शोध आलेख : मधु कांकरिया की कहानियों में युगबोध / लिपिपुष्पा नायक

मधु कांकरिया की कहानियों में युगबोध
- लिपिपुष्पा नायक


शोध सार : आधुनिकता के दौर में ज्ञान-विज्ञान के विकास से समाज और व्यक्ति में कई भौतिक एवं वैचारिक प्रकट हुए हैं इन परिवर्तनों से उत्पन्न मानवीय संवेदना से आठवें दशक की प्रमुख रचनाकार मधु कांकरिया का साहित्य जुड़ा हुआ है उनका अध्ययन, चिंतन और लेखन ना केवल साहित्य, संस्कृति और शिक्षा तक व्यापक है बल्कि आज की राजनीति, मीडिया और समाज व्यवस्था की सूक्ष्मतम अंतर्ध्वनियाँ भी उनके ‘मानस पटल’ में पूरी तरह से रची बसी हैं। उन्होंने कहानी, उपन्यास, यात्रावृतांत, संस्मरण आदि साहित्यिक रूपों में अपनी अनुभूति की प्रमाणिकता और बोध प्रवणता को अभिव्यक्त किया है अब तक उनके द्वारा रचित चारों कहानी संग्रहों- ‘बिताते हुए’(2004), ‘...और अंत में ईशु’(2008), ‘युद्ध और बुद्ध’ (2014), ‘जलकुंभी’(2020) में भाषा, धर्म, रूढ़ि, दरिद्रता, उजड़ते गाँव, स्त्री समस्या, नक्सलवाद की समस्या, बुद्धिजीवी वर्ग, पीढियों के बीच के अंतर आदि से जुड़े अनेक ज्वलंत सवालों को प्रकट किया है। ये कहानियाँ आज के समाज की प्रतिच्छवि हैं और इनसे झांकती आम आदमी के मानवाधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता मधु कांरिया की पहचान।

बीज शब्द : युगबोध, साहित्यकार, समाज, व्यक्ति, समकालीन, स्त्री, समसामयिकता, इतिहास, परंपरा, आदिवासी।

मूल आलेख : साहित्य के विकास और समाज की पहचान को समझने में युगबोध महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह एक साहित्यिक और दार्शनिक अवधारणा है जो साहित्यकार के समय और समाज की समझ को व्यक्त करती है और जिससे रचना में उस समय की संवेदनाओं, समस्याओं और विचारधाराओं का प्रतिबिंब दिखाई देता है। ‘युग’ और ‘बोध’ शब्दों के योग से बना ‘युगबोध’ एक यौगिक शब्द है, जिसका तात्पर्य किसी युग के प्रति हमारी समझ, दृष्टिकोण आदि से है यह अपने आप में एक व्यापक शब्द है जो विशेष समयावधि में घटित सभी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक, व्यावसायिक घटनाओं को यथार्थ रूप में केंद्रीभूत रखता है। युगबोध वास्तविकता से परिचित कराता है। इसका न वर्तमान के साथ कोई संबंध है और न भविष्य से। यह समसामयिकता पर जोर देता है एक ही युग में प्रत्येक व्यक्तियों का चेतन अलग-अलग होने के कारण हर किसी की युगबोध को लेकर धारणा अलग-अलग हो सकती है और उसका प्रभाव भी अलग-अलग पाया जा सकता है

