आधुनिक जीवन संदर्भ और हिंदी सिनेमा
- बृजेश यादव
शोध सार : हिंदी सिनेमा का संबंध प्रारंभ से ही समाज से रहा है। जैसे साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है वैसे ही सिनेमा को भी समाज का दर्पण कहना गलत न होगा। समाज में जो घटनाक्रम घटित होता है उसे ही सिनेमा में दर्शाया जाता है। किसी भी देश या क्षेत्र विशेष की संस्कृति, परंपरा और समाज का सीधा प्रभाव सिनेमा में देखने को मिलता है। समाज में जिस प्रकार मूल्यों में बदलाव होता है उसी प्रकार सिनेमा के स्वरूप में भी परिवर्तन होता जाता है। प्रस्तुत आलेख में 'आधुनिक जीवन सन्दर्भ और हिंदी सिनेमा' शीर्षक के अन्तर्गत आधुनिक जीवन संदर्भ के विभिन्न बिंदुओं (‘राष्ट्रीयता’, ‘भारतीय जीवन दृष्टि और मूल्यबोध’, ‘शिक्षा तकनीक और सोशल मीडिया’, ‘आधुनिक प्रेम और रिश्तों का चित्रण’, ‘महिला सशक्तीकरण और लिंग समानता’, ‘सामाजिक मुद्दे’) को व हिंदी सिनेमा में आधुनिक जीवन संदर्भ का क्या मूल्य व स्वरूप है? इन सभी पहलुओं को समझने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : मूक सिनेमा, समाज, राष्ट्रवाद, सभ्यता, आज़ादी, परंपरा, संस्कृति, स्वाधीनता, मूल्यबोध, हिन्दी सिनेमा, स्त्री अस्मिता, महिला सशक्तिकरण, प्रेम, शिक्षा आदि।
मूल आलेख : भारतीय इतिहास में रंगमंच का उल्लेख भिन्न-भिन्न रूपों में देखने को मिलता है। आज सिनेमा का जो आधुनिक रूप है वो कहीं न कहीं रंगमंच के तकनीकी और प्रौद्योगिकी विकास का ही अगला चरण है। सिनेमा का प्रथम परिचय पेरिस में सन् 1895 ई० में लुमियर बंधुओं के द्वारा प्रदर्शित पहले फ़िल्म शो से होता है। भारत में लुमियर बंधुओं ने सर्वप्रथम 1896 ई० मुंबई के काला घोड़ा स्थित वाटसन होटल में सिनेमा का प्रदर्शन किया था। जिसका प्रभाव भारतीय जनमानस पर गहरा पड़ा। भारतीय सिनेमा के पिता दादा साहब ‘फाल्के’ के द्वारा देश की प्रथम मूक फ़िल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ का बंबई में सिनेमा के पर्दे पर प्रदर्शन किया गया। जिसका प्रभाव संपूर्ण भारतवर्ष में परिलक्षित हुआ। भारत में सिनेमा का उदय किसी क्रांति से कम नहीं था। पहली बोलती फ़िल्म ‘आलमआरा’ से लेकर अब तक भारतीय सिनेमा ने अपने कई नये प्रतिमानों को गढ़ा ही नहीं बल्कि पुराने प्रतिमानों को तोड़ा भी है। "हर विकासशील वस्तु अपने भीतर अपने प्रतिपक्ष को समाहित किए हुए होती है, जो इसे पूर्व स्थिति में नहीं रहने देता।"[1] इस समयांतराल में सिनेमा का प्रभाव विस्तृत जनसमुदाय पर व्यापक रूप में पड़ा। “चित्रपट अभिव्यक्ति का सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है, जो किसी घटना या विचार को मनमोहक ढंग से प्रस्तुत करता है। यह व्यक्ति के मन को अंदर तक स्पर्श करता है। सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, वह तो अतीत का अभिलेख, वर्तमान का चितेरा और भविष्य की कल्पना है। सामाजिक परिवर्तन, लोकजागरण तथा बौद्धिक क्रान्ति की दिशा में भारतीय सिनेमा अविस्मरणीय है। यह ऐसा प्रभावकारी माध्यम है जिसने सभी उम्र के लोगों के मानस को झंकृत कर दिया है" [2]
