शोध आलेख : साहित्य को बाल मनोविज्ञान से जोड़ती विशिष्ट कृति : शेखर एक जीवनी / साक्षी ओझा

साहित्य को बाल मनोविज्ञान से जोड़ती विशिष्ट कृति : शेखर एक जीवनी
- साक्षी ओझा


शोध सार : मनोविज्ञान का अर्थ ही हैमन का विज्ञान इसके अनुसार मनुष्य जो भी कार्य करता है, जो भाव प्रस्तुत करता है उसका केंद्र उसका मन ही है। उसकी कुंठा, उसका प्रेम सब कुछ उसके मानस में छिपा हुआ है। मनोविज्ञान का साहित्य से प्राचीन संबंध है। साहित्य को जब समाज और उसके विभिन्न अंगों का दर्पण कहा गया तो यह बात स्पष्ट हो गई कि उसके भीतर मन का प्रतिबिंब अवश्य होगा।

साहित्य में प्रौढ़ मनोविज्ञान की छाप अनेक कृतियों में हमें मिलती है। हिन्दी साहित्य में बाल मनोविज्ञान पर विस्तृत विचार विमर्श हमें 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दिखाई देने लगता है। बालक समाज के महत्वपूर्ण एवं अभिन्न अंग हैं और उनके मन का, उनकी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की समाज के और सभी वर्गों का। इसका सबसे विशिष्ट उदाहरण है अज्ञेय का उपन्यास शेखर: एक जीवनी (भाग एक) इस उपन्यास का भाग एक पूर्णतः शेखर के बचपन और किशोरावस्था पर आधारित है।

यह उपन्यास पाठकों को मात्र बालकों का अस्तित्व स्वीकारने पर ही मजबूर नहीं करता बल्कि उनके अस्तित्व, उनके व्यवहारों के पीछे कार्य-कारण संबंध को भी सूक्ष्मता से दर्शाता है।

बीज शब्द : बाल मनोविज्ञान, बालमन, मनोग्रन्थि, विकार, साहित्य और मनोविज्ञान, बाल समस्याएं, मानसिक प्रक्रिया, मनोविश्लेषण, भय, हीन भावना, मानसिक स्वास्थ्य, बाल विकास आदि।

उद्देश्य :

  1. साहित्य और मनोविज्ञान के सहसंबंध को स्पष्ट करना
  2. साहित्य के सहारे बाल मनोविज्ञान के मुख पक्षों पर प्रकाश डालना
  3. बाल मन के विकास की प्रक्रिया एवं उनकी समस्याओं को समझना

 

मूल आलेख : 20 वीं सदी के पूर्व साहित्य में यथार्थवादी, आदर्शवादी या पूर्णतः काल्पनिक कृतियों की रचना की जाती रही। फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव यहीं से हिन्दी साहित्य पर पड़ा। 20वीं सदी के अंत तक हम इसे साहित्य में पूर्ण रूप से फलता- फूलता देख सकते हैं।मनोविश्लेषणवादी साहित्य में नाम के ही अनुरूपमन का विश्लेषणकरने वाले पात्र अपनी अपनी कहानियों में गुँथे हुए नजर आते हैं। मनोविश्लेषणवादी शाखा में इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय एवं जैनेन्द्र मुख्य लेखक हैं। इन तीनों की रचनाओं पर फ्रायड के सिद्धांत का प्रखर प्रभाव है।        

            सभी प्रसिद्ध एवं प्रमाणित बाल मनोवैज्ञानिकों के अनुसार एक स्वस्थ बाल विकास के लिए कुछ तत्वों की सहभागिता अतिमहत्वपूर्ण होती है। ये तत्व ही इस पक्ष का निर्धारण करते हैं कि एक बालक/बालिका अपने प्रौढ़ जीवन में जाकर कैसे निर्णय लेते हैं और उन निर्णयों के क्या परिणाम होते हैं। ये तत्व यह भी निर्धारित करते हैं कि भविष्य में वह समाज के किस प्रकार के अंग बनेंगे। समाज के एक स्वस्थ पक्ष की ओर बढ़ने की प्रक्रिया बाल्यकाल से ही प्रारंभ हो जाती है।            इन तत्वों को यदि हम एक शब्द में बांधना चाहे तो वह शब्द होगावातावरण जिस प्रकार जीव विज्ञान भौतिक वातावरण का मानव के शारीरिक बनावट, रोध प्रतिरोधक क्षमता इत्यादि में योगदान मानती है उसी प्रकार मनोविज्ञान भी प्राणी के वातावरण का महत्व समझते हुए उसके परिणामों का अध्ययन करती है।

