शोध आलेख : आदिम कला का अमूर्तवादी दृष्टिकोण / शेरिल गुप्ता

आदिम कला का अमूर्तवादी दृष्टिकोण

- शेरिल गुप्ता


चित्र संख्या- 1: अमूर्त आकृति, अल्तामिरा गुफा
उत्तरी स्पेन, आदिम काल

शोध सार : आदिम कला सौन्दर्य की मौलिक सृष्टि का सृजन करती है यहीं से मानव के हृदय के भीतर ललित भावना जाग उठी और उसने अपनी मूक कल्पनाओं को अनगढ़ पत्थरों के यंत्रों, हाथ के छापों तथा उंगलियों की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाकृतियों को गुफाओं और चट्टानों की भित्तियों पर अंकित किया। वर्तमान में आदिम मानव की ये कलाकृतियाँ उसकी कोमलतम भावनाओं और संघर्षमय जीवन की सजीव झाकियाँ प्रस्तुत करती हैं। मानव ने इन चित्रों में रेखाओं तथा आकारों द्वारा अपनी आत्मा एवं प्रगति को चित्रित किया है। यदि आदिम कला कृतियों का विश्लेषण किया जाए तो निश्चित ही हम यह पाएंगे कि किस तरह आदिम मानव घने जंगलों में अपने संघर्षमय जीवन तथा सीमित साधनों के मध्य दृश्य कला द्वारा अपनी अमूर्त भावनाओं की अभिव्यक्ति करता था, जो वास्तव में अद्वितीय तथा अनमोल हैं। इस प्रकार आदिम कला के रूप में अतीत का जो अंश न केवल अमूर्त कला स्वरूप में वर्तमान की पकड़ में आया है बल्कि वह आधुनिक कला का अभिन्न अंग भी बन गया है। अतएव आदिम मानव में अपनी कल्पना को उद्दीप्त करने की एक ऐसी अतिरिक्त शक्ति होती थी कि वह उसके कारण कुछ सजीव अनुभूति से उत्पन्न अस्तित्व की अज्ञात गहराइयों तक प्रवेश करके सम्पूर्ण भाव का अमूर्त चित्रण करता था, इसलिए आदिम कला में मानव, पशु और आखेट आदि की आकृतियों में अमूर्त चिन्ह स्वरूप ज्यामितीय  तथा गैर ज्यामितीय प्रतीकों का प्रयोग बहुलता से हुआ है।


बीज शब्द : प्रागैतिहासिक काल, आदिम काल, आधुनिक युग, ज्यामितीय प्रतीक, अमूर्त कला, रूप-आकार, कलात्मक आकृतियाँ, कल्पनाशील तत्त्व, नवीन दृष्टिकोण।


अध्ययन का उद्देश्य : इस शोध पत्र का उद्देश्य आदिम कला का अध्ययन कर के अमूर्त चित्रों की रचना का कलापरक मूल्यांकन कर आधुनिक युग में बने इनके नवीन स्वरूप का विश्लेषण करना  है।

शोध प्रविधि : इस शोध पत्र द्वारा प्रागैतिहासिक काल में विद्यमान अमूर्त कला के तत्त्वों को स्पष्टता से उजागर करने हेतु प्रमुख रूप से पुरातात्विक और दृश्यात्मक विश्लेषण की विधियाँ अपनाई गई हैं। साथ ही ऐतिहासिक, गुणात्मक एवं विश्लेषणात्मक अनुसंधान पद्धति की सहायता से शोध के उद्देश्यों को प्राप्त किया गया है।

मूल आलेख : संसार में आदिम कला का इतिहास मानव जीवन की भाँति ही अति प्राचीन, रहस्यमय, विराट और अज्ञात है।समय के साथ धीरे-धीरे मानव ने अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाव और विचारों का विकास किया, इसके साथ ही ऐसी कलाकृतियों का सृजन भी किया जो उसके जीवन को आनन्दमय बना सकें।(1) आदिम कला का तात्पर्य आदिवासी जातियों के प्रागैतिहासिक काल से है, "जब मानव ने प्रथम बार खड़िया, गेरू और कोयला हाथ में लेकर गुहा भित्तियों पर अपने मानस में उमड़ते हुए भावों को रूपायित करने के लिए रेखा खींची होगी, कला उसी क्षण सेअमूर्तहो गई।(2) इस प्रकार आदिम कला का अमूर्तवादी रूप मानव के कल्पित भाव की अभिव्यंजना है जिसका रूपांकन रेखा द्वारा किया गया था, खींची गई रेखा एक संकेत का अंकन है और यह संकेत आदिम कलाकार की भावनाओं व विचारों से रूपांतरित होकर विविध कला रूपों में सम्प्रेषित हुआ था। आदिम कला का अमूर्तवादी दृष्टिकोण समस्त संसार की आकृतिमूलक कलाओं के विरोधी प्रभावों का एक उत्तेजनापूर्ण रहस्य है। यह कला विलक्षण स्वरूप से यह प्रदर्शित करती है कि मानव के अमूर्त भावों को किसी सीमा में बांधा नहीं जा सकता है, वह तो केवल मानवीय संवेगों की स्वच्छन्द अभिव्यक्ति का परिणाम अथवा उसके मन के अंतस में पल रही संवेदनाओं का ही दर्पण या प्रतिबिम्ब हैं। यद्यपि जन साधारण के लिए यह अमूर्त भावनाएँ भले ही आश्चर्यजनक हो सकती हैं किन्तु कला प्रेमियों व मानसिकता का चिन्तन करने वालों के लिए यह अपूर्व सौन्दर्यानन्द प्रदान करने वाली होती हैं। 


