शोध सार : शिक्षा में मुस्लिम लड़कियों की स्थिति पर चर्चा करते हुए यह कहना उचित होगा कि यह एक बहुपरकारी और जटिल विषय है। मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा की स्थिति सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, और धार्मिक कारकों से प्रभावित होती है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जहाँ विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक समुदाय रहते हैं, वहां मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा के प्रति स्थिति भी अलग-अलग हो सकती है। मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा की स्थिति में सुधार की दिशा में कई सकारात्मक कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन अभी भी काफी चुनौतियाँ मौजूद हैं। इसके लिए समाज में जागरूकता फैलाना, परिवारों को शिक्षा के महत्व के प्रति संवेदनशील बनाना और सरकार की योजनाओं को अधिक प्रभावी ढंग से लागू करना जरूरी है। अगर इन पहलुओं पर ध्यान दिया जाता है, तो आने वाले समय में मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा में भी उल्लेखनीय सुधार देखने को मिल सकता है। इस अध्ययन में मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा तक पहुंच और चुनौतियों को उनके अनुभव करने के आधार पर समझने का प्रयास किया है। इस अध्ययन में ‘Grounded Theory’ शोध प्रणाली का अनुसरण किया गया है।
बीज शब्द : मुस्लिम, शिक्षा, धर्म, सुधार, लड़कियां, गरीबी, भेदभाव, परिवेश, स्वास्थ्य, संस्कृति।
मूल आलेख : शोध कार्य का मूल उद्देश्य मुस्लिम समुदायों की लड़कियों की शिक्षा तक पहुँच की समकालीन वास्तविकता की जाँच करना है। ताकि उनकी शैक्षिक स्थिति में सुधार करने के लिए, विशेष रूप से उनकी समस्याओं तथा नीति एवं कार्यक्रमों को अमल में लाने के लिये सुझाव दिए जा सकें। इनमें मुस्लिम समुदायों की लड़कियों के तीखे पूर्वकालीन भेदों को, सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन के जरिये काफी हद तक हल कर दिया गया है और इन्हें एक बेहतर सामान्य आधार प्रदान किया है। हालाँकि अभी भी बहुत हद तक भौतिक तथा सांस्कृतिक विभिन्नताएं बनी हुई हैं, फिर भी प्रासंगिक संवेदनशीलता बनाए रखने के लिए इनकी शैक्षिक स्थिति को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है। किसी आम भारतीय नागरिक की तरह हम जानते हैं कि ‘धर्म’ एक महत्वपूर्ण संस्था है। मुस्लिम धर्म कई वर्षों से भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का एक हिस्सा है परंतु इक्कीसवीं सदी में रहने वाले किसी भी भारतवासी की तरह हम यह भी जानते हैं कि ‘धर्म’ केवल हमारी मान्यता का नहीं बल्कि हमारे समाजीकरण का भी प्रभावी घटक है। यह ‘धर्म’, एक जो भारत के अतीत का हिस्सा माने जाते हैं और दूसरी जो कि भारत के वतर्मान का भी हिस्सा है, कहाँ तक समान हैं? इन विचारों को भी, इस अध्ययन में समझने का प्रयास किया है।
यह अध्ययन क्यों ?
