शोध सार : भारत विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों, जातियों, परंपराओं, भाषाओं और सामाजिक संस्थाओं का पोषक कहा जाता रहा है, अपनी अभिजात्यता और भव्यता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जाना जाता रहा है, अपनी शिक्षा एवं वेदों-उपनिषदों के ज्ञान पर गर्व करता रहा है, जो स्वयं को विश्व स्तर पर आर्थिक एवं सैनिक शक्ति के रूप में स्थापित कर चुका है, और विश्व स्तर पर आकर्षण का केंद्र बना हुआ है; वह आंतरिक रूप से कई मामलों में खोखला और संकुचित दिखलाई पड़ता है। इतने बड़े संवैधानिक-लोकतांत्रिक देश में समाज के कुछ वर्गों में सुरक्षा व समान-दृष्टि की कमी खलती है। यहाँ उस समाज की बात की जा रही है जो अब देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ है- ‘एलजीबीटीक्यू समुदाय’। भारतीय समाज में दरकिनार किये हुए सामाजिक वर्ग हमेशा से हाशिए पर ही रहे हैं और इन्हें हमेशा के लिए नज़रअंदाज कर दिया गया है, चाहे वह स्त्री हो, दलित हो, आदिवासी हो या फिर थर्ड जेंडर। थर्ड जेंडर का मुद्दा देशभर में चर्चा का विषय बना अवश्य है लेकिन इसका स्वरूप कैसा है, इसे संवेदना के स्तर पर देखा जा रहा है या सहानुभूति के स्तर पर? ऐसे कई सवाल हैं जिन पर अध्ययन किया जाना अभी बाकी है। प्रस्तुत शोध में एलजीबीटीक्यू समुदाय के प्रति हिंदी सिनेमा के रवैये एवं स्वीकृति-अस्वीकृति के प्रश्नों की पड़ताल की गई है। साथ ही इस समुदाय को लेकर सिनेमा में आ रहे संवेदनात्मक परिवर्तन को भी इंगित किया गया है। इस शोधालेख की वैज्ञानिकता को बनाये रखने लिए तुलनात्मक एवं अवलोकन पद्धतियों की सहायता ली गई है। इस तरह यह शोधालेख एक सामाजिक भूमिका निभा सकता है।
बीज शब्द : एलजीबीटीक्यू, सामाजिक वर्ग, थर्ड जेंडर, समलैंगिकता, यौनवृत्ति, लेस्बियन, गे, बाई सेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्रॉस ड्रेसिंग, बम्बईया सिनेमा, संवेदनात्मक मूल्य, किन्नर विमर्श, सरोकार।
मूल आलेख : हिन्दुओं के पौराणिक ग्रंथों, कथाओं (रामायण, महाभारत) में भी एलजीबीटीक्यू के प्रसंग मिलते हैं; यहाँ इस वर्ग को सम्मानजनक रूप में ही दिखाया गया है। वर्तमान में ‘खजुराहों के मंदिर’ को इसका सबसे अच्छा उदाहरण माना जा सकता है, यहाँ तत्कालीन समाज में समलैंगिकता या एलजीबीटी समुदाय की उपस्थिति को एक जीते-जागते प्रमाण के रूप में देख सकते हैं। “प्राचीन भारतीय ग्रंथ ‘मनुस्मृति, रतिवैज्ञानिक ग्रंथ ‘कामसूत्र’ आदि में भी ट्रांसजेंडरों का उल्लेख प्राप्त है। मनुस्मृति में इन्हें ‘क्लीब’ शब्द में विशेषित किया गया है। इनके प्रति मनुस्मृति में अच्छा व्यवहार या मत नहीं है।”1
