास करने होंगे।

सन्दर्भ :

1. कीर, धनंजय, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरः जीवन-चरित, पॉप्युलर प्रकाशन, मुंबई, 2023, पृ. 11.
2. जाफ्ऱलो, क्रिस्तोफ़, भीमराव आंबेडकरः एक जीवनी, राजमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2023, पृ. 19.
3. जाफ्ऱलो, क्रिस्तोफ़, पूर्वोक्त, पृ. 24.
4. कीर, धनंजय, पूर्वोक्त, पृ. 40.
5. कीर, धनंजय, पूर्वोक्त, पृ. 42.
6. कीर, धनंजय, पूर्वोक्त, पृ. 54.
7. ओमवेट, गेल, आंबेडकर: प्रबुद्ध भारत की ओर, पेंगुइन बुक्स, गुड़गांव, 2005, पृ. 27.
8. वही, पृ. 28.
9. कीर, धनंजय, पूर्वोक्त, पृ. 71.
10.  वही, 76.
11.  ओमवेट, गेल, पूर्वोक्त, पृ. 70-71.
12.  वही, पृ. 98-100.
13.  जाफ्ऱलो, क्रिस्तोफ़, पूर्वोक्त, पृ. 18.
14.  तेलतुमड़े, आनंद, आंबेडकर और दलित आंदोलन, ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली, 2016, पृ.  57.
15.  देसाई, .आर., भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि, दि मैकमिलन कंपनी ऑफ़ इंडिया, लिमिटेड, नई दिल्ली, 1976, पृ. 222.
16.  चन्द्रा, आर., एवं कन्हैयालाल चंचरीक, आधुनिक भारत का दलित आंन्दोलन, युनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नयी दिल्ली, 2003, पृ. 130.
17.  खिलनानी, सुनील, भारतनामा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पृ. 38.
18.  जाधव, नरेन्द्र, डॉ. अम्बेडकरः आत्मकथा एवं जनसंवाद, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 271-72
19.  वही, पृ. 274.
20.  गॉडगिल, माधव और रामचन्द्र गुहा, यह दरकती जमीन, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 2018, पृ. 86.
21.  जाफ्ऱलो, क्रिस्तोफ़, भीमराव आंबेडकरः एक जीवनी, राजमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2023, पृ.47.
22.  ओमवेट, गेल, पूर्वोक्त, 2005, पृ. 16.
23.  चक्रवर्ती, उमा, जाति समाज में पितृसत्ता, ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली, 2016, पृ. 115.
24.  जाधव, नरेन्द्र, पूर्वोक्त, पृ. 76-77.
25.  ओमवेट, गेल, दलित और प्रजातांत्रिक क्रांति, सेज भाषा, नई दिल्ली, 2015, पृ. 222.
26.  वही, पृ. 224.
27अग्रवाल, पुरुषोत्तम,संस्कृतिः वर्चस्व और प्रतिरोध, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2023, पृ. 29.
28जाधव, नरेन्द्र, पूर्वोक्त, पृ. 54.
29कीर, धनंजय, पूर्वोक्त, पृ. 83.
30ओमवेट, गेल, पूर्वोक्त, 2015, पृ. 229.
31रविकान्त, आज के आइने में राष्ट्रवाद, राजकमल, प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 28.
32बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्.मय, डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 2020, खंड.-18, पृ. 28.

 

कन्हैया त्रिपाठी
चेयर प्रोफेसर, डॉ. आंबेडकर चेयर, पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा-151401 (पंजाब)
hindswaraj2009@gmail.com, 9818759757
 
ब्रजेन्द्र कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा-151401 (पंजाब)
brijendramed14@gmail.com, 9005564696
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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