शिक्षित होने के लिए साक्षर होना जरूरी है और साक्षरता शक्ति, संपन्न होने का महत्त्वपूर्ण साधन हैं। जनसंख्या जितनी अधिक साक्षर होगी आजीविका के विकल्पों के बारे में उसमें उतनी ही अधिक जागरूकता उत्पन्न होगी और लोग ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में उतना ही अधिक भाग ले सकेंगें। इसके अलावा, साक्षरता से स्वास्थ्य के प्रति भी जागरूकता आती है और समुदाय के सदस्यों की सांस्कृतिक और आर्थिक कल्याण-कार्यों में सहभागिता बढ़ती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद साक्षरता के स्तरों में काफी सुधार आया है एवं हमारी जनसंख्या का दो तिहाई हिस्सा अब साक्षर है। हालाँकि स्त्रियों में साक्षरता पुरुषों के मुकाबले अधिक तेजी से बढ़ रही है जिसका एक कारण यह भी है कि स्त्रियों में साक्षरता अपेक्षाकृत अधिकतर नीचे स्तरों से बढ़नी शुरू हुई है। शिक्षा संबंधी बहुत से आंकड़े बताते हैं कि भले ही मुस्लिम लड़कियों ने बेहतर प्रदर्शन किया है लेकिन प्रासंगिक तरक्की करना अपेक्षित है। शिक्षा के लिए जहाँ तक शैक्षिक पाठ्यक्रमों के वरण का संबंध है, धर्म के संबंध परम्परागत विभाजन शिथिल पड़ने लगा है। इसलिए जरूरी था कि एक ऐसा मैदानी अध्ययन किया जाए जो आंकड़ो से हटकर सामाजिक प्रेक्षण पर आधारित हो। हमने अपने इस अध्ययन में मुस्लिम लड़कियों के शैक्षिक और सामाजिक अनुभवों के आधार पर उनकी शिक्षा तक पहुंच और चुनौतियों का सिद्धांतीकरण किया है।
शोध के उद्देश्य :
1. सामाजिक संरचना के सापेक्षित सन्दर्भ में मुस्लिम समुदायों की संरचना को समझना।
2. सामाजिक संस्कृति एवं शैक्षिक दृष्टि से मुस्लिम लड़कियों की स्थिति को समझना एवं विश्लेषण करना।
3. मुस्लिम समुदाय की लड़कियों के शिक्षायी अनुभवों की प्रकृति का अध्ययन करना।
4. इन समुदायों की लड़कियों के पारस्परिक सामाजिक संबंधों में शिक्षा की भूमिका को स्पष्ट करना।
अध्ययन की पद्धति एवं रूपरेखा : अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु उन तत्वों की छानबीन तथा पहचान करना है जो मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा तक पहुँच की समस्याओं के कारण हैं। इस सम्बन्ध में इनसे जुड़े हुए साहित्य व साक्ष्यों ने हमारी सहायता इस रूप में की है कि मुस्लिम लड़कियों की समस्याएँ उनसे जुड़े हुए उन तत्वों में समाहित है, जो विशेषकर समाजिक विज्ञानों के संदर्भ में आपस में जटिलता से गुथे हुए हैं- यथा लोकाचार (Ethos)। विषय की व्यापक समझ के विकास में हमने सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं ऐतिहासिक क्रम में सैद्धांतिक निरुपण की छानबीन की है। जो मूल रूप से अध्ययन के प्रतिभागियों की समस्याओं को केन्द्र में रखता है। इस अध्ययन में यह प्रयास किया गया कि अध्ययन के समय की स्थितियों और उनकी प्रकृति को ठीक उसी रूप में जैसी वह है, को एक निश्चित तथ्य के रूप में उजागर किया जा सके। इस अध्ययन में लड़कियों के पार्श्व, वृत्तांत उनके आसपास के स्थान तथा ऐसी परिस्थितियां (milieu) जिसमें वह रहते हैं के सम्बन्ध में सटीक जानकारी का वर्णन किया गया है। इसी क्रम में यह शोध Grounded Theory (ग्लेसर, बी., व स्ट्रॉस, ए., 1967) प्रणाली का अनुसरण करके किया गया है। यह अध्ययन दिल्ली के एक मुस्लिम बहुल इलाके के सरकारी स्कूल में किया गया है।
