- अवनि शर्मा
शोध सार : हिंदी साहित्य की परंपरा में स्त्री विमर्श और स्त्री मुद्दों को एक उपेक्षित नज़रिए से देखा गया है। इस क्रम में हिंदी साहित्य का अस्सी-नब्बे का दशक स्त्री कविता और उसकी वैचारिकी के नज़रिए से अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा एक प्रस्थान बिंदु है, जहाँ से स्त्री विमर्श एक नया मोड़ लेता है। यहाँ पर पारंपरिक सांस्कृतिक तथा धार्मिक खोल में पल रही स्त्री छवि को एक धक्का स्वयं स्त्री रचनाकारों से मिलता है। पुरुष दृष्टि से निर्मित स्त्री बिंब जहाँ उसके व्यक्तित्व को एक रेखीय स्वरूप में स्थापित करते हैं वहीं स्त्री लेखन पितृ सत्ता की तहों को हटाता हुआ, उसका असल रूप को समाज के समक्ष रखता है। दलित स्त्री लेखन इसी क्षेत्र में एक नया महत्त्वपूर्ण पड़ाव और पक्ष लेकर उपस्थित हुआ है।
बीज शब्द : हिन्दी साहित्य, दलित साहित्य, दलित आंदोलन, दलित नारीवाद, स्त्री लेखन, दलित लेखन, पुनरुत्थान, पितृसत्ता,ब्राह्मणवाद।
मूल आलेख : स्त्री को लेकर भारतीय संस्कृति, साहित्य, दर्शन एवं धर्मशास्त्रों में चिन्तन की सुदीर्घ परम्परा रही है। यहाँ युगों की दहलीज़ों पर समय-समय पर स्त्री को ललना, कलना, कामिनी, माता, माया अनेक शब्दों से सम्बोधित किया गया है। कभी उसे देवतुल्य कहा गया तो कभी उससे उसके मानवी होने के सारे अधिकार ही छीन लिए गए। स्वतंत्रता के पश्चात् स्त्री की स्थिति में अनेक बदलाव देखने को मिलते हैं। शिक्षा के माध्यम से वह नये क्षितिजों की ओर बढ़ी पर अपनी पीठ पर अनेकों आँखे साथ लिए। हमारा समाज सदियों से पितृसत्तात्मक मानसिकता का पोषक रहा है। यही कारण है कि नारी की स्थिति में ठोस परिवर्तन नहीं हुआ। “वह आज भी मूक है। उसके साथ आज भी पशुवत व्यवहार हो रहा है। सामूहिक बलात्कार की वह शिकार हो रही है, उसकी हत्याएँ हो रही हैं। पुलिस और प्रशासक रक्षक के बजाय भक्षक का रोल अदा कर रहे हैं। उषा धीमान औऱ भंवरी देवी प्रकरण इसके उदाहरण हैं। कमजोर वर्ग की इन महिलाओं ने न्याय पाने के लिए पुलिस, प्रशासन, न्यायालय, राष्ट्रीय महिला आयोग, सभी के दरवाजे खटखटाए किंतु कहीं से भी उन्हें न्याय नहीं मिला।”1 समय के साथ उसके स्व का विकास हुआ, वह उन चहारदीवारियों से बाहर निकली जिसमें वो बंधक थी। उसे अपनी दयनीयता का बोध धीरे-धीरे सालने लगा। संभवतः इन्हीं प्रयासों ने वर्जीनीया वुल्फ के स्वर में हर स्त्री को अभिव्यक्त किया- ‘एक स्त्री होने के नाते मेरा कोई देश नहीं,मुझे कोई देश चाहिए भी नहीं और इस नाते पूरी दुनिया मेरे लिए एक देश है।’ स्त्री के जीवन के अनुभव समय के साथ-साथ अब कलम में समाने लगे। उसकी कलम में स्त्री जीवन का यथार्थ, प्रश्न,प्रतिप्रश्न, परिस्थितियाँ, जाति व्यवस्था और पितृसत्ता को तोड़ने के तीखे तेवर हैं, आक्रोश है साथ ही हैं घरेलू जिंदगी में व्यक्तित्व को नियंत्रित करने वाले कारकों के प्रति कटाक्ष भी। दरअसल स्त्री लेखन उसके जख्मी दिल का बयान है। वह उसके उन सपनों, आकांक्षाओँ का मानचित्र है, जिन्हे वह विपरीत ध्रुवों पर खड़ी हुई सदियों से देख रही है। उसके मन, दिमाग, शरीर, और जगत की भिन्नता उसके लिए सम्पूर्ण जगत का एक अलग कोलाहल तैयार करती है। उसकी रचनात्मकता इसी कोलाहल से आप्लावित रहती है। स्त्री और दलित लेखन को जो लोग साहित्य को बाँटने वाली धाराएँ मानते हैं वह भी गलत है और ऐसी शिकायत रूग्ण मानसिकता का परिचय भी देती है जो हाशिए को हाशिया देखने का आकांक्षी है।
दरअसल स्त्री को लेकर भारत ही नहीं, विश्व की समूची सभ्यताएँ,संस्कृतियाँ एवं साहित्य निष्पक्ष चिन्तन करने में असमर्थ रहे हैं।स्त्री विमर्श इसी मानसिकता को चुनौती देता है।“स्त्री विमर्श अपनी मूल प्रपत्ति में स्त्री और पुरूष – दो भिन्न जैविक इकाइयों को परस्पर पूरक या अन्योन्याश्रित जैसे विशेषणों से ढाँप कर विश्लेषित नहीं करता, वरन् दोनों की स्वतंत्र अस्मिता एवं सत्ता पर बल देते हुए एक जीवन्त मानवीय इकाई के रूप में अध्ययन करने का नव संस्कार देता है। यह स्त्री को भोग्या वस्तु, श्रद्धा-योनि किसी भी कोटि में रखे जाने की परम्परागत मान्यताओं का विरोध करते हुए उन तमाम समाजशास्त्रीय संरचनाओँ की पड़ताल कर लेना चाहता है, जो स्त्री को हीन और दोयम दर्ज़े का प्राणी घोषित करती है।”2
स्त्री विमर्श इस बात की पैरवी भी करता है कि स्त्रियों को स्वयं अपना इतिहास जानना चाहिए। पुरूष इतिहासकार तथ्यों को अपनी दृष्टि से ही प्रस्तुत कर देखेंगे। इन्हीं संदर्भों में दलित स्त्री के सरोकार, दर्द और अनुभव अधिक कसैले हैं। उसने अपने लिखे से साहित्य जगत में एक धमाकेदार दखल दिया है। धमाकेदार इसलिए क्योंकि यह उन असहमतियों के खिलाफ था जो स्त्री होकर सवाल करती है के पक्षधर थे। इन स्त्री स्वरों में गहरी संवेदना औऱ समाजबोध अलग से सुना और पहचाना जा रहा है। इन कविताओं में उस स्त्री का दर्द है जो सदियों से बे-जमीन है, बे-जुबान है। वह जीवन का अर्थ तलाशने के लिए अनेक ध्रूवों पर एक साथ घूम रही है। उसे उस अर्थ से कतई वंचित रखा गया जिसे वह सदियों से तलाश रही है। वह अपने उस घर की तलाश में है जहाँ उसे सुकून मिले।(निर्मला पुतुल) समय की आहट औऱ उपभोक्तावाद की चपेट में सारी दुनिया के साथ-साथ दलित समाज भी बदल रहा है। उसके जीवन मूल्य भी बदलती बयार के साथ करवट ले रहे हैं। पीढ़ियों का अंतराल स्त्री जीवन में गहरा द्वन्द्व पैदा कर रहे हैं। इन्हीं के चलते दलित कविता कुंठा, व्यथा, आशा, निराशा और ऊर्जा सभी विषयों को एक साथ उठाने का दुस्साहस करती है। ये अन्य दलित रचनाओं से अलग है क्योंकि यहाँ कोरा आक्रोश नहीं है, यहाँ केवल ब्राह्म्णवादी मानसिकता को नहीं कोसा गया है वरन् संवादधर्मिता के अनेक भाव स्तर हैं जो संवेदना के गहन गह्वरों से निकलते हैं। वह अपने सपनों को इन शब्दों में अभिव्यक्त करती है-“जीरो से शुरू होकर चलते हुए कदमों का/ सपना देखती हूँ.....।”3
