शोध सार : ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रवासन बेहतर जीवन एवं भोजन की तलाश में खानाबदोश के रूप में विचरण एवं स्थानांन्तरण मानव समुदाय के अस्तित्व में आने के साथ ही शुरू हो गया था। किंतु मौजूदा लेख का ध्येय ब्रिटेन के विशेष संदर्भ में भारतीयों के प्रवासन की चरणबद्ध अध्ययन-विश्लेषण करना है। ब्रिटेन में भारतीय प्रवासन की प्रक्रिया औपनिवेशिक संबंधों, राजनीतिक एवं ऐतिहासिक कारणों से विभिन्न चरणों से होकर गुजरती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने हेतु ब्रिटिश कंपनियों को मानव श्रमिकों की आवश्यकता महसूस हुई जिसके पूर्ति हेतु आजादी के बाद 1950 के आस-पास पहला प्रवासन भारतीय श्रमिक वर्ग का हुआ। बाद में विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना की तरफ से लड़ने वाले भारतीय सैनिकों का एक हिस्सा भी ब्रिटेन में बसा। 1970 के दशक में गए प्रवासियों में मुख्यतः प्रोफेशनल, बिजिनेसमैन और शिक्षित गुजराती मूल के मध्यवर्गी हिंदू, मुस्लिम समुदाय के भारतीय थे जो ब्रिटेन के पूर्व अफ्रीकन उपनिवेशो; यूगांडा, तेंजानिया और केन्या से निर्वासित होकर आये थे। ये दूसरी पीढ़ी के प्रवासी थे। 1980 के दशक में प्रवासी माइग्रेशन के चलते उभरते नस्लीय हिंसा, भेदभाव को रोकने तथा ब्रिटिश सरकार की बहुसांस्कृतिक नीतियों एवं कानूनों मे बदलाव के चलते भारत से वर्क बाउचर लेकर कई पेशोवर वर्ग ब्रिटेन पहुंचता है जो वहाँ की हेल्थ सेवाओं तथा आईटी उद्योगों में अपने को स्थापित करता है। इस तरह एशियाई मूल के भारतीयों की जड़े धीरे-धीरे ब्रिटेन की धरती पर जमने लगती हैं।
बीज शब्द : प्रवासन, औपनिवेशिक संबंध, बसावट, निर्वासन, समायोजन, भारतीय मूल के समुदाय, विश्वयुद्ध, भारतीय श्रमिक, वर्क बाउचर, सांस्कृतिक विविधता, रंगीय भेद तथा नस्लीय पहचान आदि।
मूल आलेख : मौजूदा अकादमिक जगत में प्रवासी अध्ययन एक सबसे ज्वलंत अंतर्विषयक अध्ययन का क्षेत्र है। आज ज्यादातर विद्वान व शोधार्थी प्रवासी अध्ययन के अवधारणात्मक संरचना का प्रयोग दुनिया की ऐतिहासिक तथा समसामयिक आंदोलन की प्रक्रियाओं एवं विभिन्न समुदायों के स्थानांतरण को जांचने-परखने के लिए करते हैं। प्रवासी अध्ययन एक ऐसा शैक्षणिक लेंस बन गया है जिसके माध्यम से प्रवासी लोगों की मिश्रित पहचानों का परीक्षण किया जाता है जो अपने स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय जुड़ाव के भाव के साथ ही साथ उन विशेष सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों से भी संचालित होते है जो उनके जीवन को आकार देते हैं। इसी कड़ी में इस शोधात्मक लेख के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया गया है कि भारतीयों अथवा भारतीय मूल के लोगों का प्रवास प्रक्रिया ब्रिटेन में किस तरह और किस रूप में हुआ? हालांकि ब्रिटेन में भारतीयों के प्रवासन या पलायन की एक लंबी एवं चरणबद्ध प्रक्रिया रही है किंतु प्रवासन की इस प्रक्रिया को भौगोलिक एवं ऐतिहासिक क्रम में समझने के लिए उसका एक शोधपूर्ण अध्ययन एवं मूल्यांकन ही इस आलेख का मूल ध्येय है।
ब्रिटेन में भारतीयों का प्रवासन
