शोध सार : साहित्य, सिनेमा और समाज के अदभुत संयोग से समाज और मनुष्य निरंतरता के साथ उन्नति के मार्ग पर प्रशस्त हो सकते हैं।साहित्यिक कृति के माध्यम से समाज के जिस वास्तविक और आदर्श रूप को प्रस्तुत किया जाता है, उसी प्रकार सिनेमा भी समाज के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हमारी सामाजिक व्यवस्था तीन भागों में विभाजित है (1) उच्च वर्ग (2) मध्यम वर्ग और (3) निम्न वर्ग। निम्न वर्ग के अंतर्गत मनुष्यों का वह समूह आता है, जिसे सदियों से शोषित, पीड़ित और अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य किया गया है। प्रारंभिक दौर के लेखकों ने यदा-कदा किसी पात्र की सृष्टि कर इस वर्ग की पीड़ा को अपनी रचना के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया, किन्तु कालांतर में इस विषय और इस वर्ग के लोगों को पूर्णतः अपनी व्यथा और पीड़ा के साथ अभिव्यक्ति मिली। तात्पर्य यह कि साहित्य के उपरांत सिनेमा ने भी इस वर्ग के प्रति न सिर्फ अपनी सहानुभूति दर्शाई बल्कि दलित वर्ग के उत्थान का समाधान भी प्रस्तुत किया। परंतु आज भी इनके प्रति समाज का नकारात्मक रवैया स्पष्ट दिखता है। प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य भारतीय समाज में दलितों की वास्तविक स्थिति, उनके शोषण की क्रूर व्यथा तथा दलित मुक्ति के जटिल प्रश्नों को सुलझाने में हिंदी सिनेमा के योगदान का विश्लेषण करना है।जब तक भारतीय समाज वर्ग विशेष बहुसंख्यक समाज के प्रति हीन मानसिकता रखेगा, दलित समाज इस प्रकार अभिशप्त जीवन जीने के लिए विवश रहेगा ।ऐसे में समाज में सिनेमा की भूमिका और अधिक बढ़ जाती है।
बीज शब्द : अद्भुत, सहानुभूति, हीन मानसिकता, दलित समाज, अभिशप्त जीवन, विश्लेषण, दलित उद्धार, अमानवीय कृत्य, जन आन्दोलन, आक्रोश, दलित महिला इत्यादि।
मूल आलेख : भारतीय दलित जीवन तथा हिंदी सिनेमा के मध्य अंतर्संबंध स्थापित करने से पूर्व भारतीय दलित समाज तथा उनकी उत्पत्ति के विषय में विचार करना आवश्यक हो जाता है ।दलित कौन है? दलित शब्द पहले मराठी तथा बाद में हिंदी भाषी प्रदेशों में चलन में आया ।‘वर्ग’, ‘संप्रदाय’, ‘राष्ट्र’ की तरह ‘दलित’ भी एक वर्ग विशेष द्वारा निर्मित विचार है।किन्तु दलितों का इतिहास जाति-व्यवस्था के अस्तित्व में आने से आरम्भ हो जाता है। दलित शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत धातु ‘दल’ से हुई है जिसका अर्थ तोड़ना, हिस्से करना, कुचलना है। संस्कृत शब्दकोशों में दलित शब्द के लिए कुछ ऐसे ही विभिन्न अर्थ दिए गये हैं।मानक हिंदी-अंग्रेज़ी शब्दकोशों में दलित शब्द के लिए ‘डिप्रेस्ड’ शब्द मिलता है, इसके अतिरिक्त ‘डाउनट्रोडन’ शब्द भी मिलता है|1 वास्तव में दलित शब्द की यह व्याख्या कुछ अधूरी-सी प्रतीत होती है। विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक परिप्रेक्ष्य में दलित शब्द भिन्न-भिन्न स्वरुप ग्रहण करता है ।“आर्थिक दृष्टि से ‘दलित’ एक ‘वर्गीय’ शब्द है।भारत एक निर्धन देश है। यहाँ की अधिकतर जनसंख्या आर्थिक दृष्टि से दलित ही है ।यहाँ न केवल अछूत एवं शूद्र बल्कि ब्राम्हण, वैश्य, क्षत्रिय भी निर्धन एवं अभावग्रस्त समुदाय या ‘दलित’ वर्ग में समाहित हो जाते हैं|”2