दलित साहित्य और लेखक, सतत, समाज के लोगों में चेतना जागृत करने का, उनको दिशा दिखाने का कार्य कर रहे हैं। भारत में दलित महिला की स्थिति पर नज़र डाले तो देश की प्रति 100
संख्या पर 8 महिलाएं दलित हैं। दलित आबादी का 6% प्रतिशत महिलाएँ हैं। जातिवाद, वर्णवाद, पुरूषवाद, उपेक्षा औऱ अन्याय से त्रस्त दलिताएँ सदियों से वंचना का शिकार होती आ रही हैं। दलित आंदोलन में दलित स्त्रियों की भूमिका का पहले-पहल सशक्त रेखांकन मीनाक्षीमून औऱ उर्मिला पंवार ने किया।
1989 में प्रकाशित पुस्तक ‘हमने भी इतिहास बनाया’ में दोनो लेखिकाओं ने डॉ अम्बेडकर के सामाजिक अभियानों में दलित स्त्रियों की भागीदारी पर एक विस्तृत वृतांत लिखा है।
दलित नारीवाद आज अपने लक्ष्य निर्धारित कर रहा है। वह हर प्रश्न पर अपना प्रश्न औऱ विकल्प दोनों रख रहा है। ‘नौवें दशक की हिंदी दलित कविता’
1996 में प्रकाशित रजत रानी मीनू के शोध ग्रंथ की भूमिका में राजेंद्र यादव जी ने लिखा है-“ साहित्य का सारा भविष्य अब स्त्री और दलित चेतना से ही निर्धारित होने जा रहा है। दूसरे शब्दों में कुलीन साहित्य के नियंता पुरुषों ने
1850 से
1950 तक हिंदी की मुख्यधारा में दलित और स्त्री के लिए सुनियोजित रणनीति अपनाई है। उनका प्रतिकार और प्रतिक्रिया तो होनी है। कितना बड़ा अंतर्विरोध है कि उन्होंने साहित्य सबके लिए का नारा लगाने के बावजूद समाज के इन आधारभूत तत्वों को खुद कभी साहित्य में नहीं आने दिया। हाँ! उनकी तरफ से प्रतिनिधित्व करने का ईमानदार प् प्रयास जरूर होता रहा। स्त्री, दलित और अल्पसंख्यकों को लेकर हिंदी में सहानुभूति,करुणा औऱ गहरे सरोकारों का सहित्य कम नहीं है।मगर मेरी आपत्ति यही है कि इस मुख्यधारा में स्वयं उनकी उपस्थिति कहां है। क्यों नहीं हमारे यहां महादेवी को छोड़कर कोई महत्वपूर्ण लेखिका हुई। दलित और अल्पसंख्यक क्यों एक सिरे से गायब है। मूलतः इन सौ वर्षों का सारा हिंदी साहित्य, उस मध्यवर्ग के हाथों गढ़ा गया जो अपनी सुरक्षा शांति और संरक्षण को बनाए रखते हुए ही क्रांतिकारी होना चाहता था। वहां बराबरी देने के आश्वासन,अपमानजनक शब्दों को बदलने की जरूरत, सबको गले लगाने की उदारता तो बहुत है मगर स्थिति के मूल तक पहुंच कर उसे बदलने की तड़प नहीं है। इसलिए भाषा में वह विश्वसनीयता ऊर्जा और तेवर नहीं है जो एक भुक्त भोगी की भाषा में होते हैं।”4
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि दलित महिला लेखन संख्या में कम रहा। अपने प्रारम्भिक दौर में तो यह लगभग अनुपस्थित ही रहा है। सवाल उठता है कि कोई भी विमर्श हो, आंदोलन हो,अपने ही जैसे वंचितों, दलितों या सर्वहाराओँ को साथ लिए बगैर किसी भी तरह की सामाजिक क्रांति संभव है? आश्चर्य है कि दलित विमर्श का अनिवार्य हिस्सा,बतौर स्त्री विमर्श आखिर क्यों वहाँ अनुपस्थित है? “अन्याय का शिकार सिर्फ सवर्ण स्त्रियाँ ही नहीं, दलित स्त्रियाँ उनसे अधिक हैं। उनके श्रम औऱ देह दोनों का शोषण होता है। दलित वर्ग भी अपनी स्त्रियों के लिए उतना ही सख्त मालिक है जितना कोई सवर्ण मर्द।”5
