शोध आलेख : रामानंदी पंथ का उद्भव और विकास / अनुजा त्रिपाठी

रामानंदी पंथ का उद्भव और विकास
- अनुजा त्रिपाठी

शोध सार : धर्म एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति है, उसमें भी जब हम सनातन संस्कृति की बात करते हैं तो यह अभिव्यक्ति अनेक परंपराओं और विचारों का रूप ले लेती है। इन्हीं विचारों के समायोजन से एक नई संस्कृति बनती है। सनातन धर्म एवं संस्कृति में समय-समय पर शैव-जैन और बौद्ध धर्म दर्शन, वैष्णव, ब्रम्ह उपासना, द्वैतवाद, द्वैताद्वैत, अद्वैत और बाद में भक्ति काल में सगुण और निर्गुण उपासना इत्यादि का विकास हुआ। विचारों के साँझी स्वीकृति से भारत में प्राचीन काल में नए पंथों का उद्भव हुआ। पंथ अपने आप में स्वतंत्र अभिव्यक्ति ही जिसकी स्वतंत्र वैचारिकी और अपनी पद्दति होती है। पंथ के विचारों के अपने अनुयायी होते हैं, जो उस पंथ के रीति-रिवाजों में विश्वास करते हैं। भारत में 13 वीं शताब्दी भक्तिकाल के रूप में जाना जाता है। भक्ति एक मार्ग है जिसपर चलकर व्यक्ति अपने आराध्य को प्राप्त करता है। भक्ति एक ऐसा प्रयोग था जिसकी व्याख्या में ईश्वर भी भक्ति के आगे अभिभूत हो गए। जहाँ निर्गुण में नानक की भक्ति, कबीरदास की भक्ति, रैदास की भक्ति थी जहाँ ईश्वर को निराकार रूप में देखा गया। भक्ति का दर्शन साकार भी था और निराकार भी रहा है, भक्ति की धारा भारत के प्राचीन शहर काशी से गहरे रुप से जुड़ी हुई है। प्राचीन काशी, मध्यकालीन बनारस और आधुनिक वाराणसी ऐसा ही शहर है; जहाँ आदि योगी शिव, जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ, भगवान बुद्ध, आदि गुरु शंकराचार्य, रामानंद, कबीर दास, तुलसी दास एवं रैदास (रविदास) जैसे प्रतिनिधि भक्ति संत जुड़े हुए थे। काशी ज्ञान, धर्म, विज्ञान, दर्शन, परंपरा एवं संस्कृति का शहर है। काशी आदि भी है और अंनत भी है। एक समय में काशी विद्वत जनों के ज्ञान और विचारों को सिद्ध करने का अखाड़ा भी हुआ करता था। बनारस अपने आप में एक अद्भुत शहर है। यहाँ ईश्वर के सगुण उपासक भी थे और ईश्वर के निर्गुण उपासक भी थे। यहीं बनारस में रामभक्ति पंथ का विकास हुआ। वाराणसी के पंचगंगा घाट पर आज भी श्री मठ स्थित है। यहीं से रामपंथ का विकास हुआ। प्रस्तुत शोध आलेख में रामपंथ के उद्भव और विकास के साथ ही उसके दर्शन से परिचित कराने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द  : उपासना, जातिवाद, दर्शन,रामपंथ, भक्ति, सगुण, निर्गुण, श्रीमठ, समरसता और पंथ।

मूल आलेख : दक्षिण से रामानुजाचार्य ने वैष्णव उपासना दर्शन को अवतारवाद से जोड़ा, उसके बाद रामानुजाचार्य के सिद्धांत को विशिष्टाद्वैत सिद्धांत (विशिष्टयो अद्वैतम) के रूप में जाना जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "गुणों द्वारा विशेषता वाली वास्तविकता की अद्वैतता।" विशिष्टाद्वैत का मूल सिद्धांत शरीरात्मा भाव है। इस प्रकार, ब्रह्म में पदार्थ और व्यक्तिगत आत्माएं उनके शरीर के रूप में हैं, और इसलिए वह सर्वोच्च प्राणी है, जिसमें सभी वास्तविकता समाहित है। रामानुजाचार्य के शिष्य रामानंद ने उनके दर्शन को आगे बढ़ाया।[1] रामानंद ने अपने अनन्य रामानुजाचार्य की भक्ति परंपरा को सर्वसामान्य बनाने व प्रचलित करने हेतु एक केंद्र के रुप में पंथ को स्थापित करने का काम किया।

