- गोपी चंद चौरसिया
शोध सार : हम एक गतिशील समाज में निवास करते हैं जिसका आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं तकनीकी विस्तार तेजी से हो रहा है। इस लेख का उद्देश्य डिजिटल युग में लोक संस्कृति एवं जीवनमूल्यों के सैद्धांतिक प्रभावों की जाँच करना है। आज के इस डिजिटल युग में लोक संस्कृति एवं जीवन मूल्यों के बोध का प्रश्न मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से डिजिटल पटल पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। डिजिटल युग में आंचलिक साहित्य जीवन मूल्य एवं लोक संस्कृति का स्वरूप डिजिटल पटल से होते हुए मानव के आन्तरिक पटल को किस प्रकार प्रभावित करता है एवं इसकी प्रासंगिकता क्या है?
इस शोध पत्र के माध्यम से जान सकेंगे। सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता की सर्वव्यापकता ने मानवीय अनुभव व मूल्यों को परिवर्तित किया है। पिछले कई दशकों में इंटरनेट, सोशल मीडिया तथा मोबाइल जनसंचार वर्तमान समाज के आन्तरिक तत्व बन चुके हैं। संचार की तात्कालिकता एवं सतत् उपलब्धता सांस्कृतिक परिवर्तन का ठोस प्रमाण है। डिजिटल तकनीक के प्रयोग से मानव के रोजमर्रा के जीवन संचालन का तरीका परिवर्तित हुआ है और उसके डिजिटल अनुभव का भी विस्तार हुआ है। लोक संस्कृति; जीवन मूल्यों, परम्पराओं एवं मान्यताओं के उन आदर्शात्मक गुणों का समूह है जिसका अस्तित्व लोक में व्याप्त है। ‘संस्कृति’ का सम्बन्ध लोक से है, लोक का अस्तित्व परम्परा एवं मूल्य से है। मनुष्य हो या वस्तु, मूल्य ही इन दोनों को अर्थवत्ता प्रदान करती है। समय एवं मानवीय परिस्थितियों की वेगात्मक बयार के साथ समाज भी गतिशीलता को प्राप्त कर रहा है, इस यथार्थ से मानवीय चित्त की वृत्तियाँ बदलती हैं। कृत्रिम मेधा के प्रभाव काल में आंचलिकता की ज्यामिति रचना एवं उसके जीवन में निहित भाव आज के युग में अत्यंत प्रासंगिक हैं। इस शोध पत्र में इसी का अध्ययन प्रस्तावित है।
बीज शब्द : आंचलिक साहित्य, लोक-संस्कृति, जीवन मूल्य, डिजिटल युग, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीन, समाज, संस्कृति, प्रगति, प्रौद्योगिकी, सोशल मीडिया।
मूल आलेख : इस डिजिटल युग में मानवीय मूल्य एवं लोक संस्कृति मनुष्य के बौद्धिक संदेहों का समाधान करके मात्र बौद्धिक संतोष की भावना ही जागृत नहीं करता बल्कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वैचारिकी का एक समीचीन पहलू भी प्रदान करता है। इस दौर में डिजिटल पटल को मानव जीवन में आत्मसात करते हुए मानवीय मूल्य एवं लोक संस्कृति, परम्पराएँ, रीति-रिवाज इत्यादि का संवर्धन भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। आंचलिक साहित्य की चिंता के केंद्र में लोक संस्कृति, परम्परा व जीवन मूल्य हैं। आदर्श समाज एवं आदर्श मनुष्य की संकल्पना से एक बेहतर संस्कृति का निर्माण होता है। इसकी संकल्पना की कामना मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा के बिना निरर्थक है। “मानव मूल्य से तात्पर्य उन उद्देश्यों, लक्ष्यों, आदर्शों, अपेक्षाओं तथा वांछित स्थितियों से है जिनके प्रति समाज में प्रेम और आदर है। कोई भी समाज निरे यथार्थ पर नहीं चलता। कह सकते हैं कि पशु समाज और मानव समाज में फर्क ही यह है कि पशुओं के जीवन में मूल्य नहीं होते और उनका व्यवहार उनकी तात्कालिक आवश्यकता से निर्धारित होता है जबकि मनुष्य के सामने कुछ आदर्श होते हैं जिनका वह पालन करता है अथवा करना चाहता है।”