शोध आलेख : समानांतर सिनेमा और स्मिता पाटिल : अभिनय, प्रतिरोध और संघर्ष / ऋषभ पाण्डेय

समानांतर सिनेमा और स्मिता पाटिल : अभिनय, प्रतिरोध और संघर्ष
- ऋषभ पाण्डेय

शोध सार : भारतीय सिनेमा का अध्ययन और वर्गीकरण करते हुए हम अक्सर दो पहलुओं की ओर देखते हैं। एक है लंबे खर्चे का व्यावसायिक या पॉपुलर सिनेमा, जो मूलतः मनोरंजन और सिने प्रेमियों के लिए उपादेय रहा है। किंतु इसका दूसरा पहलू है समानांतर या कला सिनेमा, जिसका औचित्य भारतीय कला, वैचारिकी और सौंदर्यशास्त्र से जुड़ता है। सिनेमा में समानांतर सिनेमा का एक सुंदर अध्याय सत्यजीत रे के पाथेर पांचाली (1955) से खुलता है। उन्होंने उन दिनों इटली के नव यथार्थवाद से प्रेरणा ली और भारतीय सिनेमा के पर्दे पर भारतवर्ष की भूमि जन और संस्कृति का चलचित्र प्रस्तुत किया। स्मिता पाटिल हिंदी सिनेमा की इसी धारा का प्रतिनिधित्व करती हुई एक सजग अभिनेत्री रही हैं। इस आलेख में उनके जीवन, संघर्ष और सिनेमाई कृतित्व को समझने की कोशिश की गई है। इस आलेख में स्मिता पाटिल की समानांतर फ़िल्मों को ही केंद्र में रखा गया है। साथ ही साथ यह भी कि जानने की कोशिश की गई है कि कमर्शियल या फ़ार्मूला फ़िल्मों में एक व्यावसायिक कम्फ़र्ट ज़ोन न बनाने के पीछे उनकी प्रगतिशील वैचारिकी का क्या योगदान है।

बीज शब्द : समानांतर सिनेमा, स्मिता पाटिल, अभिनय कला, सौन्दर्यशास्त्र, श्याम बेनेगल, मंथन,  चक्र, गमन, मैथिली राव, स्त्री प्रश्न, श्वेत क्रांति आदि

मूल आलेख : आज जब हिंदी सिनेमा विचार और सौंदर्य के वातायन से सर्वथा च्युत होकर बाजार के अस्तांचल में धंसा हुआ है। तब ऐसे कठिन समय में स्मिता पाटिल की बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा और उनके नैसर्गिक अभिनय को याद करना बहुत प्रासंगिक मालूम होता है। स्मिता को हजार कोणों से मोहब्बत करने वाला दर्शक समाज हमेशा स्मिता को लेकर इसी बात से दुःखित रहा कि -- स्मिता बहुत जल्दी चली गईं। इतनी जल्दी चले जाने पर भी स्मिता का महज इकतीस वर्ष का जीवन सिनेमा के इकतीस हजार वर्षों पर भारी है। उन्होंने भारतीय सिनेमा में वह दर्शकत्व बोध पैदा किया है जो समय समय पर सिनेमा कर्मियों को एक बेहतर सिनेमा निर्माण के लिए प्रेरित करता रहेगा। गोरी चमड़ी के बाज़ार में जहाँ स्त्री के सौंदर्य को उसकी शारीरिक प्रतीति में बाँध दिया गया था, स्मिता जैसी गिनी चुनी अभिनेत्रियों ने पूर्वग्रहों की सारे गाँठें खोल दीं। उन्होंने अपनी फ़नकारी के दम पर समानांतर सिनेमा का अनोखा कैनवास रचा। उनकी फिल्मों में सामाजिक विमर्श और सौंदर्यशास्त्र का वह अद्भुत मेल था जो हिंदी सिनेमा में बहुत कम पाया गया है। कभी कभी लगता है कि इस विस्तृत योगदान के पीछे उनके संक्षिप्त जीवन की कितनी उपादेयता थी। श्याम बेनेगल ने मैथिली राव की पुस्तक "Smita Patil: A Brief Incandescence" की प्रस्तावना लिखते हुए कहा है कि - "In her short career that spanned all of twelve years, Smita Patil’s incredibly riveting and memorable performances in practically all the films she acted in, have remained the envy of most actors in Indian cinema. Anyone who knew Smita as an acquaintance, a friend or a professional colleague remembers her as a guileless, spontaneous young woman given to great enthusiasm." [1]

