शोध आलेख : पर्यावरण संकट और अमृतलाल वेगड़ का यात्रा-आख्यान / बृजेश कुमार यादव

पर्यावरण संकट और अमृतलाल वेगड़ का यात्रा-आख्यान
- बृजेश कुमार यादव


शोध सार : पर्यावरण संकट एक वैश्विक समस्या है। समकालीन हिंदी साहित्य में पर्यावरण चिंतन धीरे-धीरे विमर्श के रूप में उभर रहा है। साहित्य में ‘यात्रा-आख्यान’ को प्रकृतिपरक विधा के रूप देखा जाता रहा है। यह धारणा बहुत आम है कि यात्रा साहित्य ‘मौज-मस्ती’ का साहित्य है और घुमक्कड़ी में सब वाह-वाह ही है! इसमें प्रकृति का बहुत मनोहारी, सुन्दर, आकर्षक चित्रण देखने को मिलता है। समकालीन हिन्दी यात्रियों ने इस रूढ़ धारणा को तोड़ा है. उन्होंने प्रकृति और पर्यावरण के सिर्फ़ मनोहारी और आकर्षक रूप का ही वर्णन नहीं किया है बल्कि उस पर मंडराते संकट को भी गंभीरता से विवेचित किया है। प्रस्तुत आलेख में हम इन्हीं बिन्दुओं पर विचार करेंगे।

बीज शब्द : प्रकृति, पर्यावरण, प्रदूषण, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, शुद्ध वातावरण, जल-संकट, विकास की सतत अवधारणा, जैव विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र, यात्रा-आख्यान, हिन्दी साहित्य...इत्यादि।

मूल आलेख : पर्यावरण प्रदूषण एक वैश्विक समस्या है। दुनिया पर्यावरण संकट से गुज़र रही है। यह संकट दिन-प्रति-दिन गहराता जा रहा है। सभी क्षेत्रों में इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगा है। यह प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानव जनित है। पर्यावरण संकट की चर्चा राजनीतिक गलियारे में होने के बावजूद इस पर कोई ठोस और बड़ा निर्णय अभी तक क्रियान्वित नहीं हुआ है। हमने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए प्रकृति और पर्यावरण का ख़ूब दोहन किया है। यह संकट उसी का परिणाम है। दुनिया भर में ‘विकास’ का जो मॉडल खड़ा हुआ है, वह सतत और धारणीय नहीं बल्कि दोषपूर्ण है। गहराते पर्यावरण संकट पर साहित्यकारों ने भी चिंतन-मनन किया है।

यात्रा-साहित्य प्रकृति के सबसे नज़दीक मानी जाने वाली साहित्यिक विधाओं में से एक है – यह कह कर साहित्यालोचकों द्वारा अक़सर यात्रा-साहित्य को ‘रोमांटिसाइज़’ किया जाता रहा है! जबकि यात्रियों ने अपने यात्रा-साहित्य में समाज, संस्कृति, प्रकृति, पर्यावरण आदि का वर्णन व्यापक अर्थों में किया है। समकालीन यात्रियों की दृष्टि प्रकृति के सिर्फ़ सुन्दर, सम्मोहित, आकर्षक रूप पर ही नहीं ठहर जाती है, बल्कि बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक सम्बन्ध, भौगोलिक और पर्यावरणीय संकट पर भी जाती है। उसकी दृष्टि संकटग्रस्त पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, नष्ट होती जैवविविधता, दूषित जल और प्रदूषित वायु से जूझ रही दुनिया, पर भी जाती है। वह सम-सामयिक समस्याओं पर ठहरकर विचार करता है। समकालीन यात्रियों ने गहराते पर्यावरण संकट, विकृत होती प्रकृति, नष्ट होती जैव-विविधता एवं असंतुलित होते पारिस्थितिकी तंत्र जैसे सामायिक और ज्वलंत विषय पर भी स्पष्ट राय रखता है। पहाड़ों में बढ़ता मानव अतिक्रमण हो या ग्लोबल वार्मिंग या फिर पहाड़ों का धंसना या जैव विविधता का नष्ट होना, औषधियों का विलुप्त होना, ये सभी उसके चिंतन-मनन के केन्द्र-बिन्दु रहे हैं। समकालीन यात्रियों में कृष्णनाथ, अमृतलाल बेगड़, अजय सोडानी, असग़र वजाहत, लीलाधर मंडलोई, हरिराम मीणा इत्यादि ने अपनी यात्राओं में इन पहलुओं पर गहराई से विचार-विमर्श किया है।

