वास्तव में बालसाहित्य को जानने और समझने के लिए बाल मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। बाल मनोविज्ञान भी पुस्तकीय होने की बजाय व्यावहारिक स्तर पर अनुभूति जगत का हिस्सा अधिक होना चाहिए।व्यावहारिक अनुभूति तो पुस्तकीय सिद्धांतों से कहीं अधिक बाल मन का हिस्सा बनकर ही प्राप्त किया जा सकता है। बालसाहित्य आज एक साहित्य की स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित हो चुका है और इसे निम्न या कमतर मानने वाली प्रवृतियाँ भी लगभग समाप्त हो चुकी हैं। तो ऐसे में बालसाहित्य के स्वरूप की परख करनी भी आवश्यक है। बाल साहित्य का समान्यत
: अर्थ है कि बच्चों के लिए या बच्चों पर लिखा गया साहित्य। ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या ‘
बच्चों पर लिखा गया साहित्य ‘
और ‘
बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य ‘ एक ही है या अलग। यदि हम दोनों को ही एक मान लेते हैं तो प्रेमचंद कृत ईदगाह ,
जैनेन्द्र कृत पाजेब आदि सरीखी रचनाएँ भी बाल साहित्य मानी जायेंगी जो बड़ों की नजरिए से लिखी गयी बच्चों से संबन्धित साहित्य तो हैं लेकिन बालसाहित्य का हिस्सा नहीं है ,
वो इसलिए क्योंकि यह बच्चों के पठन-पाठन और उनके अधिगम या बोध से दूर हैं। वास्तव में जो साहित्य बच्चों के जीवन का हिस्सा बन सके वही बाल साहित्य हो सकती है। ऐसे में जो साहित्य बच्चों के लिए ,
बच्चों की मानसिक चेतना और परिवेश को ध्यान में रखकर बुनी जाती हैं वही साहित्य बच्चों के हृदय को आंदोलित एवं प्रभावित करती हैं और उनके मनोरंजन का हिस्सा बन पाती हैं। ऐसे ही साहित्य
, बाल साहित्य होते हैं। राजीव रंजन गिरि ने इस संबंध में उचित ही लिखा है
– “ गौरतलब बात है कि बच्चों पर लिखा गया साहित्य और बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य ,
दोनों में फर्क होता है। बाल साहित्य के दायरे में बच्चों पर लिखी गयी सभी रचनाएँ नहीं आतीं। मिसाल के तौर पर देखें तो प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘
ईदगाह ‘
बच्चों पर लिखी गयी कहानी है पर अपनी अभिव्यंजना और व्यापकता में ‘
बाल
– साहित्य ‘
की सीमा में नहीं समाती। इसी प्रकार मन्नू भण्डारी का चर्चित उपन्यास ‘
आपका बंटी ‘
का बड़ा हिस्सा बाल मनोविज्ञान पर केन्द्रित है पर यह भी बाल साहित्य नहीं है।
“ 1
वैसे तो बालकों का जीवन सरल ,
सहज होता है और उनके लिए कुछ बनाना , सर्जना करना बहुत आसान काम मान लिया जाता है ,
जैसे यदि बच्चें ज्यादा प्रश्न पुछते हैं तो उन्हे कुछ ऐसे खिलौने दे दिये जाते हैं कि वो उसमें लग जाएँ और हमें परेशान करना बंद कर दे। जब तक हम उन्हें बहला और फुसला सकते हैं तब तक तो ठीक है ,
लेकिन जब हम उनके प्रश्नों का उत्तर दे पाने में खुद को असमर्थ पाते हैं तो वहीं हम उन्हे कुछ मुश्किल खेल और अन्य तरह के संसाधन उपस्थित कराके उनको दूसरी दिशाओं की तरफ मोड़ देते हैं जिससे हम उनके प्रश्नों का उत्तर देने से बच सकें। ये सारी प्रक्रियाएं कहती तो बहुत कुछ हैं लेकिन यहाँ जो हमें समझना है वो यह है कि बच्चों को बहकाना और डांटकर चुप कराना........
