हिंदी दलित आलोचना की धाराएँ
- अरुण कुमार प्रियम
बीज शब्द : अम्बेडकरवाद, दलित स्त्रीवाद, आदिवासी साहित्य, पिछड़ा साहित्य, आजीवक, दलित, पुनर्जन्म, आलोचना, वर्गीय दृष्टिकोण, सौन्दर्यशास्त्र, सामंतवाद, सामाजिक न्याय, अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, सहानुभूति, स्वानुभूति, आक्रोश, वर्णविहीन, लिंगवाद, स्वतंत्रता, पूँजीवाद, अधिनायकवाद, नव-बौद्ध, नियतिवाद, महाकाव्य, वैज्ञानिक दृष्टिबोध।
मूल आलेख : दलित साहित्य की आलोचना का गहरा सम्बन्ध दलित समाज की आलोचना से भी है। बिना दलित समस्याओं को ध्यान में रखे दलित रचना का मूल्यांकन सम्भव नहीं है। दलित रचना वह पाठ नहीं है, जिसका अर्थ मात्र उसकी व्याख्या से निकाला जा सकता है। दलित आलोचना रचना के सामाजिक सरोकार और उसमें वर्गीय दृष्टिकोण का आकलन दलित समाज के प्रसंग में करने की मांग करती है। दलित आलोचना ने रचना के मूल्यांकन के लिए नये सौन्दर्यशास्त्र की निर्मिति की है। हिन्दी दलित आलोचना अपने उद्भव काल से ही प्रमुख रूप से तीन धाराओं में स्पष्ट बंटी हुई दृष्टिगत हो रही है। हालांकि इन तीन धाराओं का उत्स दलित आलोचना ही है। प्रारम्भ में दलित आलोचना के अलावा बाकी दोनों आलोचना धाराएँ- अम्बेडकरवादी और आजीवक, अपने-आपको मूल यानी दलित आलोचना से नालबद्ध करती हैं। इन तीनों आलोचना धाराओं में एक दूसरे से अपने आपको अलग करने के कुछ बिन्दु हैं और अन्तरविरोध भी हैं। इस प्रकार हम हिन्दी दलित आलोचना को तीन धाराओं में बाँट सकते हैं– 1. दलितवादी आलोचना धारा, 2. अम्बेडकरवादी आलोचना धारा और 3. आजीवकवादी आलोचना धारा।
1- दलितवादी आलोचना धारा
दलित साहित्य आलोचना की दलित धारा में ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रमुख नाम है। उन्होंने ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ नामक दलित साहित्य आलोचना की महत्त्वपूर्ण पुस्तक की रचना की है। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी इस पुस्तक में दलित चेतना को दलित साहित्य और उसकी आलोचना के लिए मुख्य कारक मानते हैं। स्व की पहचान को ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित चेतना का मुख्य सरोकार मानते हैं। वे लिखते हैं कि, “दलित चेतना का सरोकार इस प्रश्न से बहुत गहरे तक जुड़ा है कि ‘मैं कौन हूँ? मेरी पहचान क्या है?’ इसी सवाल से दलित लेखक की रचनाशीलता को ऊर्जा मिलती है। …चेतना का सीधा सम्बन्ध दृष्टि से होता है, जो दलितों की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक भूमिका की छवि के तिलिस्म को तोड़ती है। वह है दलित चेतना। दलित मतलब मानवीय अधिकारों से वंचित, सामाजिक तौर पर जिसे नकारा गया हो। उसकी चेतना यानी दलित चेतना। यही दलित चेतना दलित साहित्य की अन्तःऊर्जा में नदी के तेज बहाव की तरह समाविष्ट है, जो उसे पारम्परिक साहित्य से अलग करती है।”1
ओमप्रकाश वाल्मीकि डॉ. सी.बी. भारती के हवाले से कहते हैं कि, “दलित साहित्य की सौन्दर्य दृष्टि में होता है-उत्पीड़न, पीड़ा व उसके विस्तार का निरपेक्ष आकलन, धार्मिक पाखंडों व निहित स्वार्थवश निर्मित शोषण के उपादानों के प्रति घृणा, एक सजग मानवीय अस्मिता, समत्व बोध, सामाजिक अन्याय के प्रतिकार का सामर्थ्य, सामाजिक परिवर्तनों के प्रति अडिग आस्था व परम्परागत घृणित-व्यवस्थाओं के विच्छेदन की सफलता का विश्वास।”2
