- विनोद कुमार
शोध सार : भारतीय हिन्दी सिनेमा में इसके जन्मकाल से लेकर अब तक बहुत सा परिवर्तन दिखाई देता है। यह परिवर्तन अलग- अलग कारणों से हुआ है । इस परिवर्तन की प्रकृति शाश्वत नहीं है । इक्कीसवीं सदी में हिन्दी सिनेमा ने अपनी पहचान में उल्लेखनीय बदलाव किए हैं, जो तकनीकी प्रगति, डिजिटल क्रांति और विषय-वस्तु के विस्तार का परिणाम हैं। पारंपरिक प्रेम कहानियों और पारिवारिक ड्रामों से आगे बढ़ते हुए इसने सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक मुद्दों को प्रमुखता दी है। महिला सशक्तिकरण,
LGBTQ+ समुदाय और अन्य हाशिए के विषयों पर केंद्रित फिल्मों ने इसे अधिक प्रासंगिक और समावेशी बनाया है। तकनीकी विकास, जैसे वीएफएक्स और डिजिटल फिल्म निर्माण ने फिल्मों की गुणवत्ता में सुधार किए हैं, जबकि स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स ने इन्हें वैश्विक दर्शकों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में हिन्दी फिल्मों की सफलता और भारतीय डायस्फोरा के प्रभाव ने इसे विश्व मंच पर एक नई पहचान दिलाई है; साथ ही क्षेत्रीय और स्वतंत्र सिनेमा के प्रभाव ने हिन्दी फिल्मों की विषय-वस्तु और प्रस्तुति को और अधिक गहराई दी है। इन परिवर्तनों के साथ-साथ हिन्दी सिनेमा न केवल मनोरंजन का माध्यम बना है, बल्कि यह सामाजिक बदलाव और सांस्कृतिक संवाद का भी सशक्त उपकरण बन गया है, जो वैश्विक स्तर पर भारतीय पहचान को बढ़ावा देता है।
बीज शब्द : हिन्दी सिनेमा, इक्कीसवीं सदी का सिनेमा, तकनीकी, सामाजिक, सांस्कृतिक, सिनेमा, डिजिटल, भारतीय।
मूल आलेख : परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है । मार्क्स ने भी माना है –‘हर विकासशील वस्तु अपने भीतर एक प्रतिपक्ष को समाहित किए हुए होती है, जो किसी एक स्थिति में उसे रुकने नहीं देता’।1 इक्कीसवीं सदी का भारतीय सिनेमा तकनीकी, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बदलाव का प्रतीक है। यह दौर उन परिवर्तनों का गवाह बना है, जिसने सिनेमा को मनोरंजन से आगे बढ़ाकर सामाजिक संवाद का एक सशक्त माध्यम बना दिया। यह सदी एक ऐसा समय लेकर आई, जब भारतीय सिनेमा ने न केवल अपनी शैली और विषयवस्तु में विविधता दिखाई, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी अपनी गहरी छाप छोड़ी। सिनेमा अब केवल एक कहानी कहने का माध्यम नहीं रह गया है, बल्कि समाज में व्याप्त विभिन्न मुद्दों पर विमर्श का एक महत्वपूर्ण मंच बन गया है। इस दौर का भारतीय सिनेमा तकनीकी प्रगति के कारण भव्यता और आधुनिकता का प्रतीक बन गया है। डिजिटल तकनीकी के आने से फिल्मों का निर्माण आसान और प्रभावशाली हो गया है। कैमरा, साउंड एडिटिंग, और ग्राफिक्स की गुणवत्ता में भारी सुधार आया है। कंप्यूटर ग्राफिक्स और वीएफएक्स ने फिल्मों को दृश्य-भव्यता प्रदान की है, जिससे दर्शकों का अनुभव पूरी तरह बदल गया है। ‘रोबोट’ और ‘बाहुबली’ जैसी फिल्में इस बात का प्रमाण हैं कि तकनीकी दृष्टिकोण से भारतीय सिनेमा ने वैश्विक स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई है। अब भारतीय फिल्में उच्च गुणवत्ता वाले विजुअल इफेक्ट्स के साथ बन रही हैं, जो न केवल भारतीय दर्शकों को आकर्षित करती हैं, बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हो रही हैं।
