साहिर लुधियानवी : सिने-गीतों में नारी चेतना
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रेखा शेखावत
शोध सार : भौतिकता की अंधी दौड़ में बढ़ते बाज़ारवाद ने सिनेमा के मूल उद्देश्यों को कई परतों के नीचे दबा दिया है।अपनेआरम्भिक दौर से समाज के नैतिक उत्थान का बीड़ा सिनेमा ने लम्बे अर्से से उठा रखा है,जिनमें सबसे बड़ी भूमिका हिन्दी गीतों ने निभाई है। भारतीय समाज को सिने-गीतों ने बहुत सी समस्याओं से निजात दिलवायी,
जिनमें पुरुष समाज से ताड़ना झेलती हुई स्त्रियों का विमर्श एक बड़ा मुद्दा है। पितृसत्तात्मक समाज का असली चेहरा सिनेमा के जरिये लोगों ने आसानी से देखा,
जहाँ से आधी आबादी के शोषण की कथा-व्यथा शुरू होती है। सिने-गीतकारों में साहिर लुधियानवी ने अपने जीवन से जुड़े कड़वे सच को गीतों के माध्यम से जगजाहिर किया। प्रस्तुत शोध का उद्देश्य साहिर लुधियानवी केगीतों में नारी विमर्श के विविध आयामों को स्पर्श करना ही नहीं है बल्कि उस समय के जनमानस का आँकलनकरना और स्त्रियों के प्रति समाज की सोच को उजागर करना है। अपनी माँ द्वारा भोगे गये यथार्थ को गीतों में प्रकट कर सम्पूर्ण नारी-जाति की पीड़ा से समाज को रू-ब-रू करवाया है। इनके गीतों में स्त्रियों के प्रति सहानुभूति मात्र नहीं है बल्कि उनकी अस्मिता,
अस्तित्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए बगावत है। नारी जागरण का शंखनाद करते हुए इनके फिल्मी गीत नारी सशक्तिकरण की प्रखर अभिव्यक्ति करते नज़र आते हैं।
बीज शब्द
: साहिर लुधियानवी, सिनेमा, स्त्री-विमर्श, फिल्मी गीत, पितृसत्तात्मक समाज, नारी-चेतना, दैहिक-शोषण, वेश्यावृत्ति, चकले, परछाइयाँ।
मूल आलेख
: सदियों से स्त्रियों का जीवन दोहरा अभिशाप झेल रहा है,
जिसे हम आज भी अपने समाज में देख रहे हैं। साहित्य समाज के यथार्थ का प्रतिबिंब होता है। साहित्यकार जन-समुदाय की भावनाओं को ध्यान में रखकर सृजन कर्म करता है। किसी देश की प्रगति वहाँ की स्त्रियों की दशा सेअनुमानित की जा सकती है। वैदिक काल से युग परिवर्तन के साथ मातृसत्तात्मक समाज से पितृसत्तात्मक समाज ने कई मुखौटे लगा लिये हैं, जिनमें से एक रूप पौरुष के नाम पर शक्ति का दुरूपयोग करने वाले शोषक वर्ग का भी रहा है। विश्व साहित्य में नारी का रूप वंदनीय होने के साथ दयनीय भी रहा है। समाज द्वारा किसी न किसी रूप में स्त्री को पुरुष के अधीन रखकर कमतर ही आँका गया है। हमारे समाज में सदियों से लेकर आज तक आधी आबादी अपने अधिकारों के लिए लगातार जूझ रही है।
प्राचीन काल से मनुष्य अपनी संवेदना गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करता आया है। सामाजिक जागरण में सिनेमा के उद्भव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सिनेमा के गीतों ने समाज को मूल्य-सापेक्ष शिक्षा प्रदान की है। सिनेमा ने निरंतर मनुष्य की रुचियों का पोषण और रोपण किया है। हिंदी सिनेमा साहित्य का ही प्रतिरूप है जो हमें अपने इर्द-गिर्द पनप रहे सामाजिक यथार्थ से रू-ब-रू करवाता रहता है।
युग परिवर्तन के साथसाहित्य में विभिन्न विधाओं का प्रादुर्भाव हुआ। विभिन्न विधाओंमें साहित्य सृजन एवं विषय विविधता का दायरा बढ़ने से नई वैचारिकी का आगमन हुआ। इसी प्रकार समाज के प्रत्येक वर्ग समुदाय जो पीड़ित और शोषित हैं,