समकालीन हिन्दी यात्रा-आख्यान में अमृतलाल वेगड़ एक महत्त्वपूर्ण नाम है। नर्मदा और अमृतलाल वेगड़ एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। अमृतलाल वेगड़ को जीते जी ही नर्मदा का पुत्र भी कहा जाने लगा था। कारण है नर्मदा के प्रति उनका समर्पण, नर्मदा की सांस्कृतिक-आध्यात्मिक यात्रा! वेगड़ के यात्रा-आख्यान में नर्मदा और प्राकृतिक दृश्यों का मनोहर वर्णन ख़ूब है। लेकिन, जगह – जगह प्रकृति और पर्यावरण से हो रही छेड़छाड़, नर्मदा को प्रदूषित करने या बांधने के प्रयास और इससे उपजने वाले संकट का वर्णन दिखाई देता है। अमृतलाल वेगड़ के बारे में सामान्य धारणा है कि वे आधुनिक ‘विकास’ समर्थक हैं। इस संदर्भ में तर्क दिया जाता है कि उन्होंने नर्मदा पर बन रहे सरदार सरोवर बाँध तथा अन्य छोटे-मोटे बांधों एवं उससे निकाली जाने वाली नहरों का वे विरोध नहीं करते। साथ ही वे इन अत्याधुनिक कार्यों को वे देश और समाज के विकास में उसे आवश्यक तत्त्व के रूप में देखते हैं। इसकी कुछ झलक उनके यात्रा-आख्यानों में भी दिखाई देती है। वे अमरकंटक से ग्वारी घाट के रास्ते में हैं और जो देखते हैं उसपर विचार करते हुए लिखते है, “बारूद से चट्टानें तोड़ी जा रही हैं, बड़ी-बड़ी नहरें खोदी जा रही हैं। बाँध के बन जाने पर ये नहरें खुशहाली की सौगात लायेंगी। सारा इलाका धन-धान्य से लहलहा उठेगा।”1

अमृतलाल वेगड़ नर्मदा पर चल रही तमाम परियोजनाओं को मानव के विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। प्रारंभ में उन्हें नहीं लगता कि नर्मदा और पर्यावरण को इससे कुछ बड़ी हानि होने वाली है। यही कारण है कि नर्मदा नदी पर चल रही तत्कालीन परियोजना कार्यों का वह समर्थन करते दिखाई देते हैं। वह उसे संदेह या आलोचना की दृष्टि से नहीं देखते। पहले उन्हें यह भी नहीं लगा कि इससे न सिर्फ़ बड़ी मात्रा में मानव पलायन होगा बल्कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित होगा। उन्हें आभास नहीं था कि जैव विविधता नष्ट हो जाएगी, जो किसी भी स्वस्थ पर्यावरण के लिए अच्छी बात नहीं है। वे अपनी आस्था को तर्क पर प्रभावी नहीं होने देते। वह नवागाम में नर्मदा पर बन रहे बाँध के बारे में लिखते हैं, “यहाँ नर्मदा पर एक बड़ा बाँध बन रहा है – नर्मदा पर बन रहे बंधों में सबसे बड़ा। इसमें नर्मदा के अनमोल पानी को सँजोकर रखा जाएगा और नहरों के माध्यम से दूर-दूर के प्यासे खेतों को पहुँचाया जायेगा। गुजरात का तो कायापलट हो जायेगा। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और सुदूर राजस्थान तक को इसका लाभ मिलेगा। नर्मदा पर और भी कई बाँध बन रहे हैं। इन बांधों के कारण जो विशाल झीलें निर्मित होंगी, उनमें सैकड़ों गाँव अदृश्य हो जायेंगे। सैकड़ों मील लम्बे किनारे डूब जायेंगे। नर्मदा-तट का भूगोल जितना 25,000 वर्षों में नहीं बदला, उतना अगले 25 वर्षों में बदल जायेगा।”2 ध्यातव्य है कि यहाँ वे इस बात को रेखांकित करना नहीं भूलते कि नर्मदा का स्वरुप जितना पच्चीस हज़ार वर्षों में नहीं बदला वह आने वाले पच्चीस वर्षों में बदल जायेगा। नदियों पर बन रहे बांधों और नहरों के समर्थन के मूल में उनकी दृष्टि में व्यापक मानव जीवन था। उन्होंने लिखा कि इन बांधों और नहरों के निर्माण से मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात तक की काया पलट जायेगी। अक्सर सूखा से जूझ रहे इन राज्यों को पुनर्जीवन मिल जाएगा। उनकी चिंता के मूल में है मानव कल्याण। ये भी एक कारण है कि मानव कल्याण के लिए सरकारों द्वारा नर्मदा पर निर्मित बाँध और नहर सबका समर्थन करते हैं। भले उसके लिए थोड़ा-बहुत प्रकृति या पर्यावरण को हानि हो। यही कारण है कि सरदार सरोवर बाँध के बनने बाद जब वह वहां पहुंचते हैं तो लिखते हैं, “मेरे मन में आशंका थी कि सरदार सरोवर के कारण नर्मदा का सौन्दर्य कम हो जायेगा, बल्कि नर्मदा का अस्तित्त्व ख़तरे में पड़ जाएगा। किन्तु सरदार सरोवर को देखकर यह आशंका निर्मूल हो गयी। यहाँ नर्मदा चौड़ी और गहरी हो गयी है, लेकिन उसकी आकृति में कोई फ़र्क नहीं पड़ा है। पहले की दुबली-पतली नर्मदा अब पुष्ट हुई है। पहले उसके भण्डार खाली रहते थे, अब बारहो माह भरे रहते हैं। बांधों के कारण नर्मदा की पूँजी सौ गुना बढ़ गयी है। मनुष्य जिस प्रकार प्रकृति के सौन्दर्य को नष्ट कर सकता है, उसी प्रकार उसमें वृद्धि भी कर सकता है। सरदार सरोवर के कारण नर्मदा सौन्दर्य में वृद्धि ही हुई है।”3 वेगड़ यहाँ न केवल बाँध बनाये जाने का समर्थन करते हैं बल्कि उनकी नज़र में नर्मदा अधिक चौड़ी और गहरी हो गयी है। इतना ही नहीं बल्कि दुबली-पतली नर्मदा सरदार सरोवर बाँध के कारण और अधिक पुष्ट हुई है। उनका यह भी मानना है कि नर्मदा पर इस बाँध के बन जाने से उसके सौन्दर्य में बृद्धि हुई है। लेकिन उनके ये विचार अन्यत्र कही और लिखी बातों से मेल नहीं खाते बल्कि यह भ्रम पैदा करते हैं कि बाँध नदी के अस्तित्त्व के लिए आवश्यक हैं या नहीं!