भौतिक वातावरण में जलवायु के अतिरिक्तवह अन्य और भी चीजें आती हैं जिन्हे देखा तथा स्पर्श किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक वातावरण से अभिप्राय व्यक्ति के व्यवहार को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाला वातावरण है।” (1)

           

उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार व्यक्ति का वातावरण मात्र उसके शारीरिक बल्कि उसके मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डालता है।

 

सन् 1941 में जब अज्ञेय द्वारा रचित शेखर: एक जीवनी का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ तो पाठकों एवं आलोचकों दोनों के लिए ही यह एक विचित्र रचना थी। भारतीय समाज के लिए सिर्फ तब बल्कि आज भी यह एक मतभेद पूर्ण कृति मानी जाती है। एक बालक के मन को इतने खुले रूप से सबके सामने लाने का साहस अज्ञेय ही कर सकते थे। एक मासूम बालक के मन-मस्तिष्क की कितनी परतें हो सकती हैं इसे उजागर करने का कार्य शेखर द्वारा अज्ञेय ने किया।

 

            “अज्ञेय विशुद्ध मानोवैज्ञानिक कथाकार हैं: वर्ण्य वस्तु और उनके विन्यास में” (2)

           

            उपन्यास के मुख्य पात्र शेखर के बाल्यकाल को बिना समझे हम युवा और प्रौढ़ शेखर को नहीं समझ सकते। और यही वास्तविक जीवन का भी नियम है। यदि हम व्यक्ति को, उसके कर्मों को, उसके भावों को सूक्ष्मतः से देखना चाहते हैं तो उसके बचपन में हमें झांकना ही होगा।

           

एक शिशु जब जन्म लेता है तो सर्वप्रथम उसके विकास का सम्पूर्ण जिम्मेदारी उसके पारिवारिक वातावरण पर होता है। अज्ञेय ने स्वयं उपन्यास में इसका वर्णन किया है कि किस प्रकार एक शिशुमन में उसके आस पास हो रही घटनाओं की छाप उसके मन-मस्तिष्क पर जन्म के बाद से ही पड़ने लगता है।

 

हम शायद कभी इस बात का ध्यान नहीं करते कि...शिशु शायद जिस समय एक आकारहीन मांसपिण्ड भर होता है, तभी सेवह एक अमिट छाप ग्रहण करने लगता है, जो उसको उत्पन्न करनेवाली तात्कालिक शक्तियों की ही नहीं होती, वरन् उससे पहले हुई असंख्य घटनाओं और बाद में होनेवाले असंख्य परिवर्तन की भी होती है यह छाप पड़ जाती है, और पड़ी रहती है, व्यक्त नहीं होती।” (3)

            शेखर के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो उसने अपने ही परिवार में स्वयं को लेकर एक प्रकार की हीन भावना महसूस की थी। उसके बड़े भाई के कॉलेज से भाग जाने के बाद उसके माता-पिता ने उसे भी उसी दृष्टि से देखना शुरू कर दिया। 

 

माँ फिर बोली, 'सच पूछो तो मैं इसका भी विश्वास नहीं करती

इसका?