वैश्वीकरण ने आज राजनीतिक व्यवस्था, अर्थव्यवस्था के साथ सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्रों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है । भूमण्डलीकरण का प्रभाव भी सिनेमा पर दिखाई पड़ता है । इन प्रभावों के कारण सिनेमा की प्रकृति तथा कथानकों में भी काफी हद तक परिवर्तन दिखाई पड़ता है। जवरीमल्ल पारख सच ही कहते हैं - “फिल्मों की लोकप्रियता फिल्म की अन्तर्वस्तु और कलात्मक अन्तर्वस्तु पर नहीं बल्कि ऐसे बाहरी तत्वों पर ज्यादा निर्भर रहती है जिसका फिल्म की गुणवत्ता से प्रत्यक्षतः कोई सम्बन्ध नहीं होता है । मसलन अभिनेताओं की मर्द छवि, अभिनेत्रियों के यौन सौन्दर्य, हिंसा के उत्तेजक दृश्य, नृत्य और संगीत का उन्मादपूर्ण इस्तेमाल आदि लोकप्रिय सिनेमा के अनिवार्य तत्व बन गए हैं ताकि इनके द्वारा मनोरंजन की एक खास संकल्पना को स्थायित्व प्रदान किया जा सके ।”2
सामाजिक दृष्टिकोण से भी इक्कीसवीं सदी का सिनेमा एक बदलाव का साक्षी है। सिनेमा की कहानियाँ अब केवल प्रेम कहानियों और नायकों के इर्द-गिर्द सीमित नहीं रहीं। ‘तारे ज़मीन पर’ और ‘पीपली लाइव’ जैसी फिल्मों ने मानसिक स्वास्थ्य, शिक्षा, और ग्रामीण भारत की समस्याओं पर चर्चा की। इससे सिनेमा को नई दिशा मिली, जो यथार्थवाद पर आधारित थी। फिल्मों में सामाजिक मुद्दों पर ध्यान दिया जाने लगा। इन फिल्मों में प्रस्तुत किए गए यथार्थवादी किरदार और घटनाएँ समाज के वास्तविक चित्रण का प्रतीक बन गईं, जिसने दर्शकों के मन पर गहरी छाप छोड़ी। क्षेत्रीय सिनेमा ने भी इस दौर में विशेष पहचान बनाई है। विशेषकर तमिल, तेलगू, मलयालम, और मराठी सिनेमा ने अपने कथानकों में नवीनता और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया। मलयालम सिनेमा ने अपनी संवेदनशील और गहन कहानियों से दर्शकों को प्रभावित किया है, और यह क्षेत्रीय सिनेमा के सशक्त होने का प्रमाण है। तेलगू फिल्म ‘बाहुबली’ की सफलता ने यह सिद्ध किया है कि क्षेत्रीय फिल्में भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफलता प्राप्त कर सकती हैं। चन्द्रकान्त मिसाल लिखते हैं
- “निदेशक समाज से ही प्रभावित होकर सामाजिक विषयों को सुनकर फिल्मों का निर्माण करता है । सिनेमा समाज की आधारशिला के बिना खड़ा नहीं हो सकता क्योंकि समाज का केन्द्रबिन्दु व्यक्ति ही तो सिनेमा का विशाल दर्शक है और अगर उसे अपनी पसंद का मनोरंजन नहीं मिलेगा तो सिनेमा का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा क्योंकि समाज के बिना सिनेमा निर्मूल है ।
उसे दर्शकों को बांधे रखने के लिए समाज से ही ग्रहण कर उसी की भाषा और विषयों का चुनाव करना पड़ेगा।”3
इस प्रकार क्षेत्रीय सिनेमा ने भारतीय फिल्म उद्योग के समग्र विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिससे दर्शकों को एक नई दृष्टि प्राप्त हुई है ।
