शोध आलेख : भाषाबोध और दर्शन के परिप्रेक्ष्य में जसिंता केरकेट्टा की कविताएँ / योगेश शर्मा

भाषाबोध और दर्शन के परिप्रेक्ष्य में जसिंता केरकेट्टा की कविताएँ
- योगेश शर्मा

शोध-सार : इस शोध आलेख में जसिंता की कविताओं को भाषा और दर्शन के संदर्भ में समझने का प्रयास किया गया है। यद्यपि जसिंता की कुल चार काव्य-संग्रह में फैली कविताएँ व्यापक अर्थ को संप्रेषित करती हैं तथापि परिसीमन की दृष्टि से इस शोध आलेख में उन्हीं कविताओं को केंद्र में रखा गया जिनमें उनका आदिवासी दर्शन व्यंजित होता है। जसिंता की कविता आदिवासी परम्परा में आधुनिक कविता है। यह कविता उन ‘यूनिवर्सल मूल्यों’ को अपने भीतर समेटती है जिनकी आवश्यकता सारी मनुष्यता के भविष्य को है। वर्चस्व वादी दुनिया के तौर तरीकों को एक अद्भुत ठहराव के साथ चुनौती देते हुए जसिंता की कविता प्रकृति की पैरवी करती है। यह एक समानांतर विकल्प के रूप में नहीं बल्कि एक बेहतर और अधिक टिकाऊ विकल्प के रूप में हमारे सामने आता है। इस पूरे प्रयास में जसिंता की कविता नए सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण और नए भाषाई नियमों की पुनर्स्थापना का सार्थक प्रयास करती हैं।

बीज शब्द : आदिवासी दर्शन, भाषा, भाषाबोध, स्त्री, अस्मिता, प्रकृति, धर्म, विकास, संस्कृति, विघटन, शहर, गाँव।

मूल आलेख : आदिवासी कविता के पाठ के साथ स्त्री अस्मिता का सवाल जुड़ा हुआ चलता है। ऐसा क्यों है? मैंने इसका जवाब तलाश करने की कोशिश की और एक जगह कुछ ऐसा लिखा हुआ पाया कि ‘आसमान की देवी रानी के मंदिर’ में पाए जाने वाला सबसे पहला कीलाक्षर 3 सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व का है। हमारे अपने महादेश में मान्यता है कि देवियों ने भाषा का आविष्कार किया था और पहली वर्णमाला देवी सरस्वती ने बनाई थी। इसके अतिरिक्त सुमेरियन सभ्यता में, देवी निदाबा को मिट्टी की मेज और लेखन कला का आविष्कार करने का श्रेय दिया जाता है। और तो और यूरोपियन यूनियन द्वारा प्रकाशित एक शोधपरक मोनोग्राफ के अनुसार – “पहली विचारधारा भी निःसंदेह महिलाओं द्वारा बनाई गई थी। आयरलैंड में सेल्टिक काल के दौरान, देवी ब्रिगिट भाषा की संरक्षक थीं और कम से कम एक दर्जन महिला लेखकों को जाना जाता है।”1 इसका जिक्र करना यहाँ अपरिहार्य था क्योंकि आदिवासी साहित्य के निर्माण में स्त्रियों का योगदान संदिग्ध नहीं है। इन्हीं आदिवासी स्त्रियों में एक नाम जसिंता केरकेट्टा का है।

जसिंता ने स्त्री (/आदिवासी स्त्री) अस्मिता की पहचान को, जोकि नए सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण के साथ-साथ नए भाषाई नियमों की पुनर्स्थापना की मांग करती है, आदिवासी कविता लिखते हुए अपनी भाषा में सम्भव किया है। जसिंता की कविता का भाषाबोध नए मूल्यों की निर्मिति के संदर्भ में विकसित हुआ है। जसिंता की भाषा आदिवासी कविता की विकसित भाषा है। ब्यौरे और विवरणों से आगे बढ़कर अब आदिवासी कविता गहरे और व्यापक ‘निहित’ अर्थों के साथ प्रस्तुत होती है।