व्याख्या और विश्लेषण : अध्ययन से प्राप्त तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण के दौरान पहले स्तर पर मुस्लिम समुदायों से सम्बन्धित शिक्षा ले रहीं लड़कियों के शैक्षिक-स्थलों (स्कूल), उनके आवास तथा उनके कार्य स्थलों का अवलोकन किया गया है। दूसरे स्तर पर हमने स्कूलों में पढ़ने वाली मुस्लिम समुदायों की लड़कियों से तीन विभिन्न विषयों पर लिखवाएँ निबंधों से अंतर्दृष्टि प्राप्त की है। तीसरे स्तर पर मुस्लिम समुदायों से सम्बन्धित शिक्षा ले रहीं लड़कियों से विभिन्न विषयों पर आवलोकन के माध्यम से सूचनाएं एकत्र की गई हैं। इन विभिन्न तरीकों से प्राप्त आंकड़ों का विषयवार (Thematic) प्रस्तुतिकरण निम्नलिखित रूप से किया गया है।
‘गरीबी’ सर्वव्यापक चुनौती : शोध से प्राप्त अंतर्दृष्टि दर्शाती है कि बच्चियों को आरंभ से ही शिक्षा के प्रति नकारात्मक परिवेश मिलता है और उनसे शिक्षा लेने के लिए पूछा तक नहीं जाता, इनके परिवारों में बच्चे अस्वस्थ और खाली पेट रहते हैं, सरकारी शिक्षा का खर्च कम अथवा नगण्य होने के बाद भी शिक्षा के प्रति पारिवारिक रुझान निरुत्साहित करने वाला रहता है। इनके परिवार में बच्चों को होमवर्क और दूसरे क्रियाकलापों में मदद अथवा मार्गदर्शन देने के लिए होता ही नहीं हैं। लड़कियों की समस्याओं का केंद्र आर्थिक है तथा शिक्षण संस्थाओं का व्यवहार निरुत्साहित करने वाला रहता है, स्कूलों में अध्यापक उनसे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से भेद करते हैं, स्कूलों में न्यूनतम सुविधाओं की भी कमी है तथा स्कूलों में पढ़ने वाला माहौल लगभग न के बराबर है। फोर्ब्स (1996) ने भी ऐसी ही चुनौतियों की चर्चा अपने अध्ययन में की है और वे संकेत करती हैं कि ऐसी स्थितियाँ अभिभावकों तथा पढ़ने वालों को अपनी ओर आकर्षित करने के बजाय विकर्षित करती हैं।
सामाजिक भेदभाव : अतीत से वर्तमान तक : मुस्लिम समुदायों के साथ ‘अलगाव’ की समस्या कोई नई नहीं है, बावजूद इसके की कई संविधानिक प्रावधान कर दिए गए हों। शोध से उभरे तथ्य संकेत करते हैं कि कुछ अभिभावकों को यह लगता है कि यह प्रणाली उनके लिए बनी ही नहीं है। हमने पाया है कि इस भावना के पीछे धर्म और लिंग भेद केंद्रीय भूमिका अदा करता है। कुछ ऐसा ही फारुखी (2023) ने अपने अध्ययन में भी पाया है। स्कूल में अध्यापक मुस्लिमों के प्रति उपेक्षा, अपमान तथा विरोध का भाव रखते हैं तथा विशेष रूप से लड़कियों के प्रति भेदभाव बरतते हैं तथा उन को ‘बेचारीपन’ के भाव से देखा जाता है। इससे प्रकट होता है कि हमारी व्यवस्था समान व्यवहार नहीं करती, मुस्लिम वर्गों से यह भेदभाव आम है और अनके प्रकारों से किया जाता है।