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं उत्पत्ति : आदिम काल से ही कला के प्रति मानव के हृदय में स्वाभाविक आकर्षण रहा है इसलिए कला मानव आत्मा के बाह्य और आन्तरिक परिवेश के प्रभाव की प्रतिक्रिया है। इस संसार के विभिन्न अंचलों में प्राप्त आदिम कला के चित्र, मानव जाति के प्रारम्भिक जीवन यात्रा की विशद कहानी है।कई हजारों वर्षों की लम्बी अवधि में बिखरी हुई आदिम कला को चित्रकला की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त किया है- पुरा पाषाण काल, मध्यपाषाण काल तथा उत्तर पाषाण काल।(3) इस प्रकार यह आदिम कलाएँ गुहा भित्तियों, छतों, शिलालेखों, मिट्टी के बर्तनों आदि पर बनाई जाती थी जिनमें अमूर्त सरल ज्यामितीय रेखीय रूपों का प्रयोग किया जाता था, जो एक प्रतीकात्मक उद्देश्य से सम्बन्धित था जिनमें गुहावासी मानव आखेट करने से पूर्व आदिम पशु का चित्र बनाकर कुछ जादू-टोना, टोटका आदि करके अपने आखेट की सफलता पर विश्वास करता था उनका विश्वास था कि जिस पशु को वह चित्र रूप में अंकित करते हैं वह उनके वश में सहजता एवं सरलता से आ जाता है जैसे उस समय पशु को मारकर  खाना एवं उसके बाद उल्लास में नृत्य-गायन आदि करना आदिम मनुष्य की दिनचर्या थी।इसलिए आदिम आकृतियों में विशेष रूप से आखेट, पशुओं और मानव की सरलीकृत अमूर्त शारीरिक संरचना एवं उंगुलियों की आकृतियाँ, वृत, त्रिभुज, आयताकार, स्वास्तिक, क्राॅस तथा षटकोण प्रतीक चिन्हों को सर्वाधिक चित्रांकित किया था।(4) सर्वप्रथम उत्तरी स्पेन में ‘अल्तामिरा’ गुफा की खोज मारिया सातुओला ने सन् 1879 में की थी। इसके पश्चात् कुछ अन्य गुफाएँ जिनमें लास्को, गरगास, पिण्डाल, कोगुल, त्राय फेअर्स आदि में चित्रकला प्रकाश में आई।(5) इन गुफाओं में हाथों की छाप, उंगुलियों से बनाई गई रेखाएँ, रीछ का शिरविहीन चित्र, वृषभों वाला कक्ष, तैरते हुए हिरन, घायल महिष, एक सींग वाला अश्व, नर्तक समूह, रीछ, मानव आदि चित्रांकित हैं।इससे कुछ समय पूर्व भारत में भी सर्वप्रथम शैल चित्रों की खोज का कार्य 1867-68 ई. के लगभग आर्चीबाल्ड कार्लाइल ने प्रारम्भ किया, इसके पश्चात् कार्लाइल और जॉन काकबर्न ने 1880-83 ई. के करीब इन चित्रों का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया।(6) भारत की प्रमुख गुफाएँ जैसे उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर क्षेत्र में लिखुनियाँ, कोहबर, घोड़‌मंगर तथा भल्डारिया प्रमुख है इसके अलावा मध्य प्रदेश में भीमबेटका, पंचमढ़ी, सिंहनपुर, होशंगाबाद मुख्य रूप से पाई जाती है। इन गुफाओं में सामूहिक नृत्य, आखेट, पशु व मानव आदि का चित्रण अत्याधिक स्वाभाविकता से पूर्ण है। इस प्रकार यह कलाकृतियों आदिम मानव की अमूर्त परिकल्पना की जीवंत अभिव्यक्ति है। 


विषयगत अन्वेषण : आदिम युग से ही अनजाने, अपरिचित व अज्ञात रूप-आकार द्वारा दृश्यात्मक आनंद ही अमूर्त कला है, यह अमूर्त आकार मन में गुंफित उन भाव-आवेगों और संवेदनाओं की जीवंत प्रतिक्रिया है, जो मानव के मन-मस्तिष्क और हृदय में आदिम काल से ही विद्यमान है, अतः अमूर्तन की परिकल्पना तो ईश्वरीय रूप में आदिम काल से वर्तमान तक सतत ज्यों कि त्यों है। हालाँकि जब अमूर्त कला के प्रारम्भ के बारे में बात करते हैं, तो सर्वप्रथम आधुनिक कला इतिहास के यूरोपीय कलाकारों का उल्लेख करते हैं जिन्होंने इस शब्द को गढ़ा, परन्तु वास्तव में अमूर्त कला की उत्पत्ति आदिम मानव की सभ्यता की शुरुआत से ही हो गई थी, इसलिए अमूर्त चित्रण को समझने के लिए सबसे पहले प्रागैतिहासिक कालीन गुफाओं का विश्लेषण करना अति आवश्यक है, जिसमें अमूर्त क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर रेखाएँ, बिन्दुओं के घुमावदार प्रयोग और लाल गेरू में कैद की गई अपरिचित आकृतियाँ दिखायी देती हैं, यह वहीं आकृतियाँ हैं जिससे प्रेरणा लेकर आधुनिक अमूर्त कलाकार उन्हें पुन: नवीन विस्तार देने का प्रयास कर रहे हैं। अमूर्त रूप किसी विषय या सौंदर्य आदि के मोहताज नहीं होते, यह तो केवल सूक्ष्म भावनात्मक आवेगों की सत्यता का बखान करते हैं, परन्तु इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि अमूर्त कलाकृति में विषय या सौन्दर्य हो ही नहीं सकता, पर सप्रयास इनकी अनिवार्य आवश्यकता नहीं होती। 