अमृतलाल वेगड़ कई जगहों पर बाँध और बड़ी-बड़ी नहरों के समर्थन में दिखते हैं। उनके अनुसार “बरसात का पानी एक जगह आबद्ध होकर रह न जाये, अबाध गति से बहता रहे, इसके लिए नदियाँ ज़रूरी हैं। और नदियों का प्रवाह रक्त के प्रवाह की तरह सदा एक सा बहता रहे, इसके लिए बाँध ज़रूरी हैं। इतने वर्षों तक नर्मदा अनिरुद्ध थी। लेकिन अब वह सरदार सरोवर में तथा अन्य बांधों में अवरुद्ध होगी।”4 यहाँ वह अनिरुद्ध नर्मदा के अवरुद्ध किये जाने पर हर्षित दीखते हैं। यहाँ भी उनके अनुसार नदी के प्रवाह को अक्षुण्ण रखने के लिए बाँध आवश्यक हैं। इतना ही नहीं, वे आगे नदी पर बनने वाले बांध और नहरों का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “बाँध यानी नर्मदा के हाथ में धनुष्य! नहरें यानी उस धनुष्य से निकले बाण! धनुष्य की प्रत्यंचा जितनी पीछे खींचेंगे, बाण उतने ही दूर जायेंगे। नदी के प्रवाह को जितना ज्यादा रोकेंगे, नहरें उतनी ही दूर जाएँगी। अकाल रुपी राक्षस का संहार करने के लिए और बेतहाशा बढ़ रही आबादी को अन्न और जल देने के लिए नदियों को धनुर्धर होना ही पड़ेगा। यहाँ नर्मदा अपने को खोकर अपने को पाएगी। सच्चे अर्थों में माता बनेगी। धरती सुजला-सुफला होगी। उद्योग बिजली की गति से आगे बढ़ेंगे। बाँध यानी नदी का कमाऊ पूत।”5

