शोध आलेख : मूक सिनेमा में भारतीय ज्ञान परम्परा / महेन्द्र प्रजापति

मूक सिनेमा में भारतीय ज्ञान परम्परा
- महेन्द्र प्रजापति

 

शोध सार : भारतीय सिनेमा का इतिहास जितना रोमांचक है उतना ही संजीदा भी है। आज से  मात्र सवा सौ वर्ष पूर्व आम जनता के लिए मनोरंजन का साधन लोकनाट्य या गीत-संगीत थे लेकिन सिनेमा के आरम्भ ने भारतीय जनमानस को  एक ऐसे माध्यम से जोड़ दिया जो तत्कालीन समाज के लिए किसी जादू से कम नहीं था। आज सिनेमा जिस जगह पर खड़ा है वहां से देखने पर एक बेहतर भविष्य दिखायी देता है लेकिन हम पीछे मुड़कर देकते हैं तो मूक फ़िल्में ही इनका आधार है। मूक सिनेमा ने भारतीय कला को नया आयाम दिया। यह पहला ऐसा कला माध्यम है जिसे समाज का प्रत्येक वर्ग आसानी से समझ सकता है। मूक सिनेमा ने अपनी विषय-वस्तु में भारतीय ज्ञान परम्परा का विशेष ध्यान रखा। इस दौर के सिनेमा में पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियों, घटनाओं और पात्रों को आधार बनाकर फिल्मों का निर्माण किया गया। इन फिल्मों को देखकर भारतीय ज्ञान परम्परा के विभिन्न सन्दर्भों को गहराई से समझा जा सकता है।

बीज शब्द सिनेमामूक सिनेमा, दादा साहब फाल्के, मूक भाषासाहित्य, भारतीय ज्ञान परम्परा, संस्कृति।

मूल लेख : सिनेमा हमारी संस्कृति का हिस्सा है। हमारे जन-जीवन को अगर कोई कला व्यापक स्तर पर प्रभावित कर पायी है तो वो भी सिनेमा ही है। सिनेमा के आरंभ से ही व्यावसायिक और अव्यावसायिक फिल्में बनती रही हैं। उन्हीं फिल्मों को दर्शकों और आलोचकों ने याद रखा जिन्होंने हमारी सांस्कृतिक चेतना को गहराई से प्रभावित किया। सिनेमा सिर्फ आनंद नहीं विचार भी है। सवाल यह है कि आप देखने के लिए किस तरह की फिल्में चुनते हैं-“फिल्मों का निर्माण भौतिक उत्पाद ही नहीं है, यह सांस्कृतिक उत्पाद भी है। इसके द्वारा लोगों तक आनंद ही संप्रेषित नहीं होता, विचार भी संप्रेषित होते हैं।सिनेमा समाज को वैचारिक रूप से मजबूती भी प्रदान करता है। सबसे लोकप्रिय कला माध्यम के रूप में हम सिनेमा को देखते हैं। फिल्में समाज और समय का जीवंत दस्तावेज़ होती हैं। चरित्र प्रधान या  किसी घटना पर बनी फिल्मों का निर्माण सामाजिक बदलाव की पूर्ति के उद्देश्य से किया जाता है। हिंदी सिनेमा का आरंभिक इतिहास देखें तो फिल्म के प्रति समाज का सम्मोहन जादुई था। लोग भागते-दौड़ते चित्रों को उत्सुकता से देखते थे। धार्मिक, पौराणिक पात्रों को लेकर बनी यह फिल्में समाज को प्रभावित करती थीं क्योंकि उस दौर में यही एक ऐसा कला माध्यम था जिसे पैसे देकर लोग आसनी से देख पाते थे।

