- निकिता जैन
शोध सार : प्रस्तुत शोधालेख में समानांतर सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों में से एक मृणाल सेन के फ़िल्मी सफर का बारीकी से विश्लेषण कर उसे समकालीन संदर्भ में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है ताकि इक्कीसवीं सदी में प्रस्तुत किये जाने वाले सिनेमा और सन् 50 से लेकर 80 के दशक तक जो सिनेमा था उसके अंतर को भलीभांति न केवल समझा जा सके बल्कि तत्कालीन और समकालीन सिनेमा की तकनीक में क्या - क्या बदलाव आये हैं, तकनीक से लैस होते हुए भी क्यों आज के निर्देशक मृणाल सेन जैसी फ़िल्में नहीं दे पा रहे, इस पर भी गहनता से विचार किया जा सके।
बीज शब्द : फ़िल्में, सिनेमा, शख्सियत, निर्देशन, निर्माता, तकनीक, भाषा, चलचित्र, मनोरंजन, साक्षात्कार, चुनिंदा आदि |
मूल आलेख : भारतीय सिनेमा आज जिस मुकाम पर है उसे वहां तक पहुँचने में एक लम्बी और कठिन यात्रा तय करनी पड़ी है । भारतीय सिनेमा के 100 से अधिक वर्षों के इतिहास को अगर हम पलटें तो उसमें केवल फिल्मी दस्तावेज़ दिखाई नहीं देंगे, उन शख्सियतों की संघर्ष यात्रा भी दिखाई देगी जिन्होंने भारत और यहाँ के वासियों को ‘सिनेमा’ शब्द से न केवल परिचित कराया बल्कि साहित्य की भांति ही कैसे समाज के विकास के लिए सिनेमा भी एक सार्थक भूमिका का निर्वाह कर सकता है, इस पहलू से भी रूबरू कराया । सिनेमा का शाब्दिक अर्थ है ‘चलचित्र’ अर्थात चलती हुई छवियों के कारण एक ऐसी कहानी या घटना प्रस्तुत की जाती है जिसका प्रमुख उद्देश्य होता है दर्शकों का मनोरंजन करना । अक्सर जब फिल्म के संदर्भ में मनोरंजन शब्द कानों में पड़ता है तो उसका बड़ा साधारण सा अर्थ निकाल लिया जाता है- किसी हल्की-फुल्की फिल्म को देखकर मन को बहला लेना या आनंद लेना बस ! मनोरंजन या सिनेमाई एंटरटेनमेंट को अधिकतर लोगों ने इन्हीं शब्दों तक सीमित कर रखा है । लेकिन भारतीय सिनेमा में कुछ निर्माता- निर्देशक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने मनोरंजन की इस मन बहला लेने वाली लकीर को नकारते हुए ऐसी फिल्मों का निर्माण किया जो न केवल मनोरंजन की नई परिभाषा गढ़ती है बल्कि सिनेमा के माध्यम से समाज को उसके वास्तविक चेहरे से साक्षात्कार भी कराती है । ऐसे ही निर्देशकों में से एक थे मृणाल सेन। मृणाल सेन भारतीय सिनेमा के उन चुनिन्दा निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाई । मृणाल सेन की फिल्मों में दिखाई देने वाला मनोरंजन अन्य फिल्मों की तरह आम नहीं था जिस पर दर्शक थिएटर में बैठकर दो-दो घंटे तक हँसते रहें और ताली बजाते रहें बल्कि उनकी फिल्में दर्शकों से एक अलग प्रकार की बौद्धिकता की मांग करती हैं। बौद्धिकता की यही मांग व्यक्ति विशेष में एक संतुष्टि का संचार करती है जिससे आनंद की अनुभूति होती है और अंत में यही आनंद गंभीर सिनेमाई संदर्भ में मनोरंजन का रूप धारण कर लेता है। वास्तविकता में मनोरंजन का अर्थ है मन का रंजन करना अर्थात मन को प्रसन्न करना लेकिन किसी व्यक्ति के मन को कैसे रंजित किया जाए यह बात उस व्यक्ति विशेष की अपनी इच्छाओं और रुचियों पर निर्भर करती है इसलिए तो मृणाल सेन जैसे निर्देशकों की फ़िल्में आम मनोरंजन की श्रेणी से हटकर हैं । मृणाल दा की फिल्में भले ही सिनेमाई आलोचकों द्वारा कितनी ही सराही जाएँ , इन्हें कितने ही क्रिटिक अवार्ड क्यों न मिल जाएँ लेकिन व्यापारिक भाषा में या आम मनोरंजन की भाषा में इन फिल्मों को सफल अर्थात ब्लॉकबस्टर के विशेषण से नहीं नवाज़ा जा सकता क्योंकि जिस बौद्धिकता, संवेदनशीलता, वास्तविकता का चित्रण इनकी फिल्मों में हुआ है उसे समझ पाना और उससे आनंदित होना हर किसी के बस की बात नहीं है |