दलित स्त्री साहित्य प्रारम्भ में ना के बराबर मिलता है। यही कारण है कि उनकी समस्याएँ, उनकी आकांक्षाएँ औऱ विचार पूरी तरह सामने नहीं आ पा रहे हैं। अशिक्षा और जागरूकता के अभाव के कारण वे साहित्य में अनुपस्थित है। दलित स्त्री की मुक्ति से यहाँ तात्पर्य केवल दलित पुरूषों से मुक्त होना नहीं है प्रत्युत उस मानसिकता से मुक्ति है जो उन्हें बंध्या देखने की आदी है, जो उन पर शोषण करना अपना अधिकार मानती है।
1990 तक देखा जाए तो तब तक किसी दलित कवियत्री का लेखन मुखर रूप में सामने नहीं आ पाया था।परन्तु उसके बाद सामाजिक बदलाव और शिक्षा के चलते आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिलता है। हिंदी में अब अनेक लेखिकाएँ सक्रिय हैं। रजनी तिलक,सुशीला टाकभोरे, कुसुम मेघवाल, रजत रानी मीनू, पूर्णिमा मौर्य आदि अनेक दलित कवियत्रियों की कुछ रचनाएं प्रकाशित हुई हैं, सतत हो रही हैं। कवंल भारती अपने लेख, ‘दलित लेखन में दलित महिलाओं की दस्तक’, में इस बात का उल्लेख करते हैं कि दलित लेखन में महिला लेखन में सुशीला टाकभौरे का काव्य संग्रह है – ‘स्वाति बूंद और खारे मोती’
1993 में प्रकाशित हुआ जिसमें 61 कविताएं संकलित है, रजनी तिलक का कविता संग्रह- ‘पदचाप’ फरवरी
2000 में प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा काव्यसंग्रह ‘हवा सी बैचेन युवतियां’
2014 में प्रकाशित हुआ। पूनम तुषामड़ का काव्य संग्रह ‘ मां मुझे मत दो’
2014 में प्रकाशित हुआ। रजनी अनुरागी का काव्य संग्रह ‘बिना किसी भूमिका के’
2011 में प्रकाशित हुआ। कुंती का काव्य संग्रह ‘अंधेरे में कंदील’ भी प्रकाशित हुआ है। अनीता भारती, रमणिका गुप्ता तथा अन्य अनेक लेखिकाएँ इस दिशा में सतत लिख रही हैं। उनकी रचनाओं में उनकी अपनी इयत्ता ही अपनी सत्ता का आधार है।
पुरुष प्रधान समाज में स्त्री की स्थिति दोयम है वह पुरुष वर्ग समाज तथा स्व वर्ग द्वारा निरंतर शोषित होती रहती है यही कारण है कि दलित लेखिकाओं में दलित और स्त्री वेदना के अनेक स्तर एक साथ दिखाई देते हैं। दलित शोषण पर वह सीधे अपनी वेदना बयां करती है कि- “ तुम कल्पना पर होकर सवार / लिखते हो कविता / और हमारी कविता/ रोटी बनाते समय /जल जाती है अक्सर /कपड़े धोते हुए/ पानी में बह जाती है कितनी ही बार/ झाड़ू लगाते हुए साफ हो जाती है मन से / पोंछा लगाते हुए/ गंदे पानी में निचुड़ जाती है।”6
यह कविता दलित और स्त्री विमर्श को एक साथ उजागर करती है।स्त्री की व्यथा उसके रोजनामचे में पूरी तरह लिखी नहीं जाती क्योंकि उसका जीवन अनेक भूमिकाओँ में अनेक स्तरों पर विभाजित है। इतने स्तरों पर विवाहित होकर भी उसका कोई घर नहीं होता –