जसिंता की कविता पहले पहल आदिवासी विमर्श की कविता भले ही हो, परन्तु दीर्घ पाठ के पश्चात् यह तय हो जाता है कि जसिंता की कविता दरअसल ‘यूनिवर्सल’ मानवीय मूल्यों की कविता है जो आदिवासी परिप्रेक्ष्य में हमारे सामने आती है। जसिंता कविता करते हुए सजग हैं। इन्हीं सार्वभौमिक संदर्भों में वे स्त्री अस्मिता के सवालों को भी उठाती हैं तथा आदिवासी मूल्यों का निर्वहन इस तरह हुआ है कि उनकी कविता की निर्मिति सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए घटित होती है। उनका दर्शन महज़ आदिवासी दर्शन को उद्घाटित करने की चेष्टा बनकर नहीं रह जाता बल्कि वह ‘अन्य’ के समानांतर भिन्न होने का अवकाश और निजता की खूबसूरती की वकालत करता हुआ कविता की तमीजदार भाषा में पाठक से संवाद करता है।

यद्यपि कुछ भाषागत प्रयोग अवश्य ही आदिवासी संस्कृति जनित हैं (जैसे कवयित्री का अपने लिए पुल्लिंग का प्रयोग करना) तथापि जसिंता का मुहावरा कोई पारम्परिक आदिवासी मुहावरा नहीं है। उनकी कविता का मुहावरा उत्तरोत्तर आज की मुख्यधारा की कविता के मुहावरे में तब्दील होता गया है। जसिंता की काव्यभाषा का गठन ऐसा है कि उनके यहाँ आदिवासी कविता किसी विमर्श विशेष के दायरे से बाहर निकल कर मुख्यधारा में मिलती है। इस प्रक्रिया में उनकी कविता में जंगल, जंगल के लोग बराबर बने हुए हैं किन्तु भाषा कुछ-कुछ परिमार्जित होती गई है। जाहिर है संवाद के लिए पाठकों की ही भाषा की दरकार होती है किन्तु जसिंता के यहाँ यह एक बड़ी त्रासदी के बाद की घटना है। माँएं रोटियों के शगल में बच्चों को शहर भेजती हैं और शहर में दाखिल होते ही शहर भी कैसे उनके भीतर पसरने लगता है-

रोटियों के सपने
दिखाने वाली संभावनाओं के आगे
अपने बच्चों के लिए उसने
भींच लिए थे अपने दांत
और उन निवालों के सपनों के नीचे
दब गई ठगी मातृभाषा।2 (मातृभाषा की मौत)

अपनी मातृभाषा से दूर हिंदी भाषा के रूढ़ मुहावरे में लिखने से भाषाई आदिवासियत भले ही उत्तरोत्तर कम हुई है किन्तु व्यंग्यार्थ का उतना ही विकास हुआ है। वह विवरणों से ऊपर उठकर परिपक्व कविता होने के नजदीक आई है। जसिंता की कविता की में आदिवासी दर्शन मसलन- बराबरी, मानवीय प्रेम आदि दरअसल उनकी कविता के व्यंग्यार्थ में ही ध्वनित होता है। आदिवासी दर्शन के मूल में प्रकृति के सभी जीवों की आपसी बराबरी है। दर्शन शास्त्र के प्रसिद्ध प्रोफेसर जस्टिन गार्डनर के अनुसार “अरस्तु जीवित चीजों को दो विभिन्न श्रेणियों में विभाजित करता है। एक श्रेणी में पौधे हैं और दूसरे में प्राणी। अंत में ‘प्राणियों’ को दो उप-श्रेणियों-जानवर और मनुष्य में-विभाजित किया जा सकता है।”3 कहा जाता है कि पश्चिमी दर्शन के इस विभाजन ने प्रकृति के नुकसान में सबसे अहम भूमिका निभाई है। आरम्भ में मनुष्य ने स्वयं को प्रकृति से भिन्न माना और बाद में प्रकृति पर विजय पाने की होड़ में धरती के साथ बदसलूकी की सारी हदें पार कर दी। इसके विपरीत प्रतिष्ठित आदिवासी चिन्तक वंदना टेटे के अनुसार “आदिवासी दर्शन प्रकृतिवादी है। आदिवासी समाज धरती, प्रकृति और सृष्टि के ज्ञात-अज्ञात निर्देश, अनुशासन और विधान को सर्वोच्च स्थान देता है। उसके दर्शन में सत्य-असत्य, सुन्दर-असुंदर, मनुष्य-अमनुष्य जैसी कोई अवधारणा नहीं है, न ही मनुष्य को उसके बुद्धि विवेक अथवा ‘मनुष्यता’ के कारण ‘महान’ मानता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि सृष्टि में जो कुछ भी सजीव और निर्जीव है, सब सामान है। न कोई बड़ा है, न कोई छोटा है। न कोई दलित है, न कोई ब्राह्मण। सब अर्थवान है एवं सबका अस्तित्व एक सामान है- चाहे वह एक कीड़ा हो, पौधा हो, पत्थर हो या कि मनुष्य।”4 जसिंता की कविताएँ वंदना टेटे के उपरोक्त कथन की जबरदस्त पैरवी करती हैं। ‘मेरा अपराध क्या है’ कविता में जसिंता ‘सालेन’ की निर्मम हत्या के साथ हत्यारे के जूतों तले आये उस ‘घोंघे’ जिसको ‘सालेन’ के बच्चे ‘घोघ्घु’ कहकर बुलाते थे, को याद करना नहीं भूलती। निरपराध घोंघे का मारा जाना भी जसिंता के लिए उतना ही मायने रखता है जितना निरपराध ‘सालेन’ की हत्या-

