सरल शब्दों में भूमंडलीकरण का अर्थ एक ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें समस्त विश्व को एक इकाई माना जाता है या यह कहा जा सकता है कि जिसमें सम्पूर्ण विश्व का एकीकरण हो जाए। यह एकीकरण आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक हर पक्ष का एकीकरण है। कुछ विद्वान समूचे विश्व को एक वैश्विक ग्राम या ग्लोबल विलेज की संज्ञा भी देते हैं, इसे ही वैश्वीकरण भी कहा जाता है। वर्तमान में यही वैश्विक ग्राम या यूँ कहें पूरा विश्व एक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है और यह परिवर्तन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक धरातलों पर अत्यंत तेजी से घटित होता दिखाई दे रहा है और निरंतर जारी है। कुछ प्रगतिशील विचारक वैश्वीकरण को एक षड्यंत्र मानते हैं उनके अनुसार अति विकसित और सुपर पावर देश द्वारा भूमंडलीकरण के बहाने या भूमंडलीकरण के नाम पर एक विचित्र-सी एक ध्रुवीय वैचारिकता का प्रसार किया जा रहा है और इस प्रकार सम्पूर्ण संसार को एक ध्रुवीय बनाकर विश्व राजनीति और आर्थिक व्यवस्था को निगल लेने का हित साधा जा रहा है। वैश्वीकरण के नाम पर अति विकसित और बड़े शक्तिशाली देश की यह भूमंडलीकरण की आर्थिक नीति द्वारा संसार के विकासशील, गरीब और निर्बल देशों की स्वायत्ता और सार्वभौमिकता को नष्ट करने की चेष्टा की जा रही है। किसी गरीब, विकासशील देश विशेष की सभ्यता और संस्कृति जो कि उस देश के समाज की जीवन शैली और परम्परा को निर्धारित करती है; पोषित करती है, उस समाज की बुनावट और ताने-बाने को भूमंडलीकरण के आर्थिक विधान द्वारा पूरी तरह तहस नहस करके विकसित राष्ट्र के वर्चस्व को हर राष्ट्र और समाज पर बलपूर्वक थोपने का प्रयास किया जा रहा है। यदि सीधे सरल और स्पष्ट वाक्य में कहा जाए तो भूमंडलीकरण की प्रक्रिया आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया है जोकि बाजारवादी नीति का परिणाम है। बाजारवादी नीति अर्थात एक ऐसी नीति जिसमें हर वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति, समाज और यहाँ तक कि राष्ट्र को भी एकमात्र वस्तु में रूपांतरित कर उसकी कीमत बाजार के अनुसार तय कर दी जाती है।
“वैश्विक आर्थिकता (इकॉनमी) का सबसे दुखद पक्ष जो पूरे विश्व के सामने आया है वह है पूंजी, धन का असमान वितरण। समस्त देशों में पूंजी का संकेन्द्रीकरण उच्च वर्ग में अधिकाधिक होता चला जा रहा है और गरीब और गरीब होते चले जाने के लिए अभिशप्त है।"1 इस प्रकार यदि भूमंडलीकरण को एक वर्चस्वादी और बाजारवादी आर्थिक व्यवस्था कहा जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि यह बाजारवादी आर्थिक व्यवस्था समाज के दृष्टिकोण से हानिकारक और एक अदृश्य किन्तु विद्यमान शोषण पर केन्द्रित है। वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व की सभ्यता और संस्कृति इसी बाजारवादी आर्थिक व्यवस्था के शोषण का शिकार हैं। इस व्यवस्था के शोषण के प्रभाव से लगभग सभी राष्ट्रों की सामाजिकता, रहन-सहन, वैचारिकता, साहित्यिक मान्यताएं और उनके सांस्कृतिक मूल्य तक भी बाजार के अनुकूल बदल गए हैं। आम जन को बेशक यह भ्रान्ति रहे कि उनके विचार उनके स्वयं के मौलिक विचार हैं या उनकी रुचियाँ, उनकी आवश्यकताएँ उनकी स्वयं की मौलिक हैं या पूर्ण रूप से व्यक्तिनिष्ठ हैं तो ऐसा बिल्कुल नहीं है ये सभी बाजार से प्रेरित और प्रभावित हैं।