इक्कीसवीं सदी में भारतीय सिनेमा की पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सुदृढ़ हुई है। अब भारतीय फिल्मों को न केवल भारतीय दर्शकों तक सीमित माना जाता है, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय दर्शकों में भी लोकप्रिय हो रही हैं। ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ और ‘गली बॉय’ जैसी फिल्मों ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी जगह बनाई। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव था, जिसमें भारतीय सिनेमा ने भाषा और संस्कृति की सीमाओं को पार कर विश्व मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई । इस बदलाव ने न केवल भारतीय सिनेमा को वैश्विक रूप दिया, बल्कि भारत की सांस्कृतिक विविधता और समृद्धि को भी विश्व के सामने रखा । आलोचक सुरेन्द्रनाथ तिवारी अपनी पुस्तक ‘भारतीय नया सिनेमा’ में लिखते हैं – “वस्तुतः नए सिनेमा की विषयवस्तु नई नहीं है , विगत अनेक दशकों से इसे भारत में विविध क्षेत्रों के साहित्य में अपनाया गया है और किसी सीमा तक स्वतंत्रता के पहले और बाद के प्रारम्भिक वर्षों में उन विषयों पर फिल्में बनी हैं । नए फिल्मकारों ने उन्हीं विषयों को उनकी सम्पूर्ण गहराई में देखा है ।”4
इस दशक में ओटीटी (ओवर द टॉप) प्लेटफॉर्म का उदय भारतीय सिनेमा में एक नए युग की शुरुआत मानी जा सकती है। नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम, डिज़्नी+ हॉटस्टार जैसे प्लेटफॉर्म्स ने दर्शकों को घर बैठे नवीनतम और विविध प्रकार की सामग्री का अनुभव करा रहे हैं। अब सिनेमा हॉल में जाने की आवश्यकता नहीं रह गई है, साथ-साथ इस नए डिजिटल माध्यम ने स्वतंत्र और छोटे बजट की फिल्मों और वेब सीरीज़ को एक नया मंच प्रदान किया है। ‘सेक्रेड गेम्स’, ‘मिर्जापुर’, और ‘फैमिली मैन’ जैसी वेब सीरीज़ ने दर्शकों को नए प्रकार की कहानियों से परिचित कराया और भारतीय सिनेमा के लिए एक नया दर्शक वर्ग तैयार किया। इक्कीसवीं सदी में नई पीढ़ी के फिल्मकारों और अभिनेताओं का उदय भी भारतीय सिनेमा के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अनुराग कश्यप, ज़ोया अख्तर, विक्रमादित्य मोटवानी जैसे फिल्मकारों ने ऐसे विषयों पर फिल्में बनाईं, जो परंपरागत बॉलीवुड मसाला फिल्मों से अलग थीं। इन फिल्मकारों ने जटिल मानवीय संबंधों, वर्ग संघर्ष और समाज के गहरे पहलुओं पर चर्चा की। नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राजकुमार राव, विक्की कौशल जैसे अभिनेताओं ने यथार्थवादी अभिनय से दर्शकों को प्रभावित किया। इन कलाकारों की अदाकारी ने सिनेमा को अधिक प्रामाणिक और सजीव बना दिया, जिससे दर्शकों का सिनेमा के प्रति दृष्टिकोण भी बदला। इक्कीसवीं सदी में भारतीय फिल्मों की अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में बढ़ती भागीदारी ने भारतीय सिनेमा की पहचान को वैश्विक स्तर पर मजबूती प्रदान की है। ‘लगान’, ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’, और ‘गली बॉय’ जैसी फिल्मों ने अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं और भारतीय फिल्मों को वैश्विक स्तर पर चर्चा का विषय बनाया है। ये फिल्में भारतीय संस्कृति, पारंपरिक जीवनशैली और भारतीय समाज की जटिलताओं को प्रस्तुत करने में सक्षम रही हैं।