उन्हें हाशिये से केंद्र में लाने का कार्य विमर्शों ने किया। वैश्विक क्रांति के फलस्वरुप इन विमर्शों की अवधारणा भारत में बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में शुरू हुई। विमर्श एक ऐसा मुद्दा है जो स्त्री अधिकारों की वकालत करता है। स्त्री-विमर्श स्त्रियों पर हो रहे शोषण को समाप्त करने और स्त्रियों को स्वतंत्रता व समानता का दर्जा दिलाने पर पुरजोर बल देता है। साहित्य के साथ-साथ हिंदी सिनेमा ने नारी सशक्तिकरण हेतु विशेष भूमिका अदा की है। सिनेमा के सभी विषयों में स्त्री ने अपना वर्चस्व स्थापित किया है। सिनेमा में नारी की भूमिका जनजागृति हेतु संघर्ष करती हुई नायिका के रूप में नज़र आती है। हिंदी सिनेमा की नायिकाएं समाज में स्त्री की बदलती छवि को स्थापित कर रही हैं। साहित्य एवं सिनेमा ने समाज के सभी पहलुओं को अपनी विधाओं में शामिल किया है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रेखाचित्र, संस्मरण, पटकथा और गीतों के माध्यम से अपनी संवेदनाओं सहित विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों को जनमानस तक सहज रूप में प्रेषित किया है।
सिनेमा के चित्रपट पर नायक-नायिका की भूमिका करने वाले कलाकारों का आचार-व्यवहार,
संवाद-कला और जीवन जीने की कला समाज को सीधा प्रभावित करती है। भूमंडलीकरण के दौर में हमारे समाज एवं राजनीति में भी बदलाव आये हैं, परिणाम स्वरुप भारतीय जनमानस की सोच बदलने लगी है। शुरुआती सिनेमा ने स्त्री की छवि को महज़ आकर्षण की वस्तु बनाकर नायक के इर्द-गिर्द मंडराने के लिए ही सीमित कर रखा था, या फिर कुछ गीतों के जरिये दर्शकों को रोमांचित करने की भूमिका उसे दे दी जाती थी। समय के साथ स्त्री की छवि परंपरागत रूप से धीरे-धीरे पटकथा के अनुरूप एवं बदलते परिवेश के साथ परिवर्तित होती चली गई।
गीत सृजनशील मनुष्य की आत्माभिव्यक्ति का अत्यंत प्रिय एवं सशक्त माध्यम होते हैं। गीतकार गीतों में स्वानुभूतियों का लोकानुभूतिकरण करने का प्रयास करता है। सिने-गीतों की दुनिया में साहिर लुधियानवी के गीतों में संपूर्ण स्त्री विमर्श नगाड़े के समान ध्वनित हो रहा है। नारी शोषण व रुदन का आँखों देखा हाल वे अपने गीतों में उकेरते हैं -
"लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं,
रूह भी होती है उसमें यह कहाँ सोचते हैं,
लोग औरत की हर एक चीख को नगमा समझें
वो कबीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज।"1
साहिर ने अपने गीतों में पितृसत्तात्मक समाज को चेताया और स्त्रियों को शोषण के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने का नारा दिया। पुरुष स्त्री को एक भोग्या वस्तु के रूप में ही देखता है। समाज को स्त्री के स्वाभिमान की रक्षा करते हुए बखूबी उसका सम्मान करना चाहिए।
अब्दुल हयी 'साहिर' का जन्म 8 मार्च 1921 को लुधियाना के जागीरदार घराने में हुआ। यह दिन अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। विश्व की आधी आबादी पर होने वाले अत्याचारों एवं उनकी दबी आवाज़ को बुलंद करने का कार्य साहिर लुधियानवी की क़लम ने किया। साहिर के अय्याश पिता कई शादियाँ कर चुके थे। उनकी एक पत्नी सरदार बेगम से साहिर का जन्म हुआ जो कि पिता के इकलौते पुत्र थे। उनके पिता ने सरदार बेगम पर बहुत जुल्म किये। साहिर अपनी माँ के दुख-सुख में हिस्सेदार थे। उनके गीतों में उनकी माँ के साथ हुए शोषण का पूर्ण प्रभाव नज़र आता है। यही कारण रहा कि साहिर ने शादी भी नहीं की। वे स्त्रियों के प्रति बहुत संवेदनशील रहे। वह पुरुष समाज को नारी जाति के जननी स्वरूप से परिचित करवाना चाहते हैं। वे कहते हैं कि वह उस जननी की बराबरी कभी नहीं कर सकते जिसका पूरा जीवन पुरुष को प्रसन्न करने में बीत गया -
