समीक्षा : इश्क़ के किस्से_हिस्से दर हिस्से / अपर्णा दीक्षित

इश्क़ के किस्से_हिस्से दर हिस्से
- अपर्णा दीक्षित

(किताब की समीक्षा की सीमा और ख़ासियत यह है कि यह उसी भाषा और रंग रूप में है, जिसमें यह लिखी गई है। मैं एक समीक्षक के बतौर ख़ालिस हिंदी साहित्य से नहीं आती। और जहाँ तक मेरा ख़्याल है किताब की लेखक भी। तो यह भी समीक्षा पढ़े जाने के दौरान गौर करने लायक बात होगी। किताब प्रयोगों के धरातल पर लिखी गई है। किताब के अंत में मनीषा कुलश्रेष्ठ ने किताब के बारे में लिखा है, “इन लव-नोट्स के तल में प्रेम का समूचा संसार है। ये वैसे ही हैं, जैसे पानी की आण्विक संरचना H2O ही रहती है चाहे वह जो रूप-रंग ले ले। प्रेम की संरचना वही है -दो अणु मोह- एक अणु समर्पण, एक अणु पीड़ा।” तो इस समीक्षा को पढ़े जाने की एक मात्र नज़र प्रेम की नज़र हो सकती है। गुज़ारिश है पढ़ते वक्त़ प्रेम से काम लें।)

बहती नदी, चलती सुई और धड़कते दिल हमेशा ख़ूबसूरत होते हैं। और वो किस्से जो इन धड़कते दिलों ने कभी चुपचाप तो कभी बेख़ौफ लिखे... अपने और अपने यार के ज़हन पर। तामउम्र सहेजे जाने को, याद आने को, अतीत में लौट-लौट कर जिए जाने को, उनका क्या! क्या वो अधूरे हैं, क्या प्यार पूरा होता है कभी, क्या मोहब्बत को सही-गलत के फ्रेम में जज किया जा सकता है? क्या कोई मुकम्मल इश्क़ है? क्या इश्क़ सबको होता है? क्या ये हर किसी के बस की बात नहीं? क्या ये सही है, क्या वो ग़लत है? इन तमाम सवालों के साथ जब आप पल्लवी त्रिवेदी के ‘लव नोट्स, ज़िक्रे यार चले’ में डुबकी मारते हैं, तो इश्क़बाजी के ये किस्से आपको गले तक डुबा लेते हैं। फिर आप सिर्फ तैरना चाहते हैं। 176 पन्नों में हर बार अलग तरह से ख़ुलते इश्क़ के ये 48 किस्से नहीं, जादू की पुड़ियाँ हैं। एक पाठक के तौर पर आपको हँसाती-गुदगुदाती, सहलाती, रुलाती ये प्रेम की अलबेली पहेलियाँ-सी लगती हैं। जिनको बूझने का दिल ही न करे। बस यूँ कि पहेली को पहेली बने रहने दिया जाए। जैसे कोई बात अपने अधूरेपन में ही पूरी लगे। ख़ूबसूरत लगे। दिलकश लगे। मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ नाम से लव नोट्स में वे लिखती हैं -

“बस इतना याद रखना... कुछ बातें पॉसिबल हैं और कुछ इम्पॉसिबल...

जैसे

जैसे तुमसे बातें न करना, न मिलना पॉसिबल है और...

इम्पॉसिबल क्या है

और...और इम्पॉसिबल है...”

यहाँ वे संवाद पूरा नहीं करती। आगे गला रुंध जाता है, लिखकर पाठक पर छोड़ती हैं। वह इस कहानी में लड़के-लड़की के बीच सफर की आख़िरी बातचीत में इम्पॉसिबल क्या है? इसका जवाब नहीं देती। पाठक जवाब तलाशता ख़ुद अपनी यादों की खिड़की में झाँकता है। लड़के-लड़की की जह़न में एक तस्वीर बनाकर उनकी आँखों में मोहब्बत की तासीर मापता है। इस इक टूटे हुए सवाल के जवाब में वो पाठक को कल्पना का कैनवास देती हैं। ये करामात पूरी किताब में वे जगह-जगह करती हैं। पाठक को प्रेम में सराबोर करने की उनकी ख़ूबसूरत साज़िश पूरी किताब में बदस्तूर जारी है।