यहाँ सी.बी. भारती से सहमत होते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य की आक्रोशजनित अभिव्यक्ति का समर्थन करते हैं। आक्रोश दलित रचना का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। यह आक्रोश उस व्यवस्था के प्रति है, जो सदियों से इनसान से नफरत करती आयी है। हिन्दी की दलित आलोचना की दलित धारा यह भी जानती है कि अचेतन रूप में हिन्दी के सवर्ण साहित्य में वर्गीय चेतना अवश्य प्रतिबिम्बित होती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि इस सन्दर्भ में नागार्जुन की ‘हरिजन गाथा’ कविता का सन्दर्भ देते हुए लिखते हैं, “उदाहरण के तौर पर नागार्जुन की कविता ‘हरिजन गाथा’ को देखा जा सकता है, जिसमें भाग्य, मनु, ऋचाएँ . . . आदि अनेक शब्द प्रतीक बनकर उभरते हैं, जो अचेतन रूप में कवि की सोच एवं संस्कार वृत्ति को उजागर कर जाते हैं. ये वर्णीय मानसिकता के साथ आलोच्य रचना के प्रभाव को दिशाहीन कर यथास्थिति उत्पन्न करते हैं।”3
स्पष्ट है कि यहाँ सहानुभूति और स्वानुभूति के सवाल पर ओमप्रकाश वाल्मीकि स्वानुभूति को महत्त्व देते हैं। हिन्दी दलित आलोचना की दलित धारा में दलित-मुक्ति की बात तो होती है, लेकिन इस दलित-मुक्ति से दलित स्त्री का सवाल एकदम गायब है। इसीलिए अब दलित स्त्रिायाँ अपने सवाल खुद उठाने लगी हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य आलोचना की कसौटी के रूप में जिस दलित चेतना की बात करते हैं, उसमें तेरह बिन्दु मुख्य हैं। लेकिन दलित स्त्री की मुक्ति के स्वरूप की मुकम्मल तस्वीर और उसका स्वरूप इनमें नहीं है। सिर्फ एक बिन्दु में वो लिंगवाद का विरोध, दलित चेतना के रूप में स्वीकार करते हैं। लेकिन ये विरोध कैसा होगा, कैसे होगा, इसकी पहचान क्या होगी, ये सब स्पष्ट नहीं है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की दलित चेतना से सम्बन्धित तेरह बिन्दु निम्न हैं, जो बौद्ध धम्म में दीक्षित होने के समय डॉ. अम्बेडकर द्वारा ली गयी बाइस प्रतिज्ञाओं का रूपान्तरित प्रतिरूप हैं। इससे स्पष्ट है कि दलित आलोचना की दलित धारा डॉ. अम्बेडकर के बौद्ध धम्म के नव-बौद्ध वाले स्वरूप से अपने आपको जोड़ती है और हिन्दी दलित आलोचना की दलित धारा का उत्स डॉ. अम्बेडकर द्वारा अंगीकार किया गया बौद्ध धम्म है। ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं, “दलित चेतना डॉ. अम्बेडकर के जीवन-दर्शन से मुख्य ऊर्जा ग्रहण करती है। इस तथ्य से सभी दलित लेखक एकमत हैं। दलित चेतना के प्रमुख बिन्दु हैं–
1. मुक्ति और स्वतंत्रता के सवालों पर डॉ. अम्बेडकर के दर्शन को स्वीकार करना।
2. बुद्ध का अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, वैज्ञानिक दृष्टिबोध, पाखंड-कर्मकांड विरोध।
3. वर्ण व्यवस्था विरोध, जातिभेद विरोध, साम्प्रदायिकता विरोध।
4. अलगाववाद का नहीं, भाईचारे का समर्थन।
5. स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय की पक्षधरता।
6. सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्धता।
7. आर्थिक क्षेत्रा में पूँजीवाद का विरोध।
8. सामन्तवाद, ब्राह्मणवाद का विरोध।
9. अधिनायकवाद का विरोध।
10. महाकाव्य की रामचन्द्र शुक्लीय परिभाषा से असहमति।
11. पारम्परिक सौन्दर्य शास्त्र का विरोध।
12. वर्ण-विहीन, वर्ग-विहीन समाज की पक्षधरता।
13. भाषावाद, लिंगवाद का विरोध।”4
हम यहाँ देखते हैं कि दलित चेतना का अन्तिम बिन्दु लिंगवाद के विरोध की बात करता है, लेकिन स्त्री के सवाल पर भारत के समाजों की जो संरचना है, वह पितृसत्तात्मक है। पितृसत्ता की व्याप्ति सार्वभौमिक है। पितृसत्ता के सवाल पर ओमप्रकाश वाल्मीकि की आलोचना-दृष्टि मौन है। वे लिंगवाद के विरोध की बात करते हैं, लेकिन उसका कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं देते हैं। लिंगवाद के स्वरूप को विस्तार से किसी भी जगह व्याख्यायित नहीं किया गया है।