"औरत ने जन्म दिया मर्दों को,
मर्दों ने उसे बाज़ार दिया,
जब जी चाहा मसला-कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया,
औरत संसार की किस्मत है फिर भी तकदीर की हेटी है,
अवतार पैगम्बर जनती है फिर भी शैतान की बेटी है।"2
साहिर की माँ ने पति के जुल्म एवं अय्याशी से तंग आकर पति से तलाक़ लेने का फ़ैसला कर लिया। साहिर ने अपनी माँ के साथ रहने की सहमति दी,
लेकिन अपने इकलौते वारिस को इस तरह अपने से दूर जाते देख साहिर के पिता को उचित नहीं लगा,उन्होंने उन लोगों को बहुत यातनाएँ दी। छोटी उम्र में ही अपनी माँ पर पिता द्वारा किए गए शोषण की औरतों के लिए जो करुणामयी छवि बनी वहीं उनके गीतों में उभर कर आती है। माँ के रहने वाले फैसले से पिता ने उसे मारने की धमकी दी, यह एक बड़ा कारण रहा कि साहिर का जीवन भय के साये में ही बीता। देश विभाजन के दौरान माँ उनसे बिछड़ गई। तब बड़े दुखी मन से साहिर ने यह पंक्तियाँ कही -
"न कोई जादा न मंजिल,
न रोशनी, ने सुराग
भटक रही है खलाओं में जिंदगी मेरी।"3
कुछ समयतलाश के बाद उनकी माँ फिर से मिल जाती है। साहिर ने कम उम्र में ही कविता लिखना पढ़ना शुरू कर दिया था। मौलाना फ़ैज हरियाणवी के मार्ग दर्शन में उन्होंने उर्दू और फारसी भाषा सीखी। साहिर ने अपनी शायरी व गीतों में स्वानुभूत सत्य का दर्शन समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। अपने बचपन की कठिनाइयों को और अपनी माँ के संघर्ष को वे त्रिशूल (1978) फिल्म के गीत में बयां करते हुए अपनी माँ के नेतृत्व के रूप में संपूर्ण समाज की नारी-जाति के शोषण को उकेरते हैं -
ताकि तू देख सके
कितने पाँव मेरी ममता के कलेजे पर पड़े,
कितने खंजर मेरी आँखों,
मेरे कानों में गड़े
मैं तुझे रहम के साये में न पलने दूँगी
जिंदगानी की कड़ी धूप में जलने दूँगी
ताकि तप तप के तू फौलाद बने
माँ की औलाद बने।"4
साहिर का यह गीत अपने संघर्ष भरे जीवन की गाथा गाता है। हमारे समाज में तलाक़शुदा बेसहारा माँ अपनी संतान को जीवन जीने की सीख देती है।साहिर मूल रूप से शायर थे लेकिन जीविकोपार्जन हेतु वे सिनेमा की दुनिया में प्रवेश कर गये। साहिर फिल्मों के लिए कम लिखते थे। जबउन्हें लगता कि इस कहानी में उनके गीत सटीक बैठेंगे तभी वे लिखते थे,
अन्यथा वे मना कर देते थे। अनवर कमाल हुसैनी ने लिखा है "साहिर अदबी शायर भी है और फिल्म गीतकार भी और दोनों जगह उसकी अहमियत मुसल्लम है। जितने अदबी और सार्थक गीत साहिर ने लिखे हैं, आज तक किसी ने नहीं लिखे।"5
साहिर ने गीत अपने उसूलों पर ही लिखे थे। धन कमाने को उन्होंने कभी महत्वपूर्ण नहीं माना। फिल्मी दुनिया में साहिर के लेखन के लिए गणेश अंनतारमन ने लिखा है-" साहिर ने फिल्मों के लिए गीत नहीं लिखे बल्कि गंभीर कविताएँ लिखी जिनको संगीतकारों ने धुन दी।"6 साहिर की सुधारवादी दृष्टि एवं नारी के प्रति उदात्त भावों को जानने के लिए उनकी माँ सरदार बेगम के जीवन को जानना जरूरी है। अपने पिता द्वारा माँ पर किए गए अत्याचारों को संपूर्ण नारी जाति से जोड़कर देखते हुए वे कहते हैं कि -
