शोध आलेख : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की विश्व-दृष्टि / अनिल कुमार

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की विश्व-दृष्टि
- अनिल कुमार

शोध सार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना पद्धति से टकराए बिना हिंदी आलोचना को नए रास्ते नहीं मिलते।ऐसे में उसकी प्रासंगिकता अपरिहार्य है। इस शोध आलेख में शुक्लजी की आलोचना दृष्टि को समझने की कोशिश की गई है। शुक्लजी को परंपरा से जो आलोचना शास्त्र मिला था वह जड़ एवं अप्रासंगिक हो चुका था। वे एक ऐसे नए शास्त्र की खोज कर रहे थे जो प्रासंगिक भी हो और अपनी परंपरा से विछिन्न भी हो। किसी भी देश का साहित्य अपने देश की सामाजिक संरचनाओं और सांस्कृतिक संस्थाओं के योग से तैयार होता है। उस साहित्य में समाज की आर्थिक, सांस्कृतिक प्रक्रिया का भी योग होता है। शुक्लजी साहित्य को पूर्णता से समझने और समझाने के लिए अपने समय की राजनीति, विज्ञान दर्शन, कला आदि जो भाव थे उसे अपनाने की पहल करते हैं। ऐसे में उनकी चिंतन दृष्टि कैसे लोक से विश्व की यात्रा करती है। इसी की पड़ताल की कोशिश है आचार्य रामचंद्र शुक्ल की विश्वदृष्टि।

बीज शब्द : आलोचना, काव्यशास्त्र, सिद्धांत, विज्ञान, भौतिकता, अध्यात्म, छायावाद, रहस्यवाद, भक्ति, आधुनिकता, नवजागरण, जातीयता, रीतिकाव्य, संस्कृति, मध्ययुगीनता, इतिहास, धर्म, राष्ट्रीयता, समीक्षा, लोकमंगल, बुद्धिवाद, ब्रह्मवाद, तत्त्वदृष्टि, लोकबद्धता, विकासवाद, सौंदर्यवाद, सामाजिकता, दर्शन, भाषा, उपनिवेशवाद, रूढ़िवाद।

मूल आलेख : ‘‘विश्व-प्रपंच’’ एक अनूदित कृति है। जर्मनी के विख्यात प्राणि तत्त्ववेत्ता हैकल की प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘रिडल ऑव यूनिवर्स’’ का अंग्रेजी में अनुवाद जोजफ मेककेव ने किया था। विश्व प्रपंच इसी का हिन्दी अनुवाद है। यह अनुवाद आचार्य रामचन्द्र शुक्ल  ने 1920 o में किया। यह पुस्तक वस्तुतः ‘‘अनात्मवादी आधिभौतिक पक्ष’’ का सिद्धांत-ग्रंथ है। हैकल अपनी इस पुस्तक में डार्विन के विकासवाद को दार्शनिक जामा पहनाने का प्रयास किया है। प्रश्न ये है कि विज्ञान और दर्शन से संबंधित इस पुस्तक का अनुवाद रामचन्द्र शुक्ल को आवश्यक क्यों लगा? यों तो शुक्लजी ने कई निबंधों का अंग्रेजी से अनुवाद किया है परन्तु उनका कथ्य साहित्य है या साहित्य से संबंधित है।

विज्ञान एवं दर्शन से संबंधित पुस्तकों का हिन्दी में आज भी अभाव है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र पर लिखते हुए शुक्लजी ने इस कमी को महसूस किया था। ‘‘यद्यपि देश में नए भावों का संचार हो गया था पर हमारी भाषा उनसे दूर थी।’’[1] भारतेन्दु ने हिन्दी भाषा  को आधुनिक बनाया। उसे नए ज्ञान-विज्ञान से जोड़ने का सफल प्रयास किया था। ‘‘अब हमें चाहिए कि राजनीति, विज्ञान, दर्शन, कला आदि के जो जो भाव हम अपनी संसार यात्रा में प्राप्त करते जायें उन्हें अपनी मातृभाषा हिन्दी को बराबर सौंपते जायें क्योंकि यही उन्हें हमारी भावी संतति के लिए संचित रखेगी।’’[2] रामचन्द्र शुक्ल साहित्यकार होने के साथ ही साथ समाज-सुधारक भी थे। वे जीवन के लिए साहित्य तथा विज्ञान दोनों को आवश्यक मानते थे। इसीलिए अपनी मातृभाषा में वे विज्ञान, दर्शन , कला आदि से संबंधित भाव तथा विचार सौंपने की बात करते हैं। फलतःशुक्लजी का आलोचना कार्य उन लोगों के रास्ते में बहुत बड़ी रुकावट था जो पूँजीवादी विकास की नवीन परिस्थितियों में अपने सिद्धांतों को ऐसा जामा पहनाते थे जिससे उन परिस्थियों से टकराने की नौबत ना आए, उनके अनुकूल बने रहने की सुविधा हो।[3]

            शुक्लजी विज्ञान युग के लेखक हैं। विज्ञान प्रारंभ से ही जीवन तथा जगत् की समस्याओं से लगातार उलझता रहा है। एक ऐसा समय जब सारे योरप में विज्ञान की दुदुंभी बज रही थी भारत में उसका एक सिरे से अभाव था। स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान भारत धर्म, दर्शन और विज्ञान की त्रिधारा में लगभग फँस रहा था। स्वतंत्रता, जो हमारा उद्देश्य था, उसके लिए यह त्रिधारा कभी-कभी एक-दूसरे के सामने जाती थी। कहने का मतलब है कि ये सहायक की भूमिका में नहीं पाये थे। ऐसे में शुक्लजी जैसा संवेदनशील लेखक भला चुप कैसे रह सकता था। उन्होंने एक ऐसी पुस्तक या विचार की जरूरत महसूस की जो भारतीय समाज में एकता का संचार करे। ‘‘विश्व-प्रपंच’’ द्वारा शुक्लजी ने यह प्रयास किया तथा इस पुस्तक के अनुवाद तथा उसकी भूमिका में धर्म, दर्शन तथा विज्ञान की त्रिधारा को एक पथ का राही बताने की कोशिश करते हैं जो उस समय की माँग थी। इस संदर्भ में उनके निजी जीवन प्रसंगों को भी देखा जा सकता है।[4]

            किसी भी देश के विकास के लिए तकनीकी और प्रौद्योगिकी की जरूरत तो होती ही है परन्तु सबसे अधिक जरूरत होती है वैज्ञानिक समझ और मानसिकता की। इसके बिना प्रौद्योगिक विकास का कोई मतलब नहीं रह जाता। शुक्लजी इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं। वैज्ञानिक समझ और मानसिकता के अभाव में धर्मप्राण भारतीय जनता एक अंधेरी सुरंग में जाने को विवश हो रही थी। विश्व-प्रपंच की भूमिका को इसी संदर्भ में देखने की जरूरत है। धर्म भारतीय लोगों की रीढ़ है। उनके धार्मिक विश्वास को झटका देकर तोड़ना अविश्वसनीय होना है। संभवतः यही कारण है कि शुक्लजी ने इस भूमिका में विज्ञान के साथ धर्म एवं दर्शन को तार्किक ढंग से रखा है। धर्म का लक्ष्य मनुष्य  को अनुभूति और आचरण के स्तर पर संस्कारने का है। जब इसका लक्ष्य शोषण और हिंसा में परिवर्तित हो जाता है, तब मनुष्य भौतिक स्तर पर समृद्ध होकर भी मानसिक स्तर पर अपंग बना रहता है। समाज का शासक वर्ग इसी मानसिक जड़ता का अपने हित में इस्तेमाल करने लगता है। आज मनुष्य  की इसी जड़ एवं निष्कलंक धर्मपरायणता का इस्तेमाल शासक वर्ग कर रहा है। रामचन्द्र शुक्ल मनुष्य की इसी निष्कलंक धर्मपरायणता को विज्ञान की रोशनी में जागरूक धर्मपरायणता का रूप देना चाहते हैं।