स्मिता हिंदी सिनेमा में एक सोशलिस्ट अभिनेत्री की तरह आई थीं। ये बात भी तय है कि उनके वैचारिक व्यक्तित्व के निर्माण में उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की मुख्य भूमिका रही है। महाराष्ट्र राजनीतिज्ञ शिवाजीराव गिरधर पाटिल उनके पिता थे जो भारतीय मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य थे। राजनीति में अपनी समाजवादी विचारों की वजह से जाने जाते थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने कई वर्षों तक जेल यात्रायें की। स्मिता की माँ विद्याताई पाटिल पुणे की जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ताओं में से एक थीं। यह परिवार का वातावरण ही था जिसने स्मिता को शुरू से ही प्रगतिशील विचारसूत्रों में बाँधना शुरू कर दिया था। स्मिता का रंग बचपन में बेहद साँवला था। उन्हें काली,कालूराम आदि नामों से भी कभी कभी पुकारा जाता था। मैथिली राव से हुई बातचीत में स्मिता की बहन अनीता यह मानती हैं कि पारिवारिक वातावरण जैसा भी हो लेकिन स्मिता यह मानती है कि भारतीयों में साँवले रंग को देखने के तरीक़ों में एक अंतर्निहित लिंगभेद है। और अनीता पाटिल आगे इसी विषय पर बात करते हुए एक घटना भी साझा करती हैं जिसे मैथिली राव ने अपनी पुस्तक में जगह दी है। मैथिली राव लिखती हैं,“ स्मिता को उसकी माँ, उसके कई दोस्त आदतन काली, कालूराम, घाटन कहकर बुलाते थे और उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था, लेकिन अनीता मानती है कि इससे एक जटिलता पैदा हो सकती थी। हम भारतीय सांवली त्वचा को कैसे देखते हैं, इसमें एक अंतर्निहित लैंगिक भेदभाव है और अनीता इसके बारे में जानती है। मां पापा को कृष्णा कहती थीं और इसे घर में अपमानजनक नहीं माना जाता था। यह एक तरह का काव्यात्मक न्याय है कि इसी सांवली शक्ल ने स्मिता को कला सिनेमा में अद्वितीय दर्जा दिलाया। व्यावसायिक फिल्मों में यह एक समस्या बन गई।” [2]

इतिहास इस बात से इंकार नहीं कर सकता है कि इंडियन आर्ट सिनेमा के ध्वजवाहक रहे सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल और मुजफ्फर अली जैसे अन्वेषी निर्देशकों की बाकमाल पसंद रहीं स्मिता ने किस तरह कैमरे के सामने भारतीय सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र का अध्यायीकरण किया है। उनकी प्रतिभा में भारत की विविधता भी शामिल थी। उनका चेहरा भारत के किसी भी राज्य का हो सकता है। मैथिली राव लिखती हैं कि, “Smita's face fascinates; she has an earthy Indian look that could belong to any part of India.” [3] यह बात कहनी इसलिए ज़रूरी है कि उन्होंने जितनी भूमिकाएँ हिंदी और मराठी फ़िल्मों में निभाईं। उससे कहीं अधिक गांभीर्य उनके चेहरे पर तब उद्दीप्त हुआ जब उन्होंने मृणाल सेन की फ़िल्म आकालेर संधाने की। सिनेमा और साहित्य में सबसे प्रगाढ़ संबंध यह है कि सिनेमा को आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों ने साहित्य की विरासत सौंप दी है। स्मिता का अभिनय नितांत साहित्यिक था और कैमरे की सोहबत ने उन्हें वह सिनेमाई रूप दिया जिसकी सौंदर्य शृंखलाएँ बारह वर्षों तक जड़ीभूत हो गईं। स्मिता ने कैमरे से स्नेहवत दोस्ती की थी। उनकी दुर्लभ तस्वीरों में एक तस्वीर ऐसी भी है जिसमें वे फ़िल्म चिदंबरम के शूट के दौरान कैमरे में एक ट्राई करते हुए दिख रही हैं और उनकी छवि कैमरे के साथ तेजोद्दीप्त हो रही है। उनकी वह सहज मुस्कान कभी नहीं भुलाई जा सकती जो अभिनय के दौरान एक स्थिर गांभीर्य भाव में बदल जाती थी। हँसता खिलखिलाता हुआ वह गांभीर्य जो दर्शकों में एक विशिष्ट सौंदर्यबोध को जन्म दे सकता था। श्याम बेनेगल ने एक साक्षात्कार में कहा था कि कैमरे को उनसे प्रेम था। कैमरा उन्हें देखता था, किसी और को छोड़ कर उन पर केन्द्रित हो जाता था। [4] स्मिता को जिन्होंने पर्दे पर देखा है वे यह अनुमान लगा सकते हैं कि कैमरे के सामने की स्मिता और कैमरे के पीछे की स्मिता में जमीन आसमान का फर्क था। कैमरे से उनकी जबरदस्त जुगलबंदी थी जिसने उन्हें हम सभी के इतने करीब बनाया। चंद्रकांत देवताले ने स्मिता पर लिखी एक कविता में कहा है--

उस चमकदार दुनिया में
तुम पहुँच गयी थीं पता नहीं कैसे
पर तुम्हारे सभी धड़कते यादगार
किरदारों के
बावजूद
मेरा मन तो यही कहता,
कि तुम्हारी हस्ती के लिहाज़ से
बेहद छोटा था वह परदा।

