- नरेंद्र कुमार बिश्नोई, अखिल कुमार
शोध सार : भारतीय सिनेमा ने हमेशा समाज और राष्ट्र की विचारधाराओं को प्रतिबिंबित किया है। राष्ट्रवाद, जो किसी देश की एकता, गौरव और अखंडता का प्रतीक है, भारतीय सिनेमा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्वतंत्रता संग्राम के समय से लेकर आज तक, सिनेमा ने राष्ट्रवादी भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम रहा है। 1950 के दशक की फिल्मों ने स्वतंत्रता संग्राम के नायकों और समाज के पुनर्निर्माण की कहानियों को प्रमुखता से दिखाया, जबकि 1970 और 1980 के दशकों में राजनीतिक राष्ट्रवाद और सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्में उभरीं। आधुनिक दौर की फिल्में, जैसे "लगान," "स्वदेश," और "उरी," ने राष्ट्रवाद को नए सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक संदर्भों में प्रस्तुत किया है। राष्ट्रवाद का यह सिनेमाई चित्रण न केवल देशभक्ति को प्रेरित करता है, बल्कि समाज के बदलते परिवेश को भी प्रतिबिंबित करता है।
बीज शब्द : भारतीय सिनेमा, राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता संग्राम, सामाजिक मुद्दे, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, राजनीतिक राष्ट्रवाद, मातृभूमि, देशभक्ति ।
मूल आलेख : भारतीय सिनेमा समाज का आईना है, जिसमें समय-समय पर हमारे राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और सामाजिक विचारधाराओं का प्रतिबिंब दिखता है। “ सिनेमा न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि यह समाज को दिशा देने और विचारधारा को आकार देने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है”। “भारतीय सिनेमा में राष्ट्रवाद का प्रभाव व्यापक और गहरा रहा है। राष्ट्रवाद केवल एक राजनीतिक विचारधारा नहीं, बल्कि यह उस भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक है जो किसी व्यक्ति या समुदाय को उनके राष्ट्र से जोड़ता है”। राष्ट्रवाद की भावना, जो किसी देश की एकता, गौरव और अखंडता का प्रतीक होती है, स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही भारतीय सिनेमा में स्पष्ट रूप से दिखती रही है, और स्वतंत्रता के बाद भी यह विभिन्न रूपों में जारी रही है।
स्वतंत्रता पूर्व सिनेमा और राष्ट्रवाद : भारतीय सिनेमा की शुरुआत 1913 में दादा साहब फाल्के की पहली फिल्म "राजा हरिश्चंद्र" से हुई। “ निर्देशक दादा साहेब फाल्के भारतीय सिनेमा का पहला पायदान राजा हरिश्चंद्र थी, जिसने भारतीय समाज को पहली बार बड़े पर्दे पर कथा सुनाने का अनुभव कराया। यह फिल्म एक धार्मिक कथा पर आधारित थी, लेकिन इसमें नैतिकता, सत्य और न्याय के मूल्य प्रस्तुत किए गए, जो राष्ट्रवाद की भावना से जुड़े हुए थे” ।
उस समय देश ब्रिटिश शासन के अधीन था, और स्वतंत्रता की लड़ाई ने राष्ट्र के हर हिस्से को प्रभावित किया था। “भारतीय सिनेमा पर भी इसका असर साफ दिखा। कई फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रवाद की भावना को अभिव्यक्त किया”। इस दौर की कई फिल्में सामाजिक और धार्मिक कथाओं पर आधारित थीं, लेकिन उनमें छिपे हुए राष्ट्रवादी संदेश भी थे। इस दौर की फिल्मों में वीरता, धर्म और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के माध्यम से राष्ट्रवादी विचारधारा को प्रस्तुत किया गया। हालांकि सीधे तौर पर राजनीतिक संदेश देने वाली फिल्मों पर ब्रिटिश सरकार द्वारा सेंसरशिप की कड़ी निगरानी रखी गई थी, फिर भी फिल्मकारों ने सांकेतिक रूप से अपने विचारों को प्रस्तुत किया। निर्देशक वी. शांताराम की फिल्म भारत माता (1932) स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बनाई गई थी और इसमें देशप्रेम और भारतीय संस्कृति का महत्त्व दर्शाया गया था। पौराणिक कथाओं पर आधारित फिल्में भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ जुड़ी हुई थीं, जैसे कि राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा और अन्याय के खिलाफ संघर्ष।
