सिनेमा के आईना में सत्यजित राय
- रामाश्रय सिंह
शोध सार : सत्यजित राय शाश्वत मानवीय मूल्य के महान कलाकार हैं। ध्रुवीकरण के खतरे से जूझती आज की दुनिया में केवल अच्छा या केवल बुरा देखने की बजाय अच्छे और बुरे को सामान संवेदना के साथ देखना सिखाती है। उनकी फिल्में केवल बंगाल या भारत की संस्कृति को सुक्ष्मता से पर्दे पर नहीं उकेरती बल्कि विविध संस्कृतियों से संवाद करती हुर्इ दर्शकों के दिलों दिमाग को जगा जाती हैं। यही खूबियां सत्यजित राय और उनकी फिल्मों को आज भी प्रासंगिक करती हैं।
बीज शब्द : भावना, दृष्टिकोण, मूल्य, निर्णय, विश्वास, सत्, सांकेतिक भाषा, प्रभावशाली इत्यादि।
मुल आलेख : सत्यजित राय आधुनिकता के उपज हैं। इनके तार यूरोपीय ज्ञानोदय से जुडते हैं। वहीं पाउलीन केल जैसे फिल्म-समीक्षक देवी का सम्बन्ध फ्रायड से जोड़ते हैं। उन्नीसवीं शती के बंगाल पुनर्जागरण के बारे में, पढ़ना चाहिए। सत्यजित राय की फिल्मों के यथार्थवाद वातावरण को निर्मित करने में अभिनय और संगीत को महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
वर्ष 1960 सत्यजित के जीवन का अत्यन्त दुखदायी वर्ष रहा। उन्नीस फरवरी को ‘देवी’ का प्रदर्शन हुआ। सत्ताइस नवम्बर को माँ सुप्रभा रे का देहांत हो गया। ढार्इ साल की अवस्था मे पिता की मृत्यु के बाद अकेले हाथ उन्होंने ही उनको गढ़ा था। पैतृक व्यवसाय डूब जाने के बाद इकतींस वर्षीय विधवा माँ ने ही खुद नौकरी करते हुए उन्हें कड़े अनुशासन में पाल पोसा था। उन्हें प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातक और षान्ति निकेतन से कला की शिक्षा लेने के लिए प्रेरित करने में भी उनकी भूमिका थी। जब पथेर पांचाली आधिक कारणों से रूक गयी थी तो फिल्म व्यवसाय को नापसंद करने के बावजूद तत्कालीन मुख्यमंत्री से (डॉ0 विद्यान चंद रे ) मदद दिलवार्इ थी। वे महान सुकुमार रे की पत्नी और सत्यजित राय की माँ नहीं थी, बल्कि एक उदाहरण थीं, कि कैसे एक सुविधा सम्पन्न सुरक्षित भद्र महिला, विपरीत परिस्थिति आने पर पितृसत्तात्मक औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक स्वतंत्र सत्ता स्थापित करती है।1
सत्यजित राय का जन्म ढाका के प्रसिद्ध ब्रह्मम समाजी, जमींदार गायक कालिनारे ण गुप्ता के परिवार में हुआ था। जब उनका जन्म हुआ उस समय उनके पिता जगत चंद्र दास डिप्टी कलेक्टर थे। उनकी माँ पाँच फीट आठ इंच लंबी, मजबूत कदकाठी की इस स्त्री की शिक्षा-दीक्षा इडेन फीमेल स्कूल, ढाका और बेथ्यून कॉलेज कोलकाता से हुर्इ थी। वे अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न महिला थी। गृह प्रबंध सिलार्इ बुनार्इ, चर्म शिल्प, मूर्तिशिल्प और गायन में अत्यन्त निपुण थीं। वे मधुमेह और हृदय रोग से पीड़ित थी। जब गंभीर बीमार पड़ी उस वक्त सत्यजित राय कोलकाता में नहीं थे। रवीन्द्र नाथ ठाकुर पर वृत्त चित्र बनाने के सिलसिले में शान्ति निकेतन गये थे। वे इस बात से बहुत खुश थीं कि रवीन्द्र नाथ पर फिल्म बनाने का जिम्मा उनके पुत्र को मिला है।2 एक दिन उनकी हालत खराब हो गर्इ पर उनको बचाया नहीं जा सका। उनकों खोने के बाद पुराने दिनों की यादें उन्हें मथ रही थीं। मैं चाहती थी कि वे दिल खोलकर रो ले, जिससे उन्हें कुछ राहत मिले। माँ की मृत्यु का उन पर गहरा असर हुआ कि वे एक मात्र संतान होने के बावजूद उन्हें मुखाग्नि देने का साहस नहीं कर सकें। यह काम अन्तत: सुप्रभा रे के चिकित्सक डॉ0 सुदृत मुखर्जी, जिन्हें वे पुत्रवत् मानती थी ने किया। अपने चालीसवें जन्मदिन पर मर्इ, 1961 में सुभास मुखोपाध्याय (1919-2003) के साथ मिलकर नर्इ साज सज्जा के साथ ‘‘संदेश’’ प्रकाशन आरम्भ किया और इसी के साथ आरम्भ हुर्इ सत्यजित राय की साहित्यिक यात्रा-