पल्लवी की ‘ज़िक्रे यार चले लव नोट्स’ पाठक के लिए किताबों की दुनिया में एक मोस्ट अवेटेड ट्रीट-सी लगती है। जिसका हर पढ़ने वाले को इंतज़ार हो। जैसे प्रेम कहानियाँ अगर गहरी नींद हैं, तो ये नोट्स हल्की-हल्की थपकी। किस्से 80 के दशक से साल 2020 तक के फैलाव को समेटे हुए हैं। इस हिसाब से कहानियों का बैकग्राउंड और भाषा भी बदलती है। प्यार जताने और गुस्सा होने के तरीके भी। अस्सी के दशक की एक प्रेम कहानी में वे लिखती हैं -

“आज मोबाइल और इंटरनेट के युग में मोहब्बतें आसान हो गई हैं। लेकिन अस्सी के दौर में छत की मुहब्बतों में आसानी भले न थी, रोमांच भरपूर था। ये वो दौर था जब बातें करना, मिलना इतना आसान न हुआ करता था। एक मुलाक़ात के पहले महीने निगाहें आपस में बात किया करती थीं।”

जबकि नए ज़माने के नोट्स में उनका अंदाज़ और भाषा एकदम अलहदा है। यह लव नोट तुम आके लौट गए फिर भी यहीं मौजूद हो के नाम से लिखा गया। वेलेंटाइंस डे के मौके पर लड़की अपने क्यूट एक्पेरीमेंट पर इठलाते हुए कहती है -

“इसलिए दो टी-शर्ट खरीदी थीं पगलू...वैलेंटाइंस डे पर एक-दूसरे को अपने बदन की ख़ुशबू देने से बेहतर क्या तोहफ़ा हो सकता है भला। आज रात भर मैं भी इसी टी-शर्ट को पहनकर सोई थी। अब हम जब भी मिलेंगे....आपस में अपनी ख़ुशबू बदल लेंगे।”

वक्त़ के साथ बदलता माहौल और भाषा लव नोट्स पर तारी है। नब्बे की कहानी 2020 की तरह नहीं लिखी गई। यह किताब की ख़ासियत तो है ही, लेखक की बदलते वक्त़ को पैनी नज़र से देखने और महसूस करने की भी बानगी है। इसके बावजूद एक चीज़ जो पाठक को बाँधकर रखती है, वो है आसान सीधी भाषा। जो इतनी सरल है कि अपने आप लिख गई सी लगती है। अपने आप लिख गया सा लगना, इतना भी अपने आप नहीं होता। पल्लवी ये कमाल करती हैं। वो आपको जगह नहीं देती। दो या तीन पेज का एक-एक किस्सा है, कसा हुआ; भावनाओं से कढ़ा हुआ। एक पाठक के बतौर यह नोट्स आख़िर तक आपको गले से लगाकर रखते हैं। जैसे कह रहे हो कि जाना हो तो जाओ हमने कब रोका है? पल्लवी के हर किस्से के प्रेमी-प्रेमिका आज़ाद इश्क़ की दुनिया में आवाजाही करते हैं। “जिन्दगी के अलग-अलग वक्त़ों में कोई एक कितना करीब होता है न...” वहीं दूसरी जगह मानो वे इश्क़ की परिभाषा को जैसे बंद कमरे से आज़ाद करते हुए लिखती हैं- “पगली .... इतना दिमाग मत लगाया कर। हम सब ऐसे ही प्रेम करते हैं... सिर्फ देने के लिए नहीं, पाने के लिए भी। बीस देने के लिए अस्सी पाने के लिए। ये आदर्श और व्यावहारिकता का हसीन फ़र्क है जानेमन। चलो... अब कॉफ़ी पीने चलें।” जब आज भी भाषा की शुद्धता साहित्यकारों व आलोचकों के लिए चिंता का विषय है। ‘जिक़्रे यार चले’ की भाषा इस चिंता में गहरी ख़लल है। इन किस्सों में हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी मिलकर भाषा के अपने ‘होने’ के घमंड से ज्यादा होने का जश्न मनाती हैं। मसलन किताब में एक जगह मोबाइल पर मैसेज से बात हुई तो गुड मॉर्निंग को रोमन लिपि में good morning लिखा गया है। ख़ासबात कि ये पाठक को परेशान नहीं करता। कम से कम मेरे जैसे पाठक को तो मज़ा ही आ जाता है। भाषा के किस्से के हिसाब से प्रयोग कहीं गुदगुदाते हैं तो कहीं आवाक छोड़ जाते हैं। जानां इक तस्वीर न हो तो कमरा सूना रह जाता है, इस नाम के प्यारे से किस्से में पृष्ठ संख्या 155 पर वे लिखती हैं -