(1) सामाजिक मूल्यों को आत्मसात किये बगैर जीवन के स्पष्ट दृष्टिकोण को समझना मुश्किल है। डॉ. जगदीश गुप्त जीवन-मूल्यों को मानवीय मूल्यों और मानवीय मूल्यों को भारतीय मूल्यों के रूप में देखते हैं - “मैं समझता हूँ कि तत्वतः सभी भारतीय मूल्य मानवीय मूल्य हैं, चाहे वे नैतिक मूल्य हों, चाहे सौन्दर्यपरक मूल्य हों या कोई और, पर विशेष अर्थ में मानव मूल्यों से है, जो मनुष्य के साथ सहज रूप में जुड़े हुए हैं। अतः जीवन में मूल्यों की प्रतिष्ठा का अर्थ मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा है उसके बिना मानव का अस्तित्व निरर्थक है।”(2)
‘मूल्य’ व्यक्ति के उत्थान एवं पतन की मुख्य वस्तु है, व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकासात्मक आधार मूल्य है। मनुष्य मूलतः कल्पनाशील रहने वाला तर्कशील एवं वैचारिक दृष्टि से चैतन्य प्राणी है। “सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों के कारण मनुष्य को जीवन के परिस्थितियों की विवेचना व्यवस्थित रूप में करने की ऊर्जा मिलती है। मनुष्य इन मूल्यों की शिक्षा लोक के विभिन्न स्वरूपों से ग्रहण करता है। लोक संस्कृति में मनुष्य के व्यक्तित्व व्यवहार के परिमार्जन एवं परिष्कार की अपार संभावनाएं निहित होती हैं।”(3)
मिट्टी से जुड़े हुए हर मनुष्य के लिए मानव मूल्य एवं संस्कृति की संकल्पना प्राथमिक पहलू है। मानव मूल्य एवं संस्कृति का प्रत्यक्ष दर्शन हमें ग्रामों में ही प्राप्त होता है। “भारत के साथ ग्राम का अनन्य सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। भारत सदा से ही भूमि निर्भर देश रहा है। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति के केंद्र में
ग्राम ही थे। भारत की किसी भी अवस्था अथवा परिस्थिति का अध्ययन करने के लिए हमें भारत के ग्रामों का अध्ययन अपेक्षित होगा।”(4)
मनुष्य अपने अंचल एवं लोक संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण करता है एवं लोक निर्मित मूल्यों के कारण सदैव आदर्श एवं उत्तम भाव बोध के चैतन्य को जागृत करता है। डिजिटल प्रौद्योगिकी एक तरफ मानव संस्कृति को अधिक अवसर प्रदान करने के हवाले से हमारे समक्ष परिलक्षित होती है लेकिन दूसरी ओर मानव संस्कृति के मूल्यों एवं मानसिक स्थिति का क्षरण करते हुए अपनी विनाशकारी शक्तियों के साथ हमारे समक्ष अपना अलग रूप भी प्रदर्शित करती है। निःसंदेह इसका यह सौतेला व्यवहार भी मानव निर्मित ही है। ऐसी शक्तियां व्याख्यात्मक ज्ञान को खतरे में डालती हैं, अनुभवों पर विचार करने की क्षमता का ह्रास करती हैं और सामाजिक एकजुटता को तोड़ने का काम करती हैं। गलत सूचनाओं का प्रसार और विभाजनकारी व विरोधी स्थितियों का जन्म इस
विघटन के युग में सांस लेते हुए भयानक चेतावनी का प्रतीक है। “मूल्यों का मूल अनुभव मनुष्य पर आश्रित है। एक मशीन मूल्यों को नहीं जान सकती क्योंकि वह अनुभव करने योग्य नहीं है। मानवीय मूल्य, मानवीय अनुभवों की अभिव्यक्ति हैं तथा अनुभव
हमारे संतुष्ट-असंतुष्ट होने की अभियक्ति है।”(5)