                “ज्यामितीय और गैर-ज्यामितीय प्रतीकात्मक आकृतियों का उपयोग करके गैर-उद्देश्य पूर्ण चित्रों का निर्माण ही अमूर्तन प्रवृत्ति है। अमेरिकी कला इतिहासकार अल्फ्रेड एच. बर्र जूनियर के अनुसार अमूर्त कला की दो मुख्य परम्पराएँ होती हैं- ज्यामितीय और गैर ज्यामितीय।(7) इस सन्दर्भ में यदि प्रागैतिहासिक आदिम कला को देखा जाए तो मानव आदिकाल से ही प्रकृति व ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए निरन्तर प्रयासरत रहा है क्योंकि आदिमकाल से ही ज्यामितीय और गैर-ज्यामितीय प्रतीकों की भाषा अमूर्त होने के कारण ही कला आध्यात्मिक गूढ़तम रहस्यों व कल्पनाओं को दृश्य कला रूप में उद्घाटित करती है। आदिम कला में बाल सुलभ मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली अर्थहीन कलाकृति ही गैर-ज्यामितीय अमूर्त कला है, जिसमें स्वतंत्रता और आनंद की भावना निहित होती है। इसी प्रकार आदिम ज्यामितीय आकृतियाँ बिंदुओं और रेखाओं से बनी आकृतियों का गणित है, जिसमें त्रिभुज, वर्ग और वृत्त सहित अन्य कई आकृति विद्यमान हैं, जिनमें  अमूर्त रूप सौन्दर्य है।इसलिए तकनीकी कुशलता अथवा शैलीगत विकास के अनुसार ये कलात्मक आकृतियाँ सदैव ही द्वि-आयामी अमूर्तन से सम्बन्धित रही हैं।(8) कुछ ज्यामितीय आकृतियों को आदिम काल में निर्मितक्लैविफॉर्म चिन्ह’ (Claviform Sign) सामान्य रूप से ऊर्ध्वाधर रेखांकन द्वारा अमूर्त प्रतीक के लिए जाना जाता है, जिसका उपयोग प्रागैतिहासिक गुफा चित्रकला और रॉक उत्कीर्णन दोनों में किया जाता था तथा इसका आदर्श रूप उत्तरी स्पेन की अल्तामिरा गुफा में भी दृष्टान्त है (चित्र संख्या- 1)।


            यूँ तो पश्चिम आदिम युग की अल्तामिरा, लास्को, गरगास व कोगुल आदि गुफाओं में ऊर्ध्वाधर रेखाएँ, सीधी रेखाएँ, समानांतर रेखाएँ, चतुर्भुजों, त्रिकोण और वृत्तों सहित चिन्ह, कटे-फटे हाथ के निशान, सर्पिल आकृति, काले या लाल बिंदु और अन्य ज्यामितीय व गैर-ज्यामितीय चिह्न  द्वारा मानव और पशु आकृतियों की अमूर्त कला द्रष्टव्य है, जिसमें उदाहरण स्वरूप अल्तामिरा गुफा में चित्रित बाइसन की गैर-ज्यामितीय आकृतियों को भी देखा जा सकता है (चित्र संख्या- 2)।