ये अमृतलाल वेगड़ के बाँध और नहर से जुड़े उनके कुछ महत्त्वपूर्ण विचार हैं, जो उन्होंने अक्टूबर 1998 ई. के पहले और बाद की यात्रा के दौरान दर्ज़ किए थे; जिसके आधार पर उन्हें बाँध और सरकार समर्थक बताया जाता रहा है। लेकिन, यहाँ यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या उनके ये विचार सर्वकालिक हैं? क्या वे अपने आरंभिक विचारों पर अंत तक इसी दृढ़ता से खड़े रहे? पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि बांधों के निर्माण और बिजली उत्पादन के बाद भी उन राज्यों की वे समस्याएं नहीं हल हुईं, जो बांध बनने से पहले अपेक्षित थीं। राज्यों को अपेक्षित लाभ नहीं मिला। कुछ बड़ी-बड़ी उद्योग कंपनियों को अवश्य फायदा पहुंचा। इस बाँध और नहर के निर्माण में तो हजारों-लाखों आदिवासी बेघर हुए। उनका विस्थापन हुआ। यही नहीं, बाँध से निर्मित जलाशयों में इन आदिवासियों को मछली तक पकड़ने पर सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया। यानी अमृतलाल वेगड़ ने जिस जनता की भलाई के लिए बांध निर्माण जैसे कार्य को अपना समर्थन दिया, उसकी वाह-वाही की, उस सरकार ने न सिर्फ उनके साथ, बल्कि नागरिकों के साथ भी धोखा किया। यही कारण है कि अमृतलाल वेगड़ ने भी बाद के दिनों में अपना विचार बदला।

नर्मदा को सौन्दर्य की नदी कहा जाता है। अमृतलाल वेगड़ ने इसकी परिक्रमा का व्रत लिया तो उसके मूल में नदी का सौन्दर्य और प्राकृतिक छटा ही थी। उन्होंने अपने पहले और दूसरे यात्रा-वृत्तान्त में नर्मदा के जिस सौन्दर्य का वर्णन किया है, वह किसी को भी अपनी तरफ आकर्षित कर सकता है। नर्मदा के किनारे बसी संस्कृतियों और सभ्यताओं का ह्रास इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही दिखाई देने लगता है। अमृतलाल वेगड़ जिस बाँध और नहर यानी नर्मदा पर ‘सरकारी निर्माण संस्कृति’ की प्रशंसा और उसके माध्यम से मानव जीवन के कष्टों का निदान देख रहे थे, जिसके लिए नर्मदा को अवरुद्ध किया गया था, उसके दुष्परिणाम ज़ल्दी ही सामने आने लगे। इसी की एक झलक उनको डिंडौरी से महाराजपुर (मंडला) के रास्ते में मिलती है। यहाँ नर्मदा संकरी और छिछली थी इस कारण लोग पैदल पार कर उस पार जाते मिलते थे। साप्ताहिक बाज़ार के दिन ताँता लग जाता था। यहाँ से गुजरते लोगों को देखना किसी कला कृति को देखने के समान था, “किन्तु इनमें से अब कुछ भी नहीं रहा। नदी के एक ओर है चेकडेम (नदी के लिए मानो ‘रास्ता बन्द!’), दूसरी ओर है बड़ा पुल और यहाँ पक्का लम्बा घाट। अब यहाँ सीमेंट कंक्रीट का बोलबाला है। लोगों को सुविधा ज़रूर हो गयी है लेकिन नर्मदा का सौन्दर्य छिन्न-भिन्न हो गया है। पहले हम प्रकृति से संस्कृति में आये। यह बहुत अच्छा हुआ। लेकिन अब संस्कृति को विज्ञान के बुलडोजर से रौंदते हुए विकृति की ओर जा रहे हैं। ऐसा करने से तो पृथ्वी का अस्तित्त्व ही संकट में पड़ जाएगा।”6 कहने का तात्पर्य यह कि संस्कृति को विकास और विज्ञान के बुलडोजर द्वारा रौंदे जाने का दृश्य अब आम होने लगा। नदी पर इतने बाँध बना दिए गए कि वह अब मरणासन्न अवस्था में पड़ी है।