चलता था वह आँगन के आर-पार;
एक ही पल में आ गया था
बेवजह उधर आए बूटों के नीचे
निकल गयी थी अंतड़ियाँ,
मर गया वह आँगन में
यह पूछे बिना कि
उनका अपराध क्या था।
उस दिन
बच्चों ने पिता के साथ
खो दिया घोघ्घु को भी,
उनकी आंखें ताउम्र पूछती रहीं,
उनका अपराध क्या था?5 (मेरा अपराध क्या है)

इस मामले में जसिंता की काव्य-दृष्टि इतनी सूक्ष्म है कि आदिवासी कविता में अन्यत्र इस तरह का चित्रण लगभग अप्राप्य है। प्रायः उनकी कविता में घरेलू जानवरों को उनके नाम के साथ संबोधित किया जाता है। इस संदर्भ में ‘जानवरों के इतिहास में’ कविता दृष्टव्य है। वे बच्चों के भीतर घोग्घु के प्रति पसरी आत्मीयता और दुःख को पिता के जाने के दुःख के समानांतर चित्रित करती हैं। यह इधर की कविता में एकदम असामान्य है। यहाँ जसिंता की भाषा में उनका दर्शन गुम्फित है। आगे कविता में वे उन षड्यंत्र की तरफ इशारा करती हैं जिसमें एक आदिवासी की मृत्यु के लिए तो कोई अपराध गढ़ लिया जाता है किन्तु प्रकृति के दोहन के लिए प्रकृति का अपराध वो साबित नहीं कर पाते। कविता में यहाँ ‘बूट’ शब्द वाकई तथाकथित सभ्य आदमी की श्रेष्ठता के दंभ से उपजी हवस का प्रतीक हो गया है। इसके बावजूद जसिंता आदिवासी व्यवस्था में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं देखती बल्कि जो असुंदर है उसे भी साहस के साथ उद्घाटित करती है-

प्रेम में आदमी
क्यों एक हो जाना चाहता है
अपनी भिन्नता के साथ
क्यों दो नहीं रह पाता है6 (प्रेम में दो हो जाना)

