सिनेमा का साहित्य पक्ष
- महेन्द्र कुमार त्रिपाठी
हिंदी सिनेमा ने न केवल हिंदी साहित्य बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की साहित्यिक कृतियों को भी अपनी फिल्मी कहानियों का आधार बनाया, जिससे वे कृतियाँ अमर हो गईं और व्यापक दर्शक वर्ग ने उन्हें सराहा। सिनेमा ने साहित्य को तथा साहित्य ने सिनेमा को समृद्ध किया है। बहुत से रचनाकारों की रचनाओं ने सिनेमा का साथ पाकर लोकप्रियता के शिखर को स्पर्श किया। केवल हिंदी ही नहीं वरन अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को आधार बनाकर हिंदी में सिनेमा का निर्माण हुआ और सिनेमा का साथ पाकर वे कृतियां अमर हो गयीं। साहित्य- विचारों, भावनाओं और समाज की वास्तविकताओं को शब्दों में पिरोता है, जबकि सिनेमा उन विचारों को दृश्य रूप में प्रस्तुत कर जन-जन तक पहुँचाने का कार्य करता है। दोनों ही माध्यमों का आपसी संबंध गहरा है और इसने कई रचनाओं को अमर बना दिया है।कई साहित्यिक कृतियाँ, जो अपने समय में सीमित पाठक वर्ग तक ही पहुँचीं थीं, सिनेमा के माध्यम से व्यापक जनसमुदाय तक पहुँचीं। अनेक साहित्यकारों की रचनाएँ, जिनमें प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा और फणीश्वरनाथ रेणु जैसे महान नाम शामिल हैं।
सिनेमा मानव अनुभव की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण साधन है। सिनेमा ने हमेशा समाज से प्रेरणा ली है और इस संबंध ने न केवल फिल्मों की कहानियों को आकार दिया है, बल्कि दर्शकों के लिए एक नई दृष्टि भी प्रस्तुत की है। सिनेमा का समाज से व्यापक संबंध है। सिनेमा ने सामान्य जनता के जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित किया है। सिनेमा साहित्य को मूर्त स्वरूप देने का सशक्त माध्यम है। इसके द्वारा साहित्य में लिखी गई बातों को यथार्थ रूप मिलता है। साहित्य में कल्पना के द्वारा समाज की जिस छवि का प्रस्तुतीकरण होता है, उसे प्रभावी, जीवंत और विश्वसनीयता के साथ आम जन तक पहुँचाने का कार्य सिनेमा द्वारा संभव होता है।
साहित्य का जुड़ाव सामान्यतः पढ़े-लिखे लोगों से होता है, किन्तु सिनेमा शिक्षित और अशिक्षित दोनों पर समान रूप से प्रभाव डालता है।प्रसिद्ध सिने समीक्षक मनोज श्रीवास्तव मोक्षेंद्र का मानना है कि " फिल्मों में चलचित्रित समाज के सभी वर्गों, परिदृश्यों और इकाइयों में घटित घटनाएँ आम आदमी को स्वत: ही आकर्षित करती रही हैं, भले ही वह आम आदमी शिक्षित हो या अशिक्षित।"१ शिक्षा और अशिक्षा के भेद को समाप्त करने में सिनेमा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसीलिए समय-समय पर समाज को जागरूक करने के लिए सिनेमा का निर्माण होता रहा है। वैसे भी दृश्य-श्रब्य सामग्री का जनमानस पर तीव्र और गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए साहित्य में रचित विषयों पर सिनेमा का निर्माण जितना जल्दी होगा, उसका प्रभाव और पहुँच उतना ही व्यापक लेगा। मनोज श्रीवास्तव मोक्षेंद्र का मानना है कि- "इसलिए यह कहना अत्युक्ति न होगा कि सृजित साहित्य को यथाशीघ्र फिल्म में रूपांतरित किया जाना चाहिए ताकि साहित्य में अभिकल्पित जीवन यथार्थ रूप में जीने और भोगने की सीमा तक परिलक्षित हो सके।"२
सिनेमा का लक्ष्य मनुष्य जीवन का चित्रण करना है। निश्चित रूप से इसमें मानव को जगह मिली। सिनेमा में किसान, मजदूर, गरीब, बेसहारा, बेरोजगार, अनाथ, उपेक्षित समाज आदि को जगह मिली है। इसके उलट एक परिदृश्य यह भी है कि इसमे जनसाधारण एवं उपेक्षित जनों के दुख-दर्द की खिल्ली उड़ाने वाले वर्ग का भी चित्रण हुआ है।