बहुत कम लोग जानते हैं कि स्मिता एथलेटिक्स में स्टेट लेवल खिलाड़ी थीं। शुरुआती दौर से ही वे स्कूल और कॉलेज में ड्रामा जैसी अतिरिक्त गतिविधियों में भाग लिया करती थीं। उन्होंने फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से ग्रेजुएशन किया और कुछ ही दिन बाद उन्होंने दूरदर्शन में बतौर न्यूज रीडर ज्वाइन किया था। मशहूर शो 'सुहाना सफर विद अन्नू कपूर' में स्मिता की छोटी बहन वान्या पाटिल बताती हैं कि जब स्मिता उन दिनों दूरदर्शन में न्यूज पढ़ा करती थीं तब लोग रास्तों में रुक रुक कर उनका वाचन सुनते थे।आज फिल्मों में जब मैं उनकी वाचन शैली से रूबरू होता हूँ तो ये प्रतीत होता है कि दूरदर्शन उनके करियर के लिए एक सुंदर पड़ाव बनकर आया होगा। मंथन जैसी स्थानीय कहानी में स्थानीयता का इतना जबरदस्त प्रभाव उनकी डायलॉग डिलीवरी के कारण ही आया है। यूनुस खान अपने ब्लॉग में लिखते हैं कि बाज़ार फ़िल्म में जब नसीर स्मिता से पूछते हैं कि मुझे मिलने पर पहचान लोगी ? तब स्मिता कहती हैं कि सलाम जरूर करूँगी। और यहीं स्मिता के लहज़े में आया हुआ उतार चढ़ाव उनके किरदार को खूबसूरत बना देता है। ग़ुलाम जीवन की तमाम यातनाओं और सामाजिक अंधविश्वास पर चोट करती हुई फ़िल्म देबशिशु (1985) में स्मिता ने अंधविश्वास की सारी परतें खोल दी हैं।कला वहाँ जीवन से बड़ी दिखती है। कुंवर नारायण इस फ़िल्म और अभिनय कला पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि, “ अन्याय अथवा अन्धविश्वास का जीतना उसी तरह है, जैसे एक विलेन या खलनायक का जीतना। जिन्दगी में ऐसा भी होता है, पर कला को इस माने में ज़िन्दगी से ज़्यादा ज़िम्मेदार और न्यायी मानना ज़रूरी है।” [5]

उन दिनों जब स्मिता FTTI पुणे में पढ़ाई कर रही थीं तब उस समय माने फिल्मेकर अरुण खोपकर भी वहीं थे। अरुण खोपकर ने वहाँ के छात्रों के फाइनल ईयर के लिए एक डिप्लोमा फ़िल्म बनाई थी। स्मिता भी इस फ़िल्म का हिस्सा बनी थीं। फिल्मों के लिए उनके अभिनय की टकसाल लगभग पक चुकी थी। यह फ़िल्म करते ही उनकी प्रतिभा के सिक्के खनखना उठे। उनकी तरफ श्याम बेनेगल का ध्यान गया और उनके हिस्से आया यह हजार मोतियों में चमकता हुआ हीरा। उन दिनों हिंदी सिनेमा में श्याम बेनेगल का आना भी एक सुंदर संयोग ही था। क्योंकि उन दिनों हिंदी सिनेमा में आर्ट सिनेमा की नितांत आवश्यकता थी। बंगाली सिनेमा में सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक जैसे सिनेमा मानुषों ने पाथेर पांचाली जैसी कइयों क्लासिक फिल्में बना ली थीं। यहाँ तक कि हिंदी की पहली आर्ट फ़िल्म भी एक बंगाली फ़िल्म निर्देशक ने बनाई और वह थी मृणाल सेन की बहुचर्चित फ़िल्म - भुवन शोम (1969)। इसलिए श्याम बेनेगल द्वारा हिंदी सिनेमा में पदार्पण करने की घटना पत्थर पर उगी हुई दूब की तरह थी। श्याम बेनेगल समानांतर सिनेमा को अल्टरनेटिव सिनेमा यानी वैकल्पिक सिनेमा कहा करते थे। कमर्शियल फिल्मों में जहाँ केवल हीरो विलेन माफ़िक ऐक्शन फिल्में या सामान्य विषयों पर रोमानियत का ठप्पा लगाकर फ़िल्म उद्योग अपनी गति से चल रहा था। इसके बरख्श सत्यजीत रे,श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों ने अपनी फिल्मों में हाशिये के समाज को आवाज दी।हिन्दी सिनेमा में एक दशक ऐसा भी था जब कला सिनेमा अपनी ऊँचाइयों को छू रहा था और इन सबके पीछे एक विशिष्ट दर्शक वर्ग की उपस्थिति महत्वपूर्ण साबित हुई। यह वह दौर था जब दर्शक और निर्माताओं के सौंदर्यबोध घुल मिल से गये थे। फ़िल्म मंथन के निर्माण के लिए गुजरात के किसानों ने एक-एक रुपये चंदा लगाया था। कुँवर नारायण इस विषय पर अपने एक महत्वपूर्ण लेख ‘महोत्सवों से हमें क्या मिला’ में टिप्पणी करते हैं - “ कलापक्ष को प्रमुख रखकर कम खर्च पर बनने वाली फ़िल्मों के जिस मूवमेंट ने पिछले एक दशक में ज़ोर पकड़ा था, उसका अगर एक विशिष्ट दर्शक वर्ग बना, तो उतना ही विशिष्ट निर्माता वर्ग भी बना - व्यावसायिक फ़िल्मों के बाहर ही नहीं, उनके अन्दर भी। 'आक्रोश', 'अर्थ', 'मंडी', 'अर्धसत्य', 'सारांश', 'गमन' आदि फ़िल्में उस सेतु की तरह हैं, जिनकी एक हद पर अगर मणि कौल (1944-2011) और कुमार शाहनी (1940) की अत्यन्त प्रयोगशील फ़िल्में ('सतह से उठता आदमी', 'माया दर्पण' आदि) हैं, तो दूसरी हद पर 'शोले' जैसी शुद्ध तकनीकी और व्यावसायिक सफलताएँ हैं।” [6]