लोक संस्कृति एवं मूल्यों की रक्षा के लिए हमें लोक की तरफ उन्मुख होना ही पड़ेगा। आंचलिक साहित्य में लोक की अपार संभावनाएं विराजमान हैं। साहित्य अगर जनता की चित्तवृतियों का संचित प्रतिबिम्ब है तो लोक में विराजमान संस्कृति एवं जीवन मूल्य आंचलिक जीवन की वृत्तियाँ हैं और इसका केंद्र आंचलिक साहित्य है। समय परिवर्तन के साथ इस डिजिटल युग में परिस्थितियों में बदलाव स्वाभाविक तथ्य है, यही कारण है कि मूल्य एवं संस्कृति सदैव अपरिवर्तित नहीं रह सकते हैं, समयानुसार इसके स्वरूप में बदलाव आ ही जाता है।
डॉ. रामदरश मिश्र इस सन्दर्भ में लिखते हैं, “मूल्यों का बोध सर्जक तात्कालिक जीवन सन्दर्भों से प्राप्त होता है। बहुत सी मान्यताएं, मूल्य किसी युग में आ कर पुराने पड़ जाते हैं।अनेक मूल्य भी सारहीन सिद्ध हो जाते हैं। युग नए मूल्यों की खोज करता है, नए जीवन दर्शन बनते हैं। जागृत संवेदना और विश्लेषण शक्ति संपन्न बुद्धि इन मूल्यों की संक्रांतियों को चेतना का अनुभव करती है।”(6)
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यों का परिवर्तन हो रहा है जो पुराना है वह छूट रहा है और जो नवीन है वह आधुनिक व डिजिटल युग की देन है। हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि कृत्रिम बुद्धिमता के इस डिजिटल युग और उपभोक्तावादी संस्कृति के काल में जीवन मूल्य एवं लोक संस्कृति के लिए स्थान कहाँ बच पाया है? इस सूचना और संचार के युग में जीवन मूल्य एवं लोक संस्कृति का निरंतर ह्रास हो रहा है। मनुष्य उपभोक्तावादी डिजिटल मस्तिष्क के प्रयोग में इतना लीन हो चुका है कि वह केवल भौतिक वस्तुओं की कामना करता है। मनुष्य प्रेम, विश्वास, भाईचारा, परम्परा, त्याग, दया, जैसे मूल्यों का ह्रास करके अवगुणों को आत्मसात कर रहा है। लोक की मान्यताएं, विश्वास, संस्कृति एवं जल-जंगल-जमीन की चिंता से मानव विमुख हो रहा है, दूसरी ओर देखें तो जीवन दशाओं से लेकर भावनात्मक तथ्यों के साथ वैचारिक परिवर्तन की दृष्टि से यह डिजिटल युग मानव सभ्यता के विकास का गतिशील युग है। अपने अंचल की लोक संस्कृति को बिसरा कर भावनात्मक मनोदशा से कोसों दूर मानव केवल भौतिक वृद्धि की ओर अग्रसर है। आंचलिक साहित्य लेखन में मानवीय भावनाओं एवं लोक संस्कृति का वर्णन स्पष्टत: देखा जा सकता है। “यद्यपि नयी सभ्यता तथा शिक्षा के चाक-चिक्य के कारण हमारी प्राचीन धारणाओं और मान्यताओं
में भी परिवर्तन होने लगा है। परन्तु लोक संस्कृति की सरिता आज भी अक्षुण्ण गति से प्रवाहित हो रही है। ग्रामीण स्त्रियाँ आज भी उसी प्रकार से व्रत रख रही हैं और अपने अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि के लिए देवताओं की पूजा करती हैं। लोक गीतों में जिन प्रधान देवताओं की पूजा का उल्लेख पाया जाता है उनमें शिव अधिक प्रचलित हैं।”(7)
भक्त भगवान के बीच मानवता का यह सहज संवाद मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था को प्रबल करते हैं। लोकरीति, लोकाचार, जनश्रुति, भाव-बोध इत्यादि तत्व लोकसंस्कृति की सरिता को निर्मल करते हुए संस्कृति एवं मूल्यों के मध्य सकारात्मक सेतु बनाने का कार्य कर रहे हैं।
इस डिजिटल युग में आंचलिक साहित्य आखिर कितना प्रासंगिक हो सकता है ? इसके जवाब को समझने से पहले आंचलिकता को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझना आवश्यक होगा। जब किसी विशेष क्षेत्र या अंचल की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं को लक्षित करके जो साहित्य रचा जाता है उसे आंचलिक साहित्य कहते हैं।