ब्रिटेन में भारतीय प्रवासन को समझने के संदर्भ में उल्लिखित एक किताब ‘भारतीय डायस्पोराः विविध आयाम’ के अनुसार पश्चिमी देशों में भारतीयों के विषय में यह एक सत्य है कि सबसे अधिक संख्या और सर्वाधिक लंबे समय से ब्रिटेन में ही भारतीयों का प्रवासन हुआ है। इसके बहुत से ऐतिहासिक और राजनीतिक कारण रहे हैं। सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित भारतीयों में सर्वप्रथम गुजराती और फिर पंजाबी समुदाय के लोग ब्रिटेन में बसने गए। भारतीय मूलतः सीधे ब्रिटेन में नहीं बसे। उनका ब्रिटेन में आगमन अलग-अलग कारणों से हुआ। भारतीयों का ब्रिटेन में जाना, ब्रिटेन के साम्राज्यवादी विस्तार, प्रभाव और स्वभाव की कहानी कहता है। भारतीय उपमहाद्वीप और पूर्व एशिया के देशों, जैसे मलेशिया, सिंगापुर, बर्मा(म्याँमार), हांगकांग, फिजी, सुदूर पूर्वोत्तर के देशों, अफ्रीका के अनेक देशों, मॉरिशस, एडन, मध्य एशिया, गयाना, त्रिनिदाद एवं टोबैगो इत्यादि से भारतीय अनेक कारणों से ब्रिटेन में जाकर बसे हैं। कभी ये भारतीय अंग्रेजों द्वारा मजदूर बनाकर ले जाए गए, कभी ये ब्रिटेन की सेना में सैनिक बनकर गए, कभी ये बंधक मजदूरों की हैसियत से अनेक देशों में ले जाए गए; संधि समाप्त हो जाने के बाद या कार्य समाप्त हो जाने के बाद इन्हें वहीं पर छोड़ दिया गया। वापसी के रास्ते में भारतीय जगह-जगह ठहरते गए। इस प्रकार भारतीय ब्रिटेन में भी बसने पहुँच गए। यह प्रक्रिया अंग्रेजों के राज और भारत के बीच संबंधों की दास्तान है। गुजरात के पारसी और बंगाली डॉक्टर, वकील और दूसरे प्रशिक्षित कामकाजी व्यावसायों से जुड़े भारतीय ब्रिटेन में अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में पहुँचे। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले अनेक सैनिक भी ब्रिटेन में बस गए। भारतीयों का सर्वाधिक प्रवासन 1947 में और उसके थोड़ा पहले और बाद में हुआ। स्वाधीनता के पश्चात, भारतीयों का अधिकतर प्रवासन 1950-1960 के बीच हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब विश्व में पुनर्निर्माण की प्रक्रिया ने जन्म लिया, तब बड़ी संख्या में भारतीय विशेषकर पंजाबी ब्रिटेन की ओर गए।[i]
भारत के विदेश मंत्रालय के द्वारा भारतीय प्रवासन तथा प्रवासी भारतीयों की स्थिति जानने कि लिए भूतपूर्व उच्चायुक्त डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया था, उस समित ने सन् 2001 में ब्रिटेन में भारतीयों के प्रवासन के इतिहास का व्यौरा पेश करते हुए अपनी एक रिपोर्ट भारत सरकार को प्रस्तुत किया था। ब्रिटेन में भारतीयों के प्रवासन की प्रक्रिया से संबंधित जानकारी को समझने के लिये यह रिपोर्ट बहुत महत्वपूर्ण है। इस रिपोर्ट के आधार पर ब्रिटेन में भारतीय प्रवासन की प्रक्रिया को समझा जा सकता है।
उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक विदेश भारतीय प्रवासन के इतिहास के क्रम में ब्रिटेन एक प्रमुख स्थान है जिसका मुख्य कारण दोनों देशो के बीच एक उपनिवेशीय संबंध रहा है। यह उपनिवेशीय संबंध भारतीय प्रवासन का मुख्य कारण समझा जाता है। ब्रिटेन में मौजूद थोड़े के बौद्धिक आभिजात्य समूह में शामिल दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे देशभक्त भारतीय नेताओं ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के शुरूआती चरणों में ही ब्रिटेन की राजनीतिक प्रकिया में भारतीय उपस्थिति को सुनिश्चित किया। इसका प्रमाण इसी से देखा जा सकता है कि 1892 के शुरूआती समय में दादा भाई नौरोजी ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ कॉमन’ के एक लिबरल मेंबर के तौर पर चुने गए। नोरौजी एक सफल पारसी उद्यमी थे जिन्होंने समय-समय पर अपने लिबरल शैक्षणिक अनुभवों का प्रयोग करते हुए भारत की समस्याओं से संबंधित अनेक पहलुओं पर ब्रिटेन का ध्यान आकर्षित कराया। आगे चलकर वो ‘‘ग्रांड ओल्ड मैन ऑफ द कॉग्रेस’’ के रूप में जाने गये जिन्होंने यूनाइटेड किंगडम में भारतीयों की आवाज बने। इसी प्रकार उनका अनुसरण करते हुए तमाम अन्य प्रवासी भारतीय जैसे कि सर मंचर जी, भवनग्री(कंजर्वेटिव, 1895-1906), शापुरजी सकलातवाला(लेबर,1922) जैसे विशिष्ट व्यक्तियों ने ब्रिटेन में रहते हुए भारतीय स्वधीनता के विमर्श को एक नई दिशा दी। इस क्रम में हम देखते हैं कि ब्रिटेन में कई भारतीय संगठन स्थापित होते हैं जिनका मुख्य लक्ष्य ब्रिटिश पब्लिक राय को स्वयं की समस्यायों के लिए मोबिलाइज करना था। इसी क्रम में आक्सफोर्ड और कैंब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों के कई संगठनों का उदय होने लगा जो मुख्यतः भारतीय संमस्याओं को लेकर आवाज़ उठाते थे।[ii]
ब्रिटेन में वर्तमान प्रवासी भारतीय समूह के उदय एवं विस्तार का ऐतिहासिक विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि भारतीय प्रवासन की आधारशिला ब्रिटिशराज और भारत के मध्य चले एक लंबे समय की परस्पर प्रक्रिया का प्रतिफल है। इस क्रम में ज्ञात होता है कि 18वीं और 19वी सदी में भारत से गुजरात की पारसी समुदाय और बंगाली समुदाय के अनेक प्रशिक्षित, वकील, डाक्टर जैसे पेशेवर लोगों का ब्रिटेन में प्रवासन होता है। पहले-पहल प्रवासन में पारसी समुदाय के लोगों का प्रवासन ब्रिटेन में सबसे अधिक संख्या में होता है। इसके साथ ही पहले व दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना के रूप में शामिल भारतीय सैनिकों का एक समूह भी बाद में ब्रिटेन में बस गये। हालांकि 1947 के बाद सबसे बड़ी संख्या में भारत से ब्रिटेन में प्रवासन देखने को मिलता है। स्वधीनता के बाद पहले चरण में भारतीयों का प्रवासन 1950 और 60 के दशक में होता है जिसमें पंजाबी मूल के लोगों की संख्या ज्यादातर देखने को मिलती है। ब्रिटेन के लिए प्रवासित होने वाले इस प्रथम चरण के पंजाबी भारतीयों में मूलतः कामगार वर्ग के लोग शामिल थे।[iii]
भारतीयों के प्रवासन का दूसरा बड़ा चरण 1960 और 70 के दशक में हुए प्रवासन के रूप में समझा जा सकता है। इस दशक में मुख्यतः शामिल होने वाले लोग गुजराती मूल के एशियन भारतीय हैं जिन्हे दबावपूर्वक ईस्ट अफ्रीका में पहले से मौजूद ब्रिटिश उपनिवेशों से निर्वासित कर दिया जाता है। गौर से देखने पर पता चलता है कि ये गुजराती मूल के लोग यूगांडा के तानाशाह इदी अमीन द्वारा निर्वासित किये जाने के कारण 1970 के शुरूआती एवं मध्य दशक में बड़ी मात्रा में ब्रिटेन आये थे। इनमें से कुछ लोगों ने बाद में ब्रिटेन छोड़कर संयुक्त राज्य अमेरिका की तरफ प्रवासन करना प्रारंभ किया और इसे भारतीय मूल के लोगों का दूसरे या तीसरे चरण के प्रवासन के रूप जाना गया। प्रवासन के इस दूसरे चरण में सम्मिलित ज्यादातर लोग व्यापार या व्यवसायिक प्रवृत्ति के लोग थे। प्रवासन की इस दूसरी लहर ने भारतीय प्रवासियों की स्थितियों में आर्थिक सफलता और संवृद्धि प्रदान की और इस तरह प्रवासी भारतीयों ने स्वयं को एक सफल उद्यमी, कामगार के रूप में स्थापित किया। इसके फलस्वरूप यू.के. के बहुसांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक भूदृश्य पर विशेष प्रभाव पड़ा।[iv]