भारत में सिनेमा का इतिहास सौ साल से अधिक पुराना है। यह न केवल महंगा माध्यम है, बल्कि तकनीकी माध्यम भी है,जिसके लिए तकनीकी जानकारों और विशेषज्ञों की जरूरत होती है। इन दोनों कारणों से सिनेमा में आरंभ से ही उच्चवर्गीय लोगों का बोलबाला रहा है। फ़िल्म उद्योग में दलित और पिछड़े समुदाय के लोग हाशिए पर भी नज़र नहीं आते।
अपवाद रूप में एक-दो उदाहरण मिल सकते हैं। हिंदी के प्रख्यात गीतकार शैलेंद्र का संबंध दलित परिवार से था, लेकिन यह तथ्य बहुप्रचारित नहीं है। इसी तरह हिंदी फ़िल्मों के लंबे इतिहास में ‘मसान’
(2015) फ़िल्म का निर्देशन करने वाले नीरज गैवान दलित समुदाय से हैं। संपन्न और शिक्षित उच्चजातीय लोगों के वर्चस्व के कारण यह स्वाभाविक है कि जाति उत्पीड़न का प्रश्न सिनेमा के लिए कई दशकों तक महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं रहा। जब-जब जन आंदोलनों ने दलित मुक्ति के सवाल को भी अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया या जनविरोधी प्रतिक्रियावादी उभार के कारण दलितों का उत्पीड़न बढ़ा, तब-तब फ़िल्मकारों का ध्यान भी उस ओर गया।
“सिनेमा सांस्कृतिक माध्यम है लेकिन प्रारंभ से ही उसके सरोकार राजनैतिक रहे हैं।जैसे सामंती मूल्यों के प्रतिकार, पाश्चात्य संस्कृति की आलोचना, नारी-पुरुष संबंधों की पुनर्व्याख्या, दलित उद्धार आदि।सिनेमा आधुनिक के अनुभव क्षेत्र में प्रवेश का बिंदु भी है ।इसलिए किसी फिल्म पाठ का अध्ययन आधुनिकता से पूछताछ करने के सामान है|”3
हिंदी सिनेमा ने अपने आरंभिक दौर से समकालीन दलित जीवन की व्यथा एवं दलित मुक्ति के महत्पूर्ण आयामों को फिल्मों में उकेरने का कार्य किया।“हिंदी सिनेमा ने भले ही शैशवकाल से ही दलित-बिम्ब को जागृत किया, किन्तु पात्र-निरूपण तथा व्याख्यात्मक निबंधन के स्तरों पर सावधानी और चालाकी बरतता रहा ।ऐसा क्यों हुआ इसके लिए हमें उस दौर से अपनी बात शुरू करनी होगी ।जब पौराणिक कहानियों पर आधारित मिथक फिल्मों का चलन घटने लगा था और जब सामाजिक विषयों को केन्द्रित करने वाली टापिकल्स अस्तित्व में आई।टापिकल्स के विभिन्न सरोकारों में दलित सरोकार भी एक था।लेकिन दलित-विषयक टापिकल्स पर एक नज़र डालने से पहले उनके राजनैतिक और ऐतिहासिक सन्दर्भों की पड़ताल करना ज़रूरी है|”4
मसलन, 1932 में जब गांधी और अम्बेडकर के बीच पूना समझौता हुआ और यह पूरे देश में चर्चा का विषय बना तब फ़िल्मकारों ने दलित प्रश्न को केंद्र में रखकर कुछ फ़िल्में बनायीं। इसी तरह समांतर सिनेमा के दौर में, मंडल आयोग के दौर में और अब सांप्रदायिक ब्राह्मणवादी उभार के दौर में दलित समस्या की ओर फ़िल्मकारों का भी ध्यान गया है। लेकिन इसके बावजूद जाति का प्रश्न सिनेमा में हाशिए तक ही सीमित रहा। अगर श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘समर’ को प्रमाण मानें तो सिनेमा में काम करने वाले कलाकार और तकनीशियन भी जातिवादी पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हैं।
