राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारतीय ज्ञान परम्परा की उपादेयता
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डॉ. सत्यपाल यादव, संध्या यादव
शोध सार : भारत का अतीत प्राचीन ज्ञान परम्परा और उन्नत शिक्षा प्रणाली के रूप में गौरवमयी रहा है, जिसमें विभिन्न विद्वानों के द्वारा प्रसिद्ध धर्मग्रंथों की रचनाएं की गई, जिन्हें वैश्विक ख्याति प्राप्त है। इसके अलावा वेद, पुराण, ब्राहमण ग्रंथ तथा आरण्यक एवं बौद्ध तथा जैन धर्म की शिक्षाओं ने भारतीय ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाया। प्राचीन समय में विभिन्न विद्वान तथा विदुषी महिलाओं ने अपने योगदानों से भारत को विश्व में ख्याति दिलाई, जिनमें चरक, सुश्रुत, बराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, पाणिनि, पतंजलि, नागार्जुन, मैत्रेयी, अपाला, घोषा तथा गार्गी प्रमुख रहें। आधुनिक शिक्षा प्रणाली की शुरुआत भारत में ब्रिटिश काल से मानी जाती है, जो लार्ड मैकाले की देन है, लेकिन आजादी के बाद आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली को नए सिरे से तैयार करने की जरूरत महसूस की गई, इसीलिए देश की आवश्यकता और आम लोगों की शैक्षिक आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए समय समय पर शिक्षा नीतियां लाई गईं, जिनमें 1968 तथा 1986 की शिक्षा नीति तथा 1992 का संशोधन शामिल है। इसी क्रम में भारत को सशक्त बनाने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लायी गई, जिसमें बहुमुखी विकास, तार्किकता, वैज्ञानिकता, दूरस्थ, वर्चुअल, वैश्विक प्रतिस्पर्धी तथा बहुविषयक शिक्षा पर बल दिया गया है। यह शिक्षा नीति प्राचीन सनातन ज्ञान और विचारों की समृद्ध परम्परा को प्रतिबिंबित करती है। प्राचीन समय में जिस तरह से तक्षशिला, नालंदा तथा विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय अपने ज्ञान के लिए जाने जाते थे, जिसके कारण
भारत वैश्विक पटल पर विश्वगुरु के रूप में जाना जाता था। उसी तरह पुनः राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी भारतीय शिक्षा पद्धति को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने की बात कही गई है।
बीज शब्द : ज्ञान, परम्परा, शिक्षा, चिकित्सा,
धर्मग्रन्थ, नालंदा, जैन, बौद्ध, विक्रमशिला, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 आदि।
भारत
का अतीत प्रारम्भिक समय से ही गौरवमयी रहा है, यहाँ देश-विदेश से लोग ज्ञान प्राप्त हेतु आये। विभिन्न विद्वान ज्ञान प्राप्त कर इसका प्रचार-प्रसार समय समय पर वैश्विक जगत में किये। लेकिन समय के साथ इसमें परिवर्तन हुआ भारत आधुनिक समय में अपनी ज्ञान परंपरा को सुदृढ़ नहीं रख सका। आज हम जिन आविष्कारों का जनक पश्चिमी देशों को मानते हैं या जो भी अनुसंधानात्मक कार्य हो रहे हैं उनकी कहीं न कहीं झलक
भारतीय प्राचीन धर्मग्रंथ यथा वेदों तथा अन्य ग्रंथों में देख सकते हैं। इसका प्रमाण आज भी हम विभिन्न देशों में हो रहे अनुसंधनात्मक कार्यों में देख सकते हैं। प्राचीन भारत में भी अनुसन्धान होते थे जैसे आज हो रहें हैं, लेकिन उस समय भारतीय विद्वानों द्वारा उसे प्रमाणीकरण न कराए जाने
