शोध आलेख : हिंदी बाल साहित्य के विविध आयाम / राज रानी एवं मीना यादव

हिंदी बाल साहित्य के विविध आयाम 
- राज रानी एवं मीना यादव 

शोध सार : बच्चे में सर्वप्रथम अपनी मां की गोद से संस्कारों का बीजारोपण होता है। फिर पारिवारिक क्रमिक स्तर से गुजरते हुए समाज की ओर उन्मुख होता है। इन स्तरों पर उसे भिन्न-भिन्न तरीकों से नैतिक मूल्य,मान्यताओं और संस्कृतियों का ज्ञान ग्रहण करते हुए सभ्य मानव जीवन की ओर अग्रसर होता है। बालक उसे पुष्प की भांति होता है, जिसमें खाद पानी और अन्य पोषक तत्व जितनी अच्छी प्रकार से मिलाया जाए उतना ही स्वस्थ रूप प्राप्त करता है। इस प्रकार बालक को भी जितनी अच्छी शिक्षाप्रद तथा मनोरंजन से भरपूर सामग्री उपलब्ध होगी, वह उतना ही अधिक राष्ट्र में उन्नति करेगा। जो साहित्य के माध्यम से संभव है। साहित्य एक ऐसा संसार है जिसमें पाठक की कल्पना छिपी होती है। उसमें बच्चे या बड़े सभी वर्ग के पाठक की कल्पना रूपी पंखों को उड़ान देने की शक्ति निहित होती है। साहित्य के भी अपने अलग-अलग रूप होते हैं, बड़ों के लिए लिखा गया साहित्य तथा बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य। जो साहित्य बच्चों के लिए उनकी रुचि अनुसार लिखा गया है, उसे हम बाल साहित्य के रूप में पहचानते हैं। बाल साहित्य वो रंग बिरंगा संसार है, जो बालमन की भावनाओं को केंद्रित करके रचा जाता है। तथा बच्चों के मन के भीतर प्रवेश कर, उनको प्रफुल्लित कर उन्हें शीतलता पहुंचता है। बाल साहित्य के अन्तर्गत अनेक विधायें सम्मिलित हैं, जिनके माध्यम से बाल-विकास सुनिश्चित किया जाता है।

बीज शब्द : बालक, कल्पना, बालसाहित्य, विधा, विकास, मूल्य, मनोरंजन, बाल-विज्ञान, संसार।