सभी विधाओं को अपना विषय बनाने की सक्षमता और समाज पर तीव्र और गहरा प्रभाव डालने के अपने गुणों के कारण ही सिनेमा का समाज में योगदान स्पष्ट है। सिनेमा में भारतीय संस्कृति, उसके रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन से लगभग तमाम बातों का प्रस्तुतिकरण हुआ है। इस पर अपने विचार रखते हुए पूजा सेठी का मानना है कि-"21वीं शदी में आज समस्त विश्व पर सबसे ज्यादा प्रभाव जिस माध्यम का है, वह सिनेमा ही है। हमारे रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन से लेकर चिंतन तक सिनेमा की पहुँच विलक्षण प्रतिमान लेकर उपस्थित हुई है। समूची मानव सभ्यता का यथार्थ जिस माध्यम से हमारे सामने उपस्थित है, उसमें सिनेमा की भूमिका अग्रणी है।"३
भारतीय सिनेमा की शुरुआत 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में हुई। दादा साहेब फाल्के द्वारा निर्देशित पहली मूक हिंदी फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' का प्रदर्शन 1913 ईस्वी में हुआ था, जिसे भारतीय सिनेमा का जन्मकाल कहा जाता है। इसके बाद भारतीय सिनेमा ने प्रगति की और 1931 में अर्देशिर ईरानी के निर्देशन में बनी 'आलम आरा' भारत की पहली बोलती फिल्म बनी, जिसने ध्वनि का परिचय दिया। भारत की पहली रंगीन फिल्म 'किसान कन्या' थी, जो आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में 1937 में बनी थी। 'अछूत कन्या' (1936) एक महत्वपूर्ण फिल्म थी, जिसके संवाद प्रसिद्ध अफ़ग़ानानिसार सहादत हसन मंटो ने लिखे थे।-४ यह फिल्म रंगीन नहीं थी, बल्कि श्याम-श्वेत थी।इस प्रकार, भारतीय सिनेमा की यात्रा मूक फिल्मों से लेकर बोलती फिल्मों और रंगीन फिल्मों तक विस्तारित होती रही, जिसने भारतीय समाज और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला। 'आलम आरा' के संवाद मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो ने लिखे थे, जो अपने बेबाक लेखन के लिए जाने जाते हैं। मंटो की लेखनी ने सिनेमा को उस समय के समाज और मानव स्वभाव की गहराई से जोड़ा। तब से हिंदी सिनेमा ने अद्भुत सफर तय किया है। तकनीक, अभिनय और कहानी कहने की शैली में निरंतर विकास हुआ है। आज यह न केवल भारत में, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बना चुका है।
हिंदी सिनेमा ने अपने 110 वर्ष के इतिहास में कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन उसकी रफ्तार कभी रुकी नहीं। प्रारंभ से ही फिल्मों ने समाज और राजनीति की चुनौतियों को सामने रखा और इसमें साहित्य का बहुत बड़ा योगदान रहा।साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्में जैसे बिमल रॉय की 'दो बीघा ज़मीन' (1953) या 'गाइड' (1965), जो आर.के. नारायण के उपन्यास पर आधारित थी, हिंदी सिनेमा की सामाजिक चेतना को प्रकट करती हैं। साहित्य से सिनेमा को शब्द, भाव, संगीत और नृत्य की एक समृद्ध परंपरा मिली, जिसने सिनेमा को केवल मनोरंजन के माध्यम से आगे बढ़ा कर एक सशक्त सामाजिक और सांस्कृतिक मंच बना दिया। सिनेमा के मूल्यांकन में साहित्यिक गहराई का योगदान अद्वितीय है, क्योंकि फिल्में समाज के मुद्दों को बड़े पैमाने पर जीवंत बनाकर जनता तक पहुँचाने का काम करती हैं।यह यात्रा न केवल मनोरंजन तक सीमित रही, बल्कि सामाजिक जागरूकता और सांस्कृतिक परिवर्तन का बड़ा माध्यम बन गई। चंद्रकांत मिसाल लिखते हैं- "हिंदी सिनेमा हिंदुस्तान की संस्कृति की पहचान है। हिंदी सिनेमा समग्र विश्व के लिए हिंदुस्तान की सभ्यता, संस्कृति, मूल्यों और भाषा की विशेषताओं का प्रदर्शन है। यह विश्व संस्कृति को, विश्व सभ्यता को देखने की खिड़की भी है। हिंदी सिनेमा विश्व के कोने-कोने में हिंदुस्तान से दूर बसे भारतीयों के लिए अपने देश की दूरी कम करने का, स्वदेश की स्मृति को पूरा करने का जरिया है। यह विश्व के छोटे-मोटे पर्दे पर समग्र भारत का साक्षात दर्शन है।"५