के कारण वे उन तक ही सीमित रहे, जिसका श्रेय बाद में किसी और को दे दिया गया। ऋग्वेद में भागीरथ द्वारा गंगा नदी को आकार देने तथा उनके कुशल मार्गदर्शन आज के अभियंता की तरह थी। विभिन्न नदियों को कैसे आकार दिया गया तथा कितना कालावधि लगा, कैसे कठोर बर्फ पर जमें बादलों को पवन के माध्यम से हटाया गया, इसका जिक्र है। ऋग्वेद में हीं जल जहाज, वायु विमान, ग्रह, नक्षत्र, तारे, गणनाएँ, आकाश गंगा, सूर्य, चन्द्रमा से लेते हुए कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण जैसी तकनीक देखने को मिलती हैं (माशेलकर, 2006 पृ.19)। यज्ञ हवन
कुंड मंत्रोच्चारण के माध्यम से जन कल्याण का कार्य किया जाता था।
प्राचीन
भारत में ज्ञान का प्रसार हेतु विभिन्न सभा एवम् समिति का गठन होता था। प्राचीन समय में भारतीय शिक्षा प्रणाली को देखें तो विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रसिद्ध धर्म ग्रंथो की रचनाएँ की गयी, जिन्हें विश्व में ख्याति प्राप्त है। इसके अलावा वेद, पुराण, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक बौद्ध एवम् जैन धर्म की शिक्षाओं ने भारतीय ज्ञान परम्परा को आगे बढाया। प्राचीन ज्ञान परम्परा को ध्यान में रखते हुए डॉ. के. कस्तूरीरंगन के निर्देशन में 29 जुलाई 2020 राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बनायीं गयी है, जिसमें प्राचीन एवम् सनातन भारतीय ज्ञान और विचार
की समृद्ध
परम्परा को ध्यान में रखा गया है, जो ऐसी शिक्षा की सिफारिश करती है कि 2040 तक भारत के लिए ऐसी शिक्षा प्रणाली हो जो विश्व में किसी से पीछे न रहे तथा
सभी को सामाजिक, आर्थिक रूप से समान शिक्षा प्राप्त हो सके। क्योंकि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुँच प्रदान करना वैश्विक स्तर पर समानता एवं सामाजिक न्याय, वैज्ञानिक उन्नति, राष्ट्रीय एकीकरण और सांस्कृतिक संरक्षण ही भारत के सतत विकास और आर्थिक विकास की कुंजी है। किसी भी देश के विकास के लिए सार्वभौम शिक्षा ही वह उचित माध्यम है, जिससे देश समृद्ध प्रतिभा और सर्वोत्तम विकास की ओर आगे बढ़ सकता है, जिसका संवर्धन व्यक्ति समाज राष्ट्र विश्व के लिए भलाई के लिए कर सके। आने वाले दशकों में भारत का उच्चतर गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक अवसर ही भारत के भविष्य की दशा दिशा व भविष्य को
तय करेगा।
वैश्विक
प्रतिस्पर्धा बढ़ते विज्ञान तकनीक तथा अनुसंधात्मक कार्यों में हमारे युवा समय के साथ कहीं पीछे न रह जाएं,
इसी को ध्यान में रखते हुए, भारत को सशक्त एवम् समृद्ध बनाने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लाई गयी है, जिसमें विज्ञान तकनीक, वैश्विक प्रतिस्पर्धा एवम् सीखने के बहुविषयक शिक्षा पर बल दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का मानना है कि, “वैश्विक परिदृश्य बहुत तेजी से बदल रहा है, इसलिए बच्चों व युवाओं को
ऐसा ज्ञान सीखाया जाये जो तार्किक एवम् सदुपयोगी हो तथा जो कुछ सीखाया जाए उसे भी सीखने के साथ ही सतत सीखने की कला को भी सीखें।
प्राचीन
काल से ही भारत ज्ञान का केंद्र रहा है। ज्ञान परम्परा और सत्य की खोज को भारतीय दर्शन में सदा सर्वोच्च मानवीय लक्ष्य माना जाता रहा है। प्राचीन भारत में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा विद्यालय के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में नहीं बल्कि पूर्ण आत्म ज्ञान और मुक्ति के रूप में माना गया”(राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020,पृ.5)। प्राचीन समय
में तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, बल्लभी जैसे संस्थानों में अध्ययन के लिए विश्व के विभिन्न देशों से लोग आते थे। अगर हम तक्षशिला की बात करें तो यह विदेशी आक्रमणों को सहने के बावजूद यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का विश्व प्रख्यात हिन्दू एवम् बौद्ध शिक्षा का केंद्र था, जिसकी स्थापना 800-450 ईसा पूर्व में गांधार राज्य में हुई, जो वर्तमान में पाकिस्तान के रावलपिंडी में है। आत्रेय, चाणक्य धौम्य नागार्जुन जैसे विद्वान इसी में अध्ययन कर फिर अध्यापन किए। सिकंदर भी भारत से वापस जाते समय बहुत से विद्वानों को अपने साथ यहाँ से ले गया। इसमें विद्यार्थियों को विज्ञान, कृषि, चिकित्सा, दर्शन, वास्तुकला, स्थापत्य कला, इतिहास, भूगोल व अन्य विषयों
की शिक्षा दी जाती थी। इसी तरह नालंदा में भी विश्व से बौद्ध धर्म के शिक्षा के लिए बौद्ध धर्म अनुयायी आते थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरण से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। यह संस्थान पठन-पाठन के कारण उच्च शिक्षा के ज्ञान के लिए प्रख्यात था।
प्राचीन काल में स्थापित इन शिक्षण संस्थानों ने भारतीय ज्ञान परम्परा को आगे बढ़ाया। भारतीय ज्ञान परम्परा को बढ़ाने में इन विद्वान एवम् विदुषी में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, महावीर, भाष्कराचार्य, चरक, सुश्रुत, श्रीधर, पाणिनि, माधव, गौतम, शंकरदेव, पतंजलि, चक्रपाणि,
चाणक्य, अपाला, लोपामुद्रा, मैत्रेयी तथा गार्गी का योगदान रहा। जिन्होंने अपने कार्यों एवम् ज्ञान से समूचे विश्व को प्रभावित किया। इन विद्वानों के योगदानों को वैश्विक पटल पर देखें तो चरक ने प्राचीन भारत में चिकित्सा एवम् आयुर्वेद को आगे बढाया एवम् चरक संहिता उनकी चिकित्सा ज्ञान का व्यापक संकलन है, जिसमें शरीर क्रिया, रचना विज्ञान तथा रोग प्रबंधन शामिल हैं। जिससे ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में इलाज पद्धति कैसी थी(प्रसाद,2018,पृ.230)। उनके निवारक
चिकित्सा तथा समग्र उपचार के दृष्टिकोणों ने दुनिया के चिकित्सा पद्धति को प्रभावित किया तो वहीं, सुश्रुत प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सक के रूप में अग्रणी रहे उन्हें सर्जरी के क्षेत्र में अपने योगदानों के लिए जाना जाता है। उनका ग्रंथ सुश्रुत संहिता प्लास्टिक सर्जरी तथा नेत्र जैसी चिकित्सा पद्धति के लिए जाना जाता है। सुश्रुत को एनस्थीसिया, परिष्कृत शल्य चिकित्सा तथा शल्य नैतिकता पर बल देने के कारण शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है। आर्यभट्ट को खगोलशास्त्रीय गणतीय योगदानों के कारण भारतीय गणित के जनक के रूप में जाना जाता है, उनके योगदानों में शून्य की अवधारणा, दशमलव संकेतन पाई का मान तथा ग्रहों के स्थिति एवं पृथ्वी के घूमने संबंधी विचार है जिसके लिए उन्हे विश्व मे जाना जाता है। भास्कर द्वितीय जिन्होंने अपनी कृति सिद्धांत शिरोमणी से इस क्षेत्र में क्रांति
ला दी उन्होंने त्रिकोणमिति मूल्यों के गणना एवं आकाशीय गति के नए सिद्धांत दिए, जिसने भविष्य की गणतीय प्रगति को दिशा दी। कणाद जिन्होंने वैशेषिक नाम से जाना जाने वाला परमाणु सिद्धांत दिया, उनका मानना था की पदार्थ अविभाज्य कणों से मिलकर बना है जिन्हें अणु या परमाणु कहा जाता है, उनका परमाणु सिद्धांत समय से बहुत आगे था उन्होंने इसे छठी सदी में ही दे दिया था, जिसका प्रयोग आधुनिक समय की भौतिकी में प्रतिपुष्ट हुआ। ब्रम्हगुप्त ने गणना करने में शून्य के प्रयोग का शुरुआत की तथा इन्होंने अपने ज्ञान से समूचे विश्व को प्रभावित किया। पाणिनि संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी की रचना की तो, वहीं पतंजलि ने योग के क्षेत्र में अपना योगदान देकर भारतीय ज्ञान परम्परा को आगे बढ़ाया। सिर्फ भारतीय विद्वानों ने ही नहीं अपितु बहुत से विदेशीय यात्रियों ने भी भारतीय साहित्य एवम् परम्पराओं को लेखन करने का कार्य किया। जिसमें अलबरूनी, फाहियान, ह्वेनसांग, रावेर्तो नोबिल, विलियम जोन्स प्रमुख हैं। अलबरूनी द्वारा लिखित पुस्तक ‘तारीख-ए-हिन्द’ से
भारतीय सभ्यता एवम् संस्कृति का पता चलता है। अलबरूनी 973ई. में मध्य एशिया में जन्म लिए तथा ये ईरानी थे, ये महमूद गजनवी के लुटेरे आक्रमणकारियों के साथ आए और भारत आकर भारत की सभ्यता एवम् संस्कृति को जाना, इन्होंने भारत के प्राचीन काल के विभिन्न साहित्यों ,गणित ,विज्ञान, धर्म दर्शन का अध्ययन करने के उपरान्त ही तारीख-ए-हिन्द का
लेखन किया। यह पुस्तक भारतीय ज्ञान परम्परा को जानने का प्रमुख माध्यम है। अलबरूनी पुस्तक के अंतिम भाग में लिखते हैं कि “इस पुस्तक में हमनें जो जानकारी दी है, हमें लगता है कि उसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति जो भारतीयों से धर्म विज्ञान और साहित्य सम्बंधित उनकी सभ्यता से जुड़ी बातों पर चर्चा करना चाहता है, इससे लाभान्वित होगा”(अमर्त्य सेन, 2005,पृ.140)। चीनी यात्री
फाहियान एवम् हेन्सांग क्रमशः पांचवी व सातवीं शताब्दी
में बौध्द धर्म का अध्ययन करने आये परन्तु इन्होंने बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के साथ ही भारतीय विभिन्न धर्म ग्रंथ व विभिन्न विषयों
पर गहराई से अध्ययन किया तदोपरांत फाहियान ने ‘फौ-कुओ थी’ ग्रन्थ की और ह्वेनसांग ने ‘सी-यू-की’ रचना की जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जानने में सहायक है। वहीं वैदिक कालीन इतिहास पर नजर डालते हैं तो यह पता चलता है कि उस समय की सामाजिक एवम् आर्थिक संरचना कितनी उन्नत थी, जिसमें स्त्री एवम् पुरुष को शिक्षा के समान अधिकार थे, ऋग्वैदिक काल में सामाजिक जीवन अच्छा होने के साथ हीं स्त्रियों की दशा काफी अच्छी थी। इस काल में महिलाएं शास्त्रार्थ करती। उनको अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता थी, दहेज़ प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतिया नहीं थी। विधवा विवाह का भी चलन था। वैदिक काल में बहुत से वैदिक ग्रन्थों का लेखन हुआ, जिसके लेखन होनें में सहस्त्रों वर्ष लग गयें जिसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, कल्प व अन्य हैं।
ऋग्वैदिक काल में कई विदुषी महिलाएं हुई जिन्होंने ऋग्वैदिक मंत्र का लेखन कार्य किया इनमें घोषा, अपाला, लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिकता, निवावरी प्रमुख थी(पाठक, 1972,पृ.575)। वैदिक काल
में भारत गणना के क्षेत्र में भी उन्नत था। बड़ी बड़ी संख्याओं, सूत्रों, सिद्धांतों का जिक्र यजुर्वेद के मन्त्रों में दृष्टिगोचर होते हैं। यजुर्वेद में भी बड़ी से बड़ी संख्याओं का जिक्र किया गया जो इस प्रकार है: “इमा में अग्न इष्टिका, धनेव: संत्वेका च दश च
दश च शतं चं
शतं सहस्त्रं च सहस्त्रं चायुतं
चायुतं न नियुतं च
नियुतं च प्रुयुतं चार्बुदं
च न्युर्बुदं च समुद्रश्च मध्यं
चान्त्श्च परार्ध चेता में अग्न इष्टका धनेवः सन्त्वमुत्रामुष्मिल्लोके”। अर्थात हे
अग्नि पांच चिति में स्थापित जो ये इष्टका है वे तुम्हारी कृपा से मुझे फल देने वाली गो के सामान हों। वे एक एक करके दस हों, वे दस दस करके सौ तक बढ़ जाएँ, वे सौ सौ करके सहस्त्र से बढ़कर एक लाख हो जाएँ, वे एक एक लाख से
बढ़कर दस लाख हो जाएँ। इसी प्रकार, उतरोत्तर बढ़ती हुई वे दस करोड़ अर्ब, खर्ब, निखर्ब, महापद्म, शंख, समुद्र, मध्य, अंत और परार्ध हो जाएँ(शर्मा,1997पृ.58)। वेदों में
ज्ञान का व्यापक समन्वय था। वैदिक काल की ज्ञान परम्परा आज भी सहेज कर संरक्षित करने की आवश्कता है विभिन कालखंडो के बीतने से भारत में विभिन्न कुरूतियों ने जड़ जमा ली थी, जब भारत में विभिन व्यापारिक कंपनियों का आगमन हुआ जिसने, यहाँ के सामाजिक, आर्थिक एवम् राजनैतिक परिदृश्य में उथल-पुथल लाया, जिसका प्रभाव भारतीय साहित्य एवम् संस्कृतियों पर भी दृष्टिगोचर हुआ। परन्तु इन्हीं अंग्रेज व्यापारियों में एक प्राच्यविद विद्वान विलियम जोंस का नाम सम्मान पूर्वक लिया जा सकता है, जिन्होंने भारतीय साहित्य को सहेजने संजोने का कार्य किया। उन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को समझने के लिए कलकता में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना 1784 में कलकत्ता में की, तो वहीं 1792 मे जोनाथन डंकन ने बनारस में संस्कृत
कॉलेज की स्थापना की। इसके अलावा भी ऐसे समर्थकों में जेम्स प्रिंसेप तथा एच.एच विल्सन का नाम शामिल है। इन विद्वानों ने अपने ज्ञान एवम् कार्यों से विभिन्न क्षेत्रों में भारत को विश्व में प्रतिस्थापित किया।
उपर्युक्त विद्वानों के विचारों तथा ग्रंथ के योगदानों ने भारतीय संस्कृति एवम् दर्शन से समूचे विश्व को प्रभावित किया। इसी प्राचीन साहित्य, कला, संस्कृति को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी जिक्र गया है कि प्राचीन काल से हीभारत समृद्ध रहा, यथा बाणभट्ट ने कादम्बरी में ही चौंसठ कलाओं के
ज्ञान का वर्णन किया है, जिसके तहत विभिन्न विषय शामिल थे। परन्तु आधुनिक समय में भारत अपनी साहित्य, संस्कृति, कला व भाषा को
सहेज नहीं पाया। यूनेस्को ने इस बात की पुष्टि की है कि भारत की 197 भाषा लुप्तप्राय हो चुकी हैं, कुछ भाषाएँ विलुप्त
होने की कगार पर हैं। अतः भारत की समृद्धि की इस विरासत को सहेज कर संरक्षित करने के साथ ही शोध को बढ़ावा देकर इन विलुप्त प्राय होती भाषाओं को लिपिबद्ध करने की जरुरत है(एनईपी 2020 पृ,64,87)।
इसी
को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इस बात की सिफारिश करती है कि “वैश्विक महत्व के इस समृद्ध विरासत को आने वाली पीढ़ियों के लिए न सिर्फ सहेज
कर संरक्षित करने की जरुरत है, बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था द्वारा इस पर और शोध कार्य होने चाहिए। साथ हीं इसका भी पता लगाए कि कैसे हमें वर्तमान समय में इसका उपयोग किया जाये। भारत अन्य समृद्ध देशों की तुलना में अपने शोध पर कम खर्च करता है, मात्र कुल जीडीपी का 0.69 प्रतिशत हीं व्यय करता है (एनईपी 2020 पृ.73 )। राष्ट्रीय शिक्षा
