- विश्वास शर्मा, एस. के. स्वाईं
शोध सार : हिन्दी चलचित्र केवल मनोंरजन का एक साधन ही नहीं अपितु नई चेतना को जागृत करने वाला माध्यम भी है, जिसके समागम से तमाम धारणाओं एवं पारम्परिक ढांचों व मिथकों में परिवर्तन आया है। यह तात्कालिक समय के नब्ज न सिर्फ पकड़ता है, अपितु समाज में बदलाव का अलख भी जगाता है। समय के साथ-साथ दर्शकों की रूचि में भी बदलाव आता गया, जिसे परिपूर्ण करने का काम सिनेमा ने किया। समाज पुरातनता से नवीनता की ओर अग्रसित हुआ परन्तु नारियों की स्थिति बदलते स्वरूप के साथ सर्वदा सोचनीय ही रही। चलचित्रों के माध्यम से नारी उत्थान का प्रयास किया गया, जो प्रभावी भी है, परिणामतः नारियां पहले से अधिक सशक्त हुईं हैं। नायिकाओं के लिए विभिन्न स्वरूपों की पटकथा लिखी गई, जिसे अभिनीत करके अभिनेत्रियों ने समाज उत्थान में सकारात्मक योगदान दिया। अछूत, वेश्यावृत्ति, जाति आदि कुप्रथाओं पर कुठाराघात करके आज की नारी सशक्त होती दिखाईं दे रही है।
बीज शब्द : नारी, चेतना, सशक्तिकरण, चलचित्र।
मूल आलेख : नारी सदियों से अपनी आजादी के लिए आवाज बुलन्द करती आईं हैं, सिनेमा ने इस आवाज को और तीव्र गति प्रदान किया। आत्मविश्वास व स्वाभिमान सशक्तिकरण का पहला आयाम है, जिसे भारतीय चलचित्रो ने महिलाओं को प्रदान करके उन्हें सुदृढ़ बनाने का कार्य किया है। भारतीय फिल्में महिलाओं की समाजिक स्थिति से प्रभावित होती रहीं हैं, इसीलिए कहा गया है कि फिल्म समाज का दर्पण होता है। हिन्दी सिनेमा ने स्त्री-पुरुष के बीच के अंतर को मिटाकर नारी सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण कार्य किया है। सिनेमा में स्त्री विषयक नजरिए को देखें तो पाते है कि
1913 में राजा हरिश्चन्द्र बनाते समय दादा साहब फाल्के जी को तारामती की भूमिका करने के लिए कोई महिला नहीं मिली। लेकिन आज सिनेमा मे स्त्री की वह स्थिति नहीं है जो पहले थीं। आज न केवल महिला प्रधान फिल्में बन रही है अपितु पर्दे के सामने व पर्दे के पीछे हर विभाग में महिलाओं की भागीदारी है। महिला आन्दोलन व उनके स्थिति में सुधार का अनुकरण भारतीय सिनेमा ने भी किया।
आरम्भिक फिल्मों का दौर
भारतीय सिनेमा के प्रारम्भ में निरक्षता व निर्धनता का बोलबाला था, यह समय था तीस के दशक के आरम्भिक फिल्मों का, जिनमें महिला चरित्र शक्तिशाली और बेधड़क होती थीं। शुरूआती दौर सामाजिक सुधार की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी, धीरेन्द्र नाथ गांगुली की 'इंग्लैण्ड रिटर्न'
(1921), चंदूलाल शाह की 'टाइपिस्ट गर्ल'
(1926), 'गुण सुंदरी'
(1927), 'विश्व मोहिनी'
(1929), 'औरतों से सावधान'
(1929), 'औरत का बदला’(1930),