            भारत ही ऐसा देश हैं जिसकी ज्ञान परम्परा ने सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया। भारतीय ज्ञान परम्परा की धारा ने पूरी दुनिया को समृद्ध किया। भारतीय योग, अध्यात्म, दर्शन और चिंतन ज्ञान परंपरा के स्रोत है जिनका उद्देश्य सामाजिक सद्भावना है। साहित्य, कला, संस्कृति और सिनेमा ने अपनी ज्ञान संपदा से हमेशा कुछ कुछ ग्रहण ही किया। भारत में ज्ञान की जो विरासत मिलती है वह अन्य देशों में नहीं है। एक समय था जब भारतीय ज्ञान परम्परा दुनिया के ज्ञान का आधार थी लेकिन मुगलों और अंग्रेजों ने यहाँ की भाषाओँ और संस्कृतियों को नष्ट करने का प्रयास किया जिससे हमारी ज्ञान संपदा का बहुत सारा हिस्सा ख़त्म हो गया। इन्हें पुनर्जीवित करने में बहुत समय लगा। लार्ड मैकाले की व्यवसायी शिक्षा व्यवस्था ने हजारों वर्षों से चली रही हमारी ज्ञान प्रणाली की केवल उपेक्षा की बल्कि उसकी गलत व्याख्या भी की। भारत की कला, संस्कृति, भाषा, संगीत, साहित्य, न्याय, दर्शन, स्थापत्य, मूर्तिकला, योग, धातु विज्ञान, वस्त्र-निर्माण, रसायनशास्त्र, गणित, खगोल, ज्योतिष, चिकित्सा और कृषि जैसी समृद्ध परम्परा को उन्होंने हर तरह से नष्ट करने का प्रयास किया। 

भारत का आरंभिकसिनेमा’ ‘मूक सिनेमाके नाम से जाना जाता है। दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाता है। उनके लिए सिनेमा जूनून से कम नहीं था। अपना सब कुछ गिरवी रखकर उन्होंने फिल्मों का निर्माण किया। उनका कहना था कि- “फिल्म मनोरंजन का उत्तम माध्यम है लेकिन वह ज्ञानवर्धन के लिए भी अत्यंत बेहतरीन माध्यम है।मूक सिनेमा की पटकथाओं का आधार हमारी भारतीय ज्ञान परंपरा को पुष्ट करने वाली पौराणिक और ऐतिहासिक कथाएं हैं। आजादी पूर्व जब भारत स्वाधीनता आंदोलन के लिए संघर्ष कर रहा था तब उसको मानसिक बल देने में इन फिल्मों में अहम भूमिका निभाई। मूक फिल्मों के माध्यम से हम भारतीय ज्ञान परम्परा को पुष्ट करने वाले कुछ बिंदुओं पर विचार कर सकते हैं। भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत को समझने के लिए आरंभिक फिल्मों का अध्ययन आवश्यक है। सत्य, अहिंसा, समानता, समन्वय, समरसता, समर्पण, सद्भावना, सदाचार, प्रेम, करुणा, शौर्य, साहस, ज्ञान-विज्ञान आदि भारतीयता मूल्यों में शामिल है। इस समय लगभग सौ फिल्मों का निर्माण हुआ। दादा साहब फाल्के ने जिन फिल्मों का निर्माण किया उसका कथानक या तो पौराणिक था या ऐतिहासिक राजा हरिश्चंद्र के अलावा उन्होंने मोहिनी भास्मासुर, सत्यवान सावित्री, लंका दहन, श्री कृष्ण जन्म, कलिया मर्दन, बुद्धदेव, बालाजी निम्बारकर, भक्त प्रहलाद, भक्त सुदामा, रूक्मिणी हरण, रुक्मांगदा मोहिनी, द्रौपदी वस्त्रहरण, हनुमान जन्म, नल दमयंती, भक्त दामाजी, परशुराम, मालविकाग्निमित्र, मीराबाई, कबीर कमल, सेतु बंधन जैसी भारतीय ज्ञान परम्परा को विस्तार करने वाली फिल्मों का निर्माण किया। 