यूँ तो सत्यजित राय ने लिखना 1941 से शुरू कर दिया था। शुरूआती लेखन अंग्रेजी में था। 1953 में बंगला में लिखना शुरू किया लेकिन सिलसिलेवार ‘‘लेखन’’ संदेष का पूर्ण प्रकाश आरम्भ हुआ। इनकी पहली रचना अंग्रेजी कहानी अमृत बाजार पत्रिका में 18 मर्इ, 1941 को प्रकाशित हुर्इ थी। पहला लेख ‘‘व्हाट इज रोंग विद इंडियन फिल्मस’’ भी अंग्रेजी के स्टेट मैन में 1948 में प्रकाशित हुआ था।2 1961 से 1992 तक उन्होंने पचहत्तर से अधिक कहानियाँ लिखीं। उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएँ भी लिखी है, जिनमें 29 बंगाली में और दस अंग्रेजी में हैं। इसके अलावा तुक बंदियों का संग्रह तोड़ाय बॉधा घोडार डिम तथा मुल्ला नसरूद्दीन गल्प भी इनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। उन्होंने अनुवाद भी खूब बंगला से अंग्रेजी और अंग्रेजी से बंग्ला में किया। अपनी कृतियों के अलावा पिता सुकुमार रे और दादा उपेन्द्र किषोर रे चौधरी की कहानियों का भी अनुवाद बांग्ला से अंग्रेजी में किया। उनके कथा साहित्य की अंतर्वस्तु को देखें तो उसकी चार कोटियाँ बनार्इ जा सकती है। (1) फेलूदा की जासूसी कहानियाँ (2) प्रोफेसर शंकु के कारनामे (3) तारिणी खुडो की रोमांचक कहानियाँ और अंतिम में अन्य कहानियों को रखा गया है। एक साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि क्या वे धनी होना नहीं चाहते तो उन्होंने कहा कि वे बम्बर्इ के अभिनेताओं की तरह धनी नहीं हैं, लेकिन यह धन फिल्मों से नहीं, किताबों से आता है।3
कहना नहीं होगा उनके सम्पूर्ण लेखन को विषय वस्तु के आधार पर दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक कथा साहित्य और दूसरा फिल्मों से सम्बन्धित लेखन। फिल्म सम्बन्धी लेखन भी दो प्रकार का है। एक प्रकार लेखन में फिल्म, फिल्म की प्रवृत्ति और फिल्मकार पर विचार किया गया है, और इसी प्रकार के लेखन में स्वयं अपनी रचना-प्रक्रिया फिल्म बनाने की अपनी पद्धति और उसके विभिन्न पक्षों के बारे में लिखा गया है। सत्यजित राय का अधिकांष कथा लेखन बच्चों और किशोरों को सम्बोधित है। वे यह मानकर चलते हैं कि उनकी रचनाओं को पढ़ने वाला पाठक भी उतना ही जिज्ञासु, कुषाग्र और कल्पनाशील है जितना स्वयं कथावाचक। जासूसी, रहस्य, रोमांच और भूत प्रेत की कथाओं में कथानक की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। यही नहीं सत्यजित राय की अलौकिक विषयों पर आधारित कहानियों में ‘‘बंकू बाबू’’ का मित्र जो दूसरे ग्रह का प्राणी है, उसकी इतनी ताकतवर साबित हुर्इ कि चाहे हालीवुड में बनने वाली स्पील वर्ग की क्लोज एन काउंटर ऑफ थर्ड काइंड हो या इ.टी. की झलक भारत में कोर्इ मिल गया जैसी फिल्में सब पर उसकी छाया देखी जा सकती है।4 यहाँ ‘‘पीकू की डायरी’’ जैसी कहानी याद आती है। जिसमें एक छोटा बच्चा जिसे अभी शुद्ध वर्तनी का भी ज्ञान नहीं हुआ, अपने दादा की देखा-देखी डायरी लिखना शुरू करता है। उस डायरी से उसके माता-पिता के सम्बन्ध माँ के विवाहेत्तर सम्बन्ध और परिवार के बूढ़े सदस्यों की और उसकी नियति सबकुछ मानों अभिव्यंजित हो जाता है। कहानी-कला की दृष्टि से यह एक अद्वितीय रचना है।