दरअसल स्थापित व्यवस्था से इतर एक वैकल्पिक सार्वभौम की तलाश करती है फिर चाहे वह आदिवासी व्यवस्था ही क्यों ना हो। अपने आदिवासी परिवेश में घटित होती अहं जनित हिंसा पर जसिंता की गहरी नजर है। इसका उपाय वे जाहिर तौर पर निजता और भिन्नता की परस्पर स्वीकार्यता में पाती हैं। यह निजता महज़ व्यक्तिगत निजता नहीं है अपितु भिन्न-भिन्न संस्कृतियों की अपनी निजता भी है जिसपर लगातार हमले हो रहे हैं। लोग राष्ट्र के नाम पर सब को एक ही रंग में रंग देना चाहते हैं। विविधता किसी को स्वीकार्य नहीं। यह समय प्रेम को हथियार के रूप में बदले जाने का समय है। जसिंता इसके खिलाफ साहस के साथ मोर्चा संभालती हैं। उनके साहस की कसौटी यह है कि वो इस एक हो जाने की होड़ के परिणाम बताने के लिए अपने माता-पिता को उदाहरण के रूप में चुनती हैं। हाल ही में प्रकाशित काव्य संग्रह की भूमिका में कहती हैं कि “माँ-बाबा बचपन के साथी थे। साथ पढ़ते थे। प्रेम करते थे। एक दिन उनकी शादी हुई। फिर वे कभी साथी नहीं रह सके। विवाहित जीवन में भी दो जीवन अलग-अलग अपनी दिशा में चलते रहे। दोनों ने नितांत अकेला जीवन जिया। माँ ने बाबा को किसी भी परिस्थिति में छोड़ा नहीं। सब की सबसे ज्यादा फ़िक्र करते हुए और अपना कभी ध्यान न रखने के कारण वे सबसे पहले चल बसी। मैंने उन्हें देखते हुए हमेशा सोचा कि वे साथी या सुन्दर मित्र क्यों नहीं बने रह सके?”7 भूमिका का यह हिस्सा क्या केवल कवयित्री के माता-पिता का दृष्टान्त है, नहीं। यह हमारे अतीत और वर्तमान की तस्वीर है। इतिहास इसकी गवाही देता है कि श्रेष्ठता का दम्भ राष्ट्रवाद का पहला लक्षण है। इस दम्भ में व्यक्ति को लगता है कि सब लोग उसकी जैसी सोच के होने चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसको हिंसा सबसे आसान उपाय लगता है। कविता भी आगे इसी परिप्रेक्ष्य में अपनी बात कहती है-

इधर देश के प्रेम में कुछ लोग
सबको ‘एक’ कर देना चाहते हैं
जो ‘एक’ न हो पाए, वे मारे जाते हैं
प्रेम के नाम पर
सबको एक कर देने की चाहत में
वे मनुष्य भी नहीं रह पाते।8 (प्रेम में दो हो जाना)

हालाँकि, आरम्भिक पंक्तियों में कविता दो प्रेम में पड़े हुए व्यक्तियों के सन्दर्भ में बात करती है किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है कि असल अर्थ तो व्यंग्यार्थ में निहित है। विकास और सभ्यता के नाम पर आदिवासी अस्मिता को खत्म कर उनको अपने जैसा बना लेने की चाहत अंततः हिंसा का रूप अख्तियार करती है और ध्यातव्य है कि यह सब प्रेम के नाम पर हो रहा है। लेकिन यह एक हो जाने का अभिशाप पैदा कहाँ और कैसे होता है इसका जवाब भी जसिंता की कविता में मौजूद है। शहर के बारे में बात करते हुए जसिंता कहती हैं-

एक ही चेहरा
एक ही विचार
एक ही व्यवहार वाले बच्चों को
पैदा करने को अभिशप्त हो।9 (शहर की बैचेनी)

इस एक ही विचार और व्यवहार से उपजा तथाकथित प्रेम धीरे- धीरे यह इतना हावी हो जाता है कि कवि महसूस करता है-

मेरी सोच के भीतर
अचानक बज उठा है राष्ट्रगान
और मैं खड़ा हूँ
राष्ट्रद्रोही कहलाने के डर से
सावधान मुद्रा में10 (राष्ट्रगान बज रहा है)

मनुष्यों के बड़े समूहों के बीच आपसी साहचर्य के लिए एक राष्ट्र की अवधारणा एक महत्वपूर्ण सोच हो सकती है किन्तु, सांस्कृतिक बहुलता के दम्भ में व्यक्ति का यह सोचना कि उनकी संस्कृति ही श्रेष्ठ है तथा राष्ट्र में सभी व्यक्तियों को उनकी संस्कृति के अनुसार ही जीवन जीना चाहिए, एक अमानवीय तथा अराजक परिदृश्य को पैदा करती है। विविधता के प्रति सम्मान से उपजा बराबरी का एहसास से ही इस परिदृश्य से बचा जा सकता। जसिंता कविता में अपने लिए पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों का प्रयोग करते हुए व्यापक मानवीय सरोकारों को संप्रेषित करती है। अपने एक साक्षात्कार में जसिंता बताती हैं कि “उनकी मातृभाषा में स्त्रियाँ दोनों तरह से बातचीत करती हैं, एक मनुष्य की तरह।” (यह साक्षात्कार लोकसभा टी. वी. के यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है) इसीलिए हम देखते हैं कि जसिंता अपनी कविता लिखते समय दोनों लिंगों का प्रयोग सहजता से करती है। ध्यातव्य है कि भाषा मात्र के प्रयोग से कैसे स्त्री अपने स्त्रीपन और अपनी अस्मिता को मनुष्यता के व्यापक घेरे में ले आती हैं। जिस सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण के साथ-साथ नए भाषाई नियमों की पुनर्स्थापना का जिक्र ऊपर हुआ था, वह यहाँ दृष्टिगोचर होता है। पुनर्स्थापना का यह प्रयास शहर के प्रति स्थूल आक्रोश में सामने नहीं आता बल्कि एक गहन दृष्टि-सम्पन्न सूक्ष्म विवेचना के रूप में सामने आता है। जिन तत्वों को सामान्यतः शहरी सभ्यता के तमगे के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, वही तत्व काव्यगत प्रश्नों के घेरे में आते हैं। जसिंता की कविता शहर के हमले से वाकिफ है। इस हमले का एक बिम्ब जसिंता की कविता में मुखर होकर आता है-

इतिहास की आँखें सीमांतों के आगे
शहर तक पीछा करती हुई
अचंभित करती हैं उस लड़के को
शहर पहुंचकर
कैसे वो आस्तीनों में
छुपा लेता है अपना इतिहास
और पोटली बनाता है चुपचाप
गाँव से उठकर अपने साथ आई
पुश्तैनी विरासतों की
अपनी भाषा गीत भावनाएं
पहनावा लहजे और
अपनी पुरातन जीवन शैली को
बांधकर कोने में रख देता है
भोर की पहली गाड़ी से
गाँव वापिस भिजवाने को11 (पुनर्जागरण के लिए)

शहर में एक जैसा दिखना ही फैशन होता है। यदि मूल्यों के विघटन का फैशन है तो उसमें भी सब एक ही जैसा दिखना चाहते हैं। यहाँ शहर का अर्थ कोई भौगोलिक परिधि नहीं है बल्कि प्रकृति से अलग मनुष्यता की श्रेष्ठता का दम्भ पाले हुए लोगों से है। जो भी इन मायनों में खुद को सभ्य समझता है वह शहरी मानसिकता से ग्रस्त दम्भी मनुष्य है। यही दम्भ अंततः सब को एकम- एक कर देना चाहता है। इसके मूल में इस दम्भ से उपजा वर्चस्ववाद है। सभ्यता की संकीर्ण परिभाषा में सारी व्यापकता को समेटने की कोशिश करता है। संवाद को समाप्त करके एकालाप को थोपता है। यही वजह है शहर ने कोई बिरसा मुंडा या बुद्ध पैदा नहीं किया-

“लाखों आविष्कार किए तुमने
पर तुम्हारी कोख से
क्यों जन्म नहीं लेता
कोई बुद्ध, कोई बिरसा मुंडा ?”12 (शहर की बैचेनी)

आखिर यह एकपन पनपता कैसे है? यह एकपन पनपता है धर्म और विकास के आवरण में और शहर के तथाकथित धार्मिक और विकासशील लोगों से जसिंता की कविता कठिन प्रश्न करती है-

जाने कब से धर्म- धर्म खेल रहे
जो तुम्हारे धर्म के दायरे में आते नहीं
वे जंगल को पूजते हैं, जंगल को जानते हैं
वहीं जीते हैं वहीं मर जाते हैं
तुम सब बूट पहनकर
उनके पवित्र स्थलों में कैसे घुस आते हो ?
विकास कह- कह जितने निर्दोष मारे हैं
उन सबका हिसाब कौन देगा साब?13 (हमारा हिसाब कौन देगा साब)