रामानंद को एक धर्म एवं समाज सुधारक के रूप में भी देखा जाता है। इन्होंने पारंपरिक व्यवस्था जिसमें शिक्षा पर केवल ब्राम्हणों का एकाधिकार था उसे बदलकर सभी जाति एवं वर्ग के लोगों के लिए राम की उपासना का सरल माध्यम प्रदान किया। भगवान विष्णु के अवतार (महापुरुष) के रूप में राम को स्थापित करने का काम किया। उपासना विधि एवं कर्मकांड से ऊपर राम को कर्मयोगी मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप परिभाषित कर रामानंद ने अस्तित्व एवं आस्था को एक नया रूप प्रदान किया। काशी को रामानंदी सम्प्रदाय का केंद्र बनाने के साथ ही हिन्दी भाषा को पंथ के प्रचार का माध्यम भी इन्होंने बनाया ताकि जनमानस तक ज्यादा से ज्यादा उनका विचार पहुंच सके। एक विचारक व समाज सुधारक के रूप में रामानंदाचार्य ने समकालीन सामाजिक परिदृश्य को देखते हुए अपने पंथ के विचारों को परिभाषित किया। जब समाज इस्लामिक संस्कृति के प्रभावों पहली बार परिचित हो रहा था वैसे समय में धार्मिक समरसता को बनाने एवं जातीय वैमनस्यता को त्यागने की शिक्षा उन्होंने दी।

जाति पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।।

इसी प्रकार रामानंद ने हरि भक्ति व साधु प्रेम के बारे में भी अपने विचारों को अभिव्यक्त किया..

हरि की कथा सुनी नहीं कानां ।
तो तू नांहीं जम सूं छांनां ॥
साध कै संगत मैं कछू न रहियौ।
मुष सूं रांम कछु नहिं कहियौ ॥

रामानंदाचार्य ने सर्व समाज के हित के लिए उपदेश दिया उनका विश्वास था कि भक्ति आध्यात्मिक जगत की सबसे बड़ी थाती है और एक ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर सर्वसाधारण ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। उन्होंने भक्त कबीर को सीढ़ी पर पाया और अपना शिष्य बनाया। वह मानते थे कि..

नांम निकेवल सबते न्यारा ।
रटत अघट घट होय उजारा ॥
रामानंद यूं कहै समुझाई ।
हरि सिमरयौ जम लोक न जाई।।

भक्त रैदास जो चमार जाति से आते थे उन्होंने उनको अपना शिष्य बनाया। वे भक्ति को ईश्वर के प्रति समर्पण का सर्वश्रेष्ठ माध्यम मानते थे।[2] उन्होंने कहा कि.....

साहिब की अग्यां है मोकूं ।
महा कसौटी देहूं तोकूं ॥
घड़ी घड़ी का लेषा लेहूं ।
करमादिक तेरा भर देहूं ॥

रामानंद अपने युग की समस्याओं से अवगत थे और उसको गहराई से समझते थे। इसलिए उन्होंने उसको अलग सामाजिक प्रयोगशाला में सिद्ध करने का प्रयास किया।