            19वीं सदी के नवजागरण ने जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्रीयता के विषय में लोगों का दृष्टिकोण बदलने का एक सार्थक प्रयास किया था। स्वतंत्रता की भूख लोगों में बढ़ने लगी थी। इसका प्रमाण है 1857 की एकीकृत लड़ाई। इसमें धर्म, क्षेत्र संबंधी भेद मिट-से गए थे। भारतीय जनता में बढ़ती इस एकता को अंग्रेजों ने तोड़ना प्रारंभ किया। 1909 का ‘‘मिन्टो-मार्ले सुधार’’ प्रस्ताव इसी की एक प्रमुख कड़ी है। अंग्रेजों ने कौंसिल चुनाव के द्वारा हिन्दू और मुस्लिम क्षेत्र के आधार पर उम्मीदवारी की आवाज उठवायी। इसी का अगला चरण है जाति के आधार पर चुनाव क्षेत्र का बँटवारा। स्वतंत्रता की भूख चुनाव की भूख में तब्दील हो गई। ‘‘उपनिवेशवाद से टकराहट में एकता के वैज्ञानिक-राष्ट्रीय दृष्टिकोण को ही रामचन्द्र शुक्ल ने भेद में अभेद कहा है। बहुपरतदार- बहुत से धर्मों, जातियों, भाषाओं तथा क्षेत्रीय खूबियों वाले भारतीयों में नाना भेदों में अभेद दृष्टि ही सच्ची तत्वदृष्टिहो सकती है।’’[5]

            किसानों से सहानुभूति रखने वाले शुक्लजी ने धार्मिक रूढ़ियों का विरोध किया तथा विज्ञान का समर्थन। यह अलग बहस का मुद्दा है कि विज्ञान का समर्थन भी शुक्लजी ने किस हद तक तथा किन शर्तों पर किया था। वस्तुतः शुक्लजी वैज्ञानिक सोच चाहते थे और वह भी किसानों के लिए। शुक्लजी ग्रामीणों के लिए विज्ञान की तलाश में लगे थे जो कम-से-कम विश्वसनीय हो। भारतीय समाज के व्यापक ढाँचे  का बुद्धिवादीकरण ही उनका लक्ष्य था। उस घनघोर वैचारिक संघर्ष वाले युग में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘‘संपत्तिशास्त्र  (1908)’’ लिखकर समाज की आर्थिक जड़ता पर प्रहार किया तो रामचन्द्र शुक्ल ने हैकल की पुस्तक ‘‘विश्व प्रपंच’’ का अनुवाद कर तथा उसकी वृहत् भूमिका लिखकर बौद्धिक-सांस्कृतिक जड़ता को चुनौती दी। ‘‘उनका पहला कर्तव्य यही था कि राष्ट्रीय एकता, स्वतंत्रता और प्रगति के लिए साधारण जनता के दिमाग पर लगा हुआ जड़ मध्ययुगीनता का ताला, जो काफी पुराना और जंग खाया था, खोला जाय। लेकिन कठिनाई यह थी कि मध्ययुगीन रूढ़ियों को साधारण जनता के धार्मिक विश्वासों  का बल प्राप्त था। थोथे तर्कवाद द्वारा या जबर्दस्ती इन्हें मिटाना संभव था।’’[6] जबर्दस्त वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद आज भी जब धार्मिक रूढ़ियाँ मजबूती से बरकरार हैं तब यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि शुक्लजी के युग में यह कितना कठोर रहा होगा। फिर भी रामचन्द्र शुक्ल ने रूढ़िवाद की आलोचना प्रस्तुत की।

            धर्म और विज्ञान के अंतःसंघर्ष को शुक्लजी जानते थे। योरप में विज्ञान को धर्म द्वारा जो चुनौती दी गई थी उससे शुक्लजी वाकिफ थे- ‘‘इस पुस्तक ने सबसे अधिक खलबली पादरियों के बीच डाली जिनकी गालियों से भरी हुई सैंकड़ों पुस्तकें इसके प्रतिवाद में निकली।’’[7]  विज्ञान को नकारकर भारत की प्रगति भी संभव थी। शुक्लजी विज्ञान को एक सामाजिक शक्ति  के रूप में देखना चाहते थे। वे आंतरिक विश्वासों को भी बदलना चाहते थे। यह ऐतिहासिक दुर्भाग्य ही है कि विज्ञान ने हमारे रहन-सहन, राजनीति आदि का पर्याप्त आधुनिकीकरण किया परन्तु शिक्षित-से-शिक्षित व्यक्ति या समुदाय को वह रूढ़िवादिता तथा जाति आदि के संस्कारों से मुक्ति नहीं दिला सका। नवजागरण काल में ऐसी बात थी। विज्ञान को समाज की ताकत बनाने की उस समय पुरजोर कोशिश चल रही थी। समाज में जहाँ भी जड़ता थी विज्ञान ने वहाँ नई गति ला दी। यही विज्ञान की विजय थी। इस विजय को रामचन्द्र शुक्ल ने ऐसे दंभी बुद्धिवादी की तरह नहीं देखा जो पुराने विश्वासों को हिकारत की नजर से देखते हैं। जिनके जीवन में वैज्ञानिकता का संचार करना था, वे सदियों से सताए गरीब और धार्मिक लोग थे। उनके मूल विश्वासों का मजाक उड़ाना स्वयं संदेहास्पद बनना था। इसके लिए विश्वासोत्पादक तर्क की जरूरत थी। अपने समकालीनों की अपेक्षा रामचन्द्र शुक्ल के पास तर्क का खजाना और विश्वासोत्पादक ढंग था। वे भारतीय परंपरा, उसके मनोविज्ञान तथा उसकी राष्ट्रीय जरूरत को समझते थे। यही कारण है कि शुक्लजी बड़े ही आत्मविश्वासपूर्वक शास्त्र-समीक्षा की ओर कदम बढ़ाते हैं।

            समाज के विकास के लिए तथा उसके परिष्कार के लिए शुक्लजी को एक ऐसे रास्ते की तलाश थी जो धर्म, दर्शन तथा विज्ञान के समन्वय से बना हो। शुक्लजी ने अपनी परंपरा के विकास को नई दृष्टि से समझने का प्रयास किया। इसी उद्देश्य से रामचन्द्र शुक्ल ने इस भूमिका में धर्म जैसे नाजुक मामले को उठाया और लिखा -‘‘धर्म का कोई ऐसा सामान्य लक्षण नहीं बताया जा सकता जो सर्वत्र और सब काल में मनुष्य जाति की जब से उत्पत्ति हुई है, तब से अब तक बराबर मान्य रहा हो।’’[8]  साफ है कि उन्होंने धर्म को स्थिरतावादी दृष्टि से नहीं देखा है। वे अन्य प्रगतिशीलों की तरह धर्म को नकारने का नारा नहीं देते। उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘‘समाज की ज्यों-ज्यों वृद्धि होती गई त्यों-त्यों धर्म की भावना में देश कालानुसार फेर-फार होता गया।’’[9] धर्म का यह रूप ही विकासवादी है। धर्म में फेरबदल राष्ट्रवाद और मानवतावाद के हक में जरूरी था, इसके बगैर मनुष्य मध्ययुगीन कूपमंडूकता से निकल ही नहीं पाता। उस युग के तमाम संस्कृतिकर्मियों ने यह संघर्ष अपने स्तर से चलाया ताकि ‘‘उसका कम-से-कम इतना बुद्धिवादीकरण हो जाये कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद-विरोधी मुक्ति-संग्राम में धर्म के रास्ते से कोई सामाजिक दरार पैदा हो, बल्कि एकता की आंतरिक ऊर्जा मिले।’’[10]

            रामचन्द्र शुक्ल धर्म को परिवर्तनवादी दृष्टि से देखते हैं। उनका कहना है कि ‘‘विकास सिद्धांत के अनुसार जिस प्रकार यह असिद्ध है कि मनुष्य ऐसा प्राणी सृष्टि के आदि में ही एकबारगी उत्पन्न हो गया उसी प्रकार यह भी असिद्ध है कि मनुष्य जाति के बीच धर्म, ज्ञान और सभ्यता आदिम काल में भी उतनी ही या उससे बढ़कर थी, जितनी आजकल है।’’[11]  धर्म का जो स्वरूप आज है वैसा पहले नहीं था। वह पहले एक सादे रूप में ही रहा है। शुक्लजी ने जिस धर्म की स्थापना की उसका स्वरूप बिल्कुल अलग है। प्राचीन तथा परंपरागत धर्म और भक्ति को परलोक या स्वर्ग-सुख का ही साधन समझा गया है किन्तु शुक्लजी धर्म की व्याख्या इसी लोक में मंगल के विधान के साधन के रूप में करते हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘‘लोक-व्यवहार और समाज विकास की दृष्टि से ही धर्म और आचार की व्याख्या की गई है, परलोक और अध्यात्म की दृष्टि  से नहीं।’’[12]  दीर्घकाल से मान्यता प्राप्त झूठी धार्मिक रूढ़ियों का शुक्लजी ने निर्भीकतापूर्वक विरोध किया। धर्म को स्पष्ट करते हुए उन्होंने आगे लिखा कि ‘‘विकासवाद की व्याख्या के अनुसार धर्म कोई अलौकिक, नित्य और स्वतंत्र पदार्थ नहीं है।’’[13]

            रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार धर्माधर्म या कर्तव्यशास्त्र की नींव रक्षा और आत्मरक्षा पर डाली गई है। पारस्परिक आचार और व्यवहार से मनुष्य में सदसद्विवेक-बुद्धि उत्पन्न मानी गयी है। व्यवहार संबंध जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक माना है तथा परस्पर मिलकर काम करने में अधिक सुविधा होने तथा लाभ प्राप्त होने के कारण लोग कुलबद्ध रहने लगे। इसे शुक्लजी समान हित की भावना मानते हैं। एक के जिस किसी कर्म से सबका हित या अहित होता हो उसी के अनुसार उसकी प्रशंसा या निन्दा की गई। शुक्लजी विकासवादी दृष्टि से आदिम धर्म की व्याख्या करते हैं। एक समय था जब एक कुल के लोग दूसरे कुल की लड़कियों को चुराते थे तथा एक-दूसरे से लड़कर छीनना अच्छा समझते थे। देवताओं को नरबलि देने में किसी के रोंगटे खड़े नहीं होते थे। किस प्रकार धर्म का स्वरूप आदिम युग से बदलते-बदलते आज तक पहुँचा है। शुक्लजी ने इसका सुन्दर उदाहरण वैदिक काल के दो ऋषियों- उद्दालक और श्वेतकेतु, का दिया है। एक दिन एक आदमी आया और श्वेतकेतु की माँ को ले गया। श्वेतकेतु को बुरा लगा। पिता ने पुत्र को कहा कि ‘‘एष: धर्म सनातनः’’ उसी से रूष्ट होकर श्वेतकेतु ने नियम बनाया कि ‘‘जो स्त्री एक पति को छोड़कर जायेगी उसे भ्रूण हत्या का पाप होगा और पुरुष पतिव्रता को छीनकर ले जाएगा उसे भी पातक लगेगा।’’[14]  इस प्रकार शुक्लजी ने भारतीय समाज को असभ्यता से सभ्यता की ओर उसी प्रकार विकसित बताया है जिस प्रकार अन्य देशों के समाज।

            धर्म के संबंध में शुक्लजी के विचारों को देखने के बाद, ब्रह्म संबंधी धारणा को देखना काफी दिलचस्प होगा। ‘‘प्रबल वैज्ञानिकता के कारण शुक्लजी ने ‘‘विश्व के प्रति परम्परित दृष्टिकोण अपनाकर वैज्ञानिक और बुद्धिवादी दृष्टि-कोण अपनाया। वे शंकराचार्य आदि भारतीय अध्यात्मवादियों की तरह जगत् को अनित्य मानकर नित्य मानते हैं।’’[15]  आधुनिक आविष्कारों के पूर्व प्रकृति को जड़ और चेतन, चर और अचर दो भिन्न रूपों में देखा जाता था। परन्तु शुक्लजी की धारणा है कि ‘‘जंतु और पौधे दोनों सजीव सृष्टि के अंतर्गत आते हैं, दोनों में जीव है।’’[16] भौतिक जगत् के प्रति यह वैज्ञानिक दृष्टि  शुक्लजी के सारे चिंतन की आधारभूमि है। उनके प्रकृति संबंधी दृष्टिकोण पर ही उनका काव्य में प्राकृतिक दृश्य संबंधी सिद्धांत आधारित है।

            रामचन्द्र शुक्ल ने ब्रह्म संबंधी धारणा की व्याख्या अपनी कृति ‘‘सूरदास’’ में विस्तार से की है। ‘‘भारत में प्राचीन आर्य जाति ने आरंभ ही से सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि जगत् में काम आने वाली प्राकृतिक शक्तियों को देव रूप में प्रतिष्ठित  किया था।’’[17]  फिर ‘‘आगे चलकर उन सब देवताओं का तत्वदृष्टि से एक में समाहार करके ब्रह्मवाद की प्रतिष्ठा हुई।’’[18]  शुक्लजी के मतानुसार जगत् ब्रह्म की अभिव्यक्ति है इसीलिए ब्रह्म की तरह वह भी सत्य है, मिथ्या नहीं। अंतर्जगत् और बाह्यजगत् की एकता तैतिरीयोपनिषद  की ब्रह्मोपासना की पद्धति से मानी है। ब्रह्मवाद बाह्यजगत् का निषेध या अस्वीकार नहीं वरन् मन, ज्ञान आदि और बाह्यजगत् की एकता का स्वीकार है। यह दृष्टि  शुक्लजी ने सर्वत्र अपनायी है। ‘‘रस मीमांसा’’ में शुक्लजी ने लिखा है कि ‘‘ज्ञानेन्द्रियों से समन्वित मनुष्य जाति जगत् नामक अपार और अगाध समुद्र में छोड़ दी गई है। इसी की रूप तरंगों से उसके भीतर मनोविकारों का विधान हुआ है।’’[19]  शुक्लजी मनुष्य की कल्पना, भावों और मनोविकारों का विधान इसी जगत् की रूप तरंगों के द्वारा मानते हैं। यही अंतर्जगत् और बाह्यजगत् की लौकिक एकता है। ब्रह्म की भावना किस प्रकार विकसित होकर नारायण तक पहुँची, यह भी देखने योग्य है। सर्वप्रथम उसकी उपासना विष्णु के रूप में हुई। यह विष्णु रूप भी अन्नोपासना पद्धति से प्राप्त हुआ था। ‘‘पहले विष्णु के प्रतीक सूर्य रहे जो लोक का पालन और भरण करते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। इसके उपरांत उपास्य के अधिक सान्निध्य की उत्कंठा से, उसे अधिक हृदयाकर्षक रूप में पास लाने की लालसा से, विष्णु की नराकार भावना नारायण के रूप में हुई।’’[20]

            ब्रह्म की धारणा शुक्लजी की लोकबद्धता और विकासवादी प्रभाव की देन है। ब्रह्म का विवेचन करते हुए यह कहना कि ‘‘विश्व के भीतर असंख्य खंड प्रलय होते रहते हैं, जाने कितने लोक नष्ट होते रहते हैं - पर समष्टि रूप में विश्व या जगत् बराबर चला चलता है।’’[21]  यह धारणा विश्व की नित्यता की घोषणा है। द्रव्य और शक्ति (गीत) की नित्यता के सिद्धांत के अनुकूल है।

            विश्व -प्रपंच की भूमिका में शुक्लजी ने ईश्वर के संबंध में सामान्य अंधविश्वास को अस्वीकार किया है। वे साफ लिखते हैं कि ‘‘ईश्वर साकार है कि निराकार, लम्बी दाढ़ीवाला है कि चार हाथ वाला, अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्ति पूजनेवालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठानेवालों से, इन बातों पर विवाद करने वाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे।’’[22]  इसका मतलब यह नहीं है कि शुक्लजी अनीश्वरवादी हैं। वैज्ञानिक प्रगति के आलोक में एक तरफ तो वे कहते हैं कि ‘‘ज्ञान की वर्तमान स्थिति को देखते हुए’’ मजहबी झगड़े अब बन्द कर देना चाहिए और दूसरी ओर कहते हैं कि ‘‘सब मतों और सम्प्रदायों में धर्म और ईश्वर  की जो सामान्य भावना है उसी का पक्ष अब शिक्षित  पक्ष के अंतर्गत सकता है।’’[23]  स्पष्टतः वे शिक्षितों के लिए ईश्वर की आवश्यकता को महसूस करते हैं।

            ईश्वरवादी होते हुए भी शुक्लजी उसकी व्याख्या वैज्ञानिक दृष्टि-कोण से करते हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘‘इतिहास से प्रकट है कि आदि में सब देशों के बीच प्रकृति की भिन्न-भिन्न शक्तियों और विभूतियों या उनके भिन्न-भिन्न अधीश्वरों की भावना हुई और बहुदेवोपासना प्रचलित हुई। कुछ देशों में भेद में अभेद की तत्वदृष्टि का क्रमशः विकास हुआ और सब देशों की समष्टि के रूप में एक ईश्वर की प्रतिष्ठा हुई।’’[24]  इस प्रकार शुक्लजी की यह व्याख्या भौतिकवादियों की व्याख्या के काफी निकट है। एंगेल्स ने लिखा है कि ‘‘विकास की और भी आगे की एक अवस्था में पहुँचकर, नाना देवताओं के समस्त प्राकृतिक तथा सामाजिक गुण एक सर्वशक्तिशाली ईश्वर में स्थानांतरित हो जाते हैं।’’[25]

            धर्म, ईश्वर आदि की ही भाँति शुक्लजी भक्ति के स्वरूप और विकास की व्याख्या भी विकासवादी दृष्टिकोण से करते हैं। ‘‘उनकी भक्ति, वैराग्य, उदासीनता, अकर्मण्यता, निरपेक्षता, संघर्षहीनता का उपदेश नहीं देती अपितु वह भक्त जीवन के विशाल क्षेत्र में उग्र और कोमल, कठोर और मृदु, तीक्ष्ण और मधुर आदि दोनों प्रकार के कर्म-सौंदर्य के लिए प्रेरित करती है। मध्यकालीन भक्तों की भाँति वे नारी-त्याग, गृह त्याग, दैन्य, वैराग्य, अक्रोध आदि को सनातन नियम नहीं मानते और ही भौतिक समृद्धि से विरत रहकर व्रत-उपवास का ही उपदेश देते हैं।’’[26]  शुक्लजी भक्तिमार्ग को धर्म भावना का रसात्मक विकास मानते हैं। यह विकास उपास्य ईश्वर के स्वरूप की प्रतिष्ठा के उपरांत ही होता है। तात्पर्य यह है कि बहुदेववाद जब विकसित होकर एकेश्वरवाद के रूप में प्रतिष्ठित  हुआ तब भक्ति का जन्म होता है। आदिम काल में जो प्रकृति की विभिन्न शक्तियों की उपासना होती थी वह तो केवल भय या लोभ के कारण होती है। अतः उसे शुक्लजी केवल पूजा मानते हैं। पूजा के विधान में हृदय पक्ष का योग नहीं था। ईश्वर के स्वरूप की प्रतिष्ठा  के उपरांत हृदय योग बढ़ा। शुक्लजी का कथन है कि ‘‘जहाँ  से कर्म में हृदय तत्व को कुछ अधिक स्थान देने की प्रवृत्ति हुई वहीं से भक्ति-मार्ग का आरंभ मानना चाहिए।’’[27] भारतीय भक्ति मार्ग के विकास को प्रत्यक्ष करते हुए शुक्लजी ने दिखलाया है कि उपनिषद काल में ज्ञानमार्ग की निवृत्तिपरक और कर्मपरक दो शाखाएँ थीं। निवृत्तिपरक मार्ग कर्म और ज्ञान में नित्य विरोध मानकर साधना के लिए कर्मों का सर्वथा त्याग, रागों या मनोविकारों का पूर्ण दमन, आवश्यक ठहराता है और ब्रह्म की केवल निर्गुण और अव्यक्त सत्ता लेकर चलता है। लेकिन कर्मपरक शाखा ज्ञान के साथ ही निष्काम कर्म का उपदेश देती चलती है। इसी कर्मपरक शाखा से जिसमें कर्म के साथ हृदय और बुद्धि का योग आवश्यक बतलाया गया था, आगे चलकर भक्ति का विकास होता है।

            रामचन्द्र शुक्ल का लोकमंगल भी एक बौद्धिक शब्द है। उनका लोकमंगल का सिद्धांत ‘‘परस्पर साहाय्य की प्रवृत्ति’’ के विकास का परिणाम है। मनुष्य की यह प्रवृत्ति प्रारंभ में संतानोत्पादन और संतान-पालन  के रूप में प्रकट हुई। एक घटात्मक अपुजीवों में वंशवृद्धि विभाग द्वारा होती है। अतः हम कह सकते हैं कि संतान के लिए अपुजीव अपना शरीर त्याग देता है। इस प्रकार आगे के उन्नत कोटि के जीव अपनी संतान के लालन-पालन के लिए अपने स्वार्थों का त्याग करते हैं। यही प्रवृत्ति आगे चलकर लोकमंगल की कामना में प्रकट हुई। ‘‘अतः सब जीवों में श्रेष्ठ मनुष्य को इसी प्रवृत्ति के उत्कर्ष साधन में ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ के भाव की प्राप्ति के प्रयत्न में लगा रहना चाहिए।’’[28]  यह मंगल की भावना विकसित होते-होते लोकमंगल का रूप धारण कर चुकी है। शुक्लजी के अनुसार लोकमंगल मानव जीवन के सामाजिक विकास की यह अवस्था है, जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का खाद्य नहीं बनता, निर्बल सबल का आहार नहीं बनता।

            रामचन्द्र शुक्ल  ने मंगल विधान की प्रक्रिया को निरंतर गत्यात्मक दशा में देखा है, स्थिर दशा में नहीं। शुक्लजी मंगल की दो अवस्थाएँ स्वीकार करते हैं- साधनावस्था तथा सिद्धावस्था। वे इन दोनों ही अवस्थाओं में सौंदर्य की स्थिति स्वीकारते हैं। उनकी द्वन्द्वात्मक चिंतन-पद्धति उनकी मंगल विषयक चर्चा में भी मौजूद है। शुक्लजी का कथन है कि ‘‘मंगल पक्ष में सौंदर्य, हास-विलास, प्रफुल्लता, रक्षा और रंजन इत्यादि हैं, अमंगल में पक्ष में विरूपता, विलाप, क्लेश और ध्वंस इत्यादि हैं। इन दोनों पक्षों के द्वन्द्व के बीच से ही मंगल की कला शक्ति के साथ फूटती दिखायी पड़ा करती है।’’[29]

            प्राणियों में इंद्रियों का विधान क्रमशः हुआ है। मनुष्यों में प्रवृत्ति, भाषा, ज्ञान, आचार, धर्म और सभ्यता का विकास भी क्रमशः हुआ हैं। धर्म की मूल प्रवृत्ति सजीव दृष्टि के साथ उत्पन्न हुई है। जैसा कि पहले बताया गया है कि यह आदि में संतानोत्पत्ति और संतान पालन के रूप में ही प्रकट हुई। त्याग एवं साहाय्य की प्रवृत्ति से ‘‘कुलधर्म’’ की स्थापना हुई। व्यक्ति के जिस कर्म से सबका हित या अहित होता था उसी के अनुसार उसकी प्रशंसा या निन्दा होती थी। पहले एक कुल दूसरे कुल से अपनी रक्षा के लिए लड़ाई करता था। धीरे-धीरे एक ही स्थान पर कई कुल मिलकर रहने लगे और उनमें परस्पर आदान-प्रदान की प्रवृत्ति तथा साहाय्य की प्रवृत्ति बढ़ी और इस प्रकार समाज की स्थापना हुई। आदिम काल में धर्म स्वरक्षाधर्म ही था। अतः किसी समाज को बद्ध रखने के लिए यह धर्म व्यवस्था आवश्यक  है।[30]  अब इस समाज को चलाने के लिए तथा व्यवस्था बद्ध रखने के लिए उस समय ज्ञानबल, बाहुबल, धनबल और सेनाबल की आवश्यकता थी। इसी आवश्यकता को देखते हुए प्रवृत्ति, गुण तथा भाव के अनुरूप भिन्न-भिन्न कार्य सौंपे गए। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था का गठन हुआ। वर्णों की यह व्यवस्था सभ्यता के विकास के साथ हुई, भगवान द्वारा नहीं। शुक्लजी का वर्णधर्म उनकी विकावसवादी व्याख्या के अनुकूल है। इस प्रकार शुक्लजी ने कुलधर्म, समाजधर्म तथा धर्म सबकी विकासवादी व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि धर्माधर्म की धारणा लोकरक्षा की दृष्टि से हुई है, ईश्वर या किसी अलौकिक सत्ता द्वारा नहीं।

            मनुष्य में भावों या मनोविकारों की उत्पत्ति की भी शुक्लजी विकासवादी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। उनका स्पष्ट कथन है कि ‘‘अनुभूति के द्वन्द्व से ही प्राणी के जीवन का आरंभ होता है। उच्च प्राणी मनुष्य भी केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार में आता है।’’[31]  अनुभूति के द्वन्द्व से उनका आशय  सुख और दुःख की सामान्य अनुभूति है। ‘‘सुख और दुःख की इन्द्रियज वेदना के अनुसार पहले राग और द्वेष आदिम प्राणियों में प्रकट हुए जिनसे दीर्घ परंपरा का अभ्यास द्वारा आगे चलकर वासनाओं और प्रवृत्तियों का सूत्रपात हुआ। रति, शोक, क्रोध, भय आदि पहले वासना रूप में थे। जात्यंतर परिणाम द्वारा समुन्नत योनियों का विकास और मनोविज्ञानमय कोश का पूर्ण विधान हो जाने पर विविध वासनाओं की नींव पर रति, हास, शोक, क्रोध इत्यादि भावों की प्रतिष्ठा  हुई।’’[32]  शुक्लजी संवेदना, वासना और भाव, यह विकास-क्रम मानते हैं। भाव की विशेषता यह है कि उसमें प्रत्यय बोध होता है। प्रत्यय बोध यानी सुख-दुःख का विषय  बोध।

            शुक्लजी की समाज संबंधी धारणा भी वैज्ञानिक है। विज्ञान के अनुसार विश्व की स्थिति विविध अणुओं में निहित शक्ति  के आकर्षण और अपसारण स्वरूपों के कारण है। अणुओं से लेकर विशाल ग्रह, नक्षत्र तक आकर्षण शक्ति से बद्ध हैं। आकर्षण विहीन होने पर कोई भी पिण्ड अपना अस्तित्व खो देता है। सामाजिक जीवन के विषय में उन्होंने लिखा कि ‘‘सामाजिक महत्व के लिए आवश्यक है कि या तो आकर्षित करो या आकर्षित होओ, जैसे इस आकर्षण विधान के बिना अणुओं द्वारा व्यक्त पिण्डों का आविर्भाव नहीं हो सकता, वैसे ही मानव जीवन की विशद् अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।’’[33]  इस प्रकार उनकी दृष्टि में सामाजिकता परस्पर आकर्षण से उद्भूत मानव-जीवन की अभिव्यक्ति सिद्ध होती है।

            समाज के बीच आकर्षण विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होता है। जितने भी प्रकार के संबंध समाज में पाये जाते हैं, वे सभी आकर्षण शक्ति के ही भिन्न रूप हैं। योनि-संबंधों से लेकर राष्ट्रीय -अंतरराष्ट्रीय संबंधों तक इसी के परिणाम होते हैं। ‘‘आदान-प्रदान, रक्षा और रंजन, परस्पर हित-चिंतन, सुख-समृद्धि-वर्धन, करूणा, सहानुभूति, उपकार, श्रद्धा, उदारता, अनुदान, सेवा-सहयोग, स्नेह आदि सभी सामाजिक आकर्षण के ही अंग हैं। किन्तु आकर्षण के साथ-ही-साथ अपसारण की क्रिया भी चलती रहती है, अतः ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, क्रोध आदि का भी उदय होता है और विविध संबंधों में परिवर्तन घटित होता रहता है।’’[34]  मनुष्य  इस सृष्टि  का श्रेष्ठ जीव है। उसमें शक्ति की सत्ता है। अतः आकर्षण के कारण वह लोक से पृथक नहीं हो सकता। आकर्षण विहीन होकर, समाज से टूटकर, लोक से विच्छिन्न होकर संभवतः वह जी ही नहीं सकता। यही कारण है कि शुक्लजी ने कहा है कि ‘‘मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है। उसका अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध है।’’[35] मनुष्य की इस लोकबद्धता या सामाजिकता को शुक्लजी ने लाखों वर्षों की विकास परंपरा का परिणाम कहा है। वे यह कतई मानने को तैयार नहीं हैं कि मनुष्य आदि युग से ही लोकबद्ध रहा है।

            आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की रस-समीक्षा भी इस संदर्भ में देखने योग्य है। भावों या मनोविकारों की व्याख्या के उपरांत शुक्लजी रसात्मक बोध की बात करते हैं। इसी क्रम में उन्होंने लिखा है कि ‘‘ज्ञानेन्द्रियों से समन्वित मनुष्य जाति जगत् नामक अपार और अगाध रूप समुद्र में छोड़ दी गई है। जाने कब से वह इसमें बहती चली रही है। इसी की रूप-तरंगों से ही उसकी कल्पना का निर्माण और इसी की रूप-गति से उसके भीतर विविध भावों या मनोविकारों का विधान हुआ है। सौन्दर्य, माधुर्य, विचित्रता, भीषणता, क्रूरता इत्यादि की भावनाएँ बाहरी रूपों और व्यापारों से ही निष्पन्न हुई हैं। हमारे प्रेम, भय, आश्चर्य, क्रोध, करूणा इत्यादि भावों की प्रतिष्ठा करने वाले मूल आलंबन बाहर ही के हैं- इसी चारों ओर फैले हुए रूपात्मक जगत के हैं।’’[36]  इस विवेचन से स्पष्ट है कि शुक्लजी मानसिक विकारों की उत्पत्ति भी इसी जगत् से मानते हैं। कोई भी भाव मन में तभी पैदा हो सकता है जब उसका कोई रूप हो। प्रत्यक्ष रूप के परिणामस्वरूप ही मानसिक रूप विधान होता है। यही कारण है कि शुक्लजी ने लिखा है ‘‘सच्चा कवि वही है जिसे लोकहृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को देख सके। इसी लोक-हृदय में हृदय के लीन होने की दशा का नाम रसदशा  है।’’[37] आचार्य शुक्ल को रसवादी आचार्यों की कोटि में रखा जाता है। परन्तु उक्त व्याख्या से संस्कृत के रसवादी आचार्यों और शुक्लजी में अंतर किया जा सकता है। रस को आनन्द स्वरूप कहा गया है। शुक्लजी इस बात को यूँ स्वीकार करते हैं कि रस आनन्द भी देता है। फिर उनका प्रश्न  है कि रस आनन्दस्वरूप है तो काव्य का उद्देश्य क्या है? यदि उसका उद्देश्य केवल आनन्द है तो इसे वे ‘‘मार्ग को ही अंतिम गंतव्य स्थान’’[38] मान लेना कहते हैं। उनके लिए तो काव्य का उद्देश्य ‘‘जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य-स्थापना है।’’[39]