चित्र संख्या- 2: बाइसन, अल्तामिरा गुफा 
उत्तरी स्पेन, आदिम काल

           इस प्रकार भारत में भी प्रागैतिहासिक काल में उत्तर प्रदेश की लिखुनियाँ गुहा की भीतरी छत और भित्ति पर चित्रांकित विविध प्रकार के आखेट दृश्यों, मानव-पशु आकृतियों, हाथी का शिकार तथा नृत्य-वादन आदि के अमूर्त ज्यामितीय प्रतीक आदिम मानव की कला प्रियता और सौन्दर्य-बोध का सजीव वर्णन करते हैं। इसी भाँति सिंहनपुर गुहा की आकृति निरूपण में भी अमूर्त ज्यामितीय प्रतीक प्रयुक्त हुए हैं उदाहरण स्वरूप यहाँ कई मानव व पशु आकृतियों का देहभाग सीढ़ी की तरह चित्रित किया गया है।भीमबेटका गुहा भी आदिम मानव द्वारा बनाये गए शैलचित्रों के लिए प्रसिद्ध है,  यहाँ प्रारम्भ में बाइसन, हिरण, बारहसिंगा, रीछ, जंगली भैंसें और हाथी आदि जानवरों  का अंकन है, इसके उपरांत जानवरों के साथ-साथ मानव आकृतियाँ भी साकार हुई हैं।(9) इन शैलचित्रों में शिकार दृश्य के लिए उपयोग आने वाले हथियार जैसे कांटेदार भाले, नुकीले डंडे, धनुष-तीर आदि अमूर्त आकृतियों का चित्रण है। इस गुहा में आदिम मानव के बीच में युद्ध के दृश्य को भी साकार किया गया साथ में समूह नृत्य, वाद्ययंत्रों और घुड़सवार समूह का चित्रण (चित्र संख्या- 3) आदि तथा अन्य कई आदिम विषय का अमूर्त अंकन भी है। आदमगढ़, पंचमढ़ी तथा मिर्जापुर में भी अमूर्तन आखेट-चित्र मिले हैं, जिसमें भाले तथा तीर-कमान लिये हुए मनुष्य अंकित हैं।मानवाकृतियों के शरीर तीली जैसे हैं, जो पतली तूलिका से चित्रित किये गये हैं, इन अजीबोगरीब तीलीनुमा आकृतियों से ही आगे चलकर चौखूंटी आकृति का विकास हुआ है, जिसका प्रयोग सिंघनपुर, कबरा पहाड़, पंचमढ़ी, तथा मोड़ी आदि स्थानों में मिलता है। चौखूंटी आकृति वाले चित्रों में ज्यामितीय अलंकरण नहीं है, यह विशेष ध्यान देने योग्य बात है, इनमें केवल गैर-ज्यामितीय अमूर्त सर्पाकृति रेखाओं का अलंकरण हुआ है।(10) इसके अलावा भी अनेक गुफाओं में इस तरह के अमूर्त प्रतीक तथा आकृतियाँ द्रष्टव्य हैं। कुछ ज्यामितीय प्रतीकों का प्रयोग प्रकृति की विभिन्‍न शक्तियों या जादू के विश्वासों अथवा तांत्रिक प्रभावों को व्यक्त करने हेतु किया गया है। जिसमें त्रिभुज,  आयताकार, वृत्त और षट्‌कोण आदि शामिल हैं। इस प्रकार यह अमूर्त संकेत वास्तव में आकर्षक हैं लेकिन वे अत्यन्त रहस्यमय भी हैं। इसी आदिम दृष्टिकोण का अनुसरण कर आधुनिक चित्रकारों ने भी अमूर्तन ज्यामितीय प्रतीकों को नवीन स्वरूप देने का प्रयास किया। हालाँकि इस दृष्टिकोण से भारतीय प्रसिद्ध चित्रकार रजा की चित्रण शैली पर ध्यान केन्द्रित किया जाए, तो उनकी कलाकृतियाँ अमूर्त सरल ज्यामितीय तथा आकर्षक रंग संयोजन से सुसज्जित हैं, जो कदाचित् आदिम कला के तांत्रिक प्रभाव को दर्शाती है।


चित्र संख्या- 3: घुड़सवार समूह, भीमबेटका गुफा
मध्यप्रदेश, आदिम काल

           प्रागैतिहासिक काल के कलाकार की रेखाओं में जादुई भावनाओं का आनन्द और मन्त्र-मुग्ध कर देने के समस्त गुण थे। रेखाओं में गति व शक्ति का संपूजन ऐसा था मानों शिलाश्रयों में बैठा कोई आधुनिक कलाकार किसी जनजाति के चित्र बना रहा हो।गॉर्डन ने कबरा पहाड़, महादेव पहाड़ियों और सिंघनपुर के शिलाश्रयों पर अंकित आयताकार मानवाकृतियों में भी इतना प्रखर सादृश्य लक्षित किया कि वे उन्हें सम-सामयिक कहने लगे।(11) सम्भवतः उन्हें भी यह आकृतियाँ अमूर्त प्रतीत हुई होगीं।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में : “अमूर्त कला का शाब्दिक अर्थ नाॅन फिगरेटिव अथवा एब्स्ट्रेक्ट आर्ट है। इसे वस्तुनिरपेक्ष कला भी कहते हैं। यह कला गैर उद्देश्यपूर्ण अथवा नॉन आब्जेक्टिव होती है।(12)20वीं शताब्दी में कान्डिन्स्की व मोंद्रियान को अमूर्त कला का प्रणेता का स्थान दिया जाता है। कान्डिन्स्की ने अपना पहला वस्तुनिरपेक्ष चित्र सन् 1910 में जलरंगों से चित्रित किया जो शीषर्कहीन है।(13) अमूर्त कला एक ऐसी दृश्य कला शैली है जो दृश्य वास्तविकता को यथार्थ रूप में दर्शाए बिना ही वस्तु का अर्थ व्यक्त करने के लिए आकृतियों, रंगों, रेखाओं और रूपों का उपयोग करती है। इस कला में विशेष रूप से कल्पनाशील तत्त्वों पर बल दिया जाता है, जिससे मानव के कलात्मक तथा मौलिक विचारों की अमूर्त अभिव्यक्ति होती है, इसलिए यह कला रंग और आकार द्वारा मानव मन से मुक्त एक भावना है। हालाँकि प्रारम्भिक आदिम कला पूर्ण रूप से अमूर्त थी परन्तु धीरे-धीरे आकृतियाँ विकसित होने लगी लेकिन फिर भी उनमें यथार्थता की कमी थी और अमूर्तता विराजमान थी, इसलिए मूर्त और अमूर्त के मध्य की कड़ी अर्द्ध-अमूर्त भी कहलायी। 