हिंदी साहित्य के बहुत से प्रसिद्ध साहित्यकारों के उपन्यासों, कहानियों, नाटकों, एकांकियों पर फिल्में बनने लगी। हिंदी साहित्य और सिनेमा का अटूट संबंध सिनेमा के प्रारंभिक दौर से ही देखा गया है। भारतीय फिल्म जगत ने अनेक साहित्यकारों की कृतियों को रुपहले पर्दे पर जीवंत किया, जिससे न केवल साहित्य को एक नई दिशा मिली बल्कि सिनेमा भी साहित्यिक मूल्य और गंभीरता से समृद्ध हुआ।प्रेमचंद की कहानियों ने सामाजिक यथार्थवाद को सिनेमा में स्थान दिया। उनके उपन्यास पर आधारित 'गबन' (1966) और कहानी पर आधारित 'सद्गति' (1981) जैसी फिल्मों ने ग्रामीण भारत की पीड़ा और शोषण को चित्रित किया। उनकी कृति 'शतरंज के खिलाड़ी' (1977) का सत्यजीत रे द्वारा फिल्मांकन भी बहुत सराहा गया। फणीश्वरनाथ रेणु की मशहूर कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर आधारित फिल्म 'तीसरी कसम' (1966) आज भी एक क्लासिक मानी जाती है। यह फिल्म ग्रामीण परिवेश, प्रेम, और भारतीय समाज की संवेदनाओं को बखूबी प्रस्तुत करती है। राज कपूर और वहीदा रहमान द्वारा निभाए गए किरदारों ने इस कहानी को सजीव कर दिया।कमलेश्वर की कृतियों पर भी कई फिल्में बनीं, जिनमें 'आंधी' (1975) खासतौर से प्रसिद्ध है। यह फिल्म उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों पर एक गंभीर टिप्पणी थी। कमलेश्वर की लेखनी ने सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को सिनेमा में नई दृष्टि प्रदान की।सहादत हसन मंटो की कहानियों ने सिनेमा को मानवीय संवेदना और विभाजन की त्रासदी को दिखाने का एक गहरा आयाम दिया। उनकी कहानियों पर बनी 'कहानी' (2012) और 'मंटो' (2018) जैसी फिल्मों ने दर्शकों को मंटो की जटिल और साहसी लेखनी से परिचित कराया।धर्मवीर भारती की 'गुनाहों का देवता' जैसी रचनाएँ साहित्यिक सिनेमा का आधार बनीं। उनकी रचनाओं ने सिनेमा को युवा पीढ़ी के संघर्ष और आदर्शों का दर्पण दिखाया। 'सूरज का सातवां घोड़ा' (1992) जो श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित थी, इस बात का प्रमाण है कि धर्मवीर भारती की कृतियों ने सिनेमा को गहराई दी।भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास 'चित्रलेखा' पर आधारित फ़िल्मों (1941 और 1964) ने जीवन, पाप और पुण्य की दार्शनिक चर्चाओं को बहुत ही खूबसूरती से चित्रित किया।मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' पर भी फिल्म बनी, जिसने नाटकों को सिनेमा के माध्यम से नए दर्शकों तक पहुँचाया। उनकी रचनाओं में समाज के बदलते स्वरूप और पारिवारिक रिश्तों की जटिलता को फिल्म के माध्यम से दिखाया गया।मुक्तिबोध और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कवियों की काव्यात्मक अभिव्यक्तियों ने सिनेमा को बौद्धिकता और विचारों की गहराई दी।उनकी कृतियों से प्रेरित फिल्मों ने दर्शकों को सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से नई सोच दी।इन साहित्यकारों की कृतियों पर बनी फिल्में न केवल साहित्यिक रूप से समृद्ध थीं, बल्कि दर्शकों के दिलों पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ने में सफल रहीं। चंद्रकांत मिसाल लिखते हैं- "हिंदी सिनेमा अपने विषय और संवेदना की सामर्थ के कारण सात समुंदर पार जा विदेश में भी लोकप्रिय हो पाया है साथ ही सारे विश्व में बसे भारतीयों के अंत स्थल की एकता को बोल दे पाया और विश्व भर में फैली लगभग देता को अखंडित व विराट व्यक्तित्व दे पाया।"६
