और बनारस में क्या है?
- ऋत्विक राज सिंह

बस यही वो क्षण था जिसने मेरे ग्रामीण क्षुधा को अंतरराष्ट्रीय जल से शांत कर दिया, और मुझे बनारस को देखने का, जानने का एक नया और संपूर्ण कारण तथा दृष्टिकोण दिया। शहर को चक्षु के अलावा भी ज्ञान के दृष्टि में अपनाने हेतु जो पुस्तक मुझे सबसे रास आयी वो 1982 में लिखी गई डायना. ऐल. एक की ‘बनारस; सिटी ऑफ लाइट’ थी। इस पुस्तक नें बनारस के इतिहास और बदले हुए शहर से मेरा परिचय करा दिया, यानी ऐसा कि जो है, वो सुंदर है! मगर जो था वो लाजवाब था। आज के गोदौलिया चौक से जल धारा का गुजरना, गोदौलिया, बेनिया बाग या फिर मैदागिन का किसी समय में गोदावरी, वेनि और मंदाकिनी नाम का जलस्त्रोत होना। संकट मोचन, बनकटी हनुमान के इलाकों में वन की उपस्थिति होना या फिर बनारस का स्वयं में आनंद कानन होना अर्थात् एक ऐसा वन जहाँ देवता भी आनंद हेतु विचरण करने आते थे। ये सभी बातें शहर में आये मुझ जैसे शरणार्थियों और मुसाफिरों के लिए अद्भुत अनुभव के द्वार खोल देती हैं और कदाचित इसीलिए यह पुस्तक आज तक प्रासंगिक बनी हुई है।
परंतु बनारस में तीन साल ब्रह्मवृक्ष की तरह स्थापित रह जाने के बाद और 2020 में मास्टर्स के लिए जे.एन.यू., नई दिल्ली जाने के उपरांत भी बनारस का कमरा नहीं खाली करना, और लौट कर बारंबार बनारस ही आना। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में 65 वर्षों से लेकर 20 वर्षों तक के मित्र समूह के साथ ठहाके लगाने, विश्वनाथ मंदिर और संकट मोचन में ध्यान करने, घाट पर गंगा किनारे संत्रास करने से लेकर लंका और गोदौलिया में व्यतित अनगिनत शाम और चाय आपको शहर के नए सतह से परिचय कराती है। और तब आपको एहसास होता है कि डायना. ऐल. एक की “बनारस; ए सिटी ऑफ लाइट” बनारस के इस परत को समझने के लिए अभी पर्याप्त नहीं है।
और आखिर ये सवाल ‘शहर को कैसे बयाँ किया जाये?’ व्योमेश शुक्ल की रचना “आग और पानी” इसका उत्तर भी है और उदाहरण भी। शहर क्या है? शहर क्या था? ये सब तो ठीक है पर शहर कैसा है, शहर की सुबह, शहर की शाम, शहर की चाय कैसी है? शहर के देवता, शहर के रास्ते तो ठीक, कोई ये बताये कि शहर के लोग, शहर का भाव कैसा है? शहर की बात तो ठीक है, परंतु कोई ये भी तो बताये कि बातों-बातों में शहर कैसा है? कदाचित ये रंग, ये सतह, ये परत सहायक होते हैं, किसी शहर को शहर की तरह नहीं अपितु वर्तमान में उपस्थित जीवित सभ्यता की तरह समझने हेतु। शुक्ल जी की रचना बनारस को इसी परत पर समझती है, जो शहर को देखने और बयाँ करने का आंतरिक दृष्टिकोण है। और संभवतः यह दृष्टिकोण केदारनाथ बाबू की रचना छोटी परंतु बनारस को समेट लेने की क्षमता रखती हुई, कविता, ‘बनारस’ की याद दिलाता है,
“आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तंभ के
जो नहीं है उसे थामें है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्तंभ
आग के स्तंभ
और पानी के स्तंभ।”