शेखर ने कुछ देखा नहीं; लेकिन वहाँ बैठे भी उसकी कल्पना को वह पूरा दृश्य देखते देर नहीं लगी, वह संभ्रान्त-सा, ठहर गया-सा भाव, वह शेखर की ओर उठा हुआ अँगूठा- 'इसका!” (4)

            इस प्रकार की बातें अक्सर ही माँ-बाप ये सोचकर करते हैं कि बालकों में अभी इतनी समझ कहाँ कि वह इन बातों से आहत हो सकें। परंतु जब एक बालक को अपने निकटतम परिवेश में इस प्रकार की घटनाओं का सामना करना पड़ता है तो निश्चित ही उसका प्रभाव उसके नन्हें बालमन पर पड़ता है। बाल जीवन के यही पक्ष आगे चलकर अवसाद जैसी मानसिक बीमारियों का कारण बनते हैं जो बालक के स्वस्थ विकास में एक बड़ा अवरोध है। ऐसे प्रकरणों से एक बाल मन को विश्वास-अविश्वास के अंतरद्वन्द्व से भी जूझना पड़ता है। बालक ये समझने में असहाय हो जाता है कि यदि उसके स्वयं के परिवारजन उसके बारे में ऐसी भावना रखते हैं तो वह बाहर के समाज से सामंजस्य कैसे बैठा सकता है? इसी के परिणामस्वरूप बालकों के मन में हीन भावना जैसी मनोग्रंथियाँ जन्म लेती हैं।

 

अच्छा होता कि मैं कुत्ता होता, चूहा होता, दुर्गंधमयकीड़ा- कृमि होता- बनिस्बत इसके कि मैं वैसा आदमी होता, जिसका विश्वास नहीं है।” (5)

           

ये हीन भावना मात्र एक बचपन को ही नष्ट नहीं करती बल्कि उस बालक का पीछा उसके प्रौढ़ जीवन तक करती है। उसके वयस्क जीवन में भी वह कभी वैसा आत्मविश्वास महसूस नहीं कर पाएगा जैसा एक सफल व्यक्ति, सफल नागरिक में होने की आवश्यकता है। उसके भीतर एक भय, स्वयं को लेकर एक शंका सदैव बनी रह जाएगी जो उसके विकास में एक बाधा उत्पन्न करेगी। भय एक भावना मात्र भी हो सकती और एक विशेष प्रकार का मनोरोग भी।

 

मनोविश्लेषकों के अनुसार भय का रोग, मन में दबी किसी उलझन से पैदा होता है।” (6)

           

अर्थात यदि अपने माँ की कही हुई बातें शेखर के मन में घर कर गईं तो वह उसके भीतर ही भीतर उलझनों को जन्म देंगी, जिससे भय के रोग का आशंका बढ़ जाती है। इस रोग का कारण मात्र शब्द ही नहीं बल्कि व्यवहार भी हो सकते हैं।

 

व्यवहार-चिकित्सक इस रोग का कारण गलत परिस्थितियों में गलत व्यवहार को मानते हैं। इसके लिए एक कहानी काफी मशहूर है। एक व्यवहार चिकित्सक ने एक बच्चे को बार-बार फर वाला कोट दिखाया और हर बार इसे दिखाने के साथ उसके सिर पर डंडे से मारा। कुछ दिनों के बाद वह बच्चा बिना डंडा मारे ही फर वाले कोट को देखकर भयभीत होने लगा तथा कुछ समय के बाद भय इतना बढ़ गया कि वह हर फर वाली वस्तु से डरने लगा।” (7)

 

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो बालक मेंमनोविकृतियानि साइकोपैथी उत्पन्न हो सकती है जो उसके आने वाले जीवन के लिए समस्या जनक होगा।

 

मनोविकृति: यह व्यक्तित्व के उस स्थायी विकार को कहते हैं जिसमें रोगी अत्यधिक उत्तेजित, गैजिम्मेदार तथा असामाजिक व्यवहार करने लगता है।” (8)

 

इस परिभाषा से हम उन कई समस्याओं की जड़ को पहचान सकते हैं जिन्हे हम जन्मजात लक्षण मानकर अनदेखा कर देते हैं। डॉ. मनजीत ने व्यक्तित्व के रोग को पूर्णतः वैज्ञानिक माना है और इसके संभावित कारणों में पारिवारिक परिवेश में तनाव, माता-पिता के कटु संबंध, अलगाव, दूरी इत्यादि का उल्लेख किया है।

 