युगबोध को किसी एक विशेष परिभाषा में परिभाषित नहीं किया जा सकता है क्योंकि समय के साथ-साथ उसका स्वरूप बदल जाता है समाज का संपूर्ण रूप साहित्य में समाहित है और युगबोध का पूर्ण रूप रचना में देखने को मिलता है। अतएव युगीन परिवेश को रेखांकित करने के लिए एक रचनाकार को संपूर्ण युग का ज्ञान होना चाहिए। “महान कलाकार अपने युग का पूर्ण प्रतिनिधि, पूर्ण व्याख्याता होता है। उसकी वाणी में युग के सारे संघर्ष, सारे राग-विराग, समस्त प्रश्न और संदेह मूर्तिमान होकर बोलते या ध्वनित होते हैं”1 समय सापेक्ष होने के कारण कुछ विशेष समय अवधि तक युगबोध का महत्त्व तेजी से बढ़ता है लेकिन परवर्ती युग में उसे महत्त्व मिल भी सकता है और नहीं भी। किसी भी रचना को पूरी तरह समझने, उसका मूल्यांकन करने के लिए, वह रचना कब लिखी गयी थी, उस समय का राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश किस तरह था आदि का ज्ञान होना आवश्यक है, जिसे युगबोध कहा जाता है युगबोध को सिर्फ आधुनिकता, समसामयिकता ही प्रभावित नहीं करती है। आधुनिकता के साथ-साथ इतिहास, संस्कृति, परंपरा भी उसे प्रभावित करते हैं क्योंकि प्रत्येक युग के पीछे उसकी पृष्ठभूमि रहती है इतिहास के किसी भी युग का साहित्य उठा कर देख लिया जाए तो उस युग की तत्कालीन परिस्थितियों का चित्रण अवश्य देखने को मिलता है, जिसकी भावधारा मनुष्य चेतना, समाज और उसके परिवेश से बंधी हुई है

साहित्य जीवन का दूसरा नाम है “साहित्य समाज की चेतना में सांस लेता है, समाज का वह परिधान है, जिसमें समाज के सुख-दुख, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, आकर्षक-विकर्षण आदि के ताने-बाने बुने जाते हैं उसमें मानव जाति की आत्मा का स्पंदन होता है”2 समाज के बिना साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती है और साहित्य से परिचित हुए बिना हम समाज को समझ नहीं पाते हैं साहित्य सृजन के लिए जो भाव विचार चाहिएं वे सब समाज से ही मिलते हैं, जिसे युगबोध कहा जाता है। मानव जीवन के समस्त पहलूओं को आत्मसात कर उसे अभिव्यक्त करने का काम साहित्य द्वारा होता है युगबोध साहित्य का धर्म है बोध एक आंतरिक प्रक्रिया होने के कारण किसी विषय, परिवेश, परिस्थिति के प्रति हमारी धारणा का निर्माण करता है बोध सदा एक जैसा नहीं रहता है, समयानुसार यह परिवर्तित होता रहता है अपनी बोध-शक्ति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से अलग होता है यह एक प्रकार का अनुभव है जो हमें अपने जीवन को सहज करने के लिए सहायक होता है प्रत्येक देश का, समाज का अपना स्वतंत्र बोध होता है तथा युग बदलने के साथ-साथ उसका बोध भी बदलता रहता है, जिसका रूप साहित्य में देखने को मिलता है। जिस प्रकार व्यक्ति और समाज एक दूसरे के परिपूरक हैं ठीक उसी प्रकार साहित्य और युगबोध भी अनुपूरक हैं। एक के बिना अन्य की कल्पना असंभव है

मधु कांकरिया का युगबोध सजग, सतर्क और स्पष्ट है अपनी कहानियों में उन्होंने तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को भली-भांति भांपकर यथार्थ वर्णन किया है। जो प्रवृत्तियाँ, परिस्थितियाँ, समस्याएँ उन्हें एक बेहतर समाज के निर्माण में बाधक प्रतीत हुई हैं, उनका हल प्रस्तुत करने का यत्न भी एक शुद्ध साहित्यकार की भांति किया है मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण मधु कांकरिया की कहानियों में समाज का वास्तविक यथार्थ अंकित हुआ है, जहाँ कल्पना के अटने की ज्यादा गुंजाइश देखने को नहीं मिलता है सूरज पालीवाल के अनुसार, “मार्क्सवाद जीवन और जगत को देखने की स्वस्थ दृष्टि देता है, जिसका प्रभाव मधु कांकरिया के जीवन और रचना जगत में देखा जा सकता है वह मार्क्सवादी नहीं है लेकिन उसकी विरोधी भी नहीं है, इसलिए उनकी रचनाओं का आकाश विस्तृत है, घर-परिवार की सीमाओं का जो बार-बार अतिक्रमण होता है उसके सूत्र इसी मार्क्सवाद के प्रभाव में देखे जा सकते हैं” 3