रामानन्द का परिचय : रामानंद (1299-1410) एक वैष्णव संत थे। रामानंदाचार्य का जन्म प्रयाग में माघ कृष्ण पक्ष सप्तमी को संवत 1356 (1299 ई.) में हुआ था। इनके पिता का नाम पुण्यसदन व माता का नाम सुशीला देवी था। दक्षिण में ज्ञान साधना के बाद रामानंद उत्तर भारत में पुनः चले आए। रामानंद ने अपना अधिकांश समय वाराणसी में बिताया। यहीं काशी में भक्ति परंपरा के संस्थापकों में से एक थे और उत्तरी भारत में एक महान संत थे। रामानंद के जन्म और मृत्यु को लेकर विद्वानों में मतभेद है।[3] लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं कि उन्होंने भक्ति की परंपरा व उसके समकालीन प्रासंगिकता को समझते हुए उत्तर भारत को अपने मत प्रसार हेतु चुना। रामानंद स्वामी ने संपूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण किया। ग्रियर्सन और डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी तात्विक रुप से रामानंद को रामानुजाचार्य का शिष्य नहीं मानते लेकिन उनके मतों के प्रभावी के रुप में उनकी अनुशंसा करते हैं। रामानंद जी को न केवल काशी (वाराणसी) अपितु मथुरा, हरिद्वार, काँची, प्रयाग और अयोध्या में नए संप्रदाय के विस्तार हेतु धर्मावलंबियों के कोप का शिकार होना पड़ा। रामानंद ने इसके बावजूद एक धर्मनिष्ठ योद्धा की भांति अपने संप्रदाय व पंथ का प्रसार किया। [4]

 भारतीय डाक टिकट पर रामानंद की फोटो स्रोत: गूगल इमेज

नाभा दास कृत ‘भक्तमाल’ के अनुसार रामानंद के कुल बारह शिष्य थे। अनंतानंद, भावानंद, धना, कबीर, सुखानंद, पद्दावती, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद, रैदास, पीपा, सैन और सुरसुरी उनके अनुयायियों में से थे। उत्तर भारत में रामानंद एक प्रभावशाली समाज सुधारक थे। इन्होंने सभी जाति वर्ग के लोगों को अपना शिष्य बनाया। इसके अलावा, रामानंद ने एक धार्मिक विचार को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।[5]

रामानंद और रामानंदी पंथ : रामानंद जब बनारस (वाराणसी) में आये तब उन्होंने बनारस में श्री मठ की स्थापना की। श्री मठ 'शब्द' कोई नया शब्द नहीं है। रामानुजाचार्य के द्वैताद्वैत सिद्धांत से ही जुड़ा हुआ है। रामानन्द ने बनारस में आकर उसे एक मठ के रूप में प्रतिस्थापित किया। यह मूल मठ केदार घाट स्थित उनके आवास के रुप में स्थित है। 1951 में इस मठ के महंत पंडित श्री रामलखन दास थे। मुगल काल में आक्रांताओं ने इस मठ को नष्ट कर दिया था। रामपंथ वैचारिकी में सभी धर्मों और जातियों के लिए सामान रूप से अवसर है। सभी लोग मठ के विचारों को आत्मसात करके राम भक्ति मार्ग का अनुसरण कर सकते हैं। रामानंद ने अपने शिष्यों को राम और सीता पर विशेष ध्यान देने के लिए प्रोत्साहित किया। क्लासिक संस्कृत महाकाव्य, रामायण के अनुसार, राम एक विजयी योद्धा थे जो राक्षसों के भयानक दस सिर वाले राक्षस-राजा, रावण को मारने में सक्षम थे।[6] राम भगवान 'विष्णु' के एक अवतार थे। रामानंद संप्रदाय के स्थपना व विकास के लिए महत्वपूर्ण रुप से श्री मठ का योगदान रहा है। पंद्रहवी शताब्दी में बनारस के पृष्ठभूमि से जिन बारह भक्ति कवियों को रामानंद ने शिष्य बनाया उन्होंने प्रस्थापित भक्ति अवधारणा को परिवर्तित करने का कार्य किया। इन निर्गुण उपासकों ने समाज में व्याप्त भक्ति व धर्म के जटिल अवधारणा को एक नया आधार प्रदान किया। [7]