यद्यपि 1970 के इस दशक में ब्रिटिश सरकार ने प्रवासन नीति को सख्त करने का फैसला किया किंतु पूर्णतः प्रतिबंधित नहीं किया। गैर यूरोपीय एशियन के ब्रिटेन में आकर बसने से यू.के बहुसांस्कृतिक जनसंख्या वाला देश जरूर बना लेकिन इस बहुरंगी आबादी की चुनौतियाँ भी खड़ी हो गई। बीबीसी न्यूज के मुताबिक 1972 में यूगांडा के निर्वासित 28000 एशियन को दो महीने में ब्रिटेन ने संरक्षण दिया। किंतु नस्लीय भेदभाव एवं हिंसा की घटनाएं भी बढने लगी जिसके निवारण एवं निदान पाने के लिए सरकार ने 1976 में नृजातीय समानता हेतु एक आयोग का गठन किया। आगे जाकर 1981 में नस्लीय मुद्दों के लेकर ब्रिस्टन, लिवरपुल एवं मिडलैंड जैसे कई शहर में सांप्रदायिक दंगों की घटनाएं होती हैं। इस क्रम में आगे चलकर गैर-गोरे लोगो को प्रतिनिधित्व संसद में बढ़ता है तो सन 2000 में भेदभाव विरोधी कानून को संसद में पास किया जाता है।[v]
मेजबान देश में प्रवासन एवं बसाव के इस क्रम में पहली पीढ़ी के पंजाबी जिसमें बहुलतः सिख समुदाय के पुरूष शामिल थे उन भारतीय प्रवासियों ने अपने पारंपरिक रीति-रिवाज, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ ब्रिटेन में अपने जीवन को स्थापित किया लेकिन दूसरी और तीसरी पीड़ी के एशियन भारतीयों को सामंजस्य बनाने में दिक्कतें महसूस होने लगी। हालांकि वर्चस्ववादी समाज के भेदभाव के दबाव ने अल्पसंख्यक प्रवासियों को स्वयं को संगठित एवं पुनः अपने परंपरागत जीवन ढ़ंग एवं पहचान से जुड़ने के लिए प्रेरित भी किया। चूंकि 50 और 60 के दशक में प्रवासित हुये एशियन एवं अफ्रो-कैरिबियन समुदायों को ब्रिटेन में अपने पारंपरिक जीवन ढ़ंग और संस्कृति के साथ सामंजस्य स्वयं को स्थापित करने में काफी कठिनाई आयी, क्योंकि उनकी सांस्कृतिक पहचान मेजबान देश के मुख्यधारा के समाज एवं संस्कृति से पूर्णतः भिन्न थी। इस सांस्कृतिक वैविध्य के कारणवश उपजी कठिनाइयों को संबोधित करने के लिये ब्रिटेन ने बहुसंस्कृतिवाद जैसी संकल्पना का सहारा लिया। फलतः ब्रिटेन को प्रवासी समुदायों के चलते सहअस्तित्व के साथ बहुसंस्कृतिवादी समाज की एक पहचान मिली। ब्रिटेन की जनसंख्या दर स्थिर होने के कारण ब्रिटेन को गैरपश्चिमी मुल्क के विशेषतः युवा आईटी-प्रोफेशनल वर्कर, डॉक्टर, इंजिनियर आदि पर निर्भर होना पड़ा जिसके चलते ब्रिटिश वर्क बाउचर में वृद्धि करनी पड़ी जिसके चलते भारतीय प्रवासियों में ज्यादातर संख्या या यूं कहें कि दो तिहाई प्रवासी साफ्टवेयर प्रोफेशनल्स हैं। इस तरह के प्रवासियों की संख्या मे वृद्धि होने के कारण ब्रिटेन द्वारा समय-समय पर किये गये प्रवासन नियमों में बदलाव से भी समझा जा सकता है।[vi]
भारत और ब्रिटेन के संबंधों को विकसित करने में आर्थिक उन्नति एवं विकास को लेकर उपजी चिंता एक मुख्य कारण है। इसे प्रवासन में हुई वृद्धि का एक कारण के रूप में समझा जा सकता है। इसी क्रम में यदि आगे देखे तो दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में बदलाव एवं विकास ने प्रवासन को एक नई दिशा और आयाम उपलब्ध कराता है। ब्रिटेन में मौजूद भारतीय प्रवासी समाज काफी तीव्र गति से अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को सफल बनाने में सक्षम हुआ है। प्रवासी जीवन