'एक आदर्श औरत'
(1930), 'सिनेमा गर्ल'
(1930), 'आलम आरा'
(1931), काशी प्रसाद घोष की 'शहर का जादू'
(1934), मोह भवनानी की 'मजदूर'
(1934), 'बैरिस्टर्स वाइफ'
(1936), फैव्य आस्टिन की 'अछूत कन्या'
(1936), 'हण्टरवाली' (1936), वी. शांताराम की 'दुनिया ना माने'
(1937), 'जीवन प्रभात'
(1937), 'निर्मला' (1938), 'जरीना', 'चित्रलेखा', 'परिणीता', 'आदमी', 'अमर ज्योति', 'पुकार' आदि फिल्में, जिन्होनें उस समय के महिलाओं के सरोकार को उभारा। सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध फिल्मों ने दलित, वेश्या, अछूत के विरोध में लड़नें की साहस दिखलाई। इस युग में देविका रानी, लीला चिटनिस, दुर्गा खोटे आदि अग्रणी रूप से पर्दे पर उभरकर आईं। संभ्रात परिवार के स्त्रियों का सिनेमा में आना उस समय का महत्वपूर्ण बदलाव था। इनमें से 'अछूत कन्या' व 'दुनिया ना माने' जैसी फिल्में तो तात्कालिक समय से आगे की चलचित्र थी। जहां 'अछूत कन्या' में दलित युवकी की स्थिति को संवेदनशील तरीके से दर्शाया गया है, जो एक ब्राह्मण युवक से प्रेम कर लेती है और जातिगत व्यवस्था की समस्या से सामना करती है। 'दुनिया ना माने' एक ऐसी युवकी की कहानी है जिसका विवाह अपने पिता के उम्र के व्यक्ति के साथ हो जाता है।
चालीस के दशक का बदलता समाज
यह वह समय था जिसमें 15 अगस्त 1947
को पी. संतोषी ने किशोर कुमार व इंदुमती अभिनीत 'शहनाई' सिनेमा घरों में बजवाई। रही कसर सुरैया ने अब्दुल राशिद के निर्देशन में बनी 'दर्द'
(1947) में 'अफसाना लिखकर (अफसाना लिख रही हूँ....)'
पूरा किया। चालीस के दशक में महिला किरदारों में बदलते समाज की झलक दिखाई देने लगी थी। असहयोग आंदोलन में महिलाओं की भूमिका, हिन्दू कोड बिल की प्रावधान यथा- विवाह, पैतृक सम्पत्ति में अधिकार, मताधिकार आदि पर चर्चा फिल्मों में दिखाई दी। 'डायमण्ड क्वीन'
(1940), 'अबला की शक्ति'
(1940), 'मिनाक्षी (1942 ) व
1940 में महबूब ने 'औरत' नामक फिल्म बनाई, जिसमें राधा की चरित्र ने कर्ज से उबरने के लिए तमाम दुश्वारियों का सामना किया। महबूब की अन्य फिल्म 'रोटी'
(1942) और चेतन आनंद की 'नीचा नगर'
(1946) जो 2 घण्टे 2 मिनट की फिल्म है, जिसमें महिलाओं को शक्तिशाली रूप से प्रदर्शित किया, जो ऊपरी नगर में रहने वाले अमीरों के विरोध में खड़ी होती हैं। इस आन्दोलन का नेतृत्व माया (उमा आनन्द) ने किया। इस सूची में उस समय की सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म जिसने 'बरसात' को भी पीछे छोड़ दिया महबूब निर्देशित प्रेम त्रिकोण पर आधारित 'अंदाज'
(1949) और अशोक कुमार द्वारा निर्मित व अभिनीत 'महल'