हम इस समुदाय के अस्तित्व को मानते तो हैं किंतु स्वीकार नहीं करते। हाल के कुछ वर्षों में न केवल थर्ड जेंडर को लेकर बातें हो रही है अपितु एलजीबीटीक्यू आदि पर भी लोगों की जानने में उत्सुकता बढ़ी है। पादप, जंतु, जानवर, पशु और पक्षियों कीतरह उभयलिंगी मनुष्यों को किसी अलग वर्ग में नहीं रखा जा सकता; क्योंकि स्त्री-पुरुष के संयोग से ही प्राकृतिक रूप में इनकी उत्पत्ति होती है; फिर भी इसे भारतीय संदर्भ में देखा जाए या फिर विश्व स्तर पर, इसे अप्राकृतिक घोषित किया जाता रहा है। “वेद में इसे प्रकृति और इतर को विकृति कहा गया है। मतलब बहुसंख्यकों की यौनवृत्ति को प्रकृत और अल्पसंख्यकों की यौनवृत्ति को विकृत यानी प्रकृति विरुद्ध और हीन समझा गया। दरअसल यह गलत दृष्टि है। बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों की वृतियों की समान स्वीकृति होनी चाहिए। क्योंकि समाज लैंगिक बहुलता से संपन्न है, इसकी जानकारी ही नहीं, स्वीकृति भी होनी चाहिए।”2
यहाँ तक कि भारतीय दंड संहिता के अध्याय 16, धारा 377 के तहत समलैंगिक आचरणों को एक आपराधिक कृत्य घोषित किया गया। स्वतंत्र भारत में समलैंगिक अधिकारों के लिए पहला विरोध उन्हें 1992 ई. में हुआ। फिर 1999 ‘कलकत्ता रेन्बो प्राइड’ के रूप में भी विरोध दिखाई देता है। हाल ही में 6 सितंबर 2018 को समलैंगिक अधिकारों को लेकर उच्चतम न्यायालय द्वारा महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया; जिसमें धारा 377 को असंवैधानिक घोषित किया गया, साथ ही यह भी निर्णय लिया गया कि समान लिंग के वयस्कों के बीच आम सहमति से यौन आचरण अपराध का हिस्सा नहीं माना जाएगा। धारा 377 का कानूनी संघर्ष ही खत्म हुआ, किंतु जहाँ एलजीबीटीक्यू के संदर्भ में समान अधिकारों की बात की जाए तो अभी यह समस्या बरकरार है।
विश्व स्तर पर रूस यूरोपवाद का विरोध करता दिखाई दे रहा है। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन समलैंगिकता को यूरोपवासियों की देन बताते हुए उसे अप्राकृतिक एवं अपराध घोषित करते हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनाल्ड ट्रम्प, ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी, हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ऑर्बन आदि को भी समलैंगिक विरोधी माना गया है। मनुष्यता की दृष्टि से देखा जाए तो अब यह सोचना कि यह प्राकृतिक है या अप्राकृतिक, ऐसा द्वन्द्व मस्तिष्क में पालना ही असामानता का प्रतीक है। प्रयास यह होना चाहिए कि इस समाज को भी वही अधिकार प्राप्त हों जो एक सामान्य व्यक्ति को प्राप्त होते हैं। तभी समाज में इनकी स्थिति सामान्य हो पाएगी। लेखिका डॉ. मोनिका देवी इस सामाजिक कु-व्यवस्था परअपने उपन्यास में एक सवाल करती हैं- “हिजड़े से हिजड़े पैदा नहीं होता। यह सभ्य समाज की देन है। हम स्त्री और पुरुष से ही पैदा होते हैं। बस वह हमको अपना नहीं पाते त्याग देते हैं। ऐसा क्यूँ?”3
इसे आज LGBTQIA+ के रूप मेंलिया जाता है। यहाँ इस समुदाय के शब्दों की व्याख्या करना भी अनुचित नहीं होगा। यहाँ‘L’ का अर्थ ‘लेस्बियन’से लिया जाता है, जहाँ एक स्त्री अपने समान लिंग के साथ आकर्षित होती है। ऐसे ही ‘G’ का अर्थ ‘गे’ के रूप में लिया जाता है, जहाँ पुरुष अपने सामान लिंग के साथ आकर्षण महसूस करता है। ‘B’ यानी ‘बाईसेक्शुअल’अर्थात् उभयलिंगी, इस वर्ग में वे स्त्री एवं पुरुष आते हैं जो अपने संबंध दोनों के साथ स्थापित करने में सहज होते हैं। ‘T’ का मतलब ‘ट्रांसजेंडर’ अर्थात् परलैंगिक है, जिन्हें आमजन की भाषा में ‘हिजड़ा’ या ‘किन्नर’ कहकर संबोधित किया जाता है, जिसमें जो व्यक्ति जिस लिंग के साथ जन्म लेता है उसका व्यवहार उससे कहीं भिन्न या उल्टा होता है। ‘Q’ से तात्पर्य ‘क्वीर’ से लिया जाता है, यहाँ वे लोग शामिल किए जाते हैं जो इस निर्णय पर नहीं पहुँच पाते हैं कि वे लड़का या लड़की में से किसके प्रति आकर्षित होते हैं या पसंद करते हैं। ‘I’ का अर्थ ‘इंटरसेक्स’के संदर्भ में लिया जाता है, इनके पैदा होने के समय जननांग का निर्धारण नहीं हो पाता कि यह लड़का है या लड़की। ‘A’ का मतलब ‘असेक्शुअल’ होताहै, जहाँ पुरुष या स्त्री किसी भी लिंग के प्रति आकर्षण या रुचि नहीं रखते हैं।‘+’ यह उन सभी लोगों का प्रतीक माना जाता है जो स्वयं को किसी भी वर्ग में शामिल होने से इनकार करते हैं या स्वयं को उपयुक्त नहीं मानते हैं। इन परिभाषाओं को ही अंतिम मान लेना इस समुदायिक शब्द की संकीर्णता का ही प्रतीक होगा। मानवीय भावनाओं को समझ पाना और उसे एक पंक्ति में परिभाषित कर देना न तो संभव है और न ही पर्याप्त। इस शब्द की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए इसे स्वतंत्र छोड़ देना ही समझदारी होगी।
जैसे-जैसे फिल्मकारों का ध्यान विभिन्न मुद्दों, विषयों, चिंताओं और समस्याओं की तरफ गया वैसे-वैसे फिल्मकारों ने इन सब का समावेश सिनेमा में करने के लिए हर कोना छान मारा। मनोरंजन के लिए या फिर व्यावसायिकता के प्रभाव में भले ही इन फिल्मकारों ने इन मुद्दों से अपने लिए मसाला तैयार किया हो; पर कम या ज्यादा मात्रा में जैसा भी विषय हो सिनेमा से अछूता नहीं रहा। एलजीबीटीक्यू के संदर्भ में सिनेमा के पर्याय को समझा जाए तो 90 के दशक से पहले हिंदी सिनेमा में ऐसी कोई भी फ़िल्म नहीं बनी, जिस पर दावा किया सके कि यह फ़िल्म एलजीबीटी के संदर्भों को केंद्र में रखकर सवाल उठाती है। सामाजिक अस्वीकार्यता के कारण न तो फिल्मकार और न ही अभिनय कलाकार इस तरह की फिल्मों में काम करना चाहते थे। ऐसी कई फ़िल्में हिंदी सिनेमा में 90 के दशक से पहले भी देखी जा सकती है, जिनमें एलजीबीटी के कोई पात्र के रूप में अंशकालीन दृश्य दिखाया गया हो। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि ऐसा फ़िल्म के औचित्य को बढ़ाने के क्रम में दिखाया गया हो। उपहास, हास्य योजना मात्र के लिए ही इन्हें फिल्मों में दिखाना जारी रखा गया। इतना ही नहीं अब भी फिल्मों में एलजीबीटीक्यू को इसी उद्देश्य से अधिक दिखाया जाता है। बहुत कम फ़िल्में ऐसी होंगी जो इसे सही संदर्भ में उठाने का प्रयास करती हैं।
दीपा मेहता द्वारा निर्देशित ‘फायर’ फ़िल्म एलजीबीटीक्यू के संदर्भ को उठाने वाली पहली सार्थक फ़िल्म कही जा सकती है, जिसमें नंदिता दास और शबाना आजमी ने प्रमुख भूमिकाओं के रूप में काम किया है। भारतीय सिनेमा की यह पहली फ़िल्म कही जा सकती है जिसमें समलैंगिक प्रेम को बड़ी तल्खी से उठाया गया है क्योंकि यह वह फ़िल्म थी जिसने एक वर्जित विषय को दर्शकों और अन्य फिल्मकारों के समक्ष रखा। यह फ़िल्म न केवल पारंपरिक ढ़र्रे को तोड़ती है अपितु समलैंगिक अधिकारों को लेकर भी सजग दिखाई देती है। परिणाम