मूल आलेख : साहित्य निश्चय ही एक ऐसा साधन है जो लोगों की काल्पनिक दृष्टि को चित्र तथा विचारों को आकार प्रदान करता है। उसी प्रकार बालकों की कल्पना को तथा उनके अंदर क्षण क्षण पर उठने वाले मनोभावों को विविध रंग रूप के शब्दों से सजाने वाला साहित्य बाल साहित्य कहलाता है। बाल साहित्य का नाम सुनकर लोगों के मन में सिर्फ बच्चों का मनोरंजन करने वाली कविता या कहानी का भाव उभरता है, परंतु वास्तविकता इसे विपरीत है। बालक जो रंग-बिरंगे सपना अपनी खुली आंखों से देखा है, बाल साहित्य के माध्यम से पूरा करने का प्रयास किया जाता है। हरिकृष्ण देवसरे के अनुसार, "बाल साहित्य ऐसा हो जो बच्चों में सहज सात्विक उत्सुकता उत्पन्न करे, उनके कोतुहल पोषण करे और प्रवर्धन करे,जिज्ञासा की तृप्ति करे।बाल साहित्य का विषय ऐसा होना चाहिए जिससे बालक संकीर्णता से ऊपर उठकर सच्ची मानवता और विश्व कल्याण की भावना से अपना जन जीवन व्यतीत करने का संकल्प ले।"1 प्रख्यात बाल साहित्य का शकुंतला कालरा के अनुसार– "बाल साहित्य ऐसा हो जिसे पढ़कर बालक स्वयं प्रेरित हो। उसमें नवीन चेतना का स्वत: स्फूरण हो। आपको उसके कानों में शब्दों के द्वारा उपदेश का मंत्र ना फूकना पड़े। उसके उद्देश्य की पूर्ति अप्रत्यक्ष रूप से हो और आपका साहित्य प्रगतिशील समाज की सृष्टि करने के अपने वृहद उद्देश्य में सफल हो जाए जिसकी खबर स्वयं आप में भी ना लगे। क्योंकि बच्चे साहित्य मनोरंजन के लिए बढ़ाते हैं।इसमें हास्य के साथ-साथ रहस्य-रोमांच और उत्साह की भी अपेक्षा रखते हैं। मात्र आदर्श परोसने वाला साहित्य वह पसंद नहीं करते हैं।"2 बालकों को सिर्फ उपदेश या ज्ञान की बातें करना अधिक पसंद नहीं आती हैं। वह उनसे बेरुख होने लगते हैं। इसके विपरीत यही शिक्षा उन्हें मनोरंजन तथा रोचकता पूर्ण ढंग से प्रदान की जाए तो वह उसमें अपनी रुचि लेने लगते हैं।इसी संबंध में बाल गीत इतिहासकार निरंकार देव सेवक भी अपना समर्थन प्रकट करते हैं– "बच्चे कुछ ऐसी पुस्तक भी चाहते हैं जिसे वह पढ़कर प्रसन्न हो सके, जो उनकी अपनी पुस्तक हो। गीता, रामायण, महाभारत इत्यादि मोटे ग्रंथों को देखकर ही वह समझ लेते हैं कि वह उनकी पुस्तक नहीं है।और उन्हीं को बार-बार खोलकर उन्हें ज्ञान धर्म और नीति की बातें सीखाते रहने से उन्हें वही कष्ट होता है जो पत्थर के नीचे दबाई जाने से किसी कोमल कली का होता होगा। इसलिए पढ़ने में रुचि विकसित होने पर बच्चों को अपने विकास के लिए कुछ ऐसा बाल साहित्य पढ़ने को मिलना चाहिए, जिसे वह अपना समझ सके।"3 बालक जो अपने आसपास के वातावरण में नहीं ढूंढ पाता है,जो प्रश्न उसके मन में उठकर मन में ही रह जाते है, उन्ही भावनाओं को विषय बनाकर बाल साहित्य में रुचि पूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। बाल साहित्य की परिभाषाओं को समझने के लिए अन्य साधकों के विचार उल्लेखनीय है–

डॉ. राष्ट्र बंधु ने लिखा है– "बाल साहित्य रोचक एवं प्रेरक होना चाहिए"

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी के अनुसार– "बाल साहित्य बाल पाठको का मनोरंजन एवं आनंद प्रदान करते हुए उनके सर्वांगीण विकास करने वाला होना चाहिए।"

निरंकार देव सेवक जी का मानना है– "बाल साहित्य बच्चों के मनोभावो, जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो जो बच्चों का मनोरंजन कर सके"

कविवर सोहनलाल द्विवेदी जी का भी यही मानना है कि "जो बालकों की बात को बालकों की भाषा में लिख दे वही सफल बालसाहित्य है"4

उपर्युक्त सभी परिभाषा के भिन्न-भिन्न विचारों से एक ही तथ्य उभर कर आता है कि बाल साहित्य का केंद्र बालक तथा उसका उद्देश्य बालकों के सर्वांगीण विकास का प्रयास करना है इसी वैचारिक दृष्टिकोण के आधार पर सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार शकुंतला कालरा अपना विचार प्रस्तुत करती हैं–"बालसाहित्य की कसौटी स्वयं बालक है"5 लिखित बाल साहित्य का इतिहास तो बहुत पुराना नहीं रहा है किंतु हिंदी साहित्य के प्रत्येक युग में बालचर्चा अवश्य हुई है। बालचर्चा के इन्ही प्रसंगों को आधार बनाकर बाल साहित्य को अपनी एक अलग पहचान मिली। प्राचीन काल में पौराणिक कथाएं, जातक कथाएं, आदिकाल में खुसरो कृत पहेलियां, भक्ति काल में तुलसीदास कृत रामचरितमानस के बालकांड में बाल वर्णन तथा कृष्ण काव्य में सूरदास द्वारा रचित कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन इत्यादि ने बाल साहित्य को पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बाल साहित्य के मौलिक इतिहास को अलग-अलग विद्वान अलग-अलग कालों में विभक्त करते हैं।