दादा साहब ने लगभग दो दशक तक विभिन्न विषयों पर मूक फिल्मों का निर्माण किया। उन्होंने ही मूक सिनेमा के माध्यम से हिंदी सिनेमा की बुनियाद तैयार की। इसके लिए उन्हें कई तरह के संघर्ष करने पड़े। पात्रों का चुनाव, निर्देशन, वस्त्र-सज्जा, लोकेशन आदि का चुनाव् करना बहुत आसान नहीं था क्योंकि वह पहली बार फिल्म बनाने का प्रयास कर रहे थे-“दादा साहब फाल्के ने लगातार 20 वर्षों तक मूक पट का निर्माण किया। कला और व्यवसाय के स्तर पर फिल्म माध्यमों का लगातार और संपूर्ण रूप से सोच कर उससे मूर्त रूप दिया।” 

मूक सिनेमा का समाज से जुड़े होने का एक कारण यह भी था कि, वह साहित्य से जुड़ा रहा। दरअसल सिनेमा जब तक साहित्य से जुड़ा रहेगा उसकी सामाजिक स्वीकृति बनी रहेगी और मूक सिनेमा का आधार पौराणिक साहित्य ही था जिसमें भारतीय ज्ञान परम्परा के कई सूत्र मिलते हैं। इन फिल्मों कहानियों, पात्रों और घटनाओं में भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। पहली मूक फिल्मराजा हरिश्चंदभारतेन्दु के नाटक पर आधारित थी। फाल्के भारतीय साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे वह भारतीय जनमानस का मन भी समझते थे इसलिए उन्होंने अपनी पहली फिल्म की कथा चुनाव समाज में बहुत चर्चित व्यक्तित्व राजा हरिश्चंद के जीवन को बनाया। साहित्य और सिनेमा के बीच खड़े होकर दादा साहब ने भारतीय जनता को अपनी सांस्कृतिक चेतना से जोड़ने का कार्य किया-“साहित्य बेशक सिनेमा से अपने संबंध जोड़ने में हिचकिचाता हो लेकिन सिनेमा की जमीन साहित्य ही तैयार करता है। साहित्य और सिनेमा एक दूसरे के पूरक है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा रचित नाटक हरिश्चंद्र  से प्रेरित फिल्म राजा हरिश्चंद्र का निर्माण हुआ। दादा साहब फाल्के ने इस फिल्म का निर्माण किया।

मूक सिनेमा का इतिहास उठाकर देखें तो आरंभिक समय में लगभग 1300 फिल्मों का निर्माण हुआ लेकिन तकनीकी साधन होने के कारण इनका संरक्षण नहीं किया जा सकता इसलिए इनमें से अधिकतर फिल्मों हमारे पासा उपलब्ध नहीं है। इन फिल्मों में हमारे समाज और साहित्य के नायकों के जीवन के माध्यम से अपनी संस्कृति और ज्ञान परम्परा का परिचय देने का प्रयास किया गया- “एक अनुमान के अनुसार 1913-34, के समय में करीब 1300 मूक फिल्में बनी। लेकिन  पुणे के राष्ट्रीय अभिलेखागार के पास मुश्किल से दर्जन भर प्रमाणिक मूक फिल्मे है।राजा हरिश्चंद्रजब 1913 में पहली बार दिखाई गई थी तो उसमे अंग्रेजी केसब टाईटल्सथे।

आज सिनेमा जिस जगह पर खड़ा है वहां से देखने पर एक बेहतर भविष्य दिखायी देता है लेकिन हम पीछे मुड़कर देकते हैं तो मूक फ़िल्में ही इना आधार है। मूक सिनेमा ने भारतीय कला को नया आयाम दिया। यह पहला ऐसा कला माध्यम है जिसे समाज का प्रत्येक वर्ग से समझ सकता है-“निश्चित रूप से आज सिनेमा एक ऐसी कला के रूप में स्थापित हो चुका है, जिसका क्षरण कभी नही हो सकता इसका पूरा श्रेय मूक फिल्मों को ही जाता है। अभिनेता के कंधे पर सवार होकर मूक फिल्मों ने जो सफर तय किया वह चाहे जितना भी कठिन और निर्मम रहा हो पर सिनेमा का इतिहास सदैव उसका आभारी रहेगा।“ 