शैक्षिक स्थितियों की विषम व्यवस्था : शिक्षा के ढांचे में मुस्लिम समुदायों की लड़कियों की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है- शिक्षक तथा पढ़ाने के समय की कमी की। शिक्षार्थी-शिक्षक अनुपात अधिक खराब है। शिक्षार्थी-अध्यापक अनुपात की समस्या तब और भी अधिक गंभीर प्रतीत होती है जब यह पता चलता है कि शिक्षा अपने उन लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाती जिससे उनकी उम्मीद की जाती है- यथा सर्वांगीण विकास। स्कूल में हमने पाया कि हर एक शिक्षक विभागीय कार्यों के अलावा एक सप्ताह (पाँच कार्य दिवस) में 20 से 25 कक्षाएँ लेते थे। जो शैक्षिक गुणवत्ता पर गहरा प्रश्न चिन्ह लगाती हैं। ऐसा शिक्षा परिवेश जहाँ न्यूनतम सुविधाओं का भी अभाव है, वहाँ पहले से ही न्यूनतम और हाशिए पर जीने वाली इन लड़कियों को कुछ अधिक प्राप्त नहीं हो पाता। इन लड़कियों के पास गरीबी और विषमता के कारण ऐसे स्कूलों के अतिरिक्त कोई विकल्प भी उपलब्ध नहीं हो पाता है।
शैक्षिक पिछड़ापन : उन्नयन और उपलब्धि : शोध से प्राप्त निष्कर्ष इस ओर संकेत करते हैं कि मुस्लिम लड़कियों की अकादमिक सफलता योग्यता उन्नयन तथा उपलब्धि में... गैर मुस्लिम लड़कियों की तुलना में एक बड़ा अंतर है। मुस्लिम समुदायों की लड़कियों में असफलता की दर अर्थात् एक कक्षा में फेल हो जाना गैर मुस्लिम समुदायों की तुलना में अधिक है। योग्यता उन्नयन के मामलों में जो महिलाएँ अगली कक्षाओं तक पहुँचती हैं वह गैर मुस्लिम समुदायों की लड़कियों से कम अंक प्राप्त करती हैं। इसी तरह मुस्लिम समुदायों की लड़कियों द्वारा अपनी वार्षिक परीक्षाओं में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय स्थान पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कक्षाओं में शीर्ष स्थान प्राप्त करने के मामले में गैर मुस्लिम समुदायों की महिलाएँ ही बाजी मार ले जाती हैं। मुस्लिम समुदायों की लड़कियों की औसत आयु अपेक्षाकृत अधिक है तथा अधिकांश लड़कियों की शिक्षा देर से शुरू हुई या इन लड़कियों नें एक कक्षा में एक से अधिक वर्ष लगाया गया है।
पढ़ाई और स्वास्थ्य : स्वास्थ्य और पढ़ाई के बीच सम्बन्ध की जांच में शोध ने इस तथ्य की पुष्टि की है कि मूलभूत स्वास्थ्य की सुविधाओं की सीमित सुलभता के कारण स्कूलों में उपस्थिति पर इसका प्रभाव पड़ता है। अधिकतर लड़कियों की छुट्टी का कारण बीमारी होती थी, इनमे एक बड़ा कारण मासिक धर्म संबंधी स्वास्थ्य और स्वच्छता(Menstrual health and Hygiene) थी, इससे सम्बन्धित कई अन्य पूर्वगृह तथा उनके द्वारा किए जाने वाले घरेलू कार्य हैं। इससे यह समझा जा सकता है कि स्वास्थ्य और शिक्षा एक-दूसरे के पूरक हैं। अच्छा स्वास्थ्य उन्हे शिक्षा में बने रहने को मदद करता है, उसी तरह जैसे बेहतर शिक्षा लोगों की सहायता इस रूप में करती है कि वे स्वास्थ्य सुविधाओं का बेहतर उपयोग कर सके।