(1949), जिसमें मधुबाला मुख्य भूमिका में थीं, फिल्में भी आते हैं। इसी दशक में संगीतमय रोमांस का दौर भी आरम्भ हुआ। सुरैया जैसी नायिकाओं ने ऐसा अभिनय किया कि नायक का चरित्र गौड़ हो गया।
पचास के दशक का स्वर्णकाल
देश में पचास का दशक नव-निर्माण व सामाजिक-आर्थिक बदलाव का समय था, इसे बॉलीवुड का स्वर्णकाल भी कहा जाता है, क्योंकि इसने कई महिला-पुरुष सुपरस्टार फिल्म जगत को दिए। दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनन्द आदि सुपरस्टार नायकों का आगमन हुआ। आजादी के बाद इस दौर में महिलाओं की भूमिका को आशावाद और युवा ऊर्जा ने प्रभावित किया। मीना कुमारी, गीता बाली, नूतन, नर्गिस, मधुबाला, गीता दत्त आदि ने महिलाओं की गरिमा को पर्दे पर साकार किया। इस नव निर्माण के काल में फिल्मकार यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहे थे कि भारतीय नारी को किस रूप में प्रस्तुत किया जाए, पुरुष समकक्ष या पुरुष विरोधी। इन सब में हिन्दी सिनेमा नारी मुक्ति की आकांक्षा से अपना अलग आकार ग्रहण कर रहा था। विमल राय की 'सुजाता'
(1959) में स्त्री मुक्ति को पुरजोर से सराहा गया जो अपने समय के लिहाज से महत्वपूर्ण था और गुरु दत्त द्वारा निर्देशित, निर्मित व अभिनीत 'प्यासा'
1957 में रूपहले पर्दे पर आई जिसमें वहीदा रहमान की वेश्या किरदार को सम्मान दिया गया। इस समयकाल की महिला केंद्रीत फिल्मों ने महिलाओं को नए कलेवर में दिखाया। महबूब खान की 'मदर इंडिया'
(1957) में नर्गिस ने एक सशक्त व न्यायप्रिय नारी की भूमिका का अभिनय किया, यह फिल्म भारतीय नारी के शोषित जीवन की महागाथा है, जो तमाम विसंगतियों की यथार्थ अभिव्यक्ति कही जा सकती है।
साठ के दशक की तकनीक
साठ का दशक भावना से परिपूर्ण फिल्मों का था। इस युग में फिल्में ध्वनि व प्रकाश की नई-नई तकनीकों से सुसज्जित हुआ। इस नवीन तकनीक के बीच महिला किरदारों की छवि पृतिसत्तात्मक विचारों को व्यक्त करने वाली आदर्श महिला की रही। स्त्री मुक्ति पर बनाई गई विमल राय द्वारा निर्देशित 'बंदिनी'
(1963), 'गाइड' (1965), फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर आधारित व राज कपूर एवं वहीदा रहमान जैसे कलाकारों से सुसज्जित 'तीसरी कसम'
(1966) जैसे फिल्में अपवाद रहीं परन्तु मूलतः यह युग शक्तिशाली महिलाओं का दौर नहीं रहा। 'तीसरी कसम' में देहाती दुनिया और स्त्री को वस्तु सरिके खरीदे जाने को दिखाया गया, हांलाकि यह फिल्म असफल रही जिसके कारण निर्माता व गीतकार शैलेन्द्र का निधन भी हो गया, परन्तु उसके गाने आज भी सुपरहिट हैं, यथा- 'सजन रे झूठ मत बोलो..',
'पान खाए सईंया हमार...',
'सजनवा बैरी हो गए हमार..',
'चलत मुसाफिर मोह लिए...'