दादा साहब फाल्के को अपनी भारतीय संस्कृति और धर्म ग्रंथों से अथाह प्रेम था। वह चाहते थे कि हमारी संस्कृति और सभ्यता को संबल देने वाले पौराणिक पात्र सिनेमा के माध्यम से आम जनता तक पहुंचें इसलिए उन्होंने अपनी फिल्मो का कथानक धार्मिक ग्रंथों से लिया-“भारतीय सिनेमा के जनक ढूंढीराज गोविंद फाल्के ने 1913 में जब देश की पहली फिल्मराजा हरिश्चंद्रबनाई तो यह प्रश्न उठा कि आखिर उन्होंने अपनी प्रथम फिल्म के लिए यही कथानक क्यों चुना? दर्शकों को सिनेमा के नए माध्यम की ओर आकर्षित करने के लिए वेअरेबियन नाइट्स’-‘अलीबाबा चालीस चोरजैसे कथानकों पर भी फिल्म बना सकते थे, जिनकी कहानियां उन दिनों काफी प्रचलित थीं। लेकिन फाल्के ने अपनी मूक फिल्म के कथानक के लिए पौराणिक-ऐतिहासिक विषय को चुनकर अपना दृष्टिकोण ही नहीं, दूरदर्शिता भी स्पष्ट कर दी।” 

इसमें कोई दो मत नहीं है भारतीय ज्ञान परम्परा को पुष्ट करने वाले धार्मिक ग्रंथों और पात्रों को दादा साहब ने आम जनमानस में प्रसारित किया। यह वह दौर था जब नाटक के रूप में इन कथाओं का मंचन किया जाता था जो सीमित लोगों तक ही पहुँच पाता था लेकिन फाल्के ने इन पात्रों को पूरी दुनिया में पहुंचा दिया। इससे केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर हमारे धर्म ग्रंथों की कहानियां और प्रमुख पात्र स्थापित हुए-“फाल्के जानते थे कि भारतीय सिनेमा को अगर जनमानस तक पहुंचाना है तो दर्शकों को वही भारतीय संस्कृति दिखानी होगी, जिसका पाठ हर भारतीय को एक घुट्टी के रूप में बचपन से पिलाया जाता रहा है। हम सभी बचपन से अपनी धार्मिक-पौराणिक कथाएं या देश के वीरों की गाथाएं सुनकर-पढ़कर बड़े हुए हैं। यही कारण था कि देश की पहली मूक फिल्म तोराजा हरिश्चंद्रथी ही। उसके बाद भी बरसों तक धार्मिक-पौराणिक और साहसिक-ऐतिहासिक कथानक ही फिल्मकारों के प्रिय विषय बने रहे। बाद में धीरे-धीरे सामाजिक विषयों और देशभक्ति के कथानक पर भी खूब फिल्में बनीं और साहित्यिक कृतियों पर भी। लेकिन ऐसी अधिकांश फिल्मों की विशेषता यह थी कि ये भारतीयता के रंग में रंगी होती थीं।

मूक सिनेमा में जितनी फिल्मों का निर्माण हुआ, उन फिल्मों में अधिकतर फिल्मों की पटकथाएँ आम जनता में व्याप्त धार्मिक कथाएँ थी. फिल्म प्रदर्शन के बाद इन फिल्मों को जनता ने केवल प्यार दिया बल्कि अपने जीवन में उसे आत्मसात भी किया. बाद जब जब प्रिंट मीडिया का उभार हुआ तब इन फिल्मों पर विस्तार से लिखा गया-“टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित समीक्षा में लिखा गया, ‘पुंडलिक में हिन्दू दर्शकों को आकर्षित करने की क्षमता है. यह महान धार्मिक कथा है, इसके समान और कोई धार्मिक नाटक नहीं है. पुणे के दादा साहब तोरणे (रामचन्द्र गोपाल तोरणे) में दादा साहब फाल्के साहब जैसी सिनेमाई दीवानगी थी. तोरणे की फिल्म को भारत की पहली फीचर फिल्म का गौरव नहीं मिला, पुंडलिक के रिलीज के वक्त तोरणे ने एक विज्ञापन भी जारी किया, जिसमें एक भारतीय की ओर से पहला प्रयास कहा गया. पुंडलिक को तक़रीबन दो हफ्ते के प्रदर्शन बाद वित्तीय घाटे के कारण हटा दिया गया.”   