            यदि हम मनोविकृति के लक्षणों पर ध्यान दें तो हम पाएंगे कि शेखर में इनमें से कई लक्षण थे। उसका बात बात पर उत्तेजित हो जाना, अपने ट्यूशन मास्टर को जान बूझकर तंग करना जिससे वह भाग जाए, घर से बिना कुछ कहे भाग जाना इत्यादि इन्हीं लक्षणों को दर्शाते हैं। ये कुछ ऐसे व्यवहार हैं जिन्हे हम अक्सर ही बचपन का हठी स्वभाव मान कर नजरंदाज कर देते हैं। समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है समस्या को सर्वप्रथम चिन्हित करना और ऐसा हम तभी कर सकते हैं जब हमें उसके पीछे के कारणों का ज्ञान हो। शेखर के परिप्रेक्ष्य में उसका पारिवारिक वातावरण ही उसके इन विकारों का कारण था। ऐसे विकारों को कहीं कहीं कारण सहित इस उपन्यास में स्पष्ट करने का कार्य अज्ञेय ने किया है।

 

            बालकों की एक और महत्वपूर्ण शक्ति होती है अपने परिवेश की ऊर्जा को पहचान पाने की शक्ति। बालक चाहे अपने शिशुकाल में हो, बाल्यकाल में हो या किशोरावस्था में, वह सदैव अपने आस पास हो रहे व्यवहारों को समझ सकता है, उनका अनुभव कर सकता है। किसी की भवनाओं में तनिक भी परिवर्तन हो तो एक बालक को उसका भान त्वरित गति से हो जाता है।

 

किसी तरह का अलगाव या दूरी पहचानने में बच्चे बहुत तीव्र होते हैं।” (9)

 

            इस तरह की पंक्तियों के माध्यम से पाठक बालकों के संवेदनशील स्वभाव के विषय में बड़ी सरलता से परिचित हो जाता है। यही इस कृति की विशेषता है। इस कृति के पठन के पश्चात व्यक्ति को बालकों के स्वभाव का काफी कुछ ज्ञान हो जाता है जो केवल व्यावहारिक बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी सटीक है।

 

            ऐसा नहीं है कि लेखक ने शेखर को मात्र एक विकृत पात्र की तरह दर्शाया। शेखर के व्यक्तित्व के कई पहलू रहे, उनमें से कुछ एक सरल स्वाभाविक बालक के थे। बालक, जो उस आयु में एक जैसा ही सोचते और व्यवहार करते हैं। बाल्यकाल की कल्पना की कोई सीमा नहीं होती। बालक परियों के देश से लेकर आसमानों में रहने वाले दानवों तक हर चीज की कल्पना कर सकते हैं। शेखर भी कुछ क्षणों में एक सामान्य बालक होता था। उसमें भी सामान्य बालक जैसी कल्पनाशीलता थी। एक साँझ नदी किनारे सूर्यास्त निहारते हुए शेखर ने ऐसी ही एक कल्पना को जन्म दिया।

 

            जो बहुत दूर है; जिस तक पहुँचने में बहुत दिन लगते हैं, बहुत-से ऐसे दिन, जिनमें पहले ही दिन में पहले ही कुछ घण्टों में पीठ अकड़ जाती है और हाथ सुन्न पड़ जाते हैं; उस सूर्यास्त के सोने के टापू तक कैसे पहुँचा जाय?”(10)

 

            अज्ञेय ने काफी सफाई से उन कृत्यों को अलग किया है जो एक सामान्य बालक के स्वभाव में होते हैं। जैसे

 

            पतंग उड़ाने में दूसरा मज़ा भी था- कि वो शेखर को मना थी।” (11)

 

पतंग उड़ाने जैसी सामान्य दैनिक कार्यों को मना करने पर बच्चे उस तरफ और आकर्षित होकर वह कार्य करते हैं। यहमनुष्य का सामान्य स्वभाव है। वैसे ही जैसे बालहठ बालकों का सामान्य स्वभाव है। परंतु वह बालहठ किस प्रकार और किस परिप्रेक्ष्य में है उससे ही यह ज्ञात हो सकता है कि वह बालक के स्वस्थ या अस्वस्थ पक्ष को दिखती है। इसका विशेष ध्यान एक बालक के अभिभावक को ही रखना पड़ेगा। उन्हें मात्र उस हठ को नहीं बल्कि उसके पीछे के गहन कारण को देखने का प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के लिए