सिनेमा का क्षेत्र भी इस बाजारवाद से अछूता नहीं रहा है और सिर्फ भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व का सिनेमा इस बाजारवाद से प्रभावित है। इसीलिए वर्तमान हिंदी सिनेमा का आकलन करना हो या हिंदी सिनेमा में लोक भाषा के प्रश्न की खोज करना हो, इनको भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से अलग रखकर देखा जाना संभव नहीं रह गया है।भूमंडलीकरण से उत्पन्न बाजारवाद ने सिनेमा की समूची कार्यशैली को प्रभावित किया है और सिनेमा के सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर प्रहार किया है।बाजारवाद ने निजी स्वार्थ को सम्बल प्रदान किया है जिससे सिनेमा भी सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का ध्वंस करते हुए अकूत धनोपार्जन की अंधी और अंतहीन दौड़ में शामिल हो गया है। अब सिनेमा समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को तिलांजलि देकर निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए येन-केन प्रकारेण, वैध-अवैध तरीकों से अधिक से अधिक धन जुटाने में जुट गया है। बाजारवाद ने सिनेमा को प्रभावित करने के लिए पहले दर्शक को भ्रष्ट किया, उसकी रुचियों को खंडित किया और अब दर्शक महज उपभोक्तावादी तत्व बनकर रह गया है और अन्ततः बाजारवाद ने भूमंडलीकरण के उद्देश्यों की सिद्धि में सफलता पा ही ली या यों कह लीजिए कि बाजारवाद ने सिनेमा को साधन बनाकर भारतीय समाज को पश्चिमी सांस्कृतिक उपनिवेश में तब्दील कर दिया। जब भारतीय दर्शक की अपनी रुचियों को पश्चिमी रुचियों ने प्रतिस्थापित किया तो भारतीय समाज पर पूरी तरह से मूल्यहीन उपभोक्तावादी संस्कृति हावी हो गयी और सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्य ढह गए। सिनेमा भारतीय जीवन शैली का निर्विकल्प हिस्सा है, किन्तु भूमंडलीकरण की इस आंधी ने इसे अपने आगोश में ले लिया है। इस कारण अब भारतीय सिनेमा पर बाजारवादी संस्कृति का प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित होता है। अब सिनेमा से समाज के गंभीर मुद्दे बाजारवाद के ग्रहण तले ढक गए हैं।
वर्तमान के सिनेमा का स्पष्ट सिद्धांत त्वरित कमाई है अर्थात अब सिनेमा की गुणवत्ता या प्रस्तुत फिल्म की गुणवत्ता उसकी कमाई पर निर्भर करती है। इसीलिए आज के दौर में फिल्मों का निर्माण कृत्रिम साधनों द्वारा कम मेहनत और अत्यंत कम समय में किया जाता है। ऐसे में अभिनेता/अभिनेत्री,निर्देशक और अन्य सभी लाभान्वित होते हैं किन्तु सिनेमा मर जाता है, सिनेमा में लोक सिनेमा मर जाता है, आम जन से जुड़ने वाला पात्र मर जाता है, सिनेमा में लोक भाषा का प्रश्न मर जाता है और साथ-साथ फिल्म का उद्देश्य, दर्शकों की अभिरुचि, जीवन मूल्य, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य आदि सभी मर जाते हैं। आज के सिनेमा में अधिकांश फ़िल्में एक अजीब, विचित्र, निरर्थक, उद्देश्यहीन, सस्ता मनोरंजन परोसने वाली और पश्चिम की उपभोक्तावादी जीवन शैली और मानसिकता को भारतीय समाज पर थोपती हुई नजर आती हैं। परन्तु कुछ एक फ़िल्में वास्तविक समाज का चित्रण उसकी कुरूपता एवं सुन्दरता के साथ करती हैं। और इसी सुन्दरता और कुरूपता के साथ समाज के ग्राह्य एवं त्याज्य योग्य मूल्य भी स्वतः इसके साथ चले आते हैं।