प्रकाश मनु ने बाल साहित्य की विकास यात्रा को तीन चरणों में बांटा है–

"1. प्रारंभिक युग(1901–1947)
2. गौरव युग(1947–1980)
3. विकास युग(1981–अब तक)"6

हरिकृष्ण देवसरे जी ने बाल साहित्य को निम्नांकित युग में विभाजित किया है–

"पूर्व भारतेंदु युग 1845 से 1873 तक
भारतेंदु युग 1874 से 1900 तक
द्विवेदी युग 1901 से 1930 तक
आधुनिक युग 1931 से 1946 तक
स्वतंत्रतयोत्तर युग 1947 से 1957 तक
वर्तमान युग 1958 से 1967 तक"7

हिंदी बाल साहित्य के काल विभाजन में अनेक विद्वानों ने समय सीमा निर्धारित की जिसके आधार पर डॉ. शकुंतला कालरा ने लिखा हैं, "हिंदी बाल कविता की युगीन प्रवृत्तियों के आधार पर इसे सामान्यता स्वतंत्रता पूर्व काल और स्वतंत्रयोत्तर काल में विभाजित किया गया। निरंकार देव सेवक जी ने भी मोटे तौर पर बाल कविता या बालगीत साहित्य के इतिहास को दो वर्गों में बताते हुए अपनी पुस्तक ‘बालगीत साहित्य (इतिहास एवं समीक्षा)’ में स्वतंत्रता पूर्व काल तथा स्वतंत्रयोत्तर बालगीत साहित्य के रूप में हिंदी बाल कविता का विवेचन किया गया है।"8

डॉ. श्रीकांत मिश्र के विभिन्न अध्ययन के पश्चात उन्होंने बाल साहित्य को काल विभाजन में निम्नलिखित रूप से विभाजित किया-

"आदिकाल में बालसाहित्य 1000 से 1400 ई तक
मध्यकाल में बालसाहित्य 1400 से 1850 ई तक
आधुनिक काल में बालसाहित्य 1850 से अब तक
स्वतंत्रता पूर्व युग 1850 से 1947 तक

स्वतंत्रयोत्तर युग 1947 से अब तक"9 बालसाहित्य के विभिन्न काल विभाजन से पता चलता है कि बालसाहित्य की प्रवृत्तियां प्राचीन काल से ही देखने को मिल रही हैं। भास कृत ‘बालचरित्र’ नाटक, विष्णु शर्मा की ‘पंचतंत्र की कहानीयां’, नारायण पंडित की ‘हितोपदेश’, जातक कथाएं, 'कथा सरित्सागर', पौराणिक कहानियां इत्यादि बाल साहित्य के इतिहास का आकलन करने में सहायक सिद्ध होती हैं।

बालसाहित्य की विविध विधाओं के संबंध में चर्चा करें तो सर्वप्रथम मौखिक साहित्य के माध्यम से बाल उपयोगी रचनाएं देखने को मिलती हैं। सर्वप्रथम बालक को उसकी मां के द्वारा सुनाई गई लोरी, पालना, प्रभाती तथा शिशु गीत के माध्यम से बाल गीत का आरंभ माना गया है। तत्पश्चात दादी नानी की कहानी इसका अनुसरण करती हैं। जिन्होंने आगे चलकर लिखित रूप में साहित्य के माध्यम से बालकों का मनोरंजन किया। इस संबंध में डॉ. ऊषा यादव लिखती हैं- "लगभग आज से 40 वर्ष पूर्व हिंदी बाल कवियों के मन में बाल गीत शब्द को लेकर विशेष व्यामोह था। आज वह खत्म हो चुका है और बाल कविता नाम ही सर्व स्वीकृत होकर गृहीत है। इसमें लोरी, शिशुगीत, बालकविता, किशोर कविता, लोकगीत, पद्दकथा, अलिखित गीत आदि सब कुछ समाहित है।"10 बालसाहित्य की विधा में बालगीत के बाद बाल कहानी, बाल उपन्यास, बाल नाटक, बाल जीवनी, यात्रावृतांत, बाल पत्रकारिता,समीक्षा इत्यादि के माध्यम से बालकों को कुशल एवं सभ्य नागरिक बनने में अभूतपूर्व योगदान किया है। बाल साहित्य की लोरी विधा में अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, शंभूदयाल सक्सेना, दुर्गादत्त शर्मा, कन्हैयालाल मत्त, विद्यावती कोकिल, शकुंतला सिरोठिया, निरंकारदेव सेवक, उषा यादव, शकुंतला कालरा इत्यादि उल्लेखनीय है। शकुंतला सिरोठिया की लोरी 'चांदनी की चादर' को उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है-

