दिल्ली विश्वविद्यालय : नार्थ केम्पस
- मनोज कुमार सिंह राजपुरोहित

हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों को जिन विद्वानों को पढ़कर गर्व महसूस होता है उन विद्वानों की समृद्ध परंपरा को हमारा विश्वविद्यालय संजोए हुए है, जिसमें डॉ. नगेंद्र, डॉ. रामदशरथ मिश्र, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी और डॉ. निर्मला जैन शामिल है। प्रो. रामेश्वर राय के शब्दों में:-"मिठाई की दुनिया में हल्दीराम की जो ख्याति है वहीं ख्याति साहित्य में डॉ. नगेंद्र की थी।" ऐसे हजारों किस्से डीयू के हर कॉलेज एवं विभाग अपने साथ जोड़े हुए है। डीयू के विद्यार्थी हडसन लेन, पटेल चेस्ट और कमला नगर में बिताए अपने समय पर महाकाव्य लिख सकते हैं।
तो इसी विश्वविद्यालय में प्रवेश पाकर थार का बाशिंदा स्वयं को पल्लवित महसूस कर रहा था। यह जुलाई 2019 की बात है, मेरा डीयू के श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज में इतिहास ऑनर्स में दाखिला हुआ। अपने स्कूल के दिनों में दिल्ली जाती हुई मालानी एक्सप्रेस को देखते हुए सोचते थे कि कभी हम भी इस ट्रेन में दिल्ली तक सफर तय कर पाएंगे; खैर अब यह हकीकत थी कि मैं इसी ट्रेन से दिल्ली जा रहा था।
हाथ में सफारी का प्लास्टिक वाला सूटकेश, कानों में फूलड़ी वाले लूंग (कानों में पहनने का आभूषण), स्कूल वाली गेरूए रंग की पेंट और सफेद कमीज पहने एक लड़का पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अपना कदम रखता है जो स्टेशन की भीड़ में भी औळखाण (पहचान) में आ सकता था।
फिर अपने मित्र के वहां होते हुए हम कॉलेज निकल जाते है। पहला दिन थोड़ा असमंजस भरा रहा क्योंकि देश के हर राज्य से, अच्छे-अच्छे स्कूलों से पढ़े उन बौद्धिक विद्यार्थियों से वार्तालाप के बाद मैं स्वयं को असहज महसूस कर रहा था और दिमाग में यह चल रहा था कि कहां फंस गए इससे अच्छा तो बाड़मेर था जहां सब अपने जान पहचान के थे। लेकिन जब घर से निकला था तो दादाजी ने एक बात बताई थी कि ‘धूड़ खावणी तो धोरे माथे बैन खावणी’ उनका कहने का संदर्भ था कि पढ़ाई करनी है तो दिल्ली में ही करनी है घर का नाम मत लेना, तो इस निश्चय ने मुझे वहां बांधे रखा। शुरुआती दौर में दिल्ली के रहन-सहन और खानपान के अनुरूप खुद को ढालना बहुत मुश्किल हुआ क्योंकि जिस इंसान की सुबह की शुरुआत झारे (नाश्ता) के रूप में दही में ठंडी बाजरे की रोटी, उसमें मुक्की से तोड़कर डाला गया कांदा (प्याज) के उस मिश्रित व्यंजन के जीमण से होती थी उसे मोमोज, सैंडविच, बर्गर और पिज्जा का स्वाद कहां रास आने वाला था। अगर पहनावे पर जाऊ तो उस खाकी पेंट की जगह डेनिम, स्वेट शर्ट, टी-शर्ट और ब्लेजर ने ले ली; वही मेरे फूलड़ी वाले लूंग दोस्तों द्वारा उतरवा दिए गए हालांकि कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हमेशा धोती-कुर्ता पहनकर जाता था। अपनी परंपरा से जुड़ा रहना अच्छा होता है लेकिन समय और स्थान अनुसार स्वयं में थोड़ा बहुत परिवर्तन भी जरूरी है।