फिल्मों पर उनका लेखन फिल्म क्लब आन्दोलन का हिस्सा रहा है। वे बंगाल और भारत में बनने वाली फिल्मों से निराश थे। परिणमत: लोगों में सार्थक सिनेमा के प्रति एक प्रकार की जागरूकता फैलाना अपना कर्तव्य मानते थे। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने अपने कुछ समान धर्मा मित्रों के साथ मिलकर कोलकाता फिल्म सोसायटी की स्थापना 1947 में की। उन्होंने भारतीय फिल्मों की कमियों की ओर संकेत करते हुए फिल्मकारों से यह अपील की थी कि आज भारतीय फिल्मों को और तड़क-भड़क की जरूरत नहीं है बल्कि माध्यम की कमियों के प्रति चैतन्य होने और बुद्धिमत्तापूर्ण प्रशंसा के साथ र्इमानदारी और कल्पनाशीलता की जरूरत है।5
हिन्दी फिल्मों में गाने नर्इ लहर की फिल्में और गर्म हवा, मायादर्पण दुविधा, कोदाल, जॉती फिल्मों पर अर्थपूर्ण टिप्पणियाँ भी इसमें षामिल की गर्इ है। श्याम बेनेगल की पहली फिल्म ‘‘अंकुर’’ पर विचार करते हुए सत्यजित राय लिखते है ‘‘अंकुर’’ अति नाटकीयता (मेलोड्रामा) से मुक्त नहीं है। इसी तरह ‘‘दुविधा’’ में लालरेशम और पीली पगड़ी और सफेद दीवारें और कंपायमान कर्णफूल और मेहँदी लगे हाथ और सलज्ज काली-काली आँखों पर काली-काली बरौनियाँ नाज से उठती हुर्इ, नखरे से गिरती हुर्इ ....... यह स्व आसक्ति है। किसी भी तरह के अनुशासन के साथ इसकी संगति नहीं बैठ सकती।6 मणिकौल और विषेशकर दुविधा का यह विश्लेषण आज भी अपनी स्पष्टता और विचारोत्तेजकता जनता के लिए प्रासंगिक बना हुआ है। एक लोक प्रिय माध्यम के लिए सच्ची किस्म की प्रेरणा जीवन से लेनी चाहिए और इसकी जड़े जीवन में धंसी होनी चाहिए। भारतीय फिल्मकारों को जीवन और यथार्थ का रूख करना चाहिए। हमारा आदर्श डीसिका हो सकता है, डी मिले नहीं7 सत्यजीत रे का यह आत्मनिष्ठ स्वर ज्ञान पुस्तक में ही नहीं बल्कि उनकी अन्य पुस्तकों डीप फोकस स्पीकिंग ऑफ फिल्मस, विषय, चलचित्र, शूटिंग-में हर जगह सुनार्इ पड़ता है। कहना नहीं होगा सत्यजित राय की पटकथाएँ खुद के कथा साहित्य पर भी आधारित हैं। यह सच है कि विभूति भूषण पथेर पंचाली, अशनि संकेत, रवींन्द्र नाथ (तीन कन्या चारूलता, धरे बार्इ रे), उपेन्द्र किशोर रे (गोपी गाइन बाधा बाइन) ताराषंकर (जलसाघर, अभिज्ञान) हो या प्रभात कुमार मुखर्जी (देवी) नरेन्द्र किम (महानगर) हो या प्रेमचंद (शतरंग के खिलाड़ी सद्गति) या इब्सन (गणशत्रु) जैसे रचनाकारों को भी पटकथाकार ने अपनी शर्तों पर ही फिल्म भाषा के अनुरूप अपने गद्य में ढाला। किसी व्यक्ति के जीवन को समझने के लिए उसका मनोविज्ञान समझना जितना आवश्यक है उतना ही शायद उसकी पृष्ठभूमि का समाजशास्त्र भी। उदाहरणार्थ-
फिल्म ‘‘पोस्ट मास्टर’’ की नायिका बारह-तेरह वर्षीय मातृ-पितृविहीन अनाथ रतन है जो कोलकाता से आये पोस्ट मास्टर नंद के घर में काम करती है। लेकिन जब वह गाँव की आबो-हवा से ऊबकर नौकरी से इस्तीफा देकर कोलकाता लौटने लगता है, तब वह अनुनय करती है। दादा मुझे अपने घर ले चलोगे? पोस्ट मास्टर ने हँसकर कहा, सो कैसे हो सकता है? फिर वक्त कुछ पैसे उसे देन लगता है तब ‘‘रतन धूल में लोटी पड़ी ओर उनक पैर पकड़कर बोली’’ दादा तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। पाँव