2- अम्बेडकरवादी आलोचना धारा
हिन्दी में अम्बेडकरवादी साहित्य और आलोचना की अवधारणा पेश करने वाले डा. तेज सिंह थे। उनके पहले मराठी दलित साहित्य और आलोचना में यशवन्त मनोहर ने अम्बेडकरवादी साहित्य की अवधारणा पेश की है। अम्बेडकरवाद की अवधारणा पेश करने से पूर्व डॉ. तेज सिंह ‘दलित साहित्य’ एवं ‘दलित आलोचना’ पदों का ही प्रयोग करते थे। दलित साहित्य से अम्बेडकरवाद की यात्रा के बारे में ‘अम्बेडकरवादी साहित्य की अवधारणा’ नामक अपनी किताब की भूमिका में डा. तेज सिंह बताते हैं, “मराठी के दलित साहित्य के प्रभाव से हिन्दी में भी दलित साहित्य की नींव पड़ी और हमने भी शुरू-शुरू में दलित साहित्य और दलित समाज जैसी धारणाओं को स्वीकार कर लिया। लेकिन कांशीराम की राजनीतिक चेतना से प्रभावित होकर हिन्दी के अधिकांश दलित साहित्यकार जाति को प्रमुखता देने लगे। वे भूल गये कि कांशीराम ने राजनीति में जाति का इस्तेमाल एक रणनीति के तहत किया था, क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि सभी राजनीतिक दल जाति के आधार पर चुनाव लड़ते और लड़वाये जाते हैं। जाति एक सामाजिक सच्चाई है और राजनीति में जाति को जाति के आधार पर ही काटा जा सकता है। कांशीराम की यह राजनीतिक रणनीति थी, जिसे वे चुनाव तक ही सीमित रखे हुए थे। लेकिन हिन्दी के अधिकांश तथाकथित दलित साहित्यकार कांशीराम की चुनाव की इस रणनीति को ‘जाति-चेतना का राजनीतिकरण’ समझकर अपनी-अपनी जाति को मजबूत करने का नारा लगाने लगे और इस प्रकार अपने साहित्य में ‘जाति-चेतना’ के आधार पर उन्होंने दलित साहित्य को एस.सी. कटेगरी तक में सीमित करके उसे जातिवादी बना दिया।”5
डॉ. तेज सिंह इसी सन्दर्भ में आगे कहते हैं कि, “इस प्रकार उनकी ‘जाति-चेतना’ ने दलित साहित्य को जाति की सीमा में कैद कर दिया और वे जातिवाद से लड़ते-लड़ते खुद जातिवादी बनते चले गये। इसके बावजूद वे दावा करते हैं कि वे डॉ. अम्बेडकर के विचारों के प्रभाव से साहित्य सृजन कर रहे हैं। उन्होंने विचारों और विचारधारा में कोई भेद नहीं किया और विचारों को ही विचारधारा समझ बैठे। विचार और विचारधारा में अन्तर होता है। सामाजिक परिवर्तन विचारों से नहीं, विचारधारा से आता है। विचार आते हैं और चले जाते हैं। इसलिए उनका प्रभाव क्षणिक होता है और विचारधारा का प्रभाव स्थाई होता है। जब विचार एक निश्चित धारणाओं के तहत वर्ग संरचना में ढलने शुरू हो जाते हैं, तब विचारधाराओं का उदय होता है। विचारों का इतिहास नहीं होता, इतिहास विचारधाराओं का होता है, जो अपने समय की सामाजिक-आर्थिक वर्ग-संरचनाओं को ही प्रतिबिम्बित करता है।”6 डॉ. तेज सिंह आगे लिखते हैं कि, “इन सामाजिक, आर्थिक वर्ग संरचनाओं का वास्तविक स्वरूप श्रम-विभाजन के आधार पर बनता है। यह सही है कि विचारों की टकराहट मनुष्यों के मस्तिष्क में ही चलती रहती है, लेकिन ये विचार उसी वक्त विचारधारा का रूप लेते हैं, जब वे ऐतिहासिक प्रक्रिया में सामाजिक-आर्थिक संरचना से टकराते हैं। यही कारण है कि हिन्दी के तथाकथित दलित साहित्यकारों ने डॉ. अम्बेडकर के विचारों को सतही तौर पर तो अपनाया, लेकिन उन्हें एक निश्चित धारणा के तहत विचारधारा में नहीं बदला। यही वजह है कि उनमें डॉ. अम्बेडकर के जाति सम्बन्धी विचार तो मिल जाते हैं, लेकिन अम्बेकरवादी चेतना के दर्शन नहीं होते हैं और न ही अम्बेडकरवादी विचारधारा दिखाई देती है। इसलिए आज हिन्दी का तथाकथित दलित लेखक जातिवादी गुटबन्दी का शिकार होकर रह गया है और उसके लेखक अपनी-अपनी जाति की संकीर्ण दीवारों में कैद होकर रह गये हैं, जबकि डॉ. अम्बेडकर ने जातिविहीन-वर्गविहीन समाज का सपना देखा था।”7