            काव्य का उद्देश्य आनंद मान लेने तथा रस को आनन्दस्वरूप मान लेने पर एक और कठिनाई पैदा होती है। शुक्लजी एकदम व्यावहारिक प्रश्न उठाते हैं कि साहित्य में क्रोध, शोक, जुगुप्सा आदि भाव अपना सहज रूप नहीं छोड़ देते हैं, फिर इन भावों के लिए भी आनन्द कहना शुक्लजी को ठीक नहीं लगता। इन भावों से मनुष्य के हृदय में क्रोध, घृणा, शोक आदि भाव ही जागृत होते हैं। इसीलिए शुक्लजी इस आनन्द को लोकोत्तर भी मानने को तैयार नहीं हैं। शुक्लजी ने स्पष्ट लिखा है कि ‘‘मेरी समझ में रसास्वादन का प्राकृत रूप आनन्द शब्द से व्यक्त नहीं होता। लोकोत्तर, अनिर्वचनीय आदि विशेषणों से तो उसके वाचकत्व का परिहार होता है प्रयोग का प्रायश्चित क्या क्रोध, शोक, जुगुप्सा आदि आनन्द का रूप धारण करके ही श्रोता के हृदय में प्रकट होते हैं, अपने प्रकृत रूप का सर्वथा विर्सजन कर देते हैं, उसे कुछ भी लगा नहीं रहने देते? इस आनन्द शब्द ने काव्य के महत्व को बहुत कम कर दिया है - उसे नाच तमाशे की तरह बना दिया है।’’[40] स्पष्ट है कि शुक्लजी कलाओं के प्रयोजन को लौकिक मानते हैं जो उनके वैज्ञानिक तथा तत्ववादी दृष्टि का ही परिणाम है।

            आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की सौंदर्य दृष्टि भी वस्तुवादी है। वे सौन्दर्य को स्थिर नहीं मानते। भाववादी सौंदर्यवादियों की तरह वे सौंदर्य को मन के भीतर की वस्तु नहीं मानते। उनका स्पष्ट कथन है कि ‘‘अभिव्यक्ति के क्षेत्र में स्थिर (स्टैटिक) सौंदर्य और स्थिर मंगल कहीं नहीं, गत्यात्मक (डायनैमिक) सौंदर्य और गत्यात्मक मंगल ही है, पर सौंदर्य की गति भी नित्य और अनन्त है और मंगल की भी। गति की यही नित्यता जगत की नित्यता है।’’[41]  अपनी इस सौन्दर्य दृष्टि को उन्होंने काव्य के क्षेत्र में भी लागू किया। शब्द-शक्तियों के विवेचन के संदर्भ में उन्होंने प्रश्न उठाया कि काव्य की रमणीयता (सौन्दर्य) किसमें रहती है? वाच्यार्थ में अथवा लक्ष्यार्थ में या व्यंग्यार्थ में? और स्वयं उत्तर देते हुए कहा कि ‘‘इसका बेधड़क उत्तर यही है कि वाच्यार्थ में, चाहे वह योग्य और उपपन्न हो अथवा अयोग्य और अनुपपन्न ध्यान रहे कि वाच्यार्थ का अर्थ है ‘‘उक्ति’’[42] रामचन्द्र शुक्ल उक्ति में ही सौन्दर्य या रमणीयता का अधिवास मानते हैं। उसके बाहर नहीं। यह उनकी विज्ञानसम्मत वस्तुवादी दृष्टि का ही परिणाम है जो विश्व-प्रपंच की भूमिका का प्रतिपाद्य है।

            आचार्य शुक्ल सौन्दर्य की व्याप्ति मनुष्य मात्र तक नहीं मानते। उसका क्षेत्र व्यापक है। ‘‘सौन्दर्य का दर्शन मनुष्य मनुष्य ही में नहीं करता, प्रत्युत पल्लव गुम्फित पुष्पहास में, पक्षियों के पक्ष जाल में, सिंदुराम सांध्य दिगंचल के हिरण्य मेखला मंडित धन-खंड में, तुषारावृत तुंग गिरि शिखर में, चन्द्र किरण से झलझलाते निर्झर में और जाने कितनी वस्तुओं में वह सौन्दर्य की झलक पाता है।’’[43]  इस प्रकार शुक्लजी इस जगत् के दृश्यों में ही सौन्दर्य को प्रतिष्ठित मानते हैं। यही जगत् और सौन्दर्य की नित्यता है। इसे ही अपनी भूमिका में शुक्लजी ने द्रव्य और शक्ति का नित्य संबंध कहा है। इस जगत् के संबंध में ही शुक्लजी का स्पष्ट  मत है कि ‘‘हम जब जगत को देखते हैं तभी जीवन का स्वरूप और सौन्दर्य प्रत्यक्ष होता है। जहाँ व्यक्ति के भावों के पृथक विषय नहीं रह जाते, मनुष्य मात्र के आलंबनों में हृदय लीन हो जाता है, जहाँ व्यक्ति जीवन का लोक जीवन में लय हो जाता है, वहीं भाव की पवित्र भूमि है। वहीं विश्व-हृदय का आभास मिलता है। जहाँ जगत के साथ हृदय का पूर्ण सामंजस्य घटित हो जाता है वहाँ प्रवृत्ति और निवृत्ति भी स्वतः मंगलोन्मुखी हो जाती है।’’[44] इस उद्धरण से जगत् के सम्बंध में शुक्लजी की धारणा स्पष्ट हो जाती है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि क्यों शुक्लजी रहस्यवाद का विरोध करते हैं। वे काव्य को लौकिक जीवन का प्रतिबिम्ब ही मानते हैं। काव्य में अलौकिकता तथा आध्यात्मिकता का कोई स्थान या उल्लेख शुक्लजी अनावश्यक मानते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि जिसको हमने देखा ही नहीं, उसे अनुभव कैसे कर सकते हैं? फिर बिना अनुभव किये उसका चित्रण वे काव्य क्षेत्र से बाहर की वस्तु मानते हैं।

            ‘‘विश्व-प्रपंच की भूमिका’’ में शुक्लजी ने यह स्वीकार किया है कि विकास सिद्धांत का प्रभाव जीवन की हर विधा पर पड़ा है। उनका कथन है कि ‘‘जगत् की उत्पत्ति, जीवों की उत्पत्ति, मनोविज्ञान, कर्तव्यशास्त्र, इतिहास, धर्माधर्म, समाजशास्त्र सबकी व्याख्या विकास पद्धति का अवलंबन करके ही गई है।’’[45] यही नहीं बल्कि भाषा की उत्पत्ति तथा विकास भी विकासवादी सिद्धांत के अनुसार बताया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि विकास सिद्धांत जीवन तथा जगत् को समझने की एक कुंजी है जिसका प्रयोग अनिवार्य है। इसीलिए शुक्लजी कहते हें कि ‘‘आजकल ऐसा ही कोई होगा जो इतिहास लिखने में इस बात का ध्यान रखता हो कि किसी जाति के बीच ज्ञान, विज्ञान, आचार, सभ्यता इत्यादि का विकास क्रमशः हुआ है।’’[46]  शुक्लजी अपनी इस धारणा का उपयोग अपने इतिहास ग्रंथ में भी करते हैं। अपने इतिहास में साहित्य के इतिहास को परिभाषित करते हुए शुक्लजी कहते हैं कि ‘‘जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित है कि जनता के चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है।’’[47]  शुक्लजी ने साहित्य का जनता से सामंजस्य बिठाया। यही सामंजस्य आदिकाल के जैन तथा बौद्ध कवियों के साथ नहीं बैठ पाया और शुक्लजी ने उसे साहित्य की कोटि में मानने से इंकार कर दिया। जिस रचना में तत्व-निरूपण है उसे वे साम्प्रदायिक कहते हैं।

            हिन्दी साहित्य के रीतिकाल पर विचार करते हुए शुक्लजी ने लिखा कि ‘‘वाग्धारा बंधी हुई नालियों में ही प्रवाहित होने लगी।’’[48] शुक्लजी हृदय को लोकहृदय में लीन करने वाली रचना को ही काव्य का प्रयोजन मानते हैं। यह जगत सत्य है। जगत की नित्यता तथा सौंदर्य की अनंतता का आभास रीतिग्रंथों से गायब है। शुक्लजी ने इसे दरबारी प्रभाव माना है जबकि साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का प्रभाव है। सम्पूर्ण रीतिकाल को शुक्लजी ने चमत्कारी कविता का काल घोषित किया। ‘‘काव्य-चर्चा और काव्य-रचना में भी जो चीज अतर्क्य है, जिसे जीवन की वास्तविक दशा, स्थिति या स्थिति का समर्थन प्राप्त नहीं है, जो लोक और सामान्य के विरूद्ध विशिष्ट और एकांतिक का प्रतिपादन करती है, शुक्लजी उसके खिलाफ हैं।’’[49]  स्पष्ट  है कि शुक्लजी रीतिकालीन कविता और कवियों की सीमा को पहचानते थे। यह अकारण नहीं है कि शुक्लजी के आलोचना-ग्रंथ जायसी, तुलसी और सूर पर ही हैं, किसी रीतिकालीन कवि पर नहीं।