सिनेमा और दूरदर्शन के लिए हमेशा ही सतही तौर पर मनोरंजन को एक आवश्यक शर्त माना गया है। लेकिन जब फ़ैज के 'और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा' का सहारा लिया जाए तो भाव के साथ विचार और प्रतिबद्धताएं भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं। और जब मनोरंजन के बरख्श विचारों की तफ्तीश की जाती है तब हिंदी सिनेमा का विराट इतिहास यकायक निस्पंदित हो जाता है। वहाँ श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों के 'वैकल्पिक सिनेमा' की प्रासंगिकता ज़ाहिर हो जाती है। यह वैकल्पिक सिनेमा असल में नितांत आर्टिस्टिक सिनेमा है क्योंकि जब केंद्र में आम मनुष्य होता है तो परिधि एक जाने माने लोक में तब्दील हो जाती है। वहाँ सौंदर्य परिभाषित होता हुआ सा दीखता है। स्मिता ने फ़िल्म मंथन की जिस महिला किसान बिंदू का किरदार निभाया था, कॉपरेटिव सोसायटी न होने की वजह से बिंदू जैसे उन लाखों किसानों का अधिकार जमींदार हड़प जाया करते थे। मंथन उसी यात्रा की सच्ची कहानी है जिसकी पगडंडियां भारतीय दुग्ध उत्पादन को श्वेत क्रांति की ओर ले गईं। श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में ऐसे ही प्रगतिशील स्वरों को स्थान दिया। यदि स्मिता केवल व्यावसायिक फिल्मों की अभिनेत्री रही होतीं तो उनके वैचारिक पक्ष का कोई महत्व ही न था लेकिन उनका वैचारिक पक्ष इतना महत्वपूर्ण था कि आर्ट सिनेमा की चमकती धूप में वह गुलदुपहरी की तरह प्रकट हुईं। मंथन,मंडी,बाजार, भूमिका जैसी न जाने कितनी प्रोग्रेसिव फिल्में स्मिता के विचारसूत्रों में पिरोयी हुई थीं। वे सिनेमा का वह स्त्री पक्ष थीं जिसे श्याम बेनेगल नाम के एक जौहरी ने खोज लिया था। वे हिंदी सिनेमा का वह सुंदर पल थीं जहाँ विचार और कला दोनों एक पगडंडियों पर चल रहे थे। फ़िल्म बाजार में कहा हुआ नजमा का यह डायलॉग उनकी वैचारिकी को उद्भासित करता है –

" अख़्तर साहब! आपके बाजार में यदि सबसे सस्ती कोई चीज है तो वह है औरत..।"

स्मिता के अलावा शबाना आजमी, नसीर जैसे कई महनीय कलाकार श्याम बेनेगल की खोज थे। स्मिता ने श्याम बेनेगल की ही फ़िल्म चरणदास चोर से पदार्पण किया था। स्मिता के भीतर प्रतिभा और तल्लीनता पहले से मौजूद थी। श्याम बेनेगल ने उन्हें कैमरे के सामने खुद को तराशने का मौका दिया। श्याम बेनेगल भारत का वह आर्ट डायरेक्टर था जो फ़िल्म शूट से पहले कलाकारों को शूट लोकेशन पर बिना शूटिंग शुरू किए ही वहाँ के आम जनजीवन में जीना सिखाता था। फ़िल्म अंकुर में उन्होंने शबाना आज़मी को ग्रामीण स्त्री की तरह साड़ी पहनाकर गाँव में रहने के लिए भेज दिया। शबाना वहाँ के आम जनजीवन में इस तरह ढल गयीं कि बहुत से लोग उन्हें गाँव की स्त्री ही मानने लगे थे। मंथन में स्मिता के साथ भी कुछ इसी तरह का वाकया हुआ था। वे शूट के पहले ही एक ग्रामवासिनी स्त्री का किरदार जी चुकी थीं।आखिर स्मिता भी अभिनय की उसी कार्यशाला की सदस्या थीं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी 'पुनर्नवा' में एक तरह के भावानुप्रेश की बात करते हैं। स्मिता के भीतर भी भावानुप्रेश की वही कला थी जो उन्हें उनकी वाचन शैली और भाव भंगिमाओं से कभी अलग नहीं कर पायीं। फ़िल्म मंथन में महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि से आई हुई एक कलाकार गुजराती संस्कृति में कैसे ढल जाती है, अभिभूत करने वाला है। एक दृश्य याद आ रहा है। मंथन जैसी क्लासिक फ़िल्म में स्मिता गाँवों की एक दुबली-पतली और साँवली स्त्री के वेश में थीं और उनके दांतों के बीच में मैली फ़टी साड़ी का एक पल्लू चिपका हुआ था । उनकी गोद में चिपका हुआ दुधमुँहे बच्चे का संयोजन दृश्य को और अधिक कलात्मकता और यथार्थवाद से सराबोर कर रहा था। तिस पर उनका वह डायलॉग - ," ओ उधर बच्चा कम करवाने वाला आ के गया तमेरे को क्या चाहिए...।" अविस्मरणीय है। इस डायलॉग का एक्सेंट ही अपने आप में इतना गँवई है कि स्मिता और उनके कलाकार के बीच की दूरी अत्याधिक सूक्ष्म हो गई है।