आदि। 'गंगा जमुना'
(1961), 'कश्मीर की कली'
(1964) में गांव की गोरी, 'संगम'
(1964), 'इवनिंग इन पेरिस'
(1967), 'जब प्यार किसी से होता है'
(1961), 'दो बदन'
(1966) में शहर की मेम तथा 'साहब बीवी और गुलाम'
(1962) में अधूरी-अल्कोहॉलिक गृहणि की छवि को पर्दे में दिखाया गया। दूसरे शब्दों कहें तो नायिका पर्दे पर सजावटी वस्तु बनकर रह गई थी। इसके पीछे कारणों में एक कारण मुस्लिम समाज के तौर-तरीकों का पर्दे पर आना भी था। 'चौदहवीं का चांद'
(1960) और 'मेरे महबूब'
(1963) में महिलाओं को पर्दे में पेश किया गया जो विनयशील, शर्मीली व पुरुषों पर निर्भर थीं। एक तरफ जहां बुरका में नायिका दिखीं तो दूसरी तरफ हेलेन जैसी किरदारों को कम कपड़े में लाने के लिए पटकथा लिखी गई। पश्चिमी प्रभाव ने पूरी तरह से नायिकाओं के जीवन को प्रभावित कर दिया था।
सत्तर के दशक में अन्य किरदारों की महत्ता
1966
का वर्ष लोकतत्रं के लिहाज से ऐतिहासिक था। लाल बहादुर शात्री जी के मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए गुलजारीलाल नन्दा कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने उसके बाद सत्ता की बागडोर श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथो में आई, जो फिल्म में 'आंधी'
(1974) के रूप में सशक्त राजनीतिक महिला का किरदार दिखाई दिया। इसी कड़ी में श्याम बेनेगल का 'अंकुर'
(1974) को भी पर्दे पर देखा गया, जो
1950 में हैदराबाद में घटित सच्ची घटना पर आधारित थी, इसे उसी जगह फिल्माया भी गया था, यह फिल्म कई मामले में महत्वपूर्ण है क्योकि श्याम बेनेगल की पहली निर्देशित होने के साथ अनंत नाग व शबाना आजमी की भी पहली फिल्म थी, साथ ही इसने देश-विदेश के कुल 43 पुरस्कार जीते। सत्तर का दशक गुस्सैल युवा का किरदार लेकर उभरा, महिलाओं की भूमिका तेजी से नगण्य होती गई। यह दौर औद्योगिक संघ के अंगड़ाईयों का था। शहर में प्रवासी लोगों की बाढ़ आ गई थी, अफरा-तफरी व तनाव का माहौल था, लोगों को जिस्मानी मजबूती का मुजाहिरा पसन्द आने लगे, जिसमें अमिताभ बच्चन के किरदार को अत्यधिक सराहा गया। 'सीता व गीता'
(1972) और चंदर वोहरा की फिल्म 'खिलौना'
(1970), जिसे फिल्मफेयर के छः श्रेणियों में नामांकित किया गया और दो श्रेणियों में पुरस्कार दिया गया, जैसी फिल्मों को छोड़कर अधिकांश में नायिकाओं को शोषित होते दिखाया गया। यह युग भारतीय चरित्र नारी से इतर किरदारों को स्वीकार करने की कोशिश कर रहा था।
श्याम बेनेगल के प्रयोगों ने समानांतर सिनेमा को जन्म दिया जिसने शक्तिशाली महिला किरदारों को सामने लाया। इन्होनें ‘निशांत'(1975),
'मंथन'
(1976), 'भूमिका' (1977), आदि महिला प्रधान फिल्में बनाई। जो पितृसत्तात्मक शासन से लड़ती हुई दिखीं। 'निशांत'