यह हुआ कि इस फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान कुछ रूढ़िवादियों ने सिनेमा घरों को काफी नुकसान पहुंचाया और फ़िल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी। इसी तरह 1997 में ‘दरमियां’ और ‘तमन्ना’ नाम से दो फ़िल्में आती हैं। कल्पना लाजमी की ‘दरमियां’ में माँ व उसके बेटे के मध्य उस द्वन्द्व की परतों को खोला गया है, जिसमें एक माँ को पता चलता है कि उसका बेटा ट्रांसजेंडर हैं। वहीं महेश भट्ट की फ़िल्म ‘तमन्ना’ में परेश रावल को एक ट्रांसजेंडर की भूमिका में दिखाया गया है जिसका नाम ‘टीकू’ है। यहाँ द्वंद्व यह है कि उसकी बेटी एक ट्रांसजेंडर को अपना पिता या माँ के रूप में स्वीकार कर पायेगी या नहीं। ऐसे ही एक फ़िल्म ‘दायरा’(1997) अमोल पालेकर के निर्देशन में बनी है। निर्मल पांडे और सोनाली कुलकर्णी की भूमिका में यह फ़िल्म क्रॉस ड्रेसिंग के प्रति समाज के नजरिये को दर्शाती है।
‘माइ ब्रदर निखिल’ फ़िल्म समलैंगिकता व एचआईवी जैसे गंभीर मुद्दों को बड़ी ही परिपक्वता और संवेदनात्मक तरीके से दिखाने का प्रयास करती है। ऑनिर के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में जूही चावला और संजय सुरी मुख्य भूमिका में हैं। इसी तरह 2010 में ऑनिर ने ही एक फ़िल्म बनाई- ‘आई एम’, जिसमें चार कहानियाँ है और समलैंगिक रिश्तों के प्रति दृष्टि बदलने का कार्य करती है। 2015 की ‘मार्गरिटा विद ए स्ट्रा’ फ़िल्म में विकलांगों की यौन इच्छाओं, जरूरतों और समाज का उनके प्रति नकारात्मक नज़रिए को काफी खूबसूरती के साथ दिखाया गया है। 2016 में मनोज वाजपेयी अभिनीत फ़िल्म ‘अलीगढ़’ ने भी काफी सुर्खियां बटोरी हैं। यह फ़िल्म सत्य घटना पर आधारित है, जिसमें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ‘रामचन्द्र सिरस’ की कहानी है जो कि स्वभावतः एक ‘गे’ हैं। एक लड़के के साथ यौन संबंध का वीडियो वायरल होने की घटना, फिर विश्वविद्यालय से बर्खास्तगी एवं रूढ़िवादी संस्कारों से किसी के निजी जीवन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को दर्शाने वाली इस फ़िल्म को हंसल मेहता ने काफी बारीकी से एक दृश्यांकन में पिरोया है।
एलजीबीटीक्यू के संदर्भित विषय के रूप में ‘बॉम्बे टॉकीज’ (2013), ‘कपूर एंड संस’ (2016), ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ (2019), ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ (2020), ‘अजीब दास्तां’ (2021) वेब सीरीज की ‘गीली पुच्ची’, ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ (2021) ‘बधाई दो’ (2022), आदि फिल्मों को भी देखा जा सकता है। ऐसे ही हाल ही में आई फ़िल्म ‘377-अबनॉर्मल’ (2019) एलजीबीटीक्यू के संदर्भ को उठाने वाली एक सशक्त फ़िल्म है लेकिन कई पैमानों में यह फ़िल्म लेस्बियन एवं गेकी आंतरिक संवेदनाओं की व्याख्या करने में असफल साबित हो जाती है। इसी तरह ‘गर्लफ्रेंड’ (2004), ‘इवनिंग शैडो’ (2018), ‘डूनो वाई ना जाने क्यों’ (2015) के भाग दो में भी इस समुदाय के प्रश्नों को उठाया गया है।