सिनेमा की अपनी एक विशिष्टता है, उसके पास श्रवण योग्य भाषा होने के साथ-साथ, अन्य कई प्रकार की भाषाएँ हैं जिससे सिनेमा और ज्यादा प्रभावशाली हो जाता है और वह समाज पर अपना गहरा असर छोड़ सकता है। ये भाषा है नायक-नायिका अर्थात फिल्म के अभिनेता एवं अभिनेत्री की भाव भंगिमाओं की जिससे जो भी पात्र भूमिका अदा कर रहा होता है वह न बोलते हुए भी बहुत कुछ कह जाता है।
इसी भाषा का जिक्र महाकवि बिहारी ने भी एक दोहे के माध्यम से किया है-
"कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत है, नैननु ही सो बात।।"2
इस शक्तिशाली भाषा का उपयोग सिनेमा ने जिस तरह किया है उसे दिखाने की शक्ति भी केवल सिनेमा में ही है। उसके अलावा किसी अन्य साधन के पास ये शक्ति नहीं है साहित्य बेशक इस भाषा की व्याख्या शब्दों द्वारा कर दे परन्तु इसका दृश्य विधान जिस प्रकार इसे दर्शकों के सामने प्रस्तुत करता है वह अनोखा है। यदि मैं भूमंडलीकरण के दौर में सिनेमा की लोक भाषा पर बात करूं तो हम देखते हैं कि भूमंडलीकरण के दौर में सिनेमा पर कई शक्तिशाली ताकतों का शिकंजा कसा हुआ है जिसके कारण सिनेमा की ताकत केवल निर्देशक या निर्माता के हाथ में न होकर अपितु विश्व के बाज़ार के हाथ में आ गयी। जिस प्रकार समानांतर सिनेमा की समस्त शक्ति निर्देशक के हाथ में होती थी वहीं भूमंडलीकरण के दौर के सिनेमा पर दृष्टि डालने पर हमें ज्ञात होता है कि यहाँ सिनेमा का संचालन अन्य बाहरी ताकतों द्वारा हो रहा है और ये ताकतें बाजार की है।
“भूमंडलीकरण मूलतः एक व्यापार की प्रक्रिया है जिसका प्रभाव प्रत्येक देश में देखा जा सकता है। हिंदी सिनेमा में भूमंडलीकरण का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। इस दौर में घोर व्यावसायिक फिल्मों का निर्माण हुआ है जिसका एक मात्र उद्देश्य था पैसा कमाना। इस समय में नायक और नायिका के बीच प्रेम दृश्य को फिल्माते हुए कदम-कदम पर गीतों से फिल्मों को भर देने के कारण बहुत आलोचनाएँ हुई। सिनेमा मात्र मनोरंजन और व्यवसाय नहीं है उसकी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी है, परन्तु जिनका धर्म ही व्यवसाय करना हो उन्हें सामाजिक सरोकार से क्या लेना।”3
भूमंडलीकरण के बाद की फिल्मों में यदि हम लोक भाषा के स्वर तलाशने का प्रयास करें तो वह कोयले की खान में हीरे को ढूंढने जैसा होगा। क्योंकि इस दौर के सिनेमा ने सामाजिक समस्याओं आदि का विश्लेषण करने की बजाय सिनेमा के माध्यम से संस्कृति में ही परिवर्तन लाने का निर्णय किया यदि हम विचार करें तो पाएंगे कि यह सिनेमा समाज का प्रतिबिंब या दर्पण न होकर समाज को सुहाने सपनो भरी दुनिया में न केवल ले जाता है अपितु समाज को पश्चिमी सभ्यता को अपनाने की हिदायत भी देता है। यदि मैं लोकभाषा की बात करूँ तो लोक भाषा समाज की एक निश्चित इकाई की अपनी भाषा है, जिसे एक समाज अपने संस्कारों के परिणामस्वरुप जीवन में अपनाता है और जीवन पर्यंत उसका वहन करता है। शायद इसी लोक भाषा का जिक्र करते हुए नेल्सन मंडेला कहते हैं- “यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जो वो समझता है तो बात उसके दिमाग में जाती है लेकिन यदि आप उससे उसकी भाषा में बात करते हैं तो बात सीधे उसके दिल तक जाती है।”