इनमें हमारी उस्तादी नहीं मानी जाएगी ,
बल्कि यह समाज की कमजोरियों का ही सूचक है। क्योंकि चुप कराना हमेशा से ही आसान रहा है चाहे वो बच्चें हो या बड़े। यदि यहाँ हम उन्हे चुप न कराये बल्कि उनके प्रश्नों के साथ खुद को जोड़कर तार्किक ,
रोचक और मनोरंजक उत्तर प्रदान करें तो बालमन की जिज्ञासाओं का समाधान रचनात्मक हो सकता है और यह तार्किकता और रचनात्मकता बच्चों के व्यक्तित्व से भी जुड़ सकेगा। यहीं से बच्चे को विभिन्न सृजनात्मक दिशाओं की तरफ भी प्रेरित भी किया जा सकता है जो समाज के विकास की नींव भी बन सकती है। बच्चों को जानना इतना भी आसान नहीं लगता। सरल सी दिखती बच्चों की दुनिया को समझना वास्तविक धरातल पर बहुत कठिन होता है। हमेशा आदेशात्मक रूप में ही बालकों के समक्ष बड़ों की उपस्थिती बाल मन पर सकारात्मक की बजाय नकारात्मक प्रभाव अधिक डालता है ,
क्योंकि बच्चें कहने की अपेक्षा करने से अधिक प्रभावित होते हैं। जिन कार्य व्यवहारों को बच्चे अपने बड़ों के व्यवहार में पाते है उनका ही अनुकरण वे करने लगते हैं। बच्चों को सीख केवल उपदेश के रूप में देने से बिलकुल उनके व्यक्तित्व में सीख शामिल नहीं हो पाता ,
अपितु उनसे चिढ़ने लगते हैं। बालसाहित्य के द्वारा बच्चों को आनंदित करते हुए आवश्यक संस्कार और परिवेश प्रदान किया जाय ,
जिससे बच्चों का सम्यक विकास हो सके। बच्चे कच्चे घड़े के समान होते हैं ,
समाज रूपी चाक पर उन्हें जो आकार प्रदान किया जाता है उसी के अनुरूप उनकी बौद्धिक एवं आत्मिक संरचना निर्मित होती है। ‘
पंचतंत्र‘
में भी बालपन के संबंध में उल्लेख है
–
“ यन्नवे भाजने लग्न
: संस्कारों नान्यथा भवेत्
कथाच्छलेन बलानां नीति स्तदिह कथ्यते।
“ 2
अर्थात बच्चे कच्चे घड़े के समान होते हैं उन्हे जिस रूप में ढाला जाएगा वो उस रूप में ही ढल जाएंगे। इसका मतलब यह हुआ कि बच्चे कोरे कागज की भांति हैं उस पर जैसी स्याही डाली जाएगी वैसी ही रचना होगी। जो बीज हम बोएँगे वही फल के रूप में हमें प्राप्त होगा। समाज जिन मूल्यों को बच्चों में प्रतिस्थापित करेगा वैसा ही व्यक्ति समाज को मिलेगा। यानि समाज का भविष्य तो बालपन में दिये गए मूल्यों एवं आदर्शों पर ही निर्भर होता है। बच्चों को हम केवल आदर्शात्मक बाते बताएं और जब हम स्वयं उन बातों पर अमल न करते हुए नजर आयें ,
तो बच्चे भी उस आदर्श का अर्थ वही लेते हैं कि कहना कुछ और ,
करना कुछ और। जैसे आज हमारे युग की सबसे भयावह सच्चाई यह है कि हम मोबाइल और सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव की लगातार बुराई करते नहीं थकते हैं और यह भी की बच्चों में इसकी लत लग गयी है ,
आज की पूरी पीढ़ी तो इसी से बर्बाद है
... और बहुत कुछ जिसे यहाँ उल्लेख किए बिना भी हम सब समझ रहे हैं
....ऐसे में ये आदतें बच्चों में कैसे पनप रही है ,
उस पर हमारा ध्यान क्यों नहीं जाता ?
आखिर ऐसा क्या हो गया है कि जो बचपन घुघुआ मामा ,
ओक्का-बोक्का
( पूर्वञ्चल में क्षेत्रीय स्तर पर बच्चों के खेलों का नाम
) , खीसा सुनना
( कथा सुनना
) , चंदा मामा आरे आवSS
पारे आवSS
नदिया किनारे आवSS
जैसे गीत ,
कथा कहानियों के बिना संभव ही नहीं था ,
आज ये हमारी पीढ़ी के बचपन से गायब क्यों हैं और इनके स्थान पर सोशल मीडिया और टेलीविज़न के डोरोमान सरीखे कार्टून क्यों शामिल हो गए हैं ?