भारत में कथा फ़िल्मों की शुरुआत 1913 में हुई थी, जब दादा साहब फाल्के ने ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाम की फ़िल्म बनायी थी, जो हिंदू पौराणिक कथा पर आधारित थी। 1913
से 1931 के दौरान बनने वाली अधिकतर मूक फ़िल्में धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित होती थीं। उस दौर के फ़िल्मकारों का मानना था कि हिंदुस्तान की धर्मप्राण जनता को सिनेमाघरों तक खींच लाने का तरीका यही है कि उन्हें ऐसी कहानियाँ दिखायी जाएं, जिनसे वे भलीभांति परिचित हों, जिनके प्रति उनकी श्रद्धा हो और फ़िल्म देखते हुए उनमें यह भाव पैदा न हो कि वे नये ज़माने की कोई बुरी चीज देख रहे हैं। पुराण कथाओं में जो चमत्कारपूर्ण घटनाएं वर्णित होती हैं, फ़िल्मों में उन्हें यथावत दिखाना मुमकिन था। आम दर्शकों ने इसे नयी तकनीक की देन समझने की बजाए ईश्वरीय चमत्कार के रूप में ही लिया और उनकी धार्मिक आस्था और मजबूत हुई। इस तरह आरंभिक फ़िल्मों ने दर्शकों की रूढ़िबद्ध चेतना के लिए कोई चुनौती पैदा नहीं की। इस विषय में जयप्रकाश कर्दम लिखते है कि “यह कम विडंबनापूर्ण नहीं है कि भारतीय समाज में चिंतन की हर गाड़ी जाति के स्टेशन से बचकर निकलती है जबकि दलितों की सारी समस्याओं के मूल में सबसे बड़ा कारक जाति है।भारतीय सिनेमा का नज़रिया भी इससे भिन्न नहीं है।दलितों के प्रति करुणा दिखाकर वह ‘अछूत कन्या’, ‘सुजाता’, ‘बूट पॉलिश’ जैसी फिल्मों का निर्माण तो करता है किंतु जिस तल्खी और शिद्दत से जाति के प्रश्न को उठाने की आवश्यकता है, उस तरह से नहीं उठाता|”5
औपनिवेशिक शासन द्वारा सेंसर की व्यवस्था के कारण फ़िल्मों में स्वतंत्रता संग्राम का चित्रण करना भले ही संभव न रहा हो, लेकिन धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का काम फ़िल्मों द्वारा किया जा सकता था। मूक फ़िल्मों में इसकी कोई सचेत और सामूहिक कोशिश हुई हो, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। सवाक फ़िल्मों के आरंभिक दौर में भी पौराणिक कहानियों पर फ़िल्में बनती रहीं। ‘सती सावित्री’, ‘सती अनसुया’, ‘देवयानी’, ‘द्रौपदी’, ‘सती सुलोचना’, ‘भक्त ध्रुव’, ‘भक्त प्रहलाद’ जैसी फ़िल्में बनीं और इनके द्वारा दर्शकों की धार्मिक भावना का दोहन होता रहा।
1931 और उसके बाद के दौर में कुछ ऐसी फ़िल्में भी बनीं, जिनमें जातियों में बंटे समाज की आलोचनात्मक तस्वीर पेश करने की कोशिश हुई थी। सवाक फ़िल्मों का दौर शुरू होने तक भारत की आज़ादी का आंदोलन तेज हो गया था, न केवल जनता की भागीदारी बढ़ रही थी, बल्कि अब मध्यवर्ग की सीमाओं को लांघकर किसानों, मजदूरों और शिक्षित युवाओं की भागीदारी भी काफी बढ़ गयी थी। इसका असर फ़िल्मों के मिज़ाज़ पर भी पड़ा। अब कुछ जागरूक फ़िल्मकारों द्वारा सामाजिक दृष्टि से प्रगतिशील फ़िल्में भी बनने लगी थीं।
इस दौर में भक्ति आंदोलन से जुड़े भक्त कवियों और संतों पर भी कई फ़िल्में बनीं। कलकत्ता के न्यू थियेटर्स ने अपनी स्थापना के दूसरे साल ही अपनी पहली बांग्ला फ़िल्म ‘चंडीदास’ (1932) का निर्माण किया। उसके अगले साल ही ‘राजरानी मीरा’ नाम की फ़िल्म बनी। प्रभात फ़िल्म्स ने मराठी में ‘संत तुकाराम’ (1936)
