- जनार्दन
“आदिवासी अपने मालिकों, तमिलनाडु से आकर बसे हुए गोयंदरों के लिए रोजाना दिहाड़ी पर सुबह 7 से शाम 5 बजे तक काम करते हैं, पुरुषों को रोज 12 और स्त्रियों को 8 रुपए दिए जाते हैं, इतनी कम मजदूरी में जीवनयापन नहीं किया जा सकता, इसलिए उन्हें अपने बर्तन, पशु या अपनी संपत्ति गिरवी रखनी पड़ती है। यह उनके बंधुआ होने की शुरूआत है।” – रत्नाकर भेंगरा
आलेख की शुरूआत इस उद्धरण से इसलिए किया गया है, ताकि सोचा जा सके कि जो समाज पलायन करने पर मजबूर है, जिसके पास स्थाई छत की किल्लत है, और जो किसी तरह अपना पेट चला पा रहा, उस समाज के बाल साहित्य का स्वरूप कैसा हो सकता है?
आदिवासी समाज और संस्कृति की जमीन से साहित्य पर विचार करने पर यह (साहित्य) एक पूँजीवादी विचार और व्यवस्था की तरह नज़र आता है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि साहित्य की संभावना लिखाई, पढ़ाई और प्रकाशन से जुड़ा हुई है। वर्तमान समय में लिखाई कागज़ पर होती है और पढ़ाई किताब की होती है।कागज़ और किताब का मूल्य होता है। मूल्य चुकाने की क्षमता रखने वाले समाज की पहुँच ही शिक्षा तक हो सकती है। साथ इसे ठीक से संचालित करने के लिए विद्यालय और अध्यापक हुआ करते हैं। अर्थात इसका पूरा तामझाम राज्याश्रित है। यह लोककल्याणकारी राज्य का मोहताज है।
गरीब तबकों के लिए यह(शिक्षा) आज भी दुर्लभ वस्तु बनी हुई है। यही कारण है कि सर्व शिक्षा अभियान के इतने प्रयासों के बाद भी सभी आदिवासी इलाकों तक इसकी पहुँच नहीं बन पाई है। आजादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी हर गाँव को प्राथमिक पाठशालाएँ मयस्सर नहीं हो पाई हैं।इसकी वजह से आदिवासी समाज अपने तईं अपने ज्ञान को सँजोता और बाँटता है। ये तरीके परंपरागत हैं। जैसे यह समाज अक्षर से अनभिज्ञता के दौर में अपनी प्रगति करता था, वैसे ही आज भी कर रहा है। इसलिए आदिवासी बाल साहित्य के मानक वही नहीं होंगे, जो पढ़े-लिखे अभिजन समाज में व्याप्त बाल साहित्य के मानक हुआ करते हैं।
बहरहाल इस आलेख की परिधि में राज्य आधारित शिक्षा व्यवस्था नहीं है। इस आलेख की जद में आदिवासी बाल साहित्य है। प्रस्तुत आलेख में आदिवासी बाल साहित्य से संबंधित दो प्रश्नों पर विचार अपेक्षित है। पहला यह कि आदिवासीबाल साहित्य किसे कहा जाए? और दूसरा यह कि आदिवासी बाल साहित्य की संरचना अर्थात उसका स्वरूप कैसा है? दोनों प्रश्न गहन शोध की मांग करते हैं, जो भारत की आदिम भाषाओं की विविधता के देखते हुए बहुत दुरूह कार्य है। आदिवासी भाषाओं का विस्तारछ: भाषा परिवारों (इंडों आर्यन, द्रविड़ियन, सिनो-तिब्बती, नेग्रोआइड, ऑस्ट्रिक)तक है। अपने देश में 500 से अधिक आदिवासी समुदाय हैं, जिनकी अपनी निजी संस्कृति है। इतने वैविध्यपूर्ण समुदाय समुच्चय के किसी भी आयाम पर बात करना किसी एक व्यक्ति की सीमा के बाहर का कार्य है।
आदिवासी बाल साहित्य क्या है?