की सफलता के इस क्रम में विकसित तमाम धार्मिक, राजनीतिक तथा भाषिक व क्षेत्रीय संगठनों एवं संघों का उदय एक मुख्य प्रमाण के रूप में देखा जा सकता है। उदाहरण स्वरूप हिंदू कल्चरल सोसाइटी, भारतीय मुस्लिम संघ, आर्य समाज, जैन समाज यूरोप, सिख फोरम, भारतीय कृश्चियन संगठन, अंबेडकर एवं बुद्धिस्ट संगठन, इंडियन वर्कर्स एसोशिएसन, गुजराती संगठन, आंध्रा संगठन, बंगाली संगठन, महाराष्ट्रा मंडल तथा पंजाब युनिटी फोरम इत्यादि। हालांकि प्रवासन की वर्तमान स्थिति में भी स्वभूमि से जुड़े जाति, धर्म संबंधित कुछ बुराइयों को भी ब्रिटेन में प्रवासित समाज के मध्य देखा जा सकता है। ब्रिटेन में प्रवासी समाज का विकास एवं स्थापना के संदर्भ में धार्मिक, सांस्कृतिक जीवन का समानांतरण चलन एक मुख्य बिंदु है जिसे समझने हेतु शोध इत्यादि की आवश्यकता है। इस प्रकार प्रवासी समाज की स्थापना के समकक्ष धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन के चलन के उदाहरण स्वरूप ब्रिटेन मे मौजूद मंदिरों, मस्जिदों, गुरूद्वारों को देखा जा सकता है। प्रवासन के इस क्रम में प्रवासियों को अपनी सांस्कृतिक एवं अन्य पहचान प्रदान करने हेतु अनेक प्रवासी संस्थाओं की स्थापना प्रवासन को सफल बनाने मे एक महत्व पूर्ण कड़ी है। ऐसी संस्थाओं की स्थापना के संदर्भ स्वरूप 1952 में लंदन में स्थापित नेहरू केंद्र एक महत्वपूर्ण कदम है। नेहरू केंद्र भारतीय उच्च आयोग के अंतर्गत काम करते हुए भारत की बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास की गाथा को प्रदर्शित करने हेतु मुख्य लक्ष्य के रूप मे काम कर रहा है। इस प्रकार स्थापित इन संस्थागत केंद्रों द्वारा समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रदर्शन इत्यादि कराना, ब्रिटेन में बसे प्रवासियों की सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा करने में काफी सहायक है।[vii]
ब्रिटेन में हो रहे प्रवासन को गहराई में समझने के लिये कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है। जैसा कि लेख ‘ए सम्री हिस्ट्री ऑफ इमग्रेशन टू ब्रिटेन’ के माध्यम से विदित होता है कि ब्रिटेन में दूसरे विश्व युद्ध के पहले प्रवासियों की संख्या बहुत कम थी जिसकी जानकारी सन 1851 से पहले ब्रिटेन में हुए जनगणना रिपोर्ट से पता चलता है। हालांकि 20वीं सदी के मध्य दशक तक ब्रिटेन में प्रवासन की संख्या बहुत कम रही। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी इसके प्रमाण मिलते हैं कि सन् 1851 से 1931 के मध्य विदेशी मूल के लोगों की संख्या करीब एक मिलियन रही। लेकिन जैसा कि उपरोक्त तथ्य़ दर्शाते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद सन् 1951 से 1991 के मध्य यह संख्या दो मिलियन पार हो जाती है और यह सिलसिला 2011 तक पहुंचते हुए लगभग चार मिलियन को पार कर कुल जनसंख्या का 13.4% हो जाता है। ऐतिहासिक रूप से ब्रिटेन में हुए इस प्रवासन को श्रृखलाक्रम में देखने के लिये कुछ बिंदुओं को जानना जरूरी है। ब्रिटेन में विशेषरूप से भारतीयों का प्रवासन 18वीं सदी के बाद प्रारंभ होता है जिसके तहत भारत से घरेलू काम करने वाले वर्करों को आयातित किया गया। एक अनुमान के हिसाब से हालांकि यह संख्या कम थी; लेकिन फिर भी 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक ऐसे वर्करों की संख्या कुछ सौ थी। लेकिन कुछ अन्य स्त्रोत बताते हैं कि 1814 तक ब्रिटेन आने वाले ऐसे वर्करों की संख्या 2500 थी। ऐसे भी प्रमाण देखने को मिलते हैं कि अफ्रीकन और चाइनीज़ नाविकों ने 19वी शताब्दी के अंत तक ब्रिटेन के समुद्री किनारों पर आकर बस गये।[viii]
