ए. अबुबक्कर के बाल नाटकों के परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण चिंतन
- अन्विता विश्वनाथन पी.

बच्चे अपना जन्म से ही पर्यावरण से मिले-जुले हैं, उनकी जीवन में प्रकृति को महत्वपूर्ण स्थान है। बच्चे अपनी छोटी- सी उम्र से ही कहानी, गीत, लोरि आदि सुनते रहते हैं इसलिए इनकी अंदर हमेशा कला एवं काल्पनिकता का अंश रहता है। उसी कौशल को सामने रखकर उनकी अभिनय कौशल, सृजनात्मकता, अवलोकन कौशल, सजीव पारस्परिक विचार-विमर्श आदि गुणों को आगे बढ़ा सकते हैं। यहाँ बालसाहित्य की प्रासंगिकता है। इन सब गुण एकसाथ बालनाटकों से संभव है। इस शोध आलेख में पर्यावरण चिंतन को मलयालम के प्रमुख बाल नाटककार ए अबूबक्कर जी की चुनी गई दो वैज्ञानिक बालनाटकों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की कोशिश करती हूँ।
मूल आलेख :
पर्यावरण चिंतन बालनाटकों के परिप्रेक्ष्य में -
हमें पता है कि बालसाहित्य मुख्यत: बच्चों के लिए लिखा है। हम सब कुछ बच्चों के लिए अच्छे ही देना चाहते हैं इसलिए उनके लिए देनेवाली साहित्य भी अच्छा होगा। बचपन से ही कहानी, लोरी सुननेवाले बच्चे इसी से अपनी कल्पनाशक्ति को आगे उभरते हैं और बच्चे अपने अंदर की सद्भावनाओं को उजागृत करते हैं साथ-ही-साथ अपने आसपास की क्रीड़ाओं या चेष्टाओं का अनुकरण करने को भी सीखता है। वही उनकी अभिनय कौशल को आगे बढ़ाते है। बालसाहित्य की फ़ायदा यही है। बालनाटकों को पढ़ते-पढ़ते बच्चे इसका अभिनय करने में भी उत्सुक रहेगा। बच्चों को उनके क्षमतानुसार सिखाना है। उनकी रुचि को ध्यान में रखकर सिखाने से वह अधिक मनोरंजक बनेगा इसलिए उनके अंतर्गत पर्यावरण अवश्य आयेंगे और निस्संदेह हम बता सकते हैं कि पर्यावरण बच्चों को प्रभावित करते हैं और पर्यावरण में बच्चों को जुड़ाने में बालनाटक को महत्वपूर्ण स्थान है।
बच्चे, नाटकों में स्वयं प्रकृति की रूपधारण करके और प्रकृति की साथ अभिनय करके वह जितना निकटता प्राप्त करते हैं उतना सिर्फ कहानी एवं कविता पढ़ने से नहीं मिलते हैं। बच्चे अपने चारों ओर की बातों से सदा सतर्क हैं। ए अबूबक्कर जी की ‘अतिरुकलिल्लात्ता स्वप्नंगल’ (सीमा विहीन सपने) नामक बालनाटक में गोपु नामक बच्चा के मन में भी ऐसी सतर्कता की झलक आती है साथ-ही-साथ उसका जिज्ञासा भी बढ़ जाता है। उसी जिज्ञासा के साथ स्कूल से प्राप्त जानकारी की सच्चाई जानने के लिए वह स्कूल के बाद गॉव की पहाड़ी जाता है। उस ज़ोर बारिश में वहाँ बिजली को देखने के लिए वह गया था। परिवारवाले उसका खोज में था लेकिन वह उस बारिश में शामिल हो गया। कुछ समय बाद लोग बेहोश गोपु को उठाकर उसके घर लाते हैं, वहाँ उस बारिश में बिजली बंद हो जाता है। आसपास की लोग गोपु को देखने के लिए आते हैं। ऐसी घटनाएँ नाटक में चलते हैं और उस समय गोपु, अपनी दोस्त सलीना के बीच का संवाद है। जैसे-
सलीना : जिस पागलपन में पहाड़ी गये तु?
गोपु : मामला है। सोचते वक्त मुझे उस बिजली को करीब से देखने की इच्छा हुई।
सलीना : मरने के लिए गया था क्या?
