(विशेष संदर्भ : “तारे ज़मीन पर” फ़िल्म)
शोध सार : सिनेमा जनसंचार का वह माध्यम है, जो आम जनता के लिए सरल व सहज रूप से उपलब्ध है। सिनेमा हमेशा से ही सामाजिक परिवर्तनों को दर्शाता और अभिव्यक्त करता रहा है। यह अभिव्यक्ति का सर्वाधिक प्रभावशाली एवं सशक्त माध्यम है। इसमें कोई लेकिन नहीं कि सिनेमा सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनैतिक सभी स्थितियों को आत्मसात करते हुए रचनात्मक बना है। साथ ही सिनेमा किसी भी समाज या सामाजिक व्यवहार का एक मनोविज्ञान होता है। सिनेमा में मौजूद चलचित्र न केवल मनोरंजन का एक आसान और सस्ता साधन है अपितु समाज की सर्वांगीण अध्ययन और उपायन का माध्यम भी है। हिंदी सिनेमा में बाल केंद्रित फिल्में आरंभ से ही भारतीय समाज का आईना रही हैं। और साथ ही साथ भारतीय समाज की गतिविधियों को रेखांकित करती है। हिंदी बाल सिनेमा का भी एक विशाल इतिहास रहा है जिसमें 1950 से लेकर समकालीन नायकों के साथ बाल केंद्रित फिल्मों का निर्माण किया गया है, यह फिल्में सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करती बल्कि बच्चों से जुड़ी समस्याओं की ओर भी ध्यान आकर्षित करती हैं।
बीज शब्द : बाल मनोविज्ञान, हिन्दी सिनेमा, जनसंचार, मनोरंजन, कला, जागरूकता, चेतना, बाल हिन्दी सिनेमा, समायोजन, साधन, अस्तित्व, यथार्थ, आधुनिक युग, समकालीन, समाज, शिक्षण ।
मूल आलेख : सिनेमा केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है वह एक तरह का लोक माध्यम भी है। हमारे सामाजिक व्यवहार का यह एक अपरिहार्य हिस्सा बन चुका है। महानगरों और शहरों में ही नहीं कस्बों और गाँवों तक पर इसके प्रभाव को देखा जा सकता है। फिल्मों के बारे में निरंतर चलने वाली चर्चाएं, हर जगह उनके बजते गाने और फिल्म अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के प्रति गहरा आकर्षण यह बताता है कि सिनेमा हमारी वर्तमान लोक चेतना और हमारी संस्कृति का हिस्सा बन चुका है।
“फिल्म मनोरंजन का उत्तम माध्यम है लेकिन वह ज्ञानवर्धन के लिए भी अत्यंत बेहतरीन माध्यम है”। - दादा साहब फाल्के
“भारतीय सिनेमा का इतिहास विश्व सिनेमा के इतिहास के लगभग बराबर है। भारत में मूक सिनेमा 1896 में शुरू हो गया था और सवाक् सिनेमा 1930 में। सिनेमा वास्तव में विज्ञान [ तकनीक के रूप में ] और कला [ विभिन्न कलाओं के रूप में ] का समायोजन है। सिनेमा के विकास की इस अवस्था पर विज्ञान प्रभावी था। सन् 1947 से 1955 ई. तक का समय हिन्दी सिनेमा के इतिहास में कलात्मक और भव्यता के लिए जाना जाता है। इस समय सेंसर के नियमों में परिवर्तन कर उन्हें देश के सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल के अनुरूप बनाया गया। सन् 1949 में ही वयस्कों के लिए ए- प्रमाण पत्र तथा जिन्हें बच्चें भी देख सकें उन्हें यू- प्रमाण पत्र देने की व्यवस्था की गई”।1 सिनेमा केवल शब्द मात्र नहीं, उसके व्यापक आयाम है। सिनेमा के अंतर्गत देश समाज और कला की संस्कृति परिस्थितियाँ समाहित है। सिनेमा के माध्यम से हम न केवल जीवन के हर एक पहलुओं को देखते परखते हैं, बल्कि उनके परिणामों की भी संभावना कर सकते हैं।