मृणाल सेन ने अपने फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत सन् 1955 में बांग्ला फिल्म ‘रात भोर’1 से निर्देशक के रूप में की थी | बंगाल के महानायक कहे जाने वाले उत्तम कुमार जैसे अभिनेता भी इस फिल्म को दर्शकों के बीच पहचान नहीं दिला सके । मृणाल सेन स्वयं इस फिल्म को कई आयामों पर एक कमज़ोर फिल्म मानते थे लेकिन आज भी कई बड़े सिनेमाई आलोचक इस फिल्म को देखने के बाद यह आश्चर्य करते हैं कि आखिर उस समय इस फिल्म को दर्शकों ने किस बिना पर नकारा । इस फिल्म की कहानी अमीर शहरी परिवार में , गाँव से आए एक गरीब लड़के के अनुभवों पर आधारित थी ।2 मृणाल सेन की पहली फिल्म भले ही दर्शकों और क्रिटिक्स के बीच पहचान नहीं बना पाई हो लेकिन लीक से हटकर चलने वाले सेन साहब रुकने कहाँ वाले थे उन्हें तो अभी एक लम्बा सफर तय करना था और ऐसा कीर्तिमान स्थापित करना था जिसका भारतीय सिनेमा उनका युगों-युगों तक ऋणी रहेगा ।मृणाल सेन की दूसरी फिल्म ‘नील आकाशेर नीचे’ सन् 19583 में रिलीज़ हुई और स्वतंत्र भारत में पूरे दो महीने के लिए इसे बैन किया गया था ।दरअसल यह फिल्म प्रसिद्ध लेखिका महादेवी द्वारा लिखित “चीनी फेरीवाला” रेखाचित्र से प्रेरित थी । फिल्म की कहानी आज़ादी से पहले सन् 1930 के इर्द-गिर्द घूमती है जब भारत में ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने का संघर्ष अपने चरम पर था । कहानी के केंद्र में एक गरीब चीनी फेरीवाला है जो कलकत्ता की गलियों में घूम-घूमकर , घर-घर जाकर चाइनीज़ सिल्क बेचता है क्योंकि वह अपने साथी देशवासियों द्वारा चलाए गए अफीम के व्यापार में शामिल होने से मना कर देता है । कलकत्ता में ही उसकी मुलाकात बसंती से होती है जिससे उसे बहन का स्नेह प्राप्त होता है । बसंती एक वकील की पत्नी है जो एक राजनीतिक समूह से जुड़ा हुआ है । राजनीतिक समूह से जुड़े हुए होने के कारण बसंती को गिरफ्तार कर लिया जाता है और इन सब में चीनी फेरीवाले को भी कैद कर लिया जाता है । कहानी के अंत में चीनी फेरीवाला जापान द्वारा चीन पर किये गए हमले के विरोध-आन्दोलन में शामिल होने के लिए अपने देश वापिस लौट जाता है । मृणाल सेन ने इस कहानी को बड़ी ही खूबसूरती से परदे पर उतारा और यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया कि – “भारत की अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई और 1931 के दौर में चीनियों की साम्राज्यवादी जापान के अतिक्रमण की लड़ाई एक ही थी । मृणाल सेन कई बरसों बाद भी फिल्म की इस टिप्पणी से इत्तेफाक रखते थे कि किसी देश की आजादी की लड़ाई और एक प्रगतिवादी विश्व की फासीवाद के खिलाफ लड़ाई अलग-अलग नहीं होती |”4. वो बात अलग है कि फिल्म की रिलीज़ के बाद राजनीतिक कारणों से इस पर बैन लगा दिया गया और इस बात के मर्म को उस समय कोई समझ नहीं सका | इसका एक कारण यह भी था कि तत्कालीन समय में भारत और चीन के बीच जो तनाव के हालात थे उन परिस्थितियों में इन सन्दर्भों पर विचार करना मुश्किल था | “बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद हीरेन मुखर्जी ने फिल्म पर लगे बैन पर टिप्पणी की तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु और वी.