मधु कांकरिया का रचना संसार बहुत विस्तृत है, जिसके कारण वह अपने समकालीन रचनाकारों जैसे- मालती जोशी, कृष्णा सोबती,मन्नू भंडारी,ममता कालिया, राजी सेठ,अनामिका, उषा प्रियंवदा,सुधा अरोड़ा, नासिरा शर्मा,सूर्यबाला से भिन्न और विशिष्ट है “मधु कांकरिया के व्यक्तित्व का खुला दर्शन उनके साहित्य में परिलक्षित होता है वह ड्राइंग रूम में बैठकर लिखने वालों में से नहीं है वह उन गलियों में जरूर भटकती हैं जहाँ उनके पात्र हैं वह फार्मूला टाईप कहानी में विश्वास नहीं करती जीवन जैसा है उसको वैसा ही साहित्य में उतारने की कोशिश उनकी रहती है जीवन में जो स्त्री हार रही है उसे वीरबाला या झांसी की रानी बनाकर बहुत नहीं दिखाती हैं यही उनकी लेखन की खासियत है”4

लेखिका की प्रत्येक कहानी समकालीन दौर से इस प्रकार संबंधित है कि प्रत्येक पाठक स्वयं को उसमें पाता है। यदि स्त्री की बात करें तो 20वीं सदी के अंतिम दशक की लेखिकाओं ने स्त्री मुक्ति की समस्याओं को अपने अनुभवों, भोगी हुई जिंदगी की यातनायों, मुक्ति की छटपटाहट और बेचैनी को वाणी प्रदान की है आज की स्त्री अपने सामने उपस्थित चुनौतियों को स्वीकार करती है, सामंती परिवेश की जकड़न और रूढ़ मर्यादाओं को तोड़ती है साथ में सकारात्मक रूप से अपने दृढ़ व्यक्तित्व को भी वाणी प्रदान करती है मधु कांकरिया की कहानी ‘दाखिल’ में पति द्वारा प्रताड़ित स्त्री (सुकीर्ति) के जीवन -संघर्ष का वर्णन हुआ है सुकीर्ति के प्रति पति का व्यवहार कैसा था यह छोटे से विक्रम(बेटा) के कथन से पता चलता है कि “मैंने फेंके हैं यह चाकू यहाँ, मुझे डर था कहीं पापा गुस्से में ये चाकू ही तुम पर न फेंक दें….उस दिन गर्म-गर्म चाय किस प्रकार फेंका था पापा ने”5 सुकीर्ति अपने बेटे को एक अच्छे स्कूल में दाखिल कराना चाहती है किंतु पति के न होने से यह कार्य सहज नहीं था। वह अपने भाई को पति बनाकर बच्चे के एडमिशन का प्रयास करती है और अंततः अनेक संघर्ष के बाद वह इसमें सफलता पाती है पितृसत्तात्मक समाज में एक अकेली स्त्री का जीवन बहुत ही कठिन और संघर्षशील होता है पुरुष के बिना नारी के अस्तित्व को आज भी लोग स्वीकार नहीं कर पाते हैं।

भारतीय नारी के विषय में पहले से ही पवित्र संकल्पना रही है कि वह किसी भी प्रतिकूल या नकारात्मक स्थिति में अपने सतीत्व का विसर्जन नहीं करेगी क्योंकि यह नारी का आभूषण है। उसकी पवित्रता पितृसत्ता की वैचारिकी तथा उससे तराशी स्त्री-सोच से आबद्ध रही है। लेकिन आज के युग तक आते-आते इस दृष्टिकोण में काफी कुछ बदलाव आए हैं। जीवन मूल्य के प्रति बदले हुए चिंतन के कारण वर्तमान में स्त्री स्वतंत्रता के साथ जीवन बिताना चाहती है यदि उसकी स्वतंत्रता पर जबरन लगाम लगा दी जाए तो उसका मन आजादी के लिए तड़पने लगता है। वह किसी न किसी तरह स्वतंत्र होने की सोच में डूब जाती है, फिर रास्ता कोई भी हो सही या गलत, उसे परवाह नहीं रहती है ‘चूहे को चूहा ही रहने दो’ कहानी एक प्रतिशोध परायण स्त्री का बयान बनती है एक बार नायिका हिम्मत करके अपने छोटे भाई के मित्र से हाथ मिला लेती है तो उसका पति उसके हाथों को दीवार पर रगड़ देता है ताकि स्पर्श के चिन्ह मिट जायें नायिका कहती है, “मेरे पति ने मेरी देह की जमीन पर ऐसी हदबंदी कर दी थी, ऐसे कंटीले बाड़े डाल रखे थे कि मैं किसी हमउम्र इंसान से बात करने तक तरस जाती थी”6 पति से बदला लेने हेतु एक अजनबी से शारीरिक संबंध बनाकर घोषित करती है, “हाँ आज की यह रात अकस्मात नहीं थी, इसके मेघ खंड मेरे अवचेतन में जाने कितने वर्षों से खंड-खंड एकत्रित हो रहे थेआज की रात मेरे प्रतिशोध की रात थी”7

