शोध आलेख : हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर भारत का प्रतिनिधित्व एवं संभावनाएं / प्रदीप त्रिपाठी

हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर भारत का प्रतिनिधित्व एवं संभावनाएं
- प्रदीप त्रिपाठी


शोध सार : विषयवस्तु की दृष्टि से सिनेमा को देखें तो इसका इतिहास बहुत ही समृद्ध एवं सशक्त रहा है। सौ वर्षों से अधिक की यात्रा के पश्चात् आज सिनेमा का अलग-अलग दृष्टियों से मूल्यांकन किया जा रहा है। पूर्वोत्तर भारत के परिप्रेक्ष्य में यदि हम हिंदी सिनेमा के अतीत को देखें तो इस दिशा में बहुत संतोषजनक स्थिति नहीं दिखती है। डिजिटल मीडिया एवं समाचार पत्रों के जरिये आम जनमानस में उत्तर पूर्व की तस्वीर को ठीक ढंग से प्रस्तुत नहीं किया गया। ज्यादातर खबरें नकारात्मक संदर्भों पर ही केंद्रित दिखती हैं, दरअसल यह पूर्वोत्तर भारत की असल तस्वीर नहीं है। धर्म, दर्शन, भाषा, साहित्य एवं समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बावजूद हिंदी सिनेमा में भी उत्तर पूर्व का समाज हाशिए पर ही रहा है, यह एक चिंतनीय तथ्य है। प्रस्तुत शोध-पत्र के माध्यम से हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर भारत के समाज की उपस्थिति का अन्वेषण किया गया है। इसके अलावा हिंदी सिनेमा के विकास में पूर्वोत्तर भारतीयों के योगदान को भी रेखांकित करने की कोशिश की गई है।

बीज शब्द : सिनेमा, पूर्वोत्तर भारत, लोकवृत्त, लोक-संस्कृति, हिंदी, आदिवासी, अस्मिता, उत्तर-पूर्व

शोध-प्रविधि: प्रस्तुत शोध-पत्र का लेखन सिनेमा के मूलपाठ एवं सर्वेक्षण पर आधारित है, इस दृष्टि से यह शोध-पत्र गुणात्मक शोध की श्रेणी में आता है। प्रस्तुत शोध-पत्र में मुख्य रूप से आलोचनात्मक, विश्लेषणात्मक एवं सर्वेक्षणात्मक शोध-पद्धतियों का प्रयोग किया गया है।

विषय-विश्लेषण : समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एवं विषयगत विविधता के बावजूद हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर भारत की उपस्थिति आज भी उपेक्षित है। अखबारी सूचनाओं एवं मीडिया तंत्रों के द्वारा पूर्वोत्तर भारत की असल तस्वीर को कभी भी यथार्थ रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया। इसी कारण उत्तर पूर्व के राज्यों के संदर्भ में शेष भारत का नजरिया आज भी सकारात्मक नहीं बन पाया है। साहित्य और सिनेमा की दृष्टि से देखें तो इन दोनों जन-माध्यमों का जुड़ाव आज भी पूर्वोत्तर भारत से उस रूप में नहीं है, जैसा होना चाहिए। यह एक गंभीर और विचारीय प्रश्न है। साहित्य और सिनेमा दोनों ऐसे जन-माध्यम हैं, जो जन-सरोकारों से गहरे रूप में संबद्ध हैं, इनका विस्तार और प्रभाव भी अधिक व्यापक है। ऐसे में इन दोनों विधाओं के जरिये उत्तर पूर्व की सामाजिक समरसता एवं सांस्कृतिक समन्वय को वास्तविक रूप में प्रस्तुत किए जाने की आवश्यकता है ।

            पूर्वोत्तर भारत में हिंदी सिनेमा की गहरी पैठ है। सर्वस्वीकृत है कि सिनेमाई हिंदी गीतों के माध्यम से यहाँ के जनमानस में हिंदी भाषा की लोकप्रियता और स्वीकार्यता दोनों को विस्तार मिला है। कुछेक राज्यों को छोड़कर यहाँ हिंदी संपर्क भाषा के रूप में निरंतर विकसित हो रही है। कुछ राज्यों में स्थानीय लोग संवाद के क्रम में भले ही टूटी-फूटी हिंदी का प्रयोग करते हैं, किंतु उनके द्वारा गाये गए हिंदी गीतों को सुनकर यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि वे हिंदीतर प्रांत से हैं। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि पूर्वोत्तर भारत में हिंदी भाषा के विकास में हिंदी सिनेमा की भूमिका अत्यंत उल्लेखनीय है।

           हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर भारत की उपस्थिति वहां के मुद्दों को लेकर कम, ज्यादातर फिल्मांकन में सौंदर्यबोध बढ़ाने के लिए पहाड़ के खूबसूरती और आकर्षक दृश्यों के रूप में दर्ज है। मिसाल के तौर पर ज्वैल थीप (सिक्किम), भेड़िया (अरुणाचल प्रदेश), रंगून (अरुणाचल प्रदेश), कुर्बान (मेघालय), हर पल (मेघालय), कोयला (अरुणाचल प्रदेश), साया (नागालैंड), दंश (मिजोरम), रॉक ऑन (मेघालय), दिल से (असम) आदि फिल्में उल्लेखनीय हैं। पूर्वोत्तर भारत आदिवासी बहुल क्षेत्र है, यहाँ दो सौ के करीब जनजातियाँ निवास करती हैं। लगभग सभी जनजातियों की अपनी स्वतंत्र भाषा, संस्कृति एवं लोक-मान्यताएं हैं। इसके अलावा कई ऐसी ऐतिहासिक घटनाएं हैं, जिनका सीधा संबंध पौराणिक आख्यानों एवं आंदोलनों से है। यह सिनेमा-जगत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इतनी अक्षुण्ण सांस्कृतिक विरासत एवं दुर्लभ लोक-परंपरा अब तक सिनेमा के दायरे से बाहर है। सिनेमा न केवल अपने समय के यथार्थ को प्रस्तुत करता है, बल्कि अपने समय एवं समाज का ऐतिहासिक दस्तावेज भी होता है। पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समाज की कई ऐसी लोक-परंपराएं, मान्यताएं, मिथकीय संदर्भ एवं लोकोत्सव हैं, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं। सिनेमा में इस तरह के संदर्भों को संरक्षित एवं विस्तारित करने की अपार संभावनाएं हैं। सिने-निर्देशकों को इसके दस्तावेजीकरण की दिशा में ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है।

        हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर भारत की उपस्थिति के सदंर्भ को लेकर कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हमेशा उठते रहे हैं। मसलन- हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर भारत के कलाकारों की संख्या इतनी कम क्यों है? क्या पूर्वोत्तर के कलाकारों का हिंदी सिनेमा में इंट्री करना बहुत मुश्किल है? आखिरकार वे कौन से कारण हैं, जिसकी वजह से उत्तर पूर्व हिंदी सिनेमा की परिधि से अब तक बाहर रहा रहा है? अतुल वैभव ने अपने एक लेख ‘पूर्वोत्तर का हिंदी सिनेमा’ में पत्रलेखा पॉल द्वारा इंडियन एक्सप्रेस को दिये एक इंटरव्यू का उल्लेख किया है। इन प्रश्नों के उत्तर के दृष्टिकोण से यह साक्षात्कार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसमें वे उक्त प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहती हैं- "हाँ यह बहुत मुश्किल है क्योंकि जो पटकथा लिखी जाती है, उसमें उनके लिए कोई रोल होता ही नहीं या बहुत कम होता है। लेखक के दिमाग में पहले से ही एक चेहरा होता है, इस वजह से वो चंडीगढ़, दिल्ली या फिर पंजाब की लड़की को रोल देते हैं। अगर निर्माता किसी फिल्म में दक्षिण भारतीय हैं तो वो ऐसे कलाकार को लेते हैं जो या तो दक्षिण भारतीय हो या फिर वैसी दिखने में हो। लेकिन नॉर्थ ईस्ट के कलाकारों की शारीरिक बुनावट अलग है और फिर नॉर्थ ईस्ट के लेखक बहुत कम हैं, जो कि नॉर्थ ईस्ट को केंद्र में रखकर पटकथा लिख सकें। मेरी समझ से यह इसलिए नहीं है कि वहाँ के लोगों को अवसर नहीं मिलता, बल्कि इसलिए है कि कहानी में वैसा कोई पात्र ही नहीं होता है।" (कंचनजघा पत्रिका, जनवरी-दिसंबर, 2021) पत्रलेखा द्वारा उठाए गए मुद्दे निश्चित रूप से बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं चिंतनीय हैं। पूर्वोत्तर भारत के स्थानीय रचनाकारों, सिनेमा एवं रंगमंच में रुचि रखने वाले हिंदी प्रेमियों को इस चुनौती को स्वीकार करते हुए इस रिक्तता को पूर्ण करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए।

            हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर भारतीयों का प्रतिनिधित्व बहुत सीमित रहा है। इस कड़ी में जो भी पूर्वोत्तर भारतीय शामिल हैं उनमें ज्यादातर कलाकारों का जन्म पूर्वोत्तर भारत में हुआ, किंतु सिनेमा की दुनिया से गहरा सरोकार होने के नाते उनका कार्य-क्षेत्र सिने-सिटी ही रहा है। फिल्म-निर्माण की अलग-अलग विधाओं/क्षेत्रों को देखें तो इनमें पूर्वोत्तर भारत के कुछ ऐसे हस्ताक्षर शामिल हैं, जिनके नामोल्लेख के बिना सिनेमा का इतिहास अधूरा सा प्रतीत होता है। इस कड़ी में भूपेन हजारिका, डैनी डेन्जोगपा, सीमा विश्वास, पत्रलेखा, आन्द्रेया तारियांग, दीगांता हजारिका, ज्होखोई चुजहों, लिन लाइशरम, देवी दोलो, रिकेन ङ्गोंल, आदिल हुसैन, विश्वजीत बोरा, भवेंद्र नाथ सैकिया, पापोन, लुकाराम स्मील, गीतांजली थापा, जुबीन गर्ग, बीजौ थाहङ्जम एवं रीमा देबनाथ आदि का नाम उल्लेखनीय है। इनमें बहुत से कलाकार ऐसे भी हैं जिनकी भूमिका स्थानीय सिनेमा के विकास में अधिक रही है, किंतु उनका नामोल्लेख इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि उनकी प्रयोगधर्मिता से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को नई दिशा एवं विस्तार मिला है।

          हिंदी सिनेमा के विकास में असम राज्य का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस राज्य से भूपेन हजारिका से लेकर जुबीन गर्ग, पापोन एवं आदिल हुसैन जैसे कई मशहूर कलाकार हुए, जिन्होंने हिंदी सिनेमा को राष्ट्रीय पहचान दिलाई। इस संदर्भ में असम राज्य से भूपेन हजारिका का नाम सर्वोपरि है। असम के तिनसुकिया में जन्में भूपेन हजारिका अपने सदाबहार गीतों के कारण ‘ब्रह्मपुत्र के कवि’ के रूप में भी शुमार किये जाते हैं। एक अच्छे कवि, मशहूर संगीतकार, चर्चित गीतकार, अभिनेता एवं पत्रकार के रूप में भूपेन हजारिका की लोकव्याप्ति प्रत्येक दृष्टि से उल्लेखनीय एवं जनप्रिय है। भारतीय संस्कृति को केंद्र में रखते हुए उन्होंने अपने सिनेमाई गीतों के माध्यम से समाज में सौहार्द्र, मानवता, बंधुत्व, सद्भावना एवं समरसता की भावना को अनुप्राणित करने का कार्य किया है।