भारतीय हिन्दी सिनेमा, जो अपने आरंभ से ही भारतीय समाज और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण दर्पण रहा है, इक्कीसवीं सदी में एक नए युग का साक्षी बना है। इस सदी के हिंदी सिनेमा ने भारतीय फिल्मों की परंपरागत पहचान को बदलते हुए एक नई दिशा में कदम बढ़ाया है। पहले जहाँ हिंदी सिनेमा मुख्य रूप से गीत-संगीत, प्रेम कहानियों, और पारिवारिक ड्रामा पर आधारित था, वहीं इस नए युग में सिनेमा के विषयवस्तु, प्रस्तुति और तकनीकी स्वरूप में व्यापक बदलाव हुए हैं। यह समय ऐसा है जब हिंदी सिनेमा ने सामाजिक मुद्दों और विविध विषयों पर केंद्रित कहानियों को अपनाया है तथा अपनी पहचान को न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पुनः परिभाषित किया है । डॉ. माधवेन्द्र लिखते हैं, “वैश्वीकरण विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के बीच एक ऐसी निर्बाध एवं जटिल आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक प्रक्रिया है , जो एक निश्चित एवं सर्वमान्य अंतरराष्ट्रीय नियमों एवं शर्तों से बंधी है । इसमें ऐसे अर्थ की संरचना एवं वैश्विक बाजार के निर्माण की प्रक्रिया चलती है कि प्रत्येक राष्ट्र की अर्थव्यवस्था एक दूसरे से जुड़ी हो । सूचना तकनीकी एवं संचार के अन्य माध्यमों के विकास के साथ वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया ने पूरे विश्व को एक दूसरे से जोड़ दिया है तथा सभी राष्ट्र एक-दूसरे की परिस्थितियों से सीधे तौर पर जुड़ गए हैं चाहे ये आर्थिक हों या सामाजिक,राजनीतिक एवं वैचारिक ।”5
इक्कीसवीं सदी में भारतीय सिनेमा में तकनीकी दृष्टिकोण से व्यापक सुधार और नवाचार देखने को मिले हैं। डिजिटल कैमरा, उच्च गुणवत्ता वाले साउंड सिस्टम, वीएफएक्स, और पोस्ट-प्रोडक्शन तकनीकों का उपयोग भारतीय फिल्मों की दृश्य गुणवत्ता को अंतरराष्ट्रीय मानकों तक लेकर गया है। भारतीय सिनेमा ने ‘बाहुबली’, ‘आरआरआर’, और ‘केजीएफ’ जैसी फिल्मों के माध्यम से दिखाया है कि वीएफएक्स और एडवांस्ड एनिमेशन का उपयोग केवल हॉलीवुड तक सीमित नहीं है। इन तकनीकों ने कहानी को और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने में मदद की है। इसके अलावा, भारतीय फिल्म निर्माता विभिन्न फिल्मों में रंगों, प्रकाश, और ध्वनि के प्रभाव का उपयोग करके दर्शकों को एक नया अनुभव देने का प्रयास कर रहे हैं। आज के समय में दर्शक तकनीकी रूप से समृद्ध फिल्मों की अपेक्षा करते हैं, जिसे भारतीय सिनेमा बखूबी पूरा कर रहा है। आजकल फिल्मों में
LGBTQ+ समुदाय, मानसिक स्वास्थ्य, पर्यावरणीय मुद्दे, लैंगिक समानता और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दों को भी प्रमुखता दी जा रही है। उदाहरण के लिए, ‘अलीगढ़’ फिल्म में