1940–1950 दशक में तेलंगाना (तात्कालिक हैदराबाद राज्य) में सामंतवाद व महिला के यौन शोषण पर बनी थी। फिल्म 'मंथन' दुग्ध आंदोलनकारी वर्गीज कुरियन पर आधारित था, जो सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन करता है। 'भूमिका' फिल्म मराठी भाषा के 'सांगत्ये आइका' पर बनी थी, इसमें स्मिता पाटिल ने एक महिला की जीवन को प्रदर्शित किया जो किशोरावस्था से अधेड़ उम्र तक जीवन की विभिन्न कष्ट को सहती है। श्याम बेनेगल के तीनों फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ-साथ कई अर्न्तराष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुए। बेनेगल के प्रयास ने दो महिला कलाकार शबाना आजमी व स्मिता पाटिल को सिने जगत में नाम कमाने का पूरा अवसर प्रदान किया, वे सफल भी रहीं। टेलीविजन ने थियेटर में लोगों की भीड़ को कम किया साथ ही महिलाओं को पुनः रूढिवादिता में धकेल दिया।
1972 में आई 'पाकीजा' अपवाद साबित हुई, यह फिल्म संगीतमय रोमांटिक ड्रामा था, यह 15 मिलियम में बनी और 60 मिलियम की कमाई की, इसकी महत्ता और बढ़ जाती है कि सशक्त अभिनय करने वाली मीना कुमारी की आखरी फिल्म थी, रिलीज के एक माह बाद ही मीना कुमारी का देहान्त हो गया, इस फिल्म के निर्देशक कमाल अमरोही से अलग होने के बाद मीना कुमारी को शराब की लत लग गई थी, जिसके कारण इस फिल्म को पूरा होने में 2 वर्ष लगे परन्तु योजना पिछले 15 सालों से हो रहा था। मृत्यु के पश्चात मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार भी दिया गया।
अस्सी के दशक महिला विषयक फिल्में
लेकिन अस्सी के दशक की फिल्मों ने दर्शकों को पुनः थियेटर की ओर आकृष्ट किया 'उमरावजान'
(1981), 'अर्थ' (1982), 'बाजार'
(1982), श्याम बेनेगल की 'मंडी'
(1983) में वेश्याओं के संघर्ष को दिखाया गया, मिर्च-मसाला'
(1985) व 'पंचवटी'
(1986) जैसी फिल्मों के जरिए फिल्मकारों ने महिलाओं के जीवन से जुड़े तमाम मुद्दों को सिनेमा का विषय बनाया। महेश भट्ट ने परवीन बाबी के साथ सम्बन्ध पर आत्मकथात्मक फिल्म 'अर्थ' बनाया। फिल्म 'बाजार' में लड़की को बेचे जाने एवं भारतीय दुल्हन के खरीद-फरोख को दर्शाया गया है। इस दशक का दौर अधिक लंबा तो नही चला परन्तु इसनें महिला पक्ष को पूर्णतः सिनेमा जगत का विषय बना दिया।
नब्बे के दशक की मजबूत महिला
नब्बे के दशक में उदारीकरण के पश्चात देश के अर्थव्यवस्था में महिलाओं की सुदृढता के साथ-साथ फिल्मों के महिला किरदारों में भी दिलेर, बिंदास और नेतृत्व का स्वरूप दिखने लगा। जिस प्रकार कार्यबल में महिलाओं के संख्या में वृद्धि हुई, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में शीर्ष पदों पर इनका आना हुआ, उसी प्रकार फिल्मों में भी महिलाएं शीर्ष पर आश्रित होती दिखाई देती हैं।
1994 में बनी 'बैडिंट क्वीन' ने भारतीय महिला का नया स्वरूप समाज के सामने लाया, जो साहसी, आजाद और बेधड़क थी, 'गुलाबी गैंग' भी इसी कड़ी की फिल्म है। इस युग में बाजारोन्मुखी फिल्मों का प्रचलन बढ़ा, इस परिवर्तन ने पूंजीवाद को जन्म दिया, पूंजीवाद ने स्त्री की देह प्रदर्शन को स्त्री-मुक्ति का पर्याय बनाने का प्रयास किया, जिसकी झलक आज भी दिखती है। इस दशक के आरम्भ में सिनेमा का केन्द्र नायिका का चेहरा था, परन्तु कालान्तर में यह स्त्री देह पर केन्द्रित हो गया। 'लिबास '
(1991), 'दामिनी' (1993), 'अग्निसाक्षी'