              अमूर्त कला का विश्लेषण करते समय सर्वप्रथम हमारे मन-मस्तिष्क में आदिम कला की आकृतियाँ विचरण करने लगती हैं क्योंकि अमूर्त चित्रण में प्रागैतिहासिक विशेषताएँ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं। इस सन्दर्भ में यदि पश्चिम के आधुनिक चित्रकारों जैसे पौल सेजान, पौल गोग्वँ, पिकासो, हेनरी मातिस, फ्रांज मार्क, हेनरी रूसो आदि की कला का विश्लेषण किया जाए तो निश्चित ही उनकी बनाई आदिम कलाकृतियों में अमूर्त कला के सरलीकृत तत्त्वों का संयोजन दृष्टिगत होता है, क्योंकि कहीं न कहीं वस्तुनिरपेक्ष कला ने उत्तरप्रभाववाद, फाववाद, अभिव्यंजनावाद तथा घनवाद आदि शैलियों को भी प्रभावित कर दिया था। पौल गोग्वँ शैलीगत उद्देश्यों द्वारा ताहिती आदिम कला से प्रेरित थे, उनकी कला शैली में आध्यात्मिक और भावनात्मक तत्त्व समाहित थे, उनके द्वारा निर्मित चित्रों में आदिम स्त्री की आँखों में छिपे हुए रहस्य तथा मानवीय जीवन के कूट प्रश्न को दृश्य रूप में दर्शकों के सम्मुख रखा।पौल गोग्वँ कहते हैं कि कला अमूर्तन है और मैं सही अर्थों में आदिम हूँ।(14) “इस प्रकार पिकासो भी अफ्रीकी आदिम कला से प्रभावित हुए थे क्योंकि सन् 1905 के लगभग पेरिस के एंथोग्राफी म्यूजियम में अफ्रीकी कलाकृतियाँ प्रदर्शित होने लगी थी और उन कलाकृतियों को देखकर पिकासो का दृष्टिकोण अचानक ही परिवर्तित सा होने लगा था तथा वे अफ्रीकी कला की अभिव्यंजना शक्ति, भावात्मकता एवं मनोविश्लेषणात्मक प्रवृत्ति से काफी हद तक प्रेरित हुए, इसीलिए सन् 1906-08 के मध्य पिकासो ने विशेष रूप से आदिमवाद शैली प्रयुक्त की, जिसे निग्रो अथवा अफ्रीकन काल नाम से सम्बोधित किया गया, जिससे प्रेरणा पाकर उन्होंने घनवादी कला आन्दोलन का भी विकास किया।”(15) आदिम कला में पिकासो ने न केवल सौन्दर्यात्मक या सांस्कृतिक महत्त्व समझा बल्कि अपनी सहज प्रवृत्तियों द्वारा अमूर्त सृजन करने का संदेश दिया जिसमें ज्यामितीय नियमबद्धता विशेष द्रष्टव्य है। फलतः इन समस्त कलात्मक गुणों से प्रेरित होकर ही उन्होंने सन् 1907 में ‘आविन्यों की स्त्रियाँ’ नामक प्रथम श्रेष्ठ अमूर्तन चित्र निर्मित किया (चित्र संख्या- 4)। अतः धीरे-धीरे मातिस, रूसो, फ्रांज मार्क आदि चित्रकार भी आदिम कला की ओर आकर्षित हुए और अमूर्त आकृतियों का सृजन करने लगे। इसके विपरीत उसी दौरान भारतीय आधुनिक चित्रकारों ने भी आदिवासी कला में अमूर्तता की प्रवृत्तियों को अपनी शैली का आधार बनाया जिसमें विशेष रूप से रामकिंकर बैज, जे. स्वामीनाथन और यामिनी राॅय आदि प्रमुख हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने चिंतन द्वारा इस जगत से परे यानि न दिखने वाले अलौकिक एवं पारलौकिक जगत की अनुभूति का दिग्दर्शन अपने अमूर्त चित्रों में कराया है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने चित्रण में जब अमूर्तता की ओर रूख किया तब प्राचीन संस्कृतियों की आदिम कला ने ही उन्हें  प्रेरित किया। इस प्रकार प्रकृति कृत कल्पना और बेतुकेपन के प्रति सहज भावना ने उनकी दृश्य भाषा को एक विशिष्ट अमूर्तन चरित्र दिया। रामकिंकर बैज ने भी सदैव ही संथाल आदिवासी कला से प्रेरणा ली और कई अमूर्त कलाकृतियाँ रची। अतः प्रारम्भ में तो आधुनिक चित्रकारों ने आदिम कला को महत्त्वपूर्ण न माना परन्तु निश्चित ही समय की गति के साथ चित्रकारों ने अपने बौद्धिक चिंतन व अमूर्तवादी दृष्टिकोण द्वारा इस कला को एक नवीन स्वरूप दिया। 