जाहिर है कि एकपन के आरोपण की वर्चस्ववादी मानसिकता से ग्रसित तथाकथित धर्म और विकास जसिंता के यहाँ परस्पर जुड़े हुए हैं। धर्म के साथ- साथ आदिवासी संस्कृति पर विकास का बुलडोजर (जसिंता की कविता के ही संदर्भ में) साथ आता है। इस संदर्भ में रमणिका गुप्ता अपने लेख “आदिवासी हिन्दू नहीं हैं” में लिखती हैं कि “संस्कृति को नष्ट करने के मार्ग अलग-अलग हैं। सरंक्षण, विकास या किसी एक प्रलोभन के नाम पर अथवा सीधी दादागिरी के बल पर हिन्दू संस्कृति आदिवासियों के बीच रमाने का प्रयत्न होता दिख रहा है। अलग-अलग भागों में अलग-अलग तरीकों से प्रयत्न हुए हैं। कुछ भागों में आदिवासियों ने खासा विरोध नहीं किया, लेकिन जहाँ-जहाँ विरोध हुए हैं वहां-वहां आदिवासी संस्कृति कायम है।”14 ऐसे में ईश्वर को साथ बाज़ार को जोड़कर देखती काव्य- दृष्टि अत्यंत प्रासंगिक हो जाती है और वह ईश्वर और बाजार की बात करते हुए शहरी वर्चस्ववादी सभ्यता के तथाकथित प्रेम को भी बेपर्दा करती है-

आदमी के लिए
ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता
बाज़ार से होकर क्यों जाता है ?15 (ईश्वर और बाजार)

आदमी बांधता है नदी, गिराता है पेड़
काटता है आदमी
बोता है जहर
उखाड़ता है साँसें
बिगाड़ता है चेहरा मौसम का
फिर अपने खुर तले
करता है पूरी धरती की दौंरी
और यही दुहराता है बार-बार
फिर किस चीज से वह करता है प्यार?16 (किस चीज से वह करता है प्यार?)

आदिवासी संस्कृति किसी सुनियोजित धर्म से प्रेरित संस्कृति नहीं है अपितु वह प्रकृति के साथ गहरे राग के साथ विकसित हुई जीवन व्यवस्था है। इसमें प्रकृति के लिए सम्मान अनिवार्य कसौटी है। जस्टिस रत्नाकर भेंगरा लिखते हैं कि “आदिवासी संस्कृति एवं प्रकृति में गहरा आत्मीय रिश्ता है, तभी तो प्रकृति प्रदत्त वृक्षों को आदिवासियों ने अपने जीवन से जोड़ लिया है, जबकि सभी कहे जाने वाले विकसित संस्कृति से प्रकृति का सम्बन्ध संघर्षमूलक है। इसलिए वहां प्रकृति का दोहन, उच्छेदन, विनाश या अब रक्षण का विचार महज़ भौतिक उपयोगितावादी स्तर का है। वर्तमान युग में प्रकृति से इनका सम्बन्ध सिर्फ बाहरी वैज्ञानिक विकास, औद्योगिक और वाणिज्यिक ही है।”17 जाहिर है कि आदिवासी संस्कृति मूलतः प्रकृति के साथ ही अपने अस्तित्व और अस्मिता को देखती है। ऊपर रमणिका गुप्ता के उद्धरण से यह भी स्पष्ट है कि वर्तमान समय में इस संस्कृति पर सरंक्षण, धर्म, विकास और प्रलोभन के नाम पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। ये हमले जंगल पर बाजार को थोपने के हमले हैं, वह बाजार जो आदमी को अकेला करता है, उन्माद से भरता है और अंततः उसका अस्तित्व निगल जाता है, उस जंगल पर जो बराबरी के साझे जीवन में विश्वास रखता है-

शहर का अंगार
जलता है जलाता है
फिर राख हो जाता है
गाँव के अंगोर
एक चूल्हे से
जाते हैं दूसरे चूल्हे तक
और सभी चूल्हे सुलग उठते हैं।18 (अंगोर)

