हिंदी बाल साहित्य लेखन की परंपरा : एक अवलोकन
- दीप शिखा शर्मा

बीज शब्द : बाल साहित्य, बाल मनोविज्ञान, मनोरंजन, बाल कविता, बाल कहानी, बाल नाटक, विज्ञान कथाएँ, हास्य-व्यंग्य, लोककथाएँ, बाल गीत, जीवनी साहित्य।
मूल आलेख : बाल साहित्य लेखन की परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है। हिंदी से पूर्व संस्कृत में बालसाहित्य लिखा गया था। पंचतंत्र और हितोपदेश ऐसी ही रचनाएँ थी जो बालकों के व्यक्तित्व निर्माण हेतु उपयोगी एवं शिक्षाप्रद साबित हुई। दिविक रमेश के शब्दों में- “हिंदी सहित भारतीय बालसाहित्य की बात जब भी शुरू होती है, हम पृष्ठभूमि के रूप में संस्कृत और पाली भाषा में लिखे हमारे महान विश्व प्रसिद्ध क्लासिक्स के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट किए बिना नहीं रह सकते। ये सभी भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य के स्त्रोत के रूप में माने जाते हैं। ये क्लासिक्स हैं- ‘पंचतंत्र’ (लगभग 2000 साल पहले विष्णु शर्मा द्वारा लिखित यह कृति 5 भागों-भगवान सिंह के शब्दों में- ‘कान भरने की कला’, ‘मित्र लाभ’, ‘वैर साधने की विद्या’, ‘धीरज कबहुं न छाड़िए’, ‘बिन जांचे परखे करै सो पाछे पछताए’- में विभाजित है जिसमें कहानियों के माध्यम से छह महीने में एक राजा के अनभिज्ञ या मूर्ख युवा राजकुमारों को मुख्य रूप से राजनीति में शिक्षित करने का उद्देश्य मिलता है), ‘हितोपदेश’ (पंचतंत्र से थोड़े हेरफेर के साथ नारायण पंडित द्वारा लिखित), ‘कथासरित्सागर’ (कश्मीर निवासी सोमदेव द्वारा रचित) संस्कृत में हैं और ‘जातक’ (बोद्धिसत्व के पिछले जन्मों के विषय से सम्बद्ध कहानियां) पाली में है। इसके अतिरिक्त महाभारत और रामायण जैसे महान महाकाव्यों ने भी बाल कहानियों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।”1 भक्तिकाल में सूरदास और तुलसीदास द्वारा कृष्ण एवं राम के बालस्वरूप के मनोहारी वर्णन द्वारा परवर्ती बाल साहित्यकारों को बाल मनोवृतियों के विषय में प्रेरणा प्राप्त हुई। अमीर खुसरो की पहेलियों ने भी बालकों का खूब मनोरंजन किया।
आधुनिक काल में भारतेंदु युग से पूर्व राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, मुंशी सदासुखलाल नियाज, लल्लूलाल तथा सदल मिश्र आदि लेखकों ने अनेक रचनाओं के अनुवाद द्वारा बच्चों को मनोरंजक रचनाएँ प्रदान की जिनमें सिंघासन बत्तीसी, बेताल पंचविसंतिका तथा नासिकेतोपाख्यान का नाम प्रमुख है। इस समय संस्कृत की जिन रचनाओं का अनुवाद किया गया वे बालोपयोगी तो थी परन्तु इस समय तक बाल साहित्य सम्बन्धी मौलिक रचनाएँ अस्तित्व में नहीं आई थी। इन पुस्तकों ने बाल साहित्य के लिए आधार का कार्य अवश्य किया।
हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग साहित्य की सभी विधाओं के लिए महत्वपूर्ण रहा है। साहित्य की अन्य सभी विधाओं की भांति बाल साहित्य की दिशा में भी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेरणा स्वरूप अन्य लेखकों ने भी बाल साहित्य का लेखन आरम्भ किया। “बालसाहित्य की पहली रचना कौन सी है, यह आज भी शोध का विषय है, लेकिन बाल साहित्य की ओर हिंदी लेखकों का पहली बार ध्यान भारतेंदु युग में ही गया। भारतेंदु ने स्वयं रोचक बालकहानियाँ भी लिखीं। संभव है वे बाल साहित्य को स्वतंत्र रूप से भी आगे बढ़ाते यदि मृत्यु ने उन्हें कुछ लंबा जीवन दिया होता। लेकिन अल्पायु मे ही उन्होंने बच्चों और बड़ों सभी के लिए साहित्यकारों की एक समर्थ पीढ़ी तैयार की।”2
यह हिंदी बाल साहित्य का प्राम्भिक काल कहा जा सकता है परन्तु इस समय तक बाल साहित्य की कोई अलग पहचान नहीं बन पाई थी। इस समय जो भी रचनाएँ लिखी जा रही थी, पाठक वर्ग उसी में से अपने ढंग से साहित्य का चुनाव करते रहते थे। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे के शब्दों में- “हिंदी बाल साहित्य इस समय अपनी आरम्भिक अवस्था में था। इसकी स्थिति उस दुधमुंहे बच्चे जैसी थी, जिसके मुँह में कुछ भी लगाएँ तो वह चूसने लगता है और उसी से रस लेने का प्रयास करता है।”3 यह युग नई और पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं का संधियुग था। अत: इस युग में ऐसा साहित्य लिखा गया जिसमें हास्य-व्यंग के साथ स्वस्थ मनोरंजन तथा जीवन सुधार की शिक्षा भी थी और देशप्रेम का भाव भी निहित था। भारतेंदु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘भारत दुर्दशा’ और ‘अंधेर नगरी’ ऐसी ही कृतियाँ थी। इस युग के प्रमुख लेखकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बद्रीनारायण चौधरी, प्रतापनारायण मिश्र, श्रीनिवासदास, पं. बालकृष्ण भट्ट, राधाकृष्ण दास, काशीनाथ खत्री आदि थे।
