शोध आलेख : ऋत्विक घटक : भारतीय सिनेमा का विद्रोही चेहरा / दीपक कुमार

ऋत्विक घटक : भारतीय सिनेमा का विद्रोही चेहरा
दीपक कुमार
 

शोध सार : सिनेमा कोजन-संवादऔरकलाके रूप में देखने की परंपरा ऋत्विक घटक से शुरू होती है। ऋत्विक अपने समय के ट्रेंडसेटर रहे हैं। सत्यजित रे और मृणाल सेन जैसे फ़िल्मकारों के बीच ऋत्विक ने अपनी अलग पहचान बनायी है। सिनेमा को मनोरंजन की जगहसंवादका माध्यम बनाया। उनके द्वारा निर्देशित फिल्में अपने समय की सामाजिक वैयक्तिक पीड़ा को रूपायित करती हैं। विभाजन के बाद पनपी परिस्थितियों में बंगाली अस्मिता को लेकर ऋत्विक अधिक मुखर रहे हैं। उन्होंने फिल्मों के माध्यम से बंगाल की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने की कोशिश की है। अपनी इसी कोशिश में उन्हेंइप्टासे हटाया गया और पार्टी की सदस्यता भी उनसे छीन ली गयी। कला को जिस रूप में ऋत्विक देख रहे थे। वह अपने समय से बहुत आगे की चीज थी। आधुनिक युग में मनुष्य और मशीन का रिश्ता किस रूप में स्थायित्व प्राप्त करेगा। उसे लेकर ऋत्विक 60 के दशक में सोच रहे थे। जिसे लेकर हम आज भी ऊहापोह की स्थिति में हैं। ऋत्विक दूरदर्शी फिल्मकार थे। मुंबई की व्यावसायिक सिनेमा के साथ ही कलात्मक सिनेमा की जरूरत को महसूस कर रहे थे। अतः ऋत्विक घटक सिर्फ बंगला सिनेमा बल्कि पूरे भारतीय सिनेमा में उसहेजिमोनीको तोड़ते हैं, जिसे पोपुलर सिनेमा ने स्थापित किया था। 

बीज शब्द : भारतीय सिनेमा, समांतर सिनेमा, विभाजन, बंगाल की त्रासदी, सांस्कृतिक अलगाव, भारतीय किस्सागोई, अजांतत्रिक, मेलोड्रामा आदि।

मूल आलेख : भारतीय सिनेमा के इतिहास में क्षेत्रीय फिल्म और फ़िल्मकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कुछ फ़िल्मकार ऐसे भी हुये हैं, जिन्होंने भारतीय सिनेमा के मिजाज को ही बदल कर रख दिया। जो आगे चलकर भारतीय सिनेमा के ट्रेंडसेटर बने। ऐसे ही फ़िल्मकारों में एक नाम ऋत्विक घटक का है। ऋत्विक घटक भारतीय सिनेमा का विद्रोही चेहरा है। एक ऐसा चेहरा जिसमें आजादी के बाद का दौर साफ झलकता है, जो नए सपनों की दुनिया में दाखिल हुआ था। जो समय के साथ हाशिये पर घिसटता रहा। अपनी संवेदनाओं को अपने ही पैरों तले रौंदता रहा। जो बदलाव की आग में झुलसता रहा। कभी ठंढ से ठिठुरता रहा तो, कभी बारिश में नंगे बदन भींगता रहा। जिसने कभी जाना नहीं किसुखक्या है? औरदुखउससे भुलाया गया। वह प्रतिवादी मन जिसने सिर्फसमांतर सिनेमाकी अवधारणा को आकार दिया, बल्कि सिनेमा को जन-संवाद के रूप में अपनाया। जिस दौर में सिनेमा महज़ मनोरंजन का साधन मात्र थी। उस दौर में घटक ने सिनेमा को मानवीय जीवन की आशा-आकांक्षाओं, उसकी जटिलताओं, सघन अनुभूतियों, विघटित मनोवृत्तियों और खासकर बंगाल विभाजन से उपजी अन्तःवेदना को सिनेमा के जरिये लोगों के सामने रखा। उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बहुत कामयाब तो नहीं कही जा सकती लेकिन मानव मन को झकझोरने का काम अवश्य करती हैं। सिनेमा के लोकप्रिय चरित्र के समानान्तर एक नयी सिनेमा का चरित्र गढ़ा है ऋत्विक घटक ने।

            ऋत्विक स्वयं विभाजन की चलती फिरती अभिव्यक्ति थे। बंगाल की साझी विरासत की खंड-खंड होती तस्वीर! जो फिर कभी जुड़ नहीं पायी। जिसके टुकड़े आज भी मन के कोने में टीस पैदा करती है। घटक ने अपने जीवन में कवितायें लिखीं, कहानियाँ लिखीं, स्क्रिप्ट लिखे। साहित्य के ज़रिए ही सिनेमा की दुनिया में उतरते हैं। उनका मानना था किकविता कलाओं की कला है।1 लेकिन वे खुद को कविता और कहानियों में पूर्णतया अभिव्यक्त करने में असफल रहे। उनके भीतर संवेदनाओं की जो तीव्रता थी उसे व्यक्त करने में साहित्य के शब्द उतने कारगर थे। शायद यही कारण है कि उन्होने फिल्मों का रुख किया। ऋत्विक ने कुल आठ फिल्में बनायीं। ये आठों फिल्में भारतीय फिल्म के इतिहास में एक अलग ही मुकाम रखती हैं।नागरिकउनकी पहली फिल्म थी जो 1952 में बनकर तैयार हुई, लेकिन सन 1977 में घटक की मृत्यु के एक साल बाद प्रसारित हुई। यह फिल्म उत्तर औपनिवेशिक भारत में एक नए-नए ग्रेजुएट हुए व्यक्ति की कहानी है, जो नौकरी की तलाश में भटक रहा है। बहुतों का मानना है कि यह सत्यजित राय कीपोथेर पांचालीजैसी कलात्मक फिल्म की परंपरा से बहुत पहले बांग्ला सिनेमा में कलात्मक फिल्मों की नींव रख चुकी थी।

1960 के दशक में घटक ने एक ट्राइलॉजी बनायी जो बंगाल विभाजन की यंत्रणा को, उसकी जमीनी हकीकत को गहरे दर्शाती है। इस त्रयी मेंमेघे ढाका तारा’ (1960), ‘कोमल गंधार’ (1961) औरसुबर्णरेखा’ (1962) थी। ऐसा नहीं है कि यह पहले से सुनियोजित था। लेकिन ऋत्विक के मन में घटनाएं इस तरह घर कर के बैठी थी कि चाहते हुए भी वह शृंखलाबद्ध रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत हुयी। वे कहते हैं किमेरे इरादे के विपरीतमेघे ढाका तारा’, ‘कोमल गांधारऔरसुवर्णरेखाजैसी फ़िल्में मेरी त्रयी का हिस्सा बनीं। जब मैंने मेघे ढाका तारा शुरू किया, तो मैंने कभी राजनीतिक एकीकरण की बात नहीं सोची। अब भी मैं इसके बारे में नहीं सोचता क्योंकि इतिहास नहीं बदलेगा और मैं इस असंभव कार्य को करने का जोखिम नहीं उठाऊंगा। राजनीति और अर्थशास्त्र के कारण होने वाला सांस्कृतिक अलगाव एक ऐसी चीज़ थी, जिससे मैं कभी सहमत नहीं हुआ क्योंकि मैंने हमेशा सांस्कृतिक एकीकरण के संदर्भ में सोचा। सांस्कृतिक एकीकरण का ही विषय इन तीनों फ़िल्मों का विषय है2  दरअसल ऋत्विक फिल्में नहीं बनाते थे। वे अपने समय और समाज का कोलाज बनाते हैं। जिसमें जीवन के कई रंग एक दूसरे से टकराते हुये घुलमिल मिल जाते। जिसकी प्रतिछाया दर्शकों के मन में घर कर जाती थी।

जिस दौर में ऋत्विक फिल्म जगत में आए। उस समय सिनेमा के क्षेत्र में दो धाराएँ चल रही थीं। एक तरफ़ पोपुलरिस्ट सिनेमा थी, जिसके ध्वजवाहक सत्यजित राय थे और दूसरी तरफ़ समानांतर सिनेमा थी। जिसकी मशाल ऋत्विक घटक के हाथों में थी। दोनों ही अपने अपने क्षेत्र में बेमिसाल रहे। घटक का मन विभाजन के गहरे अवसाद को समेटे हुये था। विभाजन की पीड़ा उनके मन को मथती रहती थी। वे कहते हैं किपूर्वी बंगाल का एक बंगाली होने के नाते, मैंने स्वतंत्रता के नाम पर अपने लोगों पर होने वाले अनगिनत दुखों को देखा है- जो झूठ और दिखावा मात्र है। मैंने इसके प्रति हिंसक प्रतिक्रिया व्यक्त की है और मैंने इसके विभिन्न पहलुओं को [अपनी फिल्मों में] चित्रित करने का प्रयास किया है।3  

            फिल्मों में आने से पहले ऋत्विक भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक शाखा  इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर असोसिएशन) से जुड़े थे। जहां उन्होने 1943 से 1954 तक कला और साहित्य के ज़रिए रचनात्मक राजनीतिक आंदोलनों का नेतृत्व किया। लेकिन संगठन के ही कुछ लोगों की वजह से ऋत्विक को पार्टी छोड़नी पड़ी।उनके खिलाफ चलाए गए अभियान ने सिर्फ़ रंगमंच और सिनेमा के क्षेत्र में उनकी गतिविधियों को कमजोर किया, बल्कि उनके निजी जीवन को भी बुरी तरह प्रभावित किया4  बावजूद इसके घटक निराश नहीं हुए। उन्हें उम्मीद थी कि केन्द्रीय समिति उनकी बात सुनेगी। “1955 की शुरुआत में ही उन्होंने केन्द्रीय समिति को पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने अपने ऊपर लगाए गए सभी आरोपों को चिन्हित किया और उचित कार्यवाही की मांग की5  घटक पर इप्टा का गहरा प्रभाव था। अपनी साख के अनुरूप घटक कलाकार की सामाजिक प्रतिबद्धता में दृढ़ विश्वास रखते थे। यही कारण है कि एक समय के बाद उन्होने थिएटर छोड़कर फिल्मों का रुख किया। लेकिन फिल्मों में आने के बाद उनकी राह आसान थी। उस समय के दर्शकों ने उनकी फिल्मों को वह तरजीह नहीं दी। जिसके वे हकदार थे। ऋत्विक कलात्मक प्रवृत्ति के थे। साहित्य से उनका गहरा नाता रहा। वे किसी भी माध्यम को जन सरोकार से जोड़कर देखने के पक्षधर रहे। इसीलिए फिल्मों को उन्होने महज मनोरंजन का साधन नहीं माना। वे फिल्मों की तरफ क्यों आकर्षित हुये उसे लेकर उन्होंने अपनी पुस्तकसिनेमा एंड आईमें लिखा है कि- “प्रथमतः मैं एक लेखक था। अपने शुरुआती दौर में मैंने सौ के लगभग कहानियाँ और दो उपन्यास लिखे हैं…… फिर मैं फिल्मों में आया। फिल्मों में आने का मेरा मकसद पैसा कमाना नहीं था। बल्कि यह मेरे पीड़ित लोगों को देखकर उपजी पीड़ा और यंत्रणा को अभिव्यक्त करने की इच्छा थी6 फिल्में ऋत्विक के लिए व्यापक मंच था। ऋत्विक का मानस एक कलाकार का था। वो जीवन के हर पहलू को विस्तृत फ़लक पर देखते थे। फिर चाहे वह साहित्य हो, सिनेमा हो या फिर कला का कोई और माध्यम। कला जब तक जीवन से नहीं जुड़ती तब तक पूर्ण नहीं होती। ऋत्विक ने सिनेमा को जीवन की सघनता के बीच जिया है।

ऋत्विक घटक ने जितनी भी फिल्मों का निर्माण किया वे सामाजिक जीवन के विभिन्न रंगों को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। उनकी ऐसी ही एक फिल्म हैअजान्त्रिक इस फिल्म के कई आयाम हैं। जो हमारे मानस पर गहरा प्रभाव डालती हैं। मार्क्स ने मशीनों को मनुष्यों का शोषक माना है। लेकिन मनुष्य मशीनों को किस तरह स्वीकार करता है, इसपर सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी है यह फिल्म। जिसमें एक व्यक्ति अपनी पुरानी गाड़ी को इस तरह संवारता-सजाता है, जैसे उसकी नयी-नवेली दुल्हन हो। उसके साथ वह अपने दुख-दर्द बांटता है। उससे संवाद करता है। उसे कुछ हो जाने पर बेचैन हो उठता है, उसके बारे में बुरा-भला सुनकर गुस्से से लाल हो जाता है। यह फिल्म मनुष्य की मनुष्यता को रेखांकित करती है। ऋत्विक ने अपने एक लेख में कहा है किसिर्फ बेवकूफ लोग ही इस बात को मान सकते हैं कि उस खटारा कार में जान हो सकती है। बेवकूफ लोग जैसे बच्चे, साधारण गरीब लोग, आदिवासियों की तरह जंगली। हम शहर के लोगों के लिए यह एक पागल आदमी की कहानी है। हम खुद की कल्पना नदी और पत्थर के प्रेम में कर सकते हैं। लेकिन एक मशीन! यहाँ हम एक रेखा खींचते हैं।7 यह रेखा सभ्यता की लकीर है। सभ्य-असभ्य की बहस बहुत पुरानी है। जो आज भी किसी किसी रूप में मौजूद है। लेकिन जिस तरह से आदिवासियत को ऋत्विक घटक ने अजांत्रिक में प्रस्तुत किया है। वह नज़रिया आज भी दुर्लभ है।

            यह ऋत्विक का अपना ओबसेरवेशन था, जो समाज में रहते हुये उन्होने अर्जित किया था। यहाँ सिर्फ शहर और गाँव का ही अंतर नहीं बल्कि जीवन के प्रति दो भिन्न दर्शन का भेद भी है। एक ओर तथाकथित सभ्य समाज है, तो दूसरी ओर वे लोग हैं जो सभ्यता के सीमांत पर खड़े हैं। वे आज से नहीं सदियों से खड़े हैं। सांस्कृतिक एकीकरण की सदियों पुरानी प्रक्रिया से गुजरते हुये आज भी अपनी सामूहिकता को बचाए हुये है। जहां सबकुछ इतना सहज है कि स्वयं ही स्वीकार्य है। वह हर नयी चीज को अपनी संरचना में बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के शामिल कर लेता है। उससे एक रिश्ता जोड़ लेता है। हमारे लिए हर नयी चीज को स्वीकार कर पाना इतना सहज नहीं। हमने परंपराओं की दीवारों को इतना ऊंचा कर दिया है कि उसमें सभी का प्रवेश वर्जित है।लेकिन इन लोगों को यह परेशानी नहीं है। वे लगातार उस प्रक्रिया में हैं जो उनके रास्ते में आने वाली हर नयी चीज को अपने में समाहित कर लेती है। हमारी सभी लोक कलाओं में ऐसी समन्वयता के चिन्ह मौजूद हैं।8  

            इस फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है- मनुष्य और मशीन का रिश्ता। एक ऐसा रिश्ता जो जीवंत है। इसे देखते हुए एकबारगी ऐसा लगेगा कि ऐसे कैसे संभव है? लेकिन ऐसा है। हमारे बीच में ही ऐसे उदाहरण अपने आसपास दिख जाएंगे। लेकिन समस्या यह है कि हमने देखना छोड़ दिया है। हम वही देखते हैं, जो बाजार हमें दिखाता है। बड़े-बड़े आलीशान घरों में भी कुछ ऐसा मिल ही जाएगा। जो अपने समय के अनुरूप आधुनिक हो। कोई पुरानी टीवी, पुराना रेडियो, पुरानी कुर्सी, कोई टेबल, कोई गाड़ी, कोई घड़ी! बहुत बार ऐसा होता है कि पुरानी हो जाने के बाद भी हम किसी एक चीज को फेंकना नहीं चाहते। घर की साफ सफाई में कुछ चीजें ऐसी होती है, जिसे हम बचा लेना चाहते हैं। क्योंकि उससे हमारी संवेदना जुड़ी होती है। हमारी यादें जुड़ी होती हैं। एक रिश्ता जुड़ा होता है। हम किसी वस्तु को नहीं सँजोते बल्कि हम उन यादों, उन रिश्तों को सँजोते हैं। जो उससे जुड़ी हुई होती हैं।

            अजान्त्रिक फिल्म की शुरुआत होती है- जब दो सज्जन किसी शादी में जाने के लिए स्टेशन से उतरते हैं और गंतव्य तक जाने के लिए बिमल की गाड़ी भाड़े पर लेते हैं। लेकिन उसे देख कर उनके मन में यह शंका होती है कि पता नहीं वे समय पर पहुँच पाएंगे या नहीं। उन दोनों के संवादों में गाड़ी का जिक्र आता है। जिससे आहत होकर बिमल बिगड़ जाता है। उन्हे वह गाड़ी से नीचे उतर जाने को कहता है। एक तरफ हम देखते हैं कि पैसे के लिए लोग क्या कुछ नहीं कर जाते। वहीं बिमल को भाड़े की चिंता नहीं। उसे चिंता है अपने जगद्दल की। उसके मान-सम्मान की। बिमल ने अपनी गाड़ी का नाम जगद्दल रखा था। वह उन्हें गाड़ी से उतार देता है। उनके माफी माँगने और लाख मिन्नतों के बाद ही वापस चढ़ने देता है। सिनेमा को लेकर घटक के अपने विचार थे। "घटक का मानना ​​था कि व्यक्ति को "आर्कटाइप्स" या एक सामूहिक ढांचे की आवश्यकता होती है, जिसके माध्यम से उसका अचेतन चेतन में प्रक्षेपित हो सके।"9  ऋत्विक के अचेतन में जो था वही उनके फ़िल्मों में दिखायी देता है।

            इस फिल्म का पूरा प्लॉट छोटानागपुर के आसपास का है। जहां का आदिवासी जीवन दर्शन इस फिल्म को प्रभावित करता है। दरअसल वही जीवन दर्शन इस फिल्म का मूल है। जहां व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधाओं से इतर जीवन की सहजता में विश्वास करता है। ऋत्विक ने छोटनागपुर के आदिवासी क्षेत्रों में काम किया था। अतः वे उनके जीवन दर्शन से बखूबी वाकिफ थे। जिसका जिक्र उन्होने अपनी किताब सिनेमा एंड आई में भी किया है।

            फिल्म में एक दृश्य आता है, जब बिमल के अन्य गाड़ीवान साथी जगद्दल को बेचकर उसे नयी गाड़ी लेने की सलाह देते हैं। वे तंज करते हुए कहते हैं- नयी गाड़ी में मेंटेनेंस कम है, तेज भागती है, तेल कम खाती है, दिखने में सुंदर है। इन सभी प्रलोभनों के इतर बिमल अपनी पुरानी जगद्दल के साथ चिपका रहता है। इस पूरे दृश्य को दो तरह से देखा जा सकता है। पहला कि समय के साथ समाज का एक वर्ग बड़ी आसानी से चीजों को त्याग देता है। जैसे कि वह कभी थी ही नहीं। उसका उनके जीवन में कोई योगदान रहा ही नहीं। लेकिन वहीं एक दूसरा जीवन दर्शन भी है। जो हर चीज से जुड़ाव महसूस करता है। वह आसानी से चीजों को छोड़ नहीं पाता। वे तब तक उसे बनाए रखते हैं, जब तक उसका अस्तित्व रहता है। बिमल की सोच भी यही थी। वह जगद्दल के संदर्भ में कहता है कि- इसने मुझे रोटी दी है। इसने मुझे पाला है। आज यह पुरानी हो गयी तो इसे छोड़ कर नयी ले आऊँ। यह नहीं हो सकता। बिमल के इस विचार में आदिवासियत की झलक दिखायी देती है।

घटक ने अपनी फिल्मों मेंमेलोड्रामाका प्रयोग भी बहुतायत में किया है। अपने समय की सर्वाधिक प्रचलित शैली के रूप में चर्चितमेलोड्रामाको सभी फ़िल्मकारों ने इस्तेमाल किया है। लेकिन जिस तरह उसका प्रयोग होना चाहिए था उस रूप में नहीं किया गया। ऋत्विक लिखते हैं किमेलोड्रामा एकबहुत अधिक दुरुपयोग की जाने वाली शैलीहै, जिसमें से एकवास्तविक राष्ट्रीय सिनेमातब उभरेगा जब वास्तव में गंभीर और विचारशील कलाकार अपनी संपूर्ण बुद्धि का दबाव उस पर डालेंगे10 ऋत्विक के फिल्मों में पुरातन और अधुनातन का द्वंद, उसकी अनबन, मनुष्यों की बदलती मानसिकता का टकराव दिखायी देता है। ये द्वन्द ही उनकी फिल्मों को विशेष बनाता है।

            ‘अजांत्रिकको बनाने के दौरान जब भी कोई ऐसा क्षण आता है, जहां एकांत को मुखर रूप देना है। वहाँ ऋत्विक ने आदिवासी गीतों और माँदर की थाप का सहारा लिया है। ये अनायास नहीं है और ही सिर्फ फिलर की तरह इस्तेमाल हुआ है। दरअसल, वे जब भी सभ्यता की दीवारों से टकराते हैं, उन्हें वहीं संबल मिलता है। जब भी वे हताश होते हैं, वहाँ उन्हें ऊर्जा मिलती है। यही लोक की ताकत है। ऋत्विक ने लोक के महत्व को नकारा नहीं है बल्कि उसका प्रयोग किया है। यह पूरी फिल्म एक प्रतीक स्वरूप है। इसका हर दृश्य प्रतीकात्मक है। ऋत्विक ने अपनी फ़िल्मों में भारतीय क़िस्सागोई की परंपरा का निर्वाह किया है।लंबे समय तक भारतीय नव आधुनिकतावादियों ने भारतीय कथा-कथन के पारंपरिक रूपों को अस्वीकार किया है, तथा इसके स्थान पर पश्चिमी प्रभाव के तहत एक रेखीय यथार्थवाद को चुनते रहे हैं। घटक नेलोकके प्रयोग में, भारतीय पौराणिक विचारों जैसे किमहान माताकी परंपरा के प्रयोग में तथा कथा-कथन के प्रासंगिक रूप के प्रयोग में रे तथा अन्य नवयथार्थवादियों द्वारा स्थापित प्रवृत्ति को तोड़ा। नाटकीय, रूपात्मक तथा अपनी शैली में निश्चित रूप से भारतीय होने के कारण, वे विरोधाभासी रूप से समकालीन भारत के सबसे अधिक संवेदनशील तथा आधुनिक फिल्म-निर्माताओं में से एक के रूप में उभरे हैं।11