        असम की लोक संस्कृति, विशेष रूप से पूर्वोत्तर के लोक संगीत को भूपेन हजारिका ने हिंदी सिनेमा के माध्यम से बहुत ही जीवंत रूप में पेश किया। भारतीय प्रशासनिक सेवा में वरिष्ठ अधिकारी रहे पवन कुमार ने अपने एक लेख में भूपेन हजारिका की सांगीतिकता के संदर्भ में बहुत ही महत्वपूर्ण टिप्पणी की है- “भूपेन दा उन विरले कलाकारों में से हैं, जिन्होंने अपनी जातीय सभ्यता, संस्कृति, समाज को अपनी रचनाओं में ढाला और उन्हें क्षेत्र-क्षेत्रोत्तर ही नहीं बल्कि देश-देशोत्तर बना दिया। उनके संगीत में असमीया संस्कृति सांस लेती नज़र आती है, ब्रह्मपुत्र कल-कल बहती नज़र आती है। बिहू, बन गीत, चाय बागान, श्रमिक और ब्रह्मपुत्र.... ये भूपेन हज़ारिका के संगीत के प्रमुख अवयव हैं। वे असम के हैं ज़रूर, लेकिन वे अपनी रचनाओं के माध्यम से अखिल भारतीय चेतना के स्वर बन जाते हैं। यह आसान नहीं है कि असमी संगीत में ढला गीत ‘बूकू हूम हूम करे...’ ‘दिल हूम हूम करे’ हो जाने के बाद भी उतना ही कर्णप्रिय और प्रभावी बना रहा। राजस्थानी वाद्य यंत्रों पर गाये गए इस गीत में व्यक्त पीड़ा अपने मूल स्वरूप को नहीं छोड़ती।” (पवन कुमार, 2021) सांस्कृतिक चेतना ही भूपेन हजारिका के गीतों का मूल प्राण रहा है और उसकी अस्मिता भी। गुलजार ने भूपेन हजारिका के ज्यादातर गीतों का अनुवाद हिंदी में किया, जो आज भी बहुत ही लोकप्रिय और प्रासंगिक हैं। एक साक्षात्कार में गुलजार भूपेन हजारिका के गीतों का सम्यक् मूल्यांकन करते हुए कहते हैं कि- “वो शायर जिसका नाम भूपेन हज़ारिका है, कितनी आसानी से आवाम के दिलों की आहट सुन लेता है। उन्हें आवाम का शायर कहना जायज है। जिस व्यक्ति की बात करते हैं, लगता है, जैसे वो खुद कह रहे हैं। उसके लबों से निकली आह अपने आप शायर के होठों का मिसरा बन जाती है। उसमें कोई फ़ासला नहीं रहता। जैसे, वो ब्रह्मपुत्र में नाव लेकर जाते हुए मांझी की बात करते हैं, तो खुद मांझी के भाव से बात करते हैं। उम्मीद और आशा भूपेन दा के हाथ से कभी नहीं छूटती, न लोक-गीतों में जो वो गाते हैं, न नज़्मों से जो वो लिखते हैं और कम्पोज करते हैं। यहाँ तक कि तन्हाई में वो अकेला महसूस नहीं करते, उनका साया साथ रहता है, उम्मीद की ज्योति जलाये रखता है।…” (गुलज़ार, 2021)

           समाज, साहित्य और सिनेमा की दुनिया में सार्थक हस्तक्षेप के लिए उन्हें वर्ष 1975 में सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके अलावा 1977 में पद्मश्री अवार्ड, 1987 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1992 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार एवं वर्ष 2001 में पद्मभूषण सम्मान से नवाजा गया। ‘रुदाली’, ‘गंगा’, ‘शोर’, ‘मोहब्बत’, ‘गर्मी’, ‘आजादी की ओर’ एवं ‘आंधी’ जैसी फिल्मों में हजारिका ने बतौर संगीतकार इन फिल्मों को नई ऊंचाई और विशिष्ट पहचान दी।