आदिवासी बाल साहित्य तरल साहित्य है। अर्थात यह लिखित और अलिखित दोनों रूपों में मिलता है (अलिखित अधिक, लिखित कम)। आदिवासी लोकअलिखित बाल साहित्य का मुख्य संरक्षक है। वही किस्सों, कहानियों, गीतों और नृत्यों के माध्यम समुदाय के बच्चों को नदी, पहाड़, झरने, पेड़-पौधे और जन्तुओं से परिचित कराता है। इसलिए आदिवासी बाल साहित्य का रास्ता आदिवासी लोक साहित्य से होकर गुजरता है। आदिवासी बाल साहित्य का छोटा सा रास्ता आदिवासी लिखित साहित्य से होकर गुजरता है, क्योंकि यह समाज शिक्षा की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे वह पूँजीवादी शिक्षा के मॉडल की जद में आता जा रहा है। इसीलिए वह अपनी कथाओं और लोकनायकों पर बाल पोथियाँ तैयार करके बच्चों तक पहुँचा रहा है। चूँकि पढ़ाई और छपाई की व्यवस्था आदिवासी भाषाओं में नहीं हैं, इसलिए आदिवासी बाल साहित्य दूसरी भाषाओं और लिपियों में तैयार हो रहा है।
आदिवासी बाल साहित्य मौखिक रूप में पाया जाता है। यह कथाओं, गाथाओं और गीतों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुँचता है। पढ़े-लिखे समाज की बाल पोथियों में नाचते-गाते हुए जंगली जानवर बच्चों का मनोरंजनकरते हैं। पढ़े लिखे समाज द्वारा तैयार बाल पोथियों में जंगल भी शहरकृत रूप में दिखाए जाते हैं। मगर आदिवासी बाल कथाओं में जंगल अपने प्राकृतिक रूप में आते हैं। वहाँ जंगल के जानवर इंसानों का मनोरंजन नहीं करते, बल्कि जंगल के जानवर, पेड़-पौधे पुरखों की तरह परिवार के सदस्य के रूप में देखे जाते हैं। आदिवासी बाल साहित्य में जानवरों को इंसान का नकल नहीं करना पड़ता, बल्कि इंसान और जानवर दोनों मिलकर एक दूसरे की भाषा, लय और जीने का तौर तरीका सीखते हैं। उदाहरण के रूप में "मानव शावक" और "रिक्की-टिक्की-टावी" (रुडयार्ड किपलिंग के दं जंगल बुक के चरित्र)।
प्रत्येक समाज की तरह आदिवासी समाज भी अपने बच्चों को जिंदगी की चुनौतियों के लिए तैयार करता है। इसके लिए उनके पास अपनी परंपराएँ हैं। साथ ही कुछ सामुदायिक संवाद के स्थल जैसे चौपाल, अखड़ा, मेले और पर्व हैं, जहाँ बाल कथाएँ कही-सुनी जाती हैं। इसके साथ आदिवासी समाज ने कुछ आदिम संस्थानों का भी निर्माण किया है, जैसे धुमकुड़िया, लुरकुड़िया और गोटुल आदि। इन आदिम संस्थानों में गीतों और गाथाओं द्वारा से प्रकृति, मैथुन और परिवार संरचना की जानकारी दी जाती है। बच्चे यहाँ रहते हुए बाल गाथाओं को सुनते-समझते हुए परिवेश और परिवार का ज्ञान प्राप्त करते हैं। उदाहरण के रूप में मध्य प्रदेश के आदिवासी गाँव और गोटुलों में बच्चे यह गीत अक्सर दोहराते हैं–
छित्ता मड़ा जीवुर जाऊर – 2
मरका मड़ा डोलारा – डोलारा
नावा बाईना – मरका मड़ा डोलारा
नोटे के मन्नेर दाऊर दाई
तोरसी जावा उन्नेना – उन्नेना
नावा बाईना – मरका मड़ा डोलारा।
(स्रोत – कोईतुर, लेखक – टेक सिंह तेकाम, पृ.7, 2012)
अर्थात
आम है बेटा
ईमली है बेटी
आम की छाया
घनी छाया