प्रेमचंद का साहित्य पहले से ही भारतीय समाज में एक गहरा प्रभाव छोड़ चुका था, लेकिन सिनेमा ने उनके विचारों और कहानियों को उन तक भी पहुंचाने का काम किया जो साहित्य से सीधे तौर पर नहीं जुड़े थे या पढ़ने में असमर्थ थे। सिनेमा एक ऐसा माध्यम बना जिसने प्रेमचंद की रचनाओं को सरल और सजीव रूप में प्रस्तुत किया, जिससे उनकी कहानियों का व्यापक समाज तक विस्तार हुआ।प्रेमचंद की कहानियाँ समाज के यथार्थ और मानवता के मूल मुद्दों को लेकर चलती हैं, जो वर्ग भेद, शोषण, गरीबी, और किसानों की दुर्दशा जैसे विषयों पर आधारित हैं। सिनेमा ने इन मुद्दों को बड़ी सहजता और प्रभावी तरीके से जनमानस के सामने प्रस्तुत किया, जिससे उनके विचार और भी सशक्त रूप में सामने आए।जो लोग साहित्य नहीं पढ़ पाते थे, सिनेमा ने उन्हें प्रेमचंद की दृष्टि से रूबरू कराया। उनकी कृतियों पर बनी फिल्में ग्रामीण जीवन, आर्थिक विषमता और सामाजिक समस्याओं को समझने का माध्यम बन गईं।गोदान, शतरंज के खिलाड़ी, दो बैलों की जोड़ी जैसी फिल्मों ने प्रेमचंद की गहरी अंतर्दृष्टि को फिल्मी पर्दे पर उतारकर उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाया। सिनेमा ने एक बड़े दर्शक वर्ग को उनकी रचनाओं के साथ जोड़ा और सामाजिक बदलाव की दिशा में उनकी लेखनी की शक्ति को और भी प्रभावी बना दिया।
हिंदी साहित्य के गहरे और जटिल विचारों को सिनेमा ने अधिक सहज और दृश्यात्मक तरीके से प्रस्तुत किया, जिससे यह उन लोगों तक भी पहुँचा जिनकी पहुँच साहित्य तक नहीं थी।भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास 'चित्रलेखा' पर दो बार फिल्म निर्माण हुआ । पहली बार 1941 में और दूसरी बार 1964 में। इस उपन्यास में जीवन, पाप-पुण्य, और नैतिकता जैसे दार्शनिक मुद्दों पर गहन चर्चा है। दोनों ही फिल्मों ने इन जटिल विचारों को सिनेमा के माध्यम से आम जनता के सामने सरल और प्रभावी रूप में प्रस्तुत किया।चंद्रधर शर्मा गुलेरी की प्रसिद्ध कहानी 'उसने कहा था' पर आधारित फिल्म का निर्माण प्रसिद्ध निर्देशक बिमल रॉय द्वारा किया गया। यह कहानी प्रेम, बलिदान, और कर्तव्य की गहरी भावनाओं को चित्रित करती है। इस फिल्म ने उन सामाजिक और मानवीय मुद्दों को व्यापक दर्शकों तक पहुँचाया, जो मूल रूप से कहानी के माध्यम से व्यक्त किए गए थे।भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक 'अंधेर नगरी' पर आधारित फिल्म 'अंधेर नगरी चौपट राजा' ने व्यंग्य और हास्य के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर तीखा प्रहार किया। इस फिल्म ने भारतेंदु के लेखन के गंभीर संदेश को एक बड़ी आबादी तक पहुँचाने का कार्य किया, खासकर उन लोगों तक जो साहित्य से सीधे नहीं जुड़े थे। यह फिल्म समाज में अराजकता और भ्रष्टाचार की स्थिति को उजागर करती है, जो आज भी प्रासंगिक है।