“एक-दो-तीन ... और लड़का पोज़ लेने के लिए लड़की को कमर से पकड़कर उसके ऊपर झुकता है मगर लड़की पीछे झुकी तो झुकती ही चली गई है। और इतने में खचाक... तस्वीर खिंच गई।”

वहीं जब वे किस्सों के बीच प्रेमियों से कविताएँ लिखवाती हैं तो कितना गहरा असर छोड़ जाती हैं। कहानी से कविता में जाते हुए उनका ट्राज़ीशन परेशान नहीं करता बल्कि एक प्रेमी मन को सराबोर कर जाता है। कविता, कहानी में घुली-मिली सी लगती है। बल्कि ऐसा लगता है दोनों को अलग करने से किस्सा बिगड़ जाएगा। यह एक तरह से गद्य व पद्य के द्वि-विभाजन को भी पाट देने वाली बात है। पृष्ठ संख्या 126 पर कविता का एक हिस्सा देखिए -

“कहते हैं स्पर्श सबसे ईमानदार उत्तर देता है

सच ही तो है

धड़कनों ने धड़कनों को छुआ और

देखो तो ज़रा,

अभी-अभी मेरी आँख में उग आया है शगुन का पहला मोती”

किताब में शीर्षक के साथ भी प्रयोग हैं। हर लव नोट का शीर्षक एक शेर की एक लाइन है। मसलन एक किस्से का शीर्षक गुलजार का एक शेर है- “आपके बाद हर घड़ी हमने आपके साथ ही गुज़ारी है” इनका ज़िक्र आख़िर में संदर्भ के बातौर किया गया है। यह बढ़िया प्रयोग है। परंपरागत तरीकों को तोड़ता-सा लगता है। कई बार तो ऐसा भी लगता है कि पहले लेखक के मन में शेर आया हो फिर किस्सा। किसी भी किस्से को आप पूरा या अधूरा नहीं कह सकते। पर पढ़ते वक़्त सब आपके भीतर साँस लेते हैं। आप उन्हें ठीक उसी पल में जीते हैं। जी भर जीते हैं। किस्से मिलने, बिछड़ने, फिर मिलने, कभी न मिलने, कभी न बिछड़ने, रोज़ मिलते रहने के वादे, इश्क़ के शबनमी इरादों और रंजो-ग़म से सराबोर हैं। किस्से कभी कोई भूली-बिसरी याद या कभी अपने ही हालात जैसे लगते हैं। दिल से लिखे गए हैं। दिल तक पहुँचते हैं। हर किस्से में वे प्रेमी-प्रेमिका को लड़का और लड़की लिखती हैं। यह अच्छा लगता है। मेरी पसंदीदा दोस्ती दादी-लड़की की है। “दादी पोती को अपने प्रेम के बारे में बता रही थीं। लड़की यह जानकर हैरान थी कि दादी और दादा ने प्रेम विवाह किया था और दादा हर ख़ास मौके पर दादी के लिए एक नज्म़ लिखते रहे थे और दादी के जीवन का एक भी दिन ऐसा नहीं था जिस दिन वो दादा जी को चूमे बग़ैर सोयी हों।... उस रोज़ सारी रात प्रेम में डूबी दो लड़कियाँ जागती रही थीं और अपने-अपने प्रेमियों की बातें एक-दूसरे को बताती रही थीं।

कुछ किस्से रुलाते हैं। कुछ हँसाते हैं। और कुछ आह! के साथ बस ख़ुद को पाठक के भीतर छोड़ जाते हैं। किताब गठी हुई है। एक या दो बार बैठ कर ही पूरी पढ़ी जा सकती है। बस कुछ एक जगह सिमिट्री स्थापित करने के चक्कर में पल्लवी थोड़ा ज्यादा ही फिल्मी हुई जाती हैं। वो ज़रा अखरता है। यथार्थ से दूर ले जाता है। बाकी ये नोट्स पढ़ने लायक हैं। यहाँ जब ज़िक्र यार का चलता है तो आपको भी अपना यार याद आता या बेहतर कहें तो आते हैं। और बहुत देर तक आते ही जाते हैं। पल्लवी के ये चुलबुले लव नोट्स ज़रूर पढ़े जाने चाहिए। क्योंकि ये कही भी-कभी भी पराए नहीं लगते।

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किताब का नाम - ज़िक्रे यार चले, लव नोट्स, लेखक - पल्लवी त्रिवेदी
प्रकाशक- सार्थक, राजकमल प्रकाशन का उपक्रम, मूल्य- 250, पेपर बैक, वर्ष- 2024

अपर्णा दीक्षित
सरोजिनी नायडू महिला अध्ययन केंद्र, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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