के कृष्णा मेनन भी वहीं थे”5, जवाहर लाल नेहरु पहले ही फिल्म की खुले दिल से तारीफ़ कर चुके थे लेकिन अब राजनीतिक परिस्थितियों के चलते फिल्म पर लगे बैन विचार करना आवश्यक हो गया था |6 दो महीने बाद फिल्म से बैन को हटा लिया गया | ‘नील आकाशेर नीचे’ भले ही महादेवी की रचना पर केन्द्रित फिल्म हो लेकिन मृणाल सेन ने अपने निर्देशन से जिस तरह इस कहानी को प्रस्तुत किया वह विश्व, राष्ट्र एवं समाज के प्रति उनके नज़रिए की दूरदर्शिता को चित्रित करती है | राजनीतिक नज़रिए को एक बार के लिए अलग रख दिया जाए तो यह फिल्म अपने आप में कई सवाल उठाती है - एक विदेशी का दूसरे देश में आकर काम करना, विस्थापन की समस्या, अपने देश से बिछड़ने का दर्द, मानवीय संवेदनाएं और न जाने क्या-क्या | दरअसल ‘नील आकाशेर नीचे’ हर उस व्यक्ति की कहानी है जो अपने देश से प्रेम करता है और अपने देश की आज़ादी के लिए संघर्षरत है | यह संघर्ष केवल किसी गैरमुल्क के कब्ज़े से अपने देश को आज़ाद कराने तक ही सीमित नहीं है बल्कि एक ऐसा खुला नीला आकाश तलाशने के संदर्भ में है जिसकी तलाश आज हर देश के व्यक्ति को है | लेकिन वो खुला नीला आकाश मिलेगा कैसे जब तक हवाओं में तोप के गोलों का धुआं, बारूद की गंध, बंदूकों की गोली की आवाज़ गूंजती रहेगी और लोगों को अपना गुलाम बनाती रहेगी |
मृणाल सेन की अधिकतर फिल्में हाशिए पर पड़े उस समाज को चित्रित करती हैं जिनकी आवाजों को ख़ामोश कर दिया गया है या दर्द, अत्याचार, शोषण की मार से स्वयं खामोश हो गई हैं | मृणाल सेन इन खामोश आवाजों के पीछे छीपी पीड़ा के साथ-साथ उस आक्रोश और चीख को भी अपनी फिल्मों में बखूबी चित्रित करते हैं जिन्हें वास्तविकता में हमारा सभ्य समाज नज़रअंदाज़ कर देता है | ‘बैशे श्रावणा’ (वेडिंग डे- 1960) और ‘अकालेर शंधाने
या संधाने’7
(अकाल की तलाश-1982) दो ऐसी ही कठोर फिल्म थीं जिसने मृणाल सेन के निर्देशन को राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो एक अलग पहचान दिलाई इसके साथ ही इतिहास के उन काले अध्यायों को भी बड़ी कठोरता के साथ चित्रित किया जिनसे हम अक्सर मुंह मोड़ लेते हैं ।‘बंगाल’ के अकाल और भूखमरी पर केन्द्रित यह दो फिल्में बड़ी निर्ममता के साथ इंसानियत के मुखौटे के पीछे उस जानवर की सच्चाई बयाँ करती हैं जो अपनी मनुष्यता के ढोल-नगाड़े पिटता नहीं थकता, जो जितना बड़ा आधुनिक बुद्धिजीवी है उसकी संवेदनशीलता उतनी ही क्षीण होती जा रही है | सन् 1960 में आई ‘बैशे श्रावणा’ विवाह के बाद नवदंपत्ति की संघर्षमयी जीवन गाथा पर आधारित फिल्म है जिसके केंद्र में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय आया हुआ अकाल है | फिल्म प्रियनाथ और मालती के इर्द-गिर्द घूमती है जिन्होंने अकाल के दौरान अपने गाँव से पलायन करने के बजाय यहाँ ठहरने का फैसला लिया | लेकिन दोनों पर यह फैसला तब भारी पड़ता है जब तीन दिन तक अन्न का एक दाना उनके पेट में नहीं जाता | प्रियनाथ धीरे-धीरे अपना सब्र खोने लगता है और जैसे ही उसे कहीं से कुछ खाने को मिलता है वह बिना