“घर में हर कही बिखरी होती है औरत/ लेकिन उसका कोई घर नहीं होता/ वह घर होती है /दूसरों के लिए दूसरे रहते हैं/ मगर वह खुद में नहीं रहती /तरह-तरह की भूमिकाएं हैं/ औरत के लिए / मगर अपनी कोई भूमिका नहीं।”7 रजनी अनुरागी स्त्री की भूमिका को ठीक-ठीक पहचानती है। वह भयभीत है तमाम चौहद्दियों से परंतु इस डर के पीछे साहस का नेपथ्य भी है। “ औरत डरती है/ क्योंकि उसे मालूम नहीं है / कि यह सब उसे चुप कराने के तरीके हैं /और जिस घड़ी उसे यह बात समझ आती है /उसके साहस की शुरूआत हो जाती है।”8
वस्तुस्थति यह है कि सामंतवाद ने जहां स्त्रियों को उनके मानवीय हकों से महरूम कर दिया वहीं पुरूष को भी प्रेम औऱ संवेदनाओँ से खाली कर दिय़ा। स्त्रियों ने जब चेतना पर पड़े तालों को पहचाना तो वे बैचेन हो गयी औऱ जब चुप्पी तोड़ने की कोशिश की तो पहला उत्पीड़क पितृसत्ता से लैस पुरूष ही सामने नज़र आया। स्त्री अनेक वर्जनाओं से घिरी है।समाज के सारे सिद्धांत मान्यताएं धारणाएँ और संस्कृति के उचान निचान सिर्फ स्त्री के ही हिस्से आए हैं। उससे जरा सी चूक हुई नहीं की, अनेक नजरें उसकी ओर उठ खड़ी होंगी।
“सौ – सौ गिद्ध बैठे हैं/ पुरुषत्व के /तुम कहीं भी कभी भी/ धर ली जाओगी।”9 उसके जीवन में एक साथ कई टीसे हैं। वह अपने वर्ग पर हो रहे अन्याय के प्रतीक क्षुब्ध है और इसलिए वह कहती है। “जब भी योग्यता की बात हुई /कम तर आंका गया है मुझे /जातिवादी नजरिए से तोला गया है मुझे/ मैं बहिष्कृत हूँ सदियों से / अपनी ही जमीन और अपने आप से /ज्ञान और संपदा से वंचित किया गया मुझे/ लेकिन अब मैं जाग चुकी हूं।”10
रजनी अनुरागी उन महीन संवेदनाओँ की बात करती हैं जिन्हें लेकर दलित क्षुब्ध है, आक्रोशित है,पीड़ित है। समाज की जातिगत अवधारणा पर चोट करती हुई वह लिखती है- शेक्सपीयर ने कहा था कि /नाम में क्या रखा है/ अगर वह भारत में पैदा होता तो/ जरूर जानता कि नाम ही यहां सब कुछ है/ यहां नाम में लगी होती है जाति।”11 रजनी अनुरागी की कविताएं शिल्प की दृष्टि से भले ही गहरा प्रभाव ना छोड़ती हो परंतु भाव योजना की दृष्टि से वह अप्रतिम है। ‘और अंत में’ कविता में वह हर स्त्री मन की बात कह देती है-“ कि प्रेम करो /गहरा प्रेम /किसी और से नहीं/ सबसे पहले अपने आप से /यह जानने के बाद भी / एक स्त्री के लिए/ यही सबसे मुश्किल काम है।”12
अनेक धर्मों में देवी देवता को प्रसन्न करने के लिए पशु बलि का प्रयोग किया जाता है। दलित लेखन इस परंपरा की भी घोर निंदा करता है –“यज्ञों में पशुओं की बलि चढ़ाना/ किस संस्कृति के प्रतीक हैं/ मैं नहीं जानता /शायद आप जानते हो।”13 इन्हीं अंधविश्वासों और परम्पराओं के साथ वह स्त्री पर कसी गयी परम्परागत बेड़ियों को भी तोड़ने का प्रयास करती है। वह स्पष्ट और समवेत स्वर में कहती हैं वो केवल गृहणी नहीं, गृह स्वामिनी है। वह केवल अर्धांगिनी नहीं जीता जागता शरीर है, वह देवी नहीं मानवी है। वह अपनी जाग्रत चेतना के साथ स्पष्ट कहती है-