करण जौहर और ऑनिर जैसे फ़िल्मकार इस बात को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करते हैं कि वे इसी समुदाय का हिस्सा हैं और इन फिल्मकारों नेअपने साक्षात्कारों में अपने जीवन की समस्याओं पर खुलकर बात भी की। इतना ही नहीं हिंदी सिनेमा जिसे बॉलीवुड या बम्बईया सिनेमा कहा जाता है क्योंकि इसका मुख्य केंद्र मुंबई रहा है; यहाँ अनेक कलाकार अभिनेता फिल्मकार संगीतकार और अन्य जो भी फ़िल्म के निर्माण में किसी न किसी रूप में योगदान देते हैं, ऐसे हैं जो इसी समुदाय से आते हैं। विडंबना यह है कि ऐसे वातावरण के बावजूद भी हिंदी सिनेमा या बॉलीवुड में लैंगिक रूढ़ियाँ जैसे की तैसे बनी हुई है। सिनेमा अपनी कमियों से अवगत होने के बावजूद भी अपनी सीमाओं को लांघता नहीं है। गरिमा मारवाह अपने शोध में हिंदी सिनेमा में हो रहे परिवर्तन को लक्षित करती हुई लिखती हैं- “In
the past, Gay characters were frequently portrayed as caricatures or as targets
of scorn, which helped to reinforce prejudice and promote stereotypes.
Nonetheless, there has been a noticeable change in how LGBTQ characters and
topics are portrayed in Hindi cinema over the past few years, with directors
taking a more considerate and nuanced approach to depiction.”4
बॉलीवुड की कुछ फ़िल्में ऐसी हैं जिनमें इस समुदाय को गलत तरीके एवं उपहास की दृष्टि से दिखाया गया है। ये सभी फ़िल्में मुख्यधारा की ही फ़िल्में हैं। ‘दोस्ताना’ में मुरली के किरदार में ‘बोमन ईरानी’ को गे दिखाया गया है, जिसे फ्लर्टी और फैशन के घटिया सेंस के रूप में दिखाया गया है और समीर-कुणाल के माध्यम से इस समुदाय के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण को ही अधिक पुष्ट किया गया है। ‘पार्टनर’ फ़िल्म में भी किरण मूलचंदानी को गे के रूप में कॉमेडी के लिए ही रखा गया है। ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ का योगेंद्र वशिष्ठ (ऋषि कपूर) भले ही कॉलेज के डीन के रूप में दिखाया गया है लेकिन इसे भी गलत तरीके से पोर्ट्रेट किया गया है। ऐसे ही ‘फैशन’ में विनय खोसला (हर्ष छाया) का यही हाल है। ‘बोल बच्चन’ में अभिषेक बच्चन को भी इसी रूप में रखा गया है। कुछ पुरानी फिल्मों में भी जैसे की ‘मस्त कलन्दर’ में पिंकू (अनुपम खेर) और ‘प्रेम अगन’ के जय मेहरा को भी इसी नज़रिए से दिखाया गया है। डॉ. शेख अफरोज फातेमा बॉलीवुड की इस संकुचित रूढ़िवादिता को इंगित करते हुए लिखती हैं- “समाज के इस उपेक्षित अंग को हिंदी सिनेमा में दिखाया तो जरूर गया है किंतु इनका उल्लेख केवल मनोरंजन, हँसी ठिठोली के रूप में या शादी जन्म के उत्सव पर नाच गाने के लिए इन्हें दिखाया गया या फिर रेलवे में इन्हें मर्दों से पैसे ऐंठते हुए या भीख मांगते दिखाया गया है।”5 हिंदी की कुछ कलात्मक फिल्मों में थर्ड जेंडर के संवेदनात्मक मूल्यों एवं संघर्षों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है; इसी को इंगित करती हुई वे आगे लिखती हैं- “हिंदी सिनेमा ने अपने सरोकारों को निभाते हुए किन्नर विमर्श को फिल्मों के माध्यम से दर्शकों के सामने रखा है, जिससे समाज में रहने वाले व्यक्तियों की सोच में सकारात्मक परिवर्तन हो।”6 केवल किन्नर विमर्श ही नहीं अपितु समस्त एलजीबीटीक्यू समुदाय ही समाज में सकारात्मक परिवर्तन की अपेक्षा रखता है। इस तरह एलजीबीटीक्यू समुदाय के लिए एक स्वस्थ विमर्श की आवश्यकता है जिसकी यथार्थ अभिव्यक्ति साहित्य एवं सिनेमा जैसी कलाओं में हो सकती है।
