शोध आलेख : 21वीं सदी के हिंदी सिनेमा में स्त्री-प्रतिरोध की अनुगूंज / शशिकला जायसवाल

21वीं सदी के हिंदी सिनेमा में स्त्री-प्रतिरोध की अनुगूंज
- शशिकला जायसवाल

शोध सार : हिंदी सिनेमा ने वर्ष 2023 में अपनी स्थापना के 110 वर्ष पूरे कर लिए। 3 मई 1913 को दादा साहब फाल्के ने अपनी पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ रिलीज की, इस तरह वर्ष 2012 सिनेमा की एक सदी के अंत का वर्ष रहा। 21वीं सदी का सिनेमा जितने तीव्र बदलावों से गुजरा है, इन बीते पन्द्रह -बीस वर्षों में उतना संभवतः विगत 100 वर्षों में नहीं देखा गया होगा। न केवल तकनीक की दृष्टि से अपितु संगीत और ‘कंटेंट’ के लहजे से भी, बदलाव की दिशा को आलोचनात्मक तरीके से देखे जाने की आवश्यकता है;जिससे कि उपलब्धियों और खामियों को पहचाना जा सके। नायक और नायिका या दोनों में से किसी एक चरित्र की प्रधानता की उपस्थिति के बिना किसी भी फिल्म की कल्पना नहीं की जा सकती। 21वीं सदी का भारतीय समाज और उसमें स्त्रियों की उपस्थित अथवा प्रतिनिधित्व, सिनेमा में उसके प्रतिनिधित्व का स्तर तय करती है। चूंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है उसी प्रकार से सिनेमा भी साहित्य का ही अंग है ; इसलिए वह भी समाज का आईना है। इस आईने में हम वही देख पाते हैं जो हम होते हैं। स्त्री अपने अधिकारों, कर्तव्यों, स्वातंत्र्य चेतना, लैंगिक समानता, अभिव्यक्ति की आजादी, अस्वीकार के साहस एवं स्वतंत्रता आदि को लेकर कितनी सचेत मुखर एवं प्रतिबद्ध है? समाज उसके उपर्युक्त जीवन शैली को हासिल करने में किस प्रकार सहायक है? सिनेमा में संघर्षशील स्त्री को, समाज में किस नजरिए से देखा जाता है? क्या उसकी स्वातंत्र्य चेतना समाज को स्वीकार्य है? हिन्दी सिनेमा में स्त्री के प्रतिरोधी स्वर की अनुगूंज से क्या भारतीय समाज के प्रभावित और परिवर्तित होने की संभावना है अथवा बनती है? 21वीं सदी के ‘हिंदी सिनेमा में स्त्री प्रतिरोध की आवाज’ बहुत कुछ उपर्युक्त प्रश्नों के जवाब पर निर्भर करती है। प्रस्तुत शोध-आलेख के मूल में उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर की तलाश निहित है।

बीज शब्द : 21वीं सदी, हिंदी सिनेमा, स्त्री प्रतिरोध, अनुगूंज, भारतीय समाज, स्त्री अधिकार, स्वतंत्रता-सामानता।