शुक्ल साहब का बनारस भी इसी मिजाज का है, आग और पानी का मुकाबला है, आधा है और आधा नहीं भी है। शहर को दो तत्त्वों के मिश्रण के रूप में देखने का दृष्टिकोण कुछ ऐसा है, जो सृष्टि के भाँति ही शिव और शक्ति के मिलन से जीवंत हो उठता है। हालांकि दो तत्त्वों के मिलन से अस्तित्व में अवस्थित शहर को व्यक्त करने का अंदाज वैश्विक सा लगता है, जैसे लंदन पर जीवनी लिखने वाले ऐक्रोयेड ने भी लिखा है, “London is a labyrinth, half of stone and half of flesh”, अर्थात् लंदन भँवरजाल है! जो आधा पत्थर है और आधा बदन। हालांकि शुक्ल साहब अपने शहर के पत्थरों से ज्यादा जीवंत बदन को बखानते हैं, “बनारस में जीवन है; लेकिन ज्यादा है। बनारस के पास अतीत भी है, वह भी कुछ ज्यादा है।……ऐसी मुश्किल बातें गहरे धँसकर सृजन के काम को मुश्किल बनाती हैं। लेकिन यहाँ कोई भी आसान कब थी?” व्योमेश शुक्ल, डायना. ऐल. एक की “बनारस; ए सिटी ऑफ लाइट” की तरह “अतीत जो ज्यादा है”, उसपर चर्चा न करते हुए वो “जीवन जो ज्यादा है” उसपर विशेष ध्यान देते हैं। शुक्ल जी की “आग और पानी” बनारस के इस परत पर तीन मुख्य बिंदुओं को प्रस्तुत करती है। एक बिन्दु शहर और उसके विस्तार को शानदार काव्यात्मक एवं शहर के बाशिंदों के दृष्टिकोण से आहिस्ते-आहिस्ते नजर के सामने पेश करता है। हालांकि हर अध्याय यह पेश करता हुआ आगे बढ़ता जाता है कि शहर जगह नहीं अपितु लोग हैं। दूसरा बिन्दु शहर के लोगों का एक दूसरे से अर्थात् शहर के दैनिक संस्कृति और गतिविधि की ऐतिहासिक परम्परा को प्रस्तुत करता है। वहीं तीसरा बिन्दु वो जो मैंने ऊपर स्कॉटलैंड के प्रोफेसर के वाक्ये से रखा था, बनारस को वास्तविक भारत के रूप में प्रस्तुत करता है, एक ऐसी जगह जहाँ ज्ञान प्रवाहित हो रहा है, जहाँ औपचारिक और अनौपचारिक ज्ञान संवाद गंगा के धारा की तरह कभी वेग कभी शांत निरंतर बह रहा है। जहाँ असाधारण ज्ञान, साधारणता के वस्त्र धारण किए रिक्शे पर टहलता है। जहाँ आम लोग शास्त्रीय संगीत सुन रहे हैं और विद्वान दिल में अनहद का बाजा सुनते हैं।
अपने पहले ही शीर्षक, ‘आग और पानी का मुकाबला’, में शुक्ल साहब ये प्रस्तुत करते हैं कि बनारस एक ऐसा स्थान है, जहाँ एक खास मानदण्डों पर इसे नहीं तोला जा सकता यहाँ आधुनिकता और प्राचीनता का संगम है। यहाँ धर्म, ज्ञान और अल्हड़पन साथ में अस्तित्व साझा करते हैं। बनारस वो है जहाँ “समय नाव में बैठा है और साधु का लंगोट आसमान में पतंग की तरह लहरा रहा है।” पुष्टिमार्गी राधे-राधे जपते लक्ष्मण और सीता का श्रृंगार कर रहे हैं। “नदी रेत में छिपी है”। आधुनिक मैकडॉनल्स की इमारत कचोरी जलेबी के ठेले को देख रही है, और “सब एक दूसरे से अलग-अलग भी बनारस हैं”। कदाचित इसी स्थिति को ध्यान देते हुए अपनी भूमिका में ही शुक्ल साहब ने व्यक्त किया है “जिंदा सभ्यता में योजना बनाकर दाखिल नहीं हुआ जाता”। बनारस एक ऐसे विस्तार के स्वरूप में स्थापित हैं जहाँ, बंगाल, गुजरात, तेलुगु समाज तथा अन्य भारतीय समाज के साथ-साथ नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर संपूर्ण भारतवर्ष के महत्त्वपूर्ण तीर्थ यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराए स्थापित हैं। ये सभी संस्कृतियाँ बनारस की जीवित सभ्यता में ‘जल में चीनी की तरह घुल गए’। जहाँ शुक्ल साहब की काव्यात्मक-वर्णन-नजर के सामने और मानसिक पटल पर एक सौन्दर्य रस की उत्पत्ति करता है, वहीं शुक्ल साहब वर्तमान में घटित हो रही पर्यावरण द्रोही गतिविधियों और उनके उपचार के वास्तविक स्वरूप को भी प्रस्तुत करने से पीछे नहीं हटते हैं।