फिर जैसे-जैसे कॉलेज में समय बीता अच्छे मित्र बने और शिक्षकों के मार्गदर्शन से कॉलेज में अब मन लगने लगा। डीयू के सभी कॉलेजों की एक खास बात है कि वहां डिबेट, म्यूजिक, नृत्य, लेखन और समाज सेवा से संबंधित अलग-अलग समितियां बनी हुई है जिसमें विद्यार्थी अपने रुचि के हिसाब से सदस्यता ले सकते हैं और अपने कॉलेज जीवन में अध्ययन के अलावा भी अपना सर्वांगीण विकास कर सकते है। मैं भी डिबेट सोसाइटी और NSS का हिस्सा था।
कॉलेज में पहली क्लास का अनुभव भी बहुत निराला था। टाइम टेबल के अनुरूप भटकने के बाद भी हमें अभी तक सही क्लास रूम का पता नहीं चला था। फिर एक प्रोफेसर से भेंट हुई तो पता चला कि वे हमें भारतीय इतिहास का पेपर पढ़ाएंगे। उन्होंने हमें रूम नंबर 107 में बैठने के लिए कहा। रूम नंबर 107 केवल रूम नहीं था; यह खालसा कॉलेज के इतिहासकारों की पनाहगाह थी जिसकी थाह में आकर चर्चा के बीच ई. एच. कार, रामशरण शर्मा और इरफान हबीब सरीखे इतिहासकारों की आत्मा भी प्रफ्फुलित हो उठती थी। ऐसा विवरण हमें सीनियर दे ही रहे थे कि सर का क्लास में आगमन होता है, तो सीनियर एक शिष्टाचार के तहत क्लास के बाद मिलने का इशारा कर निकल लेते है। फिर सर ने अपना परिचय देकर एक-एक करके हम सभी को परिचय देने के लिए कहा। मैं सबसे अंतिम बेंच पर बैठा था। मेरी तरह हिंदी माध्यम का मेरा एक सहपाठी भी मेरे पास ही आकर बैठ गया। मैं सभी का परिचय गौर से सुन रहा था और दिमाग में यही चल रहा था कि आज अपनी इज्जत बचा लेना क्योंकि सभी इंग्लिश में बोल रहे थे और हम ठहरे ऐसे छात्र जिन्होंने स्कूल में इंग्लिश भी हिंदी में पढ़ी हुई थी। अब मेरी बारी आती है तो मैंने जैसे ही इंग्लिश में अपना परिचय शुरू किया तो सर ने सामने से बोल दिया कि आप हिंदी में भी बात कर सकते है। मेरे हाथ-पैर थर-थर कांप रहे थे कि "फर्स्ट इंप्रेशन इज द लास्ट इंप्रेशन" वाले मामले में आज सबके सामने अपनी तो बेइज्जती हो गई। लेकिन ऐसा नहीं था सारे सहपाठी और प्रोफेसर बहुत ही सहयोगी थे; मुझे देश के बॉर्डर जिले से जान सब मेरी तरफ सांत्वना के भाव से देख रहे थे तथा उन सब का यही कहना था कि आप भले किसी भी जगह से आए हो अभी यह कॉलेज आप सभी को एक समान अवसर प्रदान करेगा।
अब कॉलेज में मेरा मन रमने लगा था। यहां जूनियर और सीनियर के बीच का संबंध भी अनूठा होता है। जैसा कि सुना जाता था कि बड़े विश्वविद्यालयों में रैगिंग होती है लेकिन रैगिंग जैसी घटना डीयू में न के बराबर ही देखने हो मिलती है। क्लास के शेड्यूल को समझना हो या नोट्स लेने हो या किसी विभाग की कोई रहस्यमय बात जाननी हो या फिर किसी को प्रेम प्रस्ताव कैसे देना हो, इन सभी बातों के लिए सीनियर अभिभावक की भूमिका निभाते है। हम सीनियर्स के साथ अक्सर "ट्रुथ और डेयर" का खेल खेलते थे। इस खेल में सभी साथी घेरा बनाकर बैठते थे और बीच में पानी की बोतल को घुमाया जाता था और जहां बोतल का सिरा ठहरता था वो एक दूसरे से ट्रुथ और डेयर के लिए पूछते थे। ट्रुथ लेने पर आपसे जो भी प्रश्न पूछा जाए उसका सही जवाब देना होता था हालांकि अधिकतर साथी सही जवाब नहीं देते थे और अगर किसी ने डेयर लिया है तो उससे कोई कार्य, जैसे : डांस, गाना गाने, शायरी सुनाने या कॉलेज प्रांगण में दिख रहे किसी भी व्यक्ति को प्रेम प्रस्ताव देने के लिए भी कहा जाता था। सबसे अच्छी बात यह थी कि हम किसी को डेयर का बोल कर वो कार्य करते थे तो कोई भी बुरा नहीं मानता था क्योंकि यह केवल आनंद के लिए एक खेल था।