मूल आलेख : सिनेमा वास्तव में साहित्य से अलग होते हुए भी उसका समरूप है। इसे हम साहित्य से पूरी तरह विछिन्न करके नहीं देख सकते। साहित्य के स्वरूप में होने वाले बदलावों का प्रभाव सिनेमा पर देखा जा सकता है। इसी प्रकार सिनेमा में स्त्री की उपस्थिति क्रांतिकारी घटना न भी हो तो महत्वपूर्ण घटना और घटक जरूर है। शुरुआती दौर में सिनेमा में अभिनय के लिए स्त्रियों का काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। ‘भले घर- समाज की महिलाएं सिनेमा में काम नहीं करती’ इस धारणा का टूटना अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना का परिचायक है।ऐसा समझा जाना तत्कालीन देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप ही था, क्योंकि 19वीं शताब्दी में स्त्री का डॉक्टर,इंजीनियर, सैनिक, राजनेता और यहां तक की उच्च शिक्षित होना भी वर्जनाओं के घेरे में था। फिर अभिनय की तो बात ही क्या? लंबे अंतराल के बाद ही सही न केवल स्त्री अभिनेत्रियां ‘सुपरस्टार’ के रूप में उभरी बल्कि महिला निर्देशकों ने भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। अस्सी का दशक ‘स्त्री आंदोलन’ के लिए जाना जाता है। अखबार, रेडियो आदि माध्यमों के द्वारा भी स्त्रियों के मुद्दे को हल्की आहट के साथ ही सही, पर जगह मिलने लगी थी। हर क्षेत्र में स्त्री की भागीदारी और प्रतिनिधित्व के स्वर में मीडिया अपना स्वर मिलाने लगी थी। फिल्मों की भाषा,संगीत और कथानक में स्त्री के प्रतिनिधित्व की अभिव्यक्ति शुरू हो चुकी थी। अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के दशक में ‘अंकुर’ मंडी’(श्याम बनेगल) ‘दामुल’(प्रकाश झा) ‘स्पर्श’,’चश्मे बद्दूर’(सईं परांजपे) ‘भुवन सोम’ ‘एक दिन प्रतिदिन’ (मृणाल सेन) ‘सारा आकाश’(बासू चटर्जी) ‘माया मेम साहब’ ‘मिर्च मसाला’ (केतन मेहता)’चक्र’ (रविंद्र धर्मराज) ‘अर्थ’(महेश भट्ट) ‘बाजार’ (सागर सरहदी) ‘गृह प्रवेश’ ‘आविष्कार’ (बसु चटर्जी) आदि कुछ ऐसी फिल्में रिलीज हुई है,जिनके अध्ययन- विश्लेषण से स्त्री की सिनेमा में उपस्थिति और प्रतिरोध को शुरुआती रूप में देखा जा सकता है। अति सामान्य स्त्री का सामंती मूल्यों के प्रति विद्रोह और प्रतिरोध, स्त्री अस्मिता और सामंत विरोधी मूल्यों के बीच टकराव, यौन वर्जनाओं,पाखंड, यौन कर्मियों की समस्या और चुनौतियों का रेखांकन, दलित स्त्री के श्रम और यौन शोषण की अभिव्यक्ति, स्त्री की माल की तरह खरीद फरोख्त, पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा निर्धारित सीमा रेखा का अतिक्रमण, स्त्री की उपस्थिति को रेखांकित करने वाले ऐसे क्षेत्र जहां पुरुषों का ऐतिहासिक वर्चस्व रहा है’ इन फिल्मों की कहानियों का कथ्य बना। सिनेमा बनाने और बेचने वालों की निगाह में ‘स्त्री’ की छवि कितनी परिवर्तित हुई, यह तो देखने की बात है ही साथ ही स्त्री के प्रतिरोध को लेकर भी सिनेमा में बड़ी हलचल हुई।

दरअसल फिल्में समाज को समझने का नजरिया देती है। सामाजिक परिदृश्य, घटनाओं और मान्यताओं के आधार पर ही फिल्मों का ताना-बाना तैयार किया जाता है। निःसंदेह सिनेमा एक प्रभावी माध्यम है,यह समाज और संस्कृति को गहरे तक प्रभावित करता है। जब हम 21वीं सदी के हिंदी सिनेमा में ‘स्त्री प्रतिरोध’ की बात करते हैं तब यह देखना नितांत आवश्यक हो जाता है कि समाज में स्त्री प्रतिरोध की आवाज का स्वरूप क्या है? वह कितनी मुखर स्पष्ट या दबी हुई है। क्योंकि जिस प्रकार साहित्य समाज का दर्पण होता है उसी प्रकार सिनेमा भी समाज का आईना है। बल्कि यूं कहें कि कई बार घटनाओं, विसंगतियों, समस्याओं या आदर्श प्रदर्शन या प्रचार में सिनेमा साहित्य से भी आगे जाता दिख पड़ता है। वह ‘लोक’ से ‘डायरेक्ट’ ‘कनेक्ट’ होता है। समाज स्त्री के इस प्रतिरोधात्मक छवि को किस प्रकार देखता, समझता और स्वीकार करता है। क्या स्त्री प्रतिरोध का स्वर सामाजिक बदलाव के संकेत देता है या एक अदृश्य दीवार से टकराकर छिन्न-भिन्न हो जाता है? इन सभी प्रश्नों को 21वीं सदी के सिनेमा में देखने की एक कोशिश, इस शोध आलेख के मूल में है।