हालांकि शुक्ल जी द्वारा बनारस और मृत्यु का एक उत्सव स्वरूपी वर्णन पाठकों के लिए कोई नवीन खिड़की नहीं खोलता है। विश्वनाथ घोष की रचना ‘एमलेस इन बनारस(2019)’ भी इस दृष्टिकोण को साझा कर चुकी है। वहीं केदारनाथ बाबू की कविता ‘बनारस’ भी अंधकारमय गलियों से चमकती रोशनी युक्त गंगा की ओर जाते मृत शरीर का वर्णन, इस सन्दर्भ में ही करते हैं, जहाँ मृत्यु भी अंधकारमय जीवन से मुक्ति प्रदान करती है बनारस वही स्थान है, वही शहर है। फिर भी यह पुस्तक प्रारंभिक रचनाओं की तुलना में बनारस के ज्यादा करीब है। बनारस और गंगा कदाचित एक ही हैं। गंगा में बढ़ रहे प्रदूषण का प्रभाव समूचे शहर और दैनिक जीवन तथा स्मृति को कैसे प्रभावित करता है, इसे अन्य पुस्तकों को पढ़कर पूर्णतः नहीं समझा जा सकता। क्योंकि शहर केवल स्थान नहीं अपितु स्मृति है, जो बाशिंदों का अपना है जिन्होंने यहाँ अपना बचपन, अपनी जवानी बिताई है और उस विशेष भूभाग में केवल जीवित ही नहीं अपितु दीवारें, रास्तें, मौसम, हवा में घुली गंगा की खुशबू, मंदिरों से आती घंटियों के नाद, हर चीज अपने साथ एक स्मृति संजोयी है, जो आपको स्पर्श करते ही जीवित हो उठती है। अगर इस स्वरूप में मुझे बयाँ करना हो तो शहर एक साहित्य है, एक कविता है, जो बाहर से केवल शब्द लगते हो, मगर स्मृति युक्त मस्तिष्क को स्पर्श करते ही, एक जीवन की तरह सक्रिय, रस से युक्त कर देता है। ठीक इसी प्रकार जब गंगा और प्रदूषण की बात शुक्ल प्रस्तुत करते हैं तो वो स्मृति के तरह तैरने लगती है और टीस की तरह घर कर जाती है। शुक्ल साहब अपने जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हुए व्यक्त करते हैं कि उनकी माँ द्वारा अचार बनाने पश्चात उनमें गंगाजल छिड़कना, और रोज माँ संग गंगा तैरने हेतु जाते बाल शुक्ल जी का उनसे पूछना और उनकी माँ द्वारा गंगा की जैविक ताकत बताना और गंगाजल के छिड़काव से अचार का खराब न होना और माँ के देह त्याग पश्चात उसी जैविक नदी गंगा में उनकी अस्थियों का विसर्जन, कदाचित एक पूरा जीवन समेटे हुए है। परंतु सबसे स्पष्ट झलक तब मिलती है जब शुक्ल साहब वर्णन करते हैं कि “माँ को पता था कि गंगाजल की कुछ बूंदे अचार को बिगड़ने से बचा लेंगी और मेरी बेटी को मालूम है कि गंगा का एक बूँद पानी भी मुँह में चला जाए तो तबीयत बिगड़ जायेगी। इस फांक में मेरी पीढ़ी ना डूब सकी न तैर पा रही है”। ये वही दृष्टिकोण है जो इस पुस्तक को बनारस का आंतरिक वर्णन बनाती है, गंगा का प्रदूषित होना भारतीयों के लिए पर्यावरणीय विचार है परंतु बनारसी के लिए एक स्मृति का लोप हो जाना, शुक्ल साहब जैसे बाशिंदों का गंगा तट पर माँ संग तैरने जाना, या फिर मुझ जैसों का ब्रह्म मुहूर्त का ध्यान, या प्रिया संग गंगा में पिघलती शाम के सूरज की किरण और उसके चेहरे में भेद न कर पाना, इन सब जीवित स्मृतियों का क्षय हो जाना। गंगा जो केवल इस शहर के लिए एक नदी नहीं और जिसका क्षय होना इस शहर की अपनी स्मृतियों का भी क्षय हो जाना है। जिस परिस्थिति को केवल तार्किक स्तर पर समझ पाना संभव नहीं, शायद जैसा कि एहतिशाम अली साहब ने अपने अशआर में बयाँ किया है;