अस्मिता निर्माण और उच्च अभिप्रेरणा : हमने पाया कि मुस्लिम समुदायों की लड़कियों में अपनी मुस्लिम होने की पहचान की स्थिति में सकारात्मक बदलाव आया है तथा स्कूलों की विपरीत परिस्थितियों के बाद भी शिक्षा को लेकर अधिक उत्प्रेरणा देखी जा सकती है। लड़कियों के आख्यान दर्शाते हैं कि शिक्षकों की समझ और समाज में एक मिथक काम करता है कि मुस्लिम समुदायों के बच्चे तथा महिलाएँ तो पढ़ना ही नहीं चाहती या फिर उनके अभिभावक उन्हें पढ़ाने की बजाय काम करवाने में अधिक रूचि लेते हैं। इससे सम्बन्धित कई साक्ष्य शोध में उपलब्ध हुए हैं। ऐसी मुस्लिम लड़कियां जो अपने घरेलू कार्यों, या फिर आजीविका संबंधी अन्य कामों में लगी हुई हैं, वे खुलकर अपने विचार सामने रखती हैं कि ‘कोई काम छोटा’ नहीं होता। गिलियन (1993) ने ऐसे ही कार्यों और जीवन में अपने आदर्शो पर खरा उतरने की चर्चा की है कि ऐसी जिंदगियाँ अपनी पहचान को सकारात्मक रूप में उजागर करती हैं।
सांस्कृतिक एवं धार्मिक जड़ता : हमने पाया कि महत्त्वपूर्ण कारण पारिवारिक एवं धार्मिक जड़ता है। सांस्कृतिक तथा धार्मिक प्रथाओं का एक नकारात्मक प्रभाव इन लड़कियों के जीवन पर पड़ता है और अपनी लड़की होने की पहचान से इनका जीवन सांस्कृतिक और धार्मिक दोनों तरीकों से प्रभावित होता है। बहुत सी लड़कियों ने अपने वृतांत में इंगित किया है कि सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं से उनका जीवन उनके धर्मों के पुरुषों की तुलना में ज्यादा अधीन है। यह अधीनता उनकी उनके जीवन से ज्यादा आज्ञाकारी और अनुशासित होने की मांग निरंतर करती है। इस प्रकार की अधीनता की बात माइकल फुको ने भी अपने ‘Discipline and Punish’ नामक अपने विमर्श में भी की है। लड़कियों ने बताया है कि उनके जीवन में कई बार सहज माने जाने वाले काम भी संस्कृति और धर्म से प्रशासित होते हैं। पढ़ने या न पढ़ने या कैसे या क्या पढ़ने का निर्णय भी सांस्कृतिक पहलुओं पर निर्भर होता है। लड़कियों के ये वृतांत हमें यह समझने में सहायता कर सकते हैं कि इन लड़कियों का परिवेश इन्हे कई अस्वाभाविक चुनौतियों के साथ-साथ उनमें रच बस जाने के लिए तैयार भी करता है।
सैद्धांतिक निरुपण : मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा : उपरोक्त मुद्दे हमें एक ऐसे सिद्धांत को विकसित करने की तरफ उन्मुख करते हैं, जिससे इन लड़कियों की शिक्षा और जीवन प्रक्रिया को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। हमने इस अध्ययन में एक ऐसे सिद्धांत की शिनाख्त की है, जिसमें कुल तीन प्रतिमान दिखाई पड़ते हैं। जैसा कि हमने तीन स्तरों से अपनी अंतर्दृष्टि का विकास किया है-
- मुस्लिम समुदायों की लड़कियां जिन तालीमी इदारों में पढ़ती है - स्कूल, उनके आवास तथा उनके काम करने की जगह।
- स्कूलों में पढ़ने वाली मुस्लिम लड़कियों द्वारा तीन विभिन्न विषयों पर लिखे गए निबंध
- शिक्षा प्राप्त कर रहीं मुस्लिम समुदायों की लड़कियों से विभिन्न विषयों पर साक्षात्कार के माध्यम से एकत्र की गई सूचनाएं।