आंचलिकता एक ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि अन्य भाषाओं के लेखन में इसका अभाव नहीं मिलता है।
“आंचलिक लेखन के पक्ष की सबसे बड़ी दलील यह हो सकती है कि आंचलिक जीवन की अभिव्यक्ति उसकी अनिवार्यता है। वह अपनी रचनाओं में वातावरण का महत्व स्वीकार करता है। यह वातावरण न केवल लेखक को, बल्कि पाठक को भी निरंतर प्रभावित करता रहता है।”(8)
लोक में उपस्थित अंचल का कथा साहित्य अपने मानवीय मूल्यों को रोचकता में पगा कर मानव मन की जिज्ञासा में नैतिक शिक्षा का बीजारोपण करता है। डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अंचल को परिभाषित करते हुए लिखा है, “अंचल उस भौगिलिक खंड को कहते हैं जो सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से सुगठित और विशिष्ट एक ऐसी इकाई हो जिसके निवासियों के रहन-सहन, प्रथाएं, उत्सवादि, आदर्श एवं आस्थाएं, मौलिक मान्यताएं तथा मनोवैज्ञानिक विशेषताएं परस्पर समान और दूसरे क्षेत्र के निवासियों से इतनी भिन्न हो कि इनके आधार पर यह क्षेत्र अंचल विशेष इस प्रकार के दूसरे क्षेत्रों से एकदम अलग प्रतीत होता है।”(9)
आंचलिक कथा साहित्य में व्यक्ति आदि के स्थान पर अधिक महत्व अंचल एवं उसके क्षेत्र को दिया जाता है। अंचल की पहचान के लिए डॉ. आदर्श सक्सेना ने बहुत ही सार्थक और तर्कपूर्ण विवेचना किया है – “अंचल शब्द का अर्थ जो अपने विशिष्ट प्रयोजन में रूढ़ हो गया है वह वस्त्र या प्रान्त के भाग के आधार पर लाक्षणिक अर्थ ही है, परन्तु लक्षणा का चमत्कार व्यंजना से खिलता है। इस दृष्टि से अंचल का का लाक्षणिक अर्थ भी नए रूप में व्यंजित होता है और हम देश के छोटे-छोटे अंचलों की बात करने लगते हैं, जिनकी अपनी सभ्यता और संस्कृति होती है। इनका अपना व्यक्तित्व व अस्तित्व होता है, इसलिए उन्हें एक विस्तृत इकाई के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।”(10)
आंचलिकता एक ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि किसी भी भाषा के लेखन में इसका अभाव नहीं मिलता है।
अपनी मिट्टी से यह प्रेम मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है , जायसी ने ठीक ही लिखा है –
दिस्टि जौं माटी सौं करै, माटी होइ अमोल ॥”(11)
हमारी संस्कृति ने कालांतर से लेकर आज के इस डिजिटल युग में भी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की
परिकल्पना की ‘आंचलिक साहित्य’ मानव को उसकी जड़ों से जोड़ने का वह मनोवैज्ञानिक माध्यम है जिसके प्रभाव से सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को किसी भी युग में समझा व समृद्ध किया जा सकता है। जीवन के विविध पक्षों को प्रभावित करने वाली सूचना क्रान्ति के दौर में मानव भले अपने बुद्धि वैचारिकी को कीच में उलझा कर बाजारवाद की ओर अग्रसर हो रहा है किन्तु डिजिटल पटल का एक पहलू यह भी है कि वह मानव के विचारों का प्रसार कर बौद्धिकता को भी जीवित रखने का कार्य कर रही है। कोरोना काल के समय हमने देखा कि किस प्रकार से मानव ने अपने वैश्विक विचारात्मक दूरियों को डिजिटल पटल के माध्यम से एक मंच पर लाने का कार्य किया। कोरोना काल में जब मानव विभिन्न प्रकार के मानसिक दबाव में मूल्यविहीन जीवन पथ की ओर बढ़ाते हुए अपनी संस्कृति से कट रहा था तब वैश्विक स्तर पर लोक जीवन की परम्पराओं एवं विश्वास ने जीवन को एक नए आयाम की ओर ले जाने