LGBTQ+ अधिकारों को प्रमुखता से उठाया गया है, जबकि ‘तारे ज़मीन पर’ ने शिक्षा में बच्चों की मानसिक स्थिति पर ध्यान केंद्रित किया है। इस विषय पर कमलनयन काबरा लिखते हैं – विरोधाभास की वर्तमान दुनिया में जहां एक तरफ सारी दुनिया के आपसी जुड़ाव, समन्वय तथा एक छोटी सी बस्ती में तब्दील होने की बात की जा रही है, वहीं निपट निजतापूर्ण मानसिकता तथा दृष्टिकोण की जड़ें गहराती जा रही हैं । एक ओर विज्ञान, तकनीकी तथा सम्पदा और समृद्धि की ऊंचाईयाँ छूने की दौड़ तेज होती जा रही है । एक ओर ज्ञान युग में छलांगें मारने के दावे किए जा रहे हैं तथा सामाजिक, सांस्कृतिक विरासत से जन-जन की बढ़ती लोकप्रियता और लगाव के साथ और भी सम्भावनाएं बढ़ती जा रही हैं । दूसरी तरफ सामूहिक, राष्ट्रीय तथा व्यक्तिगत स्तर पर आपसी विद्वेष, हिंसा, घृणा और बर्बरता के नए आख्यान लिखे जा रहे हैं । वैचारिक तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा विस्तृत हो रहा है; परन्तु सत्ता, संपत्ति और चालबाजी; व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों स्तरों पर वैचारिक नियंत्रण से आगे बढ़कर विचार शून्यता का आलम फैलाते जा रहे हैं ।”6
भारतीय फिल्में अब कान्स, बर्लिन, और वेनिस जैसे प्रमुख फिल्म समारोहों में प्रदर्शित हो रही हैं, जिससे उनकी वैश्विक स्वीकार्यता और बढ़ रही है। इससे न केवल भारतीय सिनेमा को वैश्विक दर्शकों के बीच पहचान मिली है बल्कि इन फिल्मों के माध्यम से भारत की सांस्कृतिक विविधता और समाज का प्रतिनिधित्व भी हो रहा है।
नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, और डिज़्नी+ हॉटस्टार जैसे डिजिटल प्लेटफार्म्स ने भारतीय फिल्मों को एक नया मंच दिया है, जहाँ वे वैश्विक दर्शकों तक पहुँच पा रही हैं। इन प्लेटफार्म्स पर उपलब्ध भारतीय सामग्री को अमेरिका, यूरोप, और एशिया के अन्य हिस्सों में व्यापक दर्शक वर्ग मिल रहा है। इससे भारतीय सिनेमा की पहुंच को केवल सिनेमाघरों तक सीमित न रखते हुए उसे वैश्विक दर्शकों तक ले जाने का रास्ता खुला है। इन प्लेटफार्म्स ने न केवल नई फिल्मों को दर्शकों तक पहुँचाया है, बल्कि वेब सीरीज़ और लघु फिल्मों को भी एक नया जीवन दिया है। इससे भारतीय सिनेमा के कंटेंट में विविधता और गुणवत्ता बढ़ी है, क्योंकि अब कलाकारों और निर्माताओं को नई और अनूठी कहानियाँ दिखाने का मौका मिल रहा है।
भारत के बाहर भी अब भारतीय फिल्मों का बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन देखने को मिल रहा है। ‘बाहुबली’, ‘आरआरआर’, और ‘केजीएफ’ जैसी फिल्मों ने दुनियाभर में करोड़ों की कमाई की और भारतीय फिल्मों के प्रति वैश्विक दर्शकों का आकर्षण बढ़ाया। इन फिल्मों में भव्यता, उत्कृष्ट दृश्य, और दिलचस्प कहानी ने दर्शकों को प्रभावित किया है। इसने यह साबित कर दिया है कि भारतीय फिल्में न केवल घरेलू स्तर पर बल्कि वैश्विक स्तर पर भी सफल हो सकती हैं।
हिंदी सिनेमा की शुरुआत 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में हुई थी, और इसका पहला बड़ा परिवर्तन
1930 के दशक में आवाज़ के आने के साथ हुआ, जिससे फिल्में संवाद और संगीत के माध्यम से दर्शकों के और भी निकट आईं।
1950 से
1980 के दशकों में हिंदी फिल्मों का मुख्य आकर्षण भावनात्मक और नैतिकता आधारित कथानक रहा, जिसमें नायक की छवि एक आदर्शवादी व्यक्ति के रूप में स्थापित होती थी।