ईमली की छाया
कम घनी छाया।
यह एक आदिवासी गीत है, जिसमें गाँव और घर की भलाई और विकास के लिए आम-ईमली अर्थात बेटा-बेटी दोनों को समान रूप से ज़रूरी माना गया है। बेटा-बेटी समाज के भविष्य होते हैं। समाज को आगे बढ़ाने के लिए इनका सुरक्षित होना जरूरी है। इसी तरह आम और ईमली अर्थात वृक्ष भी जंगल को आकर्षक बनाते हैं। उनकी पत्तियाँ धरती को छाया देती हैं। उनकी डालियों पर पक्षी घोसला बनाते हैं। यह गीत जीववाद (ANIMISM) का गीत है, जहाँगीत के माध्यम से आदिवासी बच्चों को हर तरह के पेड़ों से प्रेम करना सिखाया जाता है। इसी आदिवासी बाल लोक मन की अभिव्यक्ति आदिवासी कविताओं में भी दखल देती दिखाई पड़ती है -
कुल्हाड़ियों के वार सहते
किसी पेड़ की हिलती टहनियों में
दिखाई पड़े हैं तुम्हें
बचाव के लिए पुकारते हजारों-हजार हाथ?
(बूढ़ी पृथ्वी का दुख, नगाड़े की तरह बजते शब्द, निर्मला पुतुल भारतीय ज्ञानपीठ पृ. 31, दूसरा - 2005)
आदिवासी समाज के पास बच्चों को इतिहास, संस्कृति और प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए तमाम मौखिक पाठ (जिसे वे पुरखौती कहते हैं) उपलब्ध हैं। ऐसी ही लोक संवेदनाओं से निर्मित बच्चे और बच्चियाँ आगे चलकर प्रकृति और पर्यावरण बचाने के लिए (जैसे चिपको आंदोलन) खड़ा हो पाती हैं। मुंडा समुदाय खेती-किसान करने वाला समाज है। इस समुदाय में पानी और नदी की पवित्रता को बनाए रखने की कथाएँ प्रचलित हैं, जिन्हें बच्चों को सुनाया जाता है। प्रोफेसर रामदयाल मुंडा इन कथाओं के भाव का काव्यांतरण किया है, जिसमें दो - एक को यहाँ दिया जाता है –
संस्कार
नदी
हमें नहलाती है,
धुलाती है
नदी
हमें समुंदर से मिलाती है।
अभिन्नता
नदी जब सूख जाती है
तो उसके दो किनारों को अंतर
मिट जाता है।
चीटियों की बारात
उनके पुराने संबंध को
नवीनता देती है।
(नदी तथा उसके संबंधी एवं अन्य नगीत, डॉ. रामदयाल मुण्डा, पृ.1, झारखण्ड साहित्य परिषद, संस्करण – 1980)
इसी तरह भील बच्चों के जुबान पर एक गीत प्राय: सुनने को मिलता है। इस गीत से दो आदिम समुदायों की साझी विरासत का इजहार भी होता है, वह गीत है –
आवनगढ़ मा आगी लगय बावनगढ़ कुम्हलाय
अस्सी कोस के जीव जंतु रोवाथय रे
(अर्जुन सिंह धुर्वे, बैगा गीत, आदिवासी लोक कला एवं तुलसी साहित्य अकादमी
मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद, भोपाल, पृ 30, 2010)
यह गीत बैगा समुदाय के बच्चे गाते हैं।यह गीत उनके लिए समूहगान की तरह है।इसगीत में आवनगढ़ और बावनगढ़ का नाम आया है। आज भी बैगा क्षेत्र में आवनगढ़ नाम का बड़ा जंगल है। यह जंगल अस्सी कोस में फैला हुआ है। जहाँ तक बावनगढ़ का सवाल है, यह गोंडवाना साम्राज्य का इलाका है, जो अंग्रेजों के आने तक किसी न किसी रूप में कायम था। गीत में यह भाव आया है कि जब आवनगढ़ अर्थात विशाल जंगल में आग लग गई थी, तब बावनगढ़ साम्राज्य कुम्हला अर्थात निराप्रभ हो गया था। यह गीत दर्शाता है कि साम्राज्य और जंगल का आपसदारी बहुत घनी थी। राज का रहन-सहन सब कुछ जंगल पर आधारित था। इसीलिए जंगल में आग लगने से साम्राज्य के लोग परेशान हो गए। यह गीत पारस्परिक निर्भरता का गीत है। इस गीत में दो आदिम समुदायों की आपसदारी और इतिहास बोध आया हुआ है।