"मर्दों ने बनाई जो रस्में,
उनको हक का फ़रमान कहा
औरत के जिन्दा जलने को कुर्बानी और बलिदान कहा
असमत के बदले रोटी दी और उसको भी एहसान कहा।"7
साहिर जिस भयाक्रांत एवं दमघोटू वातावरण में जीवन जी रहे थे,
वह भी पुरुष समाज की ही देन था। जहाँ नारी की स्थिति सबसे अधिक दयनीय थी। साहिर सामाजिक कुप्रथाओं और शोषण के व्यभिचारी रूप को अपने गीतों में ढ़ाल कर आम आदमी तक पहुँचा रहे थे -
"इस बस्ती में ज़हर घुले,
हर बोटी रोटी में तुले
इन गलियों की आँख खुले,
जब धरती पर छाई शाम
सो न गया तो देखेगा,
माँ बहनों के लगते दाम
ऐ! मेरे नन्हे गुलफ़ाम"8
समकालीन समाज में वेश्यावृत्ति के कारण नारी की दुर्दशा का चित्रण करते हुए वे अपनी 'चकले' कविता में कह रहे हैं -
"मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी
यशोदा की हमजिन्स,
राधा की बेटी
पैगंबर की उम्मत,
जुलैखा की बेटी।"9
ये स्त्रियों को हमारी संस्कृति से सरोकार करवाते हुए वेश्यावृत्ति जैसे कलंकपूर्ण जीवन से दूर रहने का संदेश देते हैं। 1958 में आई 'साधना' फिल्म में उनके लिखे गीतों ने समाज के ठेकेदारों और सफेदपोशों सहित आम आदमी तक को झकझोर कर रख दिया था -
"जिन सीनों ने इनको दूध दिया,
उन सीनों का व्योपार किया।
जिस कोख में इनका जिस्म ढला,
उस कोख का कारोबार किया....।"10
हमारे समाज में आधी आबादी दोहरे अभिशाप को झेल रही है। अपनी दबी आवाज में विरोध भी करना चाहती है लेकिन अबला होने के साथ गरीबी की बेबसी चुप रहने का कारण बन जाती है। ऋण भार से दबे हुए किसान-मजदूरों की बहू-बेटियों का सेठ-साहूकार कभी ना चुकने वाले ब्याज के बदले दैहिक शोषण करते हैं इस संदर्भ में साहिर कहते हैं -
"बूढ़े दहकानों के घर बनिये की कुर्की आएगी,
और कर्जे की सूद में कोई गोरी बेची जाएगी।"11
नारी शोषण के प्रति समाज का घृणित चेहरा कुछ परिवर्तन के साथ आज भी प्रासंगिक है,
जिसे साहिर ने लगभग एक सदी पहले ही अपने गीतों में लिख दिया था -
"तुलती है कहीं दीनारों में,
बिकती है कहीं बाजारों में
नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में,
ये वो बेइज्ज़त चीज़ है जो बट जाती है इज्ज़तदारों में"12
ऐसा लगता है कि सामाजिक मर्यादाओं के सारे बँधन स्त्रियों के लिये ही गढ़े गये हैं। बंधन रूपी बेड़ियों में जकड़ी रहना वे सहर्ष स्वीकार कर,
अपने जीने के अधिकार को भूलकर आजीवन पुरुष की मोहताज़ बनी रहना पसंद करती हैं। हमारा समाज इसे त्याग और समर्पणकहता है जो एक स्त्री के जन्मजात गुण माने गये हैं। साहिर अपने समय के समाज को नकारा घोषित करते हुए,अपने गीतों में पुरुष के घोर सामंतवादी रूप का दीदार करवा रहे हैं, जहाँ आर्थिक विपन्नता एवं अभावों के कारण चंद पैसों के लिए देह व्यापार को बढ़ावा दिया जाता है -
"निकली है एक बंगले के दर से
एक मुफ़लिस दहकान की बेटी
अफसुर्दा मुरझाई हुई सी,
जिस्म के दुखते जोड़ दबाती
आँचल से सीने को छुपाती
मुट्ठी में एक नोट दबाए।"13
साहिर के गीत अनमेल विवाह और दाम्पत्य जीवन में वैचारिक मतभेद जैसी समस्या से निजात पाने के लिए पति-पत्नी को अपने मुताबिक़ रहने की सिफ़ारिश करते हुए नारी जागरण को अभिव्यक्ति देते नज़र आते हैं। जैसे जयशंकर प्रसाद के नाटक 'ध्रुवस्वामिनी' की नायिका नारी मुक्ति की आकांक्षा रखते हुए क्लीव रामगुप्त से विवाह विच्छेद कर लेती है।
"वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा,
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों।"14
नारी जाति के कल्याण की कामना करते हुए वे हमेशा उसके मुस्कुराने की दुआ करते हैं-
"गरीब माँओं,
शरीफ बहनों को अमन-ओ इज्ज़त की जिन्दगी दे,
जिन्हें अता की है तूने ताकत,
उन्हें हिदायत की रोशनी दे।"15
प्रत्येक युग में पुरुष समाज ने नारी को अपना मोहरा बनाकर उसे अपनी मर्जी से इस्तेमाल किया है। हर रिश्ते में नारी का दमन करना वह अपना अधिकार समझता है। साहिर कहते हैं -
"नारी को इस देश ने,
देवी कहकर दासी जाना है,
जिसको कुछ अधिकार न हो,
उसे घर की रानी माना है,
तुम ऐसा आदर मत लेना,
आड हो जो अपमान की।"16
साहिर को यकीन था कि आने वाली सदी महिला-सशक्तिकरण की होगी,
तब महिलाएँ अन्याय का विरोध कर अपने अधिकारों के प्रति अवश्य सचेत होंगी। गहन अंधकारपूर्ण वातावरण में वे उम्मीद की टकटकी लगाये हुए कह उठते हैं -
"दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा
चाहत को न कुचला जाएगा ग़ैरत को न बेचा जाएगा
अपनी काली करतूत पर जब ये दुनिया शर्माएगी
वो सुबह कभी तो आयेगी।"17
साहिर लुधियानवी की उत्कृष्ट कृति 'परछाइयाँ' में उन्होंने देश की दशा-दुर्दशा के लिए किसी ना किसी रूप में राजनैतिक कारणों को भी जिम्मेदार ठहराया है। व्यवस्था के विरुद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए कहते हैं -
"कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रूख न करे,
अब इस जगह कोई कुँआरी न बेची जाएगी।"18
फिल्मी गीतों का प्रभाव कुछ निराला होता है। जिस भी भाव को लेकर गीत गाये जाएं ,सुनने वाले के हो जाते हैं। साहिर नारी को जीवन जीने और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करते हैं। वे स्त्रियों को सचेत करते हुए कहते हैं कि रास्ते में आने वाले संकटों का मुकाबला करते हुए अपने लक्ष्य को साधकर चलना है। प्रकृति-प्रदत्त कोमल भावों को छोड़कर अपने ऊपर कठोर आवरण की परत चढ़ानी होगी ताकि विपरीत परिस्थितियों में भी हिम्मत साथ न छोड़े -
"इतनी नाजुक ना बनो, इतनी नाजुक ना बनो,
ये ना समझो कि हर इक राह में कलिया होंगी,
राह चलनी है तो काँटों पे भी चलना होगा
ये नया दौर है दौर में जीने के लिए
हुस्न को हुस्न का अंदाज़ बदलना होगा।"19
नारी माँ बनकर अपने खून के कतरों से एक मानव की रचना करती है। वह बालक अपनी जन्मदात्री से नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ना सीखता है। इस धरा पर जन्म लेने वाले सभी महापुरुषों का भी जिस्म वही गढ़ती है -
"तुम माँ हो तुम्हीं से इंसा जिस्म मिला ये जान मिली,
नेकी का चलन इंसा की लगन सच्चाई की पहचान मिली,
तुम हो माँ तुम्हारे कदमों में जन्नत की बहारें पलती हैं,
तालीम के गुलशन खिलते हैं तहज़ीब की शमाएं जलती हैं,
ठुकरा के हर एक खुदगर्जी को इंसानों की खिदमत करनी है।"20
साहिर ने अपने गीतों के माध्यम से नारी को उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा दी है। पुरुष समाज को उसके आदर्श रूप से परिचित करवाया है। नारी जीवन के सूक्ष्म से सूक्ष्म पहलुओं को प्रकट करते हुए,
नारी पर होने वाले अत्याचारों की पैरवी करने के लिए सम्पूर्ण समाज को जागरूक करते हुए औरत के हक़ में आवाज़ उठाते हैं -