जसिंता की कविता आदिवासी दर्शन के सूक्ष्म पक्ष को उद्घाटित करने वाली कविता है। इसपर बात करना आज इसलिए अनिवार्य नहीं है कि इसके साथ आदिवासी अस्मिता के संकट का सवाल जुड़ा है बल्कि इसलिए है कि आदिवासी दर्शन मनुष्य मात्र के लिए आगे की राह दिखाने वाला दर्शन है। आदिवासी दर्शन मनुष्य को उसके अधिकारों की मांग करने के अलावा प्रकृति के प्रति दायित्व निर्वहन की सीख देता है। जस्टिन गार्डनर ने जलवायु परिवर्तन को देखते हुए वर्तमान नीतिशास्त्र के अध्ययन में ‘पारस्परिकता के सिद्धांत’ को स्वर्णिम कसौटी माना है। उनके अनुसार यह सिद्धांत कहता है कि “आगामी पीढ़ियों के लिए भी वही करो जो आप चाहेंगे कि वे आपके लिए करते। यदि वे आप के पूर्वज और आप उनके वंशज या उत्तराधिकारी होते। यानी यदि उन्होंने हमसे पहले इस धरती पर अपने जीवन का निर्वाह किया होता।”19 एक टिकाऊ और सुरक्षित भविष्य के लिए यही एकमात्र कसौटी है। इसकी जड़ें हमारे यहाँ आदिवासी दर्शन में विद्यमान हैं। हम प्रकृति का हिस्सा होना आदिवासी संस्कृति से सीख सकते हैं। जसिंता की कविता गहरे अर्थों में यही सिखाती है।

निष्कर्ष : जसिंता की कविता में आदिवासी दर्शन के सार्थक चित्रण की जबरदस्त ताकत है। वे इस ताकत का इस्तेमाल लाउड होने के लिए या पोस्टर की कविता रचने के लिए नहीं करती। इसके विपरीत वे ऐसी कविता रचती हैं जिनमें गहन व्यंग्यार्थ निहित होता है। जो दरअसल दर्शन की माफिक ही पाठक के आगे प्रस्तुत होती हैं। जाहिर है कि जसिंता की कविता इससे भी कुछ अधिक है किन्तु इस शोध आलेख में उनकी भाषा और दर्शन को समझने का ही एक किंचित प्रयास हुआ है।

सन्दर्भ :
  1. पेत्रिसिया निड्जदास्तरी, वुमन एंड लैंग्वेज, यूरोपियन कमीशन, 1993, 02
  2. जसिंता केरकेट्टा, जड़ों की जमीन, अनुज्ञा बुक्स, 2024, 20
  3. जस्टिन गार्डनर, सोफी का संसार, राजकमल प्रकाशन, 2019, 110
  4. वंदना टेटे, वाचिकता- आदिवासी दर्शन, साहित्य और सौन्दर्यबोध, 2023, 15
  5. जसिंता केरकेट्टा, जड़ों की जमीन, अनुज्ञा बुक्स, 2024, 30
  6. जसिंता केरकेट्टा, प्रेम में पेड़ होना, राजकमल प्रकाशन, 2024, 17
  7. वही, 11
  8. वही, 17
  9. जसिंता केरकेट्टा, जड़ों की जमीन, अनुज्ञा बुक्स, 2024, 92
  10. वही, 42
  11. जसिंता केरकेट्टा, अंगोर, अनुज्ञा बुक्स, 2023, 108
  12. जसिंता केरकेट्टा, जड़ों की जमीन, अनुज्ञा बुक्स, 2024, 88
  13. जसिंता केरकेट्टा, ईश्वर और बाजार, राजकमल प्रकाशन, 2024, 15
  14. रमणिका गुप्ता (सम्पादक), आदिवासी कौन, राधाकृष्णन पेपरबैक्स, 2022, 16
  15. जसिंता केरकेट्टा, ईश्वर और बाजार, राजकमल प्रकाशन, 2024, 11
  16. वही, 80
  17. रमणिका गुप्ता (सम्पादक), आदिवासी कौन, राधाकृष्णन पेपरबैक्स, 2022, 38
  18. जसिंता केरकेट्टा, अंगोर, अनुज्ञा बुक्स, 2023, 148
  19. जस्टिन गार्डनर, सोफी का संसार, राजकमल प्रकाशन, 2019, 571