इस युग को बालपत्रिका के आरम्भ के लिए भी जाना जाता है। “भारतेंदु हरिश्चन्द्र की प्रेरणा से सन 1882 में बालदर्पण नामक बच्चों की पहली पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ था। स्वयं भारतेंदु ने बालाबोधिनी नाम से महिलाओं की एक पत्रिका निकाली थी, जिसमें बालिकाओं के लिए सिलाई-कढ़ाई, चूल्हा-चौका तथा अन्य विषयों पर रोचक सामग्री प्रकाशित की जाती थी। धीरे-धीरे चलकर आगे बढ़ती हुई बाल साहित्य की यह विकास-यात्रा आज सवा सौ वर्ष से ऊपर का सफ़र कर चुकी है।”4 प्रकाश मनु द्वारा हिंदी बाल साहित्य लेखन की परंपरा का काल-विभाजन इस प्रकार किया गया है-
प्राम्भिक युग (1901 से 1947 तक ) -
इस युग को बाल साहित्य का आदिम युग स्वीकार किया गया है। यह 1901 से लेकर 1947 तक स्वतंत्रता से पूर्व का काल है। प्रकाश मनु के शब्दों में- “प्रारम्भिक युग को आप चाहें तो हिंदी बाल साहित्य का ‘आदि युग’ कह सकते हैं। यह 1901 से 1947 तक है, यानी स्वतंत्रता-पूर्व काल। यह वह काल है, जबकि गुलामी के बन्धनों को काटने के लिए, बालकों के व्यक्तित्व निर्माण की प्रेरणा से शुरू-शुरू में सायास ही बालोपयोगी रचनाएँ लिखी गईं-देशभक्ति और उपदेशात्मकता के भार से अतिशय दबी हुई बाल-कविता, कहानियाँ, नाटक, जीवनियाँ आदि, लेकिन जल्द ही बाल साहित्य ने अपना ‘सुर’ पकड़ा और एक से एक अच्छी और मौलिक रचनाएँ सामने आने लगीं। निस्संदेह बाल-कविताएँ उनमें सबसे आगे थीं और कहना न होगा कि बाल साहित्य की रंगारंग ध्वजा को लेकर आगे चलने और उसे पूरा गौरव दिलवाने वालों में कवियों की पांत सबसे लम्बी और समृद्ध थी।”5
इस काल के आरंभ में महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा 1903 में सरस्वती पत्रिका के संपादक के रूप में कार्य आरम्भ हुआ जिसने साहित्य के क्षेत्र में एक नवीन अध्याय का आरम्भ किया। इस में बाल साहित्य की विचारधारा को विस्तार मिला जिसमें द्विवेदी जी की अहम भूमिका रही। द्विवेदी जी ने स्वयं बालकों के लिए अधिक रचनाएँ नहीं लिखी परन्तु अन्य रचनाकारों को इसके लिए प्रेरित अवश्य किया। “आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीसवीं सदी के पहले दशक में ही मैथिलिशरण गुप्त की एक सुंदर बालोपयोगी रचना ‘ओला’ उस दौर की सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशित की थी।”6
स्वतन्त्रतापूर्व युग 1901 से 1947 तक की अवधि में जिन बाल साहित्यकारों ने अपने उपस्थिति दर्ज करवाई, उनमें प्रमुख हैं- श्रीधर पाठक, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, सत्यनारायण कविरत्न, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, कामता प्रसाद गुरु, आर. सी. प्रसाद सिंह, लल्ली प्रसाद पाण्डेय आदि। इसमें श्रीधर पाठक द्वारा लिखी- ‘बाबा आज देल छे आए, चिज्जी-पिज्जी कुछ ना लाए।’ और कामता प्रसाद ‘गुरु’ की ‘यह सुंदर छड़ी हमारी है हमें बहुत ही प्यारी।’ सुंदर बाल कविताएँ हैं। इसके साथ ही बालमुकुन्द गुप्त ने भी बच्चों के लिए उपयोगी व मनोरंजक रचनाएँ लिखी। इनकी दो प्रमुख पुस्तकें हैं- ‘खेल तमाशा’ और ‘खिलौने’। मैथिलीशरण गुप्त की ‘गोदी भरे लाल’ बहुत चर्चित हुई। इसके अतिरिक्त अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की बाल कविताओं के संकलन ‘बालवैभव’, ‘बालविलास’, ‘फूलपत्ते’, ‘पद्यप्रसून’, ‘चन्द्र खिलौना’, ‘खेल तमाशा’ आदि प्रमुख हैं। स्वर्ण सहोदर इस समय के प्रमुख बाल साहित्यकार थे। इनकी रचनाएँ ‘बालसखा’, ‘बालविनोद’, ‘खिलौना’, ‘शिशु’ तथा ‘वानर’ आदि बाल पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थी। बाल साहित्य के प्रारम्भिक दौर में बाल कविता अन्य विधाओं की तुलना में कहीं अधिक तेज रफ़्तार से चली।
छायावाद के मूर्धन्य कवियों सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा ने भी बालकों के लिए एक से एक सुंदर कविताएँ लिखी। इसमें निराला के ‘खेल’, ‘रानी और कानी’ तथा ‘गर्म पकौड़ी’ प्रमुख कविताएँ हैं। इसी तरह सुमित्रानन्दन पंत की ‘कलरव’ और ‘चींटी’ शीर्षक कविताएँ बाल जिज्ञासाओं का समाधान प्रस्तुत करती हैं। इनमें महादेवी वर्मा की ‘ठाकुर जी भोले हैं’, ‘अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी’ भी प्रमुख कविताएँ हैं। ‘शिशु’, ‘बालसखा’ जैसी पत्रिकाओं के संपादक रहे सोहनलाल द्विवेदी ने उम्दा बाल कविताएँ भी लिखीं और बाल कविता को एक सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने में भी बड़ी भूमिका निभाई। इन सब के बीच निरंकार देव सेवक का नाम भी बड़े आदर से लिया गया है। प्रकाश मनु ने इन्हें हिंदी बाल कविता का ‘भीष्म पिता’ कहा है।
इसी प्रकार कथा साहित्य में भी उस दौर के शीर्ष रचनाकारों के अपना योगदान दिया। प्रेमचंद ने उस दौर में बच्चों के लिए बाल कहानियों की अनोखी पुस्तक ‘जंगल की कहानियां’ लिखी और साथ ही ‘कुत्ते की कहानी’ नाम से बड़ा ही सुंदर और कौतुकपूर्ण बाल उपन्यास भी लिखा। उनकी वीर दुर्गादास राठौर पर लिखी गई जीवनी दुर्गादास भी महत्वपूर्ण है। पदुमलाल पुन्नालाल बक्षी ने भी बच्चों के लिए छोटी-छोटी पद्य कथाएँ लिखीं।
इस काल में बालकों के लिए नाटक भी लिखे गए। जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद कृत ‘प्रताप प्रतिज्ञा’, कैलासनाथ भटनागर का ‘भीम प्रतिज्ञा’, चतुरसेन शास्त्री का ‘अमरसिंह राठौर’ ऐसे नाटक थे जो बड़ी सफलता के साथ बच्चों द्वारा अभिनीत हुए। ‘‘इसी तरह मास्टर बलदेव प्रसाद का ‘मच्छरराम’, रामनरेश त्रिपाठी का ‘कर्तव्य-पालन’, रामेश्वर दयाल दुबे का ‘वैयाकरण’, डॉ. रामकुमार वर्मा का ‘छींक’ और ‘तैमूर की हार’ तथा हरिकृष्ण प्रेमी का ‘राखी का मूल्य’ और ‘मातृभूमि का मान’ ऐसे नाटक हैं, जिन्होंने हिंदी बालनाटकों की नींव रखी।”7
इस कालखंड में कई बाल पत्रिकाएं भी प्रकाशित हुई जिन्होंने बाल साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाल पत्रिकाओं में बालहितकल, प्रजाहितैषी, बालप्रभाकर, मानीटर, बालमनोरंजन, छात्र सहोदर, वीर बालक, खिलौना, चमचम, वानर, बालविनोद, बालसंदेश, तितली, बालबोध आदि प्रमुख नाम थे। इसी समय द्विवेदी जी की प्रेरणा से इंडियन प्रेस इलाहाबाद द्वारा ‘बालसखा’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ।
इसके पश्चात् गांधी जी के आगमन ने स्वतंत्रता संग्राम की गति को तीव्र किया। देश में स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर पहुँच रहा था। देश एवं विदेश की घटनाएँ भी साहित्य को प्रभावित कर रही थी। “द्वितीय महायुद्ध छिड़ने के बाद युद्ध की विभीषिका ने तथा 42 की क्रांति ने भी भारतीय साहित्य को बहुत प्रभावित किया। बाल साहित्य भी इस प्रभाव से बच नहीं सकता था और इस कारण इस अवधि में लिखा गया बाल साहित्य भी राष्ट्रीय जागरण तथा भारतीय स्वतंत्रता की रक्षा की भावना से ओतप्रोत रहा।”8
इस काल में बच्चों को प्रेरणा देने के लिए विश्व के महापुरुषों की जीवनियाँ लिखी गई। साथ ही बाल साहित्य में वैज्ञानिक प्रवृति का समावेश भी किया गया। स्वतन्त्रता पूर्व अनेक प्रतिभा संपन्न महिला बाल साहित्यकारों ने भी बाल साहित्य लेखन में अपना योगदान दिया है जिनमें प्रमुख नाम हैं- सुभद्रा कुमारी चौहान, कमल चौधरी, शकुंलता सिरोठिया, शांति अग्रवाल, तारा पाण्डेय, मंजुला वीर देव, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, विद्यावती कोकिल आदि।
दूसरा चरण गौरव युग (1947 से 1980 तक ) -
1947 से 1980 तक के समय को हिंदी बाल साहित्य का गौरव युग माना गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय जीवन और साहित्य में बहुत परिवर्तन देखने को मिला। जनमानस में आत्मविश्वास की वृद्धि हुई और साहित्य की विधाओं में भी वैचारिक परिवर्तन आने आरम्भ हुए। इन सब के बीच बाल साहित्य को भी एक नया स्वरूप मिला जो उसे चरमोत्कर्ष तक ले जाने में सहायक हुआ। ‘‘1947 से 1980 तक का समय हिंदी बाल साहित्य का ‘गौरव युग’ है। यही वह समय है, जब हिंदी बाल साहित्य अपनी सर्वोच्च ऊँचाइयों तक पहुँचता है और कई अजेय समझे जाने वाले शिखरों को छू आता है। इसे सही मायने में बाल साहित्य का सृजनात्मक युग कह सकते हैं, जब वह अपनी सृजनात्मक उपलब्धियों के चरम पर था।.....इस दौर में निस्संदेह सर्वोत्तम प्रतिभाएं बाल साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय थी और ऐसी अनेक बहुचर्चित, अद्वितीय बाल कविता, कहानियाँ, नाटक और उपन्यास लिखे गए, जो विश्व बाल साहित्य में ‘पांक्तेय’ हो सकते है।....कुल मिलाकर हिंदी बाल साहित्य जितना ‘मुक्त’ और ‘बहुरंगी’ इस दौर में था, उसने जैसी अद्भुत उड़ाने भरी और जीवन जितना खुलकर नाटकीय संवेगों के साथ इस युग के बाल साहित्य में आया, वैसा बाद में कभी नहीं देखा गया। इस लिहाज से इस युग को बाल साहित्य का ‘गौरव युग’ कहना खासा सार्थक है।”9
खासतौर पर कविता और बाल गीतों के लिए यह समय बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बाल साहित्य में नई विचारधारा का प्रवेश हुआ जो पुरानी लीक से हटकर साहित्य रचना के पक्ष में रही। बालक के पृथक अस्तित्व को स्वीकार किया जाने लगा। बाल साहित्य के विकास के लिए यह समय बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इस दिशा में अनेक सरकारी और गैरसरकारी संस्थान आगे आए और बाल साहित्य की लगभग सभी विधाओं में पुस्तकों का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। इस समय हिंदी बाल साहित्य अपनी दिशा पहचानने लगा था। स्वर्ण सहोदर, विद्याभूष्ण विभु, निरंकार देव सेवक, श्रीधर पाठक, सुभद्रा कुमारी चौहान, मस्तराम कपूर ‘उर्मिल’, विष्णु प्रभाकर, जहूरबक्श, मनोहर वर्मा, श्रीप्रसाद, अजीत कुमार, रामबचन आनंद, मनहर चौहान, डॉ. राष्ट्रबंधु जैसे प्रख्यात साहित्यकार इस दिशा में अपना योगदान दे रहे थे। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें भी बाल साहित्य को प्रोत्साहन देने में जुटी हुई थी।
भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से ‘बाल भारती’ नामक बच्चों की संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इसके साथ ही ‘पराग’ और ‘नन्दन’, ‘चुन्नू-मुन्नू’, ‘बालसखा’, ‘शिशु’, ‘चंदामामा’ और ‘बालक’ भी उस समय बाल साहित्य के विकास में अग्रसर थी। ‘मनमोहन’, ‘शेर बच्चा’, ‘लल्ला’, ‘किशोर भारती’, ‘बालभारती’, ‘चंपक’, ‘शेरसखा’, ‘मिलिंद’ तथा ‘मेला’ आदि उस समय की महत्वपूर्ण बाल पत्रिकाएँ सिद्ध हुई। इस काल में बाल साहित्य की सभी विधाओं में बहुत उन्नति हुई।
इस समय बाल कविता के क्षेत्र में दामोदर अग्रवाल, सूर्यभानु गुप्त, डॉ. शेरजंग गर्ग, डॉ. श्रीप्रसाद, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालस्वरूप राही, योगेन्द्र कुमार लल्ला, कन्हैया लाल मत्त, प्रयाग शुक्ल, सरस्वती कुमार दीपक, बालकृष्ण गर्ग, चंद्रपाल सिंह ‘मयंक’, नारायण लाल परमार, शांति अग्रवाल, उमाकांत मालवीय, सीताराम गुप्त आदि ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। ‘‘इसी तरह हिंदी के दिग्गज कवियों भवानी प्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे, भारत भूषण अग्रवाल, रघुवीर सहाय, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन ने भी इस दौर में बच्चों के लिए नई शैली, नए अंदाज की कुछ ऐसी कविताएँ लिखी जिनकी कल्पनाशीलता मुग्ध कर देती है।”10 भवानीप्रसाद मिश्र, प्रभाकर माचवे, भारतभूषण अग्रवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, फणीश्वरनाथ रेणु, रामावतार त्यागी, वीरेंद्र मिश्र सरीखे हिंदी के अनेक चर्चित रचनाकारों ने भी इस कालखंड में बच्चों के लिए कविताएँ लिखीं।
इस कालखंड के दिग्गज कवियों में डॉ. श्रीप्रसाद का नाम भी प्रमुख है जिन्होंने अपना पूरा जीवन बाल साहित्य के सृजन और अध्ययन में समर्पित कर दिया। मेरा साथी घोड़ा, आरी कोयल, मीठे-मीठे गीत, गीत बचपन के इनकी बाल कविताओं के चर्चित संग्रह हैं। इस समय कई बाल कवियित्रियों ने भी बाल कविता के क्षेत्र में अपना योगदान दिया जिनमें प्रमुख नाम हैं- पद्मा चौगांवकर, सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, शीला गुजराल, आशारानी व्होरा, कमला ओबरॉय, सरोजिनी अग्रवाल, मधु भारतीय, शोभा वर्मा, शांति अग्रवाल, सावित्री परमार, सरोजिनी प्रियतम और इंदिरा परमार आदि।
इस युग में बाल कहानियों के क्षेत्र में भी बहुत प्रगति हुई। “बालकहानियों में मनोरंजन तत्व की प्रधानता पिछले युगों की भांति इस युग में भी स्वीकार रही। इंडियन प्रेस, प्रयाग से कथासरित्सागर का बालोपयोगी संस्करण तथा ईसप की कहानियाँ छपी। ‘तेनालीराम’ और ‘बीरबल’ के मनोरंजक किस्से भी छापे गए। ‘जादू की डिबिया’, ‘जादू की चिड़िया’ जैसे शीर्षकों से मजेदार कहानियाँ बच्चों के सामने आई।”11 1966 के बाद जब परिस्थितियों में परिवर्तन स्वरूप लोगों का ध्यान देश के यथार्थ और दैनिक समस्याओं की ओर गया तो इससे बाल साहित्य भी प्रभावित हुआ। परिणामस्वरूप ये काल बाल कहानी के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इस दौर में देखते-देखते ही बाल साहित्य का चेहरा बदल गया। इस काल में लगभग हर विधा में एक से एक उत्कृष्ठ रचनाएँ लिखी गई। इस कालखंड के कुछ प्रसिद्ध कहानीकार हैं- अमृतलाल नागर, श्रीनाथ सिंह, जैनेद्र, कमलेश्वर, कृष्णचंदर, उपेन्द्रनाथ अश्क आदि। रामावतार चेतन का कहानी संग्रह ‘सुनो कहानी’, देवीदयाल चतुर्वेदी का कहानी संग्रह ‘हवा महल’, श्रीकृष्ण की कथाकृति ‘धार्मिक लोककथाएँ’, मनोहर वर्मा की कहानी की पुस्तक ‘फूलों की लोककथाएँ’, पदुमलाल पुन्नालाल बक्षी की ‘भोला’, आनंद कुमार की बाल कहानियाँ ‘चार दिन की चांदनी’ एवं ‘गुरूजी बुरे फंसे’ आदि बहुत लोकप्रिय हुए।
साहित्य में मनोवैज्ञानिक कथाओं के लेखन की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। इस दौर में जासूसी और साहसिक कहानियों का लेखन भी आरम्भ हुआ। परीकथाओं को लेकर लम्बी बहस भी चली। जिसमें डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने परीकथाओं का बालक के मन पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का मुद्दा उठाया तो वहीं जयप्रकाश भारती ने इस मत का खंडन करते हुए कहा- ‘‘आधुनिकता के नाम पर देवी-देवताओं, राजा-रानियों, परीकथाओं और लोककथाओं को बाल साहित्य से निकाल देना नासमझी होगी।”12 बाल कहानियों में अमृतलाल नागर की ‘नटखट चाची’, ‘सूअर की कहानी’, ‘अंतरिक्ष सूट में बंदर’, मोहन राकेश की ‘कांटेदार आदमी’, ‘काला बंदर’, राजेन्द्र यादव की ‘परी नहीं मरती’ और ‘घर की तलाश’ आदि प्रमुख हैं। प्रसिद्ध बाल पत्रिका ‘नंदन’ के प्रवेशांक में छपे कमलेश्वर के ‘होताम के कारनामे’ भी खासे दिलचस्प हैं। “प्रसिद्ध बाल साहित्यकार और ‘नंदन’ के पूर्व संपादक जयप्रकाश भारती (1936-2005) ने भी बच्चों के लिए ढेरों कहानियां लिखी हैं। ‘लो गुब्बारे’, ‘शीशे का महल’, ‘दीप जले शंख बजे’, ‘सूरज का खेल’, ‘झिलमिल कथाएँ’, ‘हीरे-मोती मणियाँ’, और ‘मेरी प्रिय बाल कहानियाँ’ समेत उनकी बाल कहानियों के कई संग्रह हैं।”13
इस समय बाल उपन्यास के क्षेत्र में भी बहुत प्रगति हुई। “हिंदी बाल साहित्य के दूसरे चरण (1947 से 1080 तक) में लिखा गया पहला मौलिक और सच में बच्चों की भाषा में बच्चे के लिए लिखा गया उपन्यास भारतभूषण दीक्षित का ‘खड-खड देव’ माना जा सकता है। हालाँकि इस दौर में भूपनारायण दीक्षित जैसे मूर्धन्य और बहुमुखी प्रतिभा बाल कवि, कथाकार के साथ-साथ रामवृक्ष बेनीपुरी, दयाशंकर मिश्र ‘दद्दा’ तथा अयोध्याप्रसाद झा जैसे समर्थ बाल उपन्यासकार भी सक्रिय रहे हैं।”14
इसी प्रकार हिंदी नाटकों को भी इस काल में विस्तार मिला और इनमें नए-नए प्रयोग आरम्भ हुए। हिंदी बाल नाटक ने बच्चों के मन और उसके भीतर-बाहर की दुनिया के साथ-साथ बदलते हुए समय और जमाने पर भी दृष्टि डाली। बाल नाटककारों में आनन्द प्रकाश जैन, केशवचंद्र वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मस्तराम कपूर, श्री कृष्ण, मनोहर वर्मा, केशव दुबे, मंगल सक्सेना और रेखा जैन ने खासा काम किया।
इसी बीच बाल साहित्य में विज्ञान को भी सहमति मिलनी आरम्भ हुई। “यह हमारे समाज में विज्ञान के महत्त्व की व्यापक स्वीकृति और वैज्ञानिक चेतना का दौर था और इसके स्पष्ट अक्स भी बाल साहित्य में नज़र आते हैं। विज्ञान-लेखन अब पोथिगत गुरुता छोड़कर सचमुच खिलंदड़े अंदाज़ में पहुँचने लगा। बच्चों के लिए दिलचस्प विज्ञानपरक लेखन गुनाकर मूले, रमेश वर्मा, हरीश अग्रवाल, हरिकृष्ण देवसरे, जयप्रकाश भारती, रमेश प्रभाकर, प्रमोद जोशी, राजेश्वर प्रसाद, नारायण सिंह, सुरेश सिंह, संतराम वत्स्य और श्यामनारायण कपूर ने किया। एक ओर उन्होंने वैज्ञानिकों की जीवनियाँ लिखीं तो दूसरी ओर सरल, रोचक भाषा में विज्ञान के नए-नए आविष्कारों की जानकारी बच्चों तक पहुँचाने की होड़ लग गई।”15
तीसरा चरण (विकास युग 1981 से अब तक) -
1981 से अब तक के समय को हिंदी बाल साहित्य का ‘विकास युग’ नाम दिया गया है। इस समय बाल कविता, कहानियाँ, नाटक, उपन्यास, जीवनियाँ, ज्ञान-विज्ञान से जुड़ी पुस्तकें प्रचुर मात्रा में लिखी गईं। दिविक रमेश के शब्दों में- “बाल साहित्य के नाम पर एक अरसे तक ‘बालक के लिए साहित्य’ लिखा जाता रहा है (यूँ आज भी ऐसा होते देखा जा सकता है) जबकि आज बालक का साहित्य लिखा जा रहा है।”16 बाल साहित्य एक नए रूप में सामने आया जो बालमन के अधिक समीप था। ‘‘इस दौर के बाल साहित्य की एक विशेषता यह है कि इसमें पहली बार विचार-तत्व का दखल दिखाई दिया तथा बच्चे पर बस्ते और पढ़ाई का बोझ, होमवर्क की चिंताएँ, बड़ों को अपनी बात न समझा पाने की बालक की लाचारी तथा उसकी भीतरी दुनिया की उलझनें बाल साहित्य में नजर आई। इसी तरह आस-पास के मानसिक उद्वेलन को देवेन्द्र कुमार, रमेश तैलंग और दिविक रमेश सहित इधर के कई बाल कवियों ने प्रभावशाली अभिव्यक्ति दी। साथ ही इस दौर के कथा साहित्य में भी जैसा खुलापन और नए-नए विषयों को पकड़ने का चाव नजर आता है, वैसा पहले न था और बाल विज्ञान के क्षेत्र में तो इतनी किताबें पहले कभी लिखी ही नहीं गई। इस लिहाज से वर्तमान दौर बाल साहित्य के लोकतांत्रिक फैलाव और विस्तार का दौर है, जिसने दूर-दूर तक अपनी पहुँच बना ली है।”17
इस समय विभिन्न मुद्दों पर खुलकर साहित्य लिखा गया। बस्ते के बोझ तले दबे हुए बालक की पुकार हो या उसके अकेलेपन की पीड़ा हो, इस दौर में सभी विषयों को केंद्र में रखकर बाल साहित्य रचा गया। आज का बालसाहित्य कोरी कल्पना ही नहीं करता बल्कि जीवन के यथार्थ को भी दर्शाता है। आज महँगाई, प्रदूषण, भ्रष्टाचार और नेताओं की धांधली पर भी बाल साहित्य लिखा जा रहा है। इसीलिए आज बच्चों को लगता है कि बाल साहित्य एक अच्छे दोस्त की तरह उनके मन की हर बात, चिंता और मुश्किलों को समझ सकता है और पूरी हमदर्दी से उनका दुःख बाँट सकता है।
इस समयावधि में कई नए एवं पुराने साहित्यकारों ने बाल साहित्य लेखन में अपना योगदान दिया जिनमें प्रमुख नाम हैं- रामेश्वर दयाल दुबे, द्वारिका प्रसाद महेश्वरी, शकुंतला सिरोठिया, रामस्वरूप दुबे, चन्द्रपाल सिंह ‘मयंक’, डॉ. श्रीप्रसाद, प्रेमनारायण गौड़, प्रकाश मनु, दिविक रमेश, रमेश तैलंग, राष्ट्रबंधु, डॉ. सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, जयप्रकाश भारती, डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, दामोदर अग्रवाल, प्रयाग शुक्ल, शेरजंग गर्ग, क्षमा शर्मा, रोहिताश्व अस्थाना, कृष्ण शलभ, उद्भ्रांत, विश्वबंधु, घमंडीलाल अग्रवाल, जाकिर अली ‘रजनीश’, डॉ. कामना सिंह, डॉ. नागेश पाण्डेय ‘संजय’ आदि। इस समयावधि में कविता के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन देखा गया। हिंदी में बालगीत सर्वाधिक लिखे गए।
इस समयावधि में हिंदी बाल कहानी ने भी अपनी विकासयात्रा को आगे बढ़ाया। इस समय विज्ञान कथाएँ भी लिखी गई जिन्होंने एक ओर बाल पाठकों को रिझाया तो दूसरी ओर खेल-खेल में उन्हें विज्ञान के जटिल सिद्धांतों से परिचित भी करवाया। इस कालखंड में लक्ष्मी निवास बिड़ला, ब्रह्मदेव, शिवमूर्ति सिंह वत्स, रमेश कौशिक, विनोदिनी मिश्रा और परदेशी राम वर्मा जैसे रचनाकारों ने बच्चों के लिए दिलचस्प अंदाज में लोक्काथाओं की रचना की।
इस कालखंड में देश की आंचलिक कथाओं को सहेजने के प्रयास भी हुए। लोक संस्कृति में रचे-बसे हास्य चरित्रों- बीरबल, तेनालीराम, गोपाल भांड आदि को बदलते समय के अनुसार नवीन रूप में उभारने के प्रयास भी हुए। इसी के साथ ही पौराणिक कहानियों का पुनर्कथन किया गया और उन्हें सजीव ढंग से बच्चों के सामने प्रस्तुत किया गया। इसमें आनंद कुमार, राजबहादुर सिंह, सुरेश सिंह, नीरा, मनोरमा, अशोक गुजराती आदि के नाम विशेषतौर पर लिए जाते हैं।
इस समय सभी भाषाओं की कहानियों का अनुवाद कार्य भी हुआ जिसमें सबसे अधिक बांग्ला बाल कहानियाँ शामिल हैं। रवीन्द्र नाथ ठाकुर, उपेन्द्र किशोर रामचौधुरी, सुकुमार रॉय, विभूति भूषण बंदोपाध्याय, सत्यजीत रॉय जैसे लेखकों की बाल कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया गया। “अक्सर हिंदी में बाल कहानियों के छोटे-छोटी संग्रह छपने का रिवाज़ है जिन्हें बच्चे आसानी से पढ़ लेते हैं। उनका मूल्य भी अधिक नहीं होता, पर इधर हिंदी में बाल कहानियों के कुछ ऐसे वृहद् संग्रह भी छापे जा रहे हैं जिनमें एक लेखक की समूची कथा-यात्रा में से बहुत-सी चुनिंदा या प्रतिनिधि कहानियाँ एक साथ पढ़ने को मिल जाती हैं।...इस लिहाज से आत्माराम एंड संस (दिल्ली) ने इक्यावन बाल कहानियों की एक अच्छी और खूबसूरत सीरीज शुरू की है।....इसके आलावा हिंदी बाल कहानियों के बड़े संपादित ग्रन्थ भी कई हैं।”18
इस कालखंड में बाल उपन्यास लेखन की गति अपेक्षाकृत मंद पड़ गई परन्तु फिर भी एक साथ कई पीढ़ियों के लेखक बाल उपन्यास लेखन में सक्रिय दिखाई दिए। इस समय बाल उपन्यास में कथानक की दृष्टि से बहुत विविधता देखने को मिलती है। एक ओर पशु-पक्षियों और प्रकृति से सम्बन्धित उपन्यास लिखे गए तो दूसरी ओर वैज्ञानिक सोच से जुड़े उपन्यास भी सामने आए। इसके अतिरिक्त हास्य-व्यंग्य तथा अभावग्रस्त लोगों को केंद्र में रखकर भी उपन्यास की रचना की गई।
हिंदी बाल नाटकों में अन्य विधाओं की भांति बहुत कार्य हुआ जिसमें एक ओर परंपरागत ढंग के ऐतिहासिक और पौराणिक नाटकों का बोलबाला रहा तो दूसरी ओर प्रयोगात्मक नाटकों के लिखने का चलन भी बढ़ा। इनमें वर्तमान बालक के जीवन की उलझनों और मुश्किलों को भी दर्शाया गया तथा बालक की दबी हुई रचनात्मक ऊर्जा को बाहर आने का मौका भी दिया। इनमें डॉ. श्रीप्रसाद, विभा देवसरे, विनोद शर्मा, दिविक रमेश, प्रकाश मनु और प्रताप सहगल, बानो सरताज, उषा यादव, राष्ट्रबंधु, जयप्रकाश भारती, भगवती प्रसाद द्विवेदी, पूरन शर्मा, चक्रधर ‘नलिन’, रोहिताश्व अस्थाना, अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’, घमंडीलाल अग्रवाल, जाकिर अली ‘रजनीश’, ओमप्रकाश कश्यप, मो. साजिद खान आदि प्रमुख नाम हैं।
इस कालखंड में जीवनी साहित्य भी लिखा गया जिसमें कथ्य और विषयों की विविधता पर खासा जोर दिया गया। “एक ओर देश के महान क्रांतिकारियों, संतों, समाज-सुधारकों, राजनेताओं और महानायकों पर लिखा गया तो दूसरी ओर देश-विदेश के सुप्रसिद्ध लेखकों, कलाकारों और वैज्ञानिकों की जीवनियाँ लिखने पर भी जोर रहा।......ऐसे दौर की एक विशेषता यह भी है कि जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में बड़ा काम करने वाली महिलाओं पर जीवनियों की कई अच्छी और उल्लेखनीय पुस्तकें लिखी गईं।”19 इस कालखंड की प्रमुख जीवनियाँ हैं- चित्रा गर्ग की ‘विश्व की महान वैज्ञानिक महिलाएँ’, दीक्षा बिष्ट की ‘भारत की वैज्ञानिक विभूतियाँ’, सुबोध महंती की ‘विज्ञान पथ के अनन्य पथिक’, इंदु जैन की ‘सरोजिनी नायडू’, अलका पाठक की ‘कस्तूरबा गाँधी’, क्षमा शर्मा की ‘पन्ना धाय’, उषा यादव की ‘सुनो कहानी नानक बानी’, डॉ. नरेंद्र कुमार की ‘महर्षि दयानन्द’, डॉ. सतीन कुमार की ‘नेत्रहीनों का मसीहा लुई ब्रेल’, ‘मिसाइलमैन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम’ और ‘अंतरिक्ष महिला कल्पना चावला’ आदि।