"मर्दों के लिए हर ऐश का हक़,
औरत के लिए जीना भी सज़ा।"21
समाज में शैवालों की तरह पनप रही वेश्यावृत्ति का विरोध करते हुए अपनी 'चकले' कविता में कहते हैं -
"ये फूलों के गजरे ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें,
ये गुस्ताख फिकरे
ये ढ़लते बदन और ये मदकूक चेहरे।"22
तत्कालीन समाज ने नारी जाति को धुमकेतू रूपी अभिशापों ने घेर रखा था,
लेकिन समय के साथ दु:ख की बदली छट ही जाती है। बुलंद हौसले वाला साहिर जैसा धावक बारिश में भी उम्मीदों की मशाल कभी बुझने नहीं देता। साहिर ने अपने जीवन में कभी हिम्मत नहीं हारी न ही स्वयं को दुखों के कहर से निराश होने दिया। साहिर फिर कहते हैं -
"इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढकेगा
जब दुख के बादल पिंघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा।"23
साहिर ट्रेजिक हीरो हैं जो अपने भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति ताउम्र करते रहते हैं। साहिर ने इश्क़ और इंकलाब दोनों पर गीत लिखे हैं। प्रेम में नाकाम होने पर ये भी निराश नहीं हुए, बल्कि अपने चरित्र को अधिक विराट बनाने का प्रयास करने लगे। जीवन में असफलताओं केथपेड़े खाने के बाद भी सफल होने की उम्मीद में जीवन के गीत गाते रहे। उनके अभाव और असफलताएं ही उनकी कामयाबी की प्रेरक शक्ति बने। साहिर नयी चेतना एवं नये दौर के साथ उस पुरुष की तर्जुमानी करते हैं जो औरत के साथ बराबरी का रिश्ता रखते हैं -
"तू मुझे छोड़ के,
ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे हाथों में मिरे हाथ हैं,
जंजीर नहीं।"24
नारी संयम और धैर्य धारण करने वाली ईश्वर की अद्भुत-अद्वितीय रचना है। पौराणिक कथाओं के उदाहरण देकर साहिर ने अपने गीतों में कहा है कि नारी के आदर्श रूप को भी हर युग में अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी है -
"सीता के लिये लिखा है यही
हर युग में अग्नि परीक्षा दे
दु:ख सह के भी मुख से कुछ ना कहे
मन को धीरज की शिक्षा दे।" 25
साहिर कहते हैं कि स्त्रियाँ अपना पूरा जीवन अन्याय सहते हुए व्यतीत कर देती हैं,कभी विरोध नहीं करती लेकिन जिस दिन उसके ह्रदय में विद्रोह की चिनगारियाँ जागृत हो जाऐंगी तो सम्पूर्ण शोषक समाज को उसके ताप में झुलसना पडेगा। साहिर लुधियानवी के नारी चेतना से ओत-प्रोत गीत आधी आबादी को जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। वर्तमान समाज में फैली अनेक कुरीतियों को भी धराशायी करते प्रतीत होते हैं। ऐसे 'शब्दों के जादूगर' अपनी कर्म साधना से सदियों तक प्रासंगिक बने रहेंगे।
निष्कर्ष : आज के रोबोटिक युग में मानव की संवेदनाएँ मशीनों से संचालित हो रही हैं। आये दिन महिला-उत्पीड़न के साथ-साथ हत्या एवं बलात्कार जैसी घटनाएँ हर गली-चौराहे पर सुनाई दे रही हैं। भारतीय संस्कृति का गुणगान समग्र विश्व कर रहा है तो अपने सांस्कृतिक-नैतिक मूल्यों एवं अतीत के गौरव को हम कैसे विस्मृत कर सकते हैं? हम अपने आस-पड़ौस में हर दिन स्त्रियों पर जुल्म होता देखकर मौन बने रहते हैं। साहिर मौन नहीं रहे अपनी माँ के अत्याचारों को गीतों में गढ़कर पूरे समाज की माताओं को अन्याय के खिलाफ खड़ा करते हैं। स्त्रियों की संवेदनाओं का पुरुष समाज हिसाब मांगता हैं। साहिर नारी के स्वाभिमान की रक्षा करने के पक्षधर हैं। साहिर ने विभाजन की त्रासदी