ब्रिटेन के प्रवासन के इस क्रम में उपर्युक्त तर्क को आगे बढ़ाते हुए प्रवासी हिंदी लेखिका उषाराजे सक्सेना एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करती हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात 1950 में ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के साथ सिख समुदाय का बृहत माइग्रेशन ब्रिटेन में हुआ। ब्रिटिश सरकार को महसूस हुआ कि ये अशिक्षित श्रमिक वर्ग इस देश की बोली-भाषा-संस्कृति, रख-रखाव और नियम-कानून से अनभिज्ञ होने के कारण शोषित हो रहे हैं अतः 70 और 80 के दशक में एक बड़ी संख्या में भारत से वर्क वाउचर लेकर शिक्षक, डॉक्टर, वैज्ञानिक और इंजीनियर आदि प्रोफेशनल लोगों ने ब्रिटेन में प्रवेश लिया।[ix]
माइग्रेशन पॉलिसी इंस्टीट्यूट ने अपनी संस्थागत पत्रिका में डेनिएल नौजोक्स के एक लेख ‘माइग्रेशन, इमिग्रेशन एंड डायस्पोरा रिलेशन्स इन इंडिया’ को 2009 में प्रकाशित किया था जिसमें ब्रिटेन के प्रवासन से संबंधित कालक्रमिक जानकारी प्रस्तुत की गयी थी, जिसके अनुसार - प्राचीन समय में भारतीय व्यापारियों ने प्रशांत महासागर, मुख्यतः पूर्वी अफ्रीका और पश्चिमी एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया के किनारों पर जाकर बसे थे। हालांकि भारतीयों के प्रवासन का यही एक कारण नहीं है। बल्कि भारतीय प्रवासन के एक कारण के रूप में ब्रिटेन में 1833 के मध्य हुए गुलामी प्रथा के उन्मूलन का प्रभाव प्रवासन पर पड़ा। ऐसा देखने को मिलता है कि इस प्रथा के उन्मूलन के फलस्वरूप अन्य उपनिवेशी शक्ति जैसे फ्रांस, नीदरलैंड, पुर्तगाल में सुगर और रबर प्लांटेशन के श्रमिकों की एक तात्कालिक कमी महसूस हुई। इस कमी को पूरा करने के लिये ब्रिटेन द्वारा एक संगठित प्रणाली की शुरूआत की गयी जिसके तहत भारतीय उपमाहाद्वीपों से अस्थाई रूप से मजदूरों को ब्रिटेन ले जाने की व्यवस्था की गयी। श्रमिकों को इस तरह के प्रवासन के लिए सहमत होना विविशतापूर्ण था। 1834 के शुरूआत में ब्रिटेन ने भारतीय श्रमिकों को मारिशस ले जाना आरंभ कर दिया और इसी प्रथा का अनुकरण करते हुए नीदरलैंड और फ्रांस ने भी यही नीति अपनाई। लगभग 80 वर्षो तक यह प्रथा जारी रही। हालांकि इस प्रथा में कुछ आमूल परिवर्तन हुए लेकिन व्यावहारिक तौर पर प्रवासन जारी रहा। ये श्रमिक मूलतः ग्रामीण इलाकों से संबंधित थे और प्राथमिक तौर पर पांच वर्ष के अनुबंध पर प्रवास के लिए जाते थे। लेकिन बाद में उनमें से कुछ लोगों ने अपने घर वापसी के अधिकार कानून को रिन्यू न करा कर उसकी एवज में कुछ जमीनें और वहीं रहने के अधिकार को चुनना अधिक श्रेयस्कर समझा। ऐसे श्रमिकों को स्थानीय लोगों से अलग बसाया जाता था। उपनिवेशी शासक इन्हें पूरी निगरानी के साथ बैरक में रखते थे और किसी भी तरह की अनुशासनहीनता होने पर इन्हे दंडित भी करते थे। इस अनुबंधित प्रथा के घातक प्रभावों के चलते बाद में ब्रिटेन की लेजिस्लेटिव कॉउंसिल ने इस प्रथा को रद्द कर दिया।[x]