पहली फिल्म राजा हरिश्चंद के निर्माण में दादा साहब फाल्के को अपना सब कुछ दाव पर लगाना पड़ा. उनका सब कुछ फिल्म के लिए बिक गया लेकिन वह जानते थे कि उनकी फिल्म समाज में सत्य, अहिंसा और साधना का सन्देश के उद्देश्य से बनायी गई है जिसे लोग आवश्यक पसंद करेंगे. फिल्म प्रदर्शन के फाल्के को अपार सफलता मिली ही और धन भी काफी एकत्र हुआ. वह अपनी फिल्म को सम्पूर्ण स्वदेशी कहा-“राजा हरिश्चंद के निर्माणकर्ता दादा साहब फाल्के ने अपनी फिल्म को सम्पूर्ण स्वदेशी कह कर संबोधित किया. स्वदेशी आवरण से पुंडलिक की दावेदारी को क्षति हुई, तत्कालीन भारतीय परिदृश्य में स्वदेशी का उपयोग देशभक्ति सन्दर्भ में अभिभूत था। 150 वर्षों से परतंत्रता झेल रहे भारतीयों के स्वदेशी फिल्म परतंत्रता से मुक्तिगान थी.”

मूक फिल्मों में तत्कालीन कलाओं और संस्कृतियों का भरपूर प्रयोग हुआ है. इन फिल्मों में आम जनता को प्रभावित तो किया ही समाज को राष्ट्रीय भावना से भी जोड़ने का कार्य किया. उस समय शिक्षा का अभाव था, साथ ही नाटक के अलावा और मनोरंजन का कोई अन्य माध्यम नहीं था। अचानक से चलचित्रों के आगमन ने भारतीय जनता को ऐसा माध्यम दे दिया जो किसी जादू से कम नहीं था। भारतीय समाज जिन्हें किताबों और कहानियों में पढ़ता था उन्हें परदे पर दौड़ता और मूक भाषा में संवाद करता देख चकित तो था कि खुश भी बहुत था. अपने धार्मिक और ऐतिहासिक नायकों को ऐसे जादूई माध्यम में देखकर लोगों के बीच धार्मिक और राष्ट्रीय भावना का विस्तार हुआ साथ ही हमारी ज्ञान परम्परा की तमाम कहानियाँ समाज में फैलने लगी और जो उनसे गहराई से परिचय हुआ-“मूक फिल्मों का समय भारतीय जीवन को कई तरह से आन्दोलित करने का समय था। पहले धार्मिक पौराणिक पात्रों को लेकर फिल्मों का निर्माण हुआ। यह जनता को फिल्मों के जादू से जोड़ने का एक नायाब तरीका था क्योंकि उस समय फिल्मों को ओछा माध्यम माना जाता था। ऐसा माना जाता था कि सिनेमा सभ्य समाज का हिस्सा नहीं है। धार्मिक फिल्मों के माध्यम से भारतीय जनमानस में अपनी पैठ बनाने के बाद मूक सिनेमा में ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं पर भी फिल्मों का निर्माण हुआ। पौराणिक फिल्मों ने भारतीय जीवन की मानसिक चेतना को जहां एक संबल दिया, वहीं ऐतिहासिक पात्रों पर बनी फिल्मों ने लोगों को राष्ट्रीयता से जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया.” 