नीति 2020 शोध के क्षेत्र में बढ़ावा देने के साथ हीं शैक्षिक निवेश को अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण मानते हुए, कुल सकल घरेलू उत्पाद का छः प्रतिशत खर्च करने की सिफारिश करती है। इससे पहले शिक्षा पर छः प्रतिशतत निवेश करने की सिफारिश कोठारी आयोग में भी की गई है, उसके बाद पहली शिक्षा नीति में भी यथावत निवेश करने को कहा गया। वर्तमान सरकार द्वारा जीडीपी का कुल प्रतिशत 4.43% ही खर्च किया जा रहा है।
जिस
प्रकार, भारत की ज्ञान परंपरा प्राचीन समय में उन्नत थी, विभिन्न विश्वविद्यालयों के माध्यम से उसी प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी इसकी सिफारिश करते हुए विभिन्न कदमों को उठाया है, जिसमें इंस्टिट्यूट ऑफ इमीनेंस का विश्वविद्यालयों को दर्जा दिया जाना, जिसके तहत भारत में विश्व
के विभिन्न संस्थानों के प्रोफेसर तथा छात्र आकर अध्ययन अध्यापन कर सके इसके साथ ही विज्ञान तकनीक तथा बहुविषयकता को बढ़ावा देने के लिए वैश्विक
अंतरसंबंधी अध्यापन को बढ़ावा देने की बात कही गई है। विदेशों से अध्ययन हेतु आने वाले छात्रों को बढ़ावा देने के लिए यहाँ के प्रत्येक ऊच्च्तर शिक्षण संस्थानों में अंतर्राष्ट्रीय छात्र कार्यालय बनाने पर बल दिया गया। विश्व के 100 विश्वविद्यालयों के सूची में शामिल होने वाले विश्वविद्यालयों को विश्व के अन्य देशों में इसकी शाखा स्थापित की जाएगी(एनईपी,2020,पृ.63)। इस तरह
का प्रयास आईआईटी मद्रास ने
करते हुए अपना पहला आईआईटी तंजानिया में खोला है। भारत इस शिक्षा नीति के तहत पुनः विभिन्न लक्ष्यों को प्राप्त कर ‘विश्व गुरु’ के सपने को साकार करना चाहता है, जिस प्रकार प्राचीन समय में था।
निष्कर्ष : इस
तरह हम देखें तो भारत की प्राचीन
ज्ञान परंपरा बहुत ही उन्नत अवस्था में थी, जिसकी कल्पना हम आज कर रहें हैं वे हमारे
अतीत मे कहीं न कही मौजूद
थी। सिंधुघाटी की उन्नत नगर योजना तथा सुव्यवस्थित जल प्रणाली से लेकर विभिन्न विद्वानों द्वारा दिए गए विचार तथा सिद्धांत इसके प्रमाण है, जो यह सिद्ध करते हैं कि भारत की प्राचीन
शिक्षा प्रणाली कितनी समृद्ध थी। इसे भारत ही नहीं वैश्विक परिदृश्य में कई विचारकों द्वारा स्वीकार किया गया है। वे कहते हैं की जब हम यायावर तथा घूमन्तू कबीलों के रूप मे जंगलों में घूमा करते थे तब यहाँ की सभ्यता तथा संस्कृति काफी उन्नत तथा चरमोत्कर्ष पर थी। इसी की कल्पना राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में भी की गई है, जिसके तहत विज्ञान, तकनीक, प्रौद्योगिकी, अनुसंधात्मक कार्य, रोजगारपरक शिक्षा, बहुविषयक शिक्षा को बढ़ावा एवं आरंभिक स्तर पर मातृ भाषा में शिक्षा देते हुए, अतीत को संजोते हुए वर्तमान को प्रतिस्पर्धात्मक
उन्मुखी बनाते हुए भारत को वैश्विक मंच पर विश्वगुरु पुनः बनाने की कल्पना की गई है।
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मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार : राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020।
डॉ. सत्यपाल
यादव
अस्सिटेंट प्रोफेसर
इतिहास
विभाग,
बनारस
हिन्दू
विश्वविद्यालय
इतिहास
विभाग,
वाराणसी
संध्या यादव
शोधार्थी शिक्षाशास्त्र
विभाग,
इलाहाबाद
विश्वविद्यलय,
प्रयागराज
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