मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियाँ राजस्थानी जीवन और समाज तक पहुँचने का विश्वस्त ज़रिया हैं। कथा के इस आनुभूतिक प्रस्थान में जीवन के तमाम धूसर-बदरंग हिस्सों ,परंपरा की जड़ हदबंदियों, नाथ दी गयी वर्जनाओं, घुप्प अँधेरे में धकेल दिए गए स्वप्नों, अनचाहे रिश्तों की डोर की जकड़बंदियों तक पहुचने के उपक्रम में हमारी भेंट ‘कठपुतलियां’ की सुगना, ‘कुरजां’ की डाकण, ‘ठगिनी’ की गूंगी बना दी गयी कंचन, ‘कालिंदी’ की जमुना, ‘ओ मरियम’ की अरूसा, ‘रक्स की घाटी’ की गज़ाला, लुबना और गुलवाशा, ‘लापता तितली’ की मनाली, ‘केयर आफ स्वात घाटी’ की सुगंधा से होकर गुज़रना पड़ेगा। मैं इन कहानियों के चरित्रों को ‘कथा के एक पात्र के रूप में नहीं’ राजस्थान के गांवो, कस्बों और शहरों की अधिसंख्य गलियों, मुहल्लों के यथार्थरूप में देखता हूँ।
हमारा समाज ‘कठपुतलियों के निर्माण की प्रयोगशाला’ है जिसमें जाने कितनी ‘सुगनाएं’ पैदा तो इंसान के रूप में होती हैं पर कठपुतली बना दी जाती हैं। इस मुल्क में काठ की पुतलियाँ कम हैं जीवित कठपुतलियाँ ज्यादा। हम सब हुनरमंद हैं इस कला में। हिन्दुस्तान के कितने ही गाँवों में आज भी कितनी ही सुगनाओं को उनके महतारी बाप रामकिशन जैसे पुरुषों के हांथों बियाह के नाम पर बेंच देते हैं। एक तो अपाहिज-विधुर रामकिशन तिस पर दो टाबरों का बोझ, इसके बावजूद ‘सुगना’ को ‘झोंकते हुए’ उसकी महतारी को एक बार भी अकरास नहीं हुआ ? एकबार भी उसकी छाती नहीं दरकी? यहाँ बहुत से सवाल गुंथें हैं जिनको सुलझाने के लिए इस बिंदु को आपके हवाले करता हूँ। देखा जाना चाहिए कि कहानी इस यथार्थ तक ही सीमित रहती है या इसका अतिक्रमण भी करती है। रसोईं और कोठरी की दीवारों की घुटन से अंगने की ओर भागती सुगना क्या अपनी देहरी भी लाँघ पाती है! पानी के संकट ने आखिरकार सुगना को घर की घुटन से दूर तक निकलने का मौका दिया। सुगना का कुलधारा के खंडहरों वाली बावड़ी में पानी लेने जाने का सिलसिला फिर रुका नहीं। तमतमाती धूप में इतनी दूर तक जाना और रेत के धोरों को पार करते हुए सर पर तीन मटके ढो कर लाना शारीरिक रूप से चाहे जितना कष्टदायी रहा हो पर मानसिक रूप से सुकून देने वाला था। यह सुकून केवल इसलिए नहीं है कि वहां उसकी मुलाक़ात जोगी यानी जोगिन्दर से होती है बल्कि इसलिए भी कि ‘घुटन से भरी कोठरियों’ के बाहर दूर तक फैला आकाश, खुली हवा और बावड़ी में जल की शीतलता में उसे कितना सुख मिलता था! तृप्तिदायक अहसास के साथ वह उस शीतल जल में अपनी जलन तो मिटा देती थी। उसने जोगी के साथ जो कदम उठाया उसे समाज भले ग़लत कहे पर क्या उसकी अपनी कोई चाह नहीं है? यहाँ जो भी घटित हुआ वह बहुत स्वाभाविक था क्योंकि जिस प्रेम और जैविक तृप्ति की उसे ज़रूरत थी, रामकिशन शायद ही कभी दे पाया हो! लेकिन जहां परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी उठाने की बात रही हो वह कभी पीछे नहीं हटी, लेकिन जो जीवन उसके गर्भ में पल रहा है उसका क्या? रामकिशन की महतारी सुगना की महतारी से कम कैसे निकल जाती , सो वह रामकिशन की लाख चिरौरी से भी नहीं पसीजी। हद तो यह कि अब इसका फैसला’ वह पंचायत में करके रहेगी ; बस ‘उस रांड़ के प्रेमी का पता चल जाए, उससे धरवाएंगे हरजाना...