फ़िल्म बनायी। इन सब फ़िल्मों के द्वारा समाज सुधार का प्रगतिशील दृष्टिकोण पेश किया गया। ‘चंडीदास’ फ़िल्म के निर्देशक देवकी बोस थे। दो साल बाद न्यू थियेटर्स ने नितिन बोस के निर्देशन में इसे हिंदी में भी बनाया था। यह फ़िल्म बांग्ला भक्त कवि चंडीदास और एक धोबन रामी के बीच की प्रेमकथा पर आधारित है।
चंडीदास एक मंदिर में पुजारी है और रामी मंदिर में झाड़ू लगाती है। दोनों में प्रेम हो जाता है। रामी पर उसी गांव के ज़मींदार की नज़र है और वह उसे हासिल करना चाहता है, लेकिन रामी उसको ठुकरा देती है। जमींदार उसका अपहरण करवा लेता है, जिसे जमींदार की पत्नी उसके चंगुल से छुड़ा लेती है। जमींदार चंडीदास को अपने रास्ते का कांटा समझता है और मंदिर के महंत के आगे चंडीदास पर इल्जाम लगाता है कि उसके एक निम्न जाति की स्त्री रामी के साथ संबंध है। चंडीदास या तो प्रायश्चित करे या उसे दंड दिया जाए। चंडीदास प्रायश्चित के लिए तैयार हो जाता है लेकिन उसी समय घायलावस्था में रामी वहां आती है। उसकी यह दशा देखकर चंडीदास प्रायश्चित करने की बजाय वह मंदिर ही छोड़ देता है और रामी और उसके माता-पिता के साथ वहां से चला जाता है। 1933 में बनी ‘राजरानी मीरा’ में मीराबाई के जीवन के माध्यम से उन सामाजिक मर्यादाओं को जो स्त्री को पराधीन बनाते हैं, उससे मुक्ति की कोशिश को बताया गया है। इसी तरह ‘संत तुकाराम’ फ़िल्म के माध्यम से ब्राह्मणवाद की आलोचना भी की गयी है।
भक्त कवियों के साथ-साथ सीधे सामाजिक सवालों पर भी फ़िल्में बनीं। प्रभात फ़िल्म्स ने सामाजिक बुराइयों के विरोध में कई फ़िल्में बनायीं। मसलन, अनमेल विवाह पर ‘दुनिया न माने’ (1937), वेश्यावृत्ति पर ‘आदमी’ (1939),
सांप्रदायिक एकता पर ‘पड़ोसी’ (1941) आदि। जिस समय ये फ़िल्में बन रही थीं, उस समय देश में आज़ादी के आंदोलन के साथ-साथ बाबा साहब आंबेडकर के नेतृत्व में दलित अपने अधिकारों के लिए भी संघर्ष कर रहे थे। इसका असर भी फ़िल्मों पर दिखायी दे रहा था।
1936 में ही बोंबे टॉकीज ने ‘अछूत कन्या’ नामक फ़िल्म बनायी थी। इसमें एक ब्राह्मण युवक प्रताप (अशोक कुमार) और दलित युवती कस्तुरी (देविका रानी) के बीच प्रेम को कहानी का विषय बनाया गया है। जाहिर है कि उच्च वर्ग ऐसे प्रेम को और विवाह में उसकी परिणति को स्वीकार नहीं करता इसलिए दोनों की शादी अपने-अपने समाजों में ही होती है। लेकिन उन दोनों के जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटित होता है कि अंतत: अपने पति और प्रेमी का जीवन बचाने के लिए कस्तुरी को अपने जीवन का बलिदान देना पड़ता है। ‘अछूत कन्या’ के बारे में प्रहलाद अग्रवाल लिखते है कि “अछूत कन्या में छुआछूत के अमानवीय कृत्य को बड़ी तीव्रता से उकेर कर उसकी भर्त्सना हुई है।यह उस समय के लिए कोई आसान काम नहीं था ।यह बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध था और राष्ट्र इस समस्या से गहराई तक ग्रस्त था|”6
1940 के बाद दो दशकों तक सीधे तौर पर दलित समाज पर कोई उल्लेखनीय फ़िल्म हिंदी में नहीं बनीं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हिंदी फ़िल्में जातिप्रथा पर कोई दृष्टिकोण पेश नहीं करती। सतही तौर पर हिंदी का लोकप्रिय सिनेमा जाति आधारित ऊंच-नीच के भेद को अस्वीकारता नज़र आता है। “ठाकुर साहब हम गरीब हैं तो क्या, हमारी भी इज्ज्त है”। 1960-70
के दशक में हर दूसरी-तीसरी फ़िल्मों में इस तरह के संवाद सुनने को मिलते थे। लेकिन यह भी सच्चाई है कि उच्चवर्गीय अहंकार का भौंडा प्रदर्शन भी हम फ़िल्मों में देखते हैं। ‘रेशमा और शेरा’ (1971), ‘राजपूत’ (1982),
‘क्षत्रिय’ (1993)
और इस तरह की कई फ़िल्मों में इस श्रेष्ठता को विषय बनाया गया है। “हम ठाकुर हैं जान दे देंगे लेकिन किसी के सामने सिर नहीं झुकायेंगे”, “ब्राह्मण की संतान होकर तूने यह कुकर्म किया”, “एक सच्चा राजपूत ऐसा कर ही नहीं सकता|”
हिंदी फ़िल्में जाति संदर्भ की उपेक्षा करते हुए भी नायक-नायिका की कुलीनता और रक्त श्रेष्ठता को प्रबल ढंग से रखती हैं। राजकपूर की ‘आवारा’ जो ऊपरी तौर पर कुलीनतावाद और रक्त श्रेष्ठता के विचार का विरोध करती नज़र आती है, लेकिन अपने निहितार्थ में वह इन्हीं के पक्ष में खड़ी दिखायी देती है। जज रघुनाथ (पृथ्वीराज कपूर) अपनी गर्भवती पत्नी भारती (लीला चिटनिस) को इसलिए त्याग देता है कि जग्गा नामक एक अपराधी के यहां उसे एक रात बितानी पड़ी थी। रघुनाथ ने जग्गा (के एन सिंह) को चोरी के इल्जाम में जेल भेज दिया था, लेकिन साथ ही फैसला सुनाते हुए यह नस्लवादी सिद्धांत भी पेश किया था कि व्यक्ति अच्छा या बुरा जन्म से ही होता है। जग्गा इसलिए बुरा नहीं है कि वह हालात से मजबूर होकर बुरे कर्म करता है, बल्कि वह जिस परिवार में पैदा हुआ है वह ही बुरा है। जज रघुनाथ का बेटा राज (राज कपूर) का पालन-पोषण मजबूरीवश झुग्गी-बस्तियों में होता है और बुरी संगत के कारण अपराधी बन जाता है, अंतत: अपने पिता द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है जबकि जग्गा और उस जैसे गरीब लोग उसी नरक में जीने और मरने के लिए छोड़ दिये जाते हैं।राज कपूर की ही आठवें दशक में बनी फ़िल्म ‘धरम-करम’ का नायक भी “नीच” लोगों के बीच रहकर भी अपना “धरम-करम” बचाये रखता है तो इसका कारण यह है कि वह उच्च कुल का है। फ़िल्म ‘राम बलराम’ में खलनायक अपने को ठाकुर परिवार से उत्पन्न मानता है, लेकिन उसका उच्च कुल का होना आरंभ से ही संदिग्ध बना दिया जाता है। अंत में यह साबित किया जाता है कि दरअसल खलनायक का ठाकुर परिवार से कोई रक्त संबंधी रिश्ता नहीं है। खलनायक जिस वेश्या की कोख से उत्पन्न हुआ है उसका संबंध किसी नीच कुल के व्यक्ति से रहा है। खलनायक का रक्त संबंध उसी से है। निष्कर्ष यही है कि अगर खलनायक उच्च कुल का होता तो ऐसे कुकर्म कदापि नहीं करता।
भारतीय समाज में निहित जटिलताओं को कहीं ज्यादा सूक्ष्मता से चित्रित उन फ़िल्मकारों ने किया है जिन्होंने यथार्थवादी परंपरा से अपने को जोड़ा है। 1970 के लगभग भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की जो नयी लहर उभरी, उसने दलित समाज की समस्याओं को भी अपना विषय बनाया। श्याम बेनेगल ने आरंभ से ही इस ओर ध्यान दिया है। ‘अंकुर’ (1973),
‘मंथन’ (1976)
और ‘समर’ (1998) में उन्होंने दलित समस्या को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया है। इसी तरह मृणाल सेन की ‘मृगया’ (1976),
गोविंद निहलानी की फ़िल्म ‘आक्रोश’ (1980), सत्यजित राय की फ़िल्म ‘सद्गति’’ (1980),
गौतम घोष की फ़िल्म ‘पार’ (1984), प्रकाश झा की फ़िल्म ‘दामुल’ (1984),
अरुण कौल की फ़िल्म ‘दीक्षा’ (1991) और शेखर कपूर की फ़िल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में भी किसी न किसी रूप में हम दलित यथार्थ का चित्रण देख सकते हैं। ये फ़िल्में दलितों के सवाल को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखती हैं। इनमें न तो वर्गीय शोषण के सवाल को ही मूल सवाल मानकर सामाजिक उत्पीड़न के सवाल को छोड़ दिया गया है और न ही सामाजिक अन्याय के प्रश्न की आड़ में आर्थिक सवालों की उपेक्षा की गयी है। इसके अलावा ‘मातृभूमि’ फिल्म में लिंगानुपात की समस्याओं को बताया गया है।जिसके सन्दर्भ में डॉ। देवेन्द्रनाथ सिंह, डॉ। वीरेन्द्र सिंह यादव, भारतीय हिंदी सिनेमा की विकास यात्रा एक मूल्यांकन में लिखते हैं “भ्रूण में शिशु बालिकाओं एवं नवजात बालिकाओं की हत्या और घटते लिंगानुपात को संबोधित करती है|”7
हिंदी सिनेमा में दलित महिलाओं के उत्थान की बात की जाय तो यह भावना निष्क्रिय ही देख्नने को मिली है।अब तक के सिनेमाई इतिहास में दलित महिलाओं का चित्रण मात्र वस्तु, बेचारगी आदि के रूप में किया गया है, जिसका जब चाहा उपयोग किया और फेंक दिया।“कोई सवर्ण या सामंत जब चाहे तब दलित स्त्री को अपनी वासना का शिकार बना सकता है, रज़ामंदी से या जबरन|”8
वहीं दूसरी ओर ‘मंथन’ में सहकारिता का आंदोलन दलित समाज में जागरूकता का वाहक बनकर आया है। प्रेमचंद की इसी नाम की कहानी ‘सद्गति’ उच्च जातियों द्वारा बेगारी के माध्यम से दलितों के शोषण की कथा कहती है। यह फ़िल्म दलितों की एकता और दमन के खिलाफ संकल्प के साथ खड़े होने की ताकत का भी चित्रण करती है। श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘समर’ शहरी आधुनिकतावादी होने का दावा करने वाले सवर्णों में भी जातिवाद किस तरह अंदर तक बैठा हुआ है, उसका अत्यंत प्रभावशाली चित्रण करती है।
1990 के दशक में जब प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की तो आरक्षण के विरोध में देश भर में आंदोलन खड़ा हो गया। लेकिन राजनीतिक पार्टियों के लिए आरक्षण का विरोध करना संभव नहीं था, और न ही फ़िल्मकारों के लिए आरक्षण के विपक्ष में फ़िल्म बनाना संभव था। लेकिन इस पूरे दौर में ऐसा कोई फ़िल्मकार सामने नहीं आया, जो आरक्षण के पक्ष में फ़िल्म बनाये। लगभग दो दशक बाद प्रकाश झा ने जरूर आरक्षण पर ‘आरक्षण’ (2011) के नाम से फ़िल्म बनायी थी। ‘आरक्षण’ लोकप्रिय विधा में बनी एक साधारण फिल्म है।
यह फ़िल्म बनाने के वक्त तक प्रकाश झा ‘दामुल’ और ‘परिणति’ की परंपरा को बहुत पीछे छोड़ आये थे। विवादास्पद मुद्दों पर फ़िल्में बनाने के बावजूद रचनात्मकता के लिए खतरा उठाने की प्रवृत्ति उनमें नहीं हैं। यह ‘गंगाजल’ (2003), ‘राजनीति’ (2010),
आदि फ़िल्मों से भी स्पष्ट है। निश्चय ही उक्त दोनों फ़िल्मों की अपेक्षा प्रकाश झा की यह फिल्म अधिक सुलझी हुई और कम समझौतापरस्त है लेकिन है यह एक व्यावसायिक फ़िल्म ही।
यदि फ़िल्म के केंद्रीय चरित्र प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन) के नज़रिये को फ़िल्म का नज़रिया माना जाये तो यह फ़िल्म आरक्षण का न सिर्फ समर्थन करती है बल्कि प्रकारांतर से निजी शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण लागू किये जाने का प्रस्ताव भी करती है। खुद प्रकाश झा की पहले की फ़िल्मों के विपरीत इस फ़िल्म का नायक एक दलित है और खलनायक एक सवर्ण। फ़िल्म का पूर्वार्द्ध आरक्षण के मुद्दे पर केंद्रित है इसलिए आरक्षण से जुड़े तर्क चाहे वे पक्ष के हों या विपक्ष के, विभिन्न पात्रों के माध्यम से सामने आये हैं। इसके साथ ही आरक्षण विरोधी सवर्णों की दलितों और पिछड़ी जातियों के प्रति घृणा और नफ़रत भी उजागर होती है।इसे मुख्य रूप से मिथिलेश सिंह (मनोज वाजपेयी) के माध्यम से दिखाया गया है, जो उसी निजी कॉलेज का वाइस प्रिसिंपल है, जिसके प्रिसिंपल प्रभाकर आनंद है। प्रभाकर आनंद भी सवर्ण हैं लेकिन वे दलितों और पिछड़ों के विरोधी नहीं हैं। इसके विपरीत वे हमेशा उनकी मदद के लिए तत्पर रहते हैं। वे जातिवाद में विश्वास भी नहीं करते इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्हें अपनी इकलौती बेटी के एक दलित से प्रेम करने पर किसी तरह का विरोध नहीं है। यही नहीं फ़िल्म इसे समस्या के रूप में भी नहीं प्रस्तुत करता। आरक्षण विरोधी सवर्णों का जबाब फ़िल्म के दलित नायक दीपक कुमार (सैफ अली खान) की तरफ से दिलवाया गया है। दीपक कुमार के जबाब भी वे ही हैं जो दलित बुद्धिजीवियों और जातिवाद विरोधी प्रगतिशीलों द्वारा दिये जाते रहे हैं।
इस दृष्टि से देखें तो इस सारी बहस में दीपक कुमार वैचारिक दृष्टि से अधिक प्रभावशाली दिखाया गया है। इस फिल्म का नाम आरक्षण जरूर है लेकिन यह फिल्म आरक्षण की समस्या तक सीमित नहीं है बल्कि इसका केंद्रीय मुद्दा शिक्षा का बढ़ता व्यवसायीकरण है। फ़िल्म की सीमा यह है कि वह दलित यथार्थ के उन पहलुओं की पूरी तरह उपेक्षा करती है जिनके बिना आरक्षण के सवाल को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा जा सकता है और न ही सत्ता के वर्गीय चरित्र को समझे बिना शिक्षा के व्यवसायीकरण को समझा जा सकता है। ‘आरक्षण’ दरअसल इन गंभीर मुद्दों का व्यावसायिक इस्तेमाल करने की एक कोशिश कही जा सकती है।
हिंदी सिनेमा के विभिन्न पात्र सवर्णों के अत्याचार को चुप-चाप सहन नहीं करते बल्कि अब कड़े शब्दों में उनका विरोध करते देखे जाते है।“यूँ ‘आक्रोश’ का नायक बलात्कारी की हत्या करके उसे सज़ा देता है तथा ‘अंकुर’, ‘मंथन’ आदि फिल्मों में नायक भी व्यवस्था का प्रबल प्रतिकार करते हैं।किन्तु दलित व्यक्तित्व शोषण के आगे झुके नहीं, वह शोषण और अन्याय का प्रतिकार करे यह सन्देश देने वाली सबसे सशक्त फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ ही दिखाई देती है, जिसमें दलित युवती फूलन देवी सवर्णों द्वारा अपने साथ किये गये अमानुषिक अत्याचार का बदला लेती है|”9