हमने इन विभिन्न तरीकों से प्राप्त अंतर्दृष्टि का विषयवार (Thematic) विश्लेषण उपरोक्त में किया है। इन तीन तरीकों से जिन प्रमुख घटकों की शिनाख्त करने में हम सफल हुए वह हैं – राज्य, समाज, स्कूल, धर्म, परिवार और मुस्लिम लड़कियाँ। यह सभी घटक कब और कैसे इन बच्चियों की शिक्षा को प्रभावित करते हैं तथा साथ ही यह कैसे स्वयं भी एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं, समझा गया है। हमने देखा कि यह सभी घटक कुल तीन प्रकार (इन तीनों को नीचे चित्र-1 में प्रतिमान के रूप में दर्शाया गया है) से संगठित होते हैं और मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा को प्रभावित करते हैं। इसलिए जरूरी है कि जब भी इस समुदाय के लिए शैक्षिक नीति, पाठ्यक्रम या फिर शिक्षा कर्म से जुड़े मुद्दों पर काम किया जाए तब, इस सिद्धांत को ध्यान में रखा जाए। यह तीन प्रतिमान एक सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित होते हैं। यह सिद्धान्त और इसके तीनों प्रतिमान चित्र-1 में दिखाए गए हैं। इस चित्र में आप देख सकते हैं कि हमने प्रमुख छ: घटकों की पहचान की है। जिसमें हैं- राज्य, समाज, स्कूल, धर्म, परिवार और मुस्लिम लड़कियाँ। हमने सिद्धांतीकरण के दौरान तीन प्रतिमानों की शिनाख्त की है।
चित्र-1
1. प्रतिमान-1 में राज्य अपने भीतर सभी अन्य घटकों को फिर समाज अपने भीतर अन्य घटकों को, फिर धर्म अपने भीतर अन्य घटकों को, परिवार अपने भीतर अन्य घटकों को और फिर स्कूल अपने भीतर अपने विद्यार्थियों को समाहित करता हुआ प्रतीत होता है। हमने देखा कि प्रतिमान-1 (जो मुख्य रूप से राज्य को सर्वथा शक्तिशाली मानता है, यथा समाज, धर्म, परिवार तथा स्कूल के द्वारा पोषित है) एक- दूसरे की अधीनता स्वीकार करते हैं और अधीनस्थ प्रतीत होते हैं। यह हम इसलिए कह सकते हैं कि जब एक शिक्षक या शिक्षिका या एक स्कूल, जो कि राज्य का प्रतिनिधित्व करता है, धर्म संबंधी पहचान या शिनाख्त सरकार की कूटनीतियों के बरक्स करने लगे तो राज्य और स्कूल एक- दूसरे में समाहित हो जाते हैं, और इन दोनों को सैद्धांतिक रूप से अलग करना कठिन हो जाता है। ये तब और कठिन हो जाता है जब बात प्रभाव किसका किस पर कितना हुआ, को पकड़ने की हो। यही कारण है कि यह प्रतिमान इन लड़कियों की शिक्षा के सन्मुख आने वाली कठनाईयों या फिर इनके निराकरण का कोई ठोस प्रतिनिधित्व नहीं करता है। क्योंकि स्कूल का काम आलोचनात्मक चिंतन, समस्या समाधान तथा वैचारिक रूप से निष्पक्ष बनाना होता है न कि राज्य द्वारा पोषित विचार को हु-ब-हु परोसने का। एक दूसरे में समाहित हो जाना और एक ऐसी काया (body) के रूप में काम करना जो अधीनता (Docile) स्वीकार कर ले। यही बात माइकल फुको ने भी अपने ‘Discipline and Punish’ संबंधी डिसकोर्स में की है। इस प्रतिमान-1 का स्वरूप हमने इसी अध्ययन के दौरान राज्य की नीतियों, अभिशासन, स्कूली व्यवस्था संबंधी अध्ययन के आधार पर पहचाना है।
2. प्रतिमान-2 इन सभी घटकों को एक दूसरे से सर्वथा पृथक दर्शाता है। इस प्रतिमान को देखने पर यह इसकी एक विशेषता भी लगती है परंतु ऐसा नहीं हैं, क्योकि इन घटकों का आपस में कोई संबंध प्रतीत नहीं होता है। इस प्रतिमान की शिनाख्त भी हमने अध्य्यन के दौरान ही की है। हमने इसे स्कूल के शिक्षकों, अभिभावकों, प्रशासकों और मुस्लिम लड़कियों के इन घटकों से सामना होने के सम्बन्ध से पहचाना है। लड़कियों ने जो निबंध लिखे, हमने लड़कियों से जुड़ी जगहों के जो अवलोकन