हम बच्चों को डाटेंगे ,
चिल्लाएँगे और यहाँ तक की मारना पीटना तो अपना सर्वोपरि अधिकार मानते ही हैं ,
ये सब करते हैं और इन सबके लिए इस युग को और तकनीकी दुनिया को कोसने लगते हैं। इन सब के बाद हम अपनी तथाकथित ज़िम्मेदारी पूरी कर लेते हैं। बच्चों के प्रति हमारा यह व्यवहार कितना उचित है ,
इस विषय पर ठहरकर सोचने की जरूरत है। उदाहरणस्वरूप बच्चा हमें परेशान न करे इसके लिए सबसे आसान होता है कि funny
वीडियो लगा कर हम बच्चों को दे देते हैं जिससे बच्चा उसमें व्यस्त रहे और हमें आराम मिल सके और हम अपने काम को कर सकें। हम घंटों सोशल मीडिया पर समय व्यय कर रहे हैं और बच्चों को नसीहत दे रहे हैं कि ये सब बुरी आदतें हैं ,
इन्हें नहीं करना चाहिए। इनके लिए दलील भी दी जा सकती है कि जिस घर में work
from home की कार्य संस्कृति है उसे तो घंटों लैपटाप और मोबाइल पर लगना ही पड़ता है और कई बार वाकई इन इलेक्ट्रानिक गैजेट के साथ जुड़ना आवश्यक भी होता है ,
इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इन वजहों से बच्चें यदि इनकी तरफ रुख कर ले तो क्या किया जा सकता है ?
तटस्थ रूप से इस स्थिति को समझें तो इसमें बच्चों की समस्याओं से अधिक खुद की मजबूरी को ज्यादा महत्व देकर बताने की कोशिश ही अधिक नजर आ रही है। इसमें हम बड़ों की कोई गलती नहीं है बल्कि ये सब आज के युग की सच्चाई है जिसकी वजह से इस तरह के संकट उपस्थित हो रहे हैं। माना कि इस बात से पूर्णत
: मुंह नहीं मोड़ा जा सकता ,
लेकिन इन सबके लिए एकमात्र युग को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्या इस स्थिति को बच्चा समझ सकेगा ,
इतनी परिपक्वता आ सकी है उसमें ,
क्या बच्चा यह समझ सकता है कि कौन सी सामग्री उपयोगी या अनुपयोगी है या फिर क्या बच्चा यह समझ सकता है कि कौन से मोबाइल सरीखे ऑनलाइन कार्य सही हैं ,
कौन से गलत ,
हमारे घरों में उचित एवं आवश्यक कार्य के लिए इन सब का प्रयोग हो रहा है या नहीं ......ऐसी ही तमाम स्थितियों को समझ सकने के योग्य बच्चा नहीं होता है। उसे तो जो दिखता है ,
उसका ही अनुकरण करने लगता है ,
उसे उचित
– अनुचित का कोई बोध नहीं होता। कुबेरनाथ राय ‘
शिशु वेद ‘
निबंध में बच्चों के इस स्थिति को इस रूप में अभिव्यक्त करते हैं
– “ वह स्वभाव से खिलाड़ी है और न्याय
– अन्याय ,
सही-
गलत सोचने की मेधा का अभी जन्म नहीं हुआ है। नन्हें बच्चे रंग-बिरंगी चिड़ियाँ देखकर मोह से आकर्षित हो जाते हैं और पा जाते हैं तो क्रूरतापूर्वक उसी को घसीटते हैं। उनमें भले-बुरे की बुद्धि अभी पनपी नहीं है। वे निरंतर शुद्ध ,
निर्मल ,
भोलीभाली मन
:स्थिति में नहीं रहते
.......... वे माता-पिता ,
भाई-बहन को पहचानते हैं ,
उन्हें अपना मानते हैं। शेष सृष्टि को अपने कौतुक का या क्रीडा का उपकरण मानकर ही ग्रहण करते हैं।
“ 3 सही बात है की बच्चे के समक्ष जो भी आये उसे तो वह अपना उपकरण ही मानता है न तो उससे अधिक वो सोच सकता है और न ही उस समय तक उसे इससे अधिक की जरूरत ही होती है।इस लिए उसे तो केवल यही बोध होता है कि घर में सब प्रयोग करते हैं और पहले तो बड़ों के द्वारा ही इस मनोरंजन का चस्का भी बच्चों में लगाया जाता है ,
फिर क्या ?