“हम एक शहर में थे इक नदी की दूरी पर
और उस नदी में कोई और वक़्त बहता था।।”
एक इतिहासकार होने के नाते मैं यह स्पष्ट देख पा रहा हूँ कि यही ‘स्मृति’ वो दूसरा बिन्दु है, जो इस पुस्तक को विशेष बनाती है। स्मृति जो इतिहास से ज्यादा जीवंत वर्णन प्रस्तुत करती है, बीते हुए समय, और वर्तमान निर्मित बनारसी संस्कृति का। जैसा शुक्ल कई जगहों पर वर्णित करते हैं, शहर और सभ्यता व्यक्ति और निवासियों के जीवन क्रिया और शैली से निर्धारित होती है, ‘शहर सभ्यताओं के आईने हैं। शहर में रहने वाले लोग भी शहर होते हैं’। या फिर जैसे आनंद कृष्ण से बातचीत के दरमियान राय कृष्ण दास को स्थापित करते हुए वर्णित करते हैं, “यहाँ सभ्यता का जीवन व्यक्ति की जिंदगी की तरह उपस्थित है”। बनारस के रईसों ने आज के शहर, आज के शाम और आज के संवाद को कैसे निर्मित किया ? बनारस के रईसों की गतिविधियाँ केवल विलासिता तक सीमित ही नहीं रही, बल्कि वे “शास्त्रों के ज्ञाता, वैद्यक, हिकमतो के जानकार, ज्योतिष के विद्वान और संगीताचार्य” आदि गुणों से भी सुशोभित रहे। बनारस में जिस प्रकार आज भी ग्रेजुएशन के छात्र से लेकर प्रोफेसर और तमाम संगीतकार, अधिकारी, ज्योतिषाचार्य, लेखक जिस प्रकार एक ही मुद्दे पर चाय पीते हुए चर्चा संवाद करते हैं, शायद ही कहीं उम्र और ज्ञान की इतनी विविधता एक दूसरे को बोलने सुनने की ऐसी समान जगह रोजमर्रा के जीवन में उपलब्ध कराती हो। इस जगह इस परंपरा की शुरुआत इन विद्वान रईसों द्वारा निर्मित बनारसी संस्कृति में स्पष्ट दिखती है, आनंद कृष्ण जी शुक्ल साहब से वार्तालाप करते हुए अपनी स्मृति से बताते हैं कि “इस समूची सक्रियता का प्राण था एक छोटा सा, स्पंदन करता हुआ मुहल्ला - चौखंभा। इसका फैलाव ठठरी बाज़ार, रानी कुआँ, राम घाट और पंचगंगा घाट तक था, यही प्राणशक्ति थी उस छोटे से दायरे में रोज लोगों का मिलना-जुलना, आदान-प्रदान, पुष्टिमार्गी मुकुंदलाल और गोपाल लालजी का मंदिर- ‘जिसका पूरे समाज पर इतना बड़ा अधिकार था कि मंदिर की कटौती कटती थी - मुसलमान भाई तक देते थे’। मंदिर के कारण बाजार एकादशी को बन्द होता था।
बड़े-बड़े विद्वान और कला-प्रेमी इन मंदिरों के प्रतिपालक होते थे। कहीं विश्वनाथ जी के महंत, कहीं संकट मोचन मंदिर के महंत, शीतला जी के महंत। वह काशी का एक अद्भुत संगमित वातावरण था। इसी बिन्दु पर उसमें अंग्रेजी शिक्षा का प्रवेश होता है”। बनारस एक ऐसे शहर के रूप में है जहाँ भारतीयता केवल विशेष वर्गों तक ना सीमित थी, ना है, यहाँ सुबह ज्यादा जागृत है या शाम ये भी भेद असंभव है। अस्सी घाट पर होती सुबह बनारस और भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुति या फिर शाम को चाय की दुकानों पर होती गोष्ठियाँ। इस तरह ज्ञान का प्रवाह है। समाज में भेद करना कठिन है कि प्रवाह किस दिशा में हो रहा है, चाय वाले से बी.एच.यू. के शोध छात्रों और प्रोफेसरों की ओर या फिर इन विद्वानों से साधारण वर्ग की ओर। इस परंपरा को भी जीवित स्मृतियों में प्रस्तुत किया है। शुक्ल साहब ने, चाहे चौखंबा पर लगती बीसवीं शताब्दी के आरंभ से शाम की गोष्ठियाँ हो, या फिर आहिस्ता-आहिस्ता परंतु एक-दूसरे से संपर्क में रही और फलती-फूलती संपूर्ण हिन्दी की परम्परा। भारतेंदु के अल्हड़पन, रईसी और बनारस तथा हिन्दी की निर्मित हो रही परंपरा से लेकर रामचंद्र शुक्ल और जयशंकर प्रसाद तक की यात्रा जो इसी बनारसी रंग में रमी हुई थी और कदाचित है।