“सिनेमा एक शक्तिशाली विधा है इस बात को उसके जन्म के तुरंत बाद ही पहचान लिया गया था। जनसंख्या के एक बहुत बड़े वर्ग तक किसी संदेश को पहुंचाने के लिए कोई भी दूसरी विधा इतनी शक्तिशाली नहीं थी। बल्कि सिनेमा ने अपनी बनावट में रंगमंच, साहित्य, संगीत, चित्रकला, स्थापत्य आदि सभी रचनात्मक प्रयासों को बड़ी चतुराई और कुशलता से समेट लिया, पूंजीवादी देशों में एक ओर सिनेमा ने मनोरंजन की आड़ में प्रभावशाली सामाजिक संदेश दिया और दूसरी और समाजवादी देशों में प्रचार की हद तक पहुंचाने का खतरा उठाते हुए सिनेमा की शक्ति को पहचाना गया”।2 सिनेमा मनोरंजन व जागरूकता का एक साधन बन गया है। तथा समय के अनुरूप उसमें परिवर्तन भी आये हैं। पुरानी फिल्मों और आज के दौर की फिल्मों में एक बड़ा अंतर है। जहां पुरानी फिल्में समाज के सभी वर्गों को ध्यान में रखकर बनाई जाती थी। वही आज का सिनेमा कहीं ना कहीं व्यक्ति विशेष को लेकर जागरूक हुआ है और व्यक्ति के अस्तित्व पर प्रश्न उठता एवं उसके स्वभाव को प्रदर्शित करने का प्रयास करता है। यानि कह सकते हैं कि आज का सिनेमा अधिक यथार्थवादी है।
“समाज की सशक्त कला के रूप में भी सिनेमा को देखा जा सकता है और इसे संपूर्ण कला कहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। बीसवीं शताब्दी के ज्ञान-विज्ञान की यह सबसे महत्वपूर्ण देन है। इसमें नाटक, संगीत, काव्य, उपन्यास आदि का अद्भुत समन्वय होता है। साहित्य की तरह यह व्यक्तिगत प्रयास नहीं है। बल्कि सामूहिक प्रयास है। शब्दों का यहाँ भी महत्व है। लेकिन साहित्य से इन शब्दों की तुलना नहीं की जा सकती। फिल्म का संसार बहुत बड़ा है। अच्छी फिल्में साहित्य और कला का आदर्श समन्वय होती है। इनका उद्देश्य हमारी सौंदर्य अनुभूति और यथार्थ का विस्तार करना है। फिल्में सामाजिक नैतिकता स्वीकार भी करती हैं, उन्हें तोड़ती भी हैं। और अपने समाज के प्रति उत्तरदायी भी हैं”।3
बाल मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की अन्य शाखाओं की तरह ही एक शाखा है। जिसका एकमात्र संबंध बाल्य-जीवन के विभिन्न पहलुओं से है। बाल मनोविज्ञान वह समर्थ विज्ञान है जो बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन जन्मकाल से परिपक्वता तक करता है। तात्पर्य यह है कि “बाल मनोविज्ञान इस बात की खोज करता है कि जन्म के समय से ही बालक में कौन कौन से परिवर्तन होते हैं, चाहे वो शारीरिक हो या मानसिक उसके समुचित विकास को समझने के लिए हमें बाल मनोविज्ञान की दृष्टि अपनानी होती है”।4 मनोविज्ञान व्यक्ति और वस्तु की अत: क्रियाओं के पक्षों का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। व्यक्ति की मानसिक क्रियाशीलता, मानसिक उत्पतियों तथा अवस्थाओं का प्रतिपादन है। निष्कर्ष रूप में मनोविज्ञान को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है- “मनोविज्ञान बाहरी भीतरी दबावों एवं प्रभावों के अधीन व्यक्ति के मन में ज्ञान अज्ञान पक्षों, अनुभूतियों, क्रिया-प्रतिक्रियाओं प्रभावों इत्यादि का विश्लेषक शास्त्र है”।5