बच्चा उसका डिमांड करने लगता है और धीरे धीरे यह उसकी आदत का हिस्सा बन जाता है। कुछ समय बाद हम उसके साथ तुष्टीकरण तक भी पहुँचते हैं और पानी जब सर के ऊपर चला जाता है तब समाज के नसीहतों का दौर शुरू हो जाता है। जब यही रोकटोक के रूप में बढ़ने लगता है तो बच्चा प्रतिक्रियावादी होने लगता है। जबर्दस्ती के सलाह मशविरों से उसे खीझ होने लगती है और फिर आप भी ऐसा करते
/करतीं हैं जैसे प्रतिउत्तर भी बच्चों की तरफ से आने ही लगते हैं। फिर क्या समाज कहना शुरू कर देता है कि बच्चा अब हाथ से निकलने लगा है। अब समाज उन्हें अपने बीते जमाने की बात बताने लगता है
– हमारी जबान नहीं खुलती थी बड़ों के सामने ,
इतनी मजाल नहीं होती कि बड़े
– बुजुर्गों से हम जबान लड़ाएँ ,
लेकिन आज की पीढ़ी तो
.......बर्बाद है। अब समझने की जरूरत यह है कि पहली पीढ़ी ऐसा इसलिए करती थी क्योंकि उन्होने अपने बड़ों के व्यवहार में इन सबको व्यवहृत होते हुए देखा था ना कि उनका परिचय इन सब से केवल नसीहत के रूप में हुआ था। ऐसे ही आज की पीढ़ी जो अपने बड़ों में देख
– सुन रही है वैसा ही कर रही है तो दिक्कत क्यों केवल आज के बच्चों में ही मान ली जाती है ?
फिर इसे हम अपने अगली पीढ़ी की कमियाँ एवं उच्शृंखलता का नाम क्यों दे देते हैं ,
जब हम स्वयं वही व्यवहार कर रहे होते हैं ?
इन विषयों पर चिंतन और मनन करने की जरूरत हैं।
ऐसा नहीं है कि समाज द्वारा बच्चों को आदर्श की बातें नहीं बताई जानी चाहिए ,
क्योंकि कुछ वर्गों का मानना है कि दुनिया तो यथार्थपरक है और हम बच्चों के लिए केवल आदर्श उपस्थित करके वास्तविक दुनिया की अधूरी तस्वीर उनके समक्ष पेश करते हैं और उन्हें सत्य से दूर रखते हैं। लेकिन यह दृष्टि बहुत उचित नहीं लगती। आदर्श एवं सामाजिक मूल्यों का परिचय तो बालमन के लिए बेहद आवश्यक है जिस पर बच्चों के भविष्य का निर्माण ही टिका होता है। आदर्श उपस्थित करना चाहिए लेकिन कोरे उपदेश के रुप नहीं कि जो ऊपर से थोपी हुई नजर आए ,
उसे फलों में निहित रस एवं पौष्टिक तत्वों की भांति प्रदान करना अधिक श्रेयस्कर है। जिससे फल उन्हें पसंद भी आये और जो उनके विकास के लिए आवश्यक हो वो सारे पौष्टिक तत्व भी उन्हें मिल सके। यानि बच्चों को उनके मनोरंजक और कौतूहलपूर्ण शैली में जीवन मूल्यों को अंतर्निहित कर व्यक्तित्व से जोड़ना अधिक श्रेयस्कर होता है। हाँ ,
यह बात भी बिलकुल सत्य है कि इस कार्य को कर पाना असंभव नहीं तो सरल भी नहीं है। बाल साहित्य का मतलब बचकानापन नहीं है बल्कि इसे वही लिख सकता है जिनमे अनुभूति जगत को बालमन से जोड़ पाने का सामर्थ्य हो। डॉ नितिन सेठी ने इस संबंध में अपने विचार व्यक्त किया है
– “ बाल साहित्य बच्चों का अपना साहित्य है ,