“हिंदी फिल्मों में स्त्री समाज अलग-अलग रूपों में मौजूद है लेकिन कुछ कला फिल्मों के अलावा यह पूरी आधी आबादी सिर्फ हाशिए पर मौजूद रहती है या तो वह शोपीस होती है या फिर फिल्म में मौजूद रहते हुए भी अनावश्यक होती है।”1 यह नब्बे के दशक की फिल्मों का एक चित्र है। किंतु 21वीं सदी हिंदी सिनेमा का वह दौर है जहां फिल्मों में नायिकाएं केवल नाचने-गाने या दर्शकों को आकर्षित करने के लिए नहीं होती। वह दौर बीत चुका था जहां पर फिल्मों की सफलता का भार केवल पुरुष के कंधों पर होता था और फिल्में नायकों के नाम पर चलती थी। धीरे-धीरे ही सही सिनेमा जगत स्त्री छवि के नए आयामों को पारखी नजर से देखने लगा और समानांतर सिनेमा का नया दौर आया जहां फिल्मों की सफलता का श्रेय केवल नायकों के हिस्से में न रह कर, नायिकाओं के खाते में भी जुड़ा। ‘स्त्री प्रधान’ फिल्में भी सिनेमा का महत्वपूर्ण हिस्सा बनने लगी। स्त्रियों के लिए बीसवीं सदी में सामाजिक वर्जनाओं के टैबू टूटने का जो सिलसिला शुरू हुआ, 21वीं सदी तक उसमें और भी इजाफे हुए। वर्जनाओं और पाबंदियों का तिलिस्म टूटने के साथ ही स्त्री चेतना अपनी अस्मिता के लिए और अधिक मुखर होकर अभिव्यक्त होने लगी। “2003 में प्रदर्शित फिल्म ‘जिस्म’ ने महिलाओं के लिए शरीर की पवित्रता, गरिमा और लज्जा के सभी आवरण ध्वस्त कर दिए। कामेच्छा केवल पुरुष की जरूरत है, स्त्री मात्र उसका हिस्सा है, हिस्सेदार नहीं; इस परंपरागत विचार को यह फिल्म खुलकर चुनौती देती है। विवाहित स्त्री, वैवाहिक संबंध में शारीरिक जरूरत के पूरा न हो पाने की कमी को दूसरे पुरुषों के माध्यम से पूरा करती है। ‘सत्ता,’ ‘फैशन’, ‘एतराज़ ’, ‘लीला’,’अस्तित्व’, ‘ज़ुबैदा’, जब वी मेट’, ‘लज्जा’, ‘एक छोटी सी लव स्टोरी’, ‘कभी अलविदा ना कहना’ और ‘क्या कहना’ की नायिकाएं यौन वर्जनाओं, और समाज की परंपरागत पितृसत्तात्मक सोच के विरुद्ध और प्रतिरोध में खड़ी होती दिखाई देती हैं।”2

लेकिन “जिस देश में प्रतिवर्ष 1100 से अधिक फिल्में बनती हों (इनमें उनकी गिनती नहीं है जो या तो बनते हुए आधे रास्ते में दम तोड़ देती हैं या की बनने के बाद डिब्बा बंद हो जाती हैं)”3 ऐसी कुछ गिनी चुनी फिल्में ही है जो स्त्री को ‘ऑब्जेक्ट’के बजाय ‘सब्जेक्ट’ के रूप में प्रस्तुत करती हैं। फिल्मों में स्त्रियां प्रेम करने की स्वतंत्रता रखने वाली तो दिखाई जा सकती हैं किंतु सेक्स की स्वतंत्रता रखने वाली नायिकाओं का चित्रण करने से अभी भी हिंदी सिनेमा को परहेज़ है। ‘क्वीन’ ‘इंग्लिश- विंग्लिश’ ‘मेरे ब्रदर की दुल्हनियाँ’ जैसी फिल्मों की नायिकाओं में स्वतंत्रता, अल्हड़पन, बेबाकी प्रगतिशीलता और पारिवारिक प्रतिरोध और अस्तित्व की पहचान के लिए संघर्ष करने के बावजूद, सेक्स की स्वतंत्रता के प्रति झिझक दिखाई पड़ती है। ‘क्वीन’ की नायिका लंदन तक अपने अस्तित्व की तलाश के बावजूद भी अपने विदेशी मित्र के साथ संबंधों से परहेज करती है और उसे भी इसकी सीख देती है। ‘इंग्लिश-विंग्लिश’ की नायिका शशि रिश्ते में तमाम घुटन के बावजूद, अमेरिका पहुंचकर भी अपने फ्रेंच प्रेमी से एक फ्रेंच किस का अनुभव भी लेने से वंचित रह जाती है। ‘मेरे ब्रदर की दुल्हनियाँ’ की नायिका ड्रग्स-शराब के साथ-साथ तमाम चीजों में हरफनमौला होने के बावजूद भी सेक्स के प्रति सतर्क है।