स्वतंत्रता के बाद का सिनेमा और राष्ट्रवाद : स्वतंत्रता के बाद, भारतीय सिनेमा में राष्ट्रवाद एक नए स्वरूप में उभरा। 1950 के दशक में फिल्मों में नए भारत की निर्माण प्रक्रिया और उसमें राष्ट्रवाद की भूमिका प्रमुख थी। “इस समय की फिल्मों में स्वतंत्रता संग्राम के नायकों और उनकी संघर्षमय कहानियों को दिखाया गया”। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे नेताओं की विचारधारा से प्रेरित फिल्में बनीं, जिनमें स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के पुनर्निर्माण की चुनौतियों को दिखाया गया। “बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953) फिल्म भूमि सुधार और गरीब किसान की समस्याओं के माध्यम से राष्ट्रवादी विचारों को प्रस्तुत करती है, जहाँ गरीबी और संघर्ष राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का हिस्सा बनते हैं”। राज कपूर की "आवारा" (1951) ने समाज की विषमताओं और न्याय की मांग को राष्ट्रवाद के संदर्भ में प्रस्तुत किया। "श्री 420" (1955) जैसी फिल्मों में एक नए भारत के सपनों और सामाजिक विषमताओं को सामने रखा गया। निर्देशक चेतन आनंद की हकीकत (1964) 1962 के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म राष्ट्रवाद और भारतीय सेना के बलिदान की अमर कहानी है। निर्देशक महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ (1957) भारतीय सिनेमा एक महान कृति है, जो एक ग्रामीण महिला के संघर्ष के माध्यम से राष्ट्रवाद और मातृभूमि के प्रति प्रेम की गाथा कहती है”। इन फिल्मों में राष्ट्रवाद को केवल राजनीतिक रूप से नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक संदर्भों में भी दिखाया गया। फिल्में भारतीय समाज के गरीब वर्ग की समस्याओं और उनके संघर्ष को राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती थीं।
1970-80 के दशक में, जब देश में आपातकाल की स्थिति आई, तो फिल्मों में राजनीतिक राष्ट्रवाद का एक नया आयाम उभर कर आया। अमिताभ बच्चन अभिनीत "जंजीर" (1973) राकेश ओमप्रकाश मेहरा की रंग दे बसंती (2006) और जॉन मैथ्यू मथान की सरफरोश (1999) जैसी फिल्मों में भारतीय समाज में व्याप्त अन्याय, भ्रष्टाचार और असमानता के खिलाफ संघर्ष को दर्शाया गया, जो कहीं न कहीं राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित था। इस समय की फिल्मों ने जनता की भावनाओं को आवाज़ दी और उन्हें अपने राष्ट्र के प्रति कर्तव्यबद्ध होने की प्रेरणा दी।
आधुनिक सिनेमा में राष्ट्रवाद : 1990 के दशक में वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के कारण सिनेमा में राष्ट्रवाद के स्वरूप में बदलाव देखने को मिला। “अब फिल्मों में राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक या सामाजिक मुद्दों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह एक व्यापक सांस्कृतिक और आर्थिक संदर्भ में भी दिखाया गया”। इस समय की फिल्मों में भारतीयता के गर्व और विश्व मंच पर भारत की स्थिति को प्रस्तुत किया जाने लगा। “आमिर खान की ‘लगान’ (2001) ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम की भावना को पुनर्जीवित किया, बल्कि इसने एक ग्रामीण भारत के संघर्ष को भी राष्ट्रवादी रूप में प्रस्तुत किया। निर्देशक आशुतोष गोवारिकर की लगान (2001) एक ऐतिहासिक फिल्म है, जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक गांव के संघर्ष को राष्ट्रवादी रूप में प्रस्तुत किया गया है” ।
इसी तरह निर्देशक शिमित अमीन की शाहरुख खान अभिनीत ‘चक दे इंडिया’ (2007)
भारतीय महिला हॉकी टीम के संघर्ष और विजय की कहानी के माध्यम से राष्ट्रवाद और खेल के संबंध को प्रस्तुत करती है। आशुतोष गोवारिकर की "स्वदेश" (2004) एक प्रवासी भारतीय की अपने देश की सेवा के लिए वापसी की यह फिल्म राष्ट्रीय गौरव की भावना को प्रमुखता से दिखाती है। इन फिल्मों फिल्मों में व्यक्तिगत संघर्ष और राष्ट्रीय गौरव के मुद्दों को केंद्र में रखा गया। इन फिल्मों ने दर्शकों के मन में राष्ट्र के प्रति गर्व और सम्मान की भावना को और प्रबल किया। "उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक" (2019) जैसी फिल्में आधुनिक भारतीय सिनेमा में राष्ट्रवाद का नया आयाम हैं, जिसमें भारतीय सेना के शौर्य और देशभक्ति को प्रमुखता से दिखाया गया। इस फिल्म में राष्ट्रवाद को देश की रक्षा और दुश्मनों के खिलाफ मजबूती से खड़े होने के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया। जे.पी. दत्ता की बॉर्डर (1997) 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित है, जिसमें लोंगेवाला की लड़ाई को दर्शाया गया है। इसमें भारतीय सेना के वीर सैनिकों के बलिदान और देशभक्ति को गहराई से दिखाया गया है। फिल्म ने भारतीय सिनेमा में युद्ध फिल्मों का नया मानदंड स्थापित किया। जे.पी. दत्ता की एलओसी कारगिल (2003), यह फिल्म 1999 के कारगिल युद्ध पर आधारित है, जिसमें भारतीय सैनिकों द्वारा दुश्मन के कब्जे वाले क्षेत्रों को वापस लेने के संघर्ष को दिखाया गया है। इन फिल्मों में भारतीय सेना की वीरता और राष्ट्र के प्रति निष्ठा को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है।