पं. बद्रीनारायण भट्ट 'सुदर्शन' की कहानियों पर भी कई फिल्मों का निर्माण हुआ, जो सामाजिक और नैतिक मुद्दों को सरल और मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत करती हैं। उनकी कहानियाँ जीवन की सरलता और मानवता की गहराई को चित्रित करती थीं, जिसे सिनेमा ने बड़ी ही सजीवता के साथ पर्दे पर उतारा। इन साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों ने साहित्य के गहन विचारों, समाज की समस्याओं, और मानवीय संवेदनाओं को न केवल पढ़े-लिखे वर्ग तक बल्कि उन लोगों तक भी पहुँचाया जो इन मुद्दों से अनभिज्ञ थे। इस संबंध में कुसुम अंचल का मानना है कि- "फिल्मों के प्रतिमान भी देश की सामाजिक या राजनीतिक घटनाओं से प्रभावित होते हैं।"७ महात्मा गांधी के जीवन और उनके अहिंसक स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीय सिनेमा पर गहरा प्रभाव डाला है। 'गांधी' (1982), जिसे रिचर्ड एटनबरो ने निर्देशित किया था, न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी गांधी जी के जीवन, उनके सिद्धांतों और भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई को सामने लाने वाली एक प्रमुख फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म ने न केवल गांधी जी के जीवन को प्रस्तुत किया बल्कि अहिंसा और सत्याग्रह जैसे उनके आदर्शों को भी जन-जन तक पहुँचाया। इसी तरह भारतीय फिल्मों में भी गांधी जी के विचारों और उनके संघर्ष को लेकर कई फिल्में बनीं, जैसे 'लगे रहो मुन्ना भाई' (2006), जिसने गांधीवादी विचारधारा को एक नए और मज़ेदार तरीके से प्रस्तुत किया।
शहीद भगत सिंह के जीवन पर आधारित कई फिल्में बनी हैं, जो भारतीय युवाओं में देशभक्ति की भावना को प्रेरित करती हैं। 'शहीद' (1965), 'द लीजेंड ऑफ भगत सिंह' (2002), और '23 मार्च 1931: शहीद' (2002) जैसी फिल्में भगत सिंह के जीवन, उनके बलिदान और ब्रिटिश राज के खिलाफ उनके संघर्ष को जनमानस तक पहुँचाने का सशक्त माध्यम बनीं। इन फिल्मों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के हिंसक और अहिंसक दोनों पहलुओं को प्रस्तुत किया, जो उस समय के समाज और राजनीति में व्याप्त अस्थिरता और विद्रोह की भावना का प्रतिबिंब थे।
विभाजन की त्रासदी ने न केवल साहित्य को बल्कि सिनेमा को भी गहरे रूप से प्रभावित किया। विभाजन पर बनी फिल्मों में 'गर्म हवा' (1973), 'तमस' (1988) और 'पिंजर' (2003) जैसी फिल्में विभाजन के समय की पीड़ा, सांप्रदायिक हिंसा और विस्थापन को बड़ी संवेदनशीलता से प्रस्तुत करती हैं। विभाजन से उत्पन्न सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल का सिनेमा में इतना जीवंत चित्रण हुआ कि दर्शकों को उस त्रासदी की वास्तविकता का एहसास हुआ, जिसे केवल शब्दों में बयां करना कठिन होता। देश की अन्य प्रमुख राजनीतिक घटनाओं, जैसे आपातकाल और इसके परिणामस्वरूप हुई राजनीतिक अस्थिरता ने भी सिनेमा को गहराई से प्रभावित किया।
सामाजिक आंदोलनों और मुद्दों ने भी फिल्मों के प्रतिमानों को प्रभावित किया। जैसे जातिगत भेदभाव, दहेज प्रथा और महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों पर बनी फिल्में सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता को प्रदर्शित करती हैं। 'बैंडिट क्वीन' (1994), 'मासूम' (1983) और 'आखिर क्यों' (1985) जैसी फिल्में समाज में व्याप्त असमानता, महिलाओं के अधिकार और न्याय की मांग पर केंद्रित थीं।
सिनेमा ने हमेशा समाज की धड़कन को समझने और उसे जनमानस तक पहुँचाने का कार्य किया है। चाहे वह स्वतंत्रता संग्राम हो, विभाजन की त्रासदी हो या समकालीन राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथलहो, सिनेमा ने इन घटनाओं को अपनी कहानियों और किरदारों के माध्यम से जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है। इस प्रक्रिया में सिनेमा ने न केवल घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है, बल्कि समाज को जागरूक और प्रेरित करने का भी कार्य किया है।