‘The
unconscious, as Fread sees
it is through and through dynamics; the whole psychic structure, whether
conscious or unconscious is fundamentally a tissue of striving and desire.’6
आज का युग तकनीक और विज्ञान का युग है। हर दिन नए-नए उत्पादों, आविष्कारों ने लोगों के जीवन को बहुत प्रभावित किया है। बच्चे भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे हैं। बालक देश के अमूल्य निधि होते हैं। देश का भविष्य उन्हीं पर निर्भर करता है। यही कारण है कि उनसे जुड़ी प्रत्येकवस्तु, घटना पर ध्यान देना आज की आवश्यकता है। बच्चे अधिकतर कल्पना की दुनिया में ही रहते हैं। काल्पनिक दुनिया का प्रभुत्व अधिक बढ़ गया है। सिनेमा ने बच्चों के मस्तिष्क को विकसित कर दिया है। बड़े-बड़े विज्ञापनों के बोर्ड बच्चों को रिझाने के लिए लगे रहते हैं। यही कारण है कि बाल अध्ययन की आवश्यकता पहले से अधिक आज के समय में है। बालक जिस समाज समुदाय एवं संस्कृति में जन्म लेता है तथा जिस प्रकार की समाजीकरण की प्रक्रिया से गुजरता है उसका प्रभाव बालक के चिंतन, व्यवहार और व्यक्तित्व पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। प्रत्येक समाज समुदाय व संस्कृति की अपनी अपनी मान्यताएं, परंपराएं तथा रूढ़ियां होती हैं जिसका समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से बालकों के जीवन में हस्तांतरण होता है। उनका व्यक्तित्व, रुचि, मनोवृति, कार्यशैली एवं भावनाएं आदि इनके द्वारा प्रभावित होकर विकसित तथा नियंत्रित होती हैं। हिंदी सिनेमा में बाल मनोविज्ञान केंद्रित फिल्में पहले भी बनती आई हैं। किंतु 21वीं सदी में बाल मनोविज्ञान केंद्रित प्रमुख फिल्मों का प्रदर्शन किया गया है जिसके माध्यम से बाल मन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। आज के समकालीन समय में जहां बच्चे पढ़ाई को लेकर मानसिक तनाव में आ जाते हैं और अकेलेपन का शिकार हो जाते हैं। वह अपने शिक्षकों तथा अभिभावकों से भी खुलकर बात नहीं कर पाते। इन तमाम अभिव्यक्तियों के लिए सिनेमा सहज रूप से उपयोगी रहा है। जिसके माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि जितना अभिभावक एवं शिक्षक बच्चों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखेंगे बालक का विकास उतना ही सफल रूप से होगा।