"चांदनी की चादर ओढाउ तुझे मोहना, सो जा मेरे लालना।
सूरज भी सो गया पंछी भी सो गए, डालों की गोदी में फूल भी सो गए
तू भी चुप सो जा,
झुलाऊं तुझे पालना, सो जा मेरे लालना"11

इसी तरह प्रभाती का उदाहरण श्री शंभू दयाल सक्सेना का प्रभात गीत किस प्रकार है-

"लाल बीत गई रात उठो हो गया प्रभात
फूल गए फूल पात कुंज किरण सारे
चल चल छल छल प्रपात गूंजत मिल मधुपवात
हरि दूब ओस स्नात, मौन फौन धारे
मैया ले दूध भात बैठो तन मन सिहात
जागो जागो सुगात कान में पुकारे"12

बाल गीत विद्या के अंतर्गत पहलो पहल तो अलिखित गीत सुनने को मिला करते थे।फिर 19वीं सदी से उन्हें लिखित तथा स्वतंत्र रूप मिला। निरंकारदेव सेवक जी ने अपने ग्रंथ 'बाल साहित्य इतिहास एवं समीक्षा'पुस्तक में भी कुछ अलिखित गीतों का संकलन किया है जो सिर्फ बच्चों के द्वारा बनाए और गूनगुनाए जाते हैं। जो इस प्रकार हैं-

बरसो राम धड़के से बुढ़िया मर गई फाके से
हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैयालाल की
मोटे लाला पिलपिले बहु को लेकर गिर पड़े"13

इन्हें बच्चों के मुंह से गुनगुनाना साहित्यकारों के लिए प्रेरणादायक बना तथा उनके मनोभावों को समझकर नए-नए बाल गीत लिखने में प्रोत्साहन मिला।

बालगीत साहित्य के व्यवस्थित विकास को दृष्टिगत करते हुए आधुनिक काल महत्वपूर्ण युग रहा है। जिसमें स्वतंत्रता पूर्व काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र, श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', सुखराम चौबे, लोचनप्रसाद पांडे, मैथिलीशरण गुप्त, लल्लीप्रसाद पांडे, रामनरेश त्रिपाठी, देवीप्रसाद गुप्त, स्वर्ण सहोदर, शंभूदयाल सक्सेना, देवीदत्त शुक्ल, ज़हूरबख्श इत्यादि ने बच्चों के नैतिक तथा राष्ट्रीय रचनाओं तथा प्रेरक गीत लिखे। 20वीं शताब्दी के आरंभ में ठाकुर गोपालशरण सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी, सुभद्राकुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, भूपनारायण दीक्षित, केशवप्रसाद पाठक, व्यथित हृदय, कन्हैयालाल मत्त, पुरुषोत्तमदास टंडन, आरसीप्रसाद सिंह, नरेंद्र मालवीय इत्यादि ने बाल गीत विधा को शिखर तक पहुंचाया तथा बाल साहित्य को स्वर्णिम बनाया।