(1996), 'मृत्युदण्ड' (1997) जैसी फिल्मों में नारी की छवि को सशक्त दिखाया गया। इस विषय में कल्पना लाजमी का कहना था -
"महिलाओं के मुद्दों का भविष्य फिल्मों में बहुत संघर्ष भरा है। बाजार का पूरा ढांचा ही ऐसा है कि यथार्थवादी फिल्में बनाना बहुत मुश्किल है।"
बीसवीं शताब्दी का अंत व इक्कीस का आगमन
इस शताब्दी में सिनेमा में महिलाओं में मुद्दों पर परम्परा और आधुनिकता का द्वंद्व दिखाई देता है। जहां एक ओर स्त्री जीवन के अनछुए पहलू पर प्रगतिशील फिल्में बनी दूसरी तरफ परम्परागत पितृसत्तात्मक सोच की हिमायती फिल्मों का भी इस दौर में कमी नहीं है। 'चांदनी बार'
(2001), 'जुबैदा' (2001), 'फिलहाल'
(2002), 'मातृभूमि' (2002), 'पिंजर'
(2003), 'पेज थ्री'
(2005), 'डोर' (2006), 'आजा नच ले'
(2007), 'चीनी कम'(2007),
'जब वी मेट'
(2007), 'लागा चुनरी में दाग'
(2007), 'नि:शब्द '
(2007), 'फैशन' (2008), 'लक बाई चांस '
(2009), 'रात गई बात गई'
(2009), 'लव, सेक्स और घोखा
(2010) आदि फिल्मों ने इक्कीसवें सदी में दस्तक दिया, जो स्त्री पर बनी तमाम सीमाओं को तोड़ा। इसी क्रम में 'नो वन किल जेसिका'
(2011), 'टर्निंग थर्टी'
(2011), 'सात खून माफ'
(2011), 'हिरोईन' (2012), 'अईया'
(2012), 'इनकार' (2013), 'बी.ए. पास'
(2013), 'बॉबी जासूस'
(2014) जैसे फिल्मों को देख सकते हैं।
शताब्दी के शुरुआत में महिला नायिकाओं को राजनेता, पत्रकार आदि के रूप में बेखौफ किरदार में देखा गया। विकास बहल की फिल्म 'क्वीन' में लड़की का घरेलू होना अभिशाप शाबित हुआ।
2012 में आई फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' में अभिनेत्री श्रीदेवी ऐसे मां की भूमिका निभाई हैं जो अपनी एडंवास बच्चों से पिछड़ जाती है और आंग्ल भाषा के अड़चन को किस प्रकार पार करती हैं। इसी वर्ष सुजॉय घोष की फिल्म 'कहानी' ने भी दर्शकों को अपने ओर आकर्षित किया, यह फिल्म ऐसी सशक्त महिला की कहानी है जो न अपनी पति की हत्या का बदला लेती है, अपितु सिस्टम में फैली गंदगी को भी खत्म करती है। विद्या बालन के अभिनय को खूब सराहा गया। एयर होस्टेज नीरजा भनोट पर बनी फिल्म 'नीरजा' में औरत के भीतर छुपी ताकत को प्रदर्शित किया गया, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किया गया। वर्ष
2014 में इम्तियाज अली के निर्देशन में आई फिल्म 'हाइवे' ने ऐसे मसले उठाए जिसे हम साझा करने से कतराते हैं। बचपन में हुए शोषण को हम समझ नहीं पाते और लोग मासूमियत का फायदा उठा लेते है। समाज के इस काले सच को पर्दे पर शालीनता से दिखाया गया है, जिसमें आलिया भट्ट ने अभिनय किया है। दिल्ली की रहने वाली तीन लड़कियों पर बनी फिल्म 'पिंक' में नारियों की स्वतंत्रता की बात की गई, यह फिल्म सिनेमाघर में
2016 में आई। इसी वर्ष अश्विनी तिवारी की फिल्म 'निल बटे सन्नाटा' ने सबका दिल जीत लिया, इस फिल्म ने प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा दिया, फिल्म में एक सिंगल मां और उसकी बेटी की कहानी है, बेटी पढ़ाई से दूर भागती है, जिसे प्रोत्साहित करने के लिए मां स्वयं स्कूल में एडमिशन लेती है। फिल्म 'मॉम'