चित्र संख्या- 4: आविन्यों की स्त्रियाँ
पाब्लो पिकासो, सन् 1907

               इस प्रकार दृश्य कला इतिहास में आदिम कला के अमूर्त रूप में आकारों की प्रखरता, कोमलता, गतित्व और स्थायित्व आदि गुण होते हैं, जो साहचर्य से दर्शक के मन में भावोत्पादन करते हैं। आदिम अमूर्तता एक ऐसी शैली को संदर्भित करती है, जो आदिम या प्राचीन कला रूपों के तत्त्वों को अमूर्त अभिव्यक्ति के साथ जोड़ती है। अमूर्त कला में भावों की अभिव्यंजना प्रधान तत्त्व है तथा इसमें वस्तु के आकार एवं रूप को गौण माना जाता है और यही गुण आदिम कला में भी अवलोकनार्थ है। दृश्य कला में कलाकार का उद्देश्य सदैव ही कुछ नवीन सृजन करने का होता है, जिससे आन्तरिक सुख की प्राप्ति होती है, शायद इसीलिए ही आधुनिक कलाकारों ने ऐतिहासिक कला का विश्लेषण करना प्रारम्भ किया और वह विशेष रूप से आदिम कला से प्रेरित हुए। इस प्रकार आदिम काल की परंपरानुसार आधुनिक चित्रकारों ने अपने उन्मुक्त भाव द्वारा इन्हीं आधारभूत सिद्धान्तों को प्रकट किया, जो आधुनिक अमूर्त कला कहलाई। 

             

विद्वानों का दृष्टिकोण :प्लेटो ने सर्वप्रथम वस्तुनिरपेक्ष सौन्दर्य का विचार करके लिखा है कि वृत्त, आयत ऐसे आकार हैं  जो किसी बाह्य कारण से या उपयुक्तता की वजह से सुन्दर नहीं है बल्कि सौन्दर्य उनकी प्रकृति है एवं उनसे ऐसी सौन्दर्यानुभूति होती है जो निरिच्छ निर्विकार है, इस प्रकार रंगों के विशुद्ध प्रयोग में भी यह सौन्दर्य है।(16) यदि प्लेटो आज जीवित होते तो शायद अमूर्त कला को अपने दिव्य लोक में सर्वप्रथम एवं उच्च स्थान देते।रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी सौन्दर्य, आनन्द और रस आदि को कलाकृति के अमूर्त भाव बताये हैं, जिन्हें केवल महसूस ही किया जा सकता है।(17) इस प्रकार इंग्लैण्ड के कला इतिहासकार सर हरबर्ट रीड ने इस सम्बन्ध में कहा है कि आज कला अपनी तीस हजार वर्षों की परिक्रमा करती हुई फिर उसी कंदरा में लौट आई है जहाँ में से वह चली थी, आखिर दुनिया गोल है तो फिर इसमें क्या आश्चर्य, अगर कला अपने घर वापिस लौट आई है।(18) यदि वर्तमान कला के सन्दर्भ में हम देखें तो यह कथन सत्य साबित होता है क्योंकि आदिम कला जहाँ से प्रारम्भ हुई थी आधुनिक युग के कलाकार भी उसी प्रारम्भिक आदिम कला का अनुसरण कर रहे हैं, जिसमें अमूर्त आकृतियों का स्वरूप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। यद्यपि प्रारम्भ में प्रागैतिहासिक काल था और वर्तमान में आधुनिग युग है जिसके कारण मानव के बौद्धिक विकास से लेकर तकनीकी विषयों में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं परिणाम स्वरूप कला की पद्धतियाँ, माध्यम एवं तकनीक में तो कई परिवर्तन हुए परन्तु विषय वस्तु, आकृति निरूपित करने का ढंग, रंगों का प्रयोग, अमूर्त भावाभिव्यक्ति प्रकट करने की प्रवृत्ति आदि में सादृश्यता दृष्टिगत होती है। हालाँकि भले ही समयचक्र और परिस्थितियों के कारण संसार में काफी कुछ बदलाव हुए, किन्तु आज भी आदिमानव की कला, सभ्यता और संस्कृति न बदल सकी, क्योंकि वर्तमान में भी उनकी कलाकृतियों में वहीं सादगी है, जो हजारों वर्षों पूर्व हुआ करती थी, इसलिए इन कलाओं में निहित 'सादगी' ही एक मात्र ऐसा मूल तत्त्व है, जिसने आधुनिक अमूर्त चित्रकारों के मन को मोहित कर दिया।

               

चित्र विश्लेषण : प्रस्तुत चित्र संख्या- 5 अर्जेंटीना की ‘क्यूवा डे लाॅस मानोस’ अर्थात्हाथों की गुफाप्रागैतिहासिक शैलकला का उत्कृष्ट अमूर्त संग्रह है, यहाँ दक्षिण अमेरिका के आदिम मानव की कला-संस्कृति के साक्ष्य हैं, जिसमें विशेषतः हाथ की छाप हैं। आदिम मनुष्य गुफा में अधिकतर अपने बाँये हाथ को दीवार पर रखकर दाँये हाथ से नली द्वारा रंग फूंक कर यह हाथ की छाप बनाता था और इसी प्रकार दाँये हाथ को रंग में डुबोकर दीवार पर छाप लगाने में भी सुविधा रहती होगी, इनमें अनेक हाथों की उंगुलियाँ कटी हुई भी हैं। इसी प्रकार की आदिम कला शैली का अनुसरण संभवतः प्रस्तुत चित्र संख्या- 6 में हुआ है। जब आधुनिक युग में प्रसिद्ध अमेरिकन एक्शन चित्रकार जैक्सन पोलाक ने अपनी कला में एक परिवर्तनकारी क्षण के दौरान ड्रिप तकनीक द्वारा सन् 1948 में ‘नम्बर 1ए’ चित्र बनाया। क्योंकि वह शुद्ध अमूर्त चित्रण करना चाहते थे, इसलिए शायद उन्होंने आदिम मानव की भाँति अपने अनियंत्रित, मौलिक और उन्मुक्त विचारों द्वारा इस चित्र को संयोजित किया। चित्र में रंगों की अनियमित व घुमावदार रेखाएँ और रंगों की छींटे रचना पर हावी हैं, जो एक जाल जैसी उपस्थिति बनाते हैं, जिनमें गहराई और गति का अमूर्त प्रवाह दिखाई देता है। ध्यानपूर्वक अवलोकन करने के पश्चात् उनकी यह कृति प्रागैतिहासिक गुफा की दीवारों की याद दिलाती है, क्योंकि इस चित्र में विशेष रूप से रंगों की अनियमित आकृतियों के मध्य ऊपर की ओर 'हाथ की छाप' है, जो प्रागैतिहासिक आदिम कला को दर्शाती है। इस प्रकार पोलाक का यह चित्र आदिम मानव द्वारा बनाई गई सबसे प्राचीनतम अमूर्त कला का प्रतिबिम्ब प्रतीत होता है।



