शोध सार : पितृसत्ता के बन्धनों से मुक्त कर स्त्री को ‘वस्तु’ से ‘मानव’ का स्थान प्रदान करने वाली पहल ही स्त्री विमर्श कहलाती है। साहित्य सदैव से समाज को आलोकित करने वाला एक दर्पण रहा है। सृजन की धुरी स्त्री, साहित्य के माध्यम से समाज में बार-बार चर्चित होती रही। हिंदी साहित्य की विवध विधाओं में अन्यतम उपन्यास ने स्त्री जीवन की विषम परिस्थितिओं का चित्रण बहुलता से किया। स्त्री-विमर्श की प्रमुख हस्ताक्षर ममता कालिया ने अपने पहले उपन्यास बेघर के माध्यम से पाठक समाज में स्त्री समाज के प्रति जागरूकता लाने की कोशिश की है। मूलतः कौमार्य मिथक पर आधारित इस उपन्यास ने दिखाया है कि चाहे वह पत्नी हो या प्रेमिका, पढ़ी-लिखी स्वावलंबी लड़की हो या फिर पत्नीत्व को सर्वस्व मानने वाली औरत, पितृसत्ता ने किसी को नहीं छोड़ा। अपनी कलम के माध्यम से इस उपन्यास में उन्होंने जिन स्त्री-पात्रों का सृजन किया, वे स्त्री जीवन के एक-एक चित्र पाठक समाज के मध्य उकेरती हैं। साथ ही साथ एक प्रश्न चिह्न भी खड़ा करती हैं कि पितृसत्ता की इस अमानवीयता की शिकार केवल स्त्री ही हो रही है या सम्पूर्ण मानव समुदाय के लिए यह एक चेतावनी है!
बीज शब्द : स्त्री विमर्श, पुरुषवादी मानसिकता, स्त्री नैतिकता, लिंग और जेंडर, सुन्दरता और स्त्री, भारतीय समाज व्यवस्था, दहेज प्रथा, विचारधारा, बलात्कार, शोषण।
मूल आलेख : “आज बदलती स्थितियों में भी कहीं भी औरत को पुरुष के बराबर महत्त्व नहीं मिल पा रहा है। यदि कानून औरत को बराबरी का आधार दे भी तो सामाजिकता, नैतिकता और लोक व्यवहार उसके आड़े आ जाते हैं।”1
स्त्री विमर्श उस वैचारिक और आलोचनात्मक पक्ष को सूचित करता है, जिसके तहत संसार की आधी आबादी स्त्री, सदियों से समाज में व्याप्त लिंग आधारित भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाती रही है। यह गुहार पुरुष-विरोधी न होकर कदम से कदम मिलाकर चलने का आग्रह है। “स्त्रीवाद स्त्रीशक्ति के महिमागान का कोई शास्त्र नहीं है। मनुस्मृति नहीं है वह। स्त्रियों को उनकी ख़ूबियों-ख़ामियों के साथ मनुष्य रूप में स्वीकारे जाने की हामी है।”2 सदियों से पितृसत्ता ने नारी को कभी ‘देवी’ मानकर उसमें पवित्रता, पत्नीत्व, दया की मूर्ति आदि गुणों की अपेक्षा की, तो कभी इसी समाज ने नारी को भोग-विलास की वस्तु, पुरुष पतन का कारण कहकर उसे मानवीय श्रेणी से नीचे रखकर देखा गया। महादेवी वर्मा इस विषय पर कहती है, “वह पवित्र देव-मन्दिर की अधिष्ठात्री देवी भी बन चुकी है और अपने गृह के मलिन कोने की बन्दिनी भी। कभी जिन गुणों के कारण उसे समाज में अजस्र सम्मान और अतुल श्रद्धा मिली, जब प्रकारान्तर से वे ही त्रुटियों में गिने जाने लगे तब उसे उतनी ही मात्रा में अश्रद्धा और अनादर भी, अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर स्वीकार करना पड़ा।”3
आधुनिकता के साथ-साथ साहित्य और समाज में कई ऐसी गतिविधियाँ हुईं, जिससे नारी जीवन के विविध चित्र समाज के सन्मुख आलोकित हो उठे। साहित्य ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को एक नवीन दिशा प्रदान करने में ममता कालिया का प्रथम उपन्यास बेघर अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा। पुरुष समाज में व्याप्त स्त्री नैतिकता की खोखली धारणा, स्त्री को स्त्री-उचित व्यवहार सिखाने वाला समाज, दहेज जैसी क्रूर प्रथा पर शिक्षित समाज की चुप्पी, सुन्दरता की कसौटी पर कसी जाती नारी जीवन की त्रासदी आदि विषयों पर पाठक समाज का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया है।