इन फिल्मों का जिक्र करने का उद्देश्य केवल स्त्री पुरुष के बीच उस द्वैत भाव को रेखांकित करना है जिसकी वजह से हिंदी फिल्मों में यह रूप हमें दिखाई पड़ता है या दिखाया जाता है। स्त्री सेक्स ‘ऑब्जेक्ट’ है ‘सब्जेक्ट’ नहीं। “वह सेक्स ‘पार्टनर’ हो सकती है पर उसमें भी उसकी भूमिका उपभोग किए जाने मात्र की है। तभी तो हमारे संस्कारी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष यह कहते हैं कि ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरखा’ को ‘ए’ सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा क्योंकि यह कुछ ज्यादा ही ‘फेमिनिस्ट’ फिल्म है। क्यों? क्योंकि शायद वहां स्त्री को सेक्स ‘ऑब्जेक्ट’ के रूप में न दिखाकर सेक्स ‘सब्जेक्ट’ के रूप में दिखाया गया है, जो एक तरीके से पुरुषों के एकाधिकार पर सीधा हमला है। आखिर स्त्रियां तो बिस्तर पर बिछने के लिए बनी है, वह खुद सेक्स करती हुई कैसे दिखाई जा सकती हैं।”4

जिस देश के सामाजिक ताने-बाने में सेक्स एक ‘टैबू’ की तरह है, स्त्री स्वतंत्रता और अस्मिता एक आंदोलन की तरह है, स्त्री मुक्ति और स्त्री समानता एक को एक मांग की तरह देखा जाता है, वहां के सिनेमा में स्त्री चेतना और प्रतिरोध का स्वर और उसकी अनुगूंज कैसी होगी…यह निश्चित ही शोध का विषय है।

जब हम स्त्री प्रधान फिल्मों या स्त्री प्रतिनिधित्व वाले फिल्मों की बात करते हैं तो स्वाभाविक रूप से यही चित्र उभरता है कि अमुक फिल्म में नायिका की भूमिका को सशक्त किरदार के रूप में दिखाया गया होगा। लेकिन फिल्मों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के लिए स्वीकृत मानक “बेकल के अनुसार किसी फिल्म में कम से कम दो महिला चरित्र हों, वह आपस में बात करें और उनकी बात किसी पुरुष के बारे में न होकर किसी और विषय पर हो, उन महिला किरदारों के नाम भी हो।”5 इस दृष्टि से देखा जाए तो हिंदी सिनेमा में इस मानक को पूरा करने वाली फिल्मों की संख्या बेहद कम है। एक सर्वे के अध्ययन के अनुसार फिल्म निर्माण के पांच प्रमुख विभागों में पुरुष महिला की भागीदारी का अनुपात 52% पुरुष और 8% महिला का है। ओर्मैक्स मीडिया और फिल्म कैम्पेनियन के इस सर्वेक्षण और अध्ययन से कई धारणाएं टूटती हैं। फिल्मों में महिलाओं की वस्तुस्थिति और प्रतिनिधित्व का सही आंकड़े सामने आता है। हजारों करोड़ों की फिल्म इंडस्ट्री में फिलहाल महिलाओं की स्थिति चिंतनीय और विचारणीय है उन्हें बराबर तो दूर उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व भी नहीं मिलता।”6

फिल्म निर्माण जगत के इस असमान प्रतिनिधित्व के बावजूद थोड़े से प्राप्त अवसरों के बीच बनी स्त्री केंद्रित फिल्में अपने कथानक और प्रस्तुतिकरण के लिए उल्लेखनीय रही है। 21वीं सदी का भारतीय सिनेमा स्त्री प्रतिरोध और उसकी बेबाक छवि को कुछ हद तक उकेरने में सफल रहा है। राजनीति, व्यापार, खेल, शिक्षा, विज्ञान इन सभी क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति की तेज धमक सुनाई पड़ती है। परिणामत: हिंदी सिनेमा इस धमक को न केवल महसूस करता है बल्कि रूपहले पर्दे पर भी उसकी चमक बिखेरता है। क्या कहना (2000), मातृभूमि:ए नेशन विदाउट वुमन (2003),वाट(2007),फैशन(2008),मर्दानी (2014)नीरजा (2016), मणिकर्णिका (2019), जजमेंटल है क्या (2019),गिल्टी (2020),थप्पड़ (2020), छपाक (2020)। कुछ ऐसी फिल्में है जो पूरी तरह महिलाओं के जज्बे, जरूरत और जीवन पर केंद्रित होने के साथ ही उन्हें विशाल ‘कैनवास’ प्रदान करती है। विवाह पूर्व गर्भधारण जैसे वर्जित और असाधारण मुद्दे पर बनी फिल्म ‘क्या कहना’ समाज के उस सोच और रवैये पर प्रहार करता है जो प्रत्येक घटना- दुर्घटना का दोषी केवल स्त्री को मानता है। फिल्म के अंत में नायिका अपने बच्चों के बायोलॉजिकल पिता द्वारा शादी के प्रस्ताव को अस्वीकार करके, एक स्वतंत्र और स्वाभिमानी स्त्री का उदाहरण प्रस्तुत करती है। जिसका निर्णय यह दिखाता है कि ‘स्त्री’ कोई खिलौना या वस्तु नहीं है जिसे जब जी चाहे खेला जाए जबकि चाहे अपनाया जाए और जब भी चाहे छोड़ दिया जाए। ‘मातृभूमि’ ‘वाटर’ और ’फैशन’ अपने-अपने तरीके से स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान को रेखांकित करती हैं।