तीसरा और सबसे मुख्य बिंदु जो यह पुस्तक उजागर करती है, यहाँ की महानता जो पाश्चात्य जगत की तरह ‘सर’ परंपरा में साधारण जनों से भिन्न नहीं होती, विशेष नहीं होती। जैसा कि शुक्ल जी ने शुरुआत में ही झलक दी है और आखिरी पृष्ठों में विस्तार दिया है, यहाँ शास्त्रीय संगीत भी आम लोगों के कर्ण को स्पर्श करता है। संकट मोचन संगीत समारोह जिसमें कोई टिकट नहीं लगता देशी किसान, छात्र, साधारण जीवन व्यतीत करते लोगों का मजमा लगा रहता है। इसी को ध्यान में रखते हुए शुक्ल साहब कहते हैं “यह अभिजन संस्कृति की प्रति संस्कृति है”। एक ऐसा स्थान जहाँ मंच के बगल में राजनीति अपने रंग में है, मंच पर संगीत और सामने आम जनता और श्रोता तथा यह सब एक प्रांगण में जहाँ संकट मोचन प्रभु हनुमान विराजमान हैं। इसको शुक्ल साहब कुछ यूँ लिखते हैं, “यानी, केंद्र में संगीत, हाशिए पर राजनीति”। यानी एक ऐसा भारत जहाँ महानता और विशेष, साधारण, सरलता के वस्त्र ओढ़े भीड़ में है भी, और भीड़ भी नहीं है।
इस शहर को बनारस इसके ज्ञान और व्यक्ति के संबंध और इन दोनों की साधारणता बनाती है, जिसका अस्तित्व निरंतर बनारसीपने में बना हुआ है। जहाँ पद्मभूषण संगीतकार(छन्नूलाल मिश्र) को पद्मभूषण प्राप्त करने की सूचना आटा पीसवा के, कंधे पर कनस्तर रखे, दुकान से लौटते हुए रास्ते में दी जाती है। जहाँ भारत रत्न (बिस्मिल्लाह खान) बकरियों को सानी करते, किसी टूटी खटिया पर बैठे किसी लड़के से बात बनाते मिल जाते हैं। यहाँ शास्त्रार्थ तत्त्वचिंतक और रसिक कवि में भी होता है और जीत बनारस के सनातनी मन और मस्तमौला अंदाज की होती है। तो यह “आग और पानी” उस बनारस को परत दर परत आपके नजरों के सामने लीलामय करती हैं जो बनारस आज का है, आधा पुरातन, आधा अधूनातन, जो इस पार अतीत में है और उस पार भविष्य में भी, जो कि अतीत के ताने-बाने से बुना गया है, जो आग और पानी का मुकाबला है।
पुस्तक का नाम : आग और पानी, व्योमेश शुक्ल के द्वारा लिखित
Rukh Publication. Paperback. Price 240. 2023 ISBN: 978-81-952549-3-4
सन्दर्भ :
- Diana L. Banaras, city of light. Columbia University Press, 1999
- केदारनाथ सिंह : “बनारस” अंतरा, एन. सी. ई. आर. टी, 2022
- Anindita Bhattacharjee. "Book review : Radhika Iyengar, Fire on the Ganges: Life Among the Dead in Banaras." (2024): 2455328X241258816
- Bishwanath Ghosh. Aimless in Banaras : Wanderings in India's Holiest City. Tranquebar, 2019
- Peter Ackroyd. London : the biography. Random House, 2001
ऋत्विक राज सिंह
शोध छात्र, इतिहास विभाग, बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ
Ritspj4444@gmail.com, 8340113132
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
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