बचकाना साहित्य नहीं। बच्चों के मनोविज्ञान को समझना और फिर उनके अनुरूप साहित्य सृजन करना आसान कार्य नहीं है।
“ 4 इसके लिए सायास प्रयत्न की आवश्यकता है। इन महती भूमिकाओं का निर्वहन उत्कृष्ट बाल साहित्य अवश्य कर सकता है। बच्चे ही किसी भी समाज के भविष्य होते हैं। अत
: जब उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होगा तो ही एक सशक्त समाज भी बन सकेगा।
बाल साहित्य के द्वारा बच्चों की मानसिक चेतना को इस रूप में विकसित किया जा सकता है कि बच्चा ‘
चाहिए ‘ की दुनिया से , ‘ है ‘ की दुनिया तक का सफर तय करने योग्य हो सके। ऐसा तभी संभव है जब बच्चों को यह ज्ञात या अनुभूत हो सके कि समाज क्या है ,
उसका इस समाज से कैसा संबंध होना चाहिए ,
उसे जीवन में क्या चाहिए जो समाज के अनुकूल हो आदि के संबंध में उसकी मानसिक चेतना में स्पष्ट समझ विकसित हो सकेगी तो ही वह उस साध्य तक पहुँचने की कोशिश भी कर सकेगा। इस समझ को विकसित करने का बेहतरीन माध्यम बाल साहित्य हो सकता है। बच्चों को देश के भविष्य के रूप में स्वीकार करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने उचित ही कहा है
– “ मैं हैरत में पड़ जाता हूँ कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का भविष्य जानने के लिए लोग तारों को देखते हैं। मैं ज्योतिष की गिनतियों में दिलचस्पी नहीं रखता। मुझे जब हिंदुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है ,
तो मैं बच्चों की आँखों और उनके चेहरे को देखने की कोशिश करता हूँ। बच्चों के भाव मुझे भावी भारत की झलक दे जाते हैं। “
5 वास्तव में बच्चे ही देश के भविष्य होते हैं। बच्चे ही बड़े होकर समाज के कर्णाधार बनते हैं। अत:
बच्चों को मानवीय संवेदना से संपृक्त किया जाएगा तो ही मानव जीवन संवेदना से संपृक्त हो सकेगा। ऐसे में बच्चों के भविष्य को लेकर आज हमारे समक्ष अनेक प्रश्न उपस्थित हैं ,
जिसे हरिकृष्ण देवसरे ने इस रूप में अभिव्यक्त किया है
– “ हम जो भविष्य बच्चों को देने वाले हैं ,
वह कैसा होगा ,
उसमें क्या मानवता जीवित बचेगी या दम तोड़ देगी। ये और ऐसे ही अनेक प्रश्न आज भारतीय संदर्भ में ही हमारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए बल्कि विश्व के संदर्भ में भी यह चिंता होनी चाहिए।
“ 6 इस प्रकार आज बालसाहित्य के कंधे पर महत्वपूर्ण भूमिका के निर्वहन का दायित्व भी उपस्थित है।
वैसे तो बाल साहित्य के विकास को
19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध या कहें
20 वीं सदी के प्रथम चरण से रेखांकित किया जाने लगा था। लेकिन इससे यह बिल्कुल सिद्ध नहीं होता कि बाल साहित्य इसके पूर्व था ही नहीं। बालसाहित्य का अस्तित्व तो तब से है जब से इस धरा पर बच्चों की उपस्थिती हुई है। मौखिक परंपरा के रूप में इसका अस्तित्व तो प्राचीनकाल से ही रहा है। असंख्य पौराणिक एवं नीतिपरक लोककथाएँ ,