का प्रोत्साहन दिया और इस कार्य में डिजिटल पटल की भूमिका भी सर्वाधिक रही। वर्तमान समाज की मुख्य चिंता मानव के आतंरिक-बाह्य संघर्ष और प्रसार लेती संवेदनहीनता है। डिजिटल युग में पनप चुकी संवेदनहीनता, अव्यवहारिकता एवं अंधआधुनिकता इत्यादि के कुप्रभावों से मानव को सही राह दिखाने की अपार संभावनाएं आंचलिक साहित्य में विराजमान हैं। आंचलिकता मानव हृदय का संवेदनात्मक उपचार करती हैं। इस दौर में हम देख सकते हैं कि गाँवों के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं पारिस्थितिक क्षेत्रों में बिखराव हो रहा है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। आंचलिक साहित्य मानव जिज्ञासाओं का निदानात्मक उपचार करता है। इस उपचार का प्रमुख कारक लोक संस्कृति है। संस्कृति मानव-जीवन को संचालित करने वाली मूल्य व्यवस्था है जो इस डिजिटल युग में भी दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों से लेकर जीवन के उच्चतर प्रश्नों के निमित्त निर्मित किये गये शास्त्रीय प्रकल्पों में परिलक्षित होती है। यह संग्रहालय में रखे जीवाश्म की भाँति पर्यटकों के दर्शन की वस्तु नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षण में अनुभूत होने वाले स्पंदन की भाँति हैं जिसे नकार देने से जीवित एवं मृत का भेद समाप्त हो जाता है। संस्कृति
हमारी पूर्व परम्पराओं, मान्यताओं और मूल्यों का संचित कोश है।
संस्कृति शब्द का अर्थ संस्करण या परिष्करण है, अर्थात् शुद्धता का बोध कराना ही संस्कृति है। पाणिनि का सूत्र है, 'सम्परिभ्यां करोतौ भूषणे'। इस सूत्र में ‘भूषण’ अर्थ में सूट् होने पर संस्कृति सिद्ध होती है। “मूलतः संस्कृति मानवीय रचना है, जिसे मानव ने अपनी जीवन-यापन प्रणाली संबंधी उपयोगी तत्वों को विकसित रूप दिया। मानवशास्त्रीय अर्थ में संस्कृति वह सन्निकट परिकल्पना है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, विधि-विधान, रीति-रिवाज और अन्य व्यवहार और सामर्थ्य सम्मिलित हैं, जिन्हें मनुष्य अपने समाज से ग्रहण करता है।”(12)
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि मानव मन की जिज्ञासावृत्ति का समाधान आंचलिक साहित्य में वर्णित विषय वस्तु में उपलब्ध है जिससे यह वर्तमान समय में भी अपनी प्रासंगकिता के पहलू को सुरक्षित किये हुए है। डॉ. कला मेहता ने लिखा है, “मानव-मानस का सच्चा और समग्र चित्र प्रस्तुत करने हेतु व्यक्ति का व्यक्ति से सम्बन्ध स्थापित करने में जो समायोजन या विघटन हो रहा है उसे भी अभिव्यक्ति प्रदान करने का साधन उपन्यास है। वह मानव और मानव जीवन-दृष्टियों, जीवन पद्धतियों का चितेरा है।”(13)
द्रष्टव्य है कि जब-जब जीवन मूल्य एवं संस्कृति से मानव विमुख हो कर इस डिजिटल युग में निराशावाद की ओर अग्रसर होता है तब आंचलिक उपन्यासों के आलोक में वह स्वयं को सहज बना सकता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता की चकाचौंध में मानव ने जीवन को औपचारिक शिष्टाचारों की कृत्रिमता और बाह्य दिखावेपन में बाँध दिया है। इससे मानव की नैसर्गिक सहजता का ह्रास हो रहा है। डॉ. मेहता के शब्दों में, “नीरसता, अजनबीपन, खीझ, झुंझलाहट, आपाधापी और भाग दौड़ के अशांत नगरीय परिवेश ने मानव की मानवता-सहजता, समरसता, सरसता तथा ममता को चूस डाला है। सामाजिक यथार्थ का कथाकार जीवन के इस पक्ष के बेगाने बोध से पीड़ित होकर सहानुभूति पूर्ण ढंग से उस अनजाने क्षेत्र पर भी दृष्टि डालता है जहाँ के वासी अब भी प्रकृति की गोद में झरने का पानी पीते, घास-पत्तियों का परिधान धारण करते, मवेशी चराते वैसी आदिम स्थिति में रहते हैं। इस प्रकार पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक फैली विशाल भारत की ‘धात्री सर्वभूत माता पृथ्वी’ के आँचल में विविधता और विलक्षणता से भरा जीवन है।”(14)