 

            शेखर की टाँगें ही मुक्त थीं, वह उन्हें पटकने लगा, लेकिन वह हवा से टकराकर रह गयी। तब उसने सारा जोर लगाकर अपनी पकड़ी हुई बाँह को झटका, वह छूट गयी, और जाकर चपरासी की नाक पर लगी।”(12)

 

            अब यदि हम यह घटना सामान्य परिप्रेक्ष्य में देखें तो एक साधारण बालपन की घटना सी ही प्रतीत होगी। परंतु जब हम उपन्यास और उसकी घटनाओं की दृष्टि से देखते हैं तो पाएंगे कि शेखर का इस प्रकार हठ करना मात्र पतंग उड़ाने के लिए नहीं था। उसने अपने वातावरण में अपने प्रति कोई मोह महसूस नहीं किया। पिता के प्यारे होने के बाद भी उन्होंने कभी अपना पुत्र मोह नहीं जताया, माता के मुख से स्वयं पर विश्वास होने की बात भी वह सुन चुका था। इन सभी कारणों से कहीं कहीं शेखर को लगने लगा था कि वह अप्रिय है। इस अनुभव ने उसे उन कार्यों की तरफ आकर्षित किया जो उसके लिए निषेध थे। अपने जीवन को किसी भी प्रकार नियंत्रित करने का, स्वयं अपने किये गए कर्मों-कुकर्मों को चुनने का एक भाव उसके अंदर इन कार्यों से आने लगा। यही कारण है कि चपरासी के बुलाए जाने पर उसने इस प्रकार का आवेश दिखाया।

 

            बालकों से जुड़ी हुई आज की ज्वलंत समस्या है उनके बचपन का खो जाना। आज के बच्चे बाल्यकाल में ही प्रौढ़ो सा व्यवहार करने लगे हैं और बदले में ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा करते हैं। कई बार माता पिता भी बच्चों से प्रौढ़ो सी अपेक्षा रखते हैं। परिणामस्वरूप बालकों का बालपन समय से पहले ही खो जाता है। ऐसे ही समाज के विधान पर तंज कसते हुए अज्ञेय जी ने लिखा है

 

योग्य माता-पिता वे हैं, जो बच्चों को वयःप्राप्त लोगों की तरह रहना सिखाएं’- इस एक भावना ने यौवन का जितना अपघात किया है शायद ही किसी और कानून या प्रथा या विधान ने किया होगा।” (13)

 

            इस परिप्रेक्ष्य में एक पंक्ति अतिमहत्वपूर्ण उल्लेखनीय है-

 

यदि माता-पिता अपना बचपन याद भर रख सकते तो उनकी संतान और वे स्वयं, कितने सुखी होते।” (14)

 

            लेखक बालकों के अतिसंवेदनशील बाल मन की ओर भी अपनी दृष्टि ले जाते हैं।

 

तब उसे विरति नहीं होती, हँसी नहीं आती, उसका गला भर जाता वह रोने लगता है-बहुत चुपचाप, कि कोई उसकी यह पराजय देख ले।”(15)

 

            यदि हम ऊपर दी हुई पंक्ति को एकाएक बिना परिप्रेक्ष्य के पढ़ें तो हमें ये तनिक भी एक बालक की प्रतिक्रिया नहीं लगेगी। अपना दुख अकेले झेलने जैसी मानसिकता सामान्य रूप से एक प्रौढ़ में ही पाई जाती है परंतु उपन्यास के पात्र शेखर के विषय में जब ये कहा गया तब वह मात्र एक बालक था। एक बालक, जो अपने मूल स्वभाव से ही ऐसा होता है कि अपनी पीड़ा दूसरों को बताने को तत्पर रहे वही बालक यदि ऐसी सोच-समझ रखे तो उसकी मानसिक प्रक्रिया पर ध्यान अवश्य देना चाहिए, ये बालकों की संवेदनशील भावनाओं और मानसिकता को दर्शाता है।

 

