बच्चों की दुनिया और तकनीक का ग्लोब
- राजीव रंजन प्रसाद

हमें यह देखना होगा कि विचार-प्रक्रिया, चिंतन और स्मृति इन सभी के समिश्रण में हमारे बच्चों के हृदय भी शामिल हैं या कि नहीं। यदि हमारी वैचारिकी और चिंतन-परम्परा में उनका बोध और संज्ञान उपस्थित नहीं है, तो निश्चय जानिए कि आपकी पूरी ‘कमेस्ट्री’ ही किसी भयंकर भूल अथवा दोष का शिकार हो चुकी है; और इस त्रुटि को दूर किए बगैर हम चाहे इक्कीसवीं सदी में तकनीकी-प्रौद्योगिकी के रथ पर सवार होकर कितनी भी दूर चले जाने की कल्पना कर लें, योजना बना लें; किन्तु यह रथ टस से मस नहीं होने वाला है; क्योंकि भविष्य के घुड़सवार ये बच्चे और किशोर ही हैं, जिनके बारे में हम न तो पूरी संवेदनशीलता और मानवीयता बरत रहे हैं और न ही उनके खिलाफ चल रहे बाजार और सत्ता के सामूहिक कुचक्र का कोई मुकम्मल तोड़ निकाल पाने में ही सफल अथवा सक्षम हैं। प्रो. यशपाल इस समस्यापरक स्थिति की पड़ताल करते हैं। उनकी दृष्टि में, ‘‘एक समय था जब इन विकसित देशों के अपने खास बौद्धिक सम्पदा अधिकार हुआ करते थे, जो उनकी आर्थिक और प्रौद्योगिक स्थिति के अनुरूप थे। लेकिन अब जब वे शक्तिशाली देश बन चुके हैं, तो सारी दुनिया को एक ऐसी व्यवस्था थोप रहे हैं जो उनकी लाभ की स्थिति को हमेशा-हमेशा के लिए बचाए रखेगी। हम इसका प्रतिवाद कर सकते थे, बशर्ते अपने देश के लिए अच्छे जीवन को परिभाषित करने के अधिकार को हमने अपने यहाँ व्यवहार में उतारा होता। हमने ऐसा नहीं किया; क्योंकि हमारे नीति निर्माता और ऊपर की ओर बढ़ रहे मध्यवर्ग के लिए उससे अलग कुछ सोच पाना संभव ही न हो सका; जैसा सोचने के लिए उनका दिमाग बनाया गया था। इस क्षेत्र में मूलभूत चिंतक बहुत कम रह गए हैं। दिमाग के मनचाहे ढाँचे में ढल जाने की प्रवृत्ति व कम होती मनोवैज्ञानिक मनोवृत्ति एक महत्त्वपूर्ण परिणति है; लेकिन पिछले कई दशकों में विज्ञान की अपनी दिशा क्या रही है? मूल प्रश्न यह है!’’
यह मूल प्रश्न इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के मद्देनजर बाल-साहित्य के सन्दर्भ में भी लागू होता है। प्रो. यशपाल सामयिक विसंगतियों और विरोधाभासों को नजरअंदाज नहीं करते हैं। उनकी दृष्टि टेलीविज़न के उस तमाशे पर भी है, जिसका उपभोक्ता-संस्करण बच्चों और किशोरों को भी जिंस/कमोडिटी/कंज्यूमर मानता है। वह अपनी इस पीड़ा को एक व्यावसायिक विज्ञापन को लक्ष्य करते हुए कहते हैं-‘‘टीवी विज्ञापन की संवेदनहीनता और अशालीनता मुझे चकित कर देती है। बकरी चरा रहा एक ग्रामीण बच्चा बारिश और कीचड़ में खुशी से नाचता और खेलता हुआ दिखाया जाता है; क्योंकि उसके बगल में एक ट्रक खड़ा है जिस पर बोतलबंद पानी और शीतल पेय बनाने वाली एक प्रसिद्ध कंपनी का नाम लिखा है। यह कंपनी ग्रामीण भारत में पेयजल पहुँचा रही है! दिमाग में कारीगरों और छवि निर्माताओं की चालाक दुनिया में शायद इस विज्ञापन को पुरस्कृत किया जाए।...हर कोई इस विज्ञापन से यह संदेश ग्रहण करता है कि साफ पानी, तो सिर्फ बोतलों में ही आता है।’’
इन विज्ञापनों से इतर देखें तो, आज के शहरी टीन एजर्स हृष्ट-पुष्ट, गुलफुल हैं। उनका गोरा-चिकना होना सेहतमंद होने की निशानी नहीं है, उनको स्मार्ट और इंटेलिजेंट समझना है। यह बात लोग जान गए हैं कि इंग्लिश मीडियम का अर्थ है-दूसरों का जैसा होना। इसलिए आज की दुनिया पुरानी पीढ़ी की भाषा-बोली से अलग ही टोली के साथ है, एकदम नई लिक पर। यह लिक आज के बच्चों और किशोरों को अस्वाभाविक बना चुका है और कृत्रिम भी। आज नवयुवक आधुनिक होने के नाम पर यांत्रिक हुए जा रहे हैं। नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी को टेर दिया है। भारतीय समाज ने अपने उन बुजुर्गों को हाशिए पर धकेल दिया है जिन्होंने उनको कई तरह के खेल बताया और हिल-मिल कर रहना सिखाया। जैसे-घुघुआ मन्ना, अट्टा-पट्टा, ओक्का-बोक्का, ग्घो-ग्घो रानी, अक्कड़-बक्कड़, पिठ्ठो, आइस-पाइस, डोल्हा-पाती आदि मनोरंजन के साधन थे।
आधुनिक विधान में बालमन या बच्चों की हृदयस्थली प्राथमिकता में नहीं रह गई हैं। माता-पिता पैरेंटिंग के नाम पर रूटीन जवाबदेही मात्र उठा रहे हैं। जबकि बच्चों को उम्र के लिहाज़ से ‘प्रोफेशनल’ किस्म के बड़े विचार या बड़े दृष्टिकोण नहीं चाहिए; उन्हें समझदारी वाला वह भाव भी नहीं चाहिए जो कहता है-‘बड़े सोच का बड़ा जादू।’ वास्तव में, इन बच्चों को आपसदारी के संगत और संवाद से मिलने वाला मानवीय विचार, भावनात्मक लाड़-दुलार, वैज्ञानिक तथ्य, सामाजिक बोध, ज्ञानात्मक संवेदन या इसी तरह का संवेदनात्मक ज्ञान चाहिए होता है। बाल-साहित्य बीसवीं सदी में इसका मालगोदाम रहा। बच्चों की परवरिश और संस्कार-निर्मिति में बाल-साहित्य का योगदान काफी रहा है। यह साहित्य लोक के माध्यम से उन तक पहुँचा, या फिर लिखित यानी प्रकाशित रूप में। अब तकनीकी तौर पर दुनिया काफी बदल गई है। सदी आज सहस्त्राब्दी में तब्दील हो गई है। यह पैराडाइम शिफ्ट है जिसमें दुनिया ग्लोब बन रही है। आज बालमन पर मनुष्य कम छाप छोड़ रहा है, कार्टून अधिक। कार्टून अब बच्चों के भूख-प्यास का हिस्सा हैं जो कभी उपहास का विषय थे।
इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के मद्देनज़र आज की पड़ताल अत्यावश्यक है। ज्ञान-आयोगिया परिपाटी ने ‘विद्या’ के अर्थ/आशय को बुरी तरह चौपट किया है; बच्चों की चेतना को हरसंभव विरूपित/विगलित कर दिया है। बाल-साहित्य के लिए जैसी बौद्धिक चेतना, सोच और दृष्टि चाहिए उसका आज नितांत अभाव है। यह बौद्धिक योग्यता स्नातक या परास्नातक की डिग्री ले लेने या पीएच.डी. उपाधि से सुशोभित हो लेने मात्र का नाम नहीं है। बाल-साहित्यकार होने के लिए अपने भीतर के अबोधपन को कुरेदना होता है; उसे मुखर बनाते हुए अपने कहन में पैनापन सिरजना होता है; ठीक वैसे ही जैसे हमसब छुटपन में बड़ी सफाई से लकड़ी को काँट-छाँटकर, छिल-छालकर गुली-डंडे बनाने का काम कर लिया करते थे। बच्चों के लिए जो तिपहिया गाड़ी बनती थी; क्या भली सवारी थी। उन दिनों हमारी इस जरूरत या शौक में दुकान नहीं थे। चार लड़कियाँ मिली नहीं कि कित्तकित्ता खेलने