आधुनिक युग में उच्च शिक्षित, प्रतिष्ठित स्त्रियों का जीवन भी तनावपूर्ण रहा है। साथ ही समाज में ऐसी भी स्त्रियाँ रही हैं जो पति सेवा को ही अपना धर्म मानती हैं परिवेश, परिस्थिति में वह ऐसे ढल जाती हैं कि स्वाधीन होने की कोई चाह नहीं रखती ‘सहेली’ कहानी में लेखिका तवलीन और उसकी सहेली के माध्यम से स्त्री के प्रति पुरुष की दृष्टि को व्यक्त करती है तवलीन अपने पति की मानसिकता को लेकर कहती है कि “उसकी नजर में मेरी डिग्री की कोई अहमियत नहीं, कहता भी है कि मेरे लिए तो डिग्री वाली पत्नी घाटे का सौदा ही रही, अनपढ़ लाता तो यह ठाठ - बाट देख चरण धो-धो पीती, पर तुझे कोई परवाह ही नहीं”8 यहाँ उन पुरुषों की मानसिकता का उद्घाटन होता है जो आज भी जीवन में एक अनपढ़ लड़की की चाहना इस कारण रखते हैं कि वह प्रश्न ना करे और दासी बन कर रहे उनकी आज्ञा का पालन करे। उसके शारीरिक भोग का माध्यम मात्र बने। स्त्री की भावनाएँ, इच्छाएँ, दृष्टिकोण आदि की पुरुष को कोई परवाह नहीं है स्त्रियों को प्रजनन और घरेलू कार्य तक सीमित रखा जाता है। तवलीन बताती है, “वह दिल से बनिया और औरत के मामले में भूखा जानवर है सुहागरात में भी जो बंदा कमरे में घुसते ही, बिना एक शब्द, एक स्पर्श और एक निगाह डाले जानवर की तरह टूट जाये, प्याज की तरह छिल डाले, कुंवारे सपनों का बलात्कार कर डाले वह लवएबल मेंटेरिअल तो हो ही नहीं सकता प्यार भावनाओं से किया जाता है उससे प्यार तो क्या निर्वाह हो जाए वही बहुत है”9 और यह वाक्य स्त्री जीवन के अकथनीय दर्द तथा पुरुष की अमानवीय मानसिकता का बयान बनता है

किंतु आज स्त्री ना केवल पुरुष के अत्याचारों, शोषण को पहचान रही है बल्कि डटकर उस का विरोध कर रहीं है। अपने अस्तित्व के प्रति जागृत हो रही है वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना चाहती है ‘सहेली’ कहानी की नायिका कहती है, “इसके लिए एक तो अपने पाँव पर खड़ा होना होगा और दूसरा संगठित होना पड़ेगा, और जब तक यह नहीं होता, अपवादों को छोड़कर पति नाम का रिश्ता माया ही रहेगा”10