हिंदी सिनेमा में आधुनिक जीवन संदर्भ को हम कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं के आधार पर समझ सकते हैं। जिसमें पहला बिंदु है राष्ट्रीयता। भारतीय सिनेमा का पदार्पण जिस समय हुआ , उस समय देश में कई समाज सुधार आंदोलन, धार्मिक संस्थाओं के द्वारा धार्मिक सुधार एवं राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन ज़ोरों से चल रहे थे । देश गरम दल और नरम दल दो गुटों में बंटा हुआ था। जैसा कि विदित है साहित्य का सीधा संबंध समाज से है, तत्कालीन समाज में जो कुछ भी घटित हो रहा था उस युग के लेखक व कवि उसे अपने रचनाओं के माध्यम से देश के प्रत्येक वर्ग तक पहुँचाने का कार्य कर रहे थे। फिर ‘सिनेमा’ समाज और साहित्य से अछूता कैसे रहता। अगर प्रारंभिक दौर की फ़िल्मों पर ध्यान देते हैं तो ये देखने को मिलता है कि सिनेमा पर धार्मिक आंदोलनों का प्रभाव सबसे ज़्यादा है। “मूक फिल्मों का समय भारतीय जीवन को कई तरह से आंदोलित करने का समय था। पहले धार्मिक पौराणिक पात्रों को लेकर फिल्मों का निर्माण हुआ। यह जनता को फिल्मों के जादू से जोड़ने का एक नायाब तरीका था। क्योंकि उस समय फिल्म को ओछा माध्यम माना जाता था। ऐसा माना जाता था कि सिनेमा सभ्य समाज का हिस्सा नहीं है। धार्मिक फिल्मों के माध्यम से भारतीय जनमानस में अपनी पैठ बनाने के बाद मूक सिनेमा में, ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं पर भी फिल्मों का निर्माण हुआ। पौराणिक फिल्मों ने भारतीय जीवन की मानसिक चेतना को जहाँ एक संबल दिया, वहीं ऐतिहासिक पात्र पर बनी फिल्मों ने लोगों को राष्ट्रीयता से जोड़े रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।" [3]
राष्ट्रीय चेतना के प्रसार में सिनेमा और साहित्य का अहम् योगदान रहा है, सिनेमा दर्शकों के अंदर एक नया उत्साह, जोश और ऊर्जा भरने में सहायक साबित हुआ है। राष्ट्रीय आंदोलनों में देश के युवा, बच्चे, वृद्ध सभी लोग बढ़ - चढ़कर भाग लेने लगे थे। महात्मा गाँधी के रूप में देश को एक ऐसा नेता मिल गया था जिसने देश के लोगों को सत्य, अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए भी आंदोलनों से जुड़ने व अंग्रेज़ी सत्ता से आज़ादी मिलने की एक उम्मीद दिखाई। ऐसे हालात में सिनेमा में राष्ट्रवादी फ़िल्मों का प्रदर्शन होना स्वाभाविक था। सन् 1936 ई० में ‘अमर ज्योति’ के नाम से एक फ़िल्म आई जिसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई को दर्शाया गया था। ‘निर्मला’ (1938) भारतीय संस्कृति, परंपरा और देशभक्ति की भावना तथा ‘क़िस्मत’ (1943) बलिदान और राष्ट्रभावना के कहानी को दर्शाने वाली फ़िल्में थीं । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ये सिलसिला और तेज हुआ और हिंदी सिनेमा ने राष्ट्रवाद की ज़मीन को मज़बूत बनाने में बहुत अहम् भूमिका निभाई। राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई, संघर्ष, बलिदान, भारतीय संस्कृति और परंपराओं का प्रदर्शन, देश की एकता और अखंडता की रक्षा करने की प्रेरणा, आज़ादी के बाद के मोहभंग, भूखमरी, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश से हुए युद्धों, देश के समकालीन परिस्थितियों व यथार्थ से परिचित कराने का कार्य हिंदी सिनेमा ने बख़ूबी निभाया। जिनमें ‘शहीद’(1948), ‘आनंदमठ’( 1952), ‘मदर इंडिया’(1957), ‘हक़ीक़त’(1964), ‘शहीद भगत सिंह’ (1965), ‘मेरा गाँव मेरा देश’( 1971), ‘हिंदुस्तान की क़सम’(1973), ‘कर्मा’ (1986), ‘क्रांतिवीर’ (1988), ‘बार्डर’ (1997), ‘ग़दर:एक प्रेम कथा’(2001), ‘लगान’ (2001), ‘माँ तुझे सलाम’ (2002), ‘LOC कारगिल’ (2003), ‘अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ (2004), ‘परमाणु: द स्टोरी आफ पोखरण’ (2018) आदि प्रमुख फ़िल्में शामिल हैं । समकालीन सिनेमा ने कई रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़ा है “समकालीन सिनेमा में राष्ट्रवाद धार्मिक रूप में उग्र राष्ट्रवाद के रूप में जन-राष्ट्रवाद के रूप में हमारे सामने आता हे। जिसमें कुछ हिंसा के रास्ते पर भी जाकर लक्ष्य प्राप्त करने से नहीं चूकते है। यह सिनेमा राष्ट्रवाद को बचाने व उसके विरोधी समस्याओं से संघर्ष करने की प्रेरणा देता नजर आता है।"[4] सिनेमा के माध्यम से राष्ट्रवाद की एक नयी परंपरा गढ़ने का प्रयास जारी हैं।
दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है ‘भारतीय जीवन-दृष्टि और मूल्यबोध’। भारतीय जीवन दर्शन की एक बहुत पुरानी अवधारणा है ‘सत्यमेव जयते’। हमारी भारतीय परंपरा में यह विद्यमान रहा है कि सत्य की ही हमेशा जीत होती है। भारतीय लोक कथाओं से लेकर संस्कृत वाङ्मय तक आज की कथाओं का अंत सुखांतक रहा है। भारतीय परंपरा में यह मान्यता रही है कि मानव जीवन में अनेक प्रकार की समस्याएँ, संघर्ष, परेशानियाँ , कठिनाइयाँ आ सकती हैं पर सत्य के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति कभी पराजित नहीं हो सकता। फिर हिंदी सिनेमा अपने आपको अछूता कैसे रखता। हम देख सकते हैं कि हिंदी सिनेमा का अंत भी सुखांतक होता है जो कि भारतीय जीवन दृष्टि और मूल्यबोध का ही द्योतक है। आज़ादी के बाद देश की आम जनता जो स्वप्न संजोए चली थी आज़ादी के 15 वर्ष बितते-बितते उसका आज़ादी से मोहभंग हो गया। उनके स्वप्न का तिलिस्म समय के बितने के साथ-साथ टूटता चला जा रहा था। ऐसे हालात में बहुत से पुराने मूल्य टूटे व नये मूल्य गढ़े गए। लोगों का रहन-सहन, सोच-विचार, राष्ट्र के प्रति भावना आदि में बदलाव होता गया। जिसका प्रभाव हिंदी सिनेमा पर भी प्रभावी रूप से गहरा पड़ा। सिनेमा के बदलते हुए स्वरूप पर फ़िल्म समीक्षक विजय कुमार कहते हैं, “पचास और साठ के दशक की फिल्में जिन्हें स्कूल और कॉलेज से भाग-भागकर देखते हुए मेरी पीढ़ी के लोग बड़े हुए हैं, वे अछूत कन्या, पड़ोसी या धरती के लाल थीं। हमारा समय बाजी, जाल, आरपार, सीआईडी, टैक्सी ड्राइवर, देवदास, नौ दो ग्यारह, पेइंग गेस्ट, फंटुश, पॉकेटमार, काली टोपी लाल रूमाल, चोरी-चोरी, काला बाजार, चलती का नाम गाड़ी, अलबेला, चाइना टाउन और दिल तेरा दीवाना जैसी फिल्मों का था। श्री 420, दो बीघा जमीन, गंगा जमना, प्यासा, कागज के फूल, हम दोनों और गाइड जैसी फिल्में हमारे समय की क्लासिक फिल्में थीं। यह समय कितनी जल्दी बदल गया था। पॉपुलर सिनेमा की एक नई संस्कृति आकार ले रही थी। चालीस के दशक का आदर्शवाद अपना रंग खो चुका था। बांबे टॉकीज, प्रभात और न्यू थियेटर्स जैसी कंपनियाँ बंद हो चुकी थीं। पृथ्वी थियेटर्स और इप्टा की बातें केवल हमने अपनी पिछली पीढ़ी से सुनी थीं। अब तो सिनेमा निर्माण में तमाम गलत-सही रास्तों से अकूत धन आ रहा था। बड़ा बजट, विशाल वितरणऔर मुनाफा चीजों के केंद्र में थे। लेकिन मनोरंजन की इसी पॉपुलर संस्कृति के बीच अभी भी राजकपूर, गुरुदत्त, बिमलराय और महबूब खान की अपनी-अपनी स्वप्नजीविता बाकी थी। इनके यहाँ सिनेमा अब भी निर्देशक के ‘ऑट्यूर' को दूर तक निभा सकता था।”[5]