‘नीरजा’ में एक पायलट स्त्री “नीरजा भनोट” के सहासिकता और बहादुर की कहानी को पर्दे पर उतर गया है। 1986 की घटना पर लगभग दो दशक बाद इस लड़की को बड़े पर्दे पर याद किया जाना यूं ही नहीं है।बायोपिक फिल्में कला फिल्में होती हैं। उनका व्यापारिक महत्व संकट में होता है। लेकिन ‘नीरजा’इसका अपवाद है। ‘मर्दानी’ महिलाओं की जिंदगी के सफर और मुश्किलों को रेखांकित करती है। एक महिला पुलिस अधिकारी जिसने डरना और हारना नहीं सीखा। आधुनिक स्त्री की छवि को प्रस्तुत करती यह फिल्म एक गंभीर सामाजिक अपराध की वास्तविकता को उजागर करती है। निस्संदेह यह फिल्म स्त्री को शक्ति के प्रतीक के रूप में चित्रित करती है। क्योंकि भारतीय समाज में भले ही स्त्री को शक्ति की देवी के रूप में पूजा जाता है किंतु शक्ति का वास्तविक केंद्र पुरुष ही है। शक्ति और साहस जेंडर नहीं देखता, वह नितांत वैयक्तिक गुण है, स्त्री और पुरुष किसी में भी हो सकता है। ‘मर्दानी’ इसका जीवंत उदाहरण है। कहानी(2012), मॉम (2017) जैसी फिल्में भी ‘स्त्री’ के साहस और शक्ति की कहानी कहतीं है।

‘थप्पड़’2020 में रिलीज एक शानदार फिल्म है। जिसका कथानक स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता से जुड़ा है।

भारतीय समाज- परंपराएं, वैवाहिक संबंध को पवित्र और सात जन्मों का संबंध कहकर महिमामंडन करता रहा है; लेकिन जब यह सात जन्मों की डोर गले की रस्सी या फांसी बन जाए तब उसका कोई हल नहीं देता।मैं जब भी भारतीय वैवाहिक परंपरा पर बात करती हूं मुझे प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी याद आती है..-“जिन स्त्रियों को धर्म-बंधन में बांधकर, उनकी सम्मति के बिना आप उनका सब अधिकार छीन लेते है, तब क्या धर्म के पास कोई प्रतिकार, कोई संरक्षण नहीं रख छोड़ते, जिससे वे स्त्रियाँ अपनी आपत्ति में अवलम्ब मांग सके।”7 स्त्री वैवाहिक परिधि के भीतर सहते जाने की हद तक सहती रही है‌।किंतु आधुनिक स्त्री अब इसे और बर्दाश्त करने से इंकार करती है। वह अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं करना चाहती। ‘थप्पड़’ का एक संवाद -

“वकील : एक औरत को अपना घर जोड़े रखने के लिए थोड़ा बर्दाश्त करना पड़ता है…

अमृता (नायिका) जिस चीज को जोड़ना पड़े, मतलब वह पहले से ही टूटी हुई है।”8

हाथ उठाना, गाली देना, कठोर व्यवहार, जबरदस्ती संबंध बनाना, अनावश्यक प्रतिबंध लगाना आदि कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जो वैवाहिक जीवन में ‘आम’ समझी जाती हैं। गोया विवाह पुरुष को स्त्री के साथ यह सब करने का ‘लाइसेंस’ देता है। ‘थप्पड़’ की नायिका इसके प्रतिरोध में अपना स्वर बुलंद करती है-’जस्ट ए स्लैप, पर नहीं मार सकता…”9