आदिवासी बाल लोक साहित्य में संस्कृति और इतिहासबोध का घनत्व पढ़े-लिखे उपभोक्तावादी समाज के बाल साहित्य की तुलना में बहुत अधिक होता है। उपभोक्तावादी समाज के बाल साहित्य में आने वाले रूपक कमोडिटी कल्चर अर्थात वस्तु संस्कृति के होते हैं। इस बाल साहित्य पर शहर का दबाव अधिक है, इसमें गाँव का जीवनबोध कम दिखाई देता है। आदिवासी बाल लोक साहित्य अभी भी वस्तु संस्कृति से अछूता है। इस साहित्य में अभी पुरखों का पूरा सम्मान दिखाई देता है। अरुणाचल प्रदेश के न्यीशी आदिवासी समुदाय में ‘उई मोक’ (प्रेतात्माओं का लोक) की लोककथा प्रचलित है। यह लोककथा न्यीशी समुदाय के घरों में बच्चों को सुनाई जाती है। इस लोककथा में जीवन और मृत्यु के बाद की स्थिति का वर्णन है। कथा की मुख्य चरित्र यानाम नाम की एक बच्ची है। उसके पिता की जब मृत्यु होती है, तो वह सदमें में आ जाती है। कब्र खोदती है और पिता के साथ रहना चाहती है। पिता की आत्मा का पीछा करते हुए वह अपने पुरखों तक पहुँच जाती है। वह पुरखों के रहने की जिद करती है और कहती है कि आप लोग मुझे अपने साथ रख लें, तब प्रेतात्मा लोक के आदि पुरखा समझाते हुए कहते हैं – “सारी शक्ति की एक सीमा होती है। जो शक्ति किसी सीमा में नहीं बँधती वह तो विनाशकारी शक्ति ही हो सकती है। मैं लाचार हूँ। मैं प्रकृति के नियम से बँधा हूँ और प्रकृति के नियम से आप सभी भली-भाँति परिचित हैं। किसी मृतक की आत्मा ही इस लोक में प्रवेश पा सकती है, कोई जीवित मनुष्य नहीं। इस लोक में प्रवेश करने का यानाम को कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि उसकी अब तक मत्यु नहीं हुई है। यानाम दीर्घायु प्राप्त है। तानी-मोक में जब उसका समय पूरा हो जाएगा, तो निश्चित ही उसे इधर ही आना होगा। इन दो लोकों का विभाजन मैंने नहीं प्रकृति ने निर्धारित किया है। मनुष्य रूप में यानाम कभी भी हमारे बीच में सम्मिलित नहीं हो सकती और न हम प्रेतात्मा उनके लोक में। किसी को भी चाहे मनुष्य हो या प्रेत एक दूसरे के लोक में अतिक्रमण का अधिकार नहीं है। हम सबको प्रकृति के नियम का आदर करना होगा।”(स्रोत – जमुना बीनी, उई-मोक, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल, पृ.7, 2020)
