- अनिरुद्ध कुमार
शोध सार : पर्यावरण संरक्षण आज हमारे समय का सबसे ज्वलंत प्रश्न है। पर्यावरण के रक्षक हमारे नदी नाले, पहाड़, झरने, जंगल इत्यादि आज मनुष्य की आधुनिकता का शिकार होकर अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। हाल के वर्षों में ही हम इसे देख सकते हैं, न जाने कितने लोग भीषण गर्मी के कारण इस दुनिया से असमय ही अलविदा कह गए। आने वाले दिनों में तबाही का ये मंजर और भी भयावह हो सकता है। वर्तमान समय की इस विनाश लीला को अनेक साहित्यकारों ने अपनी लेखनी के माध्यम से दर्ज़ किया है। हिन्दी साहित्य के उभरते कवि राकेश कबीर अपनी कविताओं के माध्यम से पर्यावरण के प्रति मानव सभ्यता की इस असंवेदनशीलता को बखूबी दर्ज़ करते हैं।
बीज शब्द : मानव सभ्यता, पर्यावरण संरक्षण, धरती, नदियां, तापमान, आधुनिकता, विकास, विनाशलीला, प्रदूषण, ट्रीटमेंट प्लांट, असंवेदनशीलता, जातिवाद, सरकारी तंत्र, न्याय, पीड़ा।
मूल आलेख : आज़ादी के बाद से ही हमारा देश पुनर्निर्माण की प्रक्रिया से लगातार गुज़र रहा है। इस पुनर्निर्माण की प्रक्रियाएँ कागजों में बनाई तो जाती हैं लेकिन देश की एक बड़ी आबादी तमाम बुनियादी सुविधाओं से आज भी वंचित है। देश के तमाम बच्चे, बुजुर्ग, स्त्रियाँ, सामान्य जन सभी अपने अधिकारों के लिए शासन की ओर कातर दृष्टि से देखते रहते हैं। बाजारवाद, पूंजीवाद के प्रभाव में अमीर वर्ग निरंतर अमीर और गरीब वर्ग निरंतर गरीब होता जा रहा है। गरीब, वंचित समुदाय के लोगों के पास मंहगे प्राइवेट स्कूलों और अस्पतालों को देने के लिए फीस ही नहीं होती है तो वो उनकी सुविधाएं कैसे उठा सकेंगे। कहना ना होगा कि इन सबके साथ ही पूंजीवाद और बाजारवाद ने हमारी प्रकृति और हमारे पर्यावरण को भी हमसे छीनना शुरू कर दिया है।
शहरीकरण की प्रक्रिया ने हमारी नदियों को हमसे छीन लिया है। सरकार नदियों के संरक्षण एवं उनके पुनर्जीवन के लिए हर साल लाखों करोड़ का बजट ले आती है। लेकिन नदियों की अवस्था में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा। मलबों, कचरों और गंदे पानी से भरे सीवेज हमारी नदियों में सीधे गिरते हैं। कुछ जगहों पर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाए गए हैं जो कि इन नदियों को प्रदूषित होने से रोकने में नाकाफी हैं। देश की कई सारी नदियां विलुप्त होने के कगार पर हैं, न जाने कितनी ही नदियों का पानी प्रदूषण के कारण काला हो गया है। ऐसी स्थिति में हमें इन नदियों के बचाने के बारे में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। ये सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है कि सरकार द्वारा इन नदियों के संरक्षण एवं उनके पुनर्जीवन के लिए निर्धारित बजट का सही तरीके से इस्तेमाल हो रहा है।