पड़ती हूँ, मुझे कुछ देने की जरूरत नहीं, मेरे लिए किसी को सोच करने की जरूरत नहीं। सुशील नायक अपूर्व (सौमित्र चटर्जी) नायिका मृण्मयी (अर्पणा दास गुप्ता) गाँव और शहर के सम्बन्धों का अगला चरण ‘‘समाप्ति’’ में दिखाया गया है। उसी के गाँव की एक असाधारण ‘‘असुशील’’ अल्हड़ लड़की है। वह असाधारण इसलिए है कि जिस उम्र में उसकी शादी हो जानी चाहिए थी उसमें वह अपने हम उम्र लड़कों के साथ दिन भर घर से बाहर धमाचौकड़ी मचाए रहती है। नायक घर के लोगों की सुशील को पसंद को ठुकरा कर इसी असुशील लड़की को विवाह के लिए चुनता है। दूसरी तरफ यह असुशील लड़की इसे सजा की तरह देखती है। मानों स्वाधीन ग्रामीण जीवन को किसी पिंजरे में कैद किया जा रहा है। लेकिन विवाह के पश्चात् मृण्मयी में आये परिवर्तन को शहर और गाँव, शिक्षित और अशिक्षित सभ्यता और असभ्यता के विरोध युग्म को परस्पर विकर्शक मानने की दृश्टि को प्रश्नाकिंत करने की तरह देखा जा सकता है। संभवत: यह विरूद्धों का आकर्षण नहीं बल्कि विपरीत का आकर्षण है। इसी तरह ‘‘तीन कन्या’’ की मनिहारा फिल्म सत्यजित राय के सम्पूर्ण सिनेमा संसार के एक विशिष्ट फिल्म है। एक नर्इ दिशा देकर रे की काविलियत का पता न देकर सिर्फ स्थापत्य और गृह सज्जा के क्षेत्र में ‘‘चारूलता’’ के पूर्वगामी के रूप में अधिक स्मरण रहती है।8
सामान्यत: सत्यजित राय को बंगाल नवजागरण का9 अंतिम प्रतिनिधि माना जाता है। ‘‘चारूलता’’ फिल्म में जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम के अन्तर्सवंध को दिखलाया गया है। उसी प्रकार इसका संगीत है।
फूले-फूले ढोले ढोले बहे
किबा मृदु बाय’’।
यह थोड़ा आश्चर्य का विशय है कि जो उपन्यास नर्इ शैली और कथा साहित्य में एक नया रूप का आरम्भ कर्ता था।
निष्कर्ष : सत्यजित राय ने एक पारंपरिक यथार्थवाद फिल्म की संरचना की। उन्होंने चरित्रों के उपयुक्त सही अभिनेता की परख के लिए भी जाने जाते हैं। लेकिन मुख्य चरित्र विमला की भूमिका में स्वातिलेखा चटर्जी का चुनाव बुरी तरह से असफल रहा। अगर ‘‘चारूलता’’ के त्रिकोण-शैलेन मुखर्जी, माधवी मुखर्जी, सौमित्र चटर्जी की तुलना करें तो स्वाति लेखा ही कमजोर कड़ी साबित होती है।
अन्तत: मेरा मानना है कि फिल्म के श्रेष्ठतम अंश वे ही है जिस फ्रेम में वह है-उसकी पीड़ा और त्रासदी चारूलता और कादंबरी देवी के अकेलेपन से मेल खाती है जो अपनी तीव्रता में अत्यन्त मर्मांतक है।
संदर्भ :
- सुप्रभा रे द अन्वेक्युस्ड, एननेल प्रेस, कोलकाता, प्र0सं0 2000 पृ. 199.
- वही, पृ. 62-63.
- सत्यजित राय , स्टोरीज, सीगल बुक्स कोलकाता, 1987 पृ. x
- https://wwwbfi.org.uk/News-option.11.2.2022
- सन् 62 में संदेश के लिए लिखी गई।
- सत्यजित राय , आवर फिल्म्स देयर फिल्म्स, ओरियंट ब्लैक स्वान, दिल्ली, 2009, पृ. 22.
- वही, पृ. 104-105.
- वही, पृ. 127.
- काबुली वाला, तथा अन्य कहानियाँ, प्रबोध कुमार मजुमदार (अनुवाद) हिन्दी पाकेट बुक्स, पृ. 58.
- चिदानंद दास गुप्ता, द सिनेमा ऑफ सत्यजित राय वही, पृ. 58.
रामाश्रय सिंह
हिन्दी और अन्य भारतीय भाषा विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (उ0प्र0)
ramashryasingh@gmail.com 9555692184
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
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