मूक सिनेमा ने भारतीय समाज के लिए मनोरंजन का ऐसा माध्यम सामने लाकर खड़ा दिया जिसने आम जनता को वर्षों अपने जादू में बांधे रखा. नया माध्यम होने के कारण जनता का प्यार तो मिला ही आर्थिक पक्ष से मूक सिनेमा को काफी फायदा हुआ. फ़िल्मकार वनकुद्रे शांताराम लिखते हैं-"एकदम नयी चीज होने के कारण ही दर्शक बोलती फिल्में देखने को उत्सुक हैं, नयापन समाप्त होते ही लोगों को बोलती फिल्मों के प्रति आकर्षण कम होता जाएगा। मूक फिल्मों ने अपनी कलात्मकता द्वारा सिनेमा की दुनिया में एक निश्चित स्थान बना लिया है और वह ऐसा ही बना रहेगा। इसमें मुझे कतई शंका नहीं है।"  

पाश्चात्य सिनेमा के महत्वपूर्ण फिल्म आलोचक डेविड वार्क ग्रिफिथ मूक सिनेमा के बारे में लिखते हैं- "मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि इस शताब्दी के अंत तक तथाकथित बोलती फिल्मों के बारे में किए जा रहे सोच-विचार को लोग तिलांजलि दे देंगे। आवाज के साथ चित्रों का तालमेल बिठा पाना कभी संभव नहीं हो पाएगा। क्योंकि फिल्म अपने स्वभाव से ही बोले गए शब्द की उपयोगिता और जरूरत को नकारती है... हम अब भी नहीं और कभी भी नहीं मनुष्य की आवाज़ को अपनी फिल्मों के साथ जोड़ना चाहेंगे। ...मेरे विचार से पर्दे पर चलते-फिरते बिंबों को मूक रहना चाहिए।. .. बोलती फिल्में कभी नहीं बनेंगी।. .. मैं इस मुद्दे को ज्यादा जोर देकर दोहराना चाहता हूँ।"

ऐसे समय में जब सिनेमा को समाज में अच्छी कला के रूप में नहीं देखा जाता था।यहाँ तक कि स्त्री कलाकार काम करने के लिए तैयार नहीं होती थी, ऐसे में दादा साहब ने तमाम तरह के रिस्क लेकर फिल्मों का निर्माण किया। महिलाओं की भूमिकाएँ पुरुषों ने निभाई। फाल्के का एक मात्र उद्देश्य था भारतीय ज्ञान संपदा को मजबूत करने वाले ग्रंथों पर फिल्म बना कर पूरी दुनिया में उसका प्रसार करना-“मूक फिल्मों का समय भारतीय जीवन को कई तरह से आंदोलित करने का समय था। पहले धार्मिक पौराणिक पात्रों को लेकर फिल्मों का निर्माण हुआ। यह जनता को फिल्मों के जादू से जोड़ने का एक नायाब तरीका था। क्योंकि उस समय फिल्म को ओछा माध्यम माना जाता था। ऐसा माना जाता था कि सिनेमा सभ्य समाज का हिस्सा नहीं है। धार्मिक फिल्मों के माध्यम से भारतीय जनमानस में अपनी पैठ बनाने के बाद मूक सिनेमा में ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं पर भी फिल्मों का निर्माण हुआ। पौराणिक फिल्मों ने भारतीय जीवन की मानसिक चेतना को जहाँ एक संबल दिया, वहीं ऐतिहासिक पात्र पर बनी फिल्मों ने लोगों को राष्ट्रीयता से जोड़े रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।

जिस दौर में दादा साहब फाल्के ने फिल्मों का निर्माण आरंम्भ किया उस समय भारतीय कलाओं में विदेशी विचारधाओं का गहराई से प्रभाव पद चुका थे लेकिन दादा साहब ने अपनी फिल्मों में भारतीय बोध को बचाए रखा। उनकी कहानियों में भारत की सांस्कृतिक विरासत देखने को मिलती है। दादा साहेब फाल्के के भारतीय सिनेमा में किए गए योगदान के लिए जोनाथन क्रो का कथन महत्वपूर्ण है-"भारतीय गाथा से अनुग्रहित फिल्म पुण्यकालीन राजा की चिंता है जो अपने कर्तव्य के बोध और सत्य के प्रेम के लिए अपने राज्य का लगभग त्याग कर देते हैं। निर्देशक के प्रगतिशील विचारों की इच्छाओं के बावजूद फिल्म में एक पुरुष कलाकार था। राजा हरिश्चंद्र में पूरी तरह से गैर पेशेवर कलाकारों के चालक दल को चित्रित किया।"

            समग्रता में देखें तो प्रारंभिक फिल्मों का आधार भारतीय ज्ञान और ज्ञान संपदा थी। इन फिल्मों के शीर्षक ही स्पष्ट करते हैं कि भारतीय समाज में प्रचलित हमारे वह पौराणिक, ऐतिहासिक नायक ही इन फिल्मों का आधार हैं। इन नायकों और कथाओं के माध्यम से भारतीय ज्ञान परम्परा को प्रदर्शित करने वाले दर्शन, संस्कृति, योग, अध्यात्म, चिंतन आदि के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। वास्तव में अधिकतर मूक सिनेमा हमारी भारतीय ज्ञान प्रणाली से प्रेरित है। आम जनता जो वैदिक और लौकिक साहित्य में लिखें वेदों, उपनिषदों, पुराणों आदि का अध्ययन नहीं कर सकती है, वह इन फिल्मों के माध्यम से अपनी ज्ञान परम्परा को समृद्ध करने वाले कथाओं, पात्रों, घटनाओं को समझ सकती है। विदेशी भी भारतीय ज्ञान परम्परा को समझने के लिए इन फिल्मों का अध्ययन करने करते हैं क्योंकि इसमें भारतीय समाज के पौराणिक और ऐतिहासिक पात्रों, कथाओं और घटनाओं का वृहद् वर्णन मिलता है। प्रारम्भिक कुछ फिल्मों में अंग्रेजी टाइटल भी मिलते हैं जिससे उन्हें समझने में आसानी भी होती है। यह प्रयोग इसलिए किया जाता था क्योंकि इन फिल्मों का प्रदर्शन विदेशों में भी होता था।   

संदर्भ :

  1. पारख, जवरीमल्ल, जनसंचार माध्यमों का वैचारिक परिप्रेक्ष्य, ग्रंथशिल्पी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-48
  2. सिनेमा: कल, आज, कल, विनोद भारद्वाज, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 25      
  3. भारतीय सिनेमा की विकास यात्रा भाग-1,(सं) मधुरानि शुक्ला, कनिष्क पब्लिशिंग हाउस, पृष्ठ-165   
  4. समाज, संस्कृति और सिनेमा (सं), प्रो। सत्येकेतु सांकृत, हंस प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ-5
  5. सिनेमा: कल, आज, कल, विनोद भारद्वाज, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 189
  6. हिन्दी सिनेमा और उसका अध्ययन, प्रो। रमा हंस प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-74
  7. पांच्यजन्य, संस्कृति ने बढ़ाया सिनेमा का संसार, प्रदीप सरदाना, 15 नवम्बर 2022
  8. पांच्यजन्य, संस्कृति ने बढ़ाया सिनेमा का संसार, प्रदीप सरदाना, 15 नवम्बर 2022
  9. भारत में हिंदी सिनेमा, डॉ. दीनानाथ साहनी, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी पटना, 2016, पृष्ठ-15,  
  10. भारत में हिंदी सिनेमा, डॉ. दीनानाथ साहनी, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी पटना, 2016, पृष्ठ-15,  
  11. हिंदी सिनेमा में साहित्यिक विमर्श, डॉ. रमा, हंस प्रकाशन दिल्ली, पृष्ठ-3-4  
  12. हिंदी सिनेमा का इतिहास, मनमोहन चढ्ढा, सचिन प्रकाशन दिल्लो, 1990, पृष्ठ-161
  13. हिंदी सिनेमा का इतिहास, मनमोहन चढ्ढा, सचिन प्रकाशन, दिल्ली, 1990, पृष्ठ-162
  14. हिंदी सिनेमा में साहित्यिक विमर्श, प्रो। रमा, हंस प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-4 
  15. हिंदी समय ऑनलाइन पत्रिका, हिंदी साहित्य और सिनेमा, इकबाल रिजवी,



महेन्द्र प्रजापति
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, साहित्य अध्ययन पीठ, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली
mahendraprajapati39@gmailcom, 9871907081
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

Post a Comment

और नया पुराने