राष्ट्रवाद के विभिन्न आयाम
राजनीतिक राष्ट्रवाद :
फिल्मों में राष्ट्रवाद का सबसे स्पष्ट रूप राजनीतिक राष्ट्रवाद है, जहाँ स्वतंत्रता संग्राम, राजनीतिक आंदोलन और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को प्रस्तुत किया गया। “1950 और 1960 के दशक की कई फिल्में जैसे मदर इंडिया (1957) और हकीकत (1964) ने राष्ट्र के प्रति जनता की निष्ठा और बलिदान को दर्शाया। इसके अलावा, आपातकाल के समय की फिल्मों में सरकार और राजनीतिक व्यवस्था पर व्यंग्य और आलोचना के माध्यम से राष्ट्रवादी संदेश दिए गए” ।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद :
भारतीय सिनेमा में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी प्रमुख रहा है। कई फिल्मों में भारतीय संस्कृति, परंपराओं और मूल्यों को महत्व दिया गया है”। यश चोपड़ा की "दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे" (1995) जैसी फिल्में भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उदाहरण हैं, जहाँ भारतीय मूल्यों और परिवारिक संरचना को विदेश में रहने वाले भारतीयों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। यह सिनेमा भारतीयता को गर्व के रूप में प्रस्तुत करता है।
भारतीय सेना और राष्ट्रवाद :
युद्ध और सेना पर आधारित फिल्मों में राष्ट्रवाद का गहरा प्रभाव देखा गया है। "बॉर्डर" (1997), "LOC कारगिल" (2003), और "उरी" जैसी फिल्मों में भारतीय सेना के पराक्रम और उनके बलिदान को राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से दिखाया गया है। इन फिल्मों में देशभक्ति और राष्ट्र के प्रति निष्ठा के भाव को उजागर किया गया है।
4. जननायक जैसे भगत सिंह और राष्ट्रवाद :
बॉलीवुड फिल्मों में जननायक भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुखदेव, राजगुरु जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन क्रांतिकारी नेताओं के जीवन को बड़े पर्दे पर उतारने वाली फिल्में न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि यह युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत भी हैं। भगत सिंह को केंद्र में रखते हुए कई फिल्में बनी हैं, जैसे "द लीजेंड ऑफ भगत सिंह" (2002) और "शहीद" (1965), जिनमें उनकी अदम्य साहस और बलिदान को दर्शाया गया है। उनके साथ चंद्रशेखर आज़ाद जैसे अन्य क्रांतिकारी भी फिल्मों में दिखाई दिए, जैसे "रंग दे बसंती" (2006), जिसमें आज़ादी के लिए उनके योगदान और दृढ़ निश्चय को बखूबी दिखाया गया है। “राजगुरु और सुखदेव भी भगत सिंह के साथ भारत की स्वतंत्रता के लिए शहीद हुए, और फिल्मों में इनका राष्ट्रवाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की भावना को दर्शाता है। ये क्रांतिकारी केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए नहीं लड़े, बल्कि सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता के व्यापक मुद्दों पर भी सवाल उठाए। इन फिल्मों में राष्ट्रवाद की भावना जननायकों के बलिदान, साहस, और आदर्शों के माध्यम से गहराई से उभरती है, जो भारतीय दर्शकों के मन में देशभक्ति की भावना को जागृत करती हैं” ।
समालोचना और निष्कर्ष : भारतीय सिनेमा में राष्ट्रवाद की भावना समय के साथ बदलती रही है, लेकिन इसका प्रभाव हमेशा से ही दर्शकों पर गहरा रहा है। जहाँ स्वतंत्रता संग्राम के समय राष्ट्रवाद स्वतंत्रता की प्राप्ति के संघर्ष में निहित था, वहीं आज राष्ट्रवाद एक व्यापक सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भ में देखा जाता है। सिनेमा ने न केवल राष्ट्रवादी विचारधारा को प्रस्तुत किया, बल्कि यह समाज को जागरूक करने और राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। हालांकि, सिनेमा में राष्ट्रवाद की अतिरंजना भी देखी गई है, जहाँ कभी-कभी फिल्मों में अति-राष्ट्रवाद या राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्रवाद का उपयोग किया गया। इस परिप्रेक्ष्य में समालोचना आवश्यक है, ताकि सिनेमा का उद्देश्य समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का हो, न कि विचारधाराओं को थोपने का।
अंत में, भारतीय सिनेमा में राष्ट्रवाद का भविष्य भी उज्ज्वल दिखता है। जैसे-जैसे समाज और राजनीति में बदलाव आ रहे हैं, वैसे-वैसे सिनेमा भी बदल रहा है। आने वाले समय में सिनेमा में राष्ट्रवाद के नए रूप और आयाम देखने को मिल सकते हैं, जो न केवल भारतीय समाज की विविधता को प्रस्तुत करेंगे, बल्कि उसे एकजुट करने का प्रयास भी करेंगे।
संदर्भ :
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