ब्रिटेन में भारतीयों के प्रवासन के बारे में असफ हुसैन ने अपने एक लेख ‘द इंडियन डायस्पोरा इन ब्रिटेनः पॉलिटिकल इंटरवेंशनिज्म एंड डायस्पोरा एक्टिविज्म’ में लिखते हैं कि ब्रिटेन में भारतीयों के मुख्यधारा का आर्थिक प्रवासन सन् 1950 के दशक में शुरू हुआ। उस समय भारत और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था नाजुक स्थिति से गुजर रही थी और इन लोगों का प्रवासन एक तरह से उनके लिए लाभकारी सिद्ध हुआ। दशकों तक ब्रिटेन में कई प्रवासी समूह आकर बसे। फिर भी ब्रिटेन में बसने वाले समूहों में भारतीय प्रवासी समूह गैर-यूरोपीय समूहों में सबसे प्रमुख था। असफ हुसैन आगे लिखते हैं कि प्रवासी विकास के मानकों के अनुसार प्रवासी भारतीय जो कि भारत से सन् 1947 के दशक में ब्रिटेन गये वे कुछ खास उपलब्धियां हासिल नहीं कर सके क्योकि इस प्रवास में अधिकतर लोग गांव से कंपनियों के श्रमिक के रूप में आये थे। दूसरी तरफ 1970 के दशक में जो भारतीय प्रवासी ब्रिटेन आये तो उनकी स्थितियों में काफी बदलाव हुआ। क्योंकि इस दशक में गए प्रवासियों में मुख्यतः ऐसे लोग थे जो प्रोफेशनल, बिजिनेस मैन और अच्छे पढ़े लिखे मध्यवर्गी हिंदू, मुस्लिम और सिख थे। ये प्रवासी भारतीय जो ब्रिटेन के पूर्व अफ्रीकन उपनिवेशो; यूगांडा, तेंजानिया और केन्या से आये थे। ये दूसरी पीढ़ी के प्रवासी थे। इन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशी अधिकारियों के साथ काम करके एक विश्वास विकसित कर लिया था। ये पहले पीढ़ी के भारतीय श्रमिक प्रवासियों की तरह गरीब और औद्योगिक फैक्टरी के श्रमिक नहीं थे। दूसरी पीढ़ी के प्रवासन मे जो लोग गए उसमे मुख्यतः गुजराती हिंदू थे जो ब्रिटेन के शहरी इलाके लैस्टर और नार्थ लंदन मे जाकर बसे। ये पूरे परिवार के साथ यहां निवास करने आये। इस दूसरी पीढ़ी ने ब्रिटेन में हिंदूवाद के विकास में काफी प्रगति की। यह प्रगति मुख्यतः कई धार्मिक संगठनों एव संघों के निर्माण के बदौलत संभव हुई।[xi]
ब्रिटेन में भारतीयों के प्रवासन के बारे में रोजीना विश्राम लिखती हैं कि सन् 1919 से 1945 के मध्य ब्रिटिश सरकार के रोकने के प्रयासों के बावजूद श्रमिक वर्गीय भारतीयों के प्रवासन में काफी वृद्धि हुई, हालांकि एशियाई श्रमिक वर्ग और प्रोफेशनल्स दोनों का आकार संख्यात्मक रूप से देखे तो फिर भी नगण्य था। युद्ध के समय ब्रिटिश की औद्योगिक जरूरतों के कारण कुछ भारतीय श्रमिकों को ब्रिटेन लाया गया।[xii]
ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस कहा जाय तो भारत के प्रवासित प्रोफेशनल डॉक्टरों के सेवाओं पर मुख्यतः निर्भर है। अफ्रो-कैरिबियाई देशों के आकर ब्रिटेन में बसने वाले एशियन भारतीय की आबादी ज्यादातर लघु एवं मध्यम स्तरीय व्यवसायों तथा स्वास्थ्य विभाग की सेवाओं में शामिल है। भारतीय प्रवासियों की ज्यादातर आबादी लिसेस्टर, बेडफोर्ड, बर्मिंघम, स्पार्कहिल, स्पार्कब्रूक, ग्लासगो तथा लंडन के क्षेत्रों में बसी हुयी है।[xiii] प्रवासन की उपर्युक्त चरणबद्ध प्रक्रिया के तहत