श्री मठ उत्तर भारत में सबसे प्रमुख मठों में से एक है। काशी के अतिरिक्त बिहार, दिल्ली, बंगाल, राजस्थान, ओडिशा, गुजरात, कर्नाटक, गुरुग्राम, पंजाब, मथुरा और विशाखापत्तनम साथ ही नेपाली के तराई में रामानंदी संप्रदाय की संस्थाएं सक्रिय हैं। माना जाता है कि रामानंदी संप्रदाय सबसे महत्वपूर्ण हिंदू पंथ के खिताब के लिए दशनामी समूह के साथ भी प्रतिस्पर्धा करता है।[8]

श्री मठ, पंचगंगा घाट, वाराणसी, स्रोत: अनुजा त्रिपाठी

रामानंद और जातिवाद : रामानुजाचार्य के विपरीत रामानंद ने भक्ति मार्ग में जातिगत भेदभाव को नकारा और उन्होंने माना कि भगवान राम ने कभी भी किसी भी जाति के लोगों को अपने पास आने से नहीं रोका, इसलिए रामानंद को लगा कि हर कोई भगवान की पूजा कर सकता है। भगवान राम के प्रति खुद को सही तरीके से समर्पित करने के लिए, उन्हें लगा कि व्यक्ति को अपनी जाति पहचान और सामाजिक पद को भूलना चाहिए। किसी व्यक्ति की जाति के बारे में कोई पूछताछ नहीं करनी चाहिए, जिसके साथ वह भोज करता है। रामानंद ने कहा है, "यदि कोई व्यक्ति खुद को हरि के प्रति समर्पित करता है, तो वह हरि का दास बन जाता है।" इसीलिए संत रामानंद के अनुयायी हर वर्ग से आज भी हैं।[9] निम्न जातियों के व्यक्तियों सहित गरीबों की भागीदारी के माध्यम से, उन्होंने शिक्षा और उपदेश का एक अत्यधिक क्रांतिकारी दर्शन विकसित किया। रामानंद की मृत्यु के बाद, रामानंदी संप्रदाय ने महिलाओं और निचली जातियों के लोगों की मदद लेकर गंगा के मैदान में एक समाजवादी क्रांति का नेतृत्व किया। राम नाम के सुमिरन व भजन के लिए किसी विशेषाधिकार की जरूरत को रामानंद ने अस्वीकार कर दिया।[10]

श्री मठ मुख्य द्वार, स्रोत: अनुजा त्रिपाठी

रामानंदी संप्रदाय का हिंदी भाषा में योगदान : रामानंद हिंदी भाषा को सामान्य बोलचाल की भाषा बनाया और सभी जातियों के शिष्यों को अपनाया। संत रामानंद हिंदी में बोलते और रचना करते थे इसलिए रामानंदी पंथ ने हिंदी साहित्य और दर्शन की गुणवत्ता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। वैष्णव धर्मगुरुओं के अनुसार, रामानंद के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले व्यक्तियों द्वारा लिखे गए पवित्र आख्यानों और गीतों का पाठ आमतौर पर समकालीन भारतीय साहित्य के अध्ययन की शुरुआत करता है, क्योंकि आज भी भारतीय संस्थानों में इसका अध्ययन किया जाता है। तुलसीदास, मीरा बाई और कबीर इन प्रसिद्ध संतों में से हैं। शिक्षाओं में 'गुरु परम्परा', जो प्रत्येक रामानंदी को गुरुओं की अविच्छिन्न श्रृंखला के अंतर्गत स्वयं रामानंद और अंततः रामचन्द्र से जोड़ती है, जो लम्बे समय से रामानंद की संगठनात्मक प्रमुखता को प्रतिबिंबित किया है।[11] आध्यात्मिक क्षेत्र, 'परमात्मा' के प्रति रामानंद की प्रतिबद्धता और आत्म-समर्पण, उनके अध्ययन की विशेषता थी। संत रामानंद के अनुसार भगवान राम परम आत्मा रहे होंगे, और पूरी जाति केवल एक विशाल परिवार थी, 'वसुधैव कुटुम्बकम।' भले ही वह एक प्रतिभाशाली और करिश्माई उपदेशक थे, जो जहाँ भी जाते थे, वहाँ भारी संख्या में श्रोताओं को आकर्षित करते थे। रामानंद की लगभग सभी कविताएँ और अभिव्यक्तियाँ खो गई हैं। नतीजतन, वर्तमान शोधकर्ताओं के लिए रामानंद के अस्तित्व पर शोध करने के लिए बहुत कम लेखन उपलब्ध हैं।[12] रामानंद एक सुशिक्षित व्यक्ति थे। माना जाता है कि उन्होंने आनंदभाष्य की व्याख्या भी लिखी थी।[13]

रामानंदी सम्प्रदाय व उसकी वर्तमान प्रासंगिकता : वर्तमान में रामानंदी सम्प्रदाय व मठ आज भी अपने मूल अवधारणा को लिए हुए स्थित है। आज भी यहाँ गुरुपूर्णिमा पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। वहाँ के एक मठ सेवक श्री बालकृष्ण दास जी ने बताया कि रामपंथ आज भी अपनी प्रासंगिकता को बनाये हुए है। आप यहाँ आकर प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं, यहाँ आज भी प्रत्येक दिन भंडारे का आयोजन किया जाता है।[14] उन्होंने यह भी बताया कि हमारे मठ में सभी सम्प्रदायों व जाति वर्ग के लिए दरवाजा खुला हुआ है। लोग आकर यहाँ प्रसाद पा सकते हैं और यथोचित समय तक रह सकते हैं। यहाँ प्रत्येक शाम को आरती व प्रसाद वितरण का कार्यक्रम आज भी होता है।

रामानंदी सम्प्रदाय व इस्लाम धर्म : बालकृष्ण जी ने यह भी बताया कि पंचगंगा घाट पर ही धरहरा मस्जिद स्थित है जो बाद में बिंदु माधव भगवान विष्णु के मंदिर को तोड़ कर बनाया गया है। उस समय में रामपंथ के भक्तों के द्वारा इस कार्य का भरपूर प्रतिरोध किया गया। वर्तमान में स्थिति सोहार्द पूर्ण हैं। क्योंकि दोनों स्थल एक जगह पर होने की वजह से धरहरा मस्जिद पर लाउडस्पीकर नहीं लगाया गया है; ताकि नित्य सुबह शाम के आरती व पूजन में कोई दिक्कत हो इस बात का विशेष ध्यान दिया गया है। इस्लाम के आक्रमण व उसके प्रसार के बाद भी श्री मठ अपने मूल स्वरूप में आज भी स्थित है उन्होंने कहा यह उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। आज भी विशेष अवसरों पर मुसलमान भी मठ परिसर तक आते हैं और मठ के प्रसाद को ग्रहण करते हैं। उन्होंने बताया कि कोरोना काल में स्थिति में बड़ा परिवर्तन हुआ है, लेकिन धार्मिक सोहार्द वैसे ही बना हुआ है।[15]

रामानंदी पंथ की लोक अभिव्यंजना : रामानंदी संप्रदाय में रामानंदाचार्य के शिष्यों को अगर हम देखें तो स्पष्ट रुप से आमजन की लोक अभिव्यक्ति हमें दिखाई देती है। सुरसुरानंद जो श्री मठ आश्रम में आकर नाचते हैं, जिन्हें रामानंद जी अपना शिष्य बना लेते हैं। नरहर्यानंद नाई जब आकर स्वामी जी का पैर पकड़ा तो उन्होंने उन्हें आश्रम में जगह दिया। योगानंद जी अपनी मृत पत्नी के शोक में काशी के घाटों पर घुम रहे थे तब उन्हें स्वामी जी ने अपना शिष्य बना लिया। इसी प्रकार पिपा जी को कुँए में कूदने का आदेश स्वामी जी ने दिया जब वे कुद गए तो उनके समर्पण को देख कर उन्हें अपना शिष्य बना लिया।[16] पद्दावती जो तिरुमरि ग्राम से आयी थी, उसे भी स्वामी जी ने शरण दिया। रामानंद के दो प्रमुख शिष्यों में कबीर औऱ रैदास थे जो निम्न जाति के थे, जिनके अनन्य भक्ति और समर्पण को देखकर स्वामी जी ने उन्हें आश्रय दिया। इन शिष्यों ने रामानंद संप्रदाय को लोक भाषाओं में अपने काव्य अभिव्यंजना से न केवल संप्रदाय के मत को प्रसारित किया बल्कि राम के निर्गुण साकार स्वरुप को सहजता भी प्रदान किया। इनके सह्ज भाव से सर्व साधारण में यह मत एक अलग स्वरुप के रुप में प्रस्फुटित हुआ।