किए तथा साक्षात्कार से सूचनाएँ जुटाईं वह संकेत करती हैं कि लड़कियों के परिवार, धर्म, राज्य, स्कूल तथा शिक्षकों के बीच का धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक वर्ग-विभाजन अथवा हैसियत के बीच के अंतर सर्वथा पृथक और भिन्न हो ही नहीं सकते। जैसा कि पीयरे बॉर्डियू (1984, 1996) का विमर्श आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी की अवधारणा को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है, उनका मानना है कि पूंजी के यह तीनों प्रकार हमें वर्ग अथवा हैसियत के भौतिक और गैर-भौतिक दोनों पहलुओं को सूक्ष्मता से समझने के लिए सहायता प्रदान करते हैं। बॉर्डियू का मानना है कि ‘वर्ग’ अथवा ‘हैसियत’ के ‘भौतिक’ और ‘गैर-भौतिक’ दोनों पहलू ‘पूंजी’ के इन्हीं तीनों प्रकारों में जटिलता से गुथे हुए हैं। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए वह बताते हैं कि ‘आर्थिक पूंजी’ दरअसल ऐसी ‘भौतिक संपदा’ है जिसे पूंजी के ‘सांस्कृतिक’ और ‘सामाजिक’ पहलुओं में परिवर्तित किया जा सकता है। उनके अनुसार ‘सांस्कृतिक पूंजी’ भाषाई कौशल, शिक्षा, हासिल करने के साथ-साथ पुस्तकों जैसे शिल्पों पर ‘कब्ज़ा’ कर लेना हैं; वहीं ‘सामाजिक पूंजी’ ‘सामाजिक संबंधों और आपसी नेटवर्क’ को संदर्भित करती है। जैसा कि ऊपर व्याख्या और विश्लेषण के पहलू दर्शाते हैं कि लड़कियां इन तीनों प्रकार की पुंजियों को प्राप्त करने कि चेष्टा में हैं, परंतु हैं इनसे काफ़ी दूर...क्योंकि उन को लगता है कि यदि इन घटकों को पृथकता से काबू किया जा सकता है। वह ऐसा इसलिए समझती हैं क्योंकि उनको लगता है कि यह घटक उन को सर्वथा अलग-अलग तरह से प्रभावित कर रहे हैं। यथा यह दोनों, प्रतिमान-1 और प्रतिमान-2 दोनों ही इन लड़कियों की शिक्षा को समझने के लिए और उनका सैद्धांतिक निरूपण करने के लिए अधूरे दिखाई पड़ते हैं।
3. प्रतिमान-3 इन लड़कियों के समाजीकरण, स्कूलिंग और शिक्षा व्यवस्था का सटीक प्रतिनिधित्व करता है। जो दिखाता है कि इन लड़कियों पर और इनकी स्कूलिंग व शिक्षा पर सभी घटकों का संतुलित और मिश्रित प्रभाव पड़ता है, जो एक जटिल स्थिति का पुनरुत्पादन करते हैं। जैसा कि हमने ऊपर विषयवार (Thematic) विश्लेषण किया है और दिखाया है कि मुस्लिम लड़कियां हमारे द्वारा पहचाने गए घटकों से बेहद व्यवस्थित और संतुलित तरीके से प्रभावित होती हैं। उदाहरण के लिए आयशा जो 11 कक्षा में है कहती है .......कुछ भी करो आगे बढ़ो .....‘कोई काम छोटा’ नहीं होता....।...क्योंकि उसको समाज, परिवार या फिर राज्य के घटक के आधार पर यह समझ आया है कि ‘कुछ काम’ ‘छोटे’ या मामूली होते हैं ...लेकिन इस से फर्क नहीं पड़ना चाहिए। वहीं दूसरी तरफ रुही.... जो कि उसी स्कूल में पढ़ती जिस में आयशा ...परंतु रुही कहती है ... मैं पढ़ना चाहती हूँ ....आईएएस ऑफिसर बनाना चाहती हूँ.......