"स्वतंत्रयोत्तर कालीन उल्लेखनीय कवियों में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, रामधारी सिंह दिनकर, शकुंतला सारोठिया, शंभूनाथ अग्रवाल, निरंकारदेव सेवक, शांति अग्रवाल, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, तरुण भाई, लक्ष्मीकांत वर्मा, सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, चंद्रपाल सिंह यादव 'मयंक', सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भवानी प्रसाद मिश्र, चिरंजीत, डॉ. श्रीप्रसाद, विष्णुकांत पांडे, डॉ. राष्ट्रबंधु, विश्वदेव शर्मा, उमाकांत मालवीय, योगेंद्र कुमार लल्ला, जयप्रकाश भारती, श्याम सिंह 'शशि', विनोद चंद्र पांडे, चक्रधर 'नलिन', हरिकृष्ण देवसरे, सरोजनी अग्रवाल, शंकर सुल्तानपुरी, परशुराम शुक्ल, उद्भ्रांत, विश्वबंधु, अजय प्रसून, सुरेंद्र विक्रम, घमंडी लाल अग्रवाल, उषा यादव, नागेश पांडे संजय तथा शकुंतला कालरा इत्यादि कवियों ने नैतिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक प्राकृतिक, ऋतुपरक, देश प्रेम संबंधी तथा सामाजिक मूल्यों से भरपूर प्रेरक, ज्ञानवर्धन तथा शिक्षाप्रद रचनाओं को बाल साहित्य की काव्य धारा में प्रवाहित कर बाल साहित्य की श्रीवृद्धि की है।"14

बाल साहित्य की कहानी विधा भारतेंदु युग में प्रवेश करती है। प्रारंभ में बच्चों को जो कहानी दादी-दादी, नाना-नानी, माता-पिता आदि से सुनी जाती थी, उन्हीं से बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण किया जाता था। फिर लिखित विधा में बालकों को कहानी उपलब्ध कराई गई जो उनके स्कूल के पाठ्यक्रम में, अखबारों में, पत्रिकाओं में तथा स्वतंत्र पुस्तकों के माध्यम से बालकों का मनोरंजन करती चली आई हैं। शकुंतला कालरा जी ने लिखा है- "हिंदी में बाल साहित्य की पृष्ठभूमि बतलाती है कि 20वीं शताब्दी के पहले दशक में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से बच्चों के लिए पौराणिक तथा धार्मिक कहानी लिखी गई। जिनमें नीति तत्व की प्रधानता थी। तीसरे दशक में प्रेमचंद ने नीति कथाओं की उपदेश वृत्ती से मुक्त होकर कहानी लिखी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पांचवें दशक तक आते-आते तो बाल साहित्य में उल्लेखनीय परिवर्तन आ गया। यह परिवर्तन आमूल तो नहीं था पर क्रांतिकारी था। जिसमें बाल रुचि और बाल मनोवृत्ति की प्रधानता थी। भारतीय तथा पाश्चात्य बाल साहित्य का स्वरूप आधुनिक हो गया। अब कहानियां बच्चों की रुचि के अनुकूल तथा बाल जगत की समस्याओं को केंद्र में रखते हुए मनोवैज्ञानिक ढंग से लिखी जाने लगी। केवल परीलोक की सैर करने वाली कहानियां तक ही बाल साहित्य सीमित नहीं रहा।"15 तात्पर्य है कि पहले कहानियों में राजा-रानी,राक्षस, दानव तथा परियों के माध्यम से बाल मनोरंजन होता था। लेकिन अब बाल साहित्य बालकों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। डॉ. उषा यादव के विचार अनुसार "बाल मनोविज्ञान को आज बाल कहानी का अविभाज्य अंग माना जाने लगा है। जिज्ञासा, अनुकरण जैसी मूल प्रवृत्तियां तो बालकों को संचालित करती ही हैं। परिवेश भी उनके बाल स्वभाव निर्धारण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। जिस रचनाकार की बाल मन में जितनी गहरी पेठ होगी, वह बच्चों के अंतर्गत उतनी ही कुशलता से थाह पा सकेगा।"16 बालकों की कहानियों की रचना हेतु कथाकार को पूर्णता बालक बनना पड़ता है तथा बाल मनोविज्ञान के अनुसार बाल मनोभावों को आत्मसात करके ही बालकों की जिज्ञासा संतुष्ट करने वाली कहानी बाल साहित्य प्रदान करता है। "प्रेमचंद की बाल कहानीया बाल मनोविज्ञान पर आधारित है, 'जंगल की कहानी', 'कुत्ते की कहानी', 'मन्नू की स्वतंत्रता' (हरिशंकर परसाई( बच्चों में बहुत लोकप्रिय हुई। बच्चों के लिए कृष्ण चंदर, मालती जोशी, शिवानी, राजेंद्र यादव, अमृतलाल नगर, विष्णु प्रभाकर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने जो कहानी लिखी उनमें मनोरंजन के साथ ही मानव मूल्यों का संप्रेषण है"17 इनके अतिरिक्त बाल गीत विधा में वर्णित बाल साहित्यकारों ने कहानी विधा को भी उत्कृष्ट रूप प्रदान किया है। दोबारा उनके नामोल्लेख की आवृत्ति करना उचित न होगा।

बाल नाटक कविता एवं कहानी की अपेक्षाकृत कम लिखे गए।बाल नाटक स्वतंत्रयोत्तर युग में देखने को मिलते हैं बालकों के विकास को दृष्टिगत करते हुए नाटक भी अपना महत्व रखते हैं। नाटक विधा की विकास यात्रा में भारतेंदु कृत 'अंधेर नगरी चौपट राजा', जयशंकर प्रसाद कृत 'बालचंद्रगुप्त' नाटक बाल नाटक कारों के लिए प्रेरणादायक रहे हैं। हरिकृष्ण देवसरे जी लिखते हैं- "अनुकरण और अभिनय की प्रवृत्ति बच्चों में उसे समय से जागृत होने लगती है जब उनमें अपने आसपास की दुनिया को समझने की शक्ति आ जाती है। यह अवस्था चार साल की होती है। तब बच्चे अपने मन के भावों को अभिव्यक्त करने लगते हैं। झूठ-मूठ ऊ-ऊ करके रोना, बहाना बनाना, शेर की तरह हाऊ-हाऊ करना, बिल्ली, कुत्ते और गाय की बोलियों की नकल करना उनकी नाटकीय प्रवृत्ति के ही अंकुर हैं। जब बच्चों में नाटकियता करने वाले यह अंकुर विकसित होते हैं,तब बच्चों के लिए अभिनय योग्य नाटकों की आवश्यकता होती है।"18 "जाने-माने शिक्षा शास्त्री पंडित सीताराम चतुर्वेदी के अनुसार नाटकों एवं एकांकियों के द्वारा बालकों में निम्नलिखित गुण उत्पन्न होते हैं-

अवसर के अनुकूल आचरण करना सीखना।
मानव स्वभाव और मानव चरित्र का अध्ययन करना।
सम्यक रीति से उच्चारण करने, बोलने, अभिनय करने तथा भावों को व्यक्त करने की कला का ज्ञान करना।"19

बाल नाटक विधा की विकास यात्रा में भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, राजा लक्ष्मण सिंह, रामनरेश त्रिपाठी, रामधारी सिंह दिनकर, हरिकृष्ण 'प्रेमी', रामकुमार वर्मा, विष्णु प्रभाकर, मस्तराम कपूर, हरिकृष्ण देवसरे, राष्ट्रबंधु, प्रकाश मनु, चंद्रपाल सिंह यादव 'मयंक', श्याम सिंह 'शशि', उषा यादव, बानो सरताज, अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन', साजिद खान तथा अन्य कई बाल साहित्यकारों ने बाल नाटकों में नए रंग, नई उमंग तथा नए अंदाज में बालकों को मनोरंजित किया।