हमारे जीवन में प्रकृति-पूजन की परंपरा अतिप्राचीन है, प्रकृति-पूजन की संस्कृति लोक के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती है, जल-जंगल-जमीन की चिंता अंचल की बौद्धिकता को दर्शाती है व वर्तमान काल में मानवीय संवेदना एवं जीवन मूल्य क्षरित होने के कगार पर है। बढ़ता आधुनिकतावाद व भौतिकतावाद मानव को निर्दयी बनाने को आतुर है जन जीवन की उन्नति के लिए प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पन्त की अभिलाषा देखने योग्य है-
जन जीवन विकास के नियमों से अनुशासित”(15)
डिजिटल युग के इस दौर में मानव प्रकृति के महत्त्व को अनदेखा कर रहा है। ऐसी स्थिति में आंचलिक साहित्य मानव को जल-जंगल-जमीन से पुनः जोड़ने एवं आधुनिकता और परम्परा के योग से विकसित बौद्धिकता का विस्तार करने का भरपूर मौका देता है। इस युग में आंचलिक साहित्य का प्रासंगिक होना मानवीय मूल्यों, लोक संस्कृति, विश्वास, परम्परा इत्यादि को अक्षुण्णता प्रदान करने का एक महत्त्वपूर्ण संकेत भी है।
निष्कर्ष : आज के सांस्कृतिक क्षरण, आन्तरिक खोखलेपन और मूल्य विघटन के डिजिटल युग में हमें आंचलिक साहित्य की प्रासंगिकता को समझते हुए उसमें निहित लोक सांस्कृतिक पहलू एवं मानवीय मूल्यों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। वर्तमान युग की तमाम जटिल समस्याओं का समाधान इसमें निरूपित जीवन मूल्यों के आदर्श को आत्मसात करके किया जा सकता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की कोई भी उपलब्धि उन अंतिम लक्ष्यों को पूरा नहीं कर सकती जिनकी आकांक्षा समाज या मानव जाति को करनी चाहिए। डिजिटल युग
की प्रगति का मूल्यांकन और नियंत्रण संचार एवं प्रौद्यौगिकी के बाहर उत्पादित मूल्यों के माध्यम से किया जाना चाहिए। इस शोध आलेख
में, हमने एक सांस्कृतिक घटना के रूप में डिजिटल युग में मानवीय मूल्य एवं लोक संस्कृति का आंचलिक दृष्टि से सैद्धांतिक अध्ययन प्रस्तुत किया। मनुष्य के मानसिक जिज्ञासावृत्तियों का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से आंचलिक डिजिटल मॉडल विकसित किया और डिजिटल समाज की आध्यात्मिक, सामाजिक और तकनीकी मॉडल का वर्णन किया है। मानव जीवन की मधुरता तथा प्राकृतिक बौद्धिकता
का अस्तित्व
मानव द्वारा निर्मित एक निर्जीव मशीनी माध्यम में भला कैसे हो सकता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने सर्वप्रथम हृदय-पक्ष को ही नकार दिया है तथा इसने बुद्धि-पक्ष पर अत्यधिक बल दिया,
संज्ञानात्मक
तथ्य
यह
है कि कला, साहित्य और संस्कृति के विकास में बुद्धि के साथ हृदय का सदा सामंजस्य रहा है। इसकी उपेक्षा कभी भी नहीं हुई। प्रस्तुत शोध पत्र
समाज के ज्ञात डिजिटल परिवर्तनों को दर्शाता है और अपेक्षित उभरते मानवशास्त्रीय, सामाजिक और तकनीकी घटनाओं का विश्लेषण करके डिजिटल समाज के भविष्य के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करता है। हम आशा करते हैं कि हमारे अध्ययन के प्रारंभिक परिणाम इस क्षेत्र में नए शोध की शुरुआत करेंगे।