समकालीन समय में मानव, सभ्यता, संस्कृति मूल्य आदि सब कुछ बदल गए हैं रिश्तों का गहरा संबंध धूल-धूसरित हो गया है परिवर्तनों का हाथ पकड़ कर जो कुछ आया है वह सब कृत्रिमता का साथी है। मूल्यों के बारे में कहें तो वह भी परिवर्तन का नाम ओढ़ कर पतन की ओर अग्रसर हो रहा है पीढ़ियों में दूरियाँ बढती जा रही है मधु कंकरिया की ‘निर्वासिता’ कहानी में माँ अपने बेटे को कहती है, “ओह! तुमको कंपनी लग गयी है जिसके घाटे की इतनी चिंता है, पर जीवन घाटे मैं जा रहा है इसकी कोई चिंता नहीं है?”11 तब बेटा प्रतिउत्तर देता है कि “मामा जहां भी जाऊँगा मुझे पैसा और पावर दोनों की लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी, क्योंकि दोनों हीं चाहिए।”12 कहानी में दो पीढ़ियों की मानसिकता का अंतर देखने को मिलता है व्यक्ति दिन-प्रतिदिन आत्मकेंद्रित होता जा रहा है, संवेदनाएँ क्षीण हो रही हैं। मनुष्य समाज में रहकर भी कटा हुआ है क्योंकि जीवन के केंद्र में आज अर्थ ही सब कुछ हो गया है। बाह्य आडंबर, झूठी प्रतिष्ठा में व्यक्ति अपने आपको भूल गया है। माता-पिता का सत्कार नहीं करता है। उनसे सलाह लेना भी उसे स्वीकार नहीं है। अभिभावक उसे नकारात्मक बदलावों के प्रति चेताते हैं। ‘सुनो वत्स,सुनो’ कहानी में पिता बेटे को कहता है, “ज़ाहिर था कि स्वदेश लौटकर भी तुम अपने देश नहीं लौटे थे। क्योंकि तुम चाहें देश में थे, पर देश तुम्हारे भीतर नहीं था। हर वक्त अमेरिका तुम्हारे आसमान पर बादलों की तरह उमड़ता-घुमड़ता रहता।”13 इतना ही नहीं आज दो पीढ़ी साथ में रहते हुए भी अकेलापन झेलती हैं क्योंकि मानसिकता में ज़मीन आसमान का अंतर आ गया है। सबके पास समय का अभाव है। पिता कहता है कि “अकेले का अकेलेपन फिर भी सहन होता है पर किसी के साथ रहते भी यदि अकेलापन भुगतना पड़े तो उसकी मार असह्य होती है, क्योंकि उसमें अपमान की मार भी शामिल हो जाती है।”14

मधु कांकरिया की ‘दबी दबी लहरें’ कहानी में मंगला के माध्यम से आदिवासी लोगों की जीवन शैली, संघर्ष, मानसिकता, सहनशीलता , प्रकृति प्रेम आदि का सजीव चित्रण अंकन पाता है। जब मालकिन पूछती है कि तुम काम करते-करते थक नहीं जाते हो, तो मंगला जवाब देती है, “यह आराम तो है दीदी। काम होता है की पत्थर तोड़ना, लकड़ी चीरना, सर पर ईंट ढोना, खेतों में घास काटना, ठेकी चलाना,पानी भरना।”15 आम जन की तरह आदिवासियों का जीवन सहज नहीं है। वे पारंपरिक जीवन जीना चाहते हैं पर आधुनिक सभ्यता ने उनके जीवन को और संघर्षमय बना दिया है। मंगला कहती है, “हमारा लोहा और लोहें का सामान थोड़ा महँगा बनता था, बाज़ार मैं टाटा के लोहे का सस्ता सामान मिलने लग गया। तब लोग क्यों ख़रीदेंगे हमारा सामान, समान नहीं बिकता था हमारे दादा ससुर ने सरकार से गुहार लगायी कि हमें थोड़ी सुविधा दे दीजिए हम फिर से जी उठेंगे। ई टाटा- बाटा ने हमारा ही ज्ञान चुराया है।”16