फ़िल्म मंथन भारत में श्वेत क्रांति की स्मृतियों को सहेजती हुई फ़िल्म है। अमूल का दुग्ध उत्पाद की दुनिया में प्रवेश करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था जिसे मंथन जैसी क्लासिक फ़िल्म की कहानी ने पर्दे पर अभिव्यक्त कर दिया है। मंथन फ़िल्म को जब शुरुवाती दौर में कोई स्पॉन्सर नहीं मिला तो गुजरात के पाँच लाख किसानों ने 5-5 रुपये चंदा लगाकर इस फ़िल्म निर्माण में सहयोग किया। इस तरह से यह भारत की पहली क्राउड फंडेड फ़िल्म बनी। स्मिता ने यह फ़िल्म गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह और अमरीश पुरी जैसे कलाकारों के साथ यह फ़िल्म की थी। वे एक दलित स्त्री के किरदार में थीं। शुरुआत में किसानों को कॉपरेटिव सोसाइटी के बारे में जागरूक करने के लिए कार्यकर्ताओं को बहुत मशक्कत करनी पड़ी थी। गाँव के लोग शहरियों को लेकर एक विशेष पूर्वग्रह से ग्रसित होते थे। स्मिता ने अपने भीतर एक गाँव की स्त्री को बहुत नफ़ासत के साथ अभिव्यक्त किया है। गाँव उनकी आँखों में सिनेमा के समाजशास्त्र सा चमक रहा है। उनकी वाचन शैली और ऐक्सेंट आपस में सहजता से घुल मिल गए हैं। इसलिए गिरीश कर्नाड जितने शहरी लग रहे हैं ,स्मिता का गंवईपन उतना ही तेज़ है, असरदार है। तिस पर जब आखिरी सीन्स में जब वनराज भाटिया और प्रीति सागर के संग साथ से बना प्यारा सा थीम सॉन्ग ध्वनित होता है और रूदन भरे दाँतों में साड़ी का आँचल फँसाए स्मिता टकटकी लगाकर इस गीत वलय में शांतचित्त सी बंध जाती हैं तो दर्शक मन को एक गहरा उच्छवास भेद जाता है–

न मैं गैय्या दुहवा जाऊँ
न मैं पानी भरवा जाऊँ
न मैं सुख चैन पाऊँ..मारे घर आँगना न भूलो न

स्मिता पाटिल याद करते हुए भारतीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने सन् 1999 में एक डाक्यूमेंट्री बनाई थी। इस डाक्यूमेंट्री में स्मिता के साथ काम करने वाले सभी फिल्मकारों के उद्गार थे।मृणाल सेन ने उन्हें फ़िल्म अकालेर संधाने के लिये याद किया। लेकिन स्मिता की माँ विद्या पाटिल ने स्मिता को याद करते हुए उनके प्रगतिशील व्यक्तित्व को बहुत अपनापे से याद किया है। वे उन्हें संबोधित करते हुए कहती हैं कि फ़िल्म मंथन में सूखा ग्रस्त गाँव में दूध बेंचने वाली महिला की असहनीय पीड़ा को तू कैसे व्यक्त कर रही थी! बाजार फ़िल्म में दरिद्रता के कारण बिकने वाली लड़की को देखकर तू हताश हो जाती है और जिस वेदना से गिरती है वह दृश्य आज भी कचोटता है! जिन जिन औरतों की तूने भूमिकाएं निभाईं । तूने उनकी भाषा,वेश भूषा और रीति रिवाज और उनकी वेदना और संघर्ष को भी तूने अपना लिया था। [7]