बहुत बार ऐसा आभास होता है कि अमृतलाल वेगड़ नर्मदा या अन्य नदियों पर विकसित बाँध संस्कृति का विरोध सीधे-सीधे नहीं करते। उनके भीतर विरोधभाव तो है, जिसको उन्होंने जज्ब कर रखा है। तेजी से विकसित हो रही नदियों पर बाँध संस्कृति के विरोध की आग उनके मन में कहीं न कहीं अवश्य है, जो यदा-कदा दिख जाती है। ऐसी ही एक झलक हमें नर्मदा की सहायक नदी बंजर की परिक्रमा के दौरान दिखती है। बंजर की सहायक नदी ‘कसई डोबरानार’ पर बने बाँध को देखकर उनके मन में सुलग रही बाँध विरोधी आग अब बाहर आ ही जाती है और लिखते हैं “इसे देखकर मुझे लगा, बाँध कहीं नदी के पेड़ पर लगे मधुमक्खी के छत्ते तो नहीं ! (लेकिन इतने भी न हों कि पेड़ ही दिखाई न दे। दुर्भाग्य से नर्मदा के साथ आज यही हो रहा है।)”7 क्या इसे वेगड़ का द्वंद्व कहा जाए या कुछ और? क्या ऐसा कोई राजनीतिक दबाव तो वेगड़ पर नहीं कि जिसकी वजह से उन्हें बांध का समर्थन करना पड़ा? उनको समर्थन ही नहीं बल्कि बांधों की प्रशंसा भी करनी पड़ी। नहीं तो जो वेगड़ जी लोगों द्वारा नदी में पशु धुले जाने पर नदी के प्रदूषित होने का खतरा देखते हैं और दुःख व्यक्त करते हैं, वह आखिर नदियों को सोखने, पूंजीपतियों को फायदा पहुँचाने वाले बांध और परियोजना की बड़ाई कैसे कर सकते हैं! जबलपुर से हंडिया के रास्ते में बावरीघाट पर स्नान करते हुए अमृतलाल वेगड़ ने जो देखा, उसके बारे में गहरे दुःख व् क्षोभ भरे शब्दों में उन्होंने लिखा है, “दोपहर में बावरीघाट में मैं जहाँ नहा रहा था, वहां छह-सात भैंसे पहले से ही नहा रही थीं। घुटे सर वाले दो ग्रामीण आये और प्लास्टिक की थैली में से खारी नदी में उड़ेल दी, फिर थैली भी बहा दी। एक मोटर-साइकिल वाला आया और उसने नदी में मोटर-साइकिल धोना शुरू किया। इतना मानो कम था तो दो ट्रक और तीन ट्रेक्टर वाले आये और उन्होंने अपने– अपने वाहनों को धोना शुरू किया। काश, दुर्वासा की तरह नदी शाप देना जानती होती।”8 आश्चर्य होता है कि जो अमृतलाल वेगड़ नदी में पशुओं और वाहन के धोने पर इतना क्षोभ प्रकट करते हैं, वह नदी पर सरदार सरोवर जैसे बांध का समर्थन कैसे कर सकते हैं?

अपनी अंतिम पदयात्रा उन्होंने वर्ष 2009 में ‘बरमान घाट से जबलपुर’ के लिए की थी। इस यात्रा में उनको जो अनुभव हुए वे काफी कटु थे। धुआँधार प्रपात के पास मिले मछुआरों ने उन्हें बताया कि “किसी समय यहाँ खूब मछलियाँ थीं, पर अब नहीं। किसानों के ज़हरीले कीटनाशक और रासायनिक खाद बहकर नदी में आते हैं और मछलियों को मार डालते हैं।”9 इसी पदयात्रा में वे जब ‘केरपानी’ पहुँचे तो वहां के स्कूल के शिक्षकों ने अपने बच्चों के लिए दो शब्द बोलने (वक्तव्य) के लिए आग्रह किया तो वे अपने वक्तव्य में बच्चों को नदी और उससे जुड़े जीव-जंतुओं के महत्त्व को रेखांकित किया। अपने पूरे वक्तव्य में अमृतलाल वेगड़ ने नदी के महत्त्व, पानी के महत्त्व, नर्मदा के महत्त्व और नदियों को साफ़ रखने पर विशेष जोर देते रहे। इस पदयात्रा में उनको जो अनुभव हुआ वह कष्ट पहुँचाने वाला था। जगह – जगह नदी में न सिर्फ नाले गिराये जा रहे थे बल्कि बाँध और नहरों के निर्माण के अलावा नदी से रेत की खुदाई भी बड़े पैमाने पर हो रही थी। वे नदी में हो रहे इस तरह के कृत्य का विरोध करते हैं। वे लिखते हैं, “नदी में जगह–जगह ट्रकों के काफ़िले खड़े थे। नदी में से मशीनों से रेत निकाली जा रही थी। मुझे लगा, मानो नदी की छाती में कोई चाकू घोंप रहा है। प्रकृति ने कभी किसी को धोखा नहीं दिया। लेकिन प्रकृति तब से धोखा खाती रही है जब से आदमी पैदा हुआ है।”10 यहाँ तक आते-आते वे इतने क्षुब्ध हो जाते हैं कि प्रकृति और पर्यावरण के क्षरण के लिए मानव अस्तित्त्व को ही दोषी ठहरा देते हैं। उनकी नज़र में मानव जब से पृथ्वी पर आया है तभी से वह प्रकृति को नोच-खसोट रहा है।