शादी भी आईएएस से ही करना चाहती हूँ....। यह घटक दोनों लड़कियों को अलग-अलग तरह से प्रभावित कर रहे हैं। रुही और आयशा दोनों अपनी तरक्की (आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हैसियत से संबद्ध) स्कूल-शिक्षा (पढ़कर किसी भी कार्य का चयन करके) और राज्य-शक्ति या सत्ता (आईएएस) के मार्फत करना चाहती हैं। लेकिन दोनों के परिवार और स्कूल (यह दोनों भी- घटक है) एक दूसरे को प्रभावित करते हुए और एक दूसरे से प्रभवित होते हुए रुही और आयशा जैसी कितनी ही लड़कियों के इस सपने को प्रभावित कर रहें हैं। यही कारण हैं कि सभी घटक आपसी जोड़-जुड़ाव से मुस्लिम लड़कियों कि शिक्षा को प्रभावित कर रहे हैं। यथा हम इन लड़कियों की स्कूलिंग और शिक्षा व्यवस्था को समझने के साथ-साथ इनकी समस्याओं के निराकरण के लिए प्रतिमान-3 की अनुशंसा करते हैं।
अध्ययन की सीमाएं : यह अध्ययन या जो सिद्धांत हमने पहचाना है, सर्वथा मुस्लिम लड़कियों की शैक्षिक समस्याओं को समझने का प्रतिनिधित्व करेगा, ऐसा संभव नहीं हो सकता। जैसा की हमने पहले भी इंगित किया है कि सामाजिक यथार्थ की प्रकृति एक हद तक ‘देखने-वाले’ के दृष्टिकोण से व्याख्यित होती है। वस्तुतः समाज की प्रकृति सामाजिक घटनाओं के स्पष्टीकरण की न होकर, उनको व्यवस्थागत करने की होती है, क्योंकि मानव व्यवहार सार्वभौमिक नियमों द्वारा न तो शासित होते हैं और न ही वैज्ञानिक तथ्यों की तरह नियमित होते हैं। इसलिए सामाजिक जगत को उन व्यक्तियों की नजर से ही देखा जाना चाहिए, जो उसका एवं उसमें होने वाली क्रियाओं का हिस्सा होते हैं। यथा यह अध्ययन और इसका सैद्धांतिक निरूपण केवल उन लड़कियों के परिवेश (Milieu) और लोकाचार (Ethos) में ही निहित हैं, जो इस अध्ययन का हिस्सा थी, लेकिन फिर भी कुछ हद तक हमारे सिद्धांत और उसके प्रतिमान का इस्तेमाल इन लड़कियों की शिक्षा को समझने के लिए किया जा सकता है।
निष्कर्ष : शोध से प्राप्त तथ्यों और आख्यानों ने एक भयभीत कर देने वाले संकाय की पृष्ठभूमि तैयार की है जो दर्शाती है कि शिक्षकों की धारणाएँ, पूर्वाग्रह और व्यवहार, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम लड़कियों के साथ भेदभाव का कार्य करती हैं। शिक्षकों के अंतःकरण में बैठ चुकी धारणा कि वे मुस्लिम बच्चों को पढ़ाते हैं दरअसल उनके संवाद और व्यवहार को प्रभावित करती है। शोध ने ऐसे भी संकेत दिए हैं जो बताते हैं कि मुस्लिम लड़कियों की एक बड़ी बाधा गरीबी है जो उनकी शिक्षा के आड़े आती है। इनकी गरीबी भी उनकी शिक्षा में बाधा डालती है जो स्कूलों की ख़स्ता हाल व्यवस्था की उपलब्धता और नजर अंदाज करने वाली व्यवस्था के कारण अधिक जटिल हो जाती है। जिसके चलते शिक्षा के प्रति बढ़ती हुई मांग, आकांक्षा और उत्प्रेरणा शिक्षण संस्थाओं की प्रणाली के प्रति अवहेलना और तिरस्कार किया है।
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वीरेंद्र कुमार चंदोरिया
सहायक आचार्य, शिक्षाशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश -211002
chandoriakr@gmail.com, 7011363695
पूजा सिंह
सहायक आचार्य, कॉलेज ऑफ टीचर एजुकेशन, नूंह, मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद
singhpja@gmail.com, 8377802913
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