गोपु : मरेंगे, सब मरेंगे। जल, प्रकाश, जीववायु आदि के बिना मर जाएँगे। मैं उसके लिए एक तलाश के लिए गया था।1
प्रस्तुत संवाद बच्चे का आगे की सोच को दिखाता है। बच्चे की मन में जो भय उत्पन्न होता है, वह पर्यावरण से चिंतित हो जाते हैं। पर्यावरण शोषण को वह निकट देखता है। पर्यावरण संरक्षण के लिए दवाई लाने के लिए वह सोचते हैं। उनके छोटे-से मन में ऐसी बड़ी-बड़ी चिंताएँ उत्पन्न हो जाता है। इसी को भविष्य निर्माता की दायित्व निभाने की पहला प्रयास मान सकते हैं। आगे की कथन उनकी परेशानियों को चित्रित करते हैं। जैसे-
गोपु : जंगलों को काटकर नदियों को बाँध कर जीवजल और प्राणवायु को नष्ट कर दिया क्या? फिर भी बिजली के लिए हम उस शुष्क नदियों को आश्रय करते हैं।2
नाटक में उस बारिश की वजह से गॉव की बिजली बंद हो जाता है और गॉववाले बिजली की ऑफीस तक शिकायत भी करते हैं। उस समय गेपु बिजली की मूल्य एवं लोग इसकी दुर्विनियोग करने की बारे में बताते हैं। आगे की कथन स्पष्ट करना चाहता है कि वयस्क लोग सिर्फ शिकायत ही करते रहते हैं, अपनी लोभ चिंता की बारे में वो जागरूक नहीं है। परंतु बच्चे यहाँ दिमाग लाते हैं और बुराइयों पर आवाज़ उठाते हैं।
नाटक के अंतर कई तरह के ऊर्जाएँ( नदी, कोयला, पोट्रोल, लहर, बिजली, सूर्य आदि) पात्र को रूप में आते-जाते हैं। वह सब खुद आपकी महत्व एवं उनकी वर्तमान स्थिति और इन्हों पर मानव द्वारा किये गये हस्ताक्षेप के बारे में भी बताते हैं।
कोयला की मत ऐसी थी कि “पहले उनकी गाड़ी से बहुत सारे लोगों की यातायात संपन्न हो जाता था लेकिन उच्च धुआँ, पानी की अधिक ज़रूरत, गर्मी आदि के कारण उस गाड़ी को रोकना पड़ा लेकिन मानव लाखों साल पहले मिट्टी में छिपे जैविक कचरे के लिए एक ऐसा पुनर्जन्म देकर पोट्रोलियम नाम दिया है और अब इसका उपयोग भी करता है। पर इसका भी जीवनकाल खतम् हो चुका है, कम से कम डेढ़ सदी की ओर होगा शायद”। 3
प्रस्तुत कथन से उल्लेख करना चाहता है कि मनुष्य की आविष्कार खुद उनके ही विनाश का कारण बनता है। समाज के लिए विकास अच्छा है पर यह किसी का नाश के लिए नहीं होना चाहिए। अगर यह नाश का कारण बने तो मानव ही खुद इसके लिए समाधान ढूँढना पड़ेगा।
नाटक में गोपु अपने विवेक से गोबर, गोमूत्र, कूड़ा- कचरा आदि के बारे में लोगों तक बताते हैं और इससे बन सके नये-नये आशयों को लोगों के सामने रखता है जैसे बयोगॉस प्लॉट वकेरा। वहाँ जितने भी बुज़ुर्ग लोग है, उन्हें भी इस तरह के विषय के बारे में सपने में भी नहीं सोचा है। यह सब उस छोटा बच्चा अपनी शिक्षा एवं उनकी विवेक से यहाँ बताते हैं।
एक बच्चा के सपनों में आनेवाले बातों की आधार पर इस नाटक की कहानी आगे चलती है। समाज में पर्यावरण के अनुकूल एवं संरक्षण करनेवाले नए आशयों को लाने का प्रयास बच्चे यहाँ करते हैं। अपनी अध्यापक एवं सहेलियों की बातें उसके दिल में गहरी चोट लगा दी है, यह भी इसमें ज़िक्र किया है। इसकी परिणाम स्वरूप वह अपनी सपनों की सर्जना करते हैं। इसी से हम पता चलना चाहिए कि बच्चों ने अपनी ज़िंदगी में जो कुछ भी सुना है या कुछ भी उन्होंने समझा है वो बात उनके मन में हमेशा रहेगी।