1990 के दशक में सिनेमा की पहचान रोमांटिक और मसाला फिल्मों के रूप में बन गई जहाँ प्रेम, परिवार, और नृत्य तथा गाने पर अधिक जोर था । अनुपम खेर ने अमर उजाला को दिए अपने साक्षात्कार में सच ही कहा है - “मेरा मानना है कि हर दशक में सिनेमा की शक्ल में परिवर्तन आता है । मेरा मानना है कि दर्शकों की मानसिकता बदलती है तो सिनेमा भी बदलता है । हिन्दी सिनेमा में बदलाव को हमें इसी ऐंगल से देखना चाहिए । हमारा समाज बदल रहा है । साहित्य की तरह हमारी फिल्में भी हमारे समाज का आईना हैं । समाज में आए परिवर्तन को फिल्मों के माध्यम से जाना जा सकता है ।”7
हालांकि,
1990 के दशक के अंत में और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में, हिंदी फिल्मों में बदलाव का दौर आया। इस समय का सिनेमा अब सामाजिक मुद्दों, व्यक्तिगत संघर्षों, और यथार्थवादी कथानकों पर केंद्रित होने लगा। दर्शकों ने महसूस किया कि फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं हैं, बल्कि वे सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता फैलाने का माध्यम भी बन सकती हैं।
इक्कीसवीं सदी के हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी पहचान यह है कि इसने अपने कथानकों में विविधता और यथार्थवाद का समावेश किया है। आज की हिंदी फिल्में केवल नायक-नायिका के रोमांस और नृत्य तक सीमित नहीं हैं; वे व्यक्तिगत और सामाजिक मुद्दों पर भी खुलकर बात करती हैं । डॉ0 शैलजा भारद्वाज सच ही कहती हैं कि - “सिनेमा आज समाज को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला कलारूप है । सिनेमा ने आधुनिक सामाजिक मूल्यों आधुनिक वैचारिकी और कलात्मक सुरुचि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । कहा जाता है कि जिस देश का जैसा साहित्य होगा वैसा वहाँ का समाज होगा । आज के परिदृश्य में कह सकते हैं कि जिसका सिनेमा जैसा होगा वैसा वहाँ का समाज बनेगा ।”8
‘तारे ज़मीन पर’
(2007) जैसी फिल्मों ने बाल मनोविज्ञान और शिक्षा प्रणाली पर गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। इस फिल्म ने विशेष शिक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया और समाज को यह सोचने पर विवश किया कि हर बच्चा विशेष होता है और उसकी सीखने की क्षमता भिन्न हो सकती है। ‘पिंक’
(2016) ने महिला सुरक्षा और सहमति जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर समाज को जागरूक किया। इस फिल्म में एक साधारण-सी बात को मुख्य रूप से उठाया गया कि
"न का मतलब न होता है।"
‘गली बॉय’
(2019) जैसी फिल्में युवाओं के संघर्ष, सपनों और उनके स्वयं के प्रति आत्म-विश्वास की कहानी हैं। यह फिल्म भारतीय स्लम्स में रहने वाले युवाओं के संघर्ष और उनके सपनों को दर्शाने का एक प्रयास थी। इन फिल्मों में पारंपरिक हिंदी सिनेमा से हटकर यथार्थवादी और संवेदनशील विषयों का चित्रण हुआ, जो समाज में व्याप्त विभिन्न समस्याओं पर केंद्रित थीं। यह न केवल हिंदी सिनेमा के प्रति दर्शकों की धारणा में बदलाव का संकेत था, बल्कि भारतीय समाज के प्रति बदलते नजरिए का भी प्रतीक था।
हिंदी सिनेमा में तकनीकी प्रगति भी 21वीं सदी की एक प्रमुख विशेषता है। अब फिल्में डिजिटल उपकरणों, वीएफएक्स और हाई-डेफिनिशन कैमरों का उपयोग करके बनाई जाती हैं, जो दर्शकों को एक अद्भुत अनुभव प्रदान करती हैं। कंप्यूटर ग्राफिक्स और विशेष प्रभावों ने फिल्मों की दृश्य-भव्यता को बढ़ाया है।