डॉ. तेज सिंह कहते हैं कि, “यही वजह है कि दलित साहित्य के जातिवादी स्वरूप को देखते हुए मैंने पहली बार उसके स्थान पर अम्बेडकरवादी साहित्य की अवधारणा प्रस्तुत की। आज से लगभग छह साल पहले ‘अपेक्षा’; जुलाई-सितम्बर 2004 का ‘अम्बेडकरवादी साहित्य आन्दोलन’ विशेषांक निकाला और उसके सम्पादकीय के रूप में मैंने पहली पहली बार अम्बेडकरवादी साहित्य की अवधारणा प्रस्तुत की, तब से लेकर आज तक मैं अम्बेडकरवादी साहित्य को ही परिभाषित कर रहा हूँ। इसी सम्पादकीय में यह भी स्पष्ट किया कि अम्बेडकरवादी साहित्य की अवधारणा के पीछे अम्बेडकरवादी विचारधारा काम कर रही है। अम्बेडकरवादी विचारधारा केवल अम्बेडकर के विचारों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें बुद्ध और ज्योतिबा फुले के विचारों का भी समावेश है। जब बुद्ध , फुले और अम्बेडकर के विचार एक निश्चित धारणा के तहत सामने आये तो वे एक विचारधारा बन गये, जिसने आज पूरी दुनिया को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। अम्बेडकरवाद बुद्ध के दार्शनिक चिन्तन पर आधारित है।”8
दलित साहित्य की दलित धारा की जो स्थापनाएं हैं, वही अम्बेडकरवादी धारा की भी हैं। डॉ. तेज सिंह ने अम्बेडकरवाद के बारे में लिखा है कि, “वह ईश्वरवाद, अवतारवाद, नियतिवाद, कर्मवाद, आत्मा-परमात्मा और पुनर्जन्म का विखंडन भी इसी आधार पर करता है।”9 डॉ. तेज सिंह पुनः कहते हैं कि, “अम्बेडकरवाद’ समान रूप से ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद को मजदूर वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन मानकर उनके खिलाफ संघर्ष चलाता है। इस तरह वह एक अन्तर्राष्ट्रीय विचारधारा बन जाता है।”10
उपर्युक्त उद्धरणों से विदित होता है कि दलित साहित्य आलोचना की दलित धारा और अम्बेडकरवादी धारा में कोई ज्यादा अन्तर नहीं है। दोनों का उद्देश्य एक है, मान्यताएँ-स्थापनाएं एक हैं। ये भी सच है कि डा. तेज सिंह दलित साहित्य को जातिवादी करार देते हैं और उसके जातिवादी होने के पक्ष में वे तर्क देते हैं। वे कहते हैं कि दलित साहित्य अब ‘जाति-चेतना’ को मजबूत कर रहा है, जाति के खिलापफ लड़ते-लड़ते तथाकथित दलित साहित्यकार जातिवादी हो गये हैं। तेज सिंह यह भी सिद्ध करते हैं कि दलित साहित्य के सृजन में कोई विचारधारा नहीं है। अम्बेडकरवादी साहित्य और आलोचना ही अम्बेडकरवादी विचारधारा है। यह विचारधारा अन्तर्राष्ट्रीय है।
डॉ. तेज सिंह अम्बेडकरवादी आलोचना की आधारशिला के रूप में डॉ. अम्बेडकर द्वारा 1954 में नागपुर में होने वाले साहित्यकारों के सम्मेलन में साहित्यकारों को लिखे गये पत्र को मानते हैं। डॉ. तेज सिंह उस पत्र को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि, “अम्बेडकर ने साहित्यकारों को भेजे अपने सन्देश में स्पष्ट शब्दों में लिखा था, ‘उदात्त जीवन मूल्य और सांस्कृतिक मूल्य का अपने साहित्यिक-मूल्य द्वारा निर्माण करो और अपना उद्देश्य संकुचित-मर्यादित न रखकर विशाल रखो। अपनी वाणी चारदिवारी तक मर्यादित मत रखो, उसका विस्तार होने दो। अपनी कलम अपने ही प्रश्नों तक सीमित मत रखो, अपनी कलम इस तरह चलाओ कि उसके प्रकाश में देहातों का अंधेरा दूर हो। इस देश के वंचित और दलितों का बहुत बड़ा विश्व है, यह मत भूलना। उनका दुःख उनकी वेदनाएँ ठीक तरह से समझ लो, उसे अपने साहित्य द्वारा जीवन उन्नत बनाने के लिए प्रयास करो, उसमें ही सच्ची मानवता है।’ डॉ. अम्बेडकर द्वारा साहित्यकारों को भेजा गया यह सन्देश अम्बेडकरवादी साहित्य की ही आधारशिला नहीं बना है, बल्कि अम्बेडकरवादी साहित्य आलोचना की भी आधारशिला बना है।”11 जिस तरह दलित साहित्य आलोचना की दलित धारा में वर्गीय के साथ जातिगत सांचे को उजागर कर रचना का पाठ निर्धारित किया जाता है, ठीक वैसे ही अम्बेडकरवादी आलोचना में भी जाति के वर्गीय ढाँचे की जाँच-पड़ताल की जाती है। डॉ. तेज सिंह लिखते हैं, “अम्बेडकरवादी साहित्य आलोचना किसी भी साहित्यिक-रचना का अध्ययन-विश्लेषण उसमें अन्तरनिहित वर्गीय ढाँचे के साथ-साथ उसके जातिगत ढाँचे को भी उजागर करके सामाजिक अस्तित्व और सामाजिक अस्मिता की पहचान कराने में सपफल होती है।”12
तेज सिंह संस्कृत काव्यशास्त्र से अम्बेडकरवादी साहित्य आलोचना को अलगाते हुए कहते हैं, “अम्बेडकरवादी साहित्य आलोचना संस्कृत काव्यशास्त्र की तरह शब्द-अर्थ की व्याख्या तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह शब्द-अर्थ के सामाजिक सन्दर्भों को भी उद्घाटित करती चलती है, जिससे साहित्य रचना के अर्थ के मर्म की पहचान सम्भव होती है। इससे उसकी सामाजिक भूमिका भी निर्धारित होती है और साहित्य रचना की भी।”13
डॉ. तेज सिंह की उपर्युक्त स्थापनाओं से अम्बेडकरवादी आलोचना की सामाजिक भूमिका तय होती है। यह आलोचना आलोच्य साहित्य रचना को आधार बनाती है। बिना साहित्य रचना के आलोचना असम्भव है। डॉ. तेज सिंह मानते हैं कि आलोचना दो तरह के काम करती है- रचना का मूल्यांकन और सिद्धान्त निरूपण. अम्बेडकरवादी आलोचना तीन प्रयोजनों के आधार पर रचना का मूल्यांकन करती है-अध्ययन, विश्लेषण और मूल्यांकन। ये रचना के सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषिक-संरचना सन्दर्भों को रचनात्मक करती है।
3. आजीवकवादी आलोचना धारा
हालांकि आजीवकवाद और आजीवकवादी साहित्य की अवधारणा को हिन्दी दलित साहित्य में पुनः खोजने वाले प्राथमिक रूप से डॉ. धर्मवीर हैं। अभी तक छिटपुट लेखों में आजीवक के जिक्र के अतिरिक्त आजीवक पर डॉ. धर्मवीर के जीवन के अंतिम दिनों में वाणी प्रकाशन से 2017 में उनकी एक किताब, ‘महान आजीवक, कबीर रैदास और गोशाल’ प्रकाश में आई है। ज्ञात हो 9 मार्च, 2017 में आंतो के कैंसर की लम्बी बीमारी के बाद उनके गृहनगर मेरठ में डॉ. धर्मवीर का निधन हो गया। इनके अतिरिक्त कँवल भारती और ईश कुमार गंगानिया की एक-एक पुस्तक प्रकाश में आयी है। कँवल भारती की किताब ‘आजीवक परम्परा और कबीर’ है तथा ईश कुमार गंगानिया की किताब ‘अस्मिताओं के संघर्ष में दलित समाज’ है। लेकिन इन दोनों पुस्तकों से आजीवकवाद का मुकम्मल पता नहीं चलता है। तो लाजिमी है आजीवकवादी साहित्य पर भी इनसे कोई प्रकाश नहीं पड़ता। इनके पहले डॉ. धर्मवीर अपने लेखों और साक्षात्कारों में आजीवक साहित्य और उसके सिद्धांतों पर लिखते-बोलते रहते थे। लेकिन उन्होंने मुकम्मल सैद्धांतिकी नहीं पेश की। आजीवकवादी सौन्दर्य शास्त्र की कसौटी डॉ. दिनेश राम ने ‘बहुरि नहीं आवना’ की एक सम्पादकीय में पेश की है। इस सम्पादकीय में आजीवक साहित्य की कसौटी के अध्ययन-विवेचन से पता चलता है कि दलित साहित्य की आजीवकवादी कसौटी को आध्यात्मिक या धर्मवादी अथवा ईश्वरीय कसौटी कहा जाय तो ज्यादा ठीक होगा। क्योंकि डा. दिनेश राम कहते हैं कि ‘दलित साहित्य’, ‘आदिवासी साहित्य’ और ‘पिछड़ा साहित्य’ इन सबको अपने मूल चिन्तन यानी ‘धर्म चिन्तन पर आना है। और इन तीनों साहित्य धाराओं का रास्ता अन्ततः आजीवक साहित्य की ओर ही आएगा। डॉ. दिनेश राम ये भी कहते हैं कि साहित्य में सदाचरण की आवश्यकता है, जो धर्म