सन्दर्भ :
- संपादक
शम्भुनाथ,
हिंदी
साहित्य
ज्ञान
कोश,
भाग-5,
भारतीय
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कोलकाता,
प्रथम
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– 2019, पृ0-2917
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- कृष्णदेव
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2012, पृ0- 04
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- मलिक
मोहम्मद
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पद्मावत,
मंडपगमन-खंड
http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%AA%E0%A4%97%E0%A4%AE%E0%A4%A8-%E0%A4%96%E0%A4%82%E0%A4%A1_/%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%80
- एड्वर्ड
बी.
टेलर,
प्रिमिटिव
कल्चर,
जॉन
मर्री-अल्बेमेरल
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- डॉ.
कला
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हिंदी
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आंचलिक
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शिल्प
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मंदिर,
वाराणसी,
प्रथम
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1992 पृ0-03
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पृ0-05
- सुमित्रानंदन
पन्त,
उत्तरा,
भारती
भण्डार
लीडर
प्रेस,
इलाहाबाद,
प्रथम
संस्करण-
संवत
2006 वि., पृ0-87
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुसज्जित लेख
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंBhut hi umda
जवाब देंहटाएंBhout hi sundar lekh hai bhai
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंक्या लिखे हो भाई बहुत अच्छा
जवाब देंहटाएंकर्तव्य पथ पर उपलब्धि और उन्नत के साथ आगे बढ़ते रहने की बहुत बहुत शुभकामनाएं भाई को🙌🏻
जवाब देंहटाएंअद्भुत शोध विषय
जवाब देंहटाएंBhut hi acha
जवाब देंहटाएंअति सुंदर भैया
जवाब देंहटाएंMargdrshit krte hue aisa lekh pratham bar aaya h sarkar ko chahiye ki bhavishya ki nitiyo ko bnate waqt dhyan de
जवाब देंहटाएंबस एक ही शब्द-वाह
जवाब देंहटाएंAwesome 👍
जवाब देंहटाएंबेहद ही लाजबाव 👌
जवाब देंहटाएं👍
जवाब देंहटाएं👍👍
जवाब देंहटाएंआज की भागती दुनिया को बहुत ही सरल ढंग से समझाया गया है,
जवाब देंहटाएंशुरू से अंत तक समान उर्जा के साथ-साथ रोमांच भी बरकरार रहा,
मेरा यह मानना है कि बहुत अध्ययन के उपरांत ही ऐसे लेख लिखे जा सकते हैं।
जय हिंद!
बहुत ही सुन्दर विचार
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर विचार 👌
जवाब देंहटाएंउत्तम, अतिउत्तम
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर लेख प्रिय छोटे भाई गोपी जी
जवाब देंहटाएंक्या खूबसूरत लेख है । हमेशा से आपका हर लेख सबको प्रभावित और प्रेरित करता आया है मैं व्यक्तिगत रूप से अत्यधिक प्रभावित रही हूँ । प्रार्थना है की आप सदैव बुलन्दियों को छुए और सफलता प्राप्त करते रहें ।।आप जैसे मेधावी और वाकचतुरता से परिपूर्ण व्यक्ति सदैव प्रगति करते रहें भगवान से प्रार्थना है मेरी ।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें