किसी भी साहित्यिक विद्या का नव्य विधा में परिवर्तित किया जाना या रूपांतरण किया जाना, उस कृति के पुनर्सर्जन की प्रक्रिया है। चूंकि सिनेमा या फिल्मांकन कला और तकनीक के संयोजन में निर्मित एक अभिनव कौशल है। इस रूपांतरण की प्रक्रिया में निर्देशक को सिने भाषा के सभी तत्वों को बड़ी ही गूढ़ता से सन्निवेशन करना होता है, सजावट में थोड़ी-सी असजगता पूरी योजना को ध्वस्त कर देती है, जिससे विधा के संप्रेषण में बाधा उत्पन्न होती है, वह दर्शक दीर्घा के आकर्षण का माध्यम बनता है। कोई भी निर्देशक अपने निर्देशन में पटकथा, संवाद, पात्र, अभिनय, दृश्य, गीत-संगीत, ध्वनि के प्रत्येक सोपानों से गुजरता है, साथ ही किसी भी कृति को अपने समय,समाज,अनुकूलित वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार उसे रूपांतरित करता है, जो उसे मौलिक कृति से भिन्न और नव्य बना देता है। अरस्तू जैसे विद्वान भी इस मत का समर्थन करते हैं। साहित्य जब सिनेमा में रुपांतरित होता है तो उसकी उत्तमत्ता और भी बढ़ जाती है। साहित्य की पहुंच पाठकों तक ही महदूद होती है लेकिन जैसे ही वह सिनेमा मेंपरिवर्तित होता है,एक मरतबे में लाखों-करोड़ों लोगों तक आहूत हो जाता है। साहित्य का सिनेमाई रूपांतरण रचना को मशहूर और चर्चा का विषय बना देता है। सिनेमा की पृष्ठभूमि साहित्य से ही निर्मित होती है। साहित्यकार साहित्य का सृजन करते समय जीवन जगत में घटित घटनाओं से प्रभावित होता हुआ, साहित्य रचता है। साहित्य में एक ही व्यक्ति साहित्य रचता है जबकि सिनेमा बहुसृजित होता है, अर्थात कई लोग रचते हैं, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक,कैमरामैन, संपादक,अभिनय/ अभिनेता,गीतकार और संगीतकार सभी उसमें नुतनत्व लाने हेतु अनुदान देते हैं। वह रचना किसी एक कथाकार की न होकर समूह कर्म के द्वारा संपादित होती है।
बिमल रॉय, सत्यजीत रे, ऋषिकेश मुखर्जी,ऋत्विक घटक,राजकपूर, श्याम बेनेगल, आदि सिनेमाकारों ने सिनेमा को एक केवल तिजारत ही नहीं बल्कि सफल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम माना है। यदि ध्यान दें तो कई साहित्यिक कृतियों पर बेहतरीन फिल्मों का निर्माण हुआ। सत्यजीत रे ने प्रेमचंद की कहानियों का सिने रुपांतरण किया जैसे कि सद्गति,शतरंज का खिलाडी आदि। बिमल रॉय ने शरतचंद्र के कई बांग्ला विधाओं का सिने रूपांतरण किया। साथ ही चित्रलेखा,तीसरी कसम,गुनाहों का देवता,आपका बंटी, ओंकारा, सारा आकाश,यही सच है, काली आंधी, पिंजर आदि कृतियों का भी सिने रूपांतरण किया गया है
साहित्यकार जब भी किसी रचना का सृजन करता है तो उससे उसका एक भावनात्मक लगाव होता है। जब उस रचना का सिनेमा में रूपांतरण होता है, तो उसकी कथाभूमि घटनाक्रम, प्रसंग, युगीन प्रभाव सब में बदलाव आता है। दोनों में अंतर होता है। साहित्य अलग-अलग पाठकों के अंतर्मन पर अलग -अलग बिम्ब रचता है। निर्देशक, निर्देशन, और पटकथा लेखक आदि कहीं न कहीं उसे अलग बिम्ब, प्रतिबिम्ब के साथ दूसरे रूप में प्रस्तुत करते हैं।
साहित्य रचनाकार के मनोभूमि की वस्तु होती है,उसमे पाठक की कल्पनाओं का फलक विस्तृत होता है,वही सिनेमा निर्देशक, निर्माता, कैमरामैन, संपादक,अभिनेता और संगीतकार की कल्पना पर निर्भर करता है,जो दर्शक के मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ जाता है,उदाहरण के तौर पर यदि दृष्टिपात करते हैं तो साहित्य में कृष्ण और राम के चरित्र और लीलाओं पर भिन्न- भिन्न महाकाव्य और गाथाएं लिखी गई है, लेकिन सिनेमा के नीतीश भारद्वाज और अरुण गोविल कृष्ण और राम के चरित में अमर हो गए।
भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में, साहित्य से सिनेमाई रूपांतरण की सूची को देखें तो बंगाली उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय कृत, ‘बिराज बहू’,‘देवदास’, ‘परिणीता’ आदि इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। फिल्मकार बिमल रॉय ने कई साहित्यिक कृतियों का फिल्मांकन किया है। जिसमें शरतचंद्र के उपन्यासों में ‘परिणीता’, ‘देवदास’, ‘बिराज बहू’आदि हैं, इसके अलावा कई इतर साहित्यिक कृतियों का फिल्मांकन भी किया है, जैसे कि ‘सुजाता’, सुबोध घोष की लघु बांग्ला कथा पर आधारित है। अनुमानत: ‘दो बीघा जमीन’ ओड़िया साहित्यकार फकीर मोहन सेनापति की कृति ‘छ: बीघा जमीन’ से मिलती जुलती है। इसके अलावा ‘परख ‘(1960), ‘मधुमति’ (1958), ‘यहूदी’ (1958), ‘बंदिनी’, 'काबुलीवाला’, ‘उसने कहा था' (1964) आदि महत्वपूर्ण फ़िल्में हैं।बिमल रॉय एक महान फिल्म निर्देशक है।वे बेहद संवेदनशील, और मौलिक फिल्मकार है। "बिमल राय ने अपना कैरियर न्यू थियेटर स्टुडियो कोलकाता में, कैमरामन के रूप में शुरू किया। वे सन् 1935 में आई के एल सहगल की फिल्म ‘देवदास'के सहायक निर्देशक थे।"1 बिमल रॉय ने अपनी फिल्मों में सामाजिक समस्याओं को तो उठाया ही,साथ ही उसके समाधान को भी प्रदर्शित किया है। ‘बंदिनी’, ‘सुजाता’, ‘काबुलीवाला’, ‘परिणीता’,और ‘बिराज बहू’ में देशभवित स्त्रियों का सम्मान और उनकी पीड़ा, दुख को देशकाल और वातावरण की परिस्थितियों के अनुरूप चित्रांकित करते हैं। बिमल रॉय सत्यजीत रे को प्रेरित करने वाले फिल्म निर्माता है। फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल ने बिमल रॉय के संदर्भ में कहा है कि "जिस फिल्म ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, यह थी दो बीघा जमीन। मैं तब स्कूल में पढ़ता था। यह फिल्म पहले देखी गई किसी भी फिल्म से अलग थी। तब तक किसी भी फिल्म ने मुझे उसके निर्माता के बारे में नहीं बताया था। 'दो बीघा जमीन’ वह फिल्म थी, जिसने मुझे उसका नाम खोजने पर मजबूर किया।"2
सिनेमा के प्रति उनका दृष्टिकोण सुधारवादी और मानवीय है,मानवीयता उनके सिनेमा का मुख्य आधार है। ‘सुजाता’ फिल्म की ही बात करते हैं तो सुजाता एक निम्न जाति की स्त्री की कथा है अस्पृश्यता, सामाजिक उत्पीड़न, असमानता, और प्रेम का अद्भुत संयोजन अपने देशकाल वातावरण के अनुकूल करते हैं। बिमल रॉय फिल्मों के विषय बंगाली समाज, बांग्ला संस्कृति से उठाते हैं। वह अपनी फिल्मों में बंगाल के हुगली, उत्तर 24 परगना, कलकत्ता आदि क्षेत्रों का चयन करते हैं। इनसे प्रभावित सत्यजीत रे के विषय बांग्ला क्षेत्रों पर ही निर्भर करते हैं लेकिन कहीं न कहीं भारतवर्ष की मूलभूत समस्याओं को चित्रांकित करती हुई दृष्टगत होती हैं। गुरुदत्त की फिल्मों की बात करें तो ‘प्यासा’ या ‘साहब बीबी और गुलाम’ को ही लें तो ये फिल्में बॉम्बे की तुलना में बंगाली जीवन जगत का प्रतिनिधित्व अधिक करती हुई दिखती हैं। यदि ध्यानदें तो हिन्दी सिनेमा में नायक केन्द्रित कथानकों पर ही जोर रहा है, लेकिन बिमल रॉय ने इस अवधारणा को तोड़ने का कार्य किया है। इसी संदर्भ में मुक्तिबोध की एक पंक्ति अनायास ही याद आ जाती है -
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब । "3
यह गढ़ और मठ समाज में व्याप्त पुरानी अवधारणाएं एवं परिपाटियाँ हैं। बिमल रॉय ने नायक संबंधित अवधारणा को तोड़ते हुए नायिकायें केन्द्रित सफल फिल्में बनाईं। ऐसी फिल्मों में ‘मधुमती’, ‘नंदिनी’, ‘सुजाता’, ‘परिणीता’, ‘बिराज बहू’ शामिल है । यदि प्रगतिशील साहित्य के पुरोधा प्रेमचंद हैं,तो प्रगतिशील सिनेमा के पुरोधा फिल्मकार बिमल रॉय हैं। बिमल रॉय के संदर्भ में बलराज साहनी का कहना था कि “बिमल दा अपने फिल्मी परिवार को घर जैसा ही प्रेम देते थे, यह भी बिमल दा के चरित्र की एक बड़ी विशेषता थी इस परिवार के कुछ प्रसिद्ध व्यक्ति हैं- हृषिकेश मुखर्जी, कमल वसु, सुभेन्दु रॉय, सलिल चौधरी, मणि भट्टाचार्य, अमित सेन आदि।" 4
शरतचंद्र और बिराज बहू
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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय सुप्रसिद्ध उपन्यासकार एवं लघु कथाकार हैं। वे बांग्ला के सबसे लोकप्रिय उपन्यासकार हैं। शरत का लेखन जितना उनके जीवन काल में लोकप्रिय था,उतना आज भी पाठकों का प्रेम उसे यथावत प्राप्त है। शरत बाबू यथार्थवादी दृष्टि से साहित्य रचते है । एक तरफ उनके लेखन में रूढ़िवादी समाज की ना समझी व क्रूरता का चित्रण मिलता है, वहीँ दूसरी तरफ उनकी स्त्री पात्र अपमानित,पीड़ित, शोषित व लांक्षित प्रतीत होती हैं। स्त्री के प्रति गहरी संवेदना उनकी रचना को सबसे अलग और महत्वपूर्ण बनाती है। स्त्री-पुरुष के संबंधों का सशक्त वर्णन शरतचंद्र ने जैसा किया है,वह अन्यत्र मिल पाना दुर्लभ है। शरतचंद्र के साहित्य का मूल क्षेत्र बांग्ला समाज ही रहा है, लेकिन उनके साहित्य में भारतीयता अपने कई रंगों से प्रकट होती है। उस समय नायक प्रधान जो भी साहित्य रचा जा रहा था, उस रूढ़िप्रधान अवधारणा को खंडित करके नायिका प्रधान साहित्य रचते हैं,जो उन्हें प्रगतिशील साहित्यकारों की श्रेणी में रखती है। ‘परिणीता’, ‘श्रीकांत’, ‘बिराज-बहू’, ‘मझली दीदी’, ‘अरक्षणीया’, ‘देवदास’ आदि उपन्यास भारतीय विशेषतया हिन्दू समाज में नारी कितनी निरीह, दयनीय और विनम्रता का जीवन जीती रही है,इसके कई चित्र प्रस्तुत करते हैं ।
'बिराज -बहू ’ एक पतिव्रता स्त्री के दुख भोगने की कथा पर आधारित है। यह एक बहुचर्चित उपन्यास है। 'बिराज -बहू 'कृति की नायिका बिराज गरीबी की तमाम यातनाएं भोगते हुए अपने रूढ़िवादी पति के प्रति समर्पिता होने के साथ स्वाभिमानी है। अपने इस उपन्यास में शरत ने भारतीय हिन्दू समाज, विशेषतया नारियों को परंपरागत बंधनों, संकीर्ण मानसिकताओं, हीनताओं और दुर्बलताओं के मायाजाल से निकाल कर उदार एवं व्यापक दृष्टि प्रदान करने का सफलतम प्रयास किया है। यह उपन्याम तत्कालीन भारत के सामंतवादी परिवेश की जटिलताओं की नब्ज़ पर अंगुली रखता है। यह जमींदारी, ऋण की समस्या, मुफ्तखोरी, दहेज और संभ्रांत परिवारों की खोखली कुल' मर्यादा और जर्जर समाज व्यवस्था की पोल खोलता है।
चित्र : फिल्म - बिराज बहू - कामिनी कौशल (बिराज) और अभि भट्टाचार्य (नीलाम्बर चक्रवर्ती)
(Biraj
bahu -upperstall.com)
‘बिराज -बहू ’ कृति से सिने रूपांतरण तक -
उपन्यास में वर्णित है कि हुगली जिले के सतयग्राम में दो भाई नीलांबर और पीतांबर रहते थे। वहीं फिल्म में राजनंदगांव की चर्चा है। बँटवारा होने के बाद दोनों ने अपना-अपना घर बना लिया था। नीलांबर मुर्दे जलाने, कीर्तन करने, ढोल बजाने और गांजे का दम भरने में मगन रहता था, दूसरों की उपकारी में उसे प्रतिष्ठा प्राप्त थी। फिल्म में उसे भांग का शौकीन बताया गया है।उसका छोटा भाई पीतांबर ठीक उसके विपरीत था। शाम के बाद आस-पड़ोस में किसी की मृत्यु होने पर भी वह घर से बाहर नहीं निकलता था। सबेरे ही वह भोजन करने के उपरांत बस्ता लेकर कचहरी चला जाता और आम के पेड़ के नीचे लोगों की अर्जियांलिखकर पैसे कमाता था। उपन्यास में उनकी छोटी बहन का नाम हरिमती आता है, जिसका घरेलू नाम पूंटी है। वहीं फिल्म में यह नाम पुन्नु है। पीतांबर की पत्नी का नाम मोहिनी है जिसे फिल्म में छोटी -बहू ही पुकारा गया है। बिमल रॉय ने फिल्म में इसी उपन्यास का सिने रूपांतरण किया है। सिने रूपांतरण को क्रमबद्ध रूप में देखें तो पात्रों की भूमिका किन -किन अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने निभाई है।
बिराज बहू : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (१९१४)
नवेंदु घोष : रूपांतरण
नासिर हुसैन : संवाद
हितेन चौधरी - प्रोडक्शन
रिलीज-१९५४ दिनांक
बिमल रॉय: पटकथा
अभिनीत:
बिराज की भूमिका कामिनी कौशल, नीलांबर चक्रवर्ती की भूमिका अभि भट्टाचार्य, पुन्नूचक्रवर्ती की भूमिका शकुंतला, देवधर की भूमिका प्राण ने, सुंदरी की भूमिका मनोरमा ने, भोलानाथ की भूमिका मोनी चटर्जी ने,किशोरी लाल देवधर के सहायक की भूमिका इफ्तिखार ने निभाई है।उपन्यास में जमींदार के अय्याश लड़के का नाम राजेन्द्र है,जबकि फिल्म में देवधर है।
यदि ध्यान दे तो , बिमल रॉय की फिल्मों में महामारी का दृश्य अवश्यंभावी रूप से उकेरा गया है। 'सुजाता''में' भी फिल्म की शुरुआत में हीं हैजे के प्रकोप और उससे उत्पन्न विभीषिका को प्रस्तुत किया गया है। वहीं बिराज- बहू में चेचक के प्रकोप को दर्शाया गया है। इसी तरह बंदिनी में तपेदिक के प्रकोप को प्रस्तुत किया गया है। कारण यह है कि बिमल रॉय एक प्रगतिशील फिल्मकार हैं। गुलामी में पैदा हुए बिमल रॉय का अधिकतर कार्यक्षेत्र आजाद भारत रहा है। आजादी के बाद भारत में संत्रास, दुःख, मोहभंग, ऋण की समस्या, दहेज, सूदखोरी जैसी परिस्थितियां देश में ज्यों की त्यों बनी हुई थीं। वे उसे उजागर करने में तनिक भी पीछे नहीं हटते। महामारी का दौर भी आजादी के पूर्व और पश्चात ज्यों का त्यों बना हुआ था। देश की संसद उतने प्रभावशाली ढंग से कार्य नहीं कर पा रही थी। 1961-1975 का काल हैजा महामारी (Cholera
Pandemic) का समय रहा है। एशिया के बांग्लादेश, भारत देश का कोलकाता क्षेत्र इस महामारी का केन्द्र बना रहा है। फिल्म में चेचक महामारी (Smallpox
Epidemic, शीतला माता का प्रकोप) को दिखाया गया है। उपन्यास में भी चेचक की ही चर्चा बिराज, वैध, पीतांबर के मुख से सुनाई पड़ती है।
चेचक अधिक विषाक्त और भयावह संक्रमण है,यदि ध्यान दें ,तो चेचक दो बायरस वेरिएंट में किसी एक के कारण होता था। वरियोला मेजर या वेरोला माइनर रिपोर्टों के अनुसार, विश्व में' चेचक के 60% मामले भारत में चिन्हित किये गये थे। दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में ये भारत में अधिक विषाक्त और जानलेवा थे। इस विषम स्थिति से मुक्त होने के लिए भारत ने राष्ट्रीय चेचक उन्मूलन कार्यक्रम (NSEP)
प्रारम्भ कियाथा, लेकिन यह कार्यक्रम अपेक्षित परिणाम प्राप्त कर सकने में असफल रहा। इस भयावह स्थिति ने मुक्त होने के लिए, सोवियत संघ के साथ डब्ल्यूएचओ (WHO)
ने भारत को चिकित्सा सहायता भेजी और मार्च 1977 में भारत चेचक से मुक्त हुआ। 1954 ई. में इस फिल्म का निर्माण हुआ। विमल राय चेचक के आतंकसे परिचित थे, इसलिए इसे उजागर करने में पीछे नहीं हटते।
शरतचंद्र की कृति बिराज बहू की रचना
1914 ई.में हुई, ऐसा विदित है कि देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा, शोषित, अनावृष्टि और -अतिवृष्टि के दंश से निरंतर कुचला जा रहा था। महामारी समाज का अभिन्न अंग बन गई थी। शरतचंद्र के उपन्यासों में इस दयनीय दशा का वर्णन मिलता है, आगे बिमल राय दृश्यों और संवादों के माध्यम से इस दयनीय दशा को जीवंत कर देते हैं। उपन्यास में कहानी सीधे दो भाइयों से शुरू होती है, जो बिल्कुल कथात्मक शैली में होने के कारण सीधी-सपाट दिखती है, जबकि फिल्म की शुरुआत एक बंगाली वैष्णव परिवार के दृश्य को उकेरते हुए,बंगाली संस्कृति को दर्शाने से हुई है। जैसे कि बिराज का तुलसी की पूजा करना और शंख ध्वनि द्वारा पूजा का संपन्न करना। बंगाली समाज में शंख स्त्रियाँ बजाती हैं, नीलांबर का शालिग्राम की पूजा करना, उपन्यास में अपने को बोष्ठमठाकुर कहना बिल्कुल समीचीन है। इसी क्रम में उपन्यास में वर्णित है “आज सवेरे नीलाम्बर चण्डी मण्डप में बैठा हुक्का पी रहा था। उसी समय उसकी छोटी अविवाहित बहन हरिमती पीठ के पीछे आकर रोने लगी।"5
फिल्म में थोड़ा परिवर्तन किया गया है, बिमल रॉय ने फिल्म में दिखाया है कि नीलाम्बर, एक पेड़ के नीचे बैठा रामचरितमानस का पाठ कर रहा होता है। चूंकि फिल्म हिन्दी- पट्टी को आधार बनाकर लिखी गई है,इसलिए बिमल राय इससे अवगत हैं कि हिन्दी पट्टी का समुदाय मानस के अत्यधिक निकट है।
उपन्यास में बिराज बाल-विवाह पर कुठाराघात करती है, वह कहती हैं कि "मैं दस साल की उम्र में ही इस घर की स्वामिनी बन गई थी।"6 फिल्म में भी बिराज और नीलांबर की बातचीत में यह दिखाया गया है कि किस तरह से बिराज कम उम्र में ही घर की बड़ी बहू बनकर आ गई थी। फिल्म में पुन्नू के विवाह की बात जब चलती है तो बिराज कहती हैं कि अभी नहीं,अभी पुन्नू की उम्र कम है, कारण यह है कि बाल-विवाह ही विधवा समाज को समृद्ध करने का सबसे बड़ा कारण था। बंगाल और पश्चिमोत्तर प्रदेश बाल-विवाह और विधवा समाज का सबसे बड़ा केंद्र था। बांग्ला नवजागरण के तमाम बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों के साथ हिन्दी नवजागरण के पुरोधाओं ने भी बाल-विवाह का विरोध किया और विधवा विवाह का समर्थन किया, क्योंकि विधवाओं को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। उनका समाज में किंचित अस्तित्व भी नहीं था। किसी भी मंगल कार्य में सम्मिलित न होने का अभिशाप समाज ने उनपर बलात थोपा था। फिल्म में बिराज बार-बार अपने पति के चरणों में प्राण त्यागने की बात करती है, जिसका तात्पर्य है कि वह सुहागिन मरना चाहती है, क्योंकि वह विधवाओं के अभिशप्त समाज से परिचित है। शरत ने अपने उपन्यास में बिराज के कथनों से यह दिखाया है कि विधवा का जीवन कितना ही तिरस्कारपूर्ण होता है, बिराज नीलांबर को स्वयं बताती है “विधवा का शुभ यात्रा में कोई मुंह नहीं देखता, शुभ कर्म में कोई नहीं' बुलाता, दोनों हाथ पल्लू से बाहर नहीं निकाल सकती, माथे से आंचल नहीं हटा सकती छि: छि:।"7
शरतचंद्र के समाज और बिमल राय के समाज में, इस रूढ़ि में कोई खासमखास परिवर्तन नहीं हुआ, जिससे कि इस प्रगतिशील रचनाकार के इस अंश को ,एक प्रगतिशील फिल्मकार दिखाने में पीछे नहीं हटता। वर्तमान समय में भी निम्न और मध्यवर्गीय समाज विधवाओं को किसी भी शुभ कर्म या शुभ मंगल कार्य में सम्मिलित करने में असहज महसूस करता है, जिससे शरतचंद्र और बिमल राय आज भी उतने ही प्रासंगिक हो जाते हैं।
नीलांबर के ठीक होने पर पंचानन्द बाबा की पूजा, बिराज के उपवास की बात, फिल्म में हूबहू तरीके से दिखाई गई है। इसी क्रम में मोती मोउल के घर जाने के प्रसंग में बिराज नीलांबर को साफ़ मना कर देती है। उपन्यास में वर्णित है कि "नीलांबर चुपचाप लेट गया। बिराज भी चुपचाप पड़ी रही। फिर उठी। बुदबुदाई -"ओह सांझ हो गई। दिया-बत्ती तो करूँ। वह चली गई। लगभग एक घण्टे के बाद लौटी तो उसने नीलांबर को गायब पाया। तुरंत पूंटी को पूछा- “तेरे दादा कहाँ हैं? जाकर बाहर देख।" चंद क्षणों के बाद हाफ़ती हुई वह आकर बोली - दादा कहीं नहीं मिले। नदी तट पर भी नहीं।"8 वही फिल्म में थोड़ा -सा परिवर्तन किया गया है,दिखाया गया है कि मोती मोडल के घर जाने की बात पर बिराज झल्लाकर दरवाजा बंद करके, कुंड़ी लगा देती है और चली जाती है। नीलांबर कमरे में बंद रहता है, थोड़ी देर बाद खेलती हुई पुन्नु को देखता है और खिड़की से दरवाजा खोलने के लिए आवाज देता है। पुन्नू दरवाजा खोल देती है और नीलांबर मोती के बेटे को देखने चला जाता है। बिमल रॉय ने थोड़े बदलाव द्वारा कथानक में पुन्नु की छोटी भूमिका को मनोहर और जीवंत बना दिया है।
उपन्यास में सीधे तीन साल के बाद की घटना वर्णित है। "हरिमती को ससुराल गए तीन माह हो चुके थे। पीतांबर हरिमती के विवाह के समय में ही बंटवारा कर लेता है। एक ही घर में खाने-पीने का हिसाब भी अलग कर लेता है। फिल्म में स्पष्ट रूप से, इसी प्रसंग को दृश्यात्मक एवं संवादात्मक रूप में रखकर संपत्ति के बँटवारे में दो भाइयो' के आपसी क्लेष को दर्शाया गया है, जो उस समय के समाज में भी दृष्टिगत था और आज के समाज में भी दिखता है। बहन की शादी के लिए नीलांबर के द्वारा पत्नी के गहने गिरवी रखने का प्रसंग, बाग़,जमीन-जायदाद बेचकर दहेज में हजार रुपये नगद, दामाद को चिकित्सक बनाने तक के खर्च को, उपन्यास में शरतचंद्र ने वर्णित किया है। फिल्म में बिमल रॉय ने इस प्रसंग को हूबहू दिखाने की चेष्टा की है। कैसे विवाह के बाद नीलांबर का घर उजड़ जाता है, उसे सिनेमा में संकेत विज्ञान के माध्यम से एक सूखे वृक्ष के द्वारा दिखाया गया है। पुन्नू का विवाह बिराज और नीलांबर की बदहाली को एक दृश्यात्मक रूप देकर,गीत संयोजन करके प्रस्तुत किया गया है। पुन्नू की विदाई का गीत जिसे प्रेम धवन ने लिखा है और लता मंगेशकर ने गाया है :
जहाँ रहें तो शाद रहे ओह ओह.
एक घर उजड़े एक बसे पल-पल में बदले कैसा रंग जमाना ।"
यह गीत उस समय की यथावस्था को संप्रेषित कर देता है। सलिल चौधरी का संयोजन कहीं न कही इस फिल्म को और भी मार्मिक बना देता है। वहीं इससे इतर विवाह के प्रसंग को एक निर्धन कृषक वर्ग की सहिष्णुता, ऋण की समस्या, मर्यादा की रक्षा के लिए लड़ते पूर्वी-पश्चिमी और पश्चिमोत्तर प्रदेश के असहाय निर्धन वर्ग की कथा को दिखाने का प्रयास किया गया है। कैसे एक बाप, एक भाई अपनी कन्या के विवाह के लिए अपना सर्वस्व न्यौंछावर कर देते हैं। यहाँ देखते है कि,ऋण की समस्या, महाजन की सूदखोरी, जमींदारी, किसी महामारी के प्रकोप से कम न थी।
हिन्दी के महान कथा सम्राट, उपन्यासकार प्रेमचंद के पात्र होरी, हलकू, घीसू, सीलिया, धनिया आदि इसी ऋण की समस्या से संघर्षरत रहते हैं और कृषक से मजदूर बन जाते हैं और अव्यवस्था की यातनाएं भोगते हैं। शरतचंद्र ने इस प्रसंग को भी अपने लगभग सभी उपन्यासों में उठाया है। आजाद भारत में भी इस सामाजिक अव्यवस्था में किसी भी प्रकार की संभावना दृष्टगत नहीं हो रही थी, इस अव्यवस्था से एक तिहाई जनता का सरकार और व्यवस्था से मोहभंग हो गया था। सिनेमा के शरतचंद्र बिमल रॉय ने बिराज बहू फिल्म में नीलांबर के परिवार की दयनीय दशा को दृष्टिगत करते हैं कि कैसे भोलानाथ मुखर्जी का ब्याज के लिए तगादे करना, नीलांबर का ब्याज न चुका पाना, अकाल की दुहाई देना, दामाद का खर्च न वहन कर पाना, एक मजबूर और दयनीय कृषक के संघर्ष को जीवंत बना देता है। बिमल रॉय ने अपनी फिल्म 'दो बीघा जमीन’ में शंभू को ऋण की समस्या से जूझते हुए कृषक से रिक्शाचालक (मजदूर) बनने पर विवश होता दिखाया है। यह फिल्म कवीन्द्र -रवीन्द्र की एक कविता पर आधारित है। शम्भू का किरदार जाने-माने मेथड अभिनेता बलराज साहनी ने और शम्भू की पत्नी का किरदार, निरूपमा राय ने निभाया है।
जमींदार के बेटे देवधर की भूमिका मशहूर फिल्म अभिनेता प्राण ने निभाई है। शरतचंद्र के उस चरित्र को प्राण ने जीवंत कर दिया है। सुनरी को अपने जाल में फंसाना और बिराज पर कुदृष्टि रखने जैसी अन्य घटनायों को बिमल रॉय ने वैसे ही रखा है। सुंदरी द्वारा देवधर की प्रशंसा करना, उससे उपहार लेना, इन सभी बातों से बिराज का अवगत होना, सुनरी पर क्रोध करना घर से बाहर निकालना सिलसिलेवार ढंग से फिल्म में दिखाया गया है।
बिमल राय ने इस प्रसंग में थोड़ा- सा बदलाव ऐतिहासिक और पौराणिक कथानकों के आधार पर दिखाने की चेष्टा की है। सुनरी का जमींदार के पास जाना और सारा वृतांत कह सुनाना, प्रतिशोध की अग्नि में जलना और प्रतिशोध का प्रण लेना। यहाँ बिमल राय ने खल-पात्र का निर्माण किया है। सुनरी का प्रतिशोध जायसी के पद्मावत के पात्र राघव चेतन के समीचीन जान पड़ता है। वहीं देवधर अलाउद्दीन खिलजी की तरह दृष्टिगत होता है। उपन्यास में देवधर की हरकतों से बिराज सिहर जाती है। उसे लोक-निंदा का भय सताने लगता है। बिराज नीलांबर से कहती है “क्या यह सच है सावित्री और सत्यवान की ही कहानी लो, सावित्री के पति के प्राण यमराज ने लौटा दिए, क्या यह सच है? हाँ जो सावित्री की तरह सती हो वह अपने पति के प्राण अवश्य लौटा सकती है। फिर तो मैं भी लौटा सकती हूँ। नीलांबर ने कहा- अरे ये तो देवता ठहरे। बिराज ने पान का डिब्बा एक और खिसका कर कहा "सतीत्व में मैं भी किसी से कम नहीं हूँ चाहे सीता हो चाहे सावित्री।"9“तुम अन्याय और पाप नहीं कर सकते। अपनी पत्नी को प्रेम न कर पाना पाप है, अन्याय है। इसलिए तुम मुझे हर दशा में प्यार करते, चाहे मैं काली-कुबड़ी ही क्यों न होऊ।”10 फिल्म में इस प्रसंग को दर्शाया गया है , इसका अभिप्राय शरतचंद्र और बिमल राय ने यह बताया है कि कथानक में एकनिष्ठ प्रेम की पराकाष्ठा है, यह प्रेम राम का सीता के प्रति है, राधा और मीरा का कृष्ण के प्रति, यक्ष का यक्षिणी के प्रति,घनानन्द का सुजान के प्रति, सावित्री का सत्यवान के प्रति, बिराज का नीलम्बर के प्रति है। धन का अभाव,वैभव की लालसा, सुंदरता की लोलुपता, कभी भी इन्हें इनके सतीत्व से ओझल नहीं होने देती। इनका एकनिष्ठ प्रेम दुख, विवशता, अनाचार, बल, कपट से टूटने वाला नहीं था। शरतचंद्र अपने उपन्यास' के द्वारा उस प्रेम पर बल देना चाहते हैं, जिसमें किंचित मात्र भी चतुराई, कुंठा, ईर्ष्या की अभिलाषा नहीं है। भय है तो केवल बिखरने का,बिछड़ने का। बिराज और नीलांबर का प्रेम मनुष्य से देवत्व की ओर,प्रेय से श्रेय की ओर पहुंचता हुआ दिखलाई पड़ता है। बिमल राय ने भी इस संवाद को दृश्यात्मक रूप प्रदान किया है। जिसमें कामिनी कौशल (बिराज) और अभी भट्टाचार्य (नीलांबर चक्रवर्ती) के रूप में भारतीय सिनेमा के चित्रपट पर अमर हो जाते हैं।
उपन्यास में पीताम्बर की पत्नी का अपने जेठ के प्रति चिंतित होना, भोला मुकर्जी द्वारा नालिश होने की घटना, पीताम्बर का दूसरे के नाम से संपत्ति खरीदना, मोहिनी द्वारा हार बेचकर कर्ज से मुक्त होने की सलाह देना, फिल्म में ज्यों का त्यों दृश्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है। ऋण से त्रस्त होना, बिराज और नीलाम्बर की पीड़ा,कीर्तन कर अपने दुख को गीत के रूप में रखना, बिमल रॉय ने इसमें बदलाव करके इस दुःख को दर्शकों तक पहुंचाने की मार्मिक कोशिश की है। गीत के बोल इस तरह हैं:
एक पल दरस दिखा जा
झूम-झूम मनमोहन रे
मुरली मधुर सुना जा
गोकुल सूना
मथुरा सूनी
सूने ब्रज के झूले
भूल गया तू इनको मोहन
हम न तुझको भूले
तोड़कर हमने नाते सबसे
जोड़ा तुझसे नाता।”
इस गीत के द्वारा फिल्म में अंतर्निहित दुख को उजागर करने का प्रयत्न किया गया है! ‘लगान’ फिल्म में भी इस दुख को अलग तरीके में गीतात्मक रूप में रखा गया है। गीत के बोल हैं-
तुम्हरे बिन हमरा कउनो नाहीं।
इस गीत को सुखविंदर सिंह, लता मंगेशकर,और उदित नारायण ने गाया है। ये गीत व्यक्ति को विषम परिस्थितियों और जीवन के अंधकार से निकलने की प्रेरणा देता है। सिनेमा में इसका प्रयोग इसे मनोहर और मर्मस्पर्शीबना देता है।इसी क्रममें,उपन्यास में मागरागंज, आदिसप्त ग्रामका दृश्य और हुगली जैसे स्थानों को दर्शाया गया है,जो पश्चिम बंगाल के बैंडल और हुगली के निकट है। उपन्यास में ऋण और आर्थिक बदहाली के कारण बिराज दयनीय दशा को प्राप्त होती है। उपन्यास में वर्णित है कि
-"मागराके गंज बाजार में पीतल के बर्तन ढालने के कई कारखाने थे। मुहल्ले की छोटी जाति की लड़कियां मिट्टी के सांचे बनाकर वहां बेचने जाती थीं। बिराज के भी दो दिनों में सांचा बनाना सीख लिया और शीघ्र ही बहुत अच्छे, सांचे बनाने लगी। इसलिए व्यापारी खुद आकर उसके सांचे खरीदने लगे। इससे वह रोज आठ-दस आने कमा लेती थी पर संकोच के मारे अपने पति को कुछ भी नहीं बताया।”11
फिल्म में इससे इतर बिमल रॉय ने दृश्य रचा है कि आर्थिक तंगी, अकाल, ऋण, बदहाली से तंग आकर बिराज तुलसी महतो से पूछती है कि ये खिलौने तुम्हें कौन देता है बहन, इनका क्या करती हो? तुलसी महतो ने कहा इन्हें बेचती हूँ बहन जिससे दो पैसे आ जाते हैं। है। बहन एक खिलौने दो न। यदि ऐसे खिलौने मैं बनाकर दूँ तू मुझसे ले जाओगी। हां बहन तुम बनाना, मैं ले जाऊँगी। बिराज रात्रि में खिलौने बनाती, एक दिन नीलांबर ने जब देखा तो उसकी आँखें छलछला गईं।
बिराज को कुछ दिनों के लिए मामा के यहाँ भेजने का प्रसंग, खुद कुलकत्ता जाने का प्रसंग फिल्म में दिखाया गया है। दूर्गा पूजा का प्रसंग, बिराज से छिपाकर पैसा इकट्ठा करना उससे कुछ मिठाई और धोती लेकर सुंदरी के घर जाना ,उसे दुहाई देना कि वह पूंटी के घर जाकर हालचाल ले आये।विजयादशमी का दृश्य, मोहिनी का प्रणाम के लिए आना, बिराज की आंखे छलछला जाना इस प्रसंग को फिल्म में दिखाया ही नहीं गया है।
बंगाल में दूर्गापूजा विजयदशमी (शुभ विजया) जिसमें सुहागिन स्त्रियाँ सिंदूर की होली खेलती हैं, जो काफ़ी महत्वपूर्ण है, बांग्ला और अन्य हिन्दी फिल्मों में इस दृश्य को दर्शाया गया है। लेकिन बिमल राय ने इसे नहीं दिखाया है।अपने पति के तीन दिन के बाद लौटने पर बदहाली का जीवन जी रही,बिराज की पति परायणता दृष्टिगोचर होती है। उपन्यास में वर्णित है कि एक ब्राह्मणी किस तरह से एक चाण्डाल के यहाँ चावल मांगने जाती है,कैसे एक राजरानी जैसी पतिव्रता स्त्री किस तरह से परिस्थितियों की बंदिनी बन गई है। शरतचंद्र ने यहाँ जाति-विभेद पर कुठाराघात किया है। फिल्म में इस दृश्य में तनिक भी छेड़छाड़ नहीं की गई, उसे उसी रूप में दिखाने का प्रयास किया गया है। मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है, सत्यवादी हरिश्चंद को भी मरघट में डोम का स्वामित्व स्वीकार्य करना पड़ा था।
बिमल रॉय ने अपनी फिल्मों में स्त्री को आत्महत्या के लिए प्रेरित होता हुआ दिखाया गया है। लेकिन वह मृत्यु के अंधकार से निकलकर जीवन के प्रकाश की ओर उन्मुख होती है। 'सुजाता' फिल्म में सुजाता (नूतन) अपमान, अस्पृश्यता के भाव से दुःखी होकर बैरकपुर के गांधी घाट पर आत्महत्या के लिए जाती है, लेकिन घाट पर गांधी के लिखे वचनों को देखकर उसका मन बदल जाता है। वह उसी बारिश में घर लौट आती है। बिराज भी नीलांबर द्वारा अपमानित होने पर घर का त्याग करके आत्महत्या के लिए नदी की ओर उन्मुख होती है। अपने अस्तित्व और स्त्रीत्व की रक्षा के लिए वह नदी में कूद जाती है और बहकर हुगली के अस्पताल में पहुँच जाती है।
कृति में पीतांबर की मृत्यु सर्प काटने से दिखाया गया है लेकिन फिल्म में सुनरी को सर्प काटता है और सुनरी नीलांबर के समक्ष अपने पापों का पश्चाताप करती हुई, प्राण त्यागती है। बिमल रॉय में कथानक के पटकथा को मजबूत वनाने के लिए प्रचलित पंचतंत्र की कथाओं, धार्मिक कथाओं के आदर्श को मिला दिया है, जैसी करनी वैसी भरनी।
उपन्यास में राजेन्द्र सती साध्वी पर कुदृष्टि डालने पर लज्जित होता है। बिराज को नदी के तेज प्रवाह में कूदने पर ,वह आत्मग्लानि से भर जाता है। उपन्यास में वर्णित है कि “राजेन्द्र ने कलकत्ता पहुंचकर ही चैन की सांस ली। पिछली रात जो कुछ भी घटा था, उसे याद करके वह कांप जाता था। उसने सोच लिया था कि आज तक वह उधर कभी नहीं मुंह करेगा। उसका सामना बाजारू और छिनाल स्त्रियों से हुआ था, किसी सती साध्वी से नहीं। वह आज से पहले नहीं जानता था कि सती क्या होती है।"12
जिससे राजेन्द्र को इसका भान होता है। उसका भय, पश्चाताप उसके हृदय परिवर्तन को दर्शाता है। फिल्ममें सुनरी अपने प्रतिशोध से आकुल होकर अचेत बिराज को लेकर (राजेन्द्र) देवधर की नाव तक ले जाती है। देवधर नाव पर अचेत बिराज का फायदा उठाना चाहता है, लेकिन उसके सतीत्व के तेज से भयभीत हो उठता है, बिराज को होश आ जाता है। वह अपने सतीत्व ही रक्षा के लिए नदी के तेज प्रवाह में कूद जाती है। उसी क्रम में उपन्यास में बिराज स्वस्थ होने पर ही अस्पताल से निकलती है ,लेकिन फिल्म में पूर्णतः स्वस्थ न होने पर भी रात्रि के अंधकार में अस्पताल से निकल पड़ती है।
उपन्यास में अस्पताल में ही वह दर्पण देखती है और अपने रूप को देखकर कराह उठती है, लेकिन बिमल रॉय ने फिल्म में थोड़ा-सा परिवर्तन किया है। अस्पताल से निकलने के बाद ,यात्रा में ,एक धर्मशाला में,एक स्त्री से सिंदूर लगाने के लिए, दर्पण और सिंदूर मांगती है और उसी क्षण अपने सुंदर रूप के विकृत होने पर दुःखी होती है। उपन्यास में उसकी दोनों आँखों के खराब होने का वर्णन है, लेकिन फिल्म में उसके चेहरे को ही म्लान, और विकृत दिखाया गया है, जो अत्यंत मार्मिक है ,जो मौन होने पर विवश कर देती है।
उपन्यास में बिराज और नीलांबर के विरह को दर्शाया गया है। फिल्म में भी दोनों को एक दूसरे के लिए तड़पते हुए दिखाया गया है। उपन्यास में वर्णित है कि हरिमती के कहने पर नीलांबर तीर्थ के लिए निकालता है, वहीं एक मंदिर में भीख मांगती हुई, फटे-चिथड़े कपड़ों में बिराज नजर आती है, जिसे हरिमती तुरंत पहचान लेती है। बिराज के अस्वस्थ होने पर नीलांबर और हरिमती उसे लेकर घर चले आते हैं। अंततः वहीं नीलांबर की गोद में वह प्राण त्यागती है। वहीं फिल्म में दिखाया गया है कि नदी में छलांग लगाने के बाद बिराज बहते हुए हुगली के अस्पताल में पहुंच जाती है।वहां मन न लगने के कारण वह रात्रि में अस्पताल से भाग जाती है । व्याधि आंधी, पानी, तूफान ,कड़ी धूप और लोक निंदा को सहते हुए वर्षा में भीगते हुए अपने घर पहुंचती है। लेकिन नीलांबर से सामना न कर पाती है। अस्वस्थ नीलांबर को खिड़की से देखना चाहती है, लेकिन घर की दीवारें गीली होने के कारण उसका पैर फिसल जाता है। बाहर गिरने की ध्वनि से नीलांबर खिड़की का कपाट खोलता है और गिरी हुई,बिराज को पहचान जाता है। वह अस्वस्थ बिराज को उठाकर कमरे में लाता है। बिराज अंततः अपने पति की गोद में प्राण त्यागती है। जैसा कि फिल्म में भी अपने पति से आशीर्वाद मांगती है कि मैं तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण त्यागूँ। यह कथा एक धर्मपरायण पतिव्रता स्त्री की कथा है, इस समाज ने सीता को भी कलंकित किया है,वही समाज बिराज जैसी पतिव्रता' स्त्री को भी कलंकिनी, कुलक्षिणी, अभागिन होने का आरोप लगाता है। फिल्म में प्रेम धवन द्वारा लिखें' गीत को मोहम्मद रफ़ी ने गाया है। संगीतकार सलिल चौधरी ने जिनका संयोजन करके फिल्म में नयापन- ला दिया है। गीत के बोल है :
छोड़ घर बार गई वनवासिनी कदर न जानी।
डगर डगर भटके वनवासिनी पग-पग ठोकर खाई
पड़ गये पांव में छाले नयन कमल मुरझाये
कैसे सुने कथा ये, कैसे कोई सुनाए।
राम सिया राम सिया राम।”
यह गीत अत्यंत ही मार्मिक है, जो सीता और बिराज के जीवन की समानता को व्यक्त करता है। सीता भी राजरानी है ,बिराज का सौदर्य भी राजरानी के ही ढंग का है। सीता भी राम के संमक्ष भूमि समाधिस्थ होती हैं, बिराज भी अपने पति की गोद में ही प्राण त्यागती है।
इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता है कि हिन्दी सिनेमा में सबसे अधिक धन राशि लेने वाली अभिनेत्री मधुबाला“इस फिल्म में बिराज की भूमिका निभाने के लिए उत्सुक थी ।इस उद्देश्य से वह कई बार बिमल राय के कार्यालय गयी थी।
हालाँकि ,बिमल राय को लगा कि वह फिल्म करने के लिए ज्यादा फ़ीस मांगेगी ,इसलिए उन्होंने उनकी जगह कामिनी कौशल को चुन लिया ।जब उन्हें पता चला कि उनकी फीस की वजह से उन्हें यह भूमिका नहीं मिल पाई तो उन्होंने कहा कि वह बिराज बहु में एक रूपए में भी काम कर सकती थी।”13
बिराज बहू फिल्म देखने के बाद ,एक बार राजकपूर ने कहा था कि मैं ऐसी फिल्म क्यों नहीं बना सका। इस फिल्म ने कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। यह फिल्म आजादी पूर्व भारत के बांग्ला समाज को समझने का सबसे अच्छा और सशक्त माध्यम है। यह फिल्म केवल व्यापार के उद्देश्य से ही महत्पूर्ण नहीं है बल्कि मानवीय संवेदना को संप्रेषित करने में भी सफल है।
1.(bharatdiscovery.org)
3.मुक्तिबोध ,गजानन प्रतिनिधि कविताये संस्करण 2008राजकमल प्रकाशन नयी दिल्ली पृष्ठ संख्या -161
(पुस्तक : बलराज साहनी संतोष साहनी समग्र, संपादक
बलदेव राज गुप्त, रचनाकार: बलराज साहनी
प्रकाशन : हिन्दी प्रचारक संस्थान संस्करण, 1994)
5.' चट्टोपाध्याय,शरतचंद्र, बिराज बहू, , मनोज पाकेट बुक्स दिल्ली) पृष्ठ -5'
12. वही से (पृष्ठ -67)
13. https:en.wikipedia.org
abhishekmishra.vs@gmail.com, 8910459296, 9433810607
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