आदिवासी लोगों में हिंसा, क्रूरता, प्रतिशोध जैसी भावनाओं का स्थान नहीं, वे लोग कर्म पर विश्वास करते हैं। सबके प्रति संवेदनशील रहते हैं, विश्वासी हैं। ‘निर्वासिता’ कहानी में जब किसी की लड़की को तेन्दुआ खा जाता है तो सरकार घेराबंदी की बात करती है पर आदिवासी अस्वीकार करते हैं कि “घेराबंदी से इन जानवरों को तकलीफ होगी, हम तो सिर्फ यह चाहते हैं कि हमारे उन गांवों को सुरक्षित कर दिया जाये जो जंगलों के अंदर नहीं वरन किनारे-किनारे हैं, गुस्सा सरकार पर है जो दोनों की जिंदगी और आजादी से खेल रही है”17

इसी प्रकार लेखिका ने ‘उड़ान’ में अवसर प्राप्त समीर के माध्यम से जीवन की अनेक समस्याओं को चित्रित किया है अपनी आधी से ज्यादा उम्र ऑफिस में बिताकर वह जीवन के अंतिम समय में परिवार के साथ का आनंद पाना चाहता है, परंतु उसकी सोच के विपरीत घटना घटती है और वह घर छोड़कर आदिवासियों की सेवा में अपना जीवन बिताने का निर्णय लेता है ‘युद्ध और बुद्ध’ कहानी में कश्मीर आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य से अमानवीय हिंसा पर चर्चा, ‘बस दो चम्मच’ में पति, देवर और भाभी के संबंधों का वर्णन, ‘मर्द होते हुए’ कहानी में पड़ोस की आंटी द्वारा नौकर का शोषण, ‘नामर्द’ कहानी में विकलांग पुरुष की समस्या, ‘लेकिन कामरेड’ में एक लेकचरर के बचपन से किशोरावस्था तक जीवन-वर्णन, ’आर आसवो ना’ कहानी में बच्चों की मानसिकता के साथ-साथ एक पिता के हृदय का अंकन हुआ है।

निष्कर्ष :  लेखिका मधु कांकरिया ने अपनी कहानियों में समाज के उन कोणों को पड़ताल की है जहाँ पर साधारण दृष्टि नहीं पहुँच पाती है उनकी कहानियों का अध्ययन कर कुछ ऐसा महसूस होता है कि जैसे हम अपने आसपास के वातावरण में गहराई से झांक रहे हैं। वर्तमान युगीन जीवन की विसंगतियों और विडंबनाओं का मार्मिक निरूपण इन कहानियों के केंद्र में है यहाँ ऐसे पात्र देखने को मिलते हैं जो प्रताड़ना का शिकार होते हैं, विवश हैं,अत्याचार को सहन करते हैं, साथ ही ऐसे पात्र भी प्रत्यक्ष हैं जो व्यवस्था का विरोध करते हैं, अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं। एक प्रकार से कह सकते हैं कि उनकी कहानियों में वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की संभावनाओं को देखा जा सकता है प्रत्येक कहानी छोटी से छोटी हलचल, विडम्बना और विसंगति को समाहित किए हुए है तथा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में एक हल भी प्रस्तावित करती है।

सन्दर्भ :
1.प्रेमचंद माहेश्वरी, हिंदी राम काव्य का स्वरूप और विकास (बदलते युगबोध के परिप्रेक्ष्य में), वाणी प्रकाशन, द्वितीय सं.1998, पृ. 48
2.डॉ.संगीता सी. पारेख, नवजागरण कालीन हिंदी पत्र पत्रिकाओं की सामाजिक भूमिका, श्रीनिवास पब्लिकेशन, जयपुर, प्रथम सं.2010, पृ.11
3.सूरज पालीवाल, इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक और हिंदी उपन्यास, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं.2022, पृ.147
4.डॉ रंजीत परब, स्त्री विमर्श, पृ.16
5. मधु कांकरिया, चिड़िया ऐसे मरती है, वाणी प्रकाशन, प्रथम सं.2011,पृ.140
6. वही, पृ.74
7. वही, पृ.73
8. मधु कांकरिया, जलकुंभी, वाणी प्रकाशन, प्रथम सं.2020, पृ.126
9. वही, पृ.123
10. वही, पृ.125
11.वही, पृ.112
12.वही, पृ.112
13.वही, पृ.48
14.वही, पृ.51
15.वही, पृ.102
16.वही, पृ.104
17.वही, पृ.114

लिपिपुष्पा नायक
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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