(2017) नायिका श्रीदेवी बालात्कारियों को उनके अपराध के लिए दण्ड देती है, जो न्यायालय से बरी हो चुके थे। अजय देवगन द्वारा निर्मित 'पार्च्ड' ने दूर दराज की महिलाओं की स्थिति को दर्शाया।
2020 में अभिनव सिन्हा की फिल्म 'थप्पड़' ने पुरुषवादी सोचों पर सवाल उठाए।
निष्कर्ष : आज भले ही फिल्म व्यवसाय बन गया है, किन्तु सामाजिक सरोकार, जीवनमूल्य आदि इसमें आज भी समाहित है। शान्त बैठी एवं गुमनाम दुनिया में खोई नारियों को सशक्त करने का कार्य चलचित्र ने किया। भारतीय चलचित्र ने स्त्री को समाज में बराबरी का अधिकार, आगे बढ़ने की प्रेरणा, चार दिवारी से मुक्त करने का प्रयास, सपने दिखाने और उन्हें पूरा करने का साहस, दुर्व्यवहार एवं गलत का विरोध करने का साहस प्रदान किया। 'अस्तित्व', 'लज्जा', 'चांदनी बार', 'पेज 3' से लेकर 'डोर', 'टर्निंग
30', 'फैशन', 'नो वन किल्ड जैसिका', 'गंगूबाई काठियावाड़ी´
(2022) तक मजबूत महिला किरदारों को रूपहले पर्दे पर दिखाया गया। उपरोक्त फिल्मों को उनके किरदार व कहानी के लिए कई पुरस्कार भी प्राप्त हुए है, बेशक मिलने भी चाहिए क्योकि इन्होनें ही हमारे समाज में महिलाओं कि स्थिति को जनमानस से परिचित कराया और साथ ही उनके सुधार व सशक्तिकरण में अपना अहम भूमिका का निर्वहन भी किया। चलचित्रों का महिला सुधार में कुछ-कुछ नहीं अपितु बहुत-कुछ योगदान है। अगर हमें इन्हें और अधिक सशक्त बनाना है तो फिल्म के अन्त में नहीं आरम्भ में ही कहना होगा कि
"जा सिमरन जी ले अपनी जिन्दगी.....!”
1. अग्रवाल, विजय कुमार (1993), 'सिनेमा और समाज', सतसाहित्य प्रकाशन
2. आजकल पत्रिका, मई, 2014 अंक
3. कोरे, सुलभा (2019), भारतीय समाज हिंदी सिनेमा और स्त्री', अंकिता प्रकाशन प्रा. लि.
4. खान, शमीम, (2017), 'सिनेमा में नारी, 2014 एडिशन, प्रभात प्रकाशन
5. प्रकाश, अल्का (2013), नारी चेतना के आयाम, लोकभारती प्रकाशन ।
6. डॉ. वर्मा, नीलिमा (2023), महिला सशक्तिकरण: चुनौतियां एवं भावनाएं, यूनिवर्सिटी बुक हाउस प्रा. लि.।
7. श्रीवास्तव, आशुतोष(2023), साहित्य सिनेमा सेतु: रील से रियल लाइफ तक (त्रैमासिक पत्रिका) जुलाई-सितम्बर अंक, पृ. 21 ,
8. श्रीवास्तव, आशुतोष(2024), साहित्य सिनेमा सेतु: रील से रियल लाइफ तक (त्रैमासिक पत्रिका) जनवरी-मार्च अंक, पृ. 07,
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10. "सिनेमा के सौ साल" मनोरमा इयर बुक, 2013 अंक, कोट्टयम, केरल। पृ. 681-689
11. शर्मा, प्रज्ञा, (2001), 'महिला विकास और सशक्तिकरण, अविष्कार प्रकाशन
12. सिंह, सन्तोष कुमार (2012), आधुनिक हिन्दी फिल्मों में महिला सशक्तिकरण, International Journal of Applied Research. पृ. 594-596
शोधार्थी, शिक्षा संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
vishyamni110bhu@gmail.com, 7007829176
एस. के. स्वाईं
पूर्व विभागाध्यक्ष व संकायप्रमुख, शिक्षा संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
skswain59@gmail.com, 9453363020
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