बाल मनोविज्ञान केंद्रित अनेक फिल्मों का निर्माण किया गया जिनमें ‘3 ईडियट्स’, ‘तारे जमीन पर’, ‘भूतनाथ’, ‘आई. एम. कलाम’, ‘द ब्लू अमरैला’, ‘अपना आसमान’, ‘पॉ’, ‘उड़ान’, ‘थैंक्स माँ’, ‘स्टेसनरी का डिब्बा’, ‘बम बम भोले’, ‘बाल गणेश’, ‘चिल्लर पार्टी’, ‘फ़रारी की सवारी’, ‘ब्लैक’, ‘हिचकी’ और ‘ओएमजी2’ इत्यादि प्रमुख फिल्में रही। जिसके माध्यम से बाल मनोविज्ञान केंद्रित फिल्मों के निर्माण में निर्माणकर्ताओं द्वारा बालक की स्थिति, मनोरोग की स्थिति एवं उसके आचार व्यवहार का जीवंत नमूना हिंदी फिल्मों में उकेरा गया है, वह बहुत ही ज्यादा अविस्मरणीय रहा है। हिंदी सिनेमा में वास्तविकता में बालकों के साथ हो रहे शोषण, बालकों की मन:स्थित एवं पर्याय मनोरोगों से उनके जीवन में होने वाले नकारात्मक प्रभावों को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया गया। इसमें बालक के साथ-साथ उनके अभिभावकों एवं संरक्षकों पर भी इसका खासा प्रभाव हुआ है। इन सभी फिल्मों के माध्यम से बाल मनोविज्ञान और उनके व्यवहारों का आकलन करते हुए कहीं ना कहीं एक अच्छे भविष्य तथा बालक के स्वस्थ मानसिक रूप का विकास किया जा सकता है। सिनेमा ने इन फ़िल्मों के माध्यम से बालकों के चरित्र संघर्ष एवं उनके सरल स्वभाव को स्पष्ट किया है। “बाल चलचित्रों के निर्माण में कतिपय आधारभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन और उनकी अनिवार्यता सिद्ध करते हुए इंग्लैंड की‘चिल्ड्रन फिल्म फाउंडेशन’ संस्था की अध्यक्षता मिस मेरी फील्ड ने एक स्थान पर कहा है कि, बच्चे मुख्य रूप से समवयस्क बालक बालिकाओं में रुचि लेते हैं अतः बाल चलचित्र की कथा स्पष्टता सरलता के साथ कही जानी चाहिए, जिससे बच्चे पटकथा की मूल भावना को सरलता से ग्रहण कर सके”।7
फिल्म “तारे ज़मीन पर” (एव्री चाइल्ड ईस स्पेशल) सन् 2007 में हिंदी सिनेमा में प्रदर्शित की गई। इस फिल्म में आठ साल के ईशान की कहानी है, जो डिस्लेक्सिया से पीड़ित है। किस तरह उसका जीवन बाकी बालकों से अलग और संघर्षपूर्ण है और उसके विभिन्न मनोवैज्ञानिक पक्ष हैं। “तारे ज़मीन पर” बाल व शिक्षा मनोविज्ञान पर आधारित एक सुंदर फिल्म है। जिसे अपनी विशेषता और बाल जीवन की ईमानदारी से प्रस्तुत करने के लिए ऑस्कर अवार्ड हेतु 2018 वर्ष में चुना गया। प्रस्तुत फिल्म में मुख्य किरदारों के रूप में नजर आते हैं आमिर खान व दर्शील सफारी। प्रस्तुत फिल्म में शिक्षा और सामाजिक स्वीकारता पर गंभीर विचार किया गया है। “तारे ज़मीन पर” एक ऐसी फिल्म है जो एक बच्चे को अलग ना मान कर खास बताने की पहल करती है। हर बच्चा एक दूसरे से भिन्न है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह किसी से कमतर है। हर बच्चे की एक खास शख़्सियत होती है।
फिल्म की शुरुआत ईशान के रिजल्ट से होती है। जिसमें ईशान फेल होता है। बाकी शिक्षक भी ईशान के फेल होने की घोषणा कर रहे होते हैं। और बार-बार ईशान के लिए “इडियट” शब्द का प्रयोग किया जाता है। पर ईशान अपनी दुनिया में रहता है। जिसमें उसे रिजल्ट से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। वो अपने मोजे में मछली पकड़ने में लगा है। ईशान की पहली झलक एक लापरवाह विद्यार्थी के रूप में दिखाई जाती है। जिसके