ये लोक भाषा दिल की आवाज है जिसे देखकर अथवा सुनकर व्यक्ति उसमें अपनी जीवन गाथा के स्वर तलाश करने लगता है। परन्तु भूमंडलीकरण के बाद हम देखते हैं कि ये स्वर सिनेमा से लगभग गायब हो गए। उसके स्थान पर अंग्रेजी के शब्दों का भंडार हिंदी सिनेमा में आ गया और परिणामस्वरूप घर के बड़े बुजुर्ग जो अंग्रेजी शिक्षा से अनभिज्ञ हैं वे इस सिनेमा से खुद को कटा हुआ महसूस करने लगे। इस न्यू सिनेमा ने युवा मन को जरुर मोहित किया इसलिए चाहे फिर वो ‘कुछ-कुछ होता है’ का राहुल हो या फिर ‘मुन्ना भाई ऍम.बी.बी.एस’ का मुन्ना दोनों के संवाद ‘राहुल, नाम तो सुना होगा’ 4 और ‘जादू की झप्पी’, 5 क्रमशः युवा दिल पर काफी समय तक छाए रहे। जहाँ एक ओर इस दौर का सिनेमा बाहरी चमक धमक में लिप्त और डूबा हुआ दिखाई पड़ता है वहीं कुछ फ़िल्में समानान्तर सिनेमा की भांति ही मानवीय मूल्यों और सामाजिक सरोकारों को दिखाने का प्रयत्न करती हैं और इस सिनेमा की भाषा ने चमत्कार उत्पन्न करने के लिए अंग्रेजी भाषा को चुनने के स्थान पर अपनी लोक भाषा से दर्शकों के दिल में न केवल पैठ बनाई बल्कि कम बजट की इन फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर भी वाह वाही हासिल की। इन फिल्मों में लोकभाषा के प्रश्न को हम देख सकते हैं। उनमें प्रमुख हैं-
साल 2001 में आई ब्लाक बास्टर फिल्म ‘लगान’ जिसके नायक ‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’ कहे जाने वाले प्रसिद्ध अभिनेता आमिर खान हैं। इस फिल्म में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते जुझारू गरीब किसान दिखाई देते हैं जो लगान माफ़ कराने के लिए क्रिकेट मैच खेलते हैं और अंग्रेजों को हार का अस्वादन कराते हैं। इस हार का स्वाद यूँ तो हमारे स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा अंग्रेजों को कई बार कराया गया है परन्तु बची खुची जो भी टीस भारतीयों के मन में थी उसकी पूर्ति यह फिल्म करती है। यह फिल्म कथानक की दृष्टि से तो सफल है ही परन्तु भाषा के स्तर से भी यह फिल्म चुस्त संवाद को जन्म देती है। फिल्म की कहानी चंपानेर रियासत के एक गाँव की कथा है जिसमें विद्रोह एवं प्रतिशोध के साथ-साथ नाच गाना, संगीत और त्रिकोणात्मक प्रेम शामिल है। लोक भाषा से कसी हुई यह फिल्म भाषा के नए-नए रंगों का उद्घाटन कभी संवाद तो कभी गीतों के माध्यम से करती है;
1."चूल्हन से रोटी निकालने के लिए, चिमटे को अपना मुंह जलाहे पड़ी "6
2. "हमारा पसीना हमारे तन में खून बन के दौड़ेगा"7
3.“कोई मुश्किल नहीं है टीपू, गोरे पतलून पहिन के इ खेल का क्रिकेट कहत है और हम लँगोटी बाँध के गिल्ली डंडा” ...अरे हमारबाप दादा खेलत न रही गिल्ली डंडा”8
फिल्म की कथा न केवल अंग्रेजों के खिलाफ होने वाले मैच को दर्शाती है बल्कि इसके साथ ही ‘कचरा’ (अछूत) पात्र के माध्यम से आपसी वैमनस्यता को समाप्त करने की ओर भी इशारा करती है। " दूध पर छूत अछूत की छाप लगाई कै दूध तो भ्रष्ट कर रए ओ सारे गांव की सांस इस छूत-अछूत के धुएं से काहे घोट रहे मुखिया जी" 9 इन सभी डायलॉग के माध्यम से हमें फिल्म की भाषा जो मध्य भारत की अवधि भाषा के निकट ठहरती नजर आती है। अपने सपूर्ण कलेवर के साथ संवादों को कसती नजर आती है।
इसी क्रम में वर्ष 2005 में आई फिल्म 'पहेली' व्यवसाय के स्तर पर ज्यादा कामयाब तो नहीं हुई परन्तु अपने विशेष कथानक के कारण ये फिल्म एक अलग स्थान रखती है। यह फिल्म राजस्थान की भूमि में फलती-फूलती नजर आती है। इस फिल्म में राजस्थानी संस्कृति के साथ-साथ जामनगर के पास के इलाके की भाषा का प्रयोग पूरी तरह न होकर कुछ हिंदी स्वरूप लिए हुए जरुर हुआ है।