तीसरा बिंदु है शिक्षा, तकनीक और सोशल मीडिया।हिंदी सिनेमा में शिक्षा का बहुत बड़ा महत्व है। शिक्षापरक फ़िल्मों का निर्माण कर समाज को जागरूक करने में सिनेमा एक अच्छा माध्यम साबित हुआ है। समाज के वो मुद्दे जिससे आज भी समाज के लोग बचते हैं उसे सिनेमा के माध्यम से एक अनोखे रूप में जनता के मानस पटल के समक्ष लाना व जागरूक करना सिनेमा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। हिंदी सिनेमा में शिक्षा को विभिन्न तरीक़ों से दर्शाया गया है। फ़िल्मों में शिक्षा का महत्व, शिक्षकों की भूमिका, शिक्षा प्रणाली, शिक्षा के प्रति जागरूकता, स्वच्छता अभियान, बीमारियों और बीमार के प्रति व्यवहार, संवेदनशीलता आदि से संबंधित जानकारी को दर्शाया गया है। इसमें प्रेमचंद(1979 ,शिक्षा(1991), तारे जमीन पर (2007),3 इडियट्स, (2009), पैडमैन (2018),जागृति(1954), स्पर्श (1980), "माई नेम इज़ खान" (2010)आदि प्रमुख फ़िल्में हैं। “शिक्षा पर आधारित फिल्में समय-समय पर देखने को मिलती हैं जो शिक्षा के महत्व को समझाती हैं। जिनमें से हम कुछ फिल्मों को लेकर देख सकते हैं। वर्ष 2007 में 'तारे जमींन पर' रिलीज हुई तो उसने समाज में एक महत्वपूर्ण संदेश दिया। हमारी शिक्षा व्यवस्था में समावेशी शिक्षा दी जाती है। समावेशी शिक्षा का अर्थ ही होता है विभिन्न अक्षमताओं वाले बच्चों को नियमित कक्षा में जहाँ सामान्य बच्चे हैं उनके साथ शामिल किया जाए। फिल्म में ईशान अवस्थी नामक एक बालक है जो मानसिक बीमारी डिस्लेक्सिया से पीड़ित है। इस प्रकार के बच्चों को लिखने और पढ़ने की समस्या होती है। ईशान को सामान्य बच्चों के साथ रखकर गीत गा कर अलग प्रकार की एक्टीविटी द्वारा शिक्षा देकर ईशान की मदद की जाती है। इस फिल्म में एक बहुत बड़ा संदेश समाज को दिया गया है कि 'एवरी चाइल्ड इज स्पेशल' एक माता-पिता और एक शिक्षक के रूप में हमें अपने बच्चों के गुणों और उनकी शिक्षा में आने वाली कठिनाइयों का पता लगाना होगा। तभी हम भावी भारतीय पीढ़ी को मजबूत कर पाएँगे। आगे 2009 में '3 इडियट्स' फिल्म आई जिसमें बच्चों पर अभिभावक तथा समाज द्वारा पड़ने वाले दबाव के बारे में दर्शाया गया है। इस फिल्म का संदेश मुख्य रूप से यही है कि बच्चे जो भी बनना चाहें उन्हें बनने दें। उन पर अपने सपनों का या झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए दबाव न डालें क्योंकि हर बालक अपने आप में कुछ अलग होता है।”[6] आज के दौर में सिनेमा का प्रयोग दूरस्थ शिक्षा प्रणाली में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यूजीसी के द्वारा ऑनलाइन चैनलों के माध्यम से सभी प्रकार के कोर्सेज़ का पठन-पाठन का प्रसारण किया जा रहा है जो कि शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति है। आज के आधुनिक दौर में सिनेमा शिक्षा और मनोरंजन का सबसे अच्छा स्त्रोत है।
चौथा बिंदु है ‘आधुनिक प्रेम और रिश्तों का चित्रण’। प्रेम को सिनेमा का सबसे पसंदीदा विषय कहें तो ये अतिशयोक्ति नहीं होगी। आधुनिक परिवेश में रिश्ते कब जुड़ते हैं और कब टूट जाते हैं , पता ही नहीं चलता। आज जैसे-जैसे प्रेम का स्वरूप बदल रहा है सिनेमाई पर्दे पर भी उसे उसी रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है जिस रूप में वह व्यावहारिक जीवन में विद्यमान है। आज जब पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से देश ग्रसित है तो भारतीय सिनेमा उससे कैसे अछूता रह सकता है । "हॉलीवुड फिल्मी सितारों के अनुकरण हमारे सिनेमा में निरन्तर होते चले आ रहे हैं। यदि वहाँ चुम्बन और रति-मुद्राएं आम हैं तो हमारे यहाँ भी धड़ल्ले से आ चुकी हैं। अब तो स्थिति यह आ गई है कि सिनेमा अभिनेत्रियों में जबरदस्त प्रतिस्पर्धा है। कौन कितना ज्यादा उघड़ (एक्सपोज) सकती है। प्रत्येक शुक्रवार को उद्घाटित होने वाली फिल्मों में कोई न कोई बाला है, जो नंगे होने के पिछले रिकॉर्ड को मात देती हुई अपना अलग कदम उठाती है"।