कारण वह अपने माता-पिता एवं शिक्षकों के द्वारा डांट खाता रहता है। सभी उसकी शिकायत करते हैं। सब उसे “डफर”, “इडियट” जैसे शब्दों से संबोधित करते हैं। उसके आस पास के लड़के भी उसके साथ खेलते नहीं क्योंकि वो गेंद भी सीधी तरह नहीं फेंक पता है। ईशान को किताबों की दुनिया से ज्यादा अच्छी बाहर की दुनिया लगती है। और वह बाहर की दुनिया को ठहर के आराम से देखना चाहता है। उसके जीवन में कोई भागा भागी नहीं है, उसे किसी से कोई प्रतियोगिता नहीं करनी है। वो जीवन में सब कुछ आराम से करता है। यहाँ फ़िल्म में यह गाना (“जमे रहो”) उसकी अभिव्यक्ति करता है। किस प्रकार सबका जीवन भिन्न है ईशान से। जब ईशान को दिखाया जाता है तो गाने के बोल कुछ इस प्रकार हैं (“ यहाँ अलग अंदाज है, जैसे छिड़ता कोई साज़ है, हर काम को टाला करते हैं ये सपने पाला करते है”।)8 ईशान के जीवन में रंगों का महत्व है। वह जीवन को अपने रंगों से भर लेना चाहता है। साथ ही साथ ईशान मछलियों, पतंग तथा प्रकृति के लिए एक अलग तरह का दृष्टिकोण रखता है। क्लास से ज्यादा उसका ध्यान क्लास के बाहर होता है। जिस प्रकार वह रंगों को देखता है उससे एक उल्लास का अनुभव महसूस करता है और वह अपने आपको सबसे सुरक्षित इन सब के बीच ही महसूस करता है। पढ़ाई में अव्वल ना होने के कारण ईशान का कई बार मज़ाक उड़ाया जाता है। क्लास के बाहर हमेशा सज़ा के रूप में खड़ा किया जाता है। इसलिए ईशान एक दिन विद्यालय का काम ना करने की वजह से स्कूल बंक कर देता है। और आस पास के रोड पर घूम कर वो सब रंग बिरंगी वस्तुओं को देखता है जो उसे पसंद हैं। इस मनोभाव को दर्शाने तथा ईशान उस समय क्या महसूस कर रहा है। यह गाना आता है। (A little sweet, a littlesoft A little close, not too farAll I need, all I needAll I need is too be free उड़ने को 100 पंख दिए हैं, चढ़ने को खुला आसमां, मुड़ने को है करवट-करवट, और बढ़ने को मेरा जहाँ ,बचपन के दिन चार, ना आयेंगे बार-बार, जी ले, जी ले मेरे यार)9 इस गाने के माध्यम से कितनी सहजता से बताया जाता है कि विद्यालय केवल रटने की जगह नहीं बचपन केवल बस्ते का बोझ उठाने के लिए नहीं है। ये बचपन तो आज़ाद होना जानता है। खुले आसमाँ में उड़ना चाहता है।
हर समाज का एक ढाँचा तैयार होता है जिसके अनुरूप ही, किसी भी बालक को लायक या नालायक समझा जाता है। इस प्रकार से ईशान को अपने माता-पिता की उपेक्षा भी सहनी पड़ती है। उसकी तुलना उसके भाई योहान से की जाती है। जो ईशान के बिल्कुल विपरीत है। समय से पढ़ता है, सभी विषय में अव्वल आता है, खेल में भी आगे रहता है और सभी शिक्षक उसकी तारीफ भी करते हैं लेकिन ईशान के साथ ऐसा नहीं होता। सभी लोग ईशान की शिकायत हमेशा उसके माता-पिता से करते रहते हैं। जिसके कारण ईशान के माता-पिता परेशान रहते हैं। उसे डांटते हैं, उसके पिता ये सब उसका आलस समझ थप्पड़ भी मार देते हैं। किसी भी टीचर के द्वारा पूछे जाने पर कि वह ऐसा क्यों करता है। अगर वह अपना सच बताने लग जाता है, कि उसे अक्षर जो है डांस करते हुए या नाचते हुए दिखाई देते हैं तो सब उसका मजाक उड़ाते हैं और उसे ना पढ़ने और अपना काम पूरा न करने के बहाने के रूप में लेते हैं। ईशान के पिता भी कहीं ना कहीं सोचते हैं कि ईशान आलसी है और अपने कामों से बचना चाहता है। इसीलिए तरह-तरह के बहाने बनाकर हम सभी के साथ ऐसा व्यवहार करता है ताकि उसे पढ़ाई ना करनी पड़े। उन्हें लगता है कि ईशान के लिए कड़ा अनुशासन ही सही होगा इसलिए वह उसे बोर्डिंग स्कूल में भेज देते हैं। लेकिन कोई भी ये स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि ईशान को कोई मानसिक रूप से असुविधा भी हो सकती है। बोर्डिंग स्कूल में जाने से ईशान माना करता है। ईशान के पिता कहते हैं, “ये ऐसे नहीं सुधरेगा” बोर्डिंग स्कूल जाने के नाम से ही ईशान हमेशा डरा रहता है। जब ईशान को बोर्डिंग स्कूल भेज दिया जाता है। तो वह कुंठित होना शुरू हो जाता है। ईशान अपने आप को अकेला महसूस करता है एवं वह पेंटिंग करना भी छोड़ देता है। ईशान अपने आपको इतना अकेला महसूस करता है कि वह एकदम गुमसुम सा बच्चा बन जाता है। यहाँ फ़िल्म में गाना आता है जो ईशान के अकेलेपन को दर्शाता है। (“मैं कभी, बतलाता नहीं,पर अंधेरे से डरता हूँ मैं माँ,यूँ तो मैं, दिखलाता नहीं,तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ,तुझे सब है पता, है न माँ,तुझे सब है पता... मेरी माँ भीड़ में, यूँ ना छोड़ो मुझे,घर लौट के भी आ ना पाऊँ माँ,भेज ना इतना दूर मुझको तू,याद भी,तुझको आ ना पाऊँ माँ,क्या इतना बुरा हूँ मैं माँ,क्या इतना बुरा... मेरी माँ”)10 ईशान को अपने परिवार से अलग होने में काफी आघात हुआ। जिसकी अभिव्यक्ति इस गाने के माध्यम से होती है। उसे लगता है वो इतना बुरा है कि उसके साथ कोई नहीं रहना चाहता। हालांकि बोर्डिंग स्कूल में राम शंकर निकुंभ के आने के पश्चात उन्होंने देखा कि ईशान खुश नहीं है, और कक्षा की गतिविधियों में रुचि नहीं लेता है। राम शंकर निकुंभ विशिष्ट शिक्षण शैली से वे विद्यार्थियों के बीच में जल्दी ही लोकप्रिय हो जाते हैं। वह आम टीचर से बिल्कुल अलग हैं, उनके पढ़ाने के नियम अलग हैं। वे बच्चों से उनकी कल्पनाएं उनके सपने और उनके विचार पूछते हैं और उनके अनुसार पढ़ाते हैं। नन्हे-नन्हे बच्चों का हाथ पकड़ उन्हें चलना सिखाना उनके दिल से पढ़ाई का डर भागना और उन्हें जिंदगी का असली फलसफा पढ़ाना ही उनका उद्देश्य है। (“देखो-देखो, क्या वो पेड़ है?,चादर ओढ़े या खड़ा कोई?,बारिश है या आसमान ने,छोड़ दिए हैं नल खुले कहीं,हो, हम जैसे देखें, ये जहाँ है वैसा ही,जैसी नज़र अपनी,खुल के सोचें, आओ,पंख ज़रा फैलाओ, रंग नए बिखराओ,चलो-चलो, चलो-चलो, नए ख़ाब बुन लें ओ, रट-रट के क्यूँ tanker full?