            ऐसा नहीं है कि अभिभावक सदैव ही ऐसे नकारात्मक प्रभाव जानबूझकर अपने बच्चों पर डालते हैं परंतु कई बार वह चाहते हुए भी अपने विकारों को बालकों पर थोप देते हैं। उपन्यास में शेखर के पिता एक ऐसे पात्र हैं जो कहीं से भी अपने बच्चों का अहित नहीं चाहते  परंतु इसके बाद भी उसके भीतर का मनुष्य एक सामर्थ्य का भाव चाहता है जो वह अपने बच्चों को नियंत्रित करके महसूस करता है।

 

इस सामर्थ्य की उपासना का एक रूप यह भी था कि उन्हें यह अनुभव करना अच्छा लगता था कि उनके पास शक्ति है। इसी भावना से वे कई बार अपने बच्चों के के खेल में दखल दिया करते थे। वे यह नहीं चाहते थे कि बच्चे खेलें या पढ़ें, या ऐसा करें, वैसा करें, वे यह चाहते थे कि खेलें तो इसलिए कि उन्होंने कहा, पढ़ें तो इसलिए कि उन्होंने कहा।” (16)

 

इसका अर्थ ये है कि प्रायः माता-पिता बालकों की स्वतंत्र सत्ता को नकार कर उन्हें मात्र अपनी एक संपत्ति मान कर चलते हैं जो कि कई स्तरों पर गलत है। इससे बालक की जीवन दृष्टि कभी भी स्वतंत्र नहीं हो सकेगी।

           

बालमन के इन सभी पक्षों, समस्याओं एवं विकारों को एक साथ एक ही कृति में पाठकों के समक्ष लाने का साहसी कार्य अज्ञेय ने शेखर: एक जीवनी उपन्यास के द्वारा किया। इस कृति ने हिन्दी साहित्य में एक ऐसे द्वार को खोल जिससे आगे चलकर बाल समस्याएं, बालमन, बचपन उसपर पड़ने वाले प्रभावों को साहित्य ने आत्मसात करते हुए उसपर कार्य करना शुरू किया। इस कृति से हम यह समझ सकते हैं कि किस प्रकार मानव के व्यक्तित्व में झाँकने के लिए उसके बालपन के अवशेषों का ज्ञान होना आवश्यक है। एक बालक के स्वस्थ विकास की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है। हम प्रौढों की यह जिम्मेदारी है कि हम यह सुनिश्चित करें कि हमारी अगली पीढ़ी एक स्वस्थ तन-मन के साथ बड़ी हो की तमाम मनोविकारों के साथ, क्योंकि एक स्वस्थ बचपन से ही हम एक स्वस्थ समाज की कल्पना कर सकते हैं। 

 

संदर्भ :

1) डॉ. प्रीति वर्मा,बाल मनोविज्ञान: बाल विकास, पृष्ठ 69 (प्रकाशन वर्ष 2020)
2) डॉ. देवराज उपाध्याय, आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य और मनोविज्ञान, पृष्ठ 210 (प्रथम संस्करण)
3) अज्ञेय, शेखर: एक जीवनी, प्रथम भाग, पृष्ठ 34 (संस्करण 2017)
4) वही, पृष्ठ 13
5) वही, पृष्ठ 13
6) मनजीत सिंह भाटिया, मनोरोग: गलत धारणाएँ और सही पहलू, पृष्ठ- 70 (आठवाँ संस्करण- 2020)
7) वही, पृष्ठ-70
8) वही, पृष्ठ- 101
9) अज्ञेय, शेखर: एक जीवनी, प्रथम भाग, पृष्ठ 84 (संस्करण 2017)
10) वही, पृष्ठ 96
11) वही, पृष्ठ 99
12) वही, पृष्ठ 99
13) वही, पृष्ठ 109
14) वही, पृष्ठ 109
15) वही, पृष्ठ 101
16) वही, पृष्ठ 105

 

साक्षी ओझा
शोधार्थी
पता- H. No. 1, सैनिक विहार कालोनी, बिजनौर, लखनऊ, उत्तर प्रदेश, पिन- 226002
sakshiojha190397@gmail.com, 9129568003

शोध निर्देशक 
डॉ. निशा शर्मा
हिन्दी विभाग, गुरुकुल काँगड़ी समविश्वविद्यालय, हरिद्वार, उत्तराखंड

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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