1."प्रीत का बवंडर किसी के रोके नहीं रुकता"10
“थारे से ज्यादा सुन्दर और म्हारे से ज्यादा भाग्यवान संसार में कोई न होगा”11
राजस्थान की मरुभूमि से निकली ये ‘पहेली’ फिल्म राजस्थानी में विजयदान देथा द्वारा लिखी गयी लघु कहानी पर आधारित है इसके साथ ही यह फिल्म 1973 की मणि कौल की दुविधा फिल्म की रीमेक है। यह जानकर मुझे प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत याद आ गया जिसके अनुसार : कला अथवा काव्य को सत्य से तीन गुना दूर मानकर उसके मूल्य को कम आँका गया। इसी प्रकार यह फिल्म भी एक लघु कहानी की नक़ल 1973 की दुविधा फिल्म की भी नक़ल है। बेशक यह फिल्म ज्यादा टिकेट न कलेक्ट कर पायी हो परन्तु भाषा की महत्वता से ये बनी एक अनोखी पहेली ही है।
वर्ष 2010 में आई फिल्म 'पीपली लाइव' सरकार के कर के बोझ से दबकर विवश एक दलित किसान द्वारा केवल एक मार्ग अपनाने वह है ‘आत्महत्या’ के मार्मिक विषय को व्यंग्य, हंसी ठिठोली का चोला ओढाकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत करती है। यह फिल्म अनुषा रिज़वी के निर्देशन में बनी है, और इसके निर्माता आमिर खान हैं। फिल्म की कहानी बड़े ही अद्भुत और हास्य तरीके से नत्था और बुधिया की कहानी कहती है और जिनकी जमीन बैंक वाले हड़प कर ले जायेंगे क्योंकि उनसे बैंक का लोन नहीं भरा गया। इसी समस्या के हल के लिए वे एक नेता के पास जाते हैं, वह भी यहाँ अपना फायदा खोज लेता है और वोट हासिल करने के लिए वह कहता है कि सरकार तुम्हारे जीते जी तो तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर पायेगी इसलिए यदि तुम आत्महत्या कर लो तो शायद कुछ हो सकता है। क्योंकि वोट के लालच से मरे हुए किसान भाइयों के कर माफ़ कर दिए जाते हैं और उनके परिवारों वालों को भी आर्थिक मदद दी जाती है। बुधिया जो उसका भाई है वह बहुत चालाक है और वह किसी तरह नत्था को आत्महत्या करने के लिए मना लेता है। परन्तु ये बात किसी तरह मीडिया में चली जाती है और मीडिया वाले कैमरा और माइक लिए नत्था के घर के आस पास इकठ्ठे हो जाते हैं और कर्ज में डूबे किसान के दुःख और विषाद में लिया आत्महत्या का निर्णय मीडिया के लिए केवल एक नई स्टोरी है जिसे उन्हें किसी भी तरह अपने-अपने चैनल पर प्रदर्शित करना है।
"पीपली लाइव' ऐसे लोगों की कहानी है जिन्हें साहित्य में हाशिये का समाज कहा जाता है। किसान, मजदूर, श्रमिक जिस तरह से लगातार फिल्मों से गायब हुए हैं उस लिहाज से आमिर खान का यह प्रयास सराहनीय है। हिंदी सिनेमा में यही एक ऐसा समाज है जिसे परदे पर लाने की हिम्मत कोई नहीं करता लेकिन आमिर खान ने ऐसे विषय को प्रोत्साहित करना आरम्भ किया है जिसका सीधा-सीधा सामाजिक सरोकार है।"12 पिपली लाइव के जरिये समाज की उस खोखली और स्वार्थी सोच का पता चलता है जिसमें किसी की जान को भी अपने फायदे के लिये भुनाया जाता है । यहाँ एक गरीब लाचार दलित किसान के जीवन की कोई कीमत नहीं वह इंसान न होकर एक वोट है बस इसके अलावा कुछ नहीं। "दरअसल सवाल यहाँ नत्था की मौत का नहीं सवाल हमारे सरोकारों का है, जिसमें राजनेता से लेकर खबरिया चैनल के संवाददाता तक की संवेदनाएं मर चुकी हैं ।"13