आधुनिक औद्योगिकीकरण नदियों के लिए अभिशाप साबित हुआ है। नदियों किनारे लगे उद्योग कल-कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट नदियों में ही गिराए जाते हैं। आज नदियों को स्वच्छ बनाये रखने के लिए वैश्विक स्तर पर बड़े-बड़े अभियान चलाये जा रहे लेकिन ये अभियान ढांक के तीन पात से अधिक कुछ भी साबित नहीं हुए हैं। अमृतलाल वेगड़ बताते हैं, “हजारों वर्षों तक नदियाँ स्वच्छ, सुंदर और पवित्र रहीं। किन्तु कोई सौ, सवा सौ साल पहले औद्योगिक सभ्यता आयी और इसी के साथ नदियों की दैत्य-दशा शुरू हो गयी। जो नदियाँ बरसात में उफन पड़ती थीं, तटबंध तोड़कर बाहर आ जाती थीं, चौड़े पाट भी जिन्हें कम पड़ते थे, उन्हीं नदियों की धारा अब टिमटिमा रही है। जंगल कट जाने से नदियाँ कुपोषण का शिकार हो गयी हैं। थकी-हारी नदियाँ आज शहरों और कारखानों की गंदगी ढोने का काम कर रही हैं। उनका जल विषाक्त हो गया है। नदियों के प्रति हमारा व्यवहार अगर ऐसा ही अमानवीय रहा तो सौ साल बाद नदियाँ सूख जायेंगी। पानी दुर्लभ हो जाएगा और पानी के एक गिलास के लिए लोग चोरी करेंगे। बादलों का अपहरण आम बात होगी। बादलों का जो रेवड़ किसी एक देश को जा रहा होगा, कोई दूसरा देश उसे रास्ते में ही रोक लेगा और अपने देश हाँक ले जायेगा। पहले कितने तालाब थे। अब अधिकांश पूर दिए गए हैं और वहां कालोनियाँ बन गयी हैं। अब बारी नदियों की है। नदियाँ रहेंगी, तो हम रहेंगे। लेकिन हमतो नदियों को लपेट-सपेटकर कूड़ेदान में फेंक रहे हैं। नदियों को बेदखल करके उनके घरों में नालों को बसा रहे हैं। आबादी का विस्फोट इस सुंदर देश को नरक बना रहा है।”11 लेखक ने जो चेतावनी और सुझाव दिए हैं, उन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। वे दिखाते हैं कि एक समय में तालाब लोगों के जीवन का आधार हुआ करते थे लेकिन तालाब और कुँओं को पाट दिया गया और अब नदी की बारी है। नदियों पर संकट दिन-प्रतिदिन गहराता जा रहा है। देश में बहुत-सी नदियाँ मरणासन्न स्थिति में हैं। उन्हें बचाने की आवश्यकता है। उन्हें नहीं बचाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब चारों तरफ़ हाहाकार मचेगा। न सिर्फ पानी के लिए बल्कि अकाल और बिमारियों की संख्या भी बढ़ेगी।

कुछ नदियों की स्थिति भले सही हो लेकिन अधिकतर नदियों की स्थिति बहुत ख़राब है। विशेषकर बड़ी और महानगरों से होकर गुजरने वाली नदियों की। नदी में कारखानों का गन्दा पानी तो बहाते ही हैं, अब बड़ी मात्रा में रेत भी निकलने लगे हैं। हमारा लालच कम होने का नाम ही नहीं ले रहा बल्कि दिन-प्रतिदिन और बढ़ता जा रहा है। ऐसे में नदी, प्रकृति और पर्यावरण का क्षरण होना स्वाभाविक है। अमृतलाल वेगड़ इस बात को रेखांकित करते हुए लिखते हैं “यह ठीक है कि हमने नर्मदा के प्रति वैसी क्रूरता नहीं दिखाई है जैसी गंगा और यमुना के प्रति। (वे दोनों आई.सी.यू. में पड़ी कराह रही हैं। उनमें पानी नहीं रासायनिक घोल बह रहा है।) फिर भी अपनी पहले वाली नर्मदा, जिसे मैंने 25-30 साल पहले देखा था, और आज की नर्मदा को देखता हूँ तो वेदना होती है। हम तरह-तरह से नर्मदा को गंदा कर रहे हैं। नदी से उसका पानी तो निचोड़ते ही हैं, उसकी रेत भी निकाल रहे हैं – मशीनों से। नदी जितना दे सकती है, उससे अधिक खसोट रहे हैं। कुछ ही वर्षों में नदी का खाली खोल रह जाएगा। जो मनुष्य कभी प्रकृति के प्रति संवेदनशील था, उसके प्रति पूज्य भाव रखता था, वही आज उसका हत्यारा बन गया है। मनुष्य के खूंखार पंजों से नदी को डर लगने लगा है। काश, ये लोग जान पाते कि नदी के दिल पर क्या बीत रही है।”12 यहाँ वेगड़ की चिंता के केंद्र में नदी का दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होना तो है ही, साथ ही मनुष्य के अपने पर्यावरण और प्रकृति के प्रति असंवेदनशील होना अधिक चिंता जनक है। नर्मदा का उदाहरण प्रस्तुत कर वे यह दिखाना चाहते हैं कि नर्मदा वह नदी है जिसके साथ प्रदूषण के मामले में गंगा-यमुना सा व्यवहार नहीं हुआ है फिर भी आज उसकी स्थिति पच्चीस-तीस वर्ष पहले से बिल्कुल भिन्न है। उस पर हो रहे चौतरफ़ा हमले चिंता जनक हैं।