इनके अतिरिक्त बाल जीवनी बालकों को आदर्श से परिचित कराने के उद्देश्य से लिखी गई। नैतिक, सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय मूल्य बालकों में हस्तांतरित करने के लिए भारतीय महान विभूतियां तथा महापुरुषों पर आधारित जीवनियां लिखी गई। "बाल जीवनिया बच्चों सीधे-सीधे नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष तौर से यह बताने के लिए लिखी जाती हैं की बच्चों तुम ऐसे बानो! बच्चों तुम ऐसे काम करके दिखाओ!मजे की बात यह है कि जब बच्चों को यह बातें इसलिए सीधे उपदेशात्मक ढंग से कही जाती है तो उनके मन में अजीब सी खीज पैदा होती है। वह उनसे दूर भागना चाहते हैं। पर यही बात जब अच्छी उम्दा और कल्पना प्रवण बाल जीवनी के माध्यम से आती है, तो बड़े रस और उत्सुकता के साथ उसे पढ़ते हैं।"20 बाल जीवनी में मनोवैज्ञानिक, महापुरुष, स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय खिलाड़ी तथा ऐसी हस्तियां आधार बनी जो बच्चों के लिए प्रेरक सिद्ध हुए हैं।

उपन्यास विधा बाल साहित्य में ऐसी विधा है, जो बच्चों को भीतर से परत-दर-परत खोलने का प्रयास करता है। बालकों के मनोवैज्ञानिक स्तर से लेकर उसकी काल्पनिक दुनिया तक का सफर उपन्यास के माध्यम से तय हो जाता है। डॉ. प्रकाश मनु बाल साहित्य को 'तमाम कहीं अनकही बातों का खजाना' कहते हैं प्रेमचंद कृत कुत्ते की कहानी को बाल उपन्यास का आधार समझा जाता है। डॉ. सुरेंद्र विक्रम लिखते हैं- "बाल साहित्य के प्रति बढ़ती रुचि ने लेखकों को बाल उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया। सन 1933 में बैजनाथ केडिया का 'काले की करतूत' नामक उपन्यास हिंदी का पहला बाल उपन्यास कहा जा सकता है। इसके साथ ही पौराणिक विषयों को लेकर 'बाल महाभारत', 'बाल शकुंतला', 'सावित्री-सत्यवान', नामक उपन्यास प्रकाशित हुए"21 उपर्युक्त बाल साहित्य की विधाओं में जिन साहित्यकारों के नाम उल्लेख किए गए हैं, उन्होंने बाल उपन्यास को भी उत्कृष्ट रूप प्रदान किया। हिंदी बाल साहित्य में मोटे तौर पर कहें तो कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास तथा जीवनी विधा पर अच्छा खासा साहित्य देखने को मिलता है।परंतु इनके अतिरिक्त बाल साहित्य में अन्य कुछ विधाएं हैं,जिन्होंने बाल विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिनमें आत्मकथा, संस्मरण, डायरी, यात्रा वृतांत, निबंध, पत्र लेखन, चित्रकथा इत्यादि बाल पत्रिकाओं के माध्यम से इन विधाओं का अधिक विकास हुआ है। पत्रिकाओं में बच्चों के द्वारा लिखे गए निबंधों तथा संस्मरणों को स्थान दिया जा रहा है। तथा पुस्तकों के रूप में भी इन विधाओं का विकास हो रहा है। अतः आशा है कि भविष्य में इनका और भी अधिकाधिक विकास हो सके।

निष्कर्ष : बालकों के मनोभावों से भली-भांति परिचित होकर उनके विकास को श्री सुनिश्चित करने के लिए लिखा गया साहित्य जो बालकों के भीतर नैतिक, राष्ट्रीय, मनोरंजक, शिक्षाप्रद तथा सांस्कृतिक मूल्यों का अंकुरण करके समाज को सभ्य करने में समर्थ हो, वही बाल साहित्य है। बाल साहित्य में आरंभ से लेकर वर्तमान तक अनेक विधाओं के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बाल साहित्य स्वयं में स्वतंत्र स्वरूप है। जिसमें कविता, लोरी, पालना, प्रभाती, शिशु गीत, कहानी, नाटक, उपन्यास, जीवनी, यात्रा वृतांत, संस्मरण इत्यादि विधाओं का विकास हुआ है। बाल साहित्य तब पूर्ण हो जाता है,जब बालक इसकी किसी भी विधा से वो मूल्य ग्रहण कर ले, जो बाल साहित्यकार बालक में अंकुरित करना चाहता है। अतः इन विधाओं की सार्थकता भी तभी सुनिश्चित हो सकती है, जब इसका उद्देश्य पूर्णतः को प्राप्त कर ले।