(Tanker full, tanker full),आँखें बंद तो डब्बा गुल,(ओए, डब्बा गुल, डब्बा गुल),ओए, बंद दरवाज़े खोल रे(खोल रे, खोल रे, खोल रे),हो जा बिंदास, बोल रे(बोल-बोल, बोल-बोल, बोल रे)”)11 यहां ऐसे शिक्षक के बारे में देखने को मिलता है जिसकी भूमिका अपने बच्चों को केवल डंडे की मार से पढ़ाई करवाना नहीं बल्कि खेल खेल में बच्चों को बड़ी से बड़ी बात समझाना है। बच्चों को इस शिक्षक से डर नहीं लगता। बल्कि बच्चों के दिल में शिक्षक लिए डर की जगह प्यार और सम्मान भर जाता है। बच्चे ओस की बूंद की तरह एकदम शुद्ध और पवित्र होते हैं। उन्हें कल का नागरिक कहा जाता है लेकिन दुख की बात है बच्चों को अनुशासन के नाम पर तमाम बंदिशें में रहना पड़ता है।
फिल्म में राम शंकर निकुंभ द्वारा यह पता चलता है कि ईशान डिस्लेक्सिया से पीड़ित है और वह ईशान के भरोसे को जीतना चाहता है। ताकि ईशान अपने आपको किसी से कम ना समझ कर सभी की तरह साथ में पढ़ व खेल सके। वो ईशान की सभी नोटबुक को देखते हैं ,उसके घर जा कर उसके माता-पिता को समझाते हैं। इस प्रकार रामशंकर निकुंभ द्वारा ईशान का उचित रूप से मार्गदर्शन कर उसके बौद्धिक विकास में सहायता करते हैं। जब ईशान कक्षा की गतिविधिओं में भाग लेने लगता है। और अपने रंगों की दुनिया को फिर से जीना शुरू करता है। धीरे-धीरे उसमें सुधार आने लगता है अब वो अक्षरों को सीधा पढ़ एवं लिख पाता है। विद्यालय में आयोजित पेंटिंग प्रतियोगिता में भाग ले कर वह प्रथम आता है। और यहाँ (“खोलो खोलो”) गाना आता है जो बच्चों के जीवन में रंग भर देने और उनके भावों को पंख लगाने को प्रेरित करता है। (“खोलो खोलो दरवाज़े, पर्दे करो किनारे,खुटे से बँधी है हवा मिल के छुड़ाओ सारे,आ जाओ पतंग लेके, अपने ही रंग लेके,आसमान का शामियाना आज हमें है सजना,क्यूँ इस कदर हैरान तू?,मौसम का है मेहमान तू, हो, दुनिया सजी तेरे लिए,खुद को ज़रा पहचान तू,तू धूप हैं, झम से बिखर,तू है नदी ओ बेख़बर,बह चल कहीं, उड़ चल कहीं,दिल खुश जहाँ तेरी तो मंज़िल है वहीं”)12
इस फ़िल्म के माध्यम से हम देखते हैं, कि किस प्रकार बालकों का बचपन गुम हो गया है। बचपन से ही आने वाले जिंदगी की चुनौती का सामना करने के लिए तैयार किया जाता है। हर घर से टॉपर और रैंकर्स तैयार करने की कोशिश की जा रही है। कोई यह नहीं सोचता कि उनके मन में क्या है? वह क्या चाहते हैं? उनके क्या विचार है? इन्हीं सवालों और बातों को आमिर खान ने अपनी फिल्म “तारे ज़मीन पर” उठाया है। यह कोई बच्चों के लिए ही बनी फिल्म नहीं है और ना ही केवल मनोरंजन के लिए बनी है। इसमें गहरे संदेश छुपे हुए हैं। यह फिल्म माता-पिता से भी अनेक सवाल पूछती है जो अपनी महत्वाकांक्षाएं बच्चों के नाजुक कंधों पर रख देते हैं। आमिर खान एक संवाद बोलते हैं “अपने महत्वाकांक्षाओं का वज़न बच्चों के नाज़ुक कंधों पर डालना, बाल श्रम से भी बुरा है”13। इस फिल्म में बताया गया है कि हर बच्चा खास है। उसमें औरों की तरह अपने जीवन की एक अलग चमक है। पर जरूरत है एक उचित मार्गदर्शन और उन्हें समझने की। “तारे ज़मीन पर” एक संवेदनशील फ़िल्म है। जिसमे