            भूपेन हजारिका के गीत अपने समय की सांस्कृतिक विरासत एवं सभ्यता के मुकम्मल दस्तावेज हैं। ‘दिल हूम हूम करे’, ‘वो गंगा बहती हो’ जैसे गीतों के जरिये भूपेन हजारिका सिनेमा के वैश्विक पटल पर सदैव अविस्मरणीय रहेंगे। उन्होंने अपने गीतों में विशेष तरह की शैली को अख्तियार किया। भाषाई सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उनके गीत आज भी जन-मन में गुंजायमान हैं। इसे विश्लेषित करते हुए पवन कुमार लिखते हैं कि- "भूपेन हज़ारिका जिस शैली में गाते हैं उसे ‘जिबोन मुखी गान’ शैली कहा जाता है। इस शैली में रोजमर्रा की घटनाओं को संगीत में डाला जाता है। उनका ‘एकती पता दुती कुरी’ और ‘मानुष, मानुषोर जोनो’ जैसे गीत इस शैली के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण माने जा सकते हैं। उन्होंने असमीया के साथ-साथ बांगला, हिंदी समेत कई भाषाओं में गाया। असमीया में तो उनके स्तर का कोई और संगीतकार दूर-दूर तक नज़र नहीं आता। यदि हम हिंदी फिल्मों में उनके अवदान पर चर्चा करें तो पता चलता है कि हिंदी फिल्मों में उनका सफ़र फिल्म ‘आरोप’ (1974) से शुरू होता है। इस फिल्म का एक गीत ‘नैनो में दर्पण है...’ बेहद कर्णप्रिय गीत है, जिसे लता जी और किशोर दा ने गाया है। इस गीत में लता जी की गायिकी की दिव्यता को महसूस किया जा सकता है। इसी क्रम में ‘मेरा धर्म मेरी मां’ का नाम लेना अत्यंत उल्लेखनीय है। यह फिल्म नेफा का नाम अरुणाचल प्रदेश किए जाने पर केंद्रित है। भारतीय अस्मिता को जगाती इस फिल्म का एक गीत है ‘अरुणाचल हमारा’ जिसे भूपेन दा ने गाया भी, लिखा भी और संगीतबद्ध भी किया। यह ऐतिहासिक गीत यूँ ही नहीं लिखा जा सकता। इस गीत को सुनने पर भूपेन दा का विराट व्यक्तित्व सामने नज़र आता है। इसमें उन्होंने अरुणाचल का लोक संगीत प्रयोग किया है।" (पवन कुमार, 2021) समग्रतः यह कहा जा सकता है कि भूपेन हजारिका के गीतों में पूर्वोत्तर का लोक और मानस ‘राग’ की तरह आता है और ‘भारतीयता’ इस राग की आत्मा के रूप में।

          इसी कड़ी में, असमीया और हिंदी सिनेमा के सेतु के रूप में जुबीन गर्ग की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जुबीन हिंदी सिनेमा के एक मशहूर पार्श्व गायक हैं। जुबीन गर्ग ने हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी गीत गाए हैं। इनमें तमिल, तेलुगू, कन्नड़, और मराठी जैसी भाषाएं शामिल हैं। आशिकी-2, सिंग इज किंग, एक्शन-जैक्सन, मोहब्बतें एवं गुड न्यूज जैसी फिल्मों में गायिकी के जरिये जुबीन की भारतीय सिनेमा में उल्लेखनीय पहचान बनी। उनकी गायिकी में एक ख़ास तरह का नयापन और भावनात्मक गहराई है। मुख्य रूप से देखें तो जुबीन की आवाज एवं संगीत ने हिंदी एवं असमीया सिनेमा को राष्ट्रीय पहचान दिलाई।

           संगीत की दुनिया में अंगराज महंत का नाम बहुत ही लोकप्रिय है, इन्हें उनके उपनाम पापोन से जाना जाता है। पापोन ने असमीया फिल्म इंडस्ट्री के अलावा हिंदी, बांग्ला, कन्नड़ एवं तमिल भाषा की फ़िल्मी दुनिया में अपने गीतों के माध्यम से महत्वपूर्ण पहचान बनाई। ‘जिया रे’, ‘बिन तुझे’, ‘रघुपति राघव’ एवं मौला जैसे सुप्रसिद्ध गीतों के माध्यम से पापोन सिनेमाई दुनिया में अत्यंत लोकप्रिय रहे हैं।