वर्ष 2019 में आई फिल्म ‘आर्टिकल 15’ यह बताने में सफल हुई है कि भारतीय व्यवस्था किस हद तक दलितों के प्रति क्रूर और हिंसक है। फ़िल्म व्यवस्था की इस सच्चाई को, उसके अंदर की सड़न को सामने लाने में कामयाब है, जिसे पानी के प्रतीक द्वारा कई तरह से दिखाया गया है। फ़िल्म के आरंभ में ही अयान रंजन को बोतल का पानी पीने से रोका जाता है, क्योंकि वह बोतल एक पासी की दुकान से आयी है। दलितों की हड़ताल से हर तरफ लगता गंदगी का ढेर और सड़कों पर बहता गटर का पानी, उसी गटर में गंदगी साफ करने उतरते लोग, जिन्हें सवर्ण जातियां इंसान मानने से भी इनकार करती है और पूजा को ढूंढने के लिए कीचड़ भरे एक तालाब में उतरकर उसे पार करते पुलिस महकमे के लोग और उनकी अगुवाई करता अयान रंजन, जबकि निषाद इस व्यवस्था को ही बदलना चाहता है, हिंसा के रास्ते से नहीं वरन जन जागृति और जन आंदोलन के रास्ते से क्योंकि वह यह जान चुका है कि हिंसा को कुचलना व्यवस्था के लिए आसान होता है।
निष्कर्ष : समाज में व्याप्त सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व हिंदी सिनेमा में होना चाहिए।आज सिनेमा जगत में दलित जीवन का यथार्थ चित्रित करने की नितांत आवश्यकता है बल्कि कहे तो उनके जीवन संघर्ष के साथ उनके भीतर कुलबुलाते उनके आक्रोश को स्वर देना होगा ताकि समाज अपने स्तर पर उन प्रश्नों और आक्रोश को समझ सके।उनकी दीन-हीन अवस्था का चित्रण बहुत हो चुका अब उनके भीतर समय की गति के साथ जो परिवर्तन और चेतना आई है उसको पर्दे पर दर्शाने की आवश्यकता है ताकि दलितों को भी इस बात का एहसास हो कि जातिगत बेड़ियों के बंधन समय के साथ ढीले पड़ रहे हैं, समाज की मुख्यधारा से संवाद का सुन्दर अवसर सिनेमा के माध्यम से निर्मित हो रहा है, ऐसे प्रगतिशील वातावरण में हम संकीर्ण मानसिकता एवं विद्वेष नहीं बल्कि न्याय, समानता एवं आपसी बंधुत्व पर आधारित विकसित राष्ट्र की आधारशिला रख सकते हैं।
(1.) मनुष्यता के आईने में दलित साहित्य का समाजशास्त्र, पृ।18
(2.) व्यवहारिक हिंदी-अंग्रेज़ी कोश, सं। महेंद्र चतुर्वेदी एवं भोलानाथ तिवारी
(3.) हिंदी सिनेमा में दलित बिम्ब: नये सरोकार की जरुरत, कथाचित्र, पृ। 129
(4.) हिंदी सिनेमा में दलित बिम्ब: नये सरोकार की जरुरत, कथाचित्र, पृ। 135
(5.) मृत्युन्जय। (2006)। सिनेमा के सौ बरस।(सं।),शिल्पायन प्रकाशन पृ। 305-06:
(6.) बिसारिया, जे। (2012-13) हिंदी सिनेमा में प्रतिरोध की संस्कृति दलित और हाशिये का समाज। प्रजापति, महेंद्र(सं), समसामयिक सृजन, अक्टूबर-मार्च, पृ।47-62
(7.) डॉ। देवेन्द्रनाथ और डॉ।वीरेंद्र सिंह यादव(2012), भारतीय हिंदी सिनेमा की विकास यात्रा एक मूल्यांकन। दिल्ली 110094: पेसिफिक पब्लिकेशन, पृ। 317
(8.) मृत्युन्जय। (2006)। सिनेमा के सौ बरस।(सं।)। सिनेमा के सौ बरस, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, पृ। 307।
(9.) मृत्युन्जय। (2006)। सिनेमा के सौ बरस। (सं।)। सिनेमा के सौ बरस, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, पृ। 308।
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद, तेलंगाना
vikash19kushwaha@gmail.com, 7999927506
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