 श्री मठ के भीतर स्थित वैष्णव आचार्यों का विग्रह, स्रोत: अनुजा त्रिपाठी

निष्कर्ष : मध्यकाल में जब भारत एक नए एवं संस्कृति के सामाजिक संघर्ष कर रहा था, उस दौर में जब इस्लाम के प्रसार के साथ सूफी, सुरावर्दी, नक्शबन्दी और कादरी जैसे कुछ उदार और कुछ रूढ़ीवादी इस्लामिक मत भारत में आये तब एक सामाजिक संघर्ष पैदा हो गया। यह सामाजिक संघर्ष सत्ता के संघर्ष से आम जनमानस के भावनाओं को दुर कर एक सांझी संस्कृति की ओर ले जाने का प्रयास कर रहा था। इस दौर में भक्ति आंदोलन भी ज़ोरों पर था, जिसका मूल उद्देश्य धर्म की जटिलताओं को दुर कर ईश्वर को प्राप्त करने का एक सरल मार्ग प्रसस्त करना था। लेकिन दक्षिण भारत जो उस समय सत्ता के केंद्रबिंदु से दुर था, वहाँ से उत्तर भारत की स्थिति भिन्न थी। काशी, बनारस या वाराणसी उस समय समन्वय संस्कृति का केंद्र बन कर विकसित हुआ। रामानंद ने पूरे भारत का भ्रमण करके इस बात को समझ गए थे कि बाह्य संस्कृति से अगर भारत के ग्रामीण जन को बचाना है तो धर्म के जटिल स्वरुप को एक सार्थक और साधारण दिशा देने की जरूरत है। उनका सामाजिक विज्ञान और धर्म को लेकर उनकी समझ दूरदर्शी थी। उन्होंने सनातन संस्कृति की दिशा को अनसुलझी हुई शैव और वैष्णव परंपरा से बाहर निकालकर अपने आराध्य प्रभु राम को मर्यादा स्वरुप छवि के रुप में स्थापित किया। वही राम जिन्होंने सबरी के जूठे फल खाये थे, वही राम जिन्होंने केवट से और आदिवासियों से मित्रता की, उसके बाद सभी जाति-वर्ग के प्रति उदार रहे। इन्हीं पदचिन्हों पर चल कर रामानंद ने काशी के केदार घाट पर श्री मठ की स्थापना की साथ ही ईश्वर के सगुण उपासना के स्वरुप को निर्गुण व निराकार रुप में मान्यता भी दी। जिन उद्देश्यों का आचार्य रामानंद स्वामी ने नींव रखी उसे मज़बूती से कबीर और रैदास ने आगे बढ़ाया। इन तमाम प्रयासों से मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को एक दिशा प्राप्त हुआ। समाज जहाँ एक ओर धार्मिक सांझी संस्कृति को स्वीकार किया, वहीं दूसरी ओर जातिगत बुराइयों जैसे छुआछुत, भेदभाव, रूढियां और आडंबर से निकल कर समरसता की ओर आगे उन्मुक्त हुआ।