झेल रही और अपने ही घर में निर्वासन भोग रही आधी आबादी की कथा-व्यथा अपने गीतों में प्रस्तुत की है। अपनी माँ के प्रति अगाध श्रद्धा एवं सम्मान ने साहिर के ह्रदय में स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों के प्रति आक्रोश भर दिया। नारी जीवन के लिए छटपटाहट व टीस इनके गीतों को वैश्विक रूप प्रदान करती है। समाज से तिरस्कृत होकर शोषण तथा संघर्ष की लड़ाई लड़ रही जननी के लिए प्रगतिशील चेतना से ओत-प्रोत गीत लिखकर नारी-जागरण का पथ-प्रशस्त किया। नारी विमर्श को समेटे हुए साहिर लुधियानवी के गीत सिनेमा के माध्यम से आज भी महिला-सशक्तिकरण का शंखनाद कर रहे हैं।
संदर्भ :
1. प्रकाश पंडित, साहिर लुधियानवी,
सरस्वती विहार शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 1981,पृष्ठ संख्या-161
2. साहिर लुधियानवी, गाता जाए बंजारा,
हिंदी बुक सैंटर, दिल्ली, 2002, पृष्ठ संख्या-1
3. प्रकाश पंडित, साहिर लुधियानवी,
हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 1981,पृष्ठ संख्या-18
4. गीतकार साहिर लुधियानवी,
फिल्म-त्रिशूल, 1978
https://www.hindilyrics4u.com/song/tu_mere_saath_rahega_munne.htm
5. साहिर लुधियानवी,जाग उठे ख्वाब कई,
पेंगुइन बुक्स, दिल्ली, 2012, पृष्ठ संख्या-47
6. गणेश अनंतानंत,बॉलीवुड मेलोडी,
पेंगुइन बुक्स, दिल्ली, 2008,पृष्ठ संख्या-113
7. साहिर लुधियानवी,गाता जाए बंजारा,
पृष्ठ संख्या- 41
8. साहिर लुधियानवी, जाग उठे ख्वाब कई,
पृष्ठ संख्या- 25
9. साहिर लुधियानवी,जाग उठे ख्वाब कई,
पृष्ठ संख्या- 25
10. प्रकाश पंडित,साहिर लुधियानवी,
सरस्वती विहार शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 1981,पृष्ठ संख्या-161
11. साहिर लुधियानवी,जाग उठे ख्वाब कई,
पेंगुइन बुक्स, दिल्ली, 2012,पृष्ठ संख्या-65
12. प्रकाश पंडित,साहिर लुधियानवी,सरस्वती विहार शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 1981,पृष्ठ संख्या-161
13. साहिर लुधियानवी,जाग उठे ख्वाब कई,
पृष्ठ संख्या-52
14. प्रकाश पंडित,साहिर लुधियानवी,
हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 1981, पृष्ठ संख्या-126
15. साहिर लुधियानवी,गाता जाए बंजारा,
पृष्ठ संख्या-81
16. वही,
पृष्ठ संख्या-66
17. वही,
पृष्ठ संख्या-43
18. साहिर लुधियानवी- आओ कि कोई ख्वाब बुने,
हिन्दी बुक सैंटर, दिल्ली, 2007, पृष्ठ संख्या-50
19. फिल्म-वासना-1968
https://www.hindigeetmala.net/song/itani_naazuk_naa_bano_haay.htm
20. फिल्म-बाबर-1962
https://www.hindigeetmala.net/song/tum_maa_ho_tum_aisa_na_karo.htm
21. प्रकाश पंडित,साहिर लुधियानवी,
सरस्वती विहार शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण- 1981,पृष्ठ संख्या-161
22. वही,
पृष्ठ संख्या-45
23. वही,
पृष्ठ संख्या-137
24. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह,
चंचल चौहान (संपादक),
नया पथ पत्रिका, 2021, वर्ष-35,
अंक-2,
अप्रैल-जून, पृष्ठ संख्या-132
25. फिल्म-जिओऔर जीने दो,
1982,
https://youtu.be/sfyPdzbAc74?si=OxIl_i_oAWGtBk-Y
रेखा शेखावत
सहायक प्रोफ़ेसर (हिन्दी) राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय सतनाली,महेंद्रगढ़, हरियाणा
dr.rekhabikaner@gmail.com,
870804558
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