माँ की लोरियाँ ,
बच्चों के लिए पारियों की कथाएँ आदि प्रस्थान बिन्दु ही हैं ,
जिस पर आधुनिक बालसाहित्य का विकास हुआ है। ‘
हितोपदेश ‘
एवं ‘ पंचतंत्र ‘
की कहानियों में बाल साहित्य के बीज रूप मिलते हैं। साहित्य के प्रारम्भिक युग में बड़ों एवं बच्चों का मिश्रित साहित्य हुआ करता था ,
लेकिन मध्यकाल तक आकर बच्चों के मनोभावों एवं बालसुलभ क्रियाओं को अलग से रेखांकित किया जाने लगा ,
जिसे हम सूरदास के बाललीला वर्णन आदि रूपों में देख सकते हैं। कालांतर में बच्चों पर केन्द्रित ‘
शिशु ‘
एवं ‘
बालसखा ‘
जैसी पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हुआ जिसने बाल साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन पत्रिकाओं ने बाल साहित्य लेखन में बच्चों की अभिरुचि ,
नैतिक विकास ,
नए प्रयोगों को प्रोत्साहन आदि पर विशेष बल दिया जिससे बाल साहित्य के विकास में परिपक्वता भी आयी। बाल पत्रिकाएँ बच्चों के स्वस्थ मनोरंजन का साधन भी हैं जो एकांत में उसका मनोरंजन करती हैं , भीड़ में दिग्भ्रमित होने से बचाती हैं। मार्गदर्शक के रूप में सृष्टि संबंधी जानकारी देती हैं ,
मातृवत उसकी जिज्ञासा को शांत करती हैं और पितृवत उसका संरक्षण भी करती हैं। इस प्रकार बाल पत्रिकाएँ बच्चों के बौद्धिक विकास के साथ भी आत्मिक विकास का भी महत्वपूर्ण माध्यम है।
यद्यपि काल्पनिक दुनिया बच्चों के लिए बहुत ही आकर्षक एवं मनोरंजक होता है तथा वे स्वयं भी बहुत काल्पनिक होते हैं। ऐसे में बाल साहित्यकार की महती भूमिका है कि वे बच्चों के लिए जिस कल्पना जगत का निर्माण कर रहे हैं वह उनकी कल्पना को विश्वसनीयता की बुनियाद पर ही आधारित रखें , तभी बच्चे उसे अपनी दुनिया की मानेंगे और उससे जुड़ेंगे भी। किसी भी व्यक्ति के जीवन में बचपन की सबसे अधिक भूमिका होती है ऐसे में जीवन के इस महत्वपूर्ण समय में बच्चों को ‘
कुछ भी ‘
सुनाया और बताया नहीं जाना चाहिए बल्कि बच्चों को इस रूप में सिखाया जाय कि बच्चों को लगे ही नहीं की सिखाया जा रहा है बल्कि वह स्वयं सीखने के लिए उत्सुक हो जाएँ। जैसे प्रसिद्ध बाल साहित्यकार दिविक रमेश की कविता ‘
मजा तो कितना आयेगा ना ‘
में इस प्रक्रिया को बहुत ही संजीदगी एवं मनोरंजक परक दृष्टि से उकेरा गया है
–
“ केलकुलेटर क्या नानी ने छिपा रखा है भीतर।
छिपा रखा है क्या नानी ने भीतर कोई कम्प्यूटर
.............................
नानी से पूछा तो बोली एक पते की बात बताऊँ
मुझ जैसा बनाना चाहो तो एक सीक्रेट तुम्हें बताऊँ
बहुत ध्यान से पढ़ना होगा ,
याद ध्यान से करना होगा
सुनना होगा बड़े ध्यान से ,
बड़े ध्यान से लिखना होगा
फिर तो तुम कम्प्यूटर जैसे झटपट
– झटपट बतला दोगे
.....................