चित्र संख्या- 5: क्यूवा डे लॉस मानोस अर्थात् हाथों की गुफा
अर्जेंटीना, आदिम काल

चित्र संख्या- 6: नम्बर 1ए
 जैक्सन पोलाक, सन् 1948 


        प्रस्तुत चित्र संख्या- 7 'सामूहिक नृत्य'  मध्यप्रदेश राज्य की भीमबेटका गुफा की भित्ति पर चित्रित है। इस चित्र में मोटी रेखाओं से निर्मित मानवाकृतियों की अमूर्तन ज्यामितीय शारीरिक संरचना संयुक्त रूप से पंक्तिबद्ध अवस्था में होकर हाथ में हाथ पकड़े नृत्य मग्न हैं, इन आकृतियों के पद संचार में उतनी अधिक गतिशीलता लक्षित नहीं है।  नृत्य समूह के ऊपर एक मानवाकृति नगाड़े जैसा कोई आदिम वाद्य यंत्र गले में लटकाये हुए बजाने में लीन है। इन आकृतियों के दृश्यात्मक विश्लेषण से ज्ञात नहीं हो पाता है कि यह स्त्री है या पुरुष, इसलिए यह चित्र अमूर्त प्रवृत्ति के निकट है। इसी भाँति आधुनिक काल में निर्मित प्रस्तुत चित्र संख्या- 8 फ्रांस के प्रसिद्ध फाववादी चित्रकार हेनरी मातिस द्वारा चित्रित 'द डांस' कृति है। मातिस ने इस चित्र में प्रसन्नता, आनंद और सुख के साथ ही साथ सरलता को व्यक्त करने के लिए आदिमवाद कला का प्रयोग किया। इस दृश्य में  जीवंत और गतिशील अतिरंजित पाँच नग्न अमूर्त आकृतियाँ एक गोलाईयुक्त घेरे में नृत्य मग्न हैं, जिनके शरीर की संरचना में मांसल प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। नृत्य की लयबद्धता और आनंदित स्वरूप  बहुत ही ऊर्जावान व उन्मुक्त है। रंग और रेखांकन द्वारा चित्रित यह गैर-ज्यामितीय अमूर्त रचना नृत्य के प्रवाह में लीन प्रतीत होती है, इसलिए इस दृश्य में आकृतियों की वृत्ताकार व्यवस्था में गति और संतुलित संरचना के माध्यम से सामंजस्य की भावना उत्पन्न हो रही है। मुख्यत: चित्र में शीतल रंगों से नीले आकाश और हरी धरती पर चटक लाल रंग से सुसज्जित मानवाकृतियाँ अत्यंत ही प्रभावपूर्ण हैं। मातिस का यह आधुनिक अमूर्त चित्र निश्चित ही दर्शकों को आदिम समय में वापस ले जाता प्रतीत होता है, जब मूल आदिम,  जंगली, असभ्य और प्राचीन मानव हाथ में हाथ डालकर थिरकते थे और त्योहार, अनुष्ठान एवं आखेट अवसरों में जीवन की शक्ति व उत्साह का खुलकर आनंद लेते थे।  इन चित्रों के विश्लेषण उपरांत हम कह सकते हैं कि तत्कालीन आदिम मानव के इतिहास में ऐसे सामूहिक नृत्य, गान एवं उत्सव की परम्परा अति प्राचीन थी, जहाँ समूह नृत्य की निरंतरता में एक अंतहीन शक्ति थी। इस प्रकार इन आदिम आकृतियों में यथार्थता की कमी हमेशा स्पष्ट रूप से परिलक्षित रही है, इसलिए आदिम काल हो या आधुनिक, परन्तु आदिम आकृति-निरूपण में विचार की अवधारणा और भावनात्मक तत्त्व होने के कारण अमूर्तन प्रभाव सदैव समाहित हैं।