[7] हम भले ही नई तकनीकों व शिक्षा के आधार पर विकसित अवस्था में है पर हमारा समाज आज भी प्रेम के संबंधों को स्वीकार नहीं कर पाता। प्रेम के इन संबंधों का चित्रण सिनेमा में शारीरिक और अशारीरिक दोनों रूपों में प्रदर्शित हो रहा है। सन् 1960 में प्रदर्शित के. आसिफ द्वारा निर्देशित फिल्म 'मुगले आज़म' एक अच्छा उदाहरण है। इसमें प्रेम को पूरे हिन्दुस्तान के परिप्रेक्ष्य में देखकर उसका मूल्यांकन व चित्रण किया गया था ।“मुग़ल-ए- आज़म में अकबर को हिंदुस्तान से जोड़ा जाता है लेकिन एक शासक के रूप में नहीं, उसकी परंपरा, मर्यादा और गरिमा की रक्षा करने वाले के रूप में भी। दरअसल फिल्मकार, सलीम और अनारकली की प्रेम-कहानी को अकबर और हिंदुस्तान के बीच के संबंधों के रूबरू रखकर दिखाता है। अकबर अपने हर कदम और फैसले को हिंदुस्तान के हक में किए गए फैसले के रूप में देखता है और इस तरह सलीम और अनारकली की प्रेम-कहानी के विरोध का औचित्य वह हिंदुस्तान के प्रति अपने कर्तव्य में खोजता है।"[8]
हिंदी सिनेमा में प्रेम कहानियों का स्वरूप बदलते समाज के यथार्थ स्वरूप के अनुरूप परिवर्तित होता रहा है। रिश्तों के मनमुटाव, खट्टे-मीठे संवाद,प्रेम त्रिकोण, परिवार और रिश्तों का महत्व, आत्मबोध, सांस्कृतिक और पारिवारिक परिप्रेक्ष्य जैसे विभिन्न तरीको से आधुनिक प्रेम और रिश्तों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें मुख्य रूप से 'दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे' (1995), 'कुछ कुछ होता है (1998), ‘कभी खुशी कभी ग़म’ (2001), ‘जोधा अकबर’ (2008), ‘रॉकस्टार’ (2011), ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ (2015) जैसी प्रमुख फ़िल्में हैं जिनमें प्रेम और अन्य रिश्तों के विभिन्न रूपों को दर्शाया गया है। हिंदी सिनेमा में प्रेम के बदलते हुए स्वरूप पर आशुतोष राणा टिप्पणी करते हुए कहते हैं- “कई दशकों से बॉलीवुड फिल्मों ने प्यार की परिभाषा दी- लव ऑफ फर्स्ट साइट,यानी पहली नजर में प्यार हो जाता है। अनिल कपूर, शाहरूख खान, आमिर खान और अक्षय कुमार, इमरान हाशमी ने शुरूआती दौर में कई फिल्में कीं जो इस परिभाषा को सार्थक सिद्ध करती रहीं । फिल्म में नायिका से पहली बार गुफ्तगु होते ही नायक तय कर लेता कि ये वही है जिसे वो सपनों में देखता है, ये वही है जिसे पाकर पूरे कायनात की खुशी उसके मुट्ठी में होगी, ये वही है जिसके लिए वो दुनिया से जीतना चाहता है लेकिन सिर्फ इसी एक के आगे वो अपना सर भी झुकाता है, आखिर दिल जो जीतना है।"[9]
आधुनिक जीवन संदर्भ के परिप्रेक्ष्य में पाँचवाँ बिंदु है ‘महिला सशक्तिकरण और लिंग समानता’। भारतीय हिंदी सिनेमा में महिलाओं के संघर्ष, साहस, उनके प्रति भेदभाव, स्त्री अस्मिता से जुड़े पहलुओं को, स्त्री स्वातंत्र्य, लिंग के आधार पर भेदभाव आदि को यथार्थ रूप में प्रदर्शित किया जाता रहा है। महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए महिलाओं की तात्कालिन स्थिति, अधिकार, सामाजिक स्तर पर उनका महत्व आदि के विभिन्न स्वरूपों को दर्शाया गया है। हिन्दी सिनेमा का स्वरूप जैसे-जैसे बदलता गया वैसे-वैसे ही फिल्मों में महिला अभिनेत्रियों का रूप भी बदलता गया। नारी मुक्ति के नाम पर सिनेमा के केन्द्र में अश्लीलता को बढ़ावा दिया जा रहा है, हालात ये हो गये हैं कि नारी का देह प्रदर्शन ही नारी मुक्ति का पर्याय बन गया है। एक तरफ जहाँ सिनेमा के केंद्र में स्त्री का चेहरा हुआ करता था वहीं आज स्त्री का देह केंद्र बन चुका है। बाक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन कर सके इसलिये सिनेमा में देह प्रदर्शन को बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि देह प्रदर्शन कभी भी नारी मुक्ति का पर्याय नहीं हो सकता बल्कि नारी मुक्ति के नाम पर छलावा देकर बाजारवाद के हवाले करने का कवायद भर है। आज के दौर में जब सामाजिक मुद्दों के नाम पर फ़िल्मों में बलात्कार और हिंसा जैसी घटनाओं को दिखाकर दर्शकों को आकर्षित करने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है। जवरीमल्ल पारीख इस विषय में लिखते है- “हिंसा और बलात्कार जुल्म को अधिक उत्तेजक, नाटकीय और प्रतिशोधक बनाते हैं। इनका दृश्यांकन दर्शकों को तत्काल अपनी गिरफ्त में ले लेता है। जुल्म के प्रतिशोध में नायक द्वारा किया गया कोई गैरकानूनी, अमानवीय और क्रूर कृत्य अपने आप न्यायोचित बन जाता है। बलात्कार खलनायक को तड़पा-तड़पाकर मारने का उचित कारण बन जाता है। साथ ही यह नारी देह के नग्न प्रदर्शन का अवसर भी देता है।”[10] इस प्रकार के फ़िल्मों में चाँदनी बार' (2001), 'लज्जा' (2001), 'चमेली' (2004), 'गर्लफ्रेंड' (2004), 'पेज थ्री' (2005), 'चीनी कम' (2007), 'हनीमून ट्रेवल्स प्रा.लि.' (2007), 'लागा चुनरी में दाग' (2007), 'निःशब्द' (2007), 'फैशन' (2008), 'लक बाई चांस' (2009), 'इश्किया' (2010), 'लव, सेक्स और धोखा' (2010), 'मर्डर-2' (2011), डर्टी पिक्चर' (2011), 'सात खून माफ' (2011), 'जिस्म-2' (2012), 'इश्कजादे' (2012), 'हिरोइन' (2012), 'शुद्ध देशी रोमांस' (2013), 'इनकार' (2013), 'साहब, बीवी और गैंगस्टर रिटर्न' (2013), 'रागिनि एम.एम.एस.(2014), ‘एनिमल’ (2023) आदि फिल्में इस बात को प्रमाणित करती हैं। हिंदी सिनेमा के फिल्मकारों में एक दूसरा पहलू भी है जो दूसरे दृष्टि से फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं वो जिसमें वह महिलाओं को अपने जीवन को नियंत्रित करने और स्वतंत्रता से समाज में अपने सपने को पूरा करते हुए दिखाने की कोशिश कर रहे हैं । इनमें ‘मदर इंडिया' (1957) 'चक दे इंडिया (2007), 'क्वीन' (2014), ‘पीकू’ (2015) 'नीरजा' (2016), 'दंगल' (2016) आदि प्रमुख फिल्में है। आज महिलायें पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चल रही हैं, इसका सिनेमा पर भी गहरा प्रभाव पड़ रहा है। आज स्त्री जीवन के प्रत्येक पहलुओं को बेबाक़ी से उठाया जा रहा है। “पहले की फिल्में स्त्री जीवन की मुश्किलों और विडंबनाओं को व्यक्त करते हुए उनके साथ बराबरी और अधिक मनुष्योचित व्यवहार करने पर बल देती थी। जबकि इधर की फिल्मों में बराबरी और मानवीय व्यवहार के साथ-साथ उनके सबलीकरण पर अधिक बल है। इन फिल्मों में स्त्री जीवन के कुछ ऐसे पहलुओं को उठाया गया है जो शायद इस तरह से इससे पहले इतने तीखे रूप में नहीं उठाया गया है।”[11]
छठा बिंदु है 'सामाजिक मुद्दा’। हिंदी सिनेमा का सम्बन्ध समाज से है। समाज में जो कुछ घटित होता है वही कहानी के रूप में फिल्मों में दर्शाया जाता है। यथार्थ रूप में प्रदर्शित करना ही सिनेमा का कर्त्तव्य होना चाहिए उसे आदर्श और नैतिकता के नाम पर छुपाया नहीं जा सकता। यदि सिनेमा को समाज का आईना (दर्पण) कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। “सिनेमा समाज का प्रतिनिधि नहीं बल्कि प्रतिबिंब है। जैसे-जैसे समाज बदलता है, सिनेमा भी बदलता है। पहले हमारे हीरो टीचर, पुलिसवाले या फिर क्रांतिकारी हुआ करते थे। वे समाज के उन तबकों से होते थे जो समाज में स्वच्छ छवि रखते थे या विशेष होते थे। साहूकार, जमींदार और अन्य ताकतवर लोग विलेन के तौर पर होते थे जो सत्ता की ताकत का इस्तेमाल खुद के लिए करते थे। लेकिन समय ने करवट ली। जंजीर में अमिताभ बच्चन कॉमनमैन को लेकर आए। थोड़े समय तक काला पत्थर, सुहाग, मुकद्दर का सिकंदर में इसी तरह का हीरो नजर आया। विलेन भी उसी के मुताबिक आना लाजिमी था।"[12] आज समाज अनेक प्रकार के कुप्रथाओं, बाह्याडंबर, स्वास्थ्य, गरीबी, जाति व्यवस्था, बेरोजगारी, आतंकवाद, शोषण, भ्रष्टाचार जैसे सामाजिक मुद्दों से जूझ रहा है। सिनेमा में इन मुद्दों को प्रदर्शित करने हेतु फिल्मकारों ने यथार्थ के धरातल पर उतरकर उसे देखा व समझा है तत्पश्चात फिल्मों में उसे प्रदर्शित कर समय-समय पर समाज को जागरूक करने का प्रयास किया गया है। आज के दौर में नक्सलवाद एक प्रमुख मुद्दा है। हिन्दी फिल्में भी इस समस्या से अछूती नहीं रह गई है। इसमें 'मृग्या’ (1976), ‘आक्रोश’ (1980), ‘हलचल’ (2004), ‘रंग दे बसंती’ (2006), ‘चक्रव्यूह’(2012), ‘सोन चिड़िया’ (२०११) आदि प्रमुख हैं । ‘चक्रव्यूह’ फिल्म में इस समस्या को दर्शाया गया है यथा- “वर्तमान समाज में 'चक्रव्यूह' यह फिल्म कठोर सच्चाई को पेश करती है। यह संदेश भी देती है कि अगर समय रहते समस्या का हल नहीं खोजा गया तो देश के दो सौ जिलों में फैला नक्सलवाद भविष्य में पूरे देश को चपेट में ले लेगा"। [13] धार्मिक बाह्यांडबरो और कुप्रथाओं पर चोट करते हुए हिंदी सिनेमा में ‘पीके’ (2014), ‘ओमकारा’ (2006), ‘माई नेम इज खान’(2010), ‘पिंक’(2016), ‘ओह माई गॉड’(2012), ‘दोज़ख़:इन सर्च ऑफ हेवेन’(2015) आदि प्रमुख फ़िल्में है। सिनेमा के माध्यम से समाज के प्रत्येक मुद्दों को एक रोचक ढंग से पूरे जनसमूह के बीच प्रदर्शित किया जा सकता है। “सिनेमा ने मनुष्य जगत के मानवीय-अमानवीय, उचित अनुचित, ग्राह्य-त्याज्य, सही-गलत या अच्छे-बुरे व्यवहार एवं आचरण को ठीक उसी तरह फिल्माया है प्रशिक्षण, जैसे कोई जागरूक साहित्यकार अपनी साहित्यिक रचना चुनौतियाँ के कथानक का ताना-बाना बुनता है। भारतेंदु युग से अद्यतन दौर तक के साहित्य में, जिस प्रकार समय एवं स्थिति के बदलाव ने साहित्य और साहित्यकार को बदला है, वैसे ही सिनेमा ने भी अपने सामाजिक सरोकारों को उजागर किया है”।[14]