विकास के नाम पर उस पर बन रहे बाँधों के कारण वह सिमटती और सिकुड़ती जा रही है। बाँध का सबसे अधिक हमला नर्मदा पर ही हुआ है। जो नर्मदा उन्मुक्त और इठलाती हुई प्रवाहित होती थी अब उसे बाँधों में बाँध दिया गया है। ये बाँध उसके लिए पिजड़े का काम कर रहे हैं। उसकी स्थिति पिंजड़े के पक्षी के जैसी हो गयी है। ऐसा लगता है अब वह नदी नहीं रही बल्कि तालाब का ठहरा हुआ पानी हो गयी हो ! वे लिखते हैं- “दुर्भाग्य से बाँध का सर्वाधिक प्रहार नर्मदा को ही झेलना पड़ा है। छोटी-सी नदी पर इतने सारे बाँध ! हमने नर्मदा को पिंजड़ों में बंद कर दिया है। इंदिरा सागर बाँध की औसत चौड़ाई 10 किलोमीटर है। (एक जगह तो उसकी चौड़ाई पचास किलोमीटर है।) सामने का किनारा दिखाई ही नहीं देता। बांधों के कारण नदी अपने मूल तत्त्व को – प्रवाह को खो बैठी है। नदी नदी नहीं रही। बाँध यानी ठहरा हुआ पानी।”13

नर्मदा के मौजूदा हालात बहुत बदल गए हैं। उसके किनारे के न केवल जंगल काट दिए गए बल्कि जैव विविधता भी नष्ट होती जा रही। जहाँ नर्मदा किनारे जंगलों में जंगली जानवरों का निवास था, उनकी आवाज़ सुनाई देती थी, वही अब नीरवता और मुर्दनी शांति चारों तरफ पसरी हुई है। नर्मदा अपनी इस स्थिति पर दुखी है। वह अपनी दैनीय स्थिति का बयान कुछ इस प्रकार करती है, “आज मेरे तटवर्ती प्रदेश काफी बदल गए हैं। मेरी वन्य एवं पार्वतीय रमणीयता बहुत कम रह गयी है। मुझे दुःख है कि मेरे घने जंगल जड़ से काट डाले गए हैं। पहले इन जंगलों में जंगली जानवरों की गरज सुनाई देती थी, अब पक्षियों का कलरव तक सुनायी नहीं देता। उन दिनों मेरे तट पर पशु-पक्षियों का राज्य था, लेकिन उसमें आदमी के लिए भी जगह थी। अब आदमी का राज्य हो गया है, लेकिन उसमें पशु-पक्षी के लिए कोई जगह नहीं।

मेरा पानी भी उतना निर्मल और पारदर्शी नहीं रहा।
फूलों और दूर्वादलों से सुवासित स्वच्छ हवा भी नहीं रही।

इन दिनों मुझपर कई बाँध बांधे जा रहे हैं। बाँध में बंधना भला किसे अच्छा लगेगा। फिर मैं तो स्वच्छंद हरिणी – सी हूँ, मेरे लिए तो यह और भी कष्टप्रद है। इससे मेरी आदिम युग की स्वच्छंदता चली जायेगी।”14 ये दुःख सिर्फ नर्मदा का नहीं है बल्कि सभी नदियों का है। उनका पानी अब न केवल पारदर्शी ही नहीं रहा बल्कि पीने और नहाने के लायक भी नहीं रहा। जहाँ नदी किनारे कभी फूल-पौधे, जैव विविधता होती अब उसकी जगह मरुस्थल और बंजरता ने ले ली है। नदियों पर गहराता संकट सिर्फ़ नदी के लिए संकट नहीं है बल्कि यह सभ्यता पर मंडराता संकट है।

शहरों-महानगरों में बड़े-बड़े बिल्डिंग टावरों का निर्माण हो गया है। आकाश लगभग लुप्तप्राय हो गया है। आँखें बहुत दूर तक देख नहीं पातीं। बड़ी-बड़ी इमारतों ने आकाश को घेर लिया है। चमचमाती बत्तियों के आगे चाँद का प्रकाश धूमिल हो गया है। आँखें आकाश का प्राकृतिक सौन्दर्य देखने की अब आदी न रहीं। यही स्थिति रही तो आने वाले समय में लोग दो गज आकाश के लिए तरस जायेगें। अमृतलाल वेगड़ लिखते हैं- “भारत के अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फर की मौत निर्वासित अवस्था में बर्मा में हुई थी। अंतिम समय उन्होंने बड़े भावुक होकर कहा था कि मैं कितना बदनसीब हूँ जो मेरे देश में मुझे दफ़न के लिए दो गज जमीं भी न मिली। अगले कुछ वर्षों में महानगरों के निवासी कहेंगे कि निहारने के लिए हमें दो गज आकाश भी नहीं मिलता। आकाश को हमने अपने शहरों से खदेड़ दिया है।”15

निष्कर्ष : अमृतलाल वेगड़ नर्मदा के अनन्य उपासक एवं साधक हैं। वह प्रकृति प्रेमी, पर्यावरण संरक्षक, सामाजिक चिन्तक तो हैं ही, साथ ही उन्होंने अपनी नर्मदा यात्रा के माध्यम से समाज को नदी, पर्यावरण और प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनाने का काम किया है। उनकी यात्रा का पूरा सन्देश ही पर्यावरण और प्रकृति के प्रति समाज को जागरूक करना है। वे विकास परियोजनाओं का समर्थन विकास की सतत अवधारण के तहत करते हैं। वे अपने इस कार्य से संतुष्ट हैं। उनकी इच्छा है कि अगर मेरा पुनर्जन्म हो तो ‘नर्मदा-तट के किसी गाँव में हो, मेरे उन्हीं माता-पिता के घर जो इस जन्म में थे; और कुछ वर्ष बाद कान्ता का जन्म हो और जब हम वयस्क हो जाएँ, हमारी शादी हो जाए और जब बच्चे बड़े हो जाएँ, तब हम दोनों नर्मदा परिक्रमा पर निकल जाएँ। हमारा उजियारा, हमारा सुख सब नर्मदा-तट पर है। अगर पचास या सौ साल बाद किसी को एक दम्पत्ति नर्मदा परिक्रमा करता दिखायी दे, पति के हाथ में झाडू हो और पत्नी के हाथ में टोकरी और खुरपी; पति घाटों की सफाई करता हो और पत्नी कचरे को ले जाकर दूर फेंकती हो, और दोनों वृक्षारोपण भी करते हों, तो समझ लीजिये कि वे हमीं हैं’ – कान्ता और मैं।’

सन्दर्भ :
  1. तीरे-तीरे नर्मदा (समग्र), अमृतलाल वेगड़, भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण (2018), पृ. 53
  2. वही, पृ. 106-107
  3. वही, पृ.194
  4. वही, पृ. 194-195
  5. वही, पृ.195
  6. वही, पृ. 267
  7. वही, पृ. 318-319
  8. वही, पृ. 288
  9. वही, पृ. 331
  10. वही, पृ. 335
  11. वही, पृ. 311
  12. वही, पृ. 338
  13. वही, पृ. 338
  14. वही, पृ. 352
  15. वही, पृ.136

सहायक ग्रन्थ
  • आधुनिक हिन्दी आलोचना के बीज शब्द , बच्चन सिंह , वाणी प्रकाशन, 2012
  • कथेतर, माधव हाड़ा, साहित्य अकादमी, 2017
  • घुमकड़शास्त्र, राहुल सांकृत्यायन, क़िताब महल प्रकाशन, नयी दिल्ली. 2015
  • हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल ( नव्यतर गद्य विधाएँ), डॉ. हरिमोहन, हरियाणा साहित्य अकादमी, 2018
  • दर्रा-दर्रा हिमालय, अजय सोडानी, राजकमल प्रकाशन, 2015
  • हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, अमरनाथ, राजकमल पेपर बैक, 2012
  • हिन्दी गद्य की पहचान, अरुण प्रकाश, अंतिका प्रकाशन, 2012

बृजेश कुमार यादव
पोस्ट डॉक्टोरल फेलो (ICSSR) भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली
bkyjnu@gmail.com, 9811190748
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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