चित्र संख्या-7: सामूहिक नृत्य, भीमबेटका गुफा
मध्यप्रदेश, आदिम का

चित्र संख्या- 8: द डांस
हेनरी मातिस, सन् 1910 

निष्कर्ष : आदिम कला में सदैव ही अमूर्तता का सजीव प्रतिबिम्ब दृष्टिगत होता है। इस विषय के सम्पूर्ण विश्लेषण पश्चात् यह ज्ञात होता है कि आदिम मानव के अन्तर्मन, उसकी चेतना व संस्कृति को जानने के लिए पाषाण चित्रकला, उपकरण व प्रतीकों का ज्ञान नितान्त आवश्यक है, जिसके अध्ययन में निश्चित ही अमूर्तता पाई जाती है, इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि कला में अमूर्तन की प्रवृत्ति वर्तमान आधुनिक युग से नहीं बल्कि प्रागैतिहासिक कालीन आदिम कला में भी विद्यमान रही है क्योंकि अमूर्त कला एक ऐसी अभिव्यंजक दृश्य भाषा है, जो रंग और रेखांकन द्वारा अनेक प्रयोगों से केवल हमारे बौद्धिक चिंतन शक्ति से ही नहीं, अपितु हमारी भावनाओं से भी संवाद करने का अद्‌भुत प्रयास करती है, अतः यही कला इतिहास की नींव है।


सन्दर्भ :
  1. रीता प्रताप. भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, प्रकाशकः राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2021, पृष्ठ सं. 16
  2. विनोद भारद्वाज. बृहद आधुनिक कला कोश, प्रकाशक: वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृष्ठ सं. 29
  3. रीता प्रताप. भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, प्रकाशक : राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2021, पृष्ठ सं. 16
  4. वही, पृष्ठ सं, 26
  5. र.वि.साखलकर. यूरोपीय चित्रकला का इतिहास, प्रकाशक : राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2022, पृष्ठ सं. 2
  6. श्यामबिहारी अग्रवाल और ज्योति अग्रवाल. भारतीय चित्रकला का इतिहास, प्राचीन भाग- 1, प्रकाशक: डाॅ. श्यामबिहारी अग्रवाल, ज्योति अग्रवाल 'रूपशिल्प', प्रयागराज, 2022, पृष्ठ सं. 18
  7. Alfred  H. Barr  Jr. Cubism and Abstract Art, 1st Edition, Publisher: Routledge, 2019
  8. जी.के.अग्रवाल. पश्चिम की कला 'अशोक’, प्रकाशक: संजय पब्लिकेशन, आगरा, 2019 पृष्ठ सं. 28
  9. गिर्राज किशोर अग्रवाल. कला और कलम, प्रकाशकः संजय पब्लिकेशन्स, आगरा, 2022, पृष्ठ सं. 14
  10. वही, पृष्ठ सं. 25
  11. जगदीश गुप्त. प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला, प्रकाशक: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली-7, 1960, पृष्ठ सं. 41
  12. र.वि.साखलकर. कला के अन्तर्दर्शन, प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2017, पृष्ठ सं. 167
  13. र.वि.साखलकर.आधुनिक चित्रकला का इतिहास, प्रकाशकः राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2019, पृष्ठ सं. 270
  14. सन्तोष कुमार और प्रो. अलका तिवारी. समकालीन भारतीय चित्रकला में अर्द्ध-अमूर्तन का महत्त्व, Aryavart Shodh Vikas Patrika, Vol.16, No. IV, Oct.-Dec., 2023, पृष्ठ सं. 267-269
  15. ममता चतुर्वेदी. यूरोप की आधुनिक कला (1850 ई. से), प्रकाशक : राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2022, पृष्ठ सं. 102
  16. र.वि.साखलकर.आधुनिक चित्रकला का इतिहास, प्रकाशकः राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2019, पृष्ठ सं. 268
  17. अंजू वारियर. कला एवं अमूर्त: एक परिचर्चा, Aesthetics A journal of Arts, Interiors & Lifestyle, Vol. - 1, July-Dec., 2010, पृष्ठ सं. 99-101
  18. सन्तोष कुमार और प्रो. अलका तिवारी. समकालीन भारतीय चित्रकला में अर्द्ध-अमूर्तन का महत्त्व, Aryavart Shodh Vikas Patrika, Vol.16, No. IV, Oct.-Dec., 2023, पृष्ठ सं. 267-269
चित्र स्रोत :
  1. चित्र संख्याः 1 - https://www.researchgate.net/figure/Claviform-signs-situated-near-the-polychromes-figures-photo-by-P-Saura_fig4_356086210
  2. चित्र संख्याः 2 - https://whc.unesco.org/en/list/310/
  3. चित्र संख्या: 3 - नर्मदा प्रसाद उपाध्याय. मालवा के भित्तिचित्र, प्रकाशक: निदेशक- आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद्, मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय, श्यामला हिल्स, भोपाल, मध्यप्रदेश, 2018, पृष्ठ सं. 32
  4. चित्र संख्या: 4 - म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट, न्यूयॉर्क https://en.m.wikipedia.org/wiki/File:Les_Demoiselles_d%27Avignon.jpg
  5. चित्र संख्या: 5 - https://whc.unesco.org/en/list/936/
  6. चित्र संख्या: 6 - म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट, न्यूयॉर्क https://www.moma.org/explore/inside_out/2013/07/18/momas-jackson-pollock-conservation-project-number-1a-1948/
  7. चित्र संख्या: 7 - https://www.pickpackgo.in/2016/12/prehistoric-rock-shelter-paintings-bhimbetka.html?m=1
  8. चित्र संख्या: 8 - द हर्मिटेज संग्रहालय, सेंट पीटर्सबर्ग https://en.m.wikipedia.org/wiki/Dance_(Matisse)

शेरिल गुप्ता
शोधार्थी, चित्रकला विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर

दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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