पूरे चार हज्जार।’1 इतने में ही तो विवाह के नाम पर खरीदा था सुगना को रामकिशन के खातिर। गर्भभार से क्लांत, पीले चेहरे वाली सुगना को देख रामकिशन सिसक उठा पर उसकी माँ टस्स से मस्स नहीं हुई। पंचायत में अग्नि परीक्षा देने की नौबत जब आती है तब उसका पति रामकिशन उसे बचाने के लिए अपने बेटे द्वारा एक ख़ास तेल भेजता है। बेटा सुगना से कहता है – ‘बाई देख न इधर..ये बापू ने भेजा है...परसों चार घंटे साइकल चलाकर सीमा पार के नजदीक डटे हुए गाड़िया लोहारों से लाया है बापू।’ 2 ऐसी दशा में एक स्त्री दूसरी स्त्री के इतनी ख़िलाफ़! सुगना की माँ और सास के निर्णयों को देखिए और विचार कीजिए कि स्त्री आखिर क्यों पीछे रह जाती है ? दूसरी ओर सुगना को देखिए कि जिस दाम्पत्य के कारागार में उसका दम घुटता था उससे अपने स्वार्थ के लिए वह मुक्त नहीं होना चाहती। उसे हमेशा के लिए मुक्त कराने ही तो जोगी (जोगेन्दर) आया था और तान के कहा था कि सुगना तू बिना डरे मेरा नाम लेना और कह देना ये बच्चा मेरा है। वह तो सुगना के लिए तन, मन और धन से तैयार था ; फिर क्यों सुगना उसके साथ नहीं भागी? भरी पंचायत में उसने आत्मविश्वास भरे लहजे में यह स्वीकार किया यह गर्भ रामकिशन का है। इस बिंदु पर वह सास और माँ से अलग राह बनाती है। वह कैसे जाती अपने नंदू और बंशी को छोड़कर जो उसे अपनी माँ से ‘जादा’ चाहते हैं। उस अपाहिज रामकिशन का क्या होगा जो घिसट-घिसट कर ‘जिनगी’ पार कर रहा है! वह जिन रिश्तों की डोर से हिलग चुकी है उनके भविष्य को अपने सुख के लिए दाँव पर नहीं लगाना चाहती। कहानी अपनी परिणति में बदलाव की संभावना छोड़ जाती है।
‘ठगिनी’ कहानी में ऐसी कौन सी विवशता थी कि बिटिया के जनम लेते ही उसे फिंकवाते हुए सरमण की कनपटी नहीं झन्नाई। क्या सरवण की लुगाई इतनी बेबस थीं! (कहानी पढ़कर तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता ) इसे विडंबना ही कहेंगे कि ‘राणी सती की सौगंध’ खाने वाला और ‘कुलदेवी की पूजा करने वाला’ समाज नवजात कन्या के कंठ में नमक ठूंसकर थूर के जंगलों में फिकवाता है। गौर कीजिए कि ‘स्त्री के भविष्य और जीवन’ का निर्णय करने वाली इस पंचायत के सभी पंच-सरपंच पुरुष हैं जिनके घरों में कितनी ही बेटियों को मार दिया गया है। हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, पश्चिमी उत्तरप्रदेश आज जिस लिंगानुपात के संकट से गुज़र रहें हैं उनके मद्देनज़र भी कहानी को पढ़ा जाना चाहिए। इस बात को कैसे बेसबब छोड़ा जा सकता है कि सरवण जैसा काहिल और जीवन विरोधी व्यक्ति गाँव की इसी पंचायत का उप सरपंच है। ‘कंचन’ के न्याय के लिए लगी इस पंचायत और ‘कठपुतलियाँ’ की सुगना के लिए लगी पंचायत की सच्चाई को राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्यों में कुकुरमुत्ते की तरह उग गयी खाप पंचायतों के साथ वाबस्ता करने पर इनकी छीछालेदर को बखूबी समझा जा सकता है।