सोचे –समझे एक जानवर की तरह उस खाने पर टूट पड़ता है और उसकी पत्नी भूखी-प्यासी उसका यह रूप देखती रहती है | यहाँ मालती केवल भूख से नहीं लड़ रही होती बल्कि अपने पति की बेरूखी, लालच, स्वार्थ, ज़िद्द से भी लड़ रही होती है जो उसे नागवार है | एक पत्नी भूखी रह सकती है लेकिन एक रिश्ते में उसका पति ही उसे एक वस्तु की तरह नज़रअंदाज़ करे, यह नहीं सह सकती और मालती भी नहीं सह सकी | फिल्म का अंत ह्रदयविदारक है जहाँ मालती अपने आप को मार डालती है, यहाँ यह सोचने वाली बात है कि मालती की जान ‘अकाल’ ने ली, स्वयं उसके पति ने या परिस्थितियों ने ? फिल्म में भूखमरी या अकाल से बड़ी समस्या रिश्तों में आई कड़वाहट को दिखाया गया है | यहाँ यह कतई नहीं कहा जा रहा है कि ‘बंगाल’ में आये ‘अकाल’ से रिश्तों के आधार पर लड़ा जा सकता था लेकिन यह रिश्ते कुछ समय के लिए मुसीबत के वक़्त सहारा अवश्य बन सकते हैं | दरअसल गौर से देखा जाए तो यहाँ प्रियनाथ प्रतीक है उन लोगों का जो लालच या स्वार्थ में वशीभूत होकर सबसे पहले अपना घर भरते हैं, कालाबाज़ारी करते हैं और लोगों को भूखों मरने के लिए छोड़ देते हैं जैसे तत्कालीन समय में हुआ था | फिल्म में मृणाल सेन बहुत बारीकी से इस सन्देश को एक नवदंपति के जीवन की संघर्ष-गाथा के रूप में प्रस्तुत करते हैं | ‘अकाल’ पर ही मृणाल सेन का दूसरा एक्सपेरिमेंट था “अकालेर शंधाने” यानी ‘अकाल की तलाश’ | फिल्म का नाम सुन कर ऐसा लगता है कि आखिर ‘अकाल की तलाश’ किस को होगी , कौन होगा वो जो फिर से उस भयावह स्थिति को याद करना चाहेगा या जीवंत करना चाहेगा ? इस फिल्म के केंद्र में है एक फिल्म यूनिट जो 1943 में आये अकाल, जिसे मानव निर्मित अकाल भी कहा जाता है, पर एक चलचित्र बनाने के उद्देश्य से बंगाल के गाँव में पहुँचती है और 1943 की परिस्थितियों को रीक्रीएट करने की कोशिश करती है| फिल्म को शुरू करने में यूनिट को कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है , गाँव वाले अभी भी परम्परा, जातिवाद, भेदभाव से उभर नहीं पाए हैं यह सभी आयाम फिल्म में मृणाल सेन बड़ी ही सहज तरीके से चित्रित करते हैं | फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है अभिनेता, अतीत और वर्तमान की कशमकश में फंसने लगते हैं | 1943 की वह परिस्थितियां जिन्हें फिर से जीवंत किया जा रहा है वह अभिनताओं के मन पर कहीं न कहीं गहरी चोट करती हैं और उससे भी गहरी चोट उन गाँव वालों को लगती हैं जिनके सामने वह परिस्थितियाँ फिर से पुनर्जीवित हो रही हैं क्योंकि आज भी वो इस भूखमरी, गरीबी से पूरी तरह से निकल नहीं पाए हैं और एक फिल्म यूनिट अपने एक्सपेरिमेंट के साथ जब उस अकाल को पुनर्जीवित करने कोशिश करती है तो कैसे गाँव की ही एक महिला दुर्गा के समक्ष रीक्रीएटीड पास्ट उसके वर्तमान को प्रभावित करता है, इसको बड़े ही मार्मिक तरीके से मृणाल सेन फिल्म में प्रदर्शित करते हैं | फिल्म के अंत में दुर्गा का बच्चा मर जाता है उसका पति लापता है और दुर्गा अकेली रह जाती है उसके साथ कोई नहीं है, फिल्म यूनिट गाँव वालों के विरोध के कारण फिल्म पूरी नहीं कर पाती और वहां से चली जाती है | मृणाल सेन फिल्म के अंत में यही सवाल छोड़ते हैं कि सन् 1943 में जो अकाल की परिस्थितियां थीं वो भी मानव निर्मित थीं और आज सन् 1980 में उस पास्ट को