सिनेमा ने साहित्य को तथा साहित्य ने सिनेमा को समृद्ध किया है। बहुत से रचनाकारों की रचनाओं ने सिनेमा का साथ पाकर लोकप्रियता के शिखर को स्पर्श किया। केवल हिंदी ही नहीं वरन अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को आधार बनाकर हिंदी में सिनेमा का निर्माण हुआ। और सिनेमा का साथ पाकर वे कृतियां अमर हो गयी। साहित्य, विचारों, भावनाओं और समाज की वास्तविकताओं को शब्दों में पिरोता है, जबकि सिनेमा उन विचारों को दृश्य रूप में प्रस्तुत कर जन-जन तक पहुँचाने का कार्य करता है। दोनों ही माध्यमों का आपसी संबंध गहरा है और इसने कई रचनाओं को अमर बना दिया है।कई साहित्यिक कृतियाँ, जो अपने समय में सीमित पाठक वर्ग तक ही पहुँचीं थीं, सिनेमा के माध्यम से व्यापक जनसमुदाय तक पहुँचीं। हिंदी सिनेमा ने न केवल हिंदी साहित्य बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यिक कार्यों को भी अपनी फिल्मी कहानियों का आधार बनाया, जिससे वे कृतियाँ अमर हो गईं और व्यापक दर्शक वर्ग ने उन्हें सराहा।हिंदी सिनेमा ने बंगाली साहित्य को बड़े पैमाने पर अपनाया। रवींद्रनाथ टैगोर की कृतियाँ जैसे- 'काबुलीवाला' (1961) और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास 'आनंदमठ' (1952) पर आधारित फिल्में हिंदी में बनीं और ये कृतियाँ सिनेमा के माध्यम से अमर हो गईं। टैगोर की 'चारुलता' और सत्यजीत रे द्वारा बनाई गई उनकी कई कहानियों पर आधारित फिल्में बंगाली साहित्य की समृद्धि को दर्शाती हैं। तमिल और मराठी साहित्य को भी हिंदी सिनेमा में काफी जगह मिली। तमिल लेखक आर. के. नारायण के उपन्यास 'गाइड' पर आधारित हिंदी फिल्म "गाइड" (1965) ने साहित्य और सिनेमा के गहरे संबंध को प्रदर्शित किया। यह फिल्म साहित्यिक रूप से भी महत्वपूर्ण थी और हिंदी सिनेमा में भी इसे बेहद सराहा गया। मराठी साहित्यकार वी. शांताराम की कृतियों ने भी हिंदी सिनेमा को प्रेरित किया, जिससे मराठी साहित्य का हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान रहा। केवल हिंदी और बंगाली ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य पर भी हिंदी फिल्मों का निर्माण हुआ। मलयालम साहित्य पर आधारित फिल्में जैसे 'चेम्मीन' (1965) और कन्नड़ साहित्यकार शिवराम कारंत की कृति 'चित्रा' ने हिंदी सिनेमा में जगह बनाई। इन साहित्यिक कृतियों को हिंदी फिल्मों ने व्यापक दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया और इन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाया।
ऐसा माना जाता है कि सिनेमा के लिए एक मजबूत कहानी आधारभूत आवश्यकता होती है, और साहित्य ने इसे हमेशा प्रदान किया है। महान साहित्यिक रचनाओं ने फिल्मों को न केवल भावनात्मक गहराई दी बल्कि उनके कथानक और पात्रों को भी मजबूत बनाया। साहित्य की गहराई और सोच को सिनेमा ने दृश्यात्मक रूप में बदलकर दर्शकों के दिलों तक पहुँचाया, जिससे सिनेमा की संवेदनशीलता और आकर्षण बढ़ा।सिनेमा ने जटिल साहित्यिक रचनाओं को बड़े ही सरल और दृश्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया, जिससे वे दर्शकों के लिए अधिक सुलभ और रोचक बन गईं। इससे न केवल सिनेमा को समृद्धि मिली, बल्कि साहित्यिक कृतियों को भी लोकप्रियता मिली।सिनेमा ने कई साहित्यिक कृतियों को अमर बना दिया। जो कहानियाँ सीमित दायरे में थीं, वे फिल्मों के माध्यम से विश्वभर में जानी गईं। उदाहरण के लिए, "गाइड" और "शतरंज के खिलाड़ी" जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों को विश्व स्तर पर प्रसिद्ध बनाने में मददगार साबित हुईं। सिनेमा ने साहित्य को और साहित्य ने सिनेमा को समृद्ध किया है। दोनों ने मिलकर समाज, राजनीति, और संस्कृति को न केवल अभिव्यक्त किया बल्कि उन्हें नए रूप में जन-जन तक पहुँचाया है।