           सिक्किम राज्य में भूटिया समुदाय से संबद्ध डैनी डेंजोगपा एक भारतीय अभिनेता हैं, जिन्होंने अपना समग्र जीवन भारतीय सिनेमा को समर्पित कर दिया। 1984 में ‘मेरा दोस्त मेरा दुश्मन’ फिल्म में शैतान सिंह, 1985 में आई फिल्म ‘जवाब’ में सेठ जगमोहन और 1996 में रिलीज हुई फिल्म में कातिया के रूप में किया गया उनका अभिनय अविस्मरणीय है। डैनी हिंदी के साथ नेपाली, तमिल, तेलुगू और हॉलीवुड फिल्मों में भी अभिनय कर चुके हैं। खलनायक के रूप उनके द्वारा अभिनीत फिल्मों ने सिनेमा में नायकत्त्व की नई परिभाषा गढ़ी, उन्होंने अपने अभिनय के जरिये यह साबित किया कि फिल्म में किरदार चाहे छोटा हो या बड़ा, पूरी फिल्म में उसकी भूमिका प्रत्येक क्षण अहम होती है। ‘दी बर्निंग ट्रेन’, ‘बुलंदी’, ‘गंगा मेरी मां’, ‘सनम बेवफा’, ‘लज्जा’, ‘खुदा गवाह’, ‘क्रांतिवीर’, ‘चाइना गेट’, ‘धर्म और क़ानून’ जैसी फ़िल्में उक्त संदर्भ की प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

           मणिपुर राज्य से संबद्ध बीजौ थाहङ्जम एक प्रमुख भारतीय फिल्म निर्माता और निर्देशक हैं, जो विशेष रूप से मणिपुरी सिनेमा के लिए याद किए जाते हैं। थाहङ्जम ने अपनी फिल्मों के माध्यम से मणिपुर की संस्कृति, समाज और स्थानीय मुद्दों को प्रस्तुत करने का कार्य किया है। उनका फिल्मी करियर असमिया और मणिपुरी सिनेमा के महत्त्वपूर्ण माना जाता है, किंतु वे भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में अपने विशिष्ट दृष्टिकोण के लिए पहचाने जाते हैं। बीजौ थाहङ्जम भारतीय सिनेमा के उन निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने स्थानीय अथवा क्षेत्रीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान दिलाई। इनकी मणिपुरी फिल्मों की प्रयोगधर्मिता से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को नई दिशा मिली है।

            पृष्ठ-सीमांकन के कारण प्रस्तुत शोध-पत्र में अन्य संदर्भित तथ्यों का विश्लेषण एवं विस्तार नहीं किया जा रहा है। समग्रता में देखें तो हिंदी सिनेमा के विस्तारीकरण में पूर्वोत्तर भारतीयों की भूमिका बहुत ही अहम और प्रशंसनीय है। प्रस्तुत शोध पत्र कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं की ओर ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश मात्र है। इस दिशा में अनुसंधान की व्यापक संभावनाएं हैं, जिस पर गंभीरता से कार्य करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष : सामजिक परिवर्तन एवं यथार्थ अभिव्यक्ति के तौर पर सिनेमा आम जनमानस को प्रभावित करने में हमेशा सफल रहा है। समग्रतः यह कहा जा समकता है कि पूर्वोत्तर भारत की वास्तविक तस्वीर को प्रस्तुत करने में सिनेमा विधा की अहम भूमिका हो सकती है। इसके माध्यम से हम न सिर्फ लोग उत्त्तर पूर्व की सांस्कृतिक विविधता एवं सामजिक समरसता के यथार्थ स्वरूप से परिचित हो सकेंगे, बल्कि शेष भारत में इन क्षेत्रों को लेकर फैलाई गई भ्रांतियां भी दूर हो सकेंगी। फिल्म निर्माताओं को इस क्षेत्र की संस्कृति, सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को वास्तविक रूप में समझने की आवश्यकता है। अगर यह क्षेत्र सही तरीके से सिनेमा में अपनी पहचान बना पाता है, तो हिंदी सिनेमा और पूर्वोत्तर दोनों के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती है। हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर भारत के कलाकारों की भूमिका बहुत ही अहम् और उल्लेखनीय है। गणनात्मक रूप से देखें तो हिंदी सिनेमा में पूर्वोत्तर के कलाकारों की संख्या भले ही कम है, किंतु घनत्व की दृष्टि से इनका प्रभाव अत्यंत व्यापक है।

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प्रदीप त्रिपाठी
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, सिक्किम विश्वविद्यालय, गंगटोक
एसोसिएट फेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला
ptripathi@cus.ac.in
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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