            रामचन्द्र शुक्ल के आदर्श कवि तुलसी हैं। तुलसीदास भक्तिकाल के एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनके यहाँ शुक्लजी का लोकधर्म और लोकमंगल का प्रतिपादन स्पष्ट रीति से हुआ है। यह जगत् अनेक रूपात्मक है उसी से मनुष्य भी अनेक भावात्मक होता है। जगत् में आकर्षण और अपसारण क्रिया लगातार जारी है। इसी आकर्षण और अपसारण क्रिया से इस जगत् की स्थिति है। जैसा कि पहले कहा गया है कि इस जगत में जितने भी संबंध हैं सभी उसी आकर्षण शक्ति के कारण हैं -- रक्षा, रंजन, परस्पर हित-चिंतन आदि इसी आकर्षण के परिणाम हैं तथा घृणा, द्वेष, क्रोध आदि अपसारण शक्ति के कारण। द्रव्य के इसी ‘‘दोमुंही’’ चाल से जगत का अस्तित्व है। शुक्लजी के तुलसी में जगत् का यह आकर्षण एवं अपसारण व्यापार पूर्णता से है। इस अनेक रूपात्मक जगत् की झलक तुलसी के रामचरित मानस में देखी जा सकती है। ‘‘संसार में मनुष्य मात्र की समान वृत्ति कभी नहीं हो सकती। वृत्तियों की भिन्नता के बीच जो धर्म-मार्ग निकल सकेगा वही अधिक चलता होगा जिसमें शिष्टों के आदर, दीनों पर दया, दुष्टों का दमन आदि जीवन के अनेक रूपों का सौन्दर्य दिखाई पड़ेगा, वही सर्वांगपूर्ण लोकधर्म का मार्ग होगा।’’[50] तुलसी के रामशील, सौन्दर्य और वीरता के प्रतिमूर्ति हैं। यही भेद में अभेद दृष्टि  है।

            रामचन्द्र शुक्ल कविता में बाहरी और भीतरी प्रवृत्तियों का समन्वय चाहते हैं। इसे ही उन्होंने अपनी भूमिका में द्रव्य और शक्ति की एकता कहा है। उन्होंने लिखा है कि ‘‘द्रव्य और शक्ति का नित्य संबंध है। एक ही भावना दूसरे के बिना नहीं हो सकती। शक्ति के बिना द्रव्य रह सकता है द्रव्य के आश्रय के बिना शक्ति कार्य कर सकती है। अपने चारों ओर जो कुछ हम देखते हैं वह सब द्रव्य और शक्ति का ही कार्य है।’’[51] विश्व-प्रपंच की भूमिका के इस उद्धरण से स्पष्ट है कि घनात्मक और ऋणात्मक तथा बाह्य और आंतरिक शक्तियाँ ही इस जगत् या सृष्टि के मूल में हैं। ये दोनों विरोधी शक्तियाँ ही इस सृष्टि के लिए फलप्रद हैं। अपने इतिहास में जायसी के विवेचन के क्रम में आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि ‘‘हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा।’’[52] यहाँ शुक्लजी की एकत्व दृष्टिकोण देखा जा सकता है। इसके पहले कबीर ने मूर्खतापूर्ण आडंबरों को अपने फटकार से साफ करने का प्रयास किया था। 1920 के आस-पास भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगे का सूत्रपात हो चुका था। विश्व-प्रपंच की भूमिका 1920 में लिखी गई तथा इसी के आसपास 1921-22 में जायसी ग्रंथावली की भूमिका भी शुक्लजी ने लिखी थी। हिन्दुओं और मुसलमानों की कटुता को मिटाने के लिए भला जायसी से ज्यादा सटीक कवि कौन हो सकता था। इसी को शुक्लजी ने दर्शन की भाषा में दो विरोधी शक्तियों का संतुलन या द्रव्य तथा शक्ति का नित्य संबंध कहा है। यह नित्यता अंत में ‘‘भेद में अभेद’’ के बिन्दु पर अनुस्यूत होती है।

            रामचन्द्र शुक्ल की सम्पूर्ण कृतियों से जिस मनुष्य की सृष्टि होती है वह लौकिक है। वे जीवन, जगत तथा मनुष्य की जो व्याख्या प्रस्तुत करते हैं वह तत्ववादी दृष्टि से नहीं बल्कि विकासवादी दृष्टि से। उनका स्पष्ट कथन है कि ‘‘प्रत्येक देश में काव्य का प्रादुर्भाव इसी जगत रूपी अभिव्यक्ति को लेकर हुआ है। इस अभिव्यक्ति के सम्मुख मनुष्य कहीं प्रेमलुब्ध हुआ, कहीं दुःखी हुआ, कहीं क्रुध हुआ, कहीं डरा, कहीं विस्मित हुआ और कहीं भक्ति और श्रद्धा से उसने सिर झुकाया है।’’[53] यहाँ शुक्लजी ने जितने व्यापारों को दिखाया है सभी लौकिक हैं। अतः इतिहासबद्ध भी है। ये सारे व्यापार देश -काल बद्ध हैं। शुक्लजी विभाव को ही भाव का प्रकृत आधार मानते हैं।

            आचार्य शुक्ल ने कलावाद का विरोध किया। वे कला को जीवन के लिए ही मानते थे। वह कला जो कला के लिए हो, शुक्लजी को स्वीकार्य नहीं है। अपनी भूमिका में शुक्लजी ने लिखा है कि जगत की कोई भी क्रिया निष्प्रयोजन नहीं है। ‘‘शक्ति या तो निहित या अव्यक्त रूप में रहती है अथवा व्यक्त या क्रियमाण।’’[54] कलावाद के विरोध को इसी संदर्भ में देखना चाहिए। वे कलावाद के साथ व्यक्तिवाद को लगा देख रहे थे और व्यक्तिवाद लोक या समाज के लिए घातक है। ‘‘इसलिए आचार्य ने व्यक्ति के विकल्प में लोक को, व्यक्तिधर्म के विरूद्ध लोकधर्म को और व्यक्ति हित के ऊपर लोकमंगल को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया था।’’[55]  छायावाद विरोध शुक्लजी ने संभवतः इसी व्यक्तिवादी प्रवृत्ति तथा कार्य-कारण श्रृंखला के अभाव में करते हैं। छायावाद को वे अपने युग से नहीं जोड़ पाते। उस समय काव्य पर हृदय हावी हो रहा था। सब कुछ हृदयमय था। जो अव्यक्त है, अगोचर है उसके वियोग में कविताएँ लिखी जाने लगीं। यह स्थिति शुक्लजी के बौद्धिक मन के अनुकूल नहीं थी। ‘‘काव्य में जब अव्यक्त और अनिर्वचनीय की धूम हो तब अनुभूति की सही-सही पैमाइश और पड़ताल, उसके तथ्य और ब्योरों का चुनाव और संघटन, उसकी मार्मिकता का अनुसंधान और नियोजन क्योंकर जरूरी हो! इस पृष्ठभूमि में जबकि सच्चे काव्य और काव्य-स्फिति के बीच फर्क करना मुश्किल था और सब कुछ हृदयमय हो रहा था, शुक्लजी का काव्य में बुद्धि-तत्व पर जोर देना लगभग एक क्रांतिकारी बात थी।’’[56] यह बुद्धि-तत्व शुक्लजी की वैज्ञानिक समझ की ही देन है। जो लोग शुक्लजी पर भाववादी होने का आरोप लगाते हैं उन्हें अपना आरोप सिद्ध करने के पहले इसे भी देखना होगा।