लगती; रस्सी फांगने-कुदने लगती थीं। बाज़ार और उपभोक्ता समाज उस समय दरवाजे पर क्या; हाशिए पर भी नहीं था, आज हमारे भीतर प्रवेश कर चुका है। इक्कीसवीं सदी में शास्त्र का ज्ञान बढ़े हैं। शास्त्रियों की संख्या बढ़ी है। आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता को लेकर अकादमिक बहस की शुरुआत हुई है। स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श ने हाल के दशक में अपना एक मजबूत मुकाम हासिल किया है। लेकिन इस घेरे में हमारे घर और घरौंदे नहीं हैं; हमारे बच्चों के लिए सुचिंतित और सुविचारित विकल्प नहीं हैं। बाल-साहित्यकारों के जेहन में यह बात क्या नहीं आती होगी कि हम जिन बच्चों के लिए लिखते हैं; उसके लिए संगठित और बहसतलब बाल-विमर्श क्यों नहीं है? उनकी किताब नकली और बनावटी क्यों मालूम देती है। प्रकाश-संश्लेषण की चित्रावली है, लेकिन बच्चों को अलग-अलग पत्तियों की पहचान और नाम नहीं पता है।
दरअसल, बच्चों को लेकर हमारा नज़रिया बेहद चलताऊ है, रवैया बहुरूपिया है। इस दूषित नज़रिए और रवैए ने बच्चों को कार्टूनजीवी बना दिया है। उन्हें पिकाचू पसंद है। पोकेमोन उनका पॉकेट मान्स्टर है जिसे जेबी दानव भी कहा जाता है। आज हमारे बच्चे हमसे नहीं, हम जैसों के प्रतिरूपों से अपनापा और दोस्ताना गाँठने लगे हैं; उन्हें अधिक सम्मान की दृष्टि से देख रहे हैं और उन्हें अपने द्वारा अपनी तरह से दुलारते भी खूब हैं। मनोविज्ञानियों की स्वीकारोक्ति इस बात की पुष्टि करते है कि-‘‘ऐसे कार्यक्रमों को देखते हुए बच्चे फंतासी की ऐसी दुनिया में चले जाते हैं जहाँ उनके प्रतिरूपी नायक अपनी जादुई शक्तियों से मनुष्य तथा बुरी आत्माओं पर विजय प्राप्त करते हैं। हिंसा से भरे इस बैठे-ठाले खेल में बच्चों को इतना जुड़ाव उनमें उत्तेजना बढ़ा रहा है। इन कार्यक्रमों में हिंसा को हर समस्या के समाधान के रूप में स्थापित किया जाता है। बालमन वास्तविक और काल्पनिक चरित्र में फर्क नहीं कर पाते। इसी कारण वे अपने पसंदीदा यानी फेबरेट पात्र का अंधानुकरण करते हैं। आजकल कार्टूनों के अन्तर्गत तकनीकी-प्रौद्योगिकी की जाल हमारे भीतरी तंतु को अपनी चपेट में ले रहे हैं। वे इसके लिए ‘ऑपरेड कंडीशनिंग’ का फंडा अपनाते हैं। इस विधि में तेज गीत-संगीत और तीव्र प्रकाश द्वारा बच्चों को कार्यक्रम बार-बार देखने के लिए बाध्य किया जाता है। यह बाध्यता कई तरह के दुष्प्रभाव को जन्म दे रही है। यथा-क्रोध, उन्माद और अस्थिर संवेग।’’ इसके लिए उन्नत तकनीक द्वारा एक तिलिस्म रचा जाता है जिसमें लेजर टेक्नीक के जरिए साइकेडेलिक रोशनियों से चकाचौंध पैदा की जाती है। कानफोड़ू म्यूजिक, लाइट शो, पॉप म्यूजिक द्वारा दिमागी उत्तेजना को सहलाया जाता है। इसमें शामिल किशोर असमय ड्रग्स एडिक्शन का शिकार हो जाते हैं। जैसे-एक्सटेसी, एमडीएमए, जीएचवी, कैटामाइन एलएसडी आदि। ड्रग्स कुछ समय के लिए उत्तेजना और शक्ति में वृद्धि कर देता है और इसका इम्युन सिस्टम पर असर पड़ता है। ड्रग एडिक्ट, स्मोकिंग के लती किशोर व्यक्तिगत जिंदगी में