निष्कर्ष : ब्रिटेन में प्रवासन की प्रक्रिया के बारे में उपरोक्त तथ्यों का विश्लेषण करें तो हम संक्षेप में यह कह सकते हैं कि यूरोप में गुलामी प्रथा की समाप्ति के बाद उपनिवेशी साम्राज्यावादी देशों में श्रमिकों तथा घरेलु वर्करों का एक संकट खड़ा हो गया जिससे निजात पाने के लिए ब्रिटेन नें अपने औद्यौगिक तथा घरेलु हितों की पूर्ति के लिए ऐशियाई देशों से लोगों को ले जाना शुरू किया। ब्रिटेन के इन ऐशियाई उपनिवेशों से जाने वाले श्रमिकों व वर्करों की संख्या सबसे अधिक थी। ब्रिटेन में भारतीय प्रवासन की प्रक्रिया कई चरणों से गुजरी। इस प्रवासन के पहले चरण में वो भारतीय शामिल थे जो गरीब, कम पढ़े-लिखे तथा ग्रामीण परिवेश से जुड़े हुए थे। दूसरे-तीसरे चरण में वो भारतीय ब्रिटेन गये जो पर्याप्त पढ़े-लिखे, व्यवसायी एवं प्रोफेशनल्स थे। इन्होंने ब्रिटेन की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना से जुड कर अपने श्रम कौशल का प्रदर्शन करते हुए अपने आप को वहां के भौगोलिक परिवेश में स्थापित किया। धार्मिक व सांस्कृतिक एसोसिएशन बना कर अपने रीति-रिवाजों व संस्कृति की भी पहचान सुरक्षित करने का प्रयास किया। इस प्रकार उपरोक्त चरणों एवं विभिन्न परिस्थितियों से गुजरते हुए लाखों भारतीय ब्रिटेन के निवासी हैं और हर क्षेत्र में प्रगति कर रहे हैं। हाउस वर्कर, बस कंडक्टर, सफाईकर्मी एवं डोमेस्टिक वर्कर के रूप में ब्रिटेन की धरती पर कदम रखने वाले प्रवासी भारतीय तनावपूर्ण एवं विषम परिस्थितियों के हजारों उतार-चढ़ाव को झेलते हुए आज मेजबान देश में सफल व्यवसायी, उद्यमी, मेधावी डॉक्टर, पत्रकार, इंजिनियर एवं आईटी प्रोफेशनल्स, सांसद, मेयर आदि ब्रिटेन के विभिन्न प्रमुख पदों पर कार्यरत होकर वहाँ के नागरिक हैं।
[i] जोशी, रामशरण, राजीव रंजन राय, प्रकाश चंद्रायन, प्रशांत खत्री, ‘भारतीय डायस्पोराः विविध आयाम’, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन,(2014) पृ. 59-60
[ii] भारतीय डायसपोरा पर उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट, भारतीय विदेश मंत्रालय. नई दिल्ली, 2001, पृ.स. 121
[iii] वही, पृ. सं. 122
[iv] भारतीय डायसपोरा पर उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट, भारतीय विदेश मंत्रालय. नई दिल्ली, 2001, पृ.स. 122
[v] सॉर्ट हिस्ट्री ऑफ इमिग्रेशन, बीबीसी.को.यूके
http://news.bbc.co.uk/hi/english/static/in_depth/uk/2002/race/short_history_of_immigration.stm
[vi] भारतीय डायसपोरा पर उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट, भारतीय विदेश मंत्रालय. नई दिल्ली, 2001, पृ.स. 123
[vii] भारतीय डायसपोरा पर उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट, भारतीय विदेश मंत्रालय. नई दिल्ली, 2001, पृ.स. 125
[viii] ए सम्री हिस्ट्री ऑफ इमिग्रेशन टू ब्रिटेन, माइग्रेशन वाच यूके https://www.migrationwatchuk.org/Briefingpaper/document/48
[ix] उषाराजे सक्सेना, ब्रिटिश हिंदी साहित्य और प्रथम, शब्दांक.कांम, https://www.shabdankan.com/2013/08/usha-raje-saxena.html
[x] डेनियल नौजोक्स, इमिग्रेशन, माइग्रेशन एंड डायसपोरा रिलेशन इन इंडिया, माइग्रेशन इनफारमेशन सोर्स आनलाइन जर्नल, 15 अक्टूबर, 2009 https://www.migrationpolicy.org/print/4405#.WslX0dRubIU
[xi] असद हुसैन, द इंडियन डायसपोरी इन ब्रिटेनः पोलिटिकल इंटरवेंशनिज्म एंड डायसपोरा एक्टिविज्म, एशियन अफेयर्स, भाग-32, अकं-3, टेलर एंड फ्रांसिस लिमि. पृ.सं. 1-21
पीएच.डी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली,
वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज (सायं) में सहायक प्राध्यापक (अतिथि) के पद पर कार्यरत
mulayamsingh88@gmail.com, 7838531263
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