"बुधिया जी आपके भाई नत्था आत्महत्या करने जा रहे है, आप इस वक्त कैसा महसूस कर रहे हैं"
"रे भाई वो अब बच्चा थोड़े ही है जो कर रहा है अपनी मर्जी से कर रहा है हम थोड़े हो सिखाये है, ओउर फिर आदमी अपनी औलाद के लिए का नहीं करता"
"अम्मा मर जाइये तबहूँ न चुप रहिये"14
"काहे रे तेरा दिमाग ख़राब हो गो है का, जिन्दा रह के तो कछु करौ न है अब मरके क्या कर ले है"15
फिल्म गाँव के सादे जीवन को, लोक भाषा के जरिये दर्शकों के बीच इस प्रकार प्रस्तुत करती है कि शहर में रहने वाला व्यक्ति भी, जिसका इस भाषा से कोई रिश्ता नहीं है उसकी जुबान पर भी लोक भाषा की सुगन्धित मिट्टी में लिपटे शब्द जन-जन की जुबान पर आ जाते हैं। फिल्म के इन संवादों के जरिये हम भाषा के स्तर को देख सकते हैं जिसमें गाँव की बोली के साथ उस भाषा की संस्कृति भी भाषा के साथ ही खिचीं चली आती है। फिल्म की भाषा ही है जो फिल्म में कसावट लाती है और पीपली लाइव फिल्म की भाषा भोले-भाले किसान और गाँव वालों के जरिये हिंदी जन भाषी के बीच अपनी विशेष पहचान बनाती है।
साल 2012 में आई 'पान सिंह तोमर' जिसमें इरफ़ान खान ने बेहद खुबसूरत ढंग से न केवल पान सिंह तोमर की भूमिका निभाई बल्कि ऐसा लगता है जैसे उन्होंने उस चरित्र को जीवित कर दिया हो। यह फिल्म सत्य घटनाओं पर आधारित है जिसमें मध्य प्रदेश के एक गाँव के फौजी की कथा है यह कथा बेशक उसके घर की आपसी लड़ाई से एक विकराल रूप धारण कर लेती है परन्तु इस कथा का प्रारंभ आधुनिक भारत के निर्माण से हो जाता है। जब स्थानीय पत्रकार द्वारा पान सिंह तोमर (इरफ़ान खान) से यह पूछा जाता है की तुमने सर्वप्रथम बंदूक कब उठाई तो जवाब में वह कहता है–"अंग्रेज भागे इस मुल्क से बस उसके बाद पंडित जी परधानमंत्री बन गए, और नव भारत के निर्माण के संगे संगे हमओ भी निर्माण शुरू भयो।"16
यह फिल्म अपने साथ पान सिंह तोमर की कथा के साथ भारत अथवा भारत के नायकों द्वारा दिखाए गए सपनों अथवा उनके आर्थिक मॉडल की भी पोल खोलती नजर आती है। मजबूत और बेसहारा सिने कथा के बाद यदि बात हम इस फिल्म की भाषा की करें तो वह अपने आप में एक अचूक बाण की तरह दर्शकों के हृदय पर अति गहरा घाव छोड़ जाती है।
" बाप ने मारी मेंढकी और बेटा तीरंदाज हैं? तुम्हारे बाप तो जंग पे ना गए कभी ।"17
"अरे तू पूरो पत्रकार बन गओ है कि ट्रेनिंग पे है? जे इलाके का होके भी पतो नहीं है ? बीहड़ में बागी होते हैं डकैत होते हैं पाल्लायामेंट में।"18
मध्यप्रदेश के एक अंचल की भाषा का प्रभाव इतना गहरा पड़ा कि हर युवा को पान सिंह तोमर के साथ सहानुभूति हो गयी। कहते हैं शब्द कभी नहीं मरते वे सदा ब्रह्माण्ड में विचरण करते रहते हैं । इसी प्रकार इस फिल्म ने क्षेत्रीय भाषा अथवा लोक भाषा को सदा के लिए जीवित कर दिया या यूँ कहें कि हमेशा के लिए अमर कर दिया। ऊपर दिए गए संवादों को आप यदि गौर से देखेंगे तो इनमें कहीं भी आपको बनावटीपन नजर नहीं आएगा। फिल्म देखने पर भी ऐसा प्रतीत होता है कि इरफ़ान खान जिन्होंने पान सिंह तोमर की दमदार भूमिका अदा की है का सम्बन्ध शायद मध्य प्रदेश से हो इसलिए इस भाषा पर उनकी इतनी पकड़ दिखाई देती है परन्तु हम सभी जानते हैं कि उनका सम्बन्ध राजस्थान से है। कुल मिलाकर ‘पान सिंह तोमर’ भाषाई स्तर पर उच्च गुणवत्ता लिए हुए है और हिंदी सिनेमा की भाग दौड़ में जहाँ निर्देशक, लेखक, अभिनेता आदि भाषा के स्तर को नीचे गिरा रहे हैं वहीं यह फिल्म हिंदी भाषा के क्षेत्रीय शब्दकोष को और धनी करती है।