के बिना नहीं सध सकता है और जब धर्म नहीं होगा तो सदाचरण नहीं होगा और दलित साहित्य के मूल तत्व- समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व, जो आजीवक साहित्य के भी मूल तत्व हैं, को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। डॉ. दिनेश राम के शब्दों में ही देखें. वे लिखते हैं, “कौम की आजादी की लड़ाई के कई महत्त्वपूर्ण पक्ष और आयाम हैं, जिसमें साहित्य भी एक है। ‘दलित साहित्य’, ‘आदिवासी साहित्य’ और अब ‘पिछड़ा साहित्य’ इसी प्रक्रिया की देन हैं। ‘आदिवासी’ और ‘पिछड़े साहित्य’ को अभी अपने मूल चिन्तन यानी ‘धर्म चिन्तन’ पर आना है। समझना इतना भर है कि बिना अपनी धार्मिक पहचान को बनाये ये अपने अस्तित्व को स्थाई रूप से टिकाये नहीं रख सकते। आगे, इसी कड़ी में इन्हें अपने दर्शन चिन्हित करने हैं और साहित्य के मूल्यांकन की एक कसौटी विकसित करनी है। जिस दिन ईमानदारी से इनमें ये कवायद शुरू होगी, उस दिन इनका रास्ता ‘आजीवक धर्म’ और उसके ‘दर्शन’ की तरफ ही आएगा। बस दुआ की जाए कि इनमें सच्चे ‘दार्शनिक’ और ‘धर्म गुरु’ पैदा हो जाएँ. अन्ततः, ‘दलित साहित्य’, ‘आदिवासी साहित्य’ और ‘पिछड़ा साहित्य’ के रास्ते को आजीवक साहित्य की ओर ही आना है। सही मायने में यही इन तीनों की गंगोत्री है।”14
यहाँ ध्यान देने की बात है कि डा. दिनेश राम ‘दलित’, ‘आदिवासी’ और ‘पिछड़ा’ साहित्य के धर्म चिन्तन पर आने की बात कहते हैं। यानी साहित्य का उत्स ‘धर्म’ होना चाहिए। जिसका ‘धर्म’ नहीं होगा, उसकी पहचान भी नहीं होगी। अब जब साहित्य का मुख्य उपादान धर्म हो जाएगा तो फिर दलित साहित्यकार या आजीवक डॉ. धर्मवीर किस वैज्ञानिक चिन्तन की बात करते हैं। ‘बहुरि नहिं आवना’ के जनवरी-मार्च, 2010 के अंक में कैलाश दहिया के साथ साक्षात्कार में आजीवक के बारे में डा. धर्मवीर कहते हैं, “असल में हम नियतिवादी हैं... परातात्विक रूप से हम नियतिवादी हैं। इस विशेष अर्थ में, संसार में कोई मनुष्य या जीव अपना जन्म स्वयं निर्धारित नहीं करता कि वह अमुक योनि में, अमुक कुल में, अमुक समय और अमुक देश में जन्म लेगा। जहाँ तक जन्म और मरण का सम्बन्ध है, वह हमारे हाथ में नहीं है। ईश्वरीय सत्ता ही इसका निर्धारण करती है।”15 भाग्यवाद और नियतिवाद में अन्तर के सवाल पर डॉ. धर्मवीर कहते हैं कि, “नियतिवाद और भाग्यवाद का कोई सम्बन्ध नहीं... असल में पुनर्जन्म से सम्बन्धित किसी भी अर्थ में हम अक्रियावादी, अकर्मवादी और नियतिवादी हैं, अन्य अर्थ में नहीं। अन्य अर्थों में हम क्रियावादी, कर्मवादी और बेहद पुरुषार्थी हैं। मैं फिर बता दूँ कि नियतिवाद का सम्बन्ध सृष्टि के नियमों से है। सृष्टि अथाह और अनन्त है। मनुष्य ही क्या, ग्रहों का जन्म-मरण ईश्वर द्वारा नियत है। इसके बारे में कोई नहीं जानता... अजीवकों का भाग्यवाद से कोई लेना-देना नहीं है। नियतिवाद की दृष्टि पूरी तरह वैज्ञानिक और आस्तिकता की दृष्टि है।”16
ध्यान देने की बात है कि जब आजीवक पूरी तरह वैज्ञानिक है तो फिर इसमें ईश्वर और आस्तिकता कहाँ से आ गयी? आस्तिकता को वैज्ञानिक कसौटी पर परखा नहीं जा सकता है तो वह वैज्ञानिक कैसे हो गई? जब इन सब कसौटियों पर आजीवक खरा नहीं उतरता है तो वह फिर आजीवक कैसा? मान्यताओं में तर्क के लिए जगह नहीं होती है. तो वह तार्किक, आधुनिक और वैज्ञानिक कैसे हो सकती है? यहाँ स्पष्ट अन्तरविरोध है। विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि जन्म कैसे होता है और मृत्यु क्यों होती है। मृत्यु का कोई न कोई निश्चित कारण होता है, जिसे चिकित्सा विज्ञान की मदद से जाना जा