योगेश शर्मा
शोधार्थी, हिंदी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

6 टिप्पणियाँ

  1. उत्कृष्ट शोधपत्र योगेश ने लिखा है । किसी भी कवि के भाषा बोध पर लिखना एक जटिल काम है लेकिन योगेश ने इसे बखूबी निभाया है । जसिंता केरकेट्टा वर्तमान समय की सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं उनकी प्रतिबद्धता सर्वविदित है । ऐसे कवियों पर लिखा जाना चाहिए । योगेश को बधाई एक अच्छी पत्रिका ने उन्हें छापा है ।

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  2. बहुत ही उत्कृष्ट शोध पत्र योगेश शर्मा जी ने लिखा है। यह लेख वर्तमान की आदिवासी कवयित्री जसिंता केरकट्टा की कविताओं को आधार बनाकर लिखा गया है। जिस तरह इस लेख में आदिवासी विमर्श के संरक्षण की व आदिवासी विमर्श की संस्कृति की अस्मिता को बचाए रखने की बात की गई है उसकी वर्तमान में आवश्यकता भी है। जिस तरह कविताओं की व्याख्या तर्क के साथ की गई हैं इस प्रकार से भाषा बोध की दृष्टि से इन कविताओं को समझने में बहुत मदद मिलती है। इस लेख को पढ़कर बहुत कुछ सीखने और जाने को मिला। आपके इस लेख को एक अच्छी पत्रिका में छापा गया इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।

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  3. उत्कृष्ट शोध पत्र योगेश भाई ❤️❤️❤️

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  4. वाजिद अलीफ़रवरी 02, 2025 4:31 pm

    शोधार्थी योगेश आधुनिक परिवेश के कुशल साहित्यिक चितेरे बनने की ओर अग्रसर है. बहुत अच्छे विषय को इन्होंने पकड़ा है जो आज के संदर्भ में सटीक बैठता है. आदिवासी जीवन जो पूर्ण रूप से प्रकृति से जुड़ा है, के सहारे आदमी को जागृत करने का प्रयास है. अपने मानवीय मूल्यों के प्रति,अपनी प्रकृति के प्रति, अपने आचार विचार के प्रति जसिंता केरकेट्टा की कविताओं में आदिवासी समाज के माध्यम से समूचे मानव समाज को दर्पण दिखाया गया है. घोग्घू शब्द का प्रयोग महादेवी वर्मा के गिल्लू की याद दिलाता है. सत्य ही है जहां आत्मीयता होती है वहां मनुष्य और जानवर का भेद समाप्त हो जाता है. और एक जानवर भी अपने परिवार का सदस्य लगने लगता है. शोधार्थी योगेश का आलेख _भाषा बोध और दर्शन के संदर्भ में जसिंता केरकेट्टा की कविताएं, पढ़कर प्रसन्नता हुई. साहित्य में रुचि होने के नाते मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मेरा बेटा मेरा अरमान पूरा कर रहा है. वह निरंतर अच्छी सोच के साथ सही दिशा में कदम बढ़ा रहा है. इसकी मुझे अपार खुशी है. उसकी साहित्य के प्रति प्यास, खुद को तराशने की ललक काबिले तारीफ है. व्यंग्य के जरिए आधुनिक समाज पर कड़ा प्रहार किया गया है. विभिन्नता की महत्ता खूबसूरती है सभी को एक समान समझने की आवश्यकता, सबको सम्मान देना, प्रकृति और प्राणियों के प्रति लगाव, ग्रामीण अंचल को महत्व को समझना बहुत आवश्यक है. योगेश उत्तरोत्तर प्रगति करें और एक सफल साहित्यकार बने ऐसी मेरी कामना है.
    वाजिद अली, टीजीटी आर्ट, जवाहर नवोदय विद्यालय, कैथल.

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  5. साथी योगेश ने जसिंता केरकेट्टा की कविताओं के हवाले से जो दर्शन व भाषाबोध का परिचय पाठकों तक पहुँचाया है वो बहुत ही शानदार है दूसरा इस विषय के माध्यम व इन कविताओं का जो स्वर हमें पढ़ते समय महसूस हुआ है उसमें आदिवासी दर्शन व भाषा की मशाल दिखाई देती है क्योंकि इसमें आदिवासी समाज की दुर्दशा ही नहीं उसके सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक ब्यौरे के माध्यम से लेख और भी शानदार भूमिका अदा करता है।

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