इस संबंध में कुसुम अंचल का मानना है कि " बहुत से जाने माने लेखकों के, उपन्यासों-कहानियों पर फिलों बनने लगी।प्रेमचंद, टैगोर, बंकिमचन्द्र चढ्टोपाध्याय, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे बहुत से भारतीय लेखकों की रचनाएँ फिल्मों में साँस साँस जी उठीं।" ८ केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में साहित्य और भाषा को फिल्मों ने व्यापक बनाने का कार्य किया है।इस संबंध में चंद्रकांत मिसाल लिखते हैं- "भारतीय सिनेमा भारतीय समाज की तमाम भाव एवं संवेदनाओं को बड़े ही सहज ढंग से छुते हुए जितना भारतीयों को लुभाता है, उतना ही विदेश में रहने वाले भारतीय प्रवासियों को भी लुभाता है। साथ ही विश्वभर में हिंदी पढ़ने वाले विद्यार्थियों और प्राध्यापकों को भी सिनेमा ने मोहित किया है।"९ हिंदी और हिंदुस्तान को विदेश में हिंदी सिनेमा से विशेष पहचान मिली है। नीलम राठी लिखती हैं- "हिंदी का दायरा गैर हिंदी क्षेत्रों में भी तेजी से बढ़ रहा है जिसका एक कारण जहां रोजगार की तलाश में दूसरे भाषाई क्षेत्र से आबादी का पलायन है वहीं फिल्मों के प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता। विश्व फलक पर अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी फिल्मों और फिल्मी गानों की धूम इसका जीता जागता उदाहरण है।"१०
निष्कर्ष : सिनेमा ने साहित्य की अमूल्य कृतियों को व्यापक दर्शक वर्ग तक पहुँचाने का कार्य किया है, जिससे साहित्यिक रचनाएँ अमर हो गईं। अनेकों साहित्यकारों की रचनाएँ, जिनमें प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, और फणीश्वरनाथ रेणु जैसे महान नाम शामिल हैं, ने सिनेमा को समृद्ध किया है। इसके अलावा, अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य ने भी हिंदी सिनेमा को नए आयाम प्रदान किए।इस प्रकार, सिनेमा ने समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
सन्दर्भ :
1. साहित्य और सिनेमा में आम आदमी-मनोज श्रीवास्तव मोक्षेंद्र, आजकल, जनवरी, 2015, पृ.-47
2. साहित्य और सिनेमा में आम आदमी-मनोज श्रीवास्तव मोक्षेंद्र, आजकल, जनवरी, 2015, पृ.-47
3. सिनेमा और साहित्य-पूनम सेठी, ISS Univ. J.A, Vol. 6(1),2017, पृ. 110
4. हिंदी का वैश्विक परिदृश्य- सं० गिरीश्वर मिश्र, पृ-53
5. हिंदी का वैश्विक परिदृश्य - सं० गिरीश्वर मिश्र, पृ-55
6. हिंदी का वैश्विक परिदृश्य - सं० गिरीश्वर मिश्र, पृ-55
7. हिंदी का वैश्विक परिदृश्य- सं० गिरीश्वर मिश्र, पृ-53
8. हिंदी का वैश्विक परिदृश्य- सं० गिरीश्वर मिश्र, पृ-53
9. हिंदी का वैश्विक परिदृश्य- सं० गिरीश्वर मिश्र, पृ-55
10. हिंदी का वैश्विक परिदृश्य- सं० गिरीश्वर मिश्र पृ-59
महेन्द्र कुमार त्रिपाठी
सहयुक्त आचार्य हिंदी, तिलकधारी स्नाकोत्तर महाविद्यालय, जौनपुर
drmktripathi21@gmail.com, 9451121621
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
बहुत ही बढ़िया 👍
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख है
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