नई कहानी सुना
– सुना कर मजा तो कितना आयेगा ना
सब देंगे शाबाशी तुमको मजा तो कितना आयेगा ना।
“ 7
उपर्युक्त कविता में लेखक ने ऐसा माहौल बनाने की बात किया है कि बच्चा स्वयं जानने को उत्सुक हो जाये। वह स्वयं चाहे कि वो भी बड़ों की तरह कार्यों को कैसे कर सकता है और तब हम जो मूल्य उसे सीखना चाहें बहुत रोचक ढंग से उसके सामने उपस्थित कर सकते हैं और बच्चा भी उसे पूरी मन से सीखने में लग जाता है। ऐसे में बालकों के अधिगम का कार्य भी बहुत सोद्देश्य पूर्ण हो जाता है। इसमें ना तो भर भर के उपदेश देने की जरूरत है और ना ही बहुत डांट फटकार की। सच्चा बाल साहित्य तो वही है जिसमें उपदेश थोपा हुआ न हो और न उसे आदर्शों के प्रतिमूर्ति तक ही सीमित कर दिया जाय। इस विषय पर प्रसिद्ध बाल साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने एक साक्षात्कार में कहा है
– “ सच्चा बाल साहित्य न तो कोरा उपदेश थोपता है ,
न आँकड़ों के मायाजाल में उलझाता है ,
सही मायने में बालसाहित्य बालमन की गुत्थियों को सुलझाने और उसे जीवन मूल्यों से जोड़ने का एक नायाब जरिया है। उनके अनुसार आदर्श बाल साहित्य वह है जो बच्चों के अन्तर्मन के कौतूहल और जिज्ञासा को तर्कपूर्ण ,
सरस ,
मनोरंजक ढंग से शांत कर ऐसी लौ प्रज्वलित करे ताकि स्वविवेक से वह अच्छाई और बुराई ,
अंधकार व प्रकाश के प्रति अपनी समझ विकसित कर सके। बच्चों की मनोदशाएँ उनकी ज्वलंत समस्याएँ भी बालसाहित्य का हिस्सा होना चाहिए। कुल मिला के बाल साहित्य यानी आनंददायक शिक्षा अर्थात बच्चे का सच्चा साथी।
“ 8 अर्थात बाल साहित्य बच्चे के साथी के रूप में उपस्थित होना चाहिए क्योंकि बच्चों के सबसे करीब यदि माँ
– बाप के अलावा कोई होता है तो वह उसका साथी ही होता है और बहुत बार तो बच्चे जो सहज अभिव्यक्ति अपने साथी से कर पाते हैं वो अपने अभिभाव के सामने भी नहीं करते हैं। ऐसे में बाल साहित्य उन्हें अपने जीवन का हिस्सा लगेगा और वे उससे सहज रूप से जुड़ेंगे भी।
बाल साहित्य लेखन अत्यंत सजग एवं ज़िम्मेदारी परक कार्य है। इसके द्वारा बच्चों में मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं की रक्षा के भावों को अनुप्राणित करने का कार्य किया जाता है। बचपन में जिन मूल्यों ,
आदर्शों एवं संस्कारों के संपर्क में बच्चा आता है उसी के अनुरूप ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। हम इस वाक्य को हमेशा सुनते हैं कि आज का बच्चा ही कल का भविष्य होता है वो इसीलिए कि जैसे बीज के अंदर निहित संभावनाओं को बीज के रूप में ही जान पाना संभव नहीं है वैसे ही बच्चों में निहित संभावनाओं को भी बचपन में समझ पाना संभव नहीं होता है। जिस प्रकार मिट्टी ,
खाद
– पानी आदि आवश्यक तत्वों की पूर्ति से एक बीज विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है वैसे ही एक बच्चा भी सामाजिक मूल्यों एवं संस्कारों की समुचित परवरिश पाकर समाज के अनुकूल नागरिक बन पाता है जो अपने समाज के हित के लिए कार्य करता है या यूं कहें की सृष्टि में मानवीय पूंजी के रूप में स्थापित हो पाता है। इस प्रकार बाल साहित्य की ज़िम्मेदारी अन्य प्रकार के साहित्यों की तुलना में कई गुना अधिक बढ़ जाता है ,
क्योंकि बाल साहित्य ही व्यक्तित्व निर्माण के प्रथम पायदान या कहें सम्पूर्ण व्यक्तित्व की पृष्ठभूमि होती है। जब पृष्ठभूमि मजबूत होगी तभी उसपर बना इमारत भी मजबूत बन सकेगा। इमारत भी हमेशा समय के साथ परिवर्तित होता रहता है वैसे ही बाल साहित्यकारों को भी समाज रूपी इमारत के निर्माण में समय के अनुसार परिवर्तन को ध्यान में रखकर अपने रचना में उस परिवर्तन को स्थान देने की जरूरत होती है। इमारत कितनी मजबूत होगी ,