परिवार,समाज, विद्यालय, बालक, शिक्षक और अभिभावों की भूमिकाओं को समन्वय करके दिखाया गया है। आमिर खान द्वारा निर्देशित फ़िल्म " तारे ज़मीन पर" ने शिक्षकों, अभिभावकों और शिक्षा में रुचि रखने वाले अन्य लोगों का ध्यान आकर्षित किया। यह हिन्दी भाषा संदर्भ में एक ऐसी खास फ़िल्म है जो शैक्षिक सिद्धांत में योगदान दे सकती है। यह फिल्म किसी अन्य तकनीक की तुलना में लोगों की सोच, दृष्टिकोण, व्यवहार और अभ्यास को परिवर्तित करने में सहायक रही है। यह फिल्म माता-पिता और शिक्षकों के लिए समान रूप से कुछ महत्वपूर्ण संदेश देती है।
मनोवैज्ञानिकों ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि इन बालकों में असमानता के बावजूद भी ऐसी असीम संभावनाएं छुपी हैं जिनका समुचित विकास किया जाए तो यह सामान्य बालक अपने जीवन को असीम ऊंचाइयों पर ले जा सकता है। मनोविज्ञान केंद्रित हिंदी सिनेमा के निर्माण में बालकों की स्थिति, मनोरोगों की स्थिति एवं उनके आचार- व्यवहार का प्रदर्शन किया जाता है तथा इसके अतिरिक्त गंभीर बीमारियों से ग्रसित बालक एवं उसके द्वारा किए गए संघर्ष के प्रदर्शन से बालकों में आत्मनिर्भरता का विकास होता है। अतः वर्तमान में निर्देशक निर्माताओं को बाल मनोविज्ञान केंद्रित फिल्मों का अधिक से अधिक निर्माण करना चाहिए जिससे हमारी भावी पीढ़ी समाज एवं देश के विकास में सहायक हो सकें।
निष्कर्ष : साहित्य की तरह सिनेमा भी अपनी प्राण शक्ति समाज से प्राप्त करता है इसीलिए सिनेमा पर विचार करते हुए समाज के साथ उसके संबंध पर विचार करना आवश्यक है। आज के समय में सिनेमा केवल दृश्य माध्यम नहीं रह गया है यह सोचने विचारने और विमर्श करने की चीज भी हो गया है। सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो बाल और किशोर को अपनी ओर आकर्षित करता है तथा विज्ञापन भी उसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। निस्संदेह सिनेमा का अपने समय, समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थव्यवस्था, मनोविज्ञान के साथ संवाद है।
संदर्भ
:
2. मृत्युंजय, सिनेमा के सौ वर्ष, शिल्पायन प्रकाशन, शाहदरा दिल्ली, 2008, पृष्ठ 21
3. रज़ा राही मासूम (सं), कुंवरपाल सिंह, सिनेमा और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2001, पृष्ठ 11-12
4. प्रकाश मनु, हिन्दी बाल साहित्य की परंपरा और इतिहास, प्रभात प्रकाशन, 2008, पृष्ठ 17
5. फ्रायड : मनोविश्लेषण ( ‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साईको-एनैलिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद)- सिगमंड फ्रायड, राजपाल एण्ड संस, नई दिल्ली, 2022 पृष्ठ 15
6. Heidbreder, Seven psychologies, 1933, पृष्ठ 388
7. महेंद्र मित्तल, भारतीय चलचित्र, अलंकार प्रकाशन, नई दिल्ली, 1975, पृष्ठ 374
8. फ़िल्म का गीत, जमे रहो, https://www.youtube.com/watch?v=VofN1x93TG0
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