संदर्भ :
  1. हरिकृष्ण देवसरे, 'बाल साहित्य : एक अध्ययन', आत्माराम एंड सन्स, दिल्ली, 1969, पृष्ठ संख्या 9
  2. शकुंतला कालरा, 'हिंदी बाल साहित्य आधुनिक परिदृश्य', नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या 18
  3. निरंकारदेव सेवक 'बाल गीत साहित्य, इतिहास एवं समीक्षा' किताब महल इलाहाबाद, 1966, प्रस्तावना भाग से
  4. शकुंतला कालरा, 'हिंदी बाल साहित्य आधुनिक परिदृश्य', नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या 16
  5. वही
  6. प्रकाश मनु 'हिंदी बाल साहित्य का इतिहास', प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली 2018, पृष्ठ संख्या 22
  7. हरिकृष्ण देवसरे, 'बाल साहित्य : एक अध्ययन', आत्माराम एंड सन्स, दिल्ली, 1969, पृष्ठ संख्या 112
  8. शकुंतला कालरा, 'हिंदी बाल साहित्य आधुनिक परिदृश्य', नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018 पृष्ठ संख्या 19
  9. डॉ. श्रीकांत मिश्र, श्रीमती बेबी शर्मा,'बाल साहित्य अवधारणा एवं आयाम (वर्तमान संदर्भ)' बुक सागा प्रकाशन, 2023, पृष्ठ संख्या 122
  10. डॉ. उषा यादव,डॉ. कामना सिंह,'हमारे प्रिय बाल साहित्यकार' बोधि प्रकाशन जयपुर 2021, पृष्ठ संख्या 33
  11. डॉ. उषा यादव, 'हिंदी बाल कविता के इंद्रधनुषी रंग' बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2021, पृष्ठ संख्या 14
  12. निरंकारदेव सेवक 'बाल गीत साहित्य, इतिहास एवं समीक्षा' किताब महल, इलाहाबाद, 1966, पृष्ठ संख्या 70
  13. वही, पृष्ठ संख्या 42, 43, 44
  14. संपादक डॉ. विनोद चंद्र पांडे, 'बाल साहित्य के विविध आयाम', उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ 1996, प्रष्ठ संख्या 81,82
  15. शकुंतला कालरा, 'हिंदी बाल साहित्य आधुनिक परिदृश्य', नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या 78
  16. डॉ. उषा यादव, डॉ. कामना सिंह, 'हमारे प्रिय बाल साहित्यकार', बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2021, पृष्ठ संख्या 148
  17. संपादक डॉ. विनोद चंद्र पांडे, 'बाल साहित्य के विविध आयाम', उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ 1996, पृष्ठ संख्या 83
  18. हरिकृष्ण देवसरे, 'बाल साहित्य : एक अध्ययन', आत्माराम एंड सन्स, दिल्ली, 1969, पृष्ठ संख्या 291
  19. डॉ. श्रीकांत मिश्र, श्रीमती बेबी शर्मा,'बाल साहित्य अवधारणा एवं आयाम (वर्तमान संदर्भ)' बुक सागा प्रकाशन 2023 पृष्ठ संख्या 74
  20. प्रकाश मनु 'हिंदी बाल साहित्य का इतिहास', प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या 459
  21. डॉ. सुरेंद्र विक्रम, 'हिंदी बाल साहित्य शोध का इतिहास', भावना प्रकाशन,दिल्ली 2023, पृष्ठ संख्या 301

राज रानी
शोधार्थी
हिन्दी विभाग, बरेली कॉलेज, बरेली

पर्यवेक्षक
मीना यादव
प्रोफ़ेसर (हिंदी विभाग), बरेली कॉलेज, बरेली 
meenaya1@gmail.com 9759251808


बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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