वो तो उसके पृष्ठभूमि पर ही निर्भर करती है।
बाल कथाओं में बच्चों की जिज्ञासा ,
प्रश्नाकुलता ,
कल्पनाशीलता ,
प्रयोगधर्मिता और युग की चुनौतियों को ध्यान में रखकर बालकों को विपरीत परिस्थितियों का सामना करने योग्य बनाने का प्रयास किया जाता है। बच्चों के जीवन में पगा मन जब साहित्य के रूप में अभिव्यक्त होता है तो वह बाल मन के हृदय का हिस्सा भी बन जाता है और अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों मे विश्लेषण एवं मनन की परंपरा की नींव भी रख देता है। डॉ शकुंतला कालरा ने बालसाहित्य की भूमिका के संबंध में लिखा है
– “ उत्कृष्ट बाल साहित्य वही है जो अप्रत्यक्ष रूप से बालमन पर जीवन के उन अनुभवों का प्रभाव डाले जो अन्यत्र दुर्लभ है तथा उन्हें आलोक दे सके ,
उनमें विश्लेषण करने की क्षमता का संचार भी कर सके ,
बाल साहित्य की रचना तभी श्रेष्ठ हो सकती है जब वह पूरे अनुभव के साथ लिखी जाती है और बालमन की कसौटी पर खरी उतरती है ,
जिससे बच्चों की जिज्ञासा समाधान भी होता है और उनकी कल्पना शक्ति भी उर्वर बनती है।
“ 9 इस प्रकार बालसाहित्य एक साथ कई महत्वपूर्ण कर्तव्यों का निर्वहन करने का माध्यम बन सकता है।बाल मन न केवल मनुष्य के प्रति संवेदनशील होता है अपितु वह बिना किसी भेदभाव के पशु-पक्षियों ,
पेड़ पौधों व सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति भी समान रूप से संवेदनशील होता है। इस प्रकार शाश्वत मानवीय मूल्यों की सुगबुगाहट बाल मन में ही होने लगती है ,
जिसको पुष्पित और पल्लवित करने का कार्य बाल साहित्य करता है। बाल साहित्य लेखन के लिए बच्चों के मानसिक धरातल पर पहुँचना आवश्यक है अन्यथा साहित्य अपने इष्ट को पूरा करने में असफल ही होगी। समाज की संरचना के प्रमुख अवयव बच्चें होते हैं और इन अवयवों की मजबूती ही अंतत
: समाज की मजबूती है।
आधार ग्रंथ -
1 – प्रेमचंद का सम्पूर्ण बालसाहित्य , संपादक – राजीव रंजन गिरि , प्रथम संस्करण – 2022 , अनन्य प्रकाशन , पृष्ठ – 9
2 – पंचतंत्र – विष्णु शर्मा , पृष्ठ – 11
3 – ‘ गन्धमादन ‘ निबंध संग्रह – कुबेरनाथ राय , भारतीय ज्ञानपीठ , द्वितीय संस्कारण – 2021 , पृष्ठ – 207
4 – बाल साहित्य का परिवेश , संदर्भ : डॉ सुरेन्द्र विक्रम , चयन एवं संपादन – डॉ नितिन सेठी , शुभम पब्लिकेशन , प्रथम संस्करण – 2021 , पृष्ठ – 17
5 – बालसाहित्य समीक्षा के प्रतिमान और इतिहास लेखन – डॉ सरोजिनी पाण्डेय , पृष्ठ – 22
6 – बालसाहित्य के सरोकार – हरिकृष्ण देवसरे , यश पब्लिकेशन , संस्करण – 2018 , पृष्ठ – 9
7 - ‘ मजा तो कितना आयेगा ना ‘ कविता – दिविक रमेश , कविताकोश
8 - 21 वीं सदी का बालसाहित्य – डॉ सोनाली निनामा ( सिसोदिया ) वान्या पब्लिकेशन , संस्कारण – 2022 , पृष्ठ – 8-9
9 - ‘ डॉ दिविक रमेश और उनका बाल-साहित्य ‘ –संपादक – डॉ शकुंतका कालरा , यश पब्लिकेशन , संस्करण - 2019 , पृष्ठ – 21
सहायक ग्रंथ –
10 – बचपन की परख – डॉ सूरज मृदुल , मीनाक्षी प्रकाशन , संस्कारण – 2017
11- हिन्दी बाल साहित्य विमर्श ; साहित्यिक साक्षात्कार – डॉ शकुंतला कालरा , यतीन्द्र साहित्य सदन , भीलवाडा ( राजस्थान ) , प्रथम संस्करण – 2010
12 – मैं शिशु हूँ ( शिशु पर केन्द्रित कविता संग्रह ) – परशुराम शुक्ल
13- परशुराम शुक्ल कृत बालसतसई का अनुशीलन – सैफ अली , आराधन ब्रदर्स , कानपुर , संस्करण -2019
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, श्रीमती बी डी जैन कन्या महाविद्यालय, आगरा कैंट, आगरा
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