रैल्फ फॉक्स अपने एक लेख में लिखते हैं “जीवन के अपने नए चित्र में किस तरह के मानव को आप दिखाएंगे? पाठक इस स्थल पर यह प्रश्न करना चाह सकते हैं। वे पूछ सकते हैं – उस हठीले मनचले, झगड़ालू और रागात्मक जीव को आप अपनी पुस्तक के पन्नों में कैसे उतारेंगे? मानव जो अपने अंदर और बाहर संघर्ष में जूझता है, मानव जो मुसीबतें सहता है, प्रेम और घृणा करता है, अपनी निधि की रक्षा के लिए लड़ता है, मानव जो क्रांतिकारी है – कैसे आप उसका निर्वाह करेंगे?”[1] राकेश कबीर अपनी कविताओं में मानव जीवन का चित्र कुछ इसी अंदाज़ से उतारते हैं कि उसमें एक मुकम्मल समाज का चित्र अंकित हो सके।
राकेश कबीर अपनी समय की जटिलताओं के कवि हैं। वे गढ़ों-मठों को तोड़ने की परंपरा के कवि हैं। संघर्षों का यह
कवि सच्चे अर्थों में लोकमानस में रचा बसा कवि है। सहजता से अपनी बातों को कहने वाला कवि अपने पर्यावरण के प्रति एक सचेत कवि है। कवि निम्न मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी एवं नष्ट, लुप्त हो रही नदियों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त करता है। मानव सभ्यता के विकास में नदियों के महत्त्व को कवि कुछ इस तरह से दर्ज़ करता है
“पहाड़ों के सीने चीरकर
नदियों ने बनाए बहते हुये रास्ते
उन्हीं रास्तों ने जोड़ा
दुनिया भर की इंसानी बस्तियों को
आज इंसान नदियों को दीवारों में कैदकर
बसा रहा है बस्तियाँ दुनिया भर में”[2]
आधुनिकीकरण और शहरीकरण के कारण विलुप्त होती जा रही नदियों को लेकर उनके मन में एक गहरा क्षोभ है। अपने को सभ्य कहने वाला समाज अपना सारा कचरा और मलबा इन नदियों की कोख में फेंकता जा रहा है। कवि की नज़र में इस बात से दुखी होकर सारी नदियों ने अपना महाकुंभ लगाकर अपने घर वापस लौट जाने का प्रस्ताव रखा। मानव सभ्यता द्वारा उपेक्षा की वजह से नदियों ने वापस जाने का फैसला कर लिया है
“अपनी उपेक्षा और दुर्दशा से तंग आकर
सारी नदियों ने महाकुंभ लगाकर
एक प्रस्ताव रखा कि
अब हमें लौट जाना चाहिए अपने घर और
छोड़ देनी चाहिए सारी ज़मीन
‘पक्के विकास’ के वास्ते। ।”[3]
नदी नालों में अपने गंदगी बहाने वाले और फिर भी अपने को सभ्य कहने वाले समाज पर कवि तीक्ष्ण व्यंग्य करते हुये कहता है
“‘सारे सभ्य नगरवासी’
लगाते हैं नारे
“हमें हमारे तालाब चाहिए
गंदा पानी बहाने के लिए”
हमें नाले भी चाहिए
गंदे पानी को नदी तक जाने के लिए
हम सभ्य लोग हैं
हमें अपनी गंदगी बहाने के लिए
नाली-नाला, तालाब और नदी सब चाहिए
‘पानी की परवाह’ हमें मत सिखाइए।”[4]
जो नदियां पहाड़ों के बीच से निकलकर अपना रास्ता खुद बनाते हुये मैदानों में आकर मानव सभ्यता की रोज़मर्रा की जिंदगी को सुलभ बनाती हैं और उन्हें जीवन प्रदान करती हैं; उन्हीं नदियों को आज का मनुष्य उनकी हद और उनके बहने का रास्ता बता रहा है। शहरों में बनने वाली 12-12, 15-15 मंजिलों वाली बहुमंजिला इमारतें दिनों-दिन पृथ्वी का तापमान बढ़ा रही हैं। इन शहरों के विकास के नाम पर सड़कें, फ़्लाइ ओवर बनाने के लिए लगातार लाखों पेड़ काटे जा रहे हैं। शहरों की हालत को देखते हुये कवि उसे अपनी कविता में कुछ यूं दर्ज़ करता है
“शहर ज़िंदा से दिखने वाले
इन्सानों की एक बस्ती सी होती है
जिसमें ढेर सारा आदमी
छोटी सी जगह में समाने की
पुरजोर कोशिश करता सा दिखता है”[5]
रोजगार की तलाश में लोग गावों को छोड़कर शहरों में जाकर बस जाना चाहते हैं। आज शहरों में रहना आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है। कवि शहर की छुपी हुई तस्वीर को हमारे सामने रखते हुये कहता है
“शहर में एक कूड़े का पहाड़ भी होता है
जो हमारी सभ्यता का प्रतीक होता है
कूड़े के पहाड़ से किसी भुतहा बस्ती की तरह
उड़ता रहता है बदबूदार धुआँ निरंतर”[6]
शहरों में रहने के प्रति लोगों के मन में हमेशा एक लालसा रहती है। सबको लगता है वहाँ रहने से जीवन मजे से कटेगा। हमारे देश की एक बड़ी आबादी गांवों में रहती है और कृषि कार्यों से जुड़ी है। हुई 2011 की जनगणना के अनुसार देश में लगभग 55 प्रतिशत लोग कृषि कार्यों से जुड़े हैं। सरकारी आकड़ों के अनुसार वर्ष 1950-51 में हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान लगभग 52 प्रतिशत था जो 2016-17 में घटकर लगभग 18 प्रतिशत रह गया है। वे अपने फौलादी हाथों में फावड़े थामे किसानों की मेहनत, स्वाभिमान के साथ साथ उनकी दुरावस्था का भी चित्रण करते हैं
“जब एक किसान अपने खेत में
तड़प-तड़पकर मर जाता है तो
वह अकेले नहीं मरता,
बल्कि सारी इंसानियत मर जाती है
सारी सभ्यता सारी संस्कृति मर जाती है
और एक राष्ट्र के रूप में हम सब मर जाते हैं”[7]
अपने फौलादी हाथों से आने वाली पीढ़ियों के बेहतर भविष्य की नींव खोदने वाले किसान में दिखने वाली खुदमुख्तारी को कवि बड़े ही सम्मान से देखता है
“वह अब ग्राम देवता रह गया है कि नहीं
ये कवि तय करें
लेकिन एक बात पक्की है कि
वह खुदमुख्तार होता है
धूप से मुठभेड़ करती उसकी मेहनतकश पीठ पर
पसीने की बूंदें
चमक बिखेरती मोती हैं
जिनमें एक उम्मीद छुपी होती है”[8]
किसानों की अवस्था पर गोपाल राय लिखते हैं - “भारतीय गाँव और कृषि का अटूट रिश्ता है। आज भी भारतीय जनसंख्या का लगभग सत्तर प्रतिशत अंश जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है और यह स्थिति सैकड़ों वर्षों से, भारत में अंग्रेजों का शासन स्थापित होने के बाद से तो जरूर ही, चली आ रही है।”[9]
कभी आँधी-तूफान के कारण तो कभी सूखा के कारण फसलों के बर्बाद होने के बाद अपना और अपने परिवार का पेट पालने में असमर्थ होने के कारण बहुत सारे किसान अपनी जान दे देते हैं।
“खेत की कच्ची मिट्टी और
राजधानी की पक्की सड़क का
तालमेल बन नहीं पाता
सबका पेट भरने वाला
हर कहीं मर रहा अन्नदाता।”[10]
पूंजीवाद के दौर में ग्लोबलाइज्ड बाज़ार का किसानों के ऊपर क्या प्रभाव पड़ा है, उसका सजीव चित्रण इन पंक्तियों में दिखता है। चिप्स के उस पैकेट में 3 चौथाई से ज्यादा हवा ही रहती है। लेकिन उसी आलू को उगाने वाले किसान को उसकी फसल का उचित लागत भी नहीं मिल जाता। 'आलू' कविता के माध्यम से कवि कहता है
“खेत से राजधानी की सड़क तक
आलू बिखरा पड़ा है
किसान हैं बेहाल
बेचारे धरती माँ के लाल
किसान सस्ते आलू को सड़क पर फेंक देते हैं
वो चिप्स की फैक्ट्री वाले
रंगीन पैकेट्स में
हवा भरके जाने क्यूँ बेच देते हैं
मुंह खोलते ही
चिप्स ख़त्म हो जाता है और
हवा उड़कर हवा में मिल जाती है
यही कमाल है ग्लोबलाइज्ड बाज़ार का
बेचने वाले हवा भी पैकेट में
भरकर बेच देते हैं”[11]
किसानों का जीवन पूरी तरह से गाँव और उसकी मिट्टी से जुड़ा है। किसान की फसल को साफ करने वाले खलिहानों के महत्त्व को कौन नहीं जानता। गाँव का यह खलिहान किसान और उसके गाँव की हर एक गतिविधि का साक्षी हुआ करता था। यह खलिहान ही ग्रामीण जीवन के हर एक रंग का शाश्वत साक्षी होता था। लेकिन आज खलिहान भी लुप्त होते जा रहे हैं। विलुप्त होते खलिहानों की दुर्दशा पर कवि का दुख ‘खलिहान’ कविता के माध्यम से देखा जा सकता है
“लेकिन आज खलिहान
रो रहा है अपनी दुर्दशा पर
अनाज की ढेरी अब वहाँ नहीं लगती
गीले गोबर से लीपकर
अब तैयार नहीं किया जाता उसे
कबड्डी और गुल्ली-डंडा खेलता बचपन कहीं खो गया
कांटे उग आए हैं उपेक्षित खलिहान के सीने पर”[12]
किसानों के अलावा राकेश कबीर गरीबों और मजदूरों की भी शोचनीय अवस्था का चित्रण अपनी कविताओं में करते हैं। भुखमरी, गरीबी इस समाज का एक कड़वा सच है। हमारे देश की एक बड़ी आबादी आज भी गरीबी रेखा के नीचे जीने को मजबूर है। ये बेचारे एक लकड़ी के गट्ठर की तरह बांधकर या फिर कंधे पर ढोकर ही ले जाए जाते हैं। सरकारी तंत्र की इस अव्यवस्था को उजागर करते हुये कवि कहता है
“ऐसे में उसे जंगल से बटोरी गई
लकड़ी के गट्ठे की तरह
लंबा बांध के ले जाना पड़ता है
या कंधे पर लादकर
ढोकर ले जाना पड़ता है
क्योंकि मरने के बाद आदमी
न तो चल सकता है
न ही साइकिल-मोटर पर चढ़ सकता है
वह तो धरती का बोझ होता है
जिसे उसके जैसा गरीब आदमी
बामुश्किल ढोता रहता है”[13]
इस सरकारी तंत्र की प्रक्रियाओं से हताश, निराश होकर गरीब आदमी दफ्तरों के चक्कर लगाता रहता है। अफसरों की जनसुनवाइ की अदालतों में लोकतान्त्रिक व्यवस्था में गरीब आदमी के पिसने की पीड़ा को कवि बड़ी ही मार्मिकता से दिखाता है। ‘सुनवाई’ कविता का फंदलाल इसी तरह की निराशा का शिकार है और अपनी पीड़ा लेकर वापस अपनी झोंपड़ी को लौट जाता है
“भरोसे का संकट दिखाकर
मुआ सारी डेमोक्रेसी पर ‘क्वेश्चन मार्क’ लगाकर
उधर सुनवाई भी अगली तारीख तक
मुल्तवी हो जाती है”[14]
कवि समाज की न्याय व्यवस्था पर भी सवाल उठाता है। गरीब लोग न्याय पाने की आस में कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते-काटते इतने नाउम्मीद हो जाते हैं कि उनका भरोसा ही इस व्यवस्था से उठ जाता है। हमारे इस न्याय व्यवस्था की यह कैसी विडम्बना है कि जो गुनहगार हैं, हत्या, लूट, अपहरण, बलात्कार जैसे संगीन अपराधों में लिप्त हैं; वे बेल पर बाहर आकर सामान्य जीवन जी रहे हैं, और जो बेगुनाह हैं वे न्याय की आस में कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं।
“अब किसे वकील करें
किस से मुंसिफ़ी चाहें
भरोसे का ये संकट
फैला है महामारी की तरह
गुनहगार खुद तय कर रहे अपनी सजा”[15]
भ्रष्टाचार की महामारी और व्यवस्था की खामियां सिर्फ यहीं तक नहीं हैं। बाढ़ के कारण हर साल हजारों लोग बेघर-बार हो जाते हैं और लाखों लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। लेकिन सत्ताशाही और अफसरशाही में बैठे लोग इन सबसे अपनी आँखें मूँदे हुये चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं। सजे सजाये हुए मंच से नेताओं के द्वारा सिर्फ भाषणबाजी ही होती है और वो इन सबका जिम्मेदार पिछली सरकार की नाकामियों के ऊपर डालकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। ‘बाढ़ में भाषण’ कविता के माध्यम से वे भारतीय राजनीति के विद्रूप पक्ष को सामने लेकर आते हैं
“उफान मारती नदी के सैलाब में
डूबे हुये गावों और फसलों का
हवा हवाई दर्शन करके
सजे सजाये मंच से
***
*** *** ***
‘गुस्से के पारे’ को ऊपर चढ़ाया
और माइक से लगभग मुंह सटाकर वह ‘चिल्लाये’
दोस्तों ये जो बाढ़ है
इसकी जिम्मेदार पिछली सरकार है”[16]
लेकिन इन सबके बावजूद कवि न्याय पाने की नाउम्मीदी के इस दौर में भी उम्मीद बनाए रखता है। अपनी ‘विडंबना’ कविता के माध्यम से इनकी स्थिति पर दृष्टिपात करते हुये कवि कहता है
“उल्लू- कौए, लोमड़-सियार
सजा के बैठे हैं दरबार
पाएँगे सजा अब सभी मेहनतकश
दंडित होंगे अब सारे ईमानदार
ये तय है पहले से।
थोपी हुई मान्यताओं के सामने
सारे तर्क होंगे बेकार
निर्दोष बनाए जाएँगे गुनहगार
गजब की है ये व्यवस्था, यार”[17]
लेकिन कवि समाज की इस विडम्बना से निराश नहीं है। वह इस विडम्बना से निपटने का रास्ता भी बताता है। कवि का मानना है कि समाज की इस कुव्यवस्था से सिर्फ शिक्षा ही मुक्ति दिला सकती है। पढ़ाई-लिखाई के माध्यम से ही मनुष्य अपने हक़ की लड़ाई लड़ सकता है। बिना शिक्षा के वह इस व्यवस्था में सिर्फ गुनहगार ही बनाया जाता रहेगा। उसके हक़ की लड़ाई उसे खुद ही लड़नी होगी। उसे बारिश और धूप का डटकर मुक़ाबला करना होगा और अपने को शिक्षित बनाना होगा
“लड़नी होगी लड़ाई हक़ के वास्ते
सड़क की धूप में घुसकर
पढ़-लिखकर
तेज कर लो अपने विचारों की तलवार।[18]”
यह गरीब इस देश के हुक्मरानों के लिए महज एक वोट बैंक है। चुनाव नजदीक आते ही सारे नेता इनसे वोट लेने के लिए इनकी स्थिति को बेहतर करने के झूठे वादे करते हैं। लेकिन चुनाव खतम होते ही न तो वो गरीब याद रहता है और न ही वो वादे
“बड़ी रंगीनीयों में गुज़रा है
पिछला महीना चुनावों वाला
जब मंगरू ने अपने रिक्शे के हैंडल में
दो चोंगे टाँगकर
बजाए थे देशभक्ति गीत
‘ये देश है वीर जवानों का’ और
***
*** *** ***
मंगरू ने भी खड़ा कर दिया है रिक्शा
चर्च की दीवार के पीछे अपनी झोंपड़ी के सामने
शोरगुल वाले चोंगे उतारकर
अगले चुनाव तक के लिए”[19]
कवि की इन कविताओं में एक ज़बरदस्त राजनीतिक व्यंग्य का पुट देखने को मिलता है। इन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार बाबा नागार्जुन याद आते हैं। नेताओं द्वारा जनता से किए जाने वाले चुनावी वादों की पोल खोलते हुए वे भारतीय राजनीति के वर्तमान परिदृश्य को बड़ी बेबाकी से दिखाते हैं।
नेताओं द्वारा शहर काशी को क्योटो बनाने के वादे पर कवि करारा व्यंग्य करते हुये कहता है
“हवा हाँफ रही होगी
पेड़ कराह रहे होंगे
शहर को गाय-साँड़ काँड़ रहे होंगे
जनता जान बचाके भाग रही होगी
भगदड़ मची रहती होगी।
धूल-भीड़-भगदड़ ही तो नगर सत्य हैं
इन सबके ‘कंपोजीशन’ से
शहर ‘क्यूट’ हो जाता है और
‘क्योटो’ की दुर्लभ उपाधि पाता है”[20]
समकालीन कवियों में राकेश कबीर के अलावा राजनीतिक व्यंग्य की ऐसी सशक्त कविता किसी और के यहाँ देखने को नहीं मिलेगी। इनका व्यंग्य बिलकुल बाबा नागार्जुन के टक्कर का है, बिना हकलाए हुए जनता की बात कहना। चाहे वो किसान हो, गरीब-मजदूर हो, स्त्रियाँ हों या फिर वंचित समुदाय। कवि इन मजदूरों, दलित-आदिवासियों की इस दशा का जिम्मेदार देश में मौजूद जाति-व्यवस्था को भी मानता है। कवि इन घटनाओं को अपनी कविताओं के माध्यम से दर्ज़ करता हुआ कहता है
“तुम्हारी हर हरकत पर उनकी पैनी नज़र है
वे हमला करेंगे और
सबक सिखा के रहेंगे तुम्हें
हरदम की तरह मारे जाओगे
क्योंकि उनकी निगाह में
अधिकार मांगना गुनाह है और
तुमने ये गुनाह किया है”[21]
अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से जूझता पक्ष-प्रतिपक्ष का यह कवि जहां एक ओर यदि विकास के नाम पर आदिवासियों के जल जंगल और जमीन को हड़पे जाने से चिंतित है तो वहीं दूसरी ओर शिक्षण संस्थानों के बाजारीकरण के प्रति, है पूंजीवादी समय में पानी के व्यवसायीकरण के प्रति, नदियों में सत्ता की मिलीभगत से हो रहे अवैध उत्खनन के प्रति भी चिंतित है। कुँवारी लड़कियों के देवी बनाने की कुप्रथा पर प्रहार करते हुये कवि कहता है -
“पता नहीं कौन रही होगी
वह कुँवारी लड़की
जिसको देवी बनाने के वास्ते
गढ़ दी गयी थी एक अनोखी कहानी
ऐसी ही तमाम कहानियों की तरह”[22]
मीडिया आज के भारत का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। मीडिया को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है। लेकिन टी वी डीबेट में होने वाली चौबीसों घंटे चपर-चपर चलने वाली चापलूसी से मन खिन्न हो जाता है। मीडिया को बड़े-बड़े पूँजीपतियों ने खरीद कर अपना गुलाम बना लिया है। मीडिया में अब वही खबरें देखने को मिलती हैं जो इनके आकाओं के द्वारा स्वीकृत होती हैं। राकेश कबीर मीडिया के इस रूप को भी अपनी कविताओं में दर्ज़ करते हैं।
“ये पूँजीपतियों के टट्टू
चालक धूर्त लोमड़ियों की तरह
ढूंढते रहते हैं कुछ अनोखे दृश्य”[23]
जीवन के विभिन्न अनुभवों को दर्ज़ करता हुआ कवि मानव जीवन में व्याप्त प्रेम को भी अपनी पैनी दृष्टि से देखता है। प्रेम इस संसार का एक शाश्वत सत्य है। प्रेम के बिना यह संसार अधूरा है। प्रेम चाहे वैवाहिक जीवन के भीतर हो या इससे इतर, प्रेम के भाव को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। ‘हमसफ़र’ कविता के माध्यम से राकेश कबीर वैवाहिक जीवन के मजबूत प्रेम को अपनी आँखों से देखते हैं और उसका बयां कुछ यूं करते हैं
“मैंने आँख से गरदाए हुए
चश्मे को उतारा
और हरदम की तरह
वापस मेरी आँख पर लगा दिया
वह टी. वी. देखती रही और
मैं अपनी किताब पढ़ता रहा”[24]
कितना सुखकर है वैवाहिक जीवन के इस प्रेम को पढ़ना और उसे महसूस करना। आज जबकि लोग अपने जीवन में एकाकी होते जा रहे हैं, विवाह जैसी संस्थाएं बेमानी साबित हो रही हैं। राकेश कबीर सिर्फ शब्दों में ही नहीं बल्कि जीवन के बीच कविता की तलाश करते हैं।
राकेश कबीर की कवितायें काव्य के धरातल पर काव्य-स्थितियों का चुनाव भर नहीं करती वरन वे एक नए रचनात्मक स्तर पर नए लहजे में नए भावबोधों की तलाश करती हैं। इनकी कविताओं में बाबा नागार्जुन की तरह की बेबाकी है तो मुक्तिबोध की तरह क्रांति का स्वर भी है। इनकी कविताओं में विषयों की विविधता है। यहाँ नदियां हैं तो उनकी बाढ़ भी है, आलू है तो भूख भी है, कोरेगांव है तो दिल्ली भी है, किसान, मजदूर हैं तो उनका खलिहान और दफ्तरों का चक्कर काटती उनकी अर्जियाँ भी हैं, शहर है तो उसकी तकलीफ़ें भी हैं, बारिश और तितलियाँ है तो कामगार औरतें भी हैं। राकेश कबीर की कविताओं को पढ़ते हुए मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर से लेकर धूमिल तक याद आते हैं। राकेश कबीर की कविता अपने परिवेश के प्रति सजग और संवेदनशील दिखती है और बड़े ही सौम्य तरीके से अपना प्रतिरोध दर्ज़ करती है। प्रश्नानुकूलता के धरातल पर राकेश कबीर केदारनाथ सिंह की भावभूमि के नज़र आते हैं। इस प्रकार राकेश कबीर सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध एक सजग और मुखर कवि के रूप में सामने आते हैं।
निष्कर्ष : सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग राकेश कबीर की कविताओं में एक मुकम्मल जीवन की छाप दिखाई पड़ती है। अपनी कविताओं के माध्यम से यदि एक ओर वे इस धरती, इस पर्यावरण को बचाने की बात कहते हैं तो दूसरी ओर वे मनुष्य के अंदर बची हुई मानवता को भी बचाने की बात कहते हैं। राकेश कबीर की कविताओं में समाज में व्याप्त जातिवाद के जहर को उनकी सशक्त लेखनी के माध्यम से महसूस किया जा सकता है। धर्म का अंधा चश्मा पहन कर धार्मिक उन्माद में लिपटी भीड़ किस तरह से देश की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अवस्था पर प्रभाव डाल रही है, इसे भी राकेश कबीर की कवितायें बयान करती हैं। अपने समय एवं समाज के प्रति सजग एवं प्रतिबद्ध राकेश कबीर की कविताओं में व्याप्त मानव जीवन को सहज ही महसूस किया जा सकता है। निःसन्देह वर्तमान समय में राकेश कबीर की कवितायें अपने समय एवं समाज का मुकम्मल बयान करती हैं।
[1] रैल्फ फॉक्स, अनु॰ नरोत्तम नागर, उपन्यास और लोक-जीवन, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (प्रा॰) लिमिटेड, 5, रानी झाँसी रोड, नयी दिल्ली, 1979, पृ॰ 102
[2] राकेश कबीर, नदियाँ ही राह बताएँगी, अगोरा प्रकाशन, वाराणसी, उत्तर प्रदेश, 2021, पृ॰ 25
[3] राकेश कबीर, कुँवरवर्ती कैसे बहे, कलमकार पब्लिशर्स प्रा॰ लि॰, नई दिल्ली, 2023, पृ॰ 36
[4] वही, पृ॰ 34
[5] वही, पृ॰ 150
[6] वही, पृ॰ 151
[7] वही, पृ॰ 72
[8] वही, पृ॰ 73
[9] गोपाल राय, उपन्यास की पहचान, गोदान : नया परिप्रेक्ष्य, अनुपम प्रकाशन, पटना – 4, 1982, पृ॰ 26
[10] राकेश कबीर, कुँवरवर्ती कैसे बहे, कलमकार पब्लिशर्स प्रा॰ लि॰, नई दिल्ली, 2023, पृ॰ 56
[11] वही, पृ॰ 55-56
[12] वही, पृ॰ 148
[13] वही, पृ॰ 84
[14] वही, पृ॰ 87
[15] वही, पृ॰ 69
[16] वही, पृ॰ 41
[17] वही, पृ॰ 85
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, असम विश्वविद्यालय दीफू परिसर, दीफू, कार्बी आंग्लॉन्ग, असम – 782462
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