अभिजात्य समाज द्वारा रचित बाल साहित्य में मृत्यु के उल्लेख करने से परहेज किया जाता है। चूँकि अभिजात्य समाज मृत्यु को नकारात्मक मानता है। इस समाज में प्रेतात्माओं को विनाश का माना जाता है। यह समाज प्रेतों को शैतान अथवा शत्रु के देखता है। इसलिए इस समाज के बच्चे भूत-प्रेत से डरते हैं। मृत्यु उनके लिए असहज घटना है। अगर इस बाल लोककथा का अवलोकन करें, तो कई जीवन में सामने आते हैं, जैसे जीवन की तरह मृत्यु भी सहज घटना है। जीवन की पात्रता की तरह मृत्यु की भी पात्रता होती है। जीवित लोगों की ही प्रेतात्माओं को भी प्रकृति के नियमों का पालन करना पड़ता है। प्रेतात्माएँ पृथ्वी लोक पर नहीं आ सकती हैं। प्रकृति ने उनकी सीमा तय कर दी है। गौर करने वाली बात है कि यह बाल लोककथा जीवन, मृत्यु, प्रेत की बात करते हुए भी अंधविश्वास और जीवन में प्रेतों के आगमन का समर्थन न करते हुए, बहुत सलीके प्रकृति और जीवन-मृत्यु की मर्यादा का पाठ पढ़ाती है।
कुछ आदिवासी समाज में प्रेत डर का नहीं मनोरंजन का विषय है। मिसिंग आदिवासी समुदाय में कुछ बाल गीत प्रचलित हैं, जिसमें एक बाल गीत इस प्रकार है –
आमा ओ किरिंड्ग करांड्ग
ताये:
तक किरिंगड्ग करांड्ग
बोलो: का कइ क:लृंग बृ गृद गृद
(स्रोत-अनुशब्द (संपादक), पूर्वोत्तर भारत का जनजातीय साहित्य, पृ.91, वाणी प्रकाशन, 2017)
यह बाल आदिवासी गीत दरअसल बाल आदिवासी चरवाहा गीत है। इस गीत में बच्चे अपने मृतक मामा के भूत को बुलाते हैं, ताकि वह उनका मनोरंजन करे। आदिवासी बाल लोक साहित्य बच्चों का सिर्फ मनोरंजन नहीं करता, बल्कि उन्हें निडर और लोकतांत्रिक बनाता है। इसके विपरित अगर अभिजन समाज के बाल साहित्य के लिखित रूप को देखा जाए, तो वहाँ जंगली जानवर मनुष्य की शर्तों वाला जीवन जीते हुए दिखाए जाते हैं – कहीं कालू का भालू नाचता है, तो कहीं मेढक ढोल बजाते हुए आता है। ऐसे बिंब बच्चों में अलोकतांत्रिक मूल्यों का सृजन करते हैं। ऐसे बच्चे बचपन के गीतों और कथाओं के माध्यम से पशुओं और जानवरों को अपने मातहत के रूप में देखने लगते हैं।
आदिवासी समुदाय में कुछ ऐसी संस्थाएँ होती हैं, जहाँ बच्चों और किशोर-किशोरियों को गीतों व कथाओं के माध्यम से जिंदगी का पाठ पढ़ाया जाता है। ये संस्थाएँ हैं – गोटुल और धुमकुड़िया। इन संस्थानों में पुरखौती (पुरखों की कथा) के माध्यम से बच्चों को अपने इतिहास, संस्कृति और प्रकृति के विषय में ज्ञान कराया जाता है। गोटुल में बच्चों को करसाड़, करम और पोड़ा जैसे पर्वों के पीछे की कथा बताई जाती है। गोडुल जिंदगी की पाठशाला की तरह कार्य करता है। आज भी गोटुल और धुमकुड़िया मौखिक रूप से आदिवासी बाल साहित्य के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दोनों संस्थानों मौखिक रूप से पुरखों के इतिहास से परिचित कराया जाता है।
आदिवासी बाल साहित्य की संरचना कैसी है? - आदिवासी बाल साहित्य की भूमिका से ही, काफी हद तक इस प्रश्न का समाधान हो जाता है। संरचना का अभिप्राय बाल आदिवासी बाल साहित्य की आंतरिक बनावट और लय से है। इसं संदर्भ में एक गोटुल गीत को लिया जा सकता है। यह गीत गोटुल में प्रवेश करने के दौरान ही रटा दिया जाता है। इस गीत का वास्तविक मर्म बच्चे-बच्चियाँ मोटियार (किशोर) मोटियारिन (किशोरी) बनने के बाद समझ पाते हैं। गीत इस प्रकार है –
साजा रूख
अवाक चिरई
हाले रूख
गाए चिरई!