विज्ञान साहित्य भी एक नए मुकाम को छूता दिखाई दिया। “बच्चों के लिए विज्ञान लेखन के तीसरे चरण (1981 से आज तक ) यानी विकास युग की शुरुआत नवें दशक के प्रारम्भ से मानी जा सकती है, जब एक ओर व्यक्ति और समाज की परिस्थितियों और सोच में तो दूसरी ओर साहित्य में भी गुणात्मक परिवर्तन नजर आ रहे थे। यही समय था, जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भारत में कम्प्यूटर युग की शुरुआत की। बदली हुई परिस्थितियों में बच्चे के भीतर ज्ञान-विज्ञान की दुनिया को जानने की भूख थी। लिहाजा नए-नए ढंग की पुस्तकें इस दौर में आई, जो एक ओर आधुनिक विज्ञान की आश्चर्यजनक उपलब्धियों तो दूसरी ओर प्राचीन विज्ञान की हैरान कर देने वाली खोजों और जानकारियों को खुद में समेटे हुए थीं।”20
इस युग में कुछ पुरानी तो कुछ नई पत्रिकाओं ने बाल साहित्य की प्रगति में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन पत्रिकाओं में प्रमुख हैं- पराग, चंपक, बालभारती, चंदा मामा, नन्हें तारे, सुमन-सौरभ, बाल सम्राट, बालहंस, नन्हें सम्राट, बालमेला, समझ झरोखा, बाल वाटिका, बच्चों का देश, बालवाणी, अनुराग, किलकारी, अभिनव बालमन, अपना बचपन, बाल प्रहरी आदि।
निष्कर्ष : बाल साहित्य इतना ही पुराना कहा जा सकता है जितना पुराना मानव का अस्तित्व है। संस्कृत साहित्य से आरंभ हुई यह यात्रा विभिन्न कालखंडों से होती हुई निरंतर बालक से तादात्मय स्थापित करती रही। इसमें बालमन की अभिव्यक्ति भी शामिल हुई, उसके कल्पना लोक को भी दर्शाया गया और साथ ही उसके जीवन में घटित हो रही यथार्थ परिस्थितियों को भी कलमबद्ध किया गया। इस प्रकार बाल साहित्य लेखन की यह परंपरा जो दीर्घ काल से चली आ रही है, वह समय के साथ अपने स्वरूप में परिवर्तन करती हुई आज नए-नए कीर्तिमान रच रही है और बालक के सर्वांगीण विकास के लक्ष्य को पूरा करने का उत्तरदायित्व पूरी निष्ठा के साथ निभा रही है।
संदर्भ :
- दिविक रमेश, बाल साहित्य, किताबवाले, नई दिल्ली, 2020, पृष्ठ संख्या-2
- ओमप्रकाश कश्यप, बचपन और बालसाहित्य के सरोकार, पेनमेन इन्फोटेक प्राइवेट लिमिटेड, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश), 2021, पृष्ठ संख्या-67-68
- डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, हिंदी बाल साहित्य : एक अध्ययन, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 1969, पृष्ठ संख्या-119
- डॉ. सुरेन्द्र विक्रम, बाल साहित्य : परंपरा, प्रगति और प्रयोग, प्रकाशन विभाग, दिल्ली, 2022, पृष्ठ संख्या-86
- प्रकाश मनु, हिंदी बाल साहित्य का इतिहास, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या-22
- वही, पृष्ठ संख्या-31
- डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, बाल साहित्य : मेरा चिंतन, मेधा बुक्स, दिल्ली, 2002, पृष्ठ संख्या-64
- डॉ. आनंद बक्षी, हिंदी बाल साहित्य का अनुशीलन, आराधना ब्रदर्स, कानपुर, 2016, पृष्ठ संख्या-26
- प्रकाश मनु, हिंदी बाल साहित्य का इतिहास, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या-24-25
- वही, पृष्ठ संख्या-31
- उषा यादव, राजकिशोर सिंह (संपादक), ‘हिंदी बाल साहित्य : उद्भव और विकास’, हिंदी बाल साहित्य और बाल विमर्श, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ संख्या-17-18
- डॉ. हरिकृष्ण देवसरे (संपादक), भारतीय बाल साहित्य, नई दिल्ली, साहित्य अकादमी, 2016, पृष्ठ संख्या-570
- प्रकाश मनु, हिंदी बाल साहित्य का इतिहास, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या-176
- वही, पृष्ठ संख्या-259-260
- वही, पृष्ठ संख्या-24
- प्रदीप त्रिपाठी (संपादक), ‘हिंदी बाल साहित्य का स्वातंत्र्योतर स्वरूप’, कंचनजंघा (ई-पत्रिका), जनवरी-जून 2020, पृष्ठ संख्या-51
- प्रकाश मनु, हिंदी बाल साहित्य का इतिहास, नई दिल्ली, प्रभात प्रकाशन, 2018, पृष्ठ संख्या-26
- वही, पृष्ठ संख्या-249-250
- वही, पृष्ठ संख्या-480
- वही, पृष्ठ संख्या-419-420
दीप शिखा शर्मा
सहायक प्राध्यापिका, मेहर चंद महाजन डीएवी महिला महाविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़
sharmads1106@gmail.com, 9779803276
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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