दूसरा नाटक ‘स्नेहमाणु प्रकृति अर्थात् ‘प्यार है प्रकृति’ में आधुनिकीकरण की वजह से नाश होनेवाले प्रकृति के लिए प्रतिशोध करनेवाले बच्चों का चित्रण किया है। बच्चे खुद सामाजिक यथार्थ को समझकर पर्यावरण के प्रति होनेवाले अन्यायों पर हाथ मिलाते हैं। नाटक में गॉव की तालाब को वहाँ की पहाड़ी से मिटाने की कोशिश होती है। इस तरह तालाब मिट जाने से वहाँ की मछलियाँ एवं तालाब को आश्रय करनेवाले जीवजंतुओं का हनन होगा। लेकिन गॉव की स्वार्थ वयस्क लोग उस आधुनिकीकरण को स्वागत करके उस नीचवृत्ति की साथ देते हैं।
इस नाटक में अम्मिणी नामक एक लड़की है, उन्हें दादी माँ से पूछता है कि “ दादी माँ, आप क्यों फूल और हमें अदल-बदल कर देखते हैं? “दादी माँ ने जवाब दिया कि “आप लोगों भी इस धरती के फूल है। आप लोगों के बिना इस पेड़ और नदी को कौन पसंद करेगा”4- यह संवाद बच्चे और प्रकृति दोनों का गहरा संबंध दिखाते हैं कि बच्चों की मन उतना मासूम होता है इसलिए वे प्रकृति की हरेक चीज़ का आस्वादन निस्संदेह करते हैं। पहला नाटक की तरह इस नाटक भी बच्चे की सपनों की साथ होते हैं इसलिए नाटक में असाधारण पात्रों की योजना किये हैं (जैसे- जे.सी.बी, मेंढ़क, बंदर, कछुआ आदि )। हमको पता है कि इन जीविवर्ग साधारण जीवन में हमसे बातचीत नहीं करेंगे या शायद बातचीत किये तो भी हमको नहीं समझ पायेंगे इसलिए निस्संदेह बता सकते हैं कि बालनाटकों की पात्र अधिकाधिक काल्पनिक मात्र होते हैं। इसी दृष्टिकोण से हमें बालसाहित्य को पढ़ना चाहिए।
नाटक की शीर्षक की साथ नाटककार ने एक बात का भी उल्लेख किया है जैसे ‘बच्चों ने हर जगह एक जैसे बुरे सपने देखना शुरू किया है’5 अर्थात् बच्चे सपनों से खबराते हैं क्योंकि उनकी सपनों में पर्यावरण का शोषण उनके भविष्य का या मानव जाति का नाश की ओर इशारा करता है।
नाटक में मुनीरा नामक लड़की की उदास चेहरा देखकर अम्मिणी की पिता उस उदासीनता का कारण पूछता है और उस समय मुनीरा की पापा हैदराली ने जवाब दिया कि- “कल रात नींद में मुनीरा एक सपना देखकर जागा। उसकी स्कूल की रास्ते में एक तालाब है, वहाँ से वह और सहेलियाँ कमल उठाते हैं। उस तालाब और आसपास की झाड़ि सब हटाकर एक बड़ा रिसॉर्ट बनाता है।”6
अम्मिणी की पापा: हाँ विकास हैं देश में।
हैदराली: मुद्दा यह नहीं है। उस तालाब के सभी कछुएँ और मेंढकें सपने में उनकी और दोस्तों के पास आते हैं और उनसे कहने लगा कि तालाब कीचड़ से भर गई है और तो वे सभी हमेशा के लिए इसमें दब गए होगा।7
इससे पता चलेगा कि बच्चे कितने परेशान है प्रकृति के प्रति। समाज के इस तरह की कुरीतियाँ बच्चे की नींद को तोड़ते हैं, उनकी सपने उसे जागरूक करने की कोशिश करते हैं। अपनी परिवार, दोस्त, पर्यावरण आदि के अलावा सोचने के लिए बच्चों को कुछ भी नहीं है। इन सबका नाश वह कभी भी नहीं चाहेंगे इसलिए उसी तरह सपने वास्तविक हो जाने में वो डरते हैं।
नाटक के अंत में बच्चों ने एकसाथ प्रतिशोध के लिए जाते हैं, वहाँ से अम्मिणी उस तालाब मिटानेवालों से बताते हैं कि