(स्रोत –देवेंद्र सत्यार्थी, लोक निबंध, पृ.268, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, 2013)
गीत का अर्थ समझने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि यह गीत बच्चों और किशोरों, किशोरियों दोनों को सीखाया जाता है। बच्चों को पहेली के रूप में और किशोर-किशोरियों को करम गीत की घोर श्रृंगारिक भाव के रूप में। बच्चों के लिए इस गीत की व्याख्या है – चिड़िया को बैठने के लिए साज के पेंड़ का होना ज़रूरी है। साज का पेड़ रहेगा, तो चिड़िया उसकी शाखाओं पर बैठेगी और गाएगी। इस गीत का अभिप्राय किशोर-किशोरियों के लिए इस प्रकार है –साज के वृक्ष पर चिड़िया अवाक बैठी है; वृक्ष हिलता है और चिड़िया गा उठती है। गोंड समुदाय के युवा हो रहे किशोर-किशोरियों के लिए यह गीत करमा नृत्य का युगल नृत्य गीत बन जाता है। इस तरह अवस्था बदलने पर गीत का अर्थ बदल जाता है। आदिवासी समुदाय में ऐसे कई गीत हैं, जो उम्र के दूसरे पड़ाव पर दूसरा अर्थ ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार आदिवासी बाल साहित्य के अर्थ और लय की व्याख्या में अवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
विषयवस्तु की दृष्टि से आदिवासी बाल लोक साहित्य, प्रकृति के साथ लोक संस्कृति, मिथ कथाओं और आदिम नायकों के जीवन पर आधारित होता है। आकृति की दृष्टि से आदिवासी साहित्य की ही तरह आदिवासी बाल लोक साहित्य भी बाँचने और नाचने का साहित्य है, अर्थात सहगान का साहित्य है। इसीलिए आदिवासी बाल साहित्य में संगीतात्मकता पाई जाती है। आदिवासी साहित्य की ही तरह आदिवासी बाल लोक साहित्य भी मिलकर सुनने और मिलकर नाचने का साहित्य है।
एक समय था, जब अफ्रीका के देशों में बाल साहित्य की स्थिति अच्छी नहीं थी। औपनिवेशिक दौर में वहाँ के छोटे से पढ़े-लिखे दायरे में यूरोपीय लेखकों द्वारा रचित बाल साहित्य की खपत होती थी। उस समय यूरोप से बाल साहित्य का निर्यात किया अफ्रीका में होता था। लेकिन अफ्रीका के तमाम मुल्कों के आजाद होने और शिक्षा के लोकतांत्रिकरण होने के बाद वहाँ के लेखक अपनी भाषाओं में बाल साहित्य का निर्माण करने लगे। इससे यूरोपीय बाल साहित्य का बाजार अफ्रीका में कम हुआ। वहाँ साइप्रियन एकवेन्सी, नकेम न्वानकवो और टेरेसा मेनिरू जैसे बाल साहित्यकार बाल साहित्य रचने लगे हैं। भारत के आदिवासी इलाकों में शिक्षा का प्रभावकारी वितरण नहीं हो पाया है। जो थोड़े बहुत आदिवासी लोग पढ़कर आ रहे हैं, वह पलायन, भूखमरी, बेरोजगारी और हिंसा की कहानियाँ और गीत रच रहे हैं, क्योंकि ये सारी समस्याएँ तत्कालीन हैं, जो उन्हें बच्चों के लिए साहित्य रचने से रोकती हैं। बहुत छोटे पैमाने पर कुछ पोथियाँ जरूर तैयार हुई हैं, वह भी हिन्दी, अंग्रेजी या राज्य भाषाओं में। यही कारण है कि आजादी लगभग आठ दशक बाद भी आदिवासी बाल साहित्य का लिखित मानचित्र अभी तक नहीं उभर पाया है।
प्राध्यापक, हिन्दी एवं आधनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज 211002
एक टिप्पणी भेजें