स्मिता ने बहुत सी कमर्शियल फिल्में कीं लेकिन उनकी सबसे खास बात ये थी कि उन्होंने आर्ट फिल्मों को हमेशा प्राथमिकता दी। सत्तर अस्सी के दशक में भारतीय समाज और सिनेमा के मद्देनजर स्त्री संवेदना के स्वर कितना महत्वपूर्ण थे,स्मिता ने इस बात को हमेशा तरजीह दिया। कहते हैं जब केतन मेहता फ़िल्म 'मिर्च मसाला' की शूटिंग लोकेशन पर गुजरात गए तो उन्हें पता चला कि वहाँ लाल मिर्च उद्योग का सीजन केवल दो महीने चलता है। आनन फानन में उन्होंने यह बात स्मिता को बताई। उन्होंने कहा चूँकि फ़िल्म में मिर्च वाले दृश्यों की उपयोगिता अधिक है इसलिए किसी तरह शूटिंग दो महीने में खत्म करनी होगी। स्मिता उस समय कई फिल्में साइन कर चुकी थीं लेकिन ये बात सुनते ही स्मिता ने सारी फिल्मों को दरकिनार करके मिर्च मसाला फ़िल्म की शूटिंग शुरू कर दी। यह फ़िल्म स्मिता की मृत्यु के बाद रिलीज हुई थी लेकिन इस फ़िल्म ने केतन मेहता के कैरियर को उफ़ान पर पहुंचा दिया। यह फ़िल्म स्त्री की साहसिकता को उनकी सामूहिकता के स्वर में जोड़ती है। गाँव के एक सूबेदार के आतंक से निजात पाने के लिए मिर्च मसाला के एक कारखाने की कामगार औरतों ने एक साथ सामूहिकता में अपनी लड़ाई लड़ी और मिर्च का पूरा बोरा उस सूबेदार की आँखों में झोंक दिया। यह फ़िल्म महिलाओं के प्रतिरोध और उनकी साहसिकता की जुबानी है। सोनबाई बनी स्मिता का जीवन बताता है कि सदियों से जकड़ी सामंती और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियां ऐसे ही आततायी सूबेदारों का शिकार होती रही हैं। फ़िल्म ने उस समय के लोगों को सामाजिक सोच में बदलाव के संकेत दिए हैं।

स्मिता ने 'चक्र' जैसी यथार्थवादी फ़िल्म की है। चक्र में महानगरों की झोपड़पट्टियों में जीवनयापन करने वाली उस स्त्री का बिंब है जो आजीविका और महत्वकांक्षा के पाट में रोज पिसती है। जो रोज छत के अभाव में बाहर नहाते हुए परपुरूषों द्वारा घूरी जाती है। कहते हैं जब फ़िल्म का पोस्टर रिलीज हुआ तो रिलीज होते ही फ़िल्म विवादों में आ गई । पोस्टर में स्मिता को आधे नंगे बदन नहाते हुए दिखाया गया था। यह दृश्य इतना यथार्थवादी था कि स्मिता ने प्रसार भारती को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि झोपड़पट्टी की स्त्रियाँ ऐसे ही नहाती हैं और आप जब उन्हें नहाते हुए देखेंगे तो रुकेंगे नहीं क्योंकि आपको पता है कि जब उनके पास रहने के लिए जगह नहीं है तो वे नहाएंगी कहाँ ? स्मिता ने एक बात और कही थी कि फिल्में पोस्टर से नहीं चलती हैं बल्कि यही मायने रखता है कि उसमें है क्या।

स्त्री प्रश्नों का साथ स्मिता ने कभी नहीं छोड़ा। मंडी और बाजार जैसी फिल्में पितृसत्ता, बाजार और पुरुषवादी मूल्यों का आईना ही थी। फेमिनिज्मइंडिया.कॉम पर प्रकाशित एक आर्टिकल में गायत्री नाम की लेखिका लिखती हैं कि,“ स्मिता पाटिल ने सिनेमाई दुनिया में पारंपरिक रूप से मौजूद हायरार्की को भी तोड़ा। उन्होंने अपनी पहचान बनाई जहां दर्शक सिनेमाहाल से निकलने पर हीरो की फाइट्स नहीं बल्कि स्मिता के संवाद याद रखते थे। उन्होंने उस दौर में महिला केंद्रित फिल्मों को ‘पॉपुलर’ बनाया।” [8] महान निर्माता सागर सरहदी जब स्त्री मुद्दों को लेकर बाजार फ़िल्म बनाने की आर्थिक बेचैनी से जूझ रहे थे तब यश चोपड़ा और शशि कपूर जैसे लोगों ने उन्हें स्पॉन्सर किया। बाजार फ़िल्म के केंद्र में वही स्त्रियाँ थीं जो पुरुषवादी मूल्यों में या तो अक्सर मज़बूरन फंस जाती हैं या फिर ज़बरन उन पर किसी दूसरे अनचाहे पुरूष के ठेंगर से बाँध दिया जाता है। यह कहानी मुसलमान स्त्रियों की थी इसलिए फ़िल्म के आयाम कई तरह से नए थे। नजमा किसी अख़्तर के रिश्ते में जा बंधी है। नव यौवना शबनम जो सरजू से प्यार करती है लेकिन आर्थिक तंगियों के कारण अधेड़ उम्र शाक़िर खान के हाथों जबरन बेची जाती है। अंत में वह आत्महत्या भी कर लेती है। फ़िल्म में आर्थिक अडचनों की वजह से मानव मूल्यों में आई हुई फ़िसलनें दिखाई पड़ती हैं। शादी कैसे बाज़ार बन जाती है और स्त्रियाँ उस बाजार की वस्तु बन जाती है, सागर सरहदी ने फ़िल्म में बख़ूबी दिखाया है। मीर तकी मीर की गज़ल 'दिखाई दिए यूँ…' ने स्मिता और नसीर के बीच की भाव संचयन को सौंदर्य की आँच दी है। स्मिता का गांभीर्य भाव इस फ़िल्म में देखते ही बनता है। फ़िल्म में बशर नवाज़ का लिखा गया गीत बहुत कुछ कहता है-