“हर स्त्री मर्द के लिए/ एक योनि/ एक जोड़ी स्तन/ लरजते होंठ हैं। बहनापे वाली बहनों ने मर्दों को धिक्कारा/ उन्हें चेताया औऱ कहा/ योनि, स्तन, होंठ सब हमारे व्यक्तिगत है/ हमारा शरीर हमारा है/हमारी भावनाएँ /हमारी आजादी, इच्छाएँ/पतंग सी उड़ती महत्वाकांक्षाएँ/सब हमारी/हम सपनों के महल की तारिकाएं हैं।”14
दलित स्त्री लेखन सम्पूर्ण साहित्य को प्रतिबिम्बित करता है। साहित्य का मूल स्वरूप औऱ उद्देश्य मानव को मुक्ति प्रदान करना है, दलित लेखन इसी उद्देश्य को लेकर चलता है। साहित्य इंडिविजुएलिटी को लेकर चलता है यही कारण है कि दलित स्त्री का संघर्ष दलित पुरूष से कहीं अधिक है। वह जाति व्यवस्था का विरोध करती है, पितृसत्ता की मुखालफत करती है साथ ही आर्थिक गैर बराबरी की लड़ाई में भी भाग लेती है। उसकी लड़ाई अधिक व्यापक है,“ पहला तो यह कि वह समाज के निचले पायदान पर है दूसरे उसका संघर्ष ज्यादा महत्वपूर्ण है। पितृसत्तावाद जो भारतीय समाज में जातिवाद को बनाए रखने का कारक है का विरोध करने के नाते व्यवस्था का विरोध बन जाता है। तीसरे आर्थिक गैरबराबरी को पूंजीवादी पद्धति का विरोध करने के चलते उसकी लड़ाई का धरातल वैश्विक हो जाता है।”15
कितने स्तर है उसके संघर्ष के गर्भाशय से लेकर, लोकलाज के तालों तक वह सतत संघर्षरत है। पर आज वह कहती है- “मैं नहीं मानती खुद को अर्धांगिनी/मैं सिर्फ एक शरीर नहीं हूँ/तुम मुझे अर्द्धांगिनी कहकर मेरा अपमान मत करो/ मैं हूँ एक संपूर्ण शरीर स्वतंत्र मस्तिष्क/ मेरे कंधों पर और मस्तिष्क का सदुपयोग जानने वाली एक व्यक्ति हूँ एक इंडिबिजुअल।”16
स्त्री की स्थिति हर वर्ग में कमोबेश एक सी ही है। यही कारण है कि दलित स्त्रीवादी लेखन आज मुख्यधारा के स्त्रीवादी सवालों, समस्याओं का भी मूल्यांकन कर रहा है। इस के बगैर नारीवादी आंदोलन की कोई दिशा हो भी नहीं सकती। बकौल अनीता भारती, “भारतीय महिला इतिहास लेखन के आंदोलन में अनेक समस्याएँ हैं। आज जिस वर्ग, जाति औऱ समाज की लेखिकाएँ लेखन करती हैं,उनके लेखन में उनकी वर्ग, जातिगत व समाजगत प्रवृत्तियाँ व रूचियाँ झलकती हैं।ये लेखिकाएं समाज में प्रचलित व प्रसिद्ध व्यक्तियों, धाराओं व वादों से बँधी हैं। अतः उनका लेखन भी उन्हीं धाराओं, वादों और व्यक्तियों से प्रतिबद्धता दर्शाता है। एक ही तरह की स्रोत सामग्री का इस्तेमाल करने से कई अनछुए, अनजान पहलू, व्यक्ति व आंदोलन पर इनका ध्यान नहीं गया। आज जिस तरह से पुरूषों द्वारा रचित इतिहास लेखन में महिलाओं के आंदोलन, उनके अनुभव, उनकी समस्याओं, उऩके मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है उसी तर्ज़ पर महिला लेखन भी दलित, आदिवासी, पिछड़ी, अल्संख्यक महिलाओँ के आंदोलन, समस्याओं, मुद्दों, विचारधारा और सवालों को उपेक्षित किया जा रहा है।”17