’थप्पड़’ ‘नॉर्मल’ नहीं है।’ औरत मर्द के अहं को तुष्ट करने का जरिया नहीं है, स्त्री,मर्द का ‘पंचिंग बैग’ नहीं है।

‘इंग्लिश- विंग्लिश’(2012) की नायिका ‘शशि’ परिवार पति और बच्चों की परवरिश में पूरी उम्र गुजार देती है लेकिन उसका हासिल क्या है? क्या फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना ही ‘संपूर्ण व्यक्तित्व’ का सही परिचय है? घर-गृहस्थी के काम हमेशा ही ‘नेगलेक्टेड’ की श्रेणी में आते रहे हैं, उनका कोई मूल्य नहीं होता, वे स्त्रियों के हिस्से में इस प्रकार से लिख दी जाती हैं मानो वे यही करने धरती पर आई है। ‘शशि’का चरित्र ऐसी ही गृहिणी की कहानी बयां करता है। लेकिन कहानी यू टर्न लेती हुई आधुनिक स्त्री/ 21वीं सदी की स्त्री के अस्मिता के संघर्ष को रेखांकित करती है। वह न केवल एक फ्रेंच पुरुष के प्रति आकर्षित होती है, बल्कि स्वयं से भी प्यार करना सिखती है। अंग्रेजी भाषा को सीख कर, वह न केवल केवल भाषा पर अधिकार करती है बल्कि अपने अस्तित्व की तलाश में भी सफल होती है। वह एक मां तथा पत्नी से ऊपर उठकर एक ‘स्त्री’ के रूप में अपने मूल्य को स्थापित करती है।

निश्चित ही भारतीय संयुक्त परिवार की व्यवस्था एक समुन्नत व्यवस्था है। किंतु इसे आदर्श व्यवस्था कहना कहीं से भी उचित नहीं है, क्योंकि आदर्श जैसी कोई स्थिति नहीं होती। यह मात्र एक काल्पनिक स्थिति है, इसके आसपास पहुंचना भी मानव समाज के बस की बात नहीं। बाल यौन शोषण इसी भारतीय परिवार का विभत्स सच है। 2014 में रिलीज फिल्म ‘हाईवे’ इसी तरह की एक लड़की की कहानी को सामने लाता है। परिवार के नजदीकी रिश्तेदार का सच सामने आने पर उसके स्वयं के माता-पिता और परिवार इस सच को स्वीकार करने में संकोच करते है। उन्हें लड़की का आरोप विक्षिप्तता की अवस्था में कही गई टिप्पणी लगती है-

“ वीरा-’आज चॉकलेट नहीं लाए शुक्ला ताया..

अभी मंगवाते हैं…

कहां देंगे?...यहां या बाथरूम में ×××××

अपने हाथ से मेरा मुंह दबाकर बंद कर देते थे…ताकि मेरी चीख बाहर न निकले×××××

ऐसा तो होता रहता है…तो क्या है न.. आई एम नॉट ओके विद इट ×××××

पिता कहता है-’ओके. लेट'स बी सेंसिबल..

वीरा-नो आई विल नॉट बी सेंसिबल.. आई एम स्टुपिड.. आई विल रिमेन स्टूपिड…×××××

वीरा! जब भी घर के बाहर जाना केयरफुल रहना.. तो फिर यह क्यों नहीं कहा कि तुझे घर के अंदर भी केयरफुल रहना है…”10

नायिका वीरा का यह प्रतिरोधी स्वर अब और चुप रहकर बर्दाश्त करने से इनकार करता है। बाल यौन शोषण की शिकार नायिका, समाज में इस संदेश को प्रसारित करती है कि चुप्पी तोड़ो.. कारा तोड़ो…

मानव सभ्यता ने एक लंबे संघर्ष के बाद कुछ बुनियादी अधिकार हासिल किए हैं और उन्हें अधिकारों की फेहरिस्त में शामिल है ‘वैयक्तिक आजादी’। मनुष्य होने और बनने के लिए यह एक नितांत जरूरी चीज है। चुनाव करना, प्रेम करना,किसी के साथ रहना, पसंद का जीवन और जीवनसाथी, यह सभी वैयक्तिक स्वतंत्रता के एक पहलू हैं लेकिन इससे भी अधिक जरूरी और महत्वपूर्ण है, नकार की आजादी और अस्वीकार की स्वतंत्रता। गृहस्थी-परिवार या संबंध में कुछ पसंद न आने पर उसे बाहर होने की आजादी।