“घास भी मेरी तरह है
जैसे ही यह होती है सिर उठाने योग्य
आ पहुँचता है कटाई करनेवाला उन्मत्त,
बना देने को इसे मुलायम मखमल”4
नारी जीवन गाथा को अपने साहित्य का हिस्सा बनाने वाली ममता कालिया आधुनिक हिंदी साहित्य का एक सशक्त नाम है। बेघर उपन्यास की कथावस्तु पुरुष जीवन को केंद्र में रखकर स्त्री जीवन के विविध पहलुओं को उजागर करने का सफल प्रयास है। नायक परमजीत अपनी खोखली पुरुषवादी मानसिकता के चलते नायिका संजीवनी को शारीरिक रूप से पवित्र न मानकर त्याग कर देता है और रमा नामक स्त्री से शादी कर लेता है। जिसे उसने विवाह के लिए इसलिए उपयुक्त माना क्योंकि रमा कुँवारी एवं सुन्दर थी। रमा की रुढ़िवादी मानसिकता, झगड़ालू स्वभाव, पुत्र की लालसा के चलते अंत में परमजीत की दिल के दौरे से मौत हो जाती है। यहाँ विजया, केकी, बिम्मा आदि पात्र न केवल घटनाक्रम को आगे बढ़ाते हैं, अपितु नारी जीवन के एक-एक चित्र को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
“हमारे समाज में स्त्री एक डिस्पोजेबल नैपकिन की तरह है, जिसे अगर एक पुरुष इस्तेमाल कर ले तो वह खराब हो जाती है।”5 नैतिक एवं अनैतिक शब्द मूलतः उचित एवं अनुचित का बोध कराते हैं। स्त्री नैतिकता पर भारतीय समाज व्यवस्था में आज भी प्रश्न चिह्न लगा हुआ है। साधारणत: देखा जाता है कि पुरुष एवं नारी के लिए नैतिक नियम एक से नहीं हैं। परंपरा का पालन, यौन शुचिता का पालन एवं पुरुष की अधीनता स्वीकार करने को नारी के लिए नैतिकता का पर्याय मान लिया जाता है। शिक्षित-अशिक्षित, स्त्री नैतिकता के प्रति पुरुष समाज में व्याप्त संकीर्ण दृष्टिकोण को महिला लेखिकाओं ने अपने साहित्य में गंभीरता से उभारा। ममता कालिया की कलम से निकला बेघर इस दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण ठहरता है। ममता कालिया ने यहाँ स्त्री के लिए निश्चित किए जाने वाले अवांछित नैतिक मूल्यों एवं जड़ पुरुषवादी मानसिकता का करारा जवाब दिया है। स्त्री के विवाहपूर्व शारीरिक सम्बन्ध को यह पुरुषवादी समाज स्वीकार नहीं कर पाता, लेकिन यही समाज एक पुरुष के लिए इस प्रकार का कोई भी नैतिक मूल्य तय नहीं करता।
बेघर उपन्यास की नायिका संजीवनी समाज के इन्हीं नीति-नियमों की शिकार एवं पीड़ित है, जिसे बिना किसी कसूर के पुरुष की दकियानूसी विचारधारा से प्राप्त मानसिक आघात को बार-बार झेलना पड़ता है। संजीवनी को अपने जीवन की सार्थकता तथा प्रेम मानने वाला परमजीत उसे केवल और केवल इसी कारण से त्याग देता है कि उसको लगता है कि संजीवनी एक चरित्रहीन लड़की है। उसका मानना है कि संजीवनी का उससे पहले एक व्यक्तिगत जीवन रहा होगा, जिसका भागीदार कोई और रहा है। लेखिका ने इस परिदृश्य को इस प्रकार दिखाया “परमजीत को तकलीफ हुई, बेतरह तकलीफ, यह जानते हुए कि वह पहला नहीं था....संजीवनी की उससे अलग एक व्यक्तिगत दुनिया रही होगी जिसका भागीदार कोई और रहा होगा....पहला न होने की निराशा के सन्नाटे के साथ-साथ उसे अपनी जिन्दगी का सारा नक्शा मुचड़ा हुआ दिखाई दे रहा था।“6