फिर से जीवित कर इंसान वो ही स्थितियां दोबारा उत्पन्न नहीं कर रहा ? क्या ये एक और अकाल की चाह नहीं है ? अकाल की चाह रखने वाले कैसे हर बार इस आपदा से बचकर निकल जाते हैं और उसमें मरता है वो बेगुनाह किसान, गरीब जनता, हजारों दुर्गा जिनको मुट्ठी भर चावल के लिए अपनी इज्ज़त से समझौता करना पड़ता है और तत्पश्चात पति और समाज का बहिष्कार सहन करना पड़ता है | वो अकाल तो एक बार आया था जिसमें पूंजीपतियों, नेताओं और कारोबारियों ने जमाखोरी करके लोगों को भूखा मरने के लिए सड़क पर छोड़ दिया था लेकिन उसके बाद एक्सपेरिमेंट करने वाले बुद्धिजीवी हर वर्ष एक अकाल लाते हैं और न जाने कितनी ही दुर्गाओं को अतीत और वर्तमान से लड़ने के लिए अकेला छोड़ कर चले जाते हैं | तो फिर 1943 वाले अकाल और आज के अकाल में क्या अंतर है ? आज भी बड़े लोग अपने नाम, शोहरत के लिए गरीब जनता का शोषण कर रहे हैं और उस समय भी यही हालात थे केवल तरीका बदला है शोषण का, स्थितियां वही हैं |
मृणाल सेन ने अपने पूरे जीवनकाल में कुल 27 फीचर फिल्मों का निर्देशन किया जिनमें से 6 फिल्में हिंदी भाषा की थीं -‘भुवन शोम’, ‘मृगया’, ‘एक दिन अचानक’, ‘खंडहर’, ‘जेनेसिस’ और ‘एक अधूरी कहानी’| इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ डॉक्यूमेंट्री – ‘त्रिपुरा प्रसंग’, ‘सिटी लाइफ-कैलकटा’ आदि का निर्माण किया | इसके साथ साथ ही मृणाल सेन ने सन् 1986-87 में दूरदर्शन के लिए 13 शोर्ट फिल्मस की एक सीरीज़ ‘कभी दूर कभी पास’ का भी निर्माण किया |8 ऐसा कहा जाता है कि मृणाल सेन को बहुत अच्छी हिंदी नहीं आती थी लेकिन उसके बावजूद उन्होंने हिंदी सिनेमा को जिस तरह की फिल्में दी वे अपने आप में एक मिसाल है | विषय के चयन से लेकर निर्देशन की समझ तक उनका काम हर मामले में नायाब था | उनके फिल्मों पर गौर करें तो अधिकतर फिल्मों में मध्यमवर्गीय परिवार के साधारण पात्र ही मिलेंगे जो आपके और हमारे जैसे हैं | कोई नौकरी में फंसा हुआ है, किसी का बॉस उसे काम के लिए डांट रहा है, किसी लड़की पर परिवार की ज़िम्मेदारी है, कोई अतीत और वर्तमान की कशमकश में उलझा हुआ है आदि | मृणाल सेन की फिल्मों में एक आम इन्सान की रोज़मर्रा की समस्याओं का ही चित्रण है लेकिन उन समस्याओं को प्रदर्शित करने का रूप नया है, संवाद नए हैं, परिस्थितियां नयी हैं इसलिए ही उनकी फिल्में ख़ास हैं | सन् 1969 में प्रदर्शित हुई ‘भुवन शोम’ भी ऐसी ही एक फिल्मों से एक थी जिसने भारतीय सिनेमा में एक क्रांति ला दी और एक नए सिनेमा आन्दोलन का जन्म हुआ जिसे ‘समानांतर सिनेमा’ कहा गया |9 दरअसल ‘भुवन शोम’ राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के द्वारा प्रदान की गई छोटी सी धनराशि से बनाई गई थी जिसने मृणाल सेन को निर्देशन को विश्व भर में प्रसिद्धि दिलाई और नए निर्देशकों में को एक राह दिखाई कि कम बजट में भी अच्छी एवं यथार्थपरक फिल्में बनाई जा सकती हैं | ‘भुवन शोम’ एक विधुर रेलवे अफसर की कहानी है जिसने अपने जीवन की सभी कठिनाइयों को अपने सख्त और अनुशासित चेहरे के पीछे छिपा रखा है ताकि उसके व्यक्तित्व की कमजोरियों को कोई और न पढ़ सके | मिस्टर शोम के जीवन में तब बदलाव आता है जब वह एक दिन की छुट्टी लेकर शिकार करने लिए गुजरात जाते हैं और वहां उनकी मुलाक़ात हँसती-खेलती लड़की गौरी से