जिस प्रकार समाज सिनेमा से प्रभावित होता है उसी प्रकार सिनेमा भी समाज से प्रभावित होता है। समाज में जैसे-जैसे बदलाव आता है वैसे-वैसे सिनेमा का स्वरूप भी बदलता जाता है। आज के समय में राजनीतिक मुद्दों और लोकतंत्र को लेकर काफ़ी चर्चा है। “भारत दुनिया का सबसे बड़ो लोकतांत्रिक राष्ट्र है। किन्तु यह कहना गलत न होगा कि लोकतंत्र का सही स्वरूप आम जन के लिए नहीं है। आम आदमी को स्वाभिमान से जीने का अवसर बहुत कम है। राजनीति की आड़ में कुत्सित स्वार्थों की पूर्ति की जाती है। वोटों की राजनीति का गंदा खेल खेलकर नेता युवा वर्ग के भविष्य के साथ, जो अत्याचार करते हैं।"[15]
निष्कर्ष : हिंदी सिनेमा में जीवन के विभिन्न स्वरूपों पर आधारित फ़िल्मों को दर्शाया गया है। आधुनिक सिनेमा में ज़्यादातर फ़िल्मों का निर्माण आर्थिक लाभ की दृष्टि से किया जाने लगा है। जिससे समाज मे चेतना लाने वाले फ़िल्मों में कमी आई है। आज हिंदी सिनेमा में आवश्यक है राष्ट्रीय भावना, सामाजिक मुद्दों, स्थानीय कथाओं के ऊपर, सभ्य और मर्यादित भाषाओं, समानांतर विषयों पर और भारतीय संस्कृति पर आधारित फ़िल्मों का निर्माण किया जाए जो जीवन के विभिन्न संदर्भों को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत कर उन्हें जागरूक करने का प्रयास कर सकें ।
संदर्भ :
1. अमरनाथ; 'हिंदी आलोचना की पारिभाषित शब्दावली', पृ० 177
2. डॉ. अर्जुन तिवारी : आधुनिक पत्रकारिता, विश्वविद्यालय प्रकाशन, 2004, पृ. 222
3. प्रो. रमा : हिंदी सिनेमा में साहित्यिक विमर्श, हंस प्रकाशन, 2019, पृ. 4
4. शौव्य कुमार पाण्डेय : समकालीन सिनेमा में राष्ट्रवाद (मीडिया विमर्श' सिनेमा विशेषांक 3 जून 2013),पृ.48
5. विजय कुमार : हिंदी सिनेमा : आदि से अनंत, प्रह्लाद अग्रवाल (संपादक), साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृ. 11
6. डॉ. गोरखनाथ तिवारी : भारत में फ़िल्म निर्माण शिक्षा एवं व्यवसाय के विविध पहलू, भाषा (जुलाई-अगस्त 2020), भारतीय एवं विश्व सिनेमा विशेषांक : अंक 291, पृष्ठ संख्या- 114
7. जवरीमल्ल पारख, 'भूमंडलीकरण और भारतीय सिनेमा', रमेश उपाध्याय, संज्ञा उपाध्याय (सम्पादक), पृ० 61-62
8.जवरीमल्ल पारख : वसुधा, प्रह्लाद अग्रवाल (अतिथि संपादक), अंक-81, पृ. 222-223
9. योगेश वैष्णव, आउटलुक, अगस्त, 2017
10. जवरीमल्ल पारख, लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली, पृ. 106
11. जवरीमल्ल पारख, हिंदी सिनेमा का समाजशास्त्र, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, पृ.191
12. आशुतोष राणा, इंडिया टुडे, 29 सितंबर 2014
13. विनोद आर्य : फिल्मों में सामाजिक मुद्दों के प्रभाव('मीडिया विमर्श' सिनेमा विशेषांक-3, जून 2013), पृ. 44
14. डॉ. पूरनचंद टंडन : सिनेमा : समाज, साहित्य और संवेदना की सशक्त अभिव्यक्ति, भाषा (जुलाई-अगस्त 2020), भारतीय एवं विश्व सिनेमा विशेषांक : अंक 291, पृ. 9
15. प्रो. संजीव भानावत : भारत में संचार माध्यम राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, प्रथम संस्करण, 2008, पृ. 328
बृजेश यादव
शोध छात्र (लखनऊ विश्वविद्यालय)
by9223466@gmail.com
पता - बगया, भरछा, चंदौली, उत्तर प्रदेश, पिनकोड- 232101
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
बहुत सुंदर और ज्ञानवर्धक आलेख सिनेमा पर.
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया।
हटाएंबहुत सुन्दर और गौरवान्वित करने वाला आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद। 🌸
हटाएंबहुत बढ़िया मित्र 🌻
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद मित्र। 🌸🌸
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