कॉलेज के बीचों-बीच घने पेड़ों से घिरी एक जगह ‘जन्नत’, जिसमें बैठने के लिए गोलाकार कुर्सियां लगी हुई थी। जहां विद्यार्थी अपने-अपने ग्रुप के साथ मस्ती किया करते थे, तो कुछ मित्र अपने ग्रुप की महिला मित्रों को लुभाने के लिए ग़ालिब और जॉन साहब के शेरों का सहारा लेते नज़र आते, तो कुछ मित्र अपने संगीत की धुनों पर आकर्षण का केंद्र बनते और हां हमारे कॉलेज के ज्यादातर प्रेम प्रसंगों की शुरुआत भी इसी स्थान से होती थी। वाकई में अपने नाम की तरह यह जगह ‘जन्नत’ थी।
मेरे मन में भी प्रेम के बीज का प्रस्फुटन इसी जन्नत में हुआ था। एक दिन किसी कार्यक्रम की समाप्ति के बाद प्रेमचंद के शब्दों में कमल की भांति खिली, दीपक की भांति प्रकाशवती, स्फूर्ति और उल्लास की प्रतिमा मिस मालती की तरह एक भद्र महिला साथी मेरी तरफ बढ़ती है और आलिंगन कर आगे सभी मित्रों से मिलती है। मैं कई दिनों तक विचलित रहा क्योंकि जिस व्यक्ति की "कबीरा तिन की कौन गति जो नित नारी के संग" वाली स्थिति हो उसके लिए यह आलिंगन बिल्कुल नया अनुभव था लेकिन बाद में पता चला कि ऐसे बड़े शहरों में सहपाठियों के साथ गले लगना आम बात होती है; तो एक तरफा प्रेम में दिल टूटना जिसे कहते है वही अप्रिय घटना मेरे साथ घटित हुई थी।
वॉयस ऑफ रीगल लॉज (वी.सी. ऑफिस) की एक प्रेम कहानी भी खूब प्रचलित है। एडविना एशले नाम की युवती अपनी मौसी के साथ यहां आती रहती थी। इसी दौरान लेफ्टिनेंट लुई माउंटबेटन को दिल दे बैठी। लॉज के जिस कमरे में कुलपति का कार्यालय है , कभी उसी कमरे में माउंटबेटन ने एडविना को शादी का प्रस्ताव दिया था और यही माउंटबेटन पहले गवर्नर जनरल बने।
डीयू में जनवरी के बाद फेस्ट और अन्य कार्यक्रमों का सिलसिला शुरू हो जाता है। प्रत्येक कॉलेज के वार्षिक फेस्ट का एक विशेष नाम होता है जैसे हमारे कॉलेज में "लश्कारा" और मिरांडा हाउस में "टेमपेस्ट" नाम से जाना जाता है। फेस्ट डीयू के सभी कॉलेजों के विद्यार्थियों का मिलने का जरिया भी बनता है जिसमें हम एक दूसरे के कॉलेज जाते है। फेस्ट के समय सामूहिक क्लास बंक करना आम बात होती थी, सर से डाट जरूर पड़ती थी लेकिन उन्हें भी मालूम था कि हम भी अपने कॉलेज के समय किया करते थे तो वो अपने पुराने दिन याद करके हमें किस्से सुनाया करते थे। डीयू में ज्यादातर प्रोफेसर गुरु-शिष्य परंपरा के आधुनिक रूप में अपने स्टूडेंट्स के साथ मित्र-शिष्य परंपरा का निर्वहन करते हैं।
हम सब क्लास से फ्री होते ही कॉलेज के मुख्य गेट के पास एक बुजुर्ग दंपति अपना खाने-पीने का ठेला चलाते थे जिसे ‘शीला आंटी मैगी प्वाइंट’ कहा जाता है, वहां मिलते थे। सर्दी के मौसम में शीला आंटी के हाथ की मैगी और गर्म चाय हमारे लिए अमृत तुल्य हुआ करती थी। अंकल और आंटी हमेशा एक दूसरे से हंसी ठिठोली किया करते थे और जब अंकल हमसे ग़ालिब का कोई शेर पढ़वाते तो आंटी नव वधु की भांति शर्माते हुए अपने कार्य में लग जाती और बोलती हैं "बाबू लोग ई आपके अंकल जी को अभी प्यार व्यार सूझ रहा है, जब हम ब्याह के आए थे तो सीधे मुंह बात के लिए भी तरस जाते थे।" खैर साठ की उम्र में भी इतनी जीवटता, प्रेम और समय के अनुसार दुनिया की रीति-नीति में बस जाना मैंने शीला आंटी से सीखा। घर से दूर डाट फटकारकर सही से खाने के लिए और सेहत का ध्यान रखने के लिए बोलना मां की याद दिला देता था।
अगर कभी शीला आंटी का मैगी प्वाइंट बंद होता था तो हमारा बैठक का स्थान पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट के सड़क का किनारा होता था। वहां अन्ना डोसा, सुनील सेठ की भेल पूरी, खस्ता कचौरी और ताराचंद के छोले कुलचे का स्वाद हर डीयू वाले की ज़बान पर रहता था। इसके अलावा चाचे दी हट्टी, टॉम अंकल मैगी प्वाइंट और सुदामा की चाय का तो क्या ही कहना! अगर बात करूं सुदामा की चाय की तो कैंपस के आस-पास रहने वालों का शाम का ठिकाना यह जगह होती थी। मेरे बहुत अच्छे मित्रों से पहली मुलाकात इसी स्थान पर हुई थी। उबलती हुई चाय में गुलाब की पत्तियां, इलायची, काली मिर्च और अदरक की सौंधी खुशबू आस-पास से गुजरने वाले हर व्यक्ति को चाय के लिए आमंत्रित करती है। इस तरह कैंपस की हर जगह, नुक्कड़, टपरी, चौराहा अपना एक किस्सा लिए हुए है।
कॉलेज में बीते इन यादों पर जैसा पहले स्पष्ट किया कि महाकाव्य लिखा जा सकता है उन्हें चंद किस्सों में बयां करना मुश्किल है। बौद्धिक, मानसिक और व्यक्तित्व के स्तर पर भी बहुत सारे परिवर्तन यहां आने के बाद हुए और साथ ही साथ कॉलेज जीवन की यात्रा में कुछ सदस्य ऐसे भी थे जो हमारे उस परिवार का हिस्सा नहीं थे फिर भी मुझे इस समाज में रहने लायक इंसान बनाने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका है। विश्वविद्यालय की परिवार के मुखिया की भांति हमेशा कोशिश रहती है कि उस परिवार में शामिल हर उस सदस्य का ख्याल रखा जाए, हालांकि वो उस सदस्य पर निर्भर करता है कि वो अपने इस परिवार के प्रति अपनी कितनी जिम्मेदारी समझता है।
मनोज कुमार सिंह राजपुरोहित
शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
manojsgtb15@gmail.com, 7296863090
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
5 star
जवाब देंहटाएंYe padh kr meri bhi campus ki kahaniya taaji ho gyi.
जवाब देंहटाएंPadh kr bahut acha lga
तीन वर्षों के एक लंबे सफ़र का शब्दों के माध्यम से जो बखूबी वर्णन किया गया है वह बड़ा ही उत्कृष्ट एवं प्रशंसनीय है,
जवाब देंहटाएंआपके जीवन में दिल्ली विश्विद्यालय एक अध्याय की तरह है जिसने जीवन को एक नई दिशा देने का कार्य किया,
भविष्य में आपके जीवन में गर्व और गौरव के नए अध्याय जुड़े ऐसी मेरी कामना है
और उन अध्यायों का भी आप इसी प्रकार लेखन जरूर करे !
यह पढ़ कर बोहत अच्छा लगा जो आप ने लिखा हे वो एक छात्र के लिय बोहत कुस सीखने को मिलता हे आप एसे ही सब को आगे बड़ाने के लिय पेरिट करे जो आप ने लिखा वो हर एक को कुस ना कुस सीखा जाता हे ख़ास कर जो नये विधार्थी दिल्ली आते हे उन के लिय रास्ता आसान करदिया
जवाब देंहटाएंAur dusri mohabbat ka zikr nahi kiya aapne..ya huyi hi nahi??
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सफर
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