आज भी समाज बलात्कारियों से ज्यादा पीड़ित स्त्री पर प्रश्नचिह्न लगाता है। समाज में बलात्कारियों का तो विवाह कहीं न कहीं हो जाता है, लेकिन पीड़ित स्त्री सदैव के लिए विवाह संस्था से बाहर हो जाती है। संजीवनी इसी मानसिकता की शिकार थी। पुरुषसत्ता की इसी मानसिकता पर प्रहार करते हुए ममता कालिया लिखती है, “स्त्री की देह कोई कच्चा घड़ा नहीं है कि जूठा हुआ और फेंक दिया गया। बलात्कारी विजयी हो और बलात्कार पीड़ित पराजित—यह कौन सा न्याय है? अब समाजशास्त्रियों और विद्वानों से अपील है कि वे आगे आएँ और इन नीति-नियमों को खंगालें।”7 आधुनिक समाज में स्त्री के कौमार्य की मांग कम होती जा रही है, लेकिन कुछ स्थानों पर आज भी इसे एक परंपरा के रूप में प्रोत्साहित किया जाता है। कौमार्य के नाम पर स्त्री का शारीरिक और मानसिक शोषण आज भी जारी है। स्त्री के व्यक्तित्व और सम्मान को कौमार्य से जोड़कर देखने की परंपरा समाज से अभी तक लुप्त नहीं हो पाई है। लुइस ब्राउन इस विषय में कहते हैं, “कौमार्य को लेकर यह जुनून पुरुषप्रधान व्यवस्था में सम्मान के साथ जुड़ा हुआ है।”8
‘औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है’ सिमोन का यह कथन लिंग और जेंडर के बीच के मौलिक अंतर को स्पष्ट करता है। लिंग जैविक विशेषताओं और भेद को इंगित करता है, जबकि जेंडर वह सामाजिक भेद है, जो बच्चों को स्त्री-उचित और पुरुष-उचित कार्यों की ओर प्रेरित करता है। “हमारे रहन-सहन और तौर-तरीके हमें हमारा जेंडर सिखाते हैं, न कि जैविक लिंग।”9
जेंडर परफॉर्मेटिविटी के सिद्धांत के माध्यम से जुडिथ बटलर ने यह समझाने का प्रयास किया है कि जेंडर हमें जन्म से नहीं मिलता। ममता कालिया ने अपने प्रथम उपन्यास बेघर में समाजीकरण की इस प्रक्रिया को बारीकी से चित्रित करने का प्रयास किया है कि किस प्रकार परिवार और समाज स्त्री के लिए अलग-अलग भूमिकाएँ और कार्य निर्धारित करते हैं। उपन्यास की स्त्री पात्र 'बिम्मा' उन खाँचों का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें उसे समाज द्वारा निर्धारित स्त्री-सुलभ व्यवहार को अपनाने के लिए सिखाया और मजबूर किया जाता है। समाज और परिवार में उसे सिर्फ इसलिए अपनी मूलभूत आवश्यकताओं और अधिकारों से वंचित किया जाता है, क्योंकि वह एक स्त्री है। घर के कामों को स्त्री का दायित्व मानने वाले इस समाज में यह नहीं देखा जाता कि उस लड़की की भी अपनी व्यक्तिगत जरूरतें और सपने हो सकते हैं। उपन्यास में बिम्मा की पढ़ाई बार-बार इसलिए बाधित होती है, क्योंकि उसे अपनी माँ की जगह बच्चों की देखभाल के लिए आगे आना पड़ता है। “बहन का सिर जुओं से भरा था और हाथ मसाले की गंध से। माँ के बच्चे पलते-पलते वह बुजुर्ग हो चली थी।”10 वहीं, उसका भाई परमजीत अपने दोस्तों के साथ मटरगश्ती करने और लड़कियों के पीछे समय बिताने में व्यस्त रहता है।