निष्कर्ष : एलजीबीटीक्यू समुदाय का संघर्ष किसी चेतना या विमर्श का स्वरूप अभी तक नहीं ले पाया है। भारत के अनके क्षेत्रों में इस समाज के लिए संगठन, आंदोलन होते रहे हैं। 2018 में उच्चतम न्यायालय द्वारा भी ऐतिहासिक निर्णय भी लिया गया और साहित्य के माध्यम से भी इस समुदाय को अभिव्यक्ति मिलती रही है; लेकिन इन सबका संयुक्त प्रयास भी किसी परिवर्तन का साक्षी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस समुदाय के प्रति समाज के नजरिये में कोई परिवर्तन लक्षित नहीं हुआ है। आज भी ‘हिजड़ा’ शब्द का प्रयोग उपहास या गाली के रूप में किया जाता है। सिनेमा ने भी अभी तक अधिक महत्वपूर्ण फ़िल्में नहीं दी हैं, जो इस समुदाय में चेतना को प्रसारित कर सके और समाज के नजरिये को बदलने में योग दे सके। सिनेमा तकनीक वैज्ञानिक युग की देन हैं और विज्ञान एवं तकनीकी में अपार सम्भावनाएं निहित है, साथ ही सिनेमा एक लोकप्रिय एवं प्रभावी माध्यम भी है। हिंदी सिनेमा के 110 वर्षीय इतिहास में भी भारतीय समाज का यथार्थ दृश्यांकन नहीं हो पाया है, जो एक चिंता का विषय है। सिनेमा के कोरे मनोरंजन ने समाज के कुछ पहलुओं के साथ काफी अन्याय किया है। अगर एलजीबीटीक्यू समुदाय को लेकर कुछ गंभीर एवं यथार्थवादी फिल्मों का निर्माण सही मायने में फिल्मकारों द्वारा किया जाए, तो आशा की जा सकती है कि इस समुदाय को समाज की मुख्यधारा में स्थान प्राप्त हो जाए। जिस प्रकार कुछ फिल्मों ने सिनेमा में दलित और स्त्री चेतना की आवाज को बुलंद करने में अपना अहम योग दिया है, वैसे ही एलजीबीटीक्यू समुदाय का संघर्षशील सफर भी सिनेमा के माध्यम से तय हो सकता है, और प्रगतिशील एवं सकारात्मक दिशा में सामाजिक सोच के आमूलचूल परिवर्तन का द्योतक हो सकता है।
संदर्भ :
- सं. के. वनजा, क्वीर विमर्श, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ.-128
- वही, भूमिका से।
- मोनिका देवी, अस्तित्व की तलाश में सिमरन, माया प्रकाशन, कानपुर, 2019, पृ.-95
- Garima Marwah,The
Representation Of LGBTQ+ Community InHindi Cinema And Its Impact On
OlderGeneration And Young Adults, IJCRT Journal,Volume
11, Issue 6 June 2023 https://ijcrt.org/papers/IJCRT2306315.pdf
- डॉ. एम. फ़िरोज़ खान, थर्ड जेंडर :
कथा आलोचना, अनुसंधान पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, कानपुर, द्वितीय संस्करण-2021,
पृ.-213
- वही, पृ.-221
इंटरनेट स्थल :
- www.bbc.com
- www.wikipedia.com
- www.tarshi.net
- edition.cnn.com
शोधार्थी, हिंदी विभाग, गुजरात यूनिवर्सिटी, नवरंगपुरा, अहमदाबाद
shekharchoudhary145@gmail.com, 9680582573
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