तरसती आँखों से
रास्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक
जा के लौट आएगी...करोगे याद तक हर बात याद आएगी।

स्मिता ने सिनेमा में लंबे अरसे से स्त्री पात्रों को लेकर बनाये हुए पूर्वाग्रहों पर बात करते हुए बहुत पहले दूरदर्शन को साक्षात्कार दिया है जिसे हाल ही प्रसार भारती आर्काइव्स ने अपने यूट्यूब हैंडल से अपलोड किया है। स्मिता कहती हैं कि,“फिल्म मेकर्स ये गौर करते थे कि अगर महिला फिल्म देखते हुए रोकर बाहर आई तो समझिए फिल्म हिट होगी. इसके आगे उन्होंने कहा कि इस तरह से महिलाओं की कंडिशनिंग की गई हैं कि वो खुद को कमजोर मानती हैं और फिल्मों में उन्हें और कमजोर दिखाया जाता है।” [9]

स्मिता के भीतर मानवीय रिश्तों की सुगबुगाहट देखनी है तो फ़िल्म गमन का सहारा लेना काफ़ी होगा। नफ़ासत के साथ जो फुरकत की तस्वीर स्मिता ने दिखाई है शायद ही किसी अभिनेत्री ने हिंदी सिनेमा में यह कमाल किया हो। वियोग के फ़सानों ने स्मिता के ग्रामस्वरूपा रूप की अभिनति के आगे घुटने टेक दिये हैं। मैं भी 1978 में आई फ़िल्म 'गमन' को देखने के बाद यह कह सकता हूँ कि स्मिता पाटिल सी प्रोषितपतिका स्त्री हो और फारुख शेख़ सा परदेशी पुरुष हो जिसके परदेश गमन की दास्ताँगोई में सिर्फ एक नायिका का इंतज़ार ही न हो, सिर्फ एक परदेसी पुरुष के रसिक हृदय का कौतूहल ही न हो बल्कि उसमें मानविक देह के इतर रचा बसा वह भीड़ भरा संसार हो जहाँ भारतीय गाँवो में लगातार हो रहे मजदूरों के पलायन के पंख फड़फड़ा रहे हैं। वक्त के सबसे काले हिस्से ने नायक की जिजीविषा पर आधिपत्य कर लिया है और नायिका की देहरी पर उस काले वक्त के पहरेदार बैठ गये हैं जो डाकिए की चिठ्ठियों के सहारे भीतर घुसने का प्रयास करते हैं। लेकिन परदेसी की चिट्ठी ही तो है जिसने सब कुछ बचा रखा है। कच्ची दवाल पर चिट्ठी चिपकाये हुए स्मिता का भाव संसार आह को भी विचलित करने वाला है। मुजफ्फर अली ने क्या कमाल भंगिमाएँ रची हैं। फ़िल्म 'गमन' की कहानी में स्मिता की भाव भंगिमाओं में एक ग्रामस्वरूपा स्त्री का बहुप्रतीक्षित चेहरा उद्दीप्त हो रहा है। जब सास की मृत्यु हो चुकी है और स्मिता अपने खंडहर हो चुके घर में अपने परदेसी पति यानि फारुख शेख का इंतज़ार कर रही हैं। शायर ने सच ही कहा कि- "गम की लौ थरथराती रही रात भर"....। स्मिता के उद्विग्न चेहरे की झलकियाँ सचमुच किसी हवाई लौ की तरह थरथरा रही हैं जहाँ लौ के नीचे इंतज़ार का अँधेरा है और लौ की रोशनी में वे बेरुख़ी उम्मीदें हैं जो फारुख शेख को जी भर देख लेना चाहती हैं। स्मिता का ग्रामस्वरूपा स्त्रीरूप फ़िल्म मंथन में जितना आवेग और तैश भरा है, यहाँ 'गमन' में वह रूप स्निग्ध और शांतिमय है। यूँ तो संदेश रासक की नायिका क्षण भर के लिए याद आती है लेकिन इक्कीसवीं सदी की नायिका में सिर्फ श्रृंगार रस की परिधि में नहीं बंधी है। वह प्रोषितपतिका तो है लेकिन समाजशास्त्र के सारे आयामों के साथ संबद्ध है। भारतीय सौन्दर्यशास्त्र में प्रोषित पतिका नायिकाओं पर बहुत से छंद-महाछंद लिखे गये हैं।लेकिन स्मिता के भावावेगों को देखकर मुझे के.एस. श्रीनिवासन द्वारा उद्धृत संगम साहित्य की वह पंक्तियाँ झंकृत हो उठती हैं।जहाँ आजीविका की खोज में गये अपने पति की प्रतीक्षा में एक प्रोषितपतिका नायिका की चूड़ियाँ ढीली हो जाती हैं-

He has gone in search of nobler wealth,
beyond the forest green
I languish here: my bangles
have become loose, I cannot sleep.
As rain pours more and more,
without a thought for poor me,
Look at the lightning flash; Ah, my dear life!
(Kuruntohai 216.) [10]