पुरुषसत्तात्मक समाज की इसी मानसिकता से प्रभावित पात्र ‘रमा’ का भी चित्रण यहाँ किया गया है, जो उस मानसिकता का प्रतीक है, जिसमें पुरुषवादी समाज ने उसे इस कदर जकड़ रखा है कि वह अपने पत्नीत्व और मातृत्व की सार्थकता एक लड़के को जन्म देने में ही देखती है। रमा लड़के और लड़की के जन्म पर खर्च में तुलना पर लड़के पर होने वाले खर्च को को सार्थक मानती है, “लेकिन लड़के पर लगाने में डूबता तो नहीं है न! देख लेना, अगर लड़की हुई तो मैं घर में मक्खन, अंडे, मीट सब बंद कर दूँगी।”11 ‘पुत्रवती भवः’ केवल आशीर्वाद नहीं है, बल्कि यह गर्भवती महिला को इस सोच पर मजबूर कर देता है कि उसकी कोख की सार्थकता तभी है, जब उसमें एक पुरुष शिशु का विकास हो रहा हो। इस प्रकार, हम जन्म से पहले ही यह तय कर लेते हैं कि समाज में कौन अधिक समर्थ और स्वागत योग्य है। एक स्त्री के मन में यह विचार कि उसकी कोख में पुत्र शिशु का जन्म लेना आवश्यक है, कोई प्राकृतिक विचार नहीं है, बल्कि यह समाज द्वारा गढ़ी गई एक विचारधारा है।
तमाम उपमाओं से लेकर इक्कीसवीं सदी के समाज तक, लड़कियों को केवल दो श्रेणियों में बाँटकर देखा जाता है—‘सुंदर’ और ‘कुरूप’। तसलीमा नसरीन समाज की इसी सोच पर आक्रोश व्यक्त करते हुए कहती हैं, “लड़का डॉक्टर है या इंजीनियर, कारोबारी, लेखक, कलाकार हो सकता है, जबकि नारी नाटी या लंबी होती है, काली या गोरी, सुंदर या असुंदर।”12
आज भी पुरुष का परिचय उसके काम से होता है, जबकि नारी का परिचय उसके रूप से। “इसका थोड़ा वजन कम होना चाहिए,” “इससे कौन शादी करेगा,” “अरे, यह कितनी मोटी है,” “अरे, यह तो ऊँट सी है”—लड़कियों के लिए ऐसी बातें आए दिन सुनने को मिलती हैं।
इक्कीसवीं सदी में, यह कहावत आम है कि "सूरत नहीं, सीरत देखो, “लेकिन आश्चर्यजनक रूप से समाज ने लड़कियों का यह ‘सीरत’ न तो कभी देखा है और न ही देखने की कोशिश की है। पुरुषसत्तात्मक समाज ने औरतों के लिए सुंदरता के कुछ मानक बना दिए हैं और जो स्त्री इन मानकों पर खरी नहीं उतरती, उसे समाज आसानी से स्वीकार नहीं करता। ममता कालिया ने समाज की इसी जटिल संरचना को समझते हुए अपने प्रथम उपन्यास बेघर में दर्शाया है कि किस प्रकार सुंदरता के कारण एक स्त्री को इस पितृसत्तात्मक समाज में संघर्ष करना पड़ता है और पाठक का ध्यान इस गंभीर मुद्दे की ओर आकर्षित करने का प्रयास किया है। उपन्यास में 'केकी' एक ऐसी स्त्री पात्र है, जिसे अपने मोटापे के कारण समाज और परिवार में अपमान का घूँट पीना पड़ता है। अपनी बहन के एक प्रसंग में केकी कहती है, “सोचो तो, वह एक-एक करके अपने सभी बच्चों को कमरे में ले आती है और उसका पति अपनी फूहड़ हँसी के साथ कहता है, ‘बच्चो, यह तुम्हारी बिग आंटी है।”13
लेखिका ने विजया और वालिया के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार एक शिक्षित समाज में भी स्त्री को महज एक भोग की वस्तु मान लिया जाता है। विजया, जो एक शिक्षित महानगरीय स्त्री है, वालिया से सच्चे मन से प्रेम करती है, लेकिन इस समर्पण के बदले उसे समाज और वालिया दोनों से तिरस्कार ही मिलता है। वालिया, परमजीत से कहता है, “विजया टाइपिस्ट होने के लिए ज्यादा समझदार है और पत्नी बनने के लिए कुछ कम सुंदर।”14 लेखिका ने इन चरित्रों के माध्यम से स्त्री की उस त्रासदी को उजागर किया है, जिसमें उसकी काबिलियत और भावनाओं को अनदेखा कर केवल उसकी शारीरिक बनावट और सुंदरता को ही मूल्यांकित किया जाता है।