            वास्तव में शुक्लजी तो पूरी तरह से भौतिकवादी ही हैं और ही भाववादी। वे किसी भी वाद की सीमा में समा नहीं पाते हैं। डॉo विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में कहें तो ‘‘विज्ञान-संबंधी पर्याप्त जानकारी हासिल करने के बाद शुक्लजी का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हुआ था। इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि वे साहित्य की जागतिक व्याख्या करते हैं, अध्यात्म शब्द की काव्य या कला के क्षेत्र में कहीं कोई जरूरत नहीं समझते और अपने प्रिय कवि तुलसी को लोक-धर्म का उद्घोषक कवि कहते हैं। इसीलिए कहा गया है कि पंo रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि  वैज्ञानिक, प्रगतिशील और इहलौकिक है।’’[57]  ध्यातव्य है यहाँ शुक्लजी को प्रगतिशील कहा गया है पर यह भी अर्द्धसत्य ही है। वे अपनी पूरी वैज्ञानिकता और बौद्धिकता के साथ वर्णाश्रम धर्म स्वीकारते हैं, ऊँच-नीच की श्रेणी को भी जगत की तरह नित्य मानते हैं। यह अलग बात है कि आलोचना की जिस दृष्टि का विकास शुक्लजी ने किया उसका सीधा संबंध यदि बन सकता है तो प्रगतिवादियों से ही। वे सीधे-सीधे भाववादियों से नहीं जुड़ पाते। हम कह सकते हैं कि भाववादियों के बीच शुक्लजी भौतिकवादी हैं तो भौतिकवादियों के बीच भाववादी।

            विश्व-प्रपंच की भूमिका में शुक्लजी ने लिखा है कि ‘‘गत शताब्दी में ज्यों-ज्यों भौतिक विज्ञान, रसायन, भूगर्भ विधा, प्राणिविज्ञान, शरीर विज्ञान इत्यादि के अन्तर्गत नयी-नयी बातों का पता लगने लगा और नए-नए सिद्धांत स्थिर होने लगे, त्यों-त्यों जगत के सम्बंध में लोगों की जो भावनाएँ थीं वे बदलने लगीं।’’[58] निश्चित रूप से विज्ञान के ज्ञान का ऐसा साधारणीकरण उस समय योरप में संभव रहा हो, परन्तु भारत में यह बात नहीं थी। नवजागरणकालीन भारत में भी विज्ञान की चेतना इस तरह से नहीं फैली थी। ऐसे में शुक्लजी ने समय की माँग को पहचाना और विज्ञान के प्रकाश में वस्तुजगत की पुरोहिती व्याख्या को विज्ञान की व्याख्या में बदलने का प्रयास किया। वैज्ञानिक नियमों की रोशनी में पुरानी-चिन्तन-पद्धति के दोषों के परिहार का प्रयास किया। अपने जीवन जगत के विषय में शुक्लजी ने जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, उसकी जड़ें धर्म में ही हैं। वे धर्म से बाहर नहीं निकल पाते। यह धर्म से बाहर नहीं निकल पाना उनकी कमजोरी भी है तथा शक्ति भी। ‘‘विश्व-प्रपंच’’ का अनुवाद कर उसकी विस्तृत भूमिका लिखनेवाला आलोचक बखूबी जानता था कि आधुनिक युग की वैज्ञानिक मानसिकता साहित्य की व्याख्या में आध्यात्मिक शब्दावली का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं कर सकती। विशेषकर जीवन-व्यवहार के दैनन्दिन अनुभवों में -- भले ही वे कला के क्षेत्र से संबद्ध हों। समस्या चाहे काव्य में रहस्यवाद की हो, छायावाद के अनुभूति क्षेत्र की, अथवा रस-दशा की व्याख्या करने की, शुक्लजी ने अलौकिक और आध्यात्मिक से बचाव के लिए पूरी सतर्कता बरती है। प्राचीन और मध्ययुगीन के विरूद्ध यही लोकबद्धता शुक्लजी को आधुनिक और समयानुकूल सिद्ध करती है।

 

संदर्भ :

[1]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo-106
[2]      वही, पृo-109
[3]      रामविलास शर्मा, रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2014, पृo-12
[4]       भवदेव पांडेय, आचार्य रामचंद्र शुक्ल: आलोचना के नये मानदंड, राजकमल प्रकाशन, संo 2003, पृo-11
[5]       शंभुनाथ, बौद्धिक उपनिवेशवाद की चुनौती और रामचन्द्र शुक्ल, यात्री प्रकाशन, संस्करण 1988, पृo-2
[6]       वही, पृo -3
[7]       रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo-113
[8]      वही, पृo 156-157
[9]       वही, पृo-157
[10]     शंभुनाथ, बौद्धिक उपनिवेशवाद की चुनौती और रामचन्द्र शुक्ल, यात्री प्रकाशन, संस्करण 1988, पृo-4
[11]     रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संo 2004, पृo-155-156
[12]     वही, पृo-156
[13]     वही
[14]     वही, पृo-157
[15]     आलोचना, संo नामवर सिंह, अंक 20, जनवरी-मार्च 1972, पृo-58
[16]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo-128
[17]      रामचन्द्र शुक्ल , सूरदास, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2008, पृo -19
[18]     वही
[19]     रामचन्द्र शुक्ल, रस मीमांसा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2024, पृo-12
[20]     रामचन्द्र शुक्ल, सूरदास, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2008, पृ6-7
[21]     वही, पृo -7
[22]     रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo -181
[23]     वही, पृo -181
[24]     वही, पृo-182
[25]     मार्क्स और एंगेल्स, धर्म, प्रगति प्रकाशन, हिन्दी अनुवाद, संस्करण 1984, पृo-37
[26]     आलोचना, संo नामवर सिंह, अंक 20, जनवरी-मार्च 1972, पृo-61
[27]      रामचन्द्र शुक्ल, सूरदास, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2008, पृo-13
[28]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo-158
[29]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-2, संo विश्वनाथ प्रताप मिश्र, नागरी प्रचारिणी सभा, संo संवत् 2027, पृo-48
[30]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo-156
[31]      रामचन्द्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-1, इंडियन प्रेस प्राo लिo, संस्करण 1977, पृo-1
[32]      रामचन्द्र शुक्ल, रस मीमांसा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2024, पृo-130
[33]      रामचन्द्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-1, इंडियन प्रेस प्राo लिo, संस्करण 1977, पृo-141
[34]      आलोचना, संo नामवर सिंह, अंक 20, जनवरी-मार्च 1972, पृo-62
[35]     रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-2, संo विश्वनाथ प्रताप मिश्र, नागरी प्रचारिणी सभा, संo संवत् 2027, पृo -122
[36]     रामचन्द्र शुक्ल, रस मीमांसा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2024, पृo-21
[37]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-2, संo विश्वनाथ प्रताप मिश्र, नागरी प्रचारिणी सभा, संo संवत् 2027, पृo-227
[38]     रामचन्द्र शुक्ल, रस मीमांसा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2024, पृo-22
[39]     वही, पृo-21
[40]     वही, पृo-80
[41]     रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-2, संo विश्वनाथ प्रताप मिश्र, नागरी प्रचारिणी सभा, संo संवत् 2027, पृo-48-49
[42]      वही, पृo-150
[43]      वही, पृo-132
[44]      वही, पृo-43
[45]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo-155
[46]     वही
[47]     रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, संo संवत् 2042, पृo-1
[48]      वही, पृo-230
[49]      मलयज, रामचन्द्र शुक्ल, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1987, पृo-30
[50]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo-188
[51]     वही, पृo-118
[52]     रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, संo संवत् 2042, पृo-7
[53]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-2, संo विश्वनाथ प्रताप मिश्र, नागरी प्रचारिणी सभा, संo संवत् 2027, पृo-49
[54]     रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo-115
[55]      मलयज, रामचन्द्र शुक्ल, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1987, पृo-13
[56]     वही, पृo-55
[57]      विश्वनाथ त्रिपाठी, हिन्दी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2007, पृo-61
[58]      रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि भाग-3, संo नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2004, पृo-113
 

अनिल कुमार
असोसीएट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) नयी दिल्ली - 110021
anilkumar@mln.du.ac.in, 9868264503
 
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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