रामानंद के प्रयासों का प्रभाव केवल निर्गुण उपासकों तक सीमित नहीं था, उनके सार्थक कार्यों का प्रभाव सगुण उपासकों के बीच में भी दिखाई देता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित्रमानस में राम के स्वरुप को वही आधार दे रहे हैं जो रामानंद ने अपने सिद्धांतों में दिया है। नर जैसे सभ्य जाति व बानर जैसे समकालीन सर्वमान्य असभ्य जीव का एक साथ जुड़ाव, साथ ही भक्ति और समर्पण का भाव उस समय में एक नया सामाजिक प्रयोग था। इस प्रकार की सामाजिक चेतना को बनारस की पृष्ठभूमि से एक ठोस आधार देकर रामानंद ने एक प्रासंगिक मानक को प्रस्तुत किया है।

संदर्भ :
[2] सूर्य प्रकाश द्विवेदी, “आचार्य रामानुज के दर्शन में भक्ति का स्वरूप”, इंडियन जर्नल ऑफ सोशल साइंस एंड पॉलिटिक्स, वॉल्यूम.1, अंक.5, पृष्ठ. 114.
[3] चतुर्वेदी द्वारिका प्रसाद शर्मा, भाष्यकार श्री रामानुजाचार्य का सचित्र जीवन चरित्र, राय बहादुर विश्वेश्वर लाल रॉयल एक्सचेंज प्लेस, कलकत्ता, 1972, पृष्ठ. 211.
[4] बद्रीनारायण श्रीवास्तव, रामानंद सम्प्रदाय तथा हिंदी साहित्य पर उसका प्रभाव, हिंदी परिषद, प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयाग, 1957, पृष्ठ.87.
[5] वही, पृष्ठ.88.
[6] वही, पृष्ठ.52
[7] पुष्पा बुढलाकोटी, सगुण वैष्णव संत रामानुजाचार्य की सामाजिक-दृष्टि, जर्नल ऑफ आचार्या नरेंद्र देव रिसर्च इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली, वॉल्यूम.1,अंक.12, 2016, पृष्ठ. 3.
[8] डॉ. राजेंद्र यादव, अवधेश कुमार, भक्तिकाल: वाणी और विचार, विजया बुक, नई दिल्ली, 2017, पृष्ठ.56.
[9] विलियम आर.पिंच, “ रेनिवेटीव रामानंद: कास्ट एंड हिस्ट्री इन गैंगेटिक इंडिया”, मॉडर्न एशियन स्टडी, वल्युम.30.अंक.3, जुलाई 1996, पृष्ठ.549-571.
[10] रामेश्वर प्रसाद बहुगुणा, “कबीर एंड अदर मेडिवल संत इन वैष्णव ट्रेडिशन,” प्रोसिडिंग ऑफ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, नई दिल्ली, वल्युम.69, 2008, पृष्ठ.373-383.
[11] विलियम आर.पिंच, पीजेंट एंड मोंक इन नोर्थेर्न इंडिया, युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्फली,1996,पृष्ठ.162.
[12] जे.एन.फकहर, “द हिस्टोरिकल पोजिसन ऑफ रामानंद,” द जर्नल ऑफ रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैण्ड, वल्युम,4, अंक.3,जुलाई 1922, पृष्ठ.379.
[13] रिचर्ड बर्गाट, “द फाउंडिंग ऑफ रामानंद सेट्स,” एथनो हिस्ट्री, स्प्रिंग, डक यूनिवर्सिटी प्रेस, वल्युम.25,अंक.2,1978,पृष्ठ.121-139.
[14] कुमार रत्नम, अंजलि रत्नम, “लोक जागरण और रामानंदीय परंपरा:एक अध्ययन,” संस्कृति एवं सामाजिक अनुसंधान, नई दिल्ली, वल्युम.3,अंक.1,2022,पृष्ठ.16.
[15] आचार्य बालकृष्ण दास का साक्षात्कार, दिनांक 22/10/2024
[16] वही, पृष्ठ.378

अनुजा त्रिपाठी
मानदेय प्रवक्ता, इतिहास विभाग, वसन्त कन्या महाविद्यालय, कमच्छा, वाराणसी संबद्ध (काशी हिंदू विश्वविद्यालय)

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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