साल 2015 में आई फिल्म 'मांझी : द माउन्टेन मैन' केतन मेहता के निर्देशन में नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, और तिग्मांशु धूलिया के अभिनय से सफलता हासिल करती हुई दशरथ मांझी जैसे एक सामान्य व्यक्ति की शक्तिशाली प्रेम गाथा है। यह फिल्म प्रेम के ऊँचे प्रतिमान गढ़ती नजर आती है। जहाँ वेस्टर्न कल्चर के प्रभाव में प्रेम का स्थान शारीरिक उपभोग ने ले लिया वहीं प्रेम के नए प्रतिमान को गढ़ती यह फिल्म न केवल प्रेम को बल्कि मेहनत, लगन, कुशलता, दृढ संकल्प को भी सिनेमा पर उतारती है। आप अपनी इच्छा शक्ति के दम पर विपरीत परिस्थितियों में भी मुश्किल से मुश्किल काम कर सकते हो यह फिल्म इसी कथन को चरितार्थ करती नजर आती है। फिल्म एक साथ फ्लैशबैक और वर्तमान को लेकर आगे बढती है। पत्नी की मृत्यु के बाद प्रारंभ होता है दशरथ मांझी के जीवन का असली युद्ध और वो साधारण कद काठी वाला व्यक्ति निकल पड़ता है अकेले एक पहाड़ से टक्कर लेने। फिल्म में ये सभी दृश्य अपनी सरलता और ग्रामीण परिवेश के कारण सजग हो उठे हैं । बिहार की भाषा में जो रस है वह इस फिल्म में गया जिले के अंचल में अपनी पूरी मिठास के साथ आया है।
“बहुत अकड़ है तोहरा में, देख कैसे उखाड़ते हैं अकड़ तेरी”19
“भगवान के भरोसे मत बैठिये, का पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो!”
“प्रेम में बहुत बल है।”
“बहुतै बड़ा दंगल चलेगा रे तोहर हमार”
“पहाड़ तोड़े से भी ज्यादा मुश्किल है का”
“ले फिर आ गये, सब राज़ी ख़ुशी, हां... तोहरे को का लगता था की नहीं लोटेंगे, गलत! जब तक तोड़ेंगे नहीं तब तक छोड़ेंगे नहीं ”20
इस सरल, निश्छल और अकुटिल भाषा का ही प्रभाव है कि मांझी की कहानी घर-घर तक उसकी खुद के भाषा संस्कारों को लेकर पहुँचती है और मानव मन को कचोट कर रख देती है। इस भाषा का कोमल प्रभाव ही है जो बिहार की भौगोलिक परिधि से बाहर भी लोगों को प्रभावित करता है और लोग मांझी के जरिये इस भाषा के भी करीब आ जाते है। इस भूमण्डलीकृत सिनेमा के दौर में मांझी की भाषा बहुत सरल, निश्छल, अकुटिल है जो सोये हुए हिंदी सिनेमा को सजग बनाने की कोशिश करती है।
निष्कर्ष : निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भूमण्डलीकरण ने सिनेमा के स्वरूप में बड़े स्तर पर परिवर्तन किया है और सिनेमा को कई रूपों में बांट दिया है। सिनेमा का यह विभाजन उसके अलग-अलग धाराओं में बंट जाने का विभाजन है जैसे- पूर्णतः कमर्शियल सिनेमा, सेमीकमर्शियल सिनेमा, और नॉनकमर्शियल सिनेमा पूर्णतः कमर्शियल सिनेमा में लोक भाषा सामान्यतः नदारद है और सेमीकमर्शियल सिनेमा में कहीं-कहीं किसी छोटे पात्र द्वारा लोक भाषा का प्रयोग किया गया है। किन्तु जब नॉनकमर्शियल सिनेमा की बात आती है जिसके अंतर्गत समानांतर सिनेमा को रख सकते हैं वहां लोक भाषा का परचम छाया हुआ है बस यहां कुछ संशोधन की गुंजाइश जरूर है वो भी मात्र इतनी कि लोक भाषा को गलियों की भाषा ना सिद्ध किया जाए हालाँकि इस प्रकार के उदाहरण बहुत कम हैं फिर भी इस ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