21वीं सदी के सिनेमा में बनी कुछ फिल्में इस अस्वीकार की आजादी को दिखाने का प्रयास करती हैं जिनमें पिंक(2016) गिल्टी(2020) को उल्लेखनीय कहा जा सकता है।

2016 में आई फिल्म ‘पिंक’ को एक महत्वपूर्ण संदेश के लिए याद किया जाएगा जो स्त्रियों के हक में नई इबारत लिखता है। दिल्ली की रहने वाली तीन लड़कियों की कहानी को प्रदर्शित करती है फिल्म यह बताती है कि- इफ ए गर्ल से-’नो’ इट मींस नो.. ‘पिंक’ यह बताने की कोशिश है कि औरत की अपनी एक सोच है,उसकी अपनी स्वतंत्रता है।

‘पिंक' उन प्रश्नों को उठाती है जिनके आधार पर लड़कियों के चरित्र के बारे में बात की जाती है। लड़कियों के चरित्र घड़ी की सुइयों के आधार पर तय किए जाते हैं। कोई लड़की किसी से हंस बोल ली या किसी लड़के के साथ कमरे में चली गई या फिर उसने शराब पी ली तो लड़का यह मान लेता है कि लड़की 'चालू' है। उसे सेक्स के लिए आमंत्रित कर रही है।

फिल्म की कई बातें कचोटती हैं। ये उन लोगों के दिमाग के जाले साफ कर देती है जिनकी सोच रू‍ढ़िवादी है और जो लड़कियों के आर्थिक स्वतंत्रता के हिमायती नहीं है। फिल्म का एक संवाद-जो पूरी फिल्म के उद्देश्य को रेखांकित करता है- “नो’..’नो’ योर ऑनर। ‘नो’ सिर्फ एक शब्द नहीं, अपने आप में पूरा एक वाक्य है। इसे किसी तर्क, एक्सप्लेनेशन या व्याख्या की जरूरत नहीं होती। ‘ना’का मतलब ‘ना’ ही होता है ….ब्वायज मस्ट रियलाइज-’नो’ का मतलब ‘नो’ होता है, उसे बोलने वाली लड़की कोई परिचित हो, फ्रेंड हो, गर्लफ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो या आपकी अपनी बीवी ही क्यों न हो। नो मिंस नो..”11

अस्वीकार या नकार की आजादी को दिखाने वाले सिनेमा को हम उंगलियों पर गिन सकते हैं। इसी तरह अन्य स्त्री प्रतिरोधी स्वर को अभिव्यक्त करने वाली फिल्में भी आंकड़ों के हिसाब से ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। एक डाटा ऊपर दिया जा चुका है। हिंदी सिनेमा का अधिकांश ‘कंटेंट ’स्त्रियों को भौंडे अंग प्रदर्शन, पुरुष दर्शकों को आकर्षित करने के लिए उत्तेजक दृश्यों का संयोजन, स्त्री को ऑब्जेक्टीफाइ करने के साथ ही, फिल्मी गीतों के अश्लील शब्दों और शारीरिक प्रदर्शन बिना किसी सेंसरशिप के चल रहा है।

‘दबंग-1’ की ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए’ और ‘दबंग-2’ की ‘चिपका ले सैयां फेविकोल से’ के बोल स्त्री मर्यादा को क्षति पहुंचाते हैं।खासकर उसके बोल ‘मैं हूँ तंदूरी मुर्गी हलाल, गटका ले सैंया अल्कोहल से’ पर आकर तो मामला इतना बिगड़ चुका होता है कि स्त्री के साथ संबंध को सीधे तंदूरी चिकन खाने से जोड़ देता है। चिकन के भूनने और खाने में मुर्गी की कोई मर्जी नहीं होती। तो क्या स्त्री के साथ संबंध बनाने में स्त्री की कोई मर्जी होगी या उसे भी उसकी मर्जी के बिना भोगा जा सकता है? वैसा ही एक गीत है ‘आर... राजकुमार’ फिल्म का ‘गन्दी बात गन्दी बात’ जिसमें नायक नायिका को सीधे-सीधे धमकी देता है कि उसने शराफत से बहुत इंतजार कर लिया अब वह नायिका के साथ जबरदस्ती करेगा अगर वह उसकी बात नहीं मानेगी। सवाल यह है कि ऐसे गाने किस तरह की स्त्री छवि और स्वर गढ़ रहें हैं?क्या स्त्री के इनकार करने पर उसे रेप की धमकी देने वाले, रेप करने वाले और उसके चेहरे पर तेजाब फेंक देने वाले लड़कों को यह गाने नहीं उकसाते।”12