सकता है। मनुष्य और इसकी श्रेणी की तमाम प्रजातियों में नर-मादा के गुणसूत्रों (एक्स-वाई क्रोमोसोम्स) के मिलने से वैसी ही सन्तति का जन्म होता है। आज तक भौतिक जगत में ऐसा कभी नहीं देखा गया कि जैविक गुणसूत्रों के मिले बिना किसी मनुष्य का जन्म सम्भव हुआ है, या ईश्वर ने संसार में किसी को आसमान से टपका दिया है। डॉ. धर्मवीर कहते हैं कि, मनुष्य ही क्या, ग्रहों का जन्म और मरण ईश्वर द्वारा नियत है। डॉ. धर्मवीर के अनुसार, सब कुछ पहले से ही तय है। यह बिल्कुल ही अवैज्ञानिक मत है। हमने देखा है कि विज्ञान ने कार्य-कारण के सिद्धांत को सिद्ध किया है। इस तरह नियतिवाद और आजीवक सिद्धांत कैसे वैज्ञानिक हो गये? डॉ. धर्मवीर का आजीवक पूरी तरह अवैज्ञानिक है, भ्रम पैदा करने वाला है और अतार्किक है। इस लिहाज से डॉ. दिनेश राम द्वारा पेश की गयी आजीवक साहित्य की कसौटी और उसका सौन्दर्यशास्त्र भी अवैज्ञानिक और अतार्किक है।
जब डॉ. धर्मवीर के धर्म में ईश्वर है, नियति है, यानी भाग्य है तो वे फिर किस मुँह से अवैज्ञानिक और अतार्किक हिन्दू धर्म की आलोचना करते हैं। क्योंकि डॉ. दिनेश राम आगे कहते हैं कि, “श्रम, ‘प्रेम’, ‘अध्यात्म’ और ‘धर्म गुरु’- ये सब धर्म के समन्वित रूप हैं और उसी से निकले हुए हैं। और ‘धर्म’ स्वयं ईश्वर से निकला हुआ है. यानी वही उसका अनन्य स्रोत है।”17
अब समझने की बात यह है कि जब धर्म स्वयं ईश्वर से निकला है और साहित्य को धर्म चिन्तन पर ही आना है, तो इसका मतलब साहित्य को आलोचना की ईश्वरीय अथवा धार्मिक कसौटी से गुजरना पड़ेगा। इस तरह आजीवक साहित्य की कसौटी में खरा उतरने के लिए रचना में मंगलाचरण, स्तुतिगान और ईश्वर की महिमा का गान अवश्यम्भावी है। जिसमें ये सब नहीं होगा, वह आजीवक साहित्य नहीं है। हमें ध्यान रखना होगा कि यह संस्कृत काव्यशास्त्र की कसौटी है। स्पष्ट है कि दलित साहित्य आलोचना की आजीवक धारा प्रतिगामी है।
डॉ. धर्मवीर जिस कबीर को आजीवकों का एक गुरु मानते हैं। वे उनकी तमाम क्रान्तिकारी बातों को तो उजागर करते हैं, लेकिन कबीर की स्त्री के विषय में धारणाओं पर चुप्पी साध लेते हैं। कबीर पर अपनी छह महत्त्वपूर्ण किताबों में से किसी एक में भी वे कबीर के स्त्री पक्ष पर बात नहीं करते।
कबीर संबंधी अपनी किताबों में डॉ. धर्मवीर ने कबीर की बड़ी क्रांतिकारी, सराहनीय जांच-पड़ताल कर वास्तविक कबीर को खोजा है, लेकिन अपने मनमाफ़िक कबीर को बनाये रखा है। कबीर पर स्त्री को लेकर उन्होंने कोई सवाल नहीं उठाया। हाँ, ये जरूर किया है कि जहाँ डा. धर्मवीर को स्त्री मात्र पर प्रहार करना हुआ, वहाँ कबीर के कंधें पर बन्दूक रखकर गोली दागी है। अर्थात स्त्री के बारे में डॉ. धर्मवीर की जो धारणाएँ हैं, उनको पुष्ट करने के लिए उन्होंने कबीर सम्बन्धी अपनी सातवीं किताब में जिक्र किया है। इसके पहले चुप ही थे। कबीर ग्रन्थावली में ‘सूरा तन कौ अंग’ में संकलित कबीर की निम्न साखियों पर डॉ. धर्मवीर का ध्यान क्यों नहीं गया? यहाँ कबीर सती प्रथा का समर्थन करते हैं। साखी है–
“सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमरि सनेह।
सबद सुनन जीव निकल्या, भूलि गयो सब देह।।36।।
सती जलन कूँ नीकली, चित धरि एक बमेख।
तन मन सौंप्या पीव कूँ, तब अन्तर रही न रेख।”18
एक अन्य साखी है –
“बिरहणि थी तो क्यूँ रही, जली न पीव के नालि।
रहु रहु मुगध गहेलड़ी, प्रेम न लाजु मारि”19
कबीर अन्य साखियों में स्त्री को काली नागिन सरीखी और नरक का कुंड बता रहे हैं। संदर्भ हैं–
“कामणि काली नागणीं, तीन्यूँ लोक मंझारि।
राम सनेही उबरै, बिषई साखे झारि”20
“नारी कुंड नरक का, बिरला थम्बै बाग।
कोई साधू जन उबरै, सब जग मूंवा लाग”21
“नारि नसावै तीनि सुख, जा नर पासै होई।
भगति मुकति निज ग्यान मै, पैसि न सकई कोई”22
हम यहाँ पर कबीर के स्त्री विरोधी और सती प्रथा के समर्थक रूप को देखते हैं। लेकिन डॉ. धर्मवीर सहित हिन्दी दलित साहित्य आलोचना कबीर के इन विचारों पर मौन है। दलित धारा की आलोचना भी और अम्बेडकरवादी, आजीवकवादी आलोचना भी। हाँ, डॉ. धर्मवीर को जब अपने विचारों को पुष्ट करना होता है तो वे कबीर के स्त्री विरोधी विचारों का सहारा जरूर लेते हैं। जब डॉ. धर्मवीर को स्त्रियों पर ‘नैतिकता’ का चाबुक चलाना होता है तो वो कहते हैं कि, “कबीर की कविता इसकी अनुमति किसी को नहीं देती। कबीर ऐसी स्वतंत्रता न खुद लेते हैं और न किसी को देते हैं- ‘नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देउफँ।”23 डॉ. धर्मवीर के अनुसार इस पंक्ति में कबीर का पूरा दर्शन आकर ठहरता हुआ दिखता है। यहाँ कबीर की स्त्री सम्बन्धी धारणाओं का विस्तार से विवेचन करना सम्भव नहीं है। इस शोध-पत्र की अपनी सीमाएँ हैं।
निष्कर्ष : अध्ययन के परिणामस्वरूप पता चलता है कि हिंदी की दलित, अम्बेडकरवादी और आजीवक साहित्य आलोचनओं में स्त्री को लेकर कोई महत्त्वपूर्ण और विशिष्ट विमर्श नहीं है। दलित साहित्य आलोचना की ये तीनों धाराएँ कबीर की स्त्री सम्बन्धी दृष्टि को लेकर मौन हैं। दलित साहित्य आलोचना की आजीवक धारा ईश्वरवादी है, तो दलित धारा और अम्बेडकरवादी धारा बुद्ध के दर्शन को अपनी आलोचना की कसौटी का आधार मानती है। डॉ. धर्मवीर बुद धम्म को क्षत्रियों का धर्म बताते हैं। वे इसे वर्ण व्यवस्था और पुनर्जन्म का पोषक बताते है। वहीं अम्बेडकरवादी आलोचना सम्पूर्ण मानव मुक्ति को अपना आधार मानती है। लेकिन आश्चर्यजनक है कि इन तीनों आलोचना धाराओं में आदिवासियों और पिछड़ों तथा स्त्रियों के सवालों पर या उनके साथ किसी प्रकार के जुड़ाव का कोई महत्त्वपूर्ण दीर्घजीवी साक्ष्य नहीं मिलता है। यही कारण है कि दलित स्त्रीवाद अब चर्चा के केंद्र में है। यह विकसनशील समीक्षात्मक सैद्धांतिकी दलित साहित्य आलोचना की अगली धारा होगी।
संदर्भ :
1. ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र,राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि.,नई दिल्ली, संस्करण 2005 , पृष्ठ 29
2. वही
3. वही, पृष्ठ 60
4. वही, पृष्ठ 31
5. तेज सिंह, अम्बेडकरवादी साहित्य की अवधारणा, लोकमित्र, 1/6588, पूर्वी रोहतास नगर, शाहदरा, दिल्ली-64, संस्करण 2000, अपनी बात से
6. वही
7. वही
8. वही
9. वही
10. वही
11. वही, पृष्ठ 116-117
12. वही, पृष्ठ 116
13. वही
14. प्रधान संपादक- प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन, संपादक डॉ. दिनेश राम, बहुरि नहिं आवना त्रैमासिक, के. 6, यमुना अपार्टमेंट, होली चौक, देवली, नई दिल्ली, पृष्ठ 6
15. वही, जनवरी-मार्च, 2010, पृष्ठ 16
16. वही, पृष्ठ 17
17. वही, पृष्ठ 9
18. कबीर ग्रन्थावली, सम्पादक-श्यामसुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, नयी दिल्ली, 25वाँ संस्करण, संवत् 2064, पृष्ठ 56,
19. वही, पृष्ठ 8
20. वही, पृष्ठ 30
21. वही, पृष्ठ 31
22. वही
23. कबीर: खसम खुशी क्यों होय? डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली, संस्करण 2013, पृष्ठ 286
अरुण कुमार प्रियम
पीएच.डी (हिंदी दलित लेखन में) दिल्ली विश्वविद्यालय
akpriyam@gmail.com 9560713852
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
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