भारत में जब से वेबसीरीज की लोकप्रियता बढ़ी है तब से यह बिंदु अधिक चिंतनीय और विचारणीय हो गया है क्योंकि अधिकांश वेबसीरीज में लोक भाषा को गालियों की भाषा लगभग सिद्ध किया ही जा चुका है। परन्तु इसके बावजूद समानांतर सिनेमा की लीक पर चलता एक और सिनेमा है जो कम बजट में ही अपनी फिल्मों का निर्माण करके भारतीय लौकिक भाषा को बचाए हुए है। आज भूमंडलीकरण के प्रभाव ने बेशक अंग्रेजी को इंटरनेशनल भाषा बना दिया हो परन्तु भारत का बौद्धिक वर्ग लगातार अपनी भाषा अस्मिता को बचाए रखने के लिए प्रयासरत है इसी कारण आज मैकडोनैल्ड संस्कृति को अपनाने के बावजूद भी यदि ‘दम लगा के हईशा’, पीपली लाइव, या ‘ड्रीमगर्ल’ जैसी फिल्म को देखने के लिए सिनेमा हॉल की सीटे खचाखच भर जाएँ तो समझिए फिल्म में कुछ तो बात है और सबसे बड़ी बात यदि इस भाग दौड़ की जिंदगी में यदि इन फिल्मों का एक चरित्र या लौकिक भाषा के कुछ शब्द भी मनुष्य को याद रह जाए तो समझे की फिल्म कामयाब हुई क्योंकि आज की भागती दौड़ती जिंदगी में वही फ़िल्में याद रहती है जो दिल में उतर जाती है। इसी तरह ऐसी कई फ़िल्में रही जिन पर भूमंडलीकरण का प्रभाव नहीं पड़ सका या यूं कहा जाए की भूमंडलीकरण के प्रभाव से बच गई। आज हमें बहुत जरूरत है कि हम अपनी भाषा के गौरव को बचाए रखने के लिए सिनेमा की शक्ति को समझे और कैमरे की लाइट को फिर से अपनी खुद की मिट्टी में रचे किसी अंश पर जाकर ठहरा दे जहाँ केवल लोक भाषा की खुशबू हो।
संदर्भ :
1.
पुष्पपाल सिंह, भूमंडलीकरण और हिन्दी उपन्यास, पहला संस्करण, 2012, पृ. 32
2.
डॉ. हरिचरण शर्मा, विहारी सतसई, श्याम प्रकाशन, संस्करण, 2007, पृ. 186
3.
डॉ. रमा, हिन्दी सिनेमा में साहित्यिक विमर्श, दूसरा संस्करण, हंस प्रकाशन, पृ. 22
4.
कुछ कुछ होता है, निर्देशक-करन जौहर
5.
मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस., निर्देशक-राज कुमार हिरानी
6.
लगान, निर्देशक- आशुतोष गोवारिकर
7.
लगान, निर्देशक- आशुतोष गोवारिकर
8.
लगान, निर्देशक- आशुतोष गोवारिकर
9.
लगान, निर्देशक- आशुतोष गोवारिकर
10.
पहेली, निर्देशक- अमोल पालेकर
11.
पहेली, निर्देशक- अमोल पालेकर
12.
हिन्दी सिनेमा में साहित्यिक विमर्श, दूसरा संस्करण, डॉ. रमा, हंस प्रकाशन , पृष्ठ 89
13.
अटल तिवारी, पीपली लाइव : गंभीर बीमारी और सतही इलाज समसामयिक सर्जन,अक्टूबर,मार्च, 2012-13, पृष्ठ 308
14.
पीपली लाइव, निर्देशक-अनुषा रिजवी
15.
पीपली लाइव, निर्देशक-अनुषा रिजवी
16.
पान सिंह तोमर, निर्देशक-तिग्मानसु धुलिया
17.
पान सिंह तोमर, निर्देशक-तिग्मानसु धुलिया
18.
पान सिंह तोमर, निर्देशक-तिग्मानसु धुलिया
19.
मांझी द माउंटेन मैन, निर्देशक-केतन मेहता
20.
मांझी द माउंटेन मैन, निर्देशक-केतन मेहता
सहायक ग्रन्थ :
1. पारख जवरीमल, हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र, शिल्पी प्रा- लिमिटेड, नई दिल्ली
2.
विनोद भारद्वाज, समाज और सिनेमा, प्रवीन प्रकाशन
3.
कृष्ण देव उपाध्याय, लोक साहित्य की भूमिका, साहित्य भवन प्रा. लि. इलाहाबाद
4.
विनोद भारद्वाज, सिनेमा कल आज कल, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
5.
डॉ. किशोर वासवानी, सिनेमाई भाषा और हिन्दी संवादों का विश्लेषण , हिंदी बुक सेंटर
सहायक प्राध्यापक
मिहिर भोज पी.जी. कॉलेज, दादरी, ग्रेटर नोएडा, गौतम बुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश
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