अशोक कुमार तकनीकी के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं कि - “डिजिटल तकनीकी आ जाने से हमारी फिल्मों में गजब का निखार आया है। दिल्ली के सबसे पुराने सिनेमा हाल रीगल में आज भी पुरानी पारंपरिक प्रोजेक्शन तकनीकी है। इसलिए आज भी वहाँ फिल्म देखने जाइए तो पुराने दिन याद आ जाते हैं । जहाँ कई बार पिक्चर और साउण्ड में तालमेल न होने पर दर्शक हो हल्ला कर देते थे । कई बार साउण्ड गायब हो जाता था तो कभी सिर्फ आवाज ही सुनने को मिलती थी । यहाँ कई डिजिटल प्रोजेक्शन वाले हाल हैं जहाँ फर्क साफ नजर आता है । नई पीढ़ी तो ऐसे ही सिनेमा घरों में आना पसन्द कर रही है ।”9
‘रावन’
(2011) जैसी फिल्मों में हाई-एंड वीएफएक्स का उपयोग हुआ, जबकि ‘बाहुबली’
(2015, 2017) जैसी फिल्में भव्यता और तकनीकी गुणवत्ता का एक अद्वितीय उदाहरण है। ‘बाहुबली’ में वीएफएक्स के प्रभाव ने इसे भारतीय सिनेमा में एक मील का पत्थर बना दिया। इस फिल्म ने यह साबित किया कि भारतीय सिनेमा में तकनीकी और दृश्य प्रभावों के साथ भी वैश्विक मानकों की फिल्मों का निर्माण किया जा सकता है। तकनीकी प्रगति के साथ, एडिटिंग, साउंड मिक्सिंग और बैकग्राउंड म्यूजिक में भी सुधार हुआ है। अब फिल्मों में ऑडियो-वीडियो गुणवत्ता का स्तर अंतरराष्ट्रीय स्तर का है, जिससे भारतीय सिनेमा को विदेशों में भी सराहा जा रहा है। डिजिटल कैमरा और एडिटिंग सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल से अब शूटिंग समय और लागत को कम किया जा सकता है, जिससे नए और स्वतंत्र फिल्मकारों को अपनी कहानियाँ कहने का अधिक अवसर मिल रहा है।
हिंदी सिनेमा ने इक्कीसवीं सदी में वैश्विक मंच पर अपनी उपस्थिति को सुदृढ़ किया है। ‘स्लमडॉग मिलेनियर’
(2008) जैसी फिल्मों ने ऑस्कर सहित कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते और विश्व भर में हिंदी सिनेमा की पहचान को मजबूती प्रदान की। हालाँकि यह फिल्म भारतीय निर्देशक द्वारा नहीं बनाई गई थी, लेकिन इसके विषय और कलाकार भारतीय थे, जिससे यह फिल्म भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व करती है। संजय गायकवाड़ हिन्दी फिल्मों पर विचार करते हुए बताते हैं कि “मनुष्य और पशु के बीच का भेद अच्छे-बुरे का, उचित-अनुचित का, करणीय-अकरणीय का विवेक साहित्य के कारण है । समाज विज्ञान में मानव-समाज की जो अवधारणा है, मानव समाज के जो तत्व हैं । रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान, उत्सव-त्योहार, भाषा आदि जो मानव समूह ने निश्चित विचार एवं चिन्तन प्रक्रिया के बाद निर्मित किए हैं वे मनुष्य को मनुष्येतर पशु-पक्षियों से अलग करते हैं । मानव ने समाज के विभिन्न क्षेत्रों में जो प्रगति की है; वह शिक्षा, तकनीकी, विज्ञान, खेलकूद, मनोरंजन, स्वास्थ्य, पर्यावरण, चिकित्सा पद्धति, अर्थशास्त्र, विविध संगठनों के रूप में क्यों न हो; उस प्रगति के मूल में जो समझदारी है, मूल्य हैं, विचार हैं, चिन्तन है उसे देखना चाहिए । मानव और समाज कैसे बेहतर बन सकता है यही मुख्य विचार रहा है ।” 10