रचना की सार्थकता तभी है जब उसकी भावान्विति के संस्पर्श से पाठक अपने अन्दर बेचैनी महसूस कर सके और मनुष्य जीवन की गरिमा बचाए रखने की जद्दोजहद में खुद को शामिल कर पाए। ‘कुरजां’ और ‘कालिंदी’ दो भिन्न भिन्न परिवेश से आने वाली स्त्री-कथाएँ हैं जिन्हें पढ़ते हुए उन संघर्षाकुल कन्धों की रगड़ हम अपने कन्धों में महसूस करते हैं। जहां ‘कुरजां’ अंधविश्वासी और गिरवी मानसिकता वाले समाज के भीतर सिमट चुके सन्नाटे को भेदती है वहीं ‘कालिंदी’ स्त्री वज़ूद को ज़मीदोज़ होते देखने की अभिशप्त दुनिया के असह्य किस्सों से हमारा सामना कराती है। बहिर्मुखता के शिल्प में कुरजां पूरी व्यवस्था को अपनी ज़द में लेती है जबकि अंतर्मुखता के शिल्प में कालिंदी स्त्री की ‘भीतरी सीमाबंदी’ जो उसने खुद भी बनाई है को तोड़ने–ढहाने की प्रक्रिया में मुब्तला दिखाई देती है। जिस कुरजां की सुन्दर आँखों में ‘भिनसार की किरने’ भी डूबना चाहती हों उसे ‘जीवसर के गंवारों ने रावले की शह पर’ डाकण घोषित कर गाँव से बाहर काढ़ दिया है। राजस्थान की सुदूर पश्चिमी सीमा से सटे ‘जीवसर’ ‘गाँव के जनों’ के भीतर इस अंधविश्वास को ठूंस ठूंस कर भर दिया गया है कि उसकी छाया गाँव के लिए काल है। गाँव में चेचक का प्रकोप हो या रावली में सड़े मांस से बीमार पड़े बच्चों की घटना हो इन सबके लिए उसी डाकण को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। उसे ‘डायन’ इसलिए घोषित किया गया क्योंकि वह उस हवेली से अपने पति को वापस चाहती है जहां उसे बेगारी में रखा गया था और जिसका दो साल से कोई अता-पता नहीं है। दूसरी तरफ ‘कालिंदी’ की जमुना है जिसे एक पुरुष द्वारा प्रेम और विवाह के धोखे में छला जाता है। गोद में एक बच्चे के साथ उसे किसी एक महानगर की उन पीली इमारतों के सीलन भरे कोनों में धकेल दिया जाता है जहां वह एक ‘कस्टमर’ के लिए देह भर रह जाती है। बड़े मार्मिक और कुरेदने वाली ‘घटनात्मकता’ और ‘मनोविज्ञान’ के साथ इसके कथानक को तागा गया है। ‘कुरजां’ और ‘कालिंदी’ का परिवेश भले ही ‘गाँव’ और ‘महानगर’ के रूप में बिलकुल अलग है लेकिन संवेदना के स्तर पर एक है। अपने देशकाल के ध्रुवान्तों के बावज़ूद ‘संघर्षाकुलता’ के बिंदु पर दोनों चरित्रों में ‘अनकहा साझापन’ है। दोनों ही ‘सामाजिक निर्वासन’ की प्रतिकूलताओं से ही नहीं घिरी हैं, ‘दरिद्रता की अर्थशास्त्रीय’ जकडबंदी में सिमटी भी हैं। इन दोनों कथाओं के ‘पाठ’ का सन्दर्भ भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन की विभीषिका के बीच अकेली स्त्री की ज़िन्दगी का ‘संदर्भ बिंदु’ बनता है। संयोग से दोनों माएं हैं इसलिए उनकी ‘संघर्ष-यात्रा’ दोहरी है। पर देखें जहां भरपेट भोजन का संकट है वहाँ दोनों अपने अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए कृतसंकल्प हैं और इसके लिए वे