दलित नारीवाद की दिशा को देखते हुए उसे अदिवासी व जनजातीय समुदाय की स्त्री समस्याओं व मुद्दों को उठाने का भी प्रयास करना होगा। सवर्ण और हाशिए के बीच खिंची सीमा-रेखा को भी पाटना होगा। औऱत, औऱत के बीच इसी अंतर को पाटने का काम किया है रजत रानी मीनू व रजनी तिलक सरीखी अनेक लेखिकाओं ने। वे यह अंतर दलित नारीवाद के मूल उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए करती हैं। उनका मानना है कि मुख्यधारा की स्त्रियों ने अगर उनकी समस्याओं को उठाने को प्रयास किया होता तो आज विमर्श की इस तृतीय धारा की आवश्यकता ही नहीं होती। स्त्री के साथ पुरूष को भी आगे आना होगा क्योंकि पितृ-सत्तामत्क व्यवस्था का खातमा दलित लेखक और दलित नारीवादीलेखक मिल कर ही कर सकते हैं। मुख्यधारा की बेरूखी पर वे लिखती हैं
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और जो जानती है/ अपने अधिकार/ क्या वो जानती हॆं ?
यह कहना ज़रूरी होगा कि स्त्री और पुरूष के बीच किसी प्रकार का विरोध नहीं है। ना ही नारीवाद जैसी धाराएँ सिर्फ औऱ सिर्फ पुरूषों के लिए है। स्त्री औऱ पुरूष दोनों को मिलकर वर्ग, जाति औऱ सामंती मानसिकता जैसी दीवारें ढहानी होगीं। समता औऱ समानता की फसलें लहलहाएँ इसलिए ज़रूरी है कि प्रतिक्रियावादी तथा नकारात्मक शक्तियों को नेस्तनाबूद किया जाए। यह क्रांति एक दिन में नहीं हो सकती अतः आवश्यक है कि साझा औऱ सतत प्रयास किए जाएँ। दलित लेखन, नारी लेखन, अस्मितावादी लेखन इस दिशा में सार्थक पहल कर रहा है। इन प्रयासों को सतत ज़ारी रखना होगा तभी सदियों की बंधक मानसिकता से मुक्ति संभव है।
निष्कर्ष : दलित रचनाकार को अपनी रचना-प्रक्रिया के द्वारा दलित साहित्य की आन्तरिकता को तलाश करने के लिए कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है। दलित स्त्री का संघर्ष इस मायने में कहीं अधिक है। दलित लेखक किसी समूह, मसलन—किसी जाति विशेष, सम्प्रदाय के खिलाफ नहीं है, व्यवस्था के विरुद्ध है। दलितों की प्राथमिक आवश्यकता अपनी अस्मिता की तलाश है, जो हजारों साल के इतिहास में दबा दी गई है। दलित साहित्य में जो आक्रोश दिखाई देता है, वह ऊर्जा का काम कर रहा है। पितृसत्ता, पुरुष, ब्राह्मणवाद, वर्ग विशेष के संघर्ष को दलित लेखिकाएँ अपनी स्वानुभूति बहुत ही ईमानदारी से बेनक़ाब करती हैं। भारतीय समाज की असमानता, लिंग पर आधारित जीवन की विषमताओं-विसंगतियों के बीच से दलित कविता का जन्म हुआ है जो नकार, विद्रोह और संघर्ष की चेतना के साथ सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध है, दरअसल वह जीवन-मूल्यों की पक्षधर है।
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पृ.87-88,वाड़ंमय
वैज्ञानिक
हिन्दीपति
का
वर्ष-2,
अंक
8 जनवरी
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- अधिकार
कविता
-रजत
रानी
मीनू,
अन्यथा,
पृ.158,
जून-2008,
अंक-12,
कंवल
भारती
के
लेख
दलित
निर्वाचित
कविताएँ
से
उद्धृत,
पृ.144-145
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