हिंदी सिनेमा का अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने का यह प्रयास न केवल फिल्म निर्माताओं की रचनात्मकता और प्रयास को दर्शाता है, बल्कि दर्शकों के लिए भी एक नई दृष्टि प्रस्तुत करता है। अब हिंदी फिल्में सीमाओं को पार कर अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को भी आकर्षित कर रही हैं। इसने भारतीय सिनेमा को एक नई वैश्विक पहचान दी है, जो न केवल भारतीय दर्शकों तक सीमित है, बल्कि एक वैश्विक सांस्कृतिक राजदूत के रूप में कार्य करती है।
हिंदी सिनेमा की बदलती पहचान और उसका वैश्विक प्रभाव 21वीं सदी की सबसे प्रमुख उपलब्धियों में से एक है। इसने पारंपरिक विषयों से हटकर नई कहानियों, विविध पात्रों, और तकनीकी उन्नति के साथ अपने आप को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया है। तकनीकी प्रगति, विषयवस्तु में विविधता और वैश्विक मंच पर हिंदी सिनेमा की उपस्थिति ने इसे एक सशक्त माध्यम बना दिया है जो भारतीय समाज, संस्कृति, और जीवन की विविधताओं को दर्शाता है। राजकुमार हिरानी सच ही कहते हैं कि-
“फिल्में तो वही हिट होंगी जो इस देश के संस्कार और संस्कृति से जुड़ी होंगी । आप यह क्यों भूल जाते हैं कि हमारी वही फिल्में ओवरसीज में होती हैं जो हमारे यहाँ के दर्शकों को भी पसंद आती हैं। हमें हमेशा इस बात का खयाल रखना पड़ेगा कि हमारी फिल्मों के दर्शक; देश के बाहर सिर्फ अमेरिका, लंदन, आस्ट्रेलिया या इटली में नहीं बसते वरन हमें विश्व के सारे दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करना है ।” 11
इस प्रकार हम देखते हैं कि इक्कीसवीं सदी के
हिंदी सिनेमा की बदलती पहचान और उसके वैश्विक प्रभाव ने भारतीय सिनेमा को न केवल एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया है, बल्कि यह दर्शाता है कि हिंदी सिनेमा समाज और संस्कृति का एक प्रमुख दर्पण बनकर उभर रहा है।
संदर्भ :
- हिन्दी
आलोचना
की
पारिभाषिक
शब्दावली
– अमरनाथ
, पृष्ठ
सं0-
177
- जवरीमल्ल
पारख
: भूमण्डलीकरण
और
भारतीय
सिनेमा
, रमेश
उपाध्याय
संज्ञा
उपाध्याय
पृष्ठ
सं0-67
- सिनेमा
और
साहित्य
का
अन्तःसम्बन्ध
, डा0
चन्द्रकान्त
मिसाल
, पृ0सं0-
13 ।
- भारतीय
नया
सिनेमा
– सुरेन्द्र
नाथ
तिवारी
, पृ0
सं0-
49 ।
- संपादक
: धूमकेतु
जयप्रकाश
अभिनव
कदम
27 जून
– नवम्बर
2013 भूमण्डलीकरण एवं
भारतीय
किसानों
की
समस्याएं
डा0
माधवेन्द्र,
पृ0सं0-
231
- भूमण्डलीकरण
विचार
नीतियाँ
और
विकल्प
– कमलनयन
काबरा,
पृ0सं0-
5
- अनुपम खेर,
13 मई
शब्द
रील
दर
रील
बदलती
है
पिक्चर,
रविवार
अमर
उजाला
।
- साहित्य
और
सिनेमा
बदलते
परिदृश्य
में
संभावनाएं
और
चुनौतियाँ
– डा0
शैलजा
भारद्वाज,पृ0
सं0-
4
- संजय गायकवाड़,
– राष्ट्रीय
सहारा
नई
दिल्ली
, अप्रैल
2006 ।
- अशोक कुमार
से
फोन
पर
साक्षात्कार
रेडियो
पत्रकार
डायचे
वेले
( 14 अप्रैल2010)
- राजकुमार
हिरानी,
(19 सितम्बर, 2010 ) विश्व
बाजार
में
हिन्दी
फिल्में,
सैनिक
ट्रिब्यून,
नई
दिल्ली)
असि. प्रोफेसर (हिन्दी), लाल बहादुर शास्त्री पी.जी. कालेज, मुगलसराय,चंदौली
vinodhemayadav@gmail.com, 9621674298
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