अपमान और तिरस्कार का घूँट भी पी जाती हैं। इस प्रस्थान बिंदु पर इन दोनों का संघर्ष उदाहृत किया जाना चाहिए। ये आन्तरिक शक्ति ही तो है जिसके बल पर ये दोनों ‘विगलित यथार्थ’ से मुंह चुराकर भागती नहीं उसका सामना करती हैं। यही ‘आंतरिक शक्ति’ और ‘ख़ुद पर भरोसा’ मनीषा की कहानियों का महत्तम समापवर्त्य हैं। इन दोनों रचनाभूमियों से हमें जो मूल्यवान पाथेय मिलता है उससे पूरी दुनिया न सही, आसपास की दुनिया को तो बदला ही जा सकता है।
इस साझेपन के बावज़ूद क्या इन कथा-यात्राओं में कोई बुनियादी फ़र्क है? हाँ फ़र्क है, पर इसके लिए इन कथाओं के ‘अंतर्पाठ’ तक पहुंचना होगा। शहर की जमुना के पास पेट की भूख शांत करने का विकल्प तो मिलता है पर कुरजां के पास तो वो भी नहीं है। आज भारत के तमाम बड़े महानगरों में बढ़ती मजदूरों, औरतों और बच्चों की भीड़ देखिए तब समझ में आएगा कि आख़िर क्यों गाँव ख़ाली होते जा रहे हैं और शहर ठुंसे जा रहे हैं। जमुना की जो संतान अपनी पहचान छुपाकर महानगर के स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रही है क्या यह जीवसर के स्कूल में पढ़ रहे कुरजां की संतान के लिए संभव है? मानवीय गरिमा के साथ स्कूल में पढ़ पाने की न्यूनतम अर्हता क्या जीवसर गाँव का स्कूल उसे दे पाएगा? क्या महानगर के स्कूल में पढ़ रहे जमुना के बेटे की तरह कुरजां का बेटा जीवसर में रहते हुए अपना भविष्य बना सकता है? आप लाख तर्क देते रहें महानगरीय घुटन,अवसाद, भीड़ और धुंए का पर जब इन दो परिवेशों में चुनाव की बारी आएगी तो कोई ‘जीवसर’ जैसी परिस्थियों में अपने बच्चे को नहीं पढ़ाना चाहेगा। इन दोनों कथा-भूमियों की उर्वरा शक्ति और संभावनाओं पर बहुत विस्तार से बात की गुंजाइश है। बहरहाल ‘कठपुतलियाँ’ से लेकर ‘कुरजां’, ‘ठगिनी, ‘फांस’, ‘मास्टरनी’, ‘ओ मरियम’, ‘रक्स की घाटी’ की स्त्री पात्रों से मिलकर एक वृत्त बनता है जिसमें हम पूरे समय के प्रवाह को पकड़ पाते हैं। रेखांकित किया जाना चाहिए कि यहाँ पीड़ा से उपजी हताशा के बावजूद इन चरित्रों में दुर्दमनीय जिजीविषा है। मनीषा के पात्र अंतर्मुखता-संपन्न हैं उनके बाहर से ज्यादा भीतर झाँकने की जरूरत है।
मनीषा के प्रकाशित संग्रहों- बौनी होती परछाई, कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं, केयर ऑफ स्वात घाटी, गंधर्वगाथा, अनामा, किरदार और वनिका के माध्यम से उनकी रचनात्मक यात्रा के ‘कथा-सूत्रों’ को जानने-पहचानने की कोशिश में ‘स्वांग’ जैसी मार्मिक कहानी को कभी भुलाया नहीं जा सकता! कहानी का केन्द्रीय वाक्य है– “तुम एक बहुरूपिए का साथ नहीं निभा सको तो आज़ाद हो बेग़म ज़माना ही बहुरूपिया है, हरेक आदमी एक स्वांग रचे बसा है।”3 कितनी पीड़ा और अंतर्वेदना के बाद गफूरिया के भीतर से कढ़े होंगे ये शब्द! एक कलाकार के अंतर्जगत में मानो सब कुछ ठहर-सा गया हो! यहाँ गफूरिया के माथे पर उभरी चिंता की रेखाओं को बहुत साफ़ पढ़ा जा सकता है। परिस्थितियों की विवशता तो देखिए कि जिस कला के द्वारा वह समाज के बहुरूपिएपन को नंगा करता आया है, उसी कला को छोड़ने के लिए उसकी बेग़म ज़िद ठाने हैं। गफूरिया की इस कसक भरी पीड़ा को राजेश जोशी के शब्दों में कहें तो ‘लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह’ कि कौन बहुरूपिया नहीं है ? यह सवाल लोक-कलाकार की अंतर्वेदना को समकाल के ज्वलंत सवालों से नाथ देता है।