इससे पहले जीवन के दो भिन्न नजरिए को तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत करने का कार्य हिन्दी सिनेमा में नहीं हुआ और ही भारतीय सिनेमा में उस रूप में हो सका है, जिस रूप में इस फिल्म में किया गया है। साहित्यिक रचनाओं पर फिल्म बनाना बहुत जोखिम का काम होता है। वह तब और दुगना हो जाता है जब फिल्म बनाने वाला भी उसी मिजाज का हो। लेकिन ऋत्विक ने इस फिल्म में कलात्मकता की नयी इबारत लिखी है। साथ ही फिल्म को मनोरंजन से अधिक सामाजिक सरोकार से जोड़ कर देखने का प्रयास किया है। जो कि उनका लक्ष्य भी था। उनकी हर फिल्म अपने आप में प्रतिस्पर्धा करती है। वह समाज के बने बनाए खांचे से इतर जाकर जोखिम उठाती है। अपने समय और समाज को उसी रूप में देखने का प्रयास करती है जैसी कि वह है। ऋत्विक ने फिल्में नहीं बनायीं बल्कि फिल्मों के जरिये अपना प्रतिरोध दर्ज किया है। जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन का काम करेंगी। ख़ासकर उनके लिए जो संरचना के भीतर रहकर संरचना से विरोध रखते हैं। या जो सच कहने का जोखिम लेना चाहते हैं।

            यह फिल्म भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर है। इसने समानान्तर सिनेमा की नीव रखी थी। जब भी समानांतर सिनेमा का जिक्र होगा इस फिल्म के बिना अधूरा होगा। ऋत्विक ने कलकत्ता के भद्रलोक को भी देखा था और छोटानागपुर के तथाकथित असभ्य लोगों को भी करीब से जाना था। उन्होंने दोनों के बीच के फर्क को इस फिल्म के जरिये रचनात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है। फिल्म का अंत एक चिर स्थायी सत्य के साथ होता है कि -एक दिन सभी को जाना है। लेकिन साथ ही सभ्य समाज का वह चेहरा भी दिख जाता है। जो सभ्यता के तमाम मुलम्मों के बावजूद बहुत विकृत दिखायी देता है। जहां एक की पीड़ा दूसरे के सुख का भोजन है। जहां किसी का कलपता हुआ चेहरा दूसरे के अहं को तुष्ट करता है। समाज की इन्हीं विकृतियों को ऋत्विक ने बड़ी निर्ममता से इस फिल्म में उद्घाटित किया है। यही कारण है कि ऋत्विक अपने समकालीन फ़िल्मकारों से अलग पंक्ति में खड़े होते हैं।

संदर्भ :

  1. ऋत्विक घटक, सिनेमा एंड आई, ध्यानबिन्दु एंड आरएमटी पब्लिशर, 2015, पृ.14 
  2. सं. आशीष राजाध्यक्ष/ अमृत गंगार, घटक: आर्गुमेंट्स एंड स्टोरीज, स्क्रीन यूनिट, रिसर्च सेंटर फॉर सिनेमा स्टडीज, 1987, पृ. 92
  3. ऋत्विक, घटक, रोव्स एंड रोव्स ऑफ फेंसेस, सीगल बुक्स, कलकत्ता, 2000, पृ. 92
  4. ऋत्विक घटक, ऑन कल्चरल फ्रन्ट, ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट, 2006, पृ. 08-09
  5. वही, पृ.100
  6. ऋत्विक घटक, सिनेमा एंड आई, ध्यानबिन्दु एंड आरएमटी पब्लिशर, 2015, पृ. 19-20
  7. ऋत्विक घटक, सम थौट्स ऑन अजान्त्रिक, रोव्स एंड रोव्स ऑफ फेंसेस, सीगल बुक्स, कलकत्ता, 2000, पृ.39
  8. वही, पृ.40
  9. प्रवीना कूपर, ऋत्विक घटक मेसीऐनिक एण्ड मटीरीअल, एशियन सिनेमा, वॉल्यूम- 10, इशू-2, वर्ष-1999, पृ. 99
  10. ऋत्विक घटक, रोव्स एंड रोव्स ऑफ फेंसेस, सीगल बुक्स, कलकत्ता, 2000, पृ. 08
  11. प्रवीना कूपर, ऋत्विक घटक मेसीऐनिक एण्ड मटीरीअल, एशियन सिनेमा, वॉल्यूम- 10, इशू-2, वर्ष-1999, पृ. 96-97

 

दीपक कुमार
सहायक प्राध्यापक (हिन्दी), गोरूबथान गवर्नमेंट कॉलेज, कालिमपोंग, पश्चिम बंगाल
deep.presi@gmail.com
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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