इसकी सबसे बड़ी वजह समाज में स्त्रियों के प्रति नजरिये और परंपरागत सोच है। हिंदी सिनेमा में स्त्री प्रतिरोध की अनुगूंज तभी सुनाई पड़ेगी जब वह ‘आवाज’ समाज में मौजूद होगी। उसकी मात्रा और गुणात्मकता को भी देखे जाने की आवश्यकता है। निश्चित रूप से यदि हम 21वीं सदी के हिंदी सिनेमा में भी स्त्री और स्त्री प्रतिरोध पर बनी फिल्मों की कमतरी की दुहाई देते हैं, तो इसमें सिनेमा इंडस्ट्री की नहीं बल्कि समाज की जिम्मेदारी तय होती है। समाज में इक्का-दुक्का उदाहरण छोड़ दें तो हममे से बहुतायत के दिल और दिमाग में ऐसी छवियां नहीं कौंधती जो आधी आबादी का भरपूर प्रतिनिधित्व कर सके।

ऊपर स्त्री प्रतिरोध को दिखाने वाली जितनी भी फिल्मों का जिक्र किया गया है उनकी नायिकाएं समाज की ऐसी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो समाज के दकियानूसी, रूढ़िवादी, परंपरागत सोच पर प्रहार करती हैं।

लेकिन यहां देखने वाली बात यह है की समाज में कितनी स्त्रियां ऐसा कर पाती हैं या कितनी स्त्रियों को ऐसा करने का मौका मिलता है। और ऐसी स्त्रियां जिन्होंने परंपरा,परिपाटी और बंधनों से मुक्त होकर आजाद और स्वतंत्र जीवन को चुना है, उन्हें समाज ने किस रूप में देखा है? स्वतंत्रचेता,आज़ाद ख्याल स्त्री घर बना या जोड़ नहीं सकती, भारतीय समाज में आज भी यही सोच स्त्रियों के प्रति दिखाई पड़ती है।

क्योंकि जिस भारतीय समाज का हम हिस्सा हैं उस देश की स्त्रियां पुरुषों की इच्छाओं से उपजी हुई स्त्रियां हैं।”हमारे देश की स्त्रियां पुरुषों की इच्छा अनुरूप ढली या ढाली गई हैं । यही स्त्री छवियां हमारे हिंदी सिनेमा में भी तैरती रहती हैं। इस देश की स्त्रियों को सबसे पहले तो यह चाहिए कि वह पुरुषों की इच्छा अनुसार जीना छोड़ दें, वह उसे जिस रूप में देखना- भोगना चाहते हैं, वैसा होने देना बंद कर दें। तब शायद हिंदी सिनेमा में प्रतिरोध का स्वर और स्त्री छवि अपने सही रूप में देखने में आए।”13

संदर्भ :
1-हिंदी सिनेमा में हाशिए का समाज: संपादक-गौरी नाथ : अंतिका प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड वर्ष 2019 :पृष्ठ 240
2-सिनेमा में नारी: लेखक शमीम खान: प्रकाशन-ग्रंथ अकादमी नई दिल्ली 2014: पृष्ठ 30
3-सिनेमा में नारी: लेखक शमीम खान: प्रकाशन-ग्रंथ अकादमी नई दिल्ली 2014: पृष्ठ 65
4-हिंदी सिनेमा में प्रतिरोधी स्त्री छवि और स्वर : आलेख मृत्युंजय प्रभाकर: प्रकाशित www.ukessays.com: 13 जनवरी 2018
5- hindi.news.com 15 March 2021: 2:07pm visit 03-09-2024
6- वही.
7-ध्रुवस्वामिनी(जयशंकर प्रसाद): संपादक: प्रसाद साहित्य, साहित्य रत्नालय ,कानपुर: पृष्ठ -28
8-आलेख:प्रिया शांडिल्य:Aaj tak.in: नई दिल्ली 28 फरवरी 2020, 5:50pm
12-हिंदी सिनेमा में प्रतिरोधी स्त्री छवि और स्वर:आलेख मृत्युंजय प्रभाकर: प्रकाशित www.ukessays.com: 13 जनवरी 2018
13- वही.

शशिकला जायसवाल
सहायक आचार्य (हिंदी विभाग), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाज़ीपुर
shashishraddha7@gmail.com, 9455868861
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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