हिन्दी कथा संसार में ख़ासकर पिछले तीन दशकों में विरल हैं ‘स्वांग’ जैसी मार्मिक शिल्प-प्रविधि की कहानी। इसका वह दृश्य चित्त से कभी नहीं उतरता जब गफ्फार खां (गफूरिया) मेले में ‘स्वांग’ करते हुए अकेले पड़ जाते हैं और भीड़ उन्हें छोड़ कालबेलिया दिखाती ख़ानाबदोश युवतियों की ओर रुख़ कर जाती है और तब वह याद करते हैं अपने बीते समय को जब उनकी कला का कितना मान था! बहुरूपिया कला के संकट के इस ‘पाठ’ के पार क्या ‘कथा में छुपा मौन’ कोई और भी संकेत करता है? फुर्तीले अंगों वाली कालबेलिया दिखाती इन युवतियों की ‘देह’ गफ्फार खां की तरह जब ‘बूढ़ी सदी’ में पहुंचेगी तो उनका क्या होगा ? तब न ऐसी दमकती काया होगी और न इस तरह लचकते अंग, तब कौन पूंछेगा इन कालबेलिया दिखाने वाली औरतों को ? जब राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त कलाकार की ये हालत है तो अन्य लोक कलाकारों का पेट कैसे भरेगा ? लोक कल्याण का मुखौटा पहने हमारी सरकारें इन कलाकारों को ‘सफ़ेद हाथी’ समझ रही हैं फिर तो पूर्व में रह चुके विधायक, सांसद, मंत्री भी तो ‘सफ़ेद हाथी’ हुए। इस ‘बहुरूपिए लोकतंत्र’ को तो देखिए कि धन की ताक़त, दबंगई और जाति-सम्प्रदाय की राजनीति कर अगर एक बार भी विधायक,सांसद बन गए तो पूरी ज़िन्दगी भर पेंशन, मुफ़्त स्वास्थ्य सुविधा का लाभ और गफूरिया जैसे लोक कलाकार के इलाज़ के लिए इतनी बेरुखी? जिस लोक कलाकार ने अपनी पूरी ज़िन्दगी कला के लिए समर्पित कर दी उसके प्रति इतनी बेमुरौव्वती ? ‘तरक्क़ीपसंद’ होने का मतलब क्या यही है कि हमारी अपनी लोक कलाओं को हम महाराजाओं के ज़माने की घोषित कर दें ? गफूरिया के जिले के तरक्क़ीपसंद कलेक्टर को कौन समझाए कि लोक कलाएं भी महाराजाओं के ज़माने की और आज के ज़माने की नहीं होतीं? हम कैसे भूल सकते हैं कि ये लोक कलाएं भारतीय समाज की रंग बिरंगी पहचानें हैं। ‘तरक्क़ीपसंद होने के सच’ को कितनी गाढ़ी और मर्मभेदी दृष्टि से गफ्फार खां उघाड़ते है- “कला से नहीं, ख़ुद के भीतर की मुलायम आस्थाओं से भाग रहे है ये लोग। कछुए हैं साले, धरम के कड़े खोल को सब कुछ माने बैठे हैं, जो मुलायम देह की परतों के बीच धड़क रहा है, वह मन-प्राण क्या कुछ नहीं ?”4 गफ्फार खां की चिंता ‘कला के बहाने’ समकाल के मनुष्यविरोधी चरित्र को उजागर करती है । क्या ऐसे ही तरक्क़ी करेगा समाज जैसा ‘गफ्फार खां के मोहल्ले’ ने किया है ? जहां विश्वास इस कदर पराजित हो गया है कि दूसरे कौम के लोग दिन में भी गुज़रना बंद कर चुके हैं! ‘पीपल के नीचे चराग़ जलाने’ के लिए जहां के लौंडे गफ्फार खां को हज़ारों बार धमका चुके हों, उनसे भविष्य का कैसा समाज बनेगा ? अनुभवों के ऐसे कितने ही धरातल ‘स्वांग’ के कथा-गर्भ में समाए हैं। कथा के ‘संश्लिष्ट शिल्प’ की यही ताक़त है कि जहां वह एक ओर लोक कलाओं की छीजती दुनियाँ का संवेदनशील साक्षात्कार कराता है वहीं दूसरी ओर परंपरा, आधुनिकता, समाज और लोकतंत्र की नब्ज़ भी टटोलता है।
कलाकार की एक और दुनिया है जिसे ‘किरदार’ कहानी में व्यक्त किया गया है। कलाप्रेमी ‘मधुरा’ की आत्महत्या से शुरू होकर यह कहानी, कलाकार के अंतर्जगत, स्त्री–संवेदना जैसे बिन्दुओं से होते हुए आत्महत्या के कारणों की निशानदेही करती सभ्यता के रोशन हलकों में पनपी चुप्पी और अवसाद की टोह लेती है। भारतीय समाज में ‘दाम्पत्य की निर्मिति’ ही ऐसी रही है कि इसमें स्त्री की कल्पनाओं का इन्द्रधनुषी संसार आहिस्ता आहिस्ता बदरंग होता जाता है। इस सन्दर्भ में ‘केयर आफ स्वात घाटी’ की ‘सुगंधा’ के जीवन को वर्गमूल बनाया जाए तो हम बहुत स्पष्ट देख पाएंगे कि दाम्पत्य में स्त्री का ‘स्वत्व’ किस तरह क्षरित होता है। ‘मधुरा’ और ‘सुगंधा’ दोनों ‘तथाकथित शहरी और संभ्रांत’ माने जाने वाले ‘दाम्पत्य’ का हिस्सा हैं। लेकिन वहाँ उनकी ‘अपनी दुनिया’ गायब हो गई है। सुगंधा का नाट्य-अभिनय देखना उसके पति के लिए ‘बीवी की नौटंकी देखने’ की तिरस्कृत दुनिया है और मधुरा के पति के पास उसकी दुनिया में झाँकने का समय ही नहीं है। एक तरफ-‘बहुत अकड़ के जा रही है ना, फिर सोच लेना, लौटकर घर आने की जरूरत नहीं है’ की क्रूर धमकी है तो दूसरी ओर ‘ख़ुद के अलावा किसी और को पसंद करने’ की भयावह प्रवृत्ति। इन दोनों परिस्थितियों की तुलना करें तो हम पाएंगे कि शारीरिक-मानसिक हिंसा का सामना करके भी यदि सुगंधा घर के बाहर निकल सकती है तो मधुरा क्यों नहीं ? फिर ‘पेंटिंग कला’ के सामने ‘नाट्य अभिनय’ जैसे संकट नहीं हैं, मसलन रात में देर तक घर के बाहर बच्चों और परिवार से दूर रहना और असुरक्षित सड़कों से होते हुए घर तक पहुंचना; नाट्य अभिनय की तुलना में पेंटिंग घर में रहकर अकेलेपन में ज्यादा सधने वाली कला है जिसकी ट्रेनिंग तो मधुरा को विरासत में मिली थी। क्या मधुरा को अधिराज के साथ बेहतर संवाद स्थापित किए जाने की ज़रूरत नहीं थी भले ही अधिराज बहुत कम संवादी रहा हो; शुरुआत तो किसी को करनी ही पड़ती है ? गहरे उतर कर देखा जाए तो आत्महत्या के ठोस कारण कहानी में नहीं मिलते। यह भी देखा जाना चाहिए कि मधुरा केवल एक कलाकार भर नहीं है, एक माँ भी है, उसे क्यों आत्महत्या करते समय अपने दोनों बच्चों का भविष्य नहीं दिखा ? ‘मधुरा को आत्महत्या नहीं करनी चाहिए थी’- इस पर मेरी पाठकीय आपत्ति नहीं है, मेरा कथा के भावक होने के नाते यह सवाल है कि - कहानी आत्महत्या को लगातार जस्टीफाई क्यों करती है ? इन सब के बावजूद कहानी मौत की फैंटेसी में जिन सवालों से टकराती है वो हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। इसे केवल गृहस्थी में फंसी स्त्री की कथा के रूप में सरलीकृत नहीं किया जा सकता क्योंकि यह एक बेहद भावुक कलाकार की कहानी है अन्यथा समाज में जाने कितनी स्त्रियाँ हैं जो ऐसी गृहस्थी के लिए ललकती और तरसती हैं। लेकिन फिर भी कहानी ‘विवाह’ के मुद्दे पर जो तर्क रखती है उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता –‘उनका व्याह किसी कलाकार से ही होना चाहिए था, किसी ऐसे बंदे से जो उस दरिया को बांधता नहीं।’ इसकी क्या गारंटी है कि कोई कलाकार होगा तो वह उसकी कला का सम्मान करेगा और बंदिशें नहीं लगाएगा ? क्या हम इस सच से वाकिफ़ नहीं हैं कि कलाकृति बनाने और जीवन जीने में बहुत बड़ा अंतर है। इस सन्दर्भ में यहाँ प्रस्तुत की गई कथा-स्थितियों को लेकर तर्क-वितर्क की बहुत गुंजाइश है।
मनीषा का कथा-बीज प्रेम की उम्मीद से बना है जो कंकरीली–रेतीली धरती में भी फूट पड़ता है और ज़िन्दगी के नीरस और संकरे दिनों में भी हरीतिमा बचाए रहता है। प्रेम को हर स्त्री अपनी तरह से जानती,महसूसती और जीती है। यह प्रेम ‘गंधर्वगाथा’ और ‘कुछ भी रूमानी नहीं’ में अनुभूति और भावना के संस्पर्श से अमूर्तन रचता है। यह प्रेम जब ‘कठपुतलियाँ’ की सुगना के जीवन में प्रवेश करता है तो उसके ‘अन्दर की कठपुतली सांस लेने लगती है।’ ठहर चुके उसके मन के शांत जीवन में उम्मीद का यह कांकर हिलोरें उठा देता है। यह वही जोगी था जिसका नाम उसके जेहन में वर्षों तक गूंजता रहा था। ‘प्रेम की चाह’ मनीषा की बहुसंख्य कहानियों के स्त्री पात्रों की अनिवार्य पहचान बन कर उभरती है। लेकिन इस प्रेम को ‘शब्दों’ के पार जाकर महसूस करना होगा। आपका तर्क भी ‘एडोनिस का रक्त और लिली के फूल’ के युवा लेफ्टीनेंट की तरह हो सकता है कि -‘क्या एक साथ दो पुरुषों से कोई स्त्री प्रेम कर सकती है ?” हाँ कर सकती है क्योंकि उसका प्रेम ‘पुरुष के प्रेम’ से भिन्न है। अगर आप इस तर्क से सहमत नहीं हैं तो अम्बिका के इन शब्दों को ठहरकर भीतरी मन से सुनिए-“यू नो लव इज माय सोलफूड एन्ड आय’म बैगर।”5 दरअसल स्त्री प्रेम के बिना जी ही नहीं सकती, प्रेम का रसायन उसके रक्त में इस कदर घुला मिला है कि उसे अलगाना संभव नहीं। युवा लेफ्टिनेंट के लिए प्रेम का मतलब होंठों को चूमना या स्पर्श सुख तक सीमित है पर क्या अम्बिका के लिए भी! इसे स्त्री-पुरुष के बीच के जैविक भेद से समझना होगा। क्या पुरुष कभी सेक्स के चरम आनंद के बाद स्त्री को उस तरह स्निग्ध स्पर्श दे पाता है जैसा ‘आनंद से ठीक पहले’ देता है! जबकि स्त्री इस आनंद के बाद भी उतना ही समर्पित स्पर्श देने के लिए तत्पर रहती है। इन पलों में वह पुरुष का जितना साथ चाहती है पुरुष उतनी ही दूरी चाहता है। यही प्रकृतिगत अंतर है स्त्री और पुरुष के बीच। यह स्त्री-पुरुष व्यवहार जीवन के अनेक क्षणों में बरता जाता है। मनीषा इस प्रस्थान बिंदु तक पहुँचती हैं कि प्रेम स्त्री के भीतर कभी न ख़त्म होने वाली उम्मीद है। इस उम्मीद को थाहने के लिए ‘आर्किड’ कहानी की ‘प्रिश्का’, ‘कठपुतलियाँ’ कहानी की ‘सुगना’ और ‘एडोनिस का रक्त और लिली के फूल’ कहानी की ‘अम्बिका’ के मन के स्रोतों तक पहुंचना होगा।
कहानी के मूल्यांकन का पैमाना क्या होना चाहिए ? इसका सीधा उत्तर मुझे कभी नहीं मिला। लगातार कहानियां पढ़ते हुए इतनी बात जरूर समझ में आई कि सैद्धांतिक मूल्यांकन के लिए भले ही हम कोई पैमाना बना लें पर उससे न तो हर कहानी को खोला जा सकता और न ही उसकी संधियों में समाई अंतर्कथा को थाहा जा सकता है । मनीषा की ही कहानी विधा को ले लीजिए यहाँ ‘अनामा’ से लेकर ‘लापता पीली तितली’, ‘बिगड़ैल बच्चे’, ‘सियामीज’,’खरपतवार’, ‘मेरा ईश्वर यानि..’, ‘ब्लैक होल’ और किरदार तक रचनात्मकता के इतने अभिस्तर,विषय के इतनी विविधताएं और स्थितियां मिलेंगी कि यह समझ पाना मुश्किल होता है कि ये एक ही रचनाकार की कहानियां हैं।
अपनी व्यस्तताओं और महत्वाकांक्षाओं की दुनिया में इतने मगन माओं-पिताओं के पास कहाँ फुरसत है कि वो इन फुदकना बंद कर चुकी ‘लापता पीली तितलियों’ के बारे में सोचें। उनीदी सी उस रात के सन्नाटे में बांबी से निकले उस सांप का लिजलिजा स्पर्श बचपन के ‘मिन्नूपन’ से सयानेपन तक की ‘मनाली’ के चेतन-अवचेतन को नोचता-खाचोटता रहता है। मन को दबोचे भय की अनेक अनेक मनःस्थितियों को व्यक्त करती कहानी ‘लापता पीली तितली’ यौन-दुर्व्यवहार के बाल मनोविज्ञान पर पड़ने वाली प्रभाव की बारीकियों से होते हुए हर अभिवावक को चेताती है कि हमारे घर में अपना कोई बहुत विश्वसनीय हमारी मन्नुओं के साथ ऐसा न कर पाए। डीके जैसे लोग हर जगह हैं इसलिए बच्चों से निरंतर मित्रवत संवाद क़ायम कर हम कई घटनाओं से और बाल मन को अवसाद में जाने से बचा सकते हैं।
भाषाई रचनात्मक क्षमता का प्रयोग करते हुए मनीषा तमाम आवरणों को हटाती यथार्थ को भेदती जाती हैं। रेखांकित किया जाना चाहिए कि वह नकली भाषा के छद्म को उघाड़ती हुई उसे संवाद का सहज माध्यम बनाती हैं इसलिए भाषा की इस रचनात्मक शक्ति का उपयोग उनके रचना-सामर्थ्य को मूल्यांकित करने का जरूरी औज़ार बन जाती है। भाषा जब स्वप्निल प्रेम के संसार में कुलाचें भर रही होती है (गंधर्वगाथा,कुछ भी तो रूमानी नहीं,ब्लैक होल,एक ढोलो दूजी मरवण तीजो कसमूल रंग) तब कजलियों की अंकुराई कोपलों के मानिंद हो जाती है और तब भाषा की सारी दिशाएं ‘प्रेम का बहुवचन’ (बाबुषा कोहली की एक कविता से लिया टुकड़ा) हो जाती हैं। जहां यह जीवन के संघर्षों में प्रवेश करती है तो अमूर्तता की पैरहन उतारकर यथार्थ के ठस प्रारूपों को ध्वस्त कर देती है और रेगिस्तान के किरकिराहट भरे जीवन में घुसकर करील की झाड़ियों,खेजड़े के दरख्तों की सतह तक बिंधकर वहाँ की आर्द्रता भर लाती है।
1.मनीषा कुलश्रेष्ठ, कठपुतलियां, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली- 2010, पृष्ठ-18
2.उपर्युक्त,पृष्ठ-20
3.मनीषा कुलश्रेष्ठ, स्वांग(कहानी) कठपुतलियां, भारतीय ज्ञानपीठ,नयी दिल्ली- 2010 पृष्ठ-132
4.उपर्युक्त, पृष्ठ-131
5.मनीषा कुलश्रेष्ठ, केयर आफ स्वात घाटी, बोधि प्रकाशन जयपुर, 2012, पृष्ठ-62
शशिभूषण मिश्र
एक टिप्पणी भेजें