“प्रश्न उठता है कि क्या यह क्रय-विक्रय, यह व्यवसाय स्त्री के जीवन का पवित्रतम बन्धन कहा जा सकेगा? क्या इन्हीं पुरुषार्थ और पराक्रमहीन परावलम्बी पतियों से वह सौभाग्यवती बन सकेगी?”15
पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को हमेशा एक वस्तु के रूप में देखा गया है, जिसे जब चाहे खरीदा या बेचा जा सकता है। भारत में इस सोच का एक प्रमुख उदाहरण दहेज प्रथा के रूप में सामने आता है, जिसकी जड़ें वर्षों से समाज में गहराई से फैली हुई हैं। स्वाधीनता के बाद 1961
में दहेज विरोधी अधिनियम लागू हुआ, जिसके तहत दहेज लेना-देना कानूनी अपराध माना गया। बावजूद इसके, आज इक्कीसवीं सदी में भी कई घरों में दहेज के नाम पर शारीरिक शोषण, दहेज हत्या, पिता की आत्महत्या, और दहेज न जुटा पाने के कारण स्त्रियों का अविवाहित रह जाना आम बात हो गई है। ममता कालिया ने अपने उपन्यास बेघर में इस क्रूर प्रथा की ओर ध्यान आकर्षित किया है। उन्होंने दिखाया है कि किस प्रकार न केवल अशिक्षित बल्कि शिक्षित समाज भी इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ खड़ा नहीं होता, बल्कि उसे बढ़ावा देता है। उपन्यास में नायक परमजीत के विवाह के अवसर पर देखा जा सकता है कि उसके माता-पिता ने कई रिश्ते इसलिए ठुकरा दिए, क्योंकि लड़की वाले दहेज देने से मना कर रहे थे। “लड़की प्रभाकर पास है, गोरी, लंबी और दुबली.....माँ-बाप कहते हैं नकद कुछ नहीं देंगे, बस शान से शादी कर देंगे। पर उन्हें शान से क्या लेना देना।”16
परमजीत, जो एक शिक्षित युवक है, इस तमाशे को चुपचाप देखता रहता है और यहाँ तक कि इस अमानवीय प्रथा को बढ़ावा देता है, “तुम बिल्कुल फिक्र मत करो माँ, शादी में सब कुछ देंगे। कोई कसर नहीं रहेगी।”17 रमा के रिश्ते को स्वीकार करने के पीछे परमजीत के परिवार का असली उद्देश्य यह था कि लड़की दहेज में संपत्ति ला रही है, जिससे उनकी बेटी बिम्मा के दहेज में मदद होगी। इस प्रकार दहेज प्रथा किसी परिवार की सालों की कमाई को हड़प कर उसे किसी और को सौंपने की प्रक्रिया बन जाती है, जो समाज को धीरे-धीरे खोखला कर रही है।
निष्कर्ष : ममता कालिया का उपन्यास बेघर स्त्री जीवन से जुड़े विविध प्रश्नों को उजागर करने वाला एक युगांतकारी प्रयास है। इस कृति में उन्होंने पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री की नैतिकता और सुंदरता पर केंद्रित जड़ मानसिकता को चुनौती दी है। ममता कालिया समाज को इस उपन्यास के माध्यम से यह संदेश देती हैं कि नारी को उसके वर्तमान के बजाय उसके अतीत से मापने की जो प्रवृत्ति है, उसे बदलने की आवश्यकता है। आज के समाज में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध आम होते जा रहे हैं, और इसका दुखद पहलू यह है कि इनमें से कई घटनाएँ घर की चार दीवारों के भीतर या कार्यस्थल के किसी कोने में दबा दी जाती हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि समाज आज भी शोषक के बजाय पीड़ित को कटघरे में खड़ा करता है और उसकी नैतिकता पर सवाल उठाता है। ममता कालिया ने बेघर के माध्यम से इसी मानसिकता को पाठक वर्ग के सामने रखने और समाज को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया है।
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