अम्मिणी: यह अस्तित्व के अंतिम छोर है। यहाँ किसी ने कुछ नहीं हासिल कर रहा है। आप ही स्वयं मार रहे हैं। उस प्रकृति को।
जे. सी. बी: प्रथम मानव का जीवन है, बाद में है प्रकृति।8
इसमें जे. सी. बी आधुनिक भोगवादी समाज का प्रतीक है। वह सिर्फ विकास को स्वीकार करते हैं बिना सोचके। भविष्य की नाश एवं प्रकृति की मौत की बारे में वह अज्ञात है लेकिन बच्चे सोचते हैं। वो बताते हैं उस स्वार्थी लोग से, दुनिया से –
“प्रकृति से मत लड़ो। हर चीज़ काटकर एक तरफ़ प्रलय और दूसरी तरफ़ सूखापन को आमंत्रित कर रहे हैं आप लोग”9
आगे मुनीरा कहते हैं कि “ मन मरे बड़ों से कहने के लिए उनके पास कुछ नहीं है, सवाल बच्चों से है कि यह हरियाली, जीवजल, प्राणवायु सब कब तक रहना है? पृथ्वि, जो हम कल की पीढ़ी से उधार ली है। इसे उसी तरह वापस देना चाहिए... यह धरती कब तक रहना है?”10
बच्चों की वेदनाओं को यहाँ दर्शाया है। उनकी दुनिया की छोटी- सी सीमा की प्रति वह जागरूक है। उसी जागरूगता की शून्यता बड़े लोकों को स्वार्थ बना देते हैं। एक नाटक की रूप में इस प्रकार की बातों को दिखाते समय बच्चे अधिक इस विषय पर सोचेगा। नाटक में भूस्खलन को चित्रित करते हैं, यह बच्चे की मन में भय उत्पन्न करेगा और प्रकृति की उस भयानक संस्करण उनकी मन को हमेशा शोषण कराने की बात से दूर रखेगा।
निष्कर्ष : प्रकृति कहानी कहने के लिए एकदम मज़बूत तत्व हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। बच्चे इसी समाज का हिस्सा है, वे भविष्य की निर्माता भी है, अर्थात् इस समाज की संरक्षण एवं पालन करने का दायित्व बच्चों पर भी है। उस समाज के संतुलन में पर्यावरण का स्थान प्रमुख है। बच्चों को ललित एवं सरल रूप से उनकी क्षमतानुसार की बातों को समझाना है, उसी प्रकार बातों पर उनको जागरूक कराना भी है। इसके लिए सशक्त माध्यम की रूप में हम बालनाटकों को चुन सकते हैं। आधुनिक समाज में बालनाटकों की प्रासंगिकता यहाँ सवाल का विषय है। भारत में नाटकों का बिक्री नहीं होता है वही इस समस्या का कारण है। यहाँ की लोग पैसा खर्ज करके नाटक देखने में दिलचस्प नहीं है, पर विदेश में ऐसा नहीं। फिर भी नुक्कड़ नाटकों की महत्व कम नहीं है। एक भीड़ में आवाज़ उठाकर कुछ चेष्ठा करने से भी लोग उस पर ध्यान देते हैं। वही हथियार हमें यहाँ प्रयोग करना चाहिए।
कला, हमारे संस्कृति से मिली हुई है, उस संस्कृति के अंतर्गत वहाँ की भाषा, वेश, पर्यावरण आदि आते हैं। प्रत्येक परिस्थिति में जीनेवाले लोगों को समझने के लिए सिर्फ उनकी संस्कृति को परखना काफ़ी है। इसी बात को आगे रखकर उस नाटक कला में पर्यावरण को इस्तेमाल करता है, यह बच्चे के लिए और समाज के लिए भी गुणदायक होगा। इस तरह बच्चों का पर्यावरण चिंतन को बाहर ला सकते हैं। बच्चों के नाटक सिर्फ एक बार लिखने की बात नहीं है, प्रथम लेखन के बाद बच्चे यह नाटक खेलाया जाता है और अवश्यक परिवर्तन करके इसको दुबारा भी लिखता है। यह बच्चे को भी नाटक की आशय एवं उद्देश्य को समझने के लिए सहायक बनेगा, साथ-साथ बच्चों की आदर्शों को भी दुबारा लिखते समय शामिल कर सकते हैं।