हो सकता है कि दर्शक स्मिता की परेशानी में दुःखी नहीं हों लेकिन स्मिता का यह प्रोषितपतिका रूप पलायन के इतिहास में प्रज्ञाशीलता को स्थिर करने वाला रूप है। बिल्कुल धैर्य और संतोष से रूपायित व्यक्तित्व! फ़ारुख शेख के किरदार की बुनावट इतने सलीके से की गई है कि सालों से बम्बई शहर की नीरसता में एक प्रवासी मजदूर अपनी पत्नी को बेमुरव्वत याद कर रहा है और स्क्रीन के पीछे से शहरयार की गज़ल बज रही है-

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है ।
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है।।

पर्दे पर वह आम इंसान की तरह दिखती थी। उन्हें आम लोगों और उनकी कहानियों में मशग़ूल होना आता था।मैथिली राव उन्हें याद करते हुए कहती हैं कि,“ She was Indian cinema's Everywoman. Her genius shone through in rendering the everywoman extraordinaire with a signature hypnotic allure, a depth charged with intensity that exploded into emotions on celluloid, grand and subtle, dramatic and nuanced all at once.”[11]

सबको पता है एक बार को स्मिता कामर्शियल फिल्मों की ओर मुड़ी और 'नमक हलाल' फिल्म में एक गाने पर थोड़ी सी बोल्ड सीन करने के बाद जब उन्होंने फाइनल शॉट देखा तो वे अपनी माँ से लिपट कर फूट फूट कर रोई थी। एक स्मिता का दौर था और आज यह घोर व्यावसायिक सिनेमा का दौर है जहाँ सिनेमा में कामुकता को सौंदर्यहीन, नीरस,उबाऊ और थोक के भाव बेंचा जा रहा है। औरत को एक सेक्स सिम्बल के रूप में दिखाया जा रहा है।स्मिता ने यौन शुचिता, सेक्स सांकेतिकता और स्त्री विरोधी वे सभी नकली कोलाज तोड़ दिया था।स्मिता को अध्ययन किया जाना अब भी कई संदर्भों में प्रश्नांकित है कि एक अभिनेत्री कैसे दशकों तक भारतीय सिनेमा में सहसा किसी देदीप्यमान पुच्छल तारे की तरह चमकी थी और किसी अप्रत्याशित और अप्रिय घटना की तरह अदृश्य हो गई।

निष्कर्ष : स्मिता पाटिल ने फार्मूला फिल्मों में स्त्री पात्रों की कंडीशनिंग के विरोध में हमेशा आवाज उठाई। उन्होंने अपने फिल्मों में यथार्थवादी मूल्यों को स्थापित करते हुए भारत की आम स्त्री के वे किरदार निभाए जो उन्हें रोजमर्रा की जिंदगी से जोड़ते थे। उन्होंने हिंदी सिनेमा के कैनवास को मनोरंजन और उपभोक्तावादी सौंदर्य बोध से अलग आयामों में रचा और आखिरी पायदान के संघर्षशील मनुष्यों की कहानी कहती हुई समानांतर फिल्मों में काम किया। उन्होंने कई बार यह जाहिर भी किया कि कमर्शियल सिनेमा में वे फिट नहीं बैठती हैं। स्मिता ने भारतीय सिनेमा के सौंदर्यबोध को प्रतिरोध और प्रगतिशीलता के आयामों में परिभाषित किया। यही कारण है कि स्मिता जैसी अभिनेत्रियों ने अपने जीवन का सर्वाधिक समय ऐसी महत्वपूर्ण फिल्मों के लिए दिया। जिस सिनेमाई समाज में स्त्री को एक सेक्स सिंबल के रूप में प्रदर्शित किया जाता है वहाँ स्मिता पाटिल के अभिनय कला ने इन सभी कोलाजों को तोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।

संदर्भ :
1.मैथिली राव (2015), Smita Patil : A brief incandescence, हार्पर कोलिन्स पब्लिशर्स इंडिया,प्रस्तावना
2.वही, पृष्ठ संख्या 455
3. वही, पृष्ठ संख्या 70
4.https://indianexpress.com/article/entertainment/bollywood/camera-loved-smita-patil-shyam-benegal/
5. कुँवर नारायण ( 2017 ), लेखक का सिनेमा, संपादक - गीत चतुर्वेदी, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 120
6. वही, पृष्ठ संख्या 87
7. Ministry of information (1999), Searching of Smita : A documentary film
8.https://hindi.feminisminindia.com/2021/10/29/smita-patil-profile-hindi/
9.https://youtu.be/OliMdLF4PdA?si=dopT6_pcMTa4CSXd
10. K.S. shrinivasan (1985), The nayikas of indian classics, article, Internet Archive
11. मैथिली राव (2015), Smita Patil : A brief incandescence, हार्पर कोलिन्स पब्लिशर्स इंडिया, पृष्ठ संख्या 70

ऋषभ पाण्डेय
शोधार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय
पता - रूम न 206, बिरला बी छात्रावास, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उ०प्र०)
221005
Pandeyrishabh1997@gmail.com, 9532102761 
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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