होती है जो सख्त अफसर के अन्दर छिपे एक अलग ही भुवन को बाहर निकालती है और उसे एहसास कराती है अभी तक जिस भुवन से वो भाग रहा था दरअसल वास्तविकता में वो ही उसके जीवन का आधार है | कहानी का अंत एक अत्यंत दिलचस्प मोड़ पर होता है जहाँ गौरी का पति रेलवे विभाग में गड़बड़ी के आरोप में भुवन के सामने है लेकिन इस बार भुवन अपने स्वभाव के विपरीत गौरी के पति को हिदायत देकर छोड़ देता है | एक सख्त अफसर का यह ट्रांसफॉर्मेशन इसलिए नहीं दिखाया गया क्योंकि गौरी ने उसकी मदद की थी बल्कि इसलिए प्रदर्शित किया गया कि अब मिस्टर शोम वाकई में अपनी वास्तविकता से परिचित हो गए हैं | कमजोरी किस में नहीं होती, हम सब में है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम उन कमजोरियों को छिपाने के लिए अपने व्यक्तित्व और जीवन को इतना कठोर बना लें कि उसमें किसी के आने या जाने पर रोक लगा दी जाए, जीवन में कुछ भी स्थिर नहीं है फिर मनुष्य के भाव कैसे स्थिर हो सकते हैं, कैसे कोई इंसान अपनी साड़ी इच्छाओं और संवदनाओं को मारकर दुनिया को दिखाने के लिए कठोर बना रह सकता है | यहाँ गौरी के पति को चांस देना, गौरी पर एहसान करना नहीं बल्कि भुवन का स्वयं को एक मौका देना है कि वो बची हुई ज़िन्दगी को अपनी कमजोरियों के साथ हंसकर गले लगाते हैं या उसे सिरे से खारिज करते हैं |
मृणाल सेन की अधिकतर फिल्मों में मध्यमवर्गीय परिवार की समस्याओं का चित्रण मिलता है जो कभी समाज तो कभी परम्परा तो कभी किसी और वजह से चाहते हुए भी अपनी सोच के दायरे को न आगे बढ़ा पाते हैं और न बदल पाते हैं | सन् 1984 में आई ‘खंडहर’10 भी मध्यमवर्गीय मानसिकता के इन्हीं दायरों पर कड़ा प्रहार करती है | फिल्म की कहानी ऐसे बेजान खंडहर पर केन्द्रित है जहाँ जामिनी और उसकी बिस्तर पर पड़ी बीमार माँ के अलावा गाँव के दो-तीन लोग ही रहते हैं | एक महामारी ने उस गाँव को खंडहर में तब्दील कर दिया है और वहां कोई आता-जाता नहीं है | एक दिन शहर से तीन दोस्त दो-तीन दिन की छुट्टियों के लिए उस गाँव में आ जाते हैं क्योंकि उनमें से एक का पुश्तैनी मकान इसी गाँव में ठीक जामिनी के घर के सामने है तथा वो रिश्ते में जामिनी का भाई भी है | कहानी आगे बढ़ती है धीरे-धीरे जामिनी के जीवन की कठिनाइयाँ, बीमार माँ की जिम्मेदारियां जामिनी का भाई अपने दोस्तों के सामने एक-एक करके बताता है | जामिनी का सरल स्वभाव देखकर सुभाष जो शहर में एक फोटोग्राफर है, को उससे प्यार हो जाता है, जामिनी भी उसके प्रति आकर्षित है लेकिन अपनी माँ की जिम्मेदारियों से बंधी हुई है | कहानी इसी उधेड़बुन में आगे बढ़ती है – कहानी का नायक प्यार करते हुए भी किसी ऐसी लड़की की ज़िम्मेदारी नहीं ले पाता जिसकी माँ बिस्तर पड़ी हुई है दूसरी ओर जामिनी अपनी उस मां को छोड़कर कैसे चली जाए जो केवल उसकी शादी के लिए इस खंडहर में पड़ी हुई है | कहानी के अंत में तीनों दोस्त छुट्टियाँ बिताकर वहां से चले जाते हैं और जामिनी अपनी बूढ़ी माँ और खंडहर के साथ वहीं अकेली रह जाती है | देखा जाए तो फिल्म की कहानी अति-साधारण है , सभी पात्र अपनी-अपनी जिम्मेदारियों के चलते मजबूर हैं लेकिन जीवन क्या केवल मजबूरियों तक ही सीमित हो गया है ? उसमें प्यार, संवेदनशीलता, इंसानियत की कोई अहमियत नहीं है ? क्या वाकई में हम अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रहे हैं या उनसे भाग रहे हैं ‘खंडहर’ यह सभी प्रश्न हमारे समक्ष रखती है | ‘खंडहर’ देखते हुए कई बार खीझ होती है कि आखिर जामिनी क्यों अपनी माँ को लेकर शहर नहीं चली जाती, क्यों वो अपनी माँ को सच नहीं बता देती कि उसके मंगेतर ने शहर में शादी कर ली लेकिन यहाँ जामिनी के भीतर भी एक डर पनप रहा है कि अभी उसका एकमात्र जीने का सहारा उसकी माँ है अगर कल वो भी नहीं रही तो किसके सहारे रहेगी | उसका आधा वक़्त जो माँ की सेवा में गुज़रता है वो कहाँ बीतेगा ? दरअसल मनुष्य की भीतर का यह भय ही है जो उसे अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर नहीं निकलने देता | जामिनी और उसकी माँ का कम्फर्ट ज़ोन वो खंडहर बन चुका है, जिससे चाहकर भी वो बाहर नहीं निकल सकते और यही कहीं न कहीं मध्यमवर्गीय आदमी की सच्चाई भी है और समस्या भी | दरअसल अगर गौर से देखा जाए तो इन कम्फर्ट ज़ोन या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सुरक्षा चक्रों का निर्माण भी समाज द्वारा ही किया जाता है और यह निर्माण केवल महिलाओं के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के कन्धों पर भी इसका पूरा दारोमदार रहता है | जहाँ इन सुरक्षा चक्र या सुविधा क्षेत्रों की अवेहलना होती है वहीं समाज की नज़रों में वह स्त्री या पुरुष चुभने लगते हैं या फिर उनको अपनी जिम्मेदारियां न निभाने का टैग दे दिया जाता है क्योंकि समाज ने कुछ खाके तैयार कर रखे हैं हर मनुष्य के लिए अगर मनुष्य उसमें फिट नहीं बैठता तो उसे एक विशेष उपाधि से उन्हें नवाज़ा जाता है | ‘खंडहर’ में जामिनी वो कम्फर्ट ज़ोन या सुरक्षा चक्र नहीं तोड़ पाई लेकिन मृणाल सेन की और फिल्म ‘एक दिन अचानक’ (1989)11 में प्रोफेसर ने समाज की परवाह किए बगैर इस सुरक्षा चक्र से निकल कर रिश्तों को एक नई परिभाषा देने की कोशिश की | “एक दिन अचानक” एक रिटायर्ड प्रोफेसर के निजी जीवन पर केन्द्रित फिल्म है जो एक दिन अपने घर से कहीं चला जाते है और फिर शुरू होता है आरोपों, संभावनाओं और अनुमानों का सिलसिला | समाज द्वारा एक विशेष टैग दिए जाने का क्रम क्योंकि जिस व्यक्ति ने समाज के नियमों का उल्लंघन किया उसको समाज में एक विशेष पद से तो नवाज़ ही दिया जाता है | ऐसा नहीं है कि परिवार वाले अपने पिता या उसकी दोस्त को जानते नहीं हैं या भरोसा नहीं करते लेकिन बिन बताये कहीं जाना उनके मन में अपने पिता एवं पति और उनके करीबियों के प्रति एक शक पैदा कर देता है | किसी का जाना हमारे जीवन को किस हद तक प्रभावित करता है और कब तक प्रभावित करता है इसका चित्रण बड़े ही सशक्त तरीके से मृणाल सेन ने इस फिल्म में किया है | इस फिल्म की खासियत यह है कि इस फिल्म में एक ऐसे व्यक्ति को लापता होते हुए दिखाया गया था जिसकी ज़रूरत शायद उसके परिवार को थी ही नहीं या समाप्त ज़रूरत समाप्त हो चुकी थी | अक्सर देखा गया है जिस व्यक्ति की ज़रूरत घर में समाप्त हो जाए वह घर के कौने में पड़ा पुराने फर्नीचर से अधिक कुछ नहीं होता । पत्नी घर के काम में व्यस्त रहती थी, बच्चे पढ़ाई और नौकरी में इसलिए एक पिता या पति से किसी को कोई सरोकार नहीं था क्योंकि वो आम लोगों की तरह अपनी नौकरी से कोई ज्यादा लाभ नहीं ले पाए थे | आम भाषा में प्रोफेसर घर में पड़े उस समान की तरह थे जो केवल घर की शोभा बढ़ाते हैं सिवाय उनके बड़ी बेटी नीता और उनकी स्कोलर अपर्णा को छोड़कर | प्रोफेसर का अचानक कहीं चले जाना अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ जाता है कि एक व्यक्ति की अहमियत उसके अपनों के बीच किस बिना पर और कब तक होती है ? जब तक वो नौकरी करता रहे, दिन-रात काम करता रहे और अपने सपनों के साथ समझौते करता रहे बस तब तक ? अगर नहीं तो फिर प्रोफेसर की पहचान अपने ही घर वालों की नज़र में क्या थी ? क्यों उन्हें कोई समझ नहीं पाया ? ‘एक दिन अचानक’ फिल्म एक ऐसे सच को हमारे सामने लाकर खड़ा करती जिससे हम सभी वाकिफ हैं लेकिन जानते हुए भी उस सत्य से आँख चुराते हैं, उसे नज़रंदाज़ करते रहते हैं और एक दिन अचानक वो हम सब के समक्ष आकर खड़ा हो जाता है और वह सच है जब रिश्तों की ज़रूरतें ख़त्म हो जाएँ तो वह रिश्ता स्वत: ही समाप्त हो जाता है रह जाती हैं तो केवल औपचारिकताएं उन रिश्तों को निभाने की या ज़बरदस्ती ढोने की | प्रोफेसर उन औपचरिकताओं से मुक्त होना चाहते थे ताकि कोई भी रिश्तों के बोझ तले अपने जीवन के बचे हुए पलों को गवां न दे |
निष्कर्ष : उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मृणाल सेन की प्रत्येक फिल्म में आम-आदमी की जीवन में दिन-प्रतिदिन घटित होने वाली घटनाओं को ही आधार बनाया गया है, उन्हें इतनी बारीकी से चित्रित किया गया है कि वह फिल्म में विशेष बन जाती हैं और आम ज़िन्दगी में लोगों का उन पर ध्यान तक नहीं जाता | मृणाल सेन इन्हीं अति-साधारण घटनाओं और जीवन प्रसंगों को अपनी फिल्मों के ज़रिये आधुनिक मनुष्य तक पहुँचाना चाहते थे | जीवन की पूरी सार्थकता अखबार की हैडलाइन बनने में नहीं है लेकिन आज का मनुष्य शायद इस बात से अनजान है | वह संघर्ष तो कर रहा है लेकिन उसके महत्त्व को नहीं समझ रहा, वह जीवन तो जी रहा है लेकिन उसका आनंद नहीं ले पा रहा ,वह दूसरों की मदद तो करना चाहता है लेकिन कभी समाज की बेड़ियाँ तो कभी उसका स्वयं मान उसे ऐसा करने से रोक लेते हैं | मृणाल सेन की फिल्में इसी आम-इंसान के संघर्ष की दास्ताँ अलग-अलग रूप में बयाँ करती हैं जिसकी यात्रा तो अनवरत चल रही है लेकिन उसकी मंज़िल कहाँ है ये किसी को नहीं पता | ‘मृगया’12, ‘जेनेसिस’13, ‘एक अधूरी कहानी’14 सभी के पात्र तो अपनी-अपनी परिस्थितियों और अपने अन्दर चलने वाले अन्तर्विरोध से लड़ रहे रहे हैं लेकिन उससे लड़कर वह किस मुकाम पर पहुंचे न ये वो खुद समझ पाते हैं न ही दर्शक | दरअसल यही मृणाल सेन की फिल्मों की खासियत है वह फिल्म का अंत किसी घोषित परिणाम की तरह नहीं करते जो पूर्वानुमानित हो इसलिए नहीं कि दर्शकों के बीच जिज्ञासा बनी रही बल्कि इसलिए कि आम-आदमी की वास्तविक ज़िन्दगी में कुछ भी अनुमानित नहीं है बल्कि अप्रत्याशित है इसलिए तो मृणाल सेन की प्रत्येक फिल्म एक ऐसे सागर की तरह है जिसका न कोई ओर है न कोई छोर आप उसके अंदर जितना जायेंगे उसे उतना ही गहरा और विशाल पाएंगे |
संदर्भ :
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https://www.mrinalsen.org/ek_adhuri_kahani.html
सहायक प्राध्यापक (हिंदी) के तौर पर अध्यापन, डॉ. बी.आर.अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली
nkjn989@gmail.com, 9953058803
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