प्रकृति से बच्चों को सहानुभूती है, वह हमेशा इसकी पालन करना चाहते हैं। केरल के प्रमुख संचारी संतोष जॉर्ज कुलंगरा ने अपनी एक साक्षात्कार में इस तत्व को व्यक्त किया है। जैसे- ‘एक दिन एक बच्चा और उसका पिताजी दोनों एक यात्रा की तैयारी में थे, अपनी घर से निकालते वक्त पिताजी एक कीड़े को देखा अपनी बच्चे को उस कीड़े से नुक्सान होगा सोचकर पिता ने उसे पाँव से निकालने को गया। उस द्विदीय कक्षा में पढ़नेवाले उनकी बच्चे दौड़ आकर पिता को रोकते हैं। पिता ने सवाल उठा कि “तुम मुझे क्यों रोक दिया? यह तुम्हारे लिए हानिकारक बनेगा।” बच्चा जवाब दिया कि “पापा यह कीड़ा नही है, प्रकृति है।” इस प्रकार की सीख देनेवाले शिक्षा संप्रदाय को हमें आगे बढ़ाना होगा।‘ यह स्थापित करते है कि सिर्फ ज्ञान होने से फायदा नहीं है, समझदारी भी होनी चाहिए। वही समझदारी आज स्वार्थी लोग के पास नहीं है।
पर्यावरण मात्र पर्यावरण दिन में याद दिलानेवाली बात नहीं है, हरेक दिन पर्यावरण दिन है। हरेक दिन इस पर चिंता करनी चाहिए। पर्यावरण बच्चे पर उम्मीद रखते हैं कि वह स्वस्थ पर्यावरण निर्माण पर अपना भान निभाये और उसके ज़रिए उपना दायित्व को पूरा करें। प्रस्तुत नाटकों में उसी तरह पर्यावरण, उस बच्चे की सपनों में आकर उसको जागरूक बनाता है, कुरीतियों के प्रति प्रतिशोध करने के लिए प्रोत्साहित करता है। वही सपने पर्यावरण के अनुकूल सामाजिक विकास की नए प्रतिमान को बच्चे की मन में बेजते हैं और वही उनकी सपनों की सीमा को पार करके आगे सोचने की मदद करते हैं।
सन्दर्भ :
1‘अतिरुकलिल्लात्ता स्वप्नंगल’- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 13
2अतिरुकलिल्लात्ता स्वप्नंगल’- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 13
3 अतिरुकलिल्लात्ता स्वप्नंगल’- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 20
4 ‘स्नेहमाणु प्रकृति- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 24
5 स्नेहमाणु प्रकृति- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 24
6 स्नेहमाणु प्रकृति- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 33
7 स्नेहमाणु प्रकृति- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 33
8 स्नेहमाणु प्रकृति- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 36
9 स्नेहमाणु प्रकृति- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 37
10 स्नेहमाणु प्रकृति- ए अबूबक्कर जी पृ. सं 37
ग्रंथ :
- डॉ. जमनालाल बायती, (द्वितीय संस्करण 2014), बाल मनोविज्ञान, जयपूर, अग्रवाल पब्लिशिंग हाउस
- प्रकाश मनु, (2018), हिंदी बाल साहित्य का इतिहास, नई दिल्ली, प्रभात प्रकाशन
- डॉ. एम. के. गोयल, पर्यावरणीय मुद्दे, आगरा, श्री विनोद पुस्तक मंदिर
- अनुपम मिश्र, (2019), पर्यावरण के पाठ, राजकमल प्रकाशन
- ए. अबूबक्कर, (2016), अतिरुकलिल्लात्ता स्वप्नगल, त्रिच्चूर, केरला शास्त्र साहित्य परिषद्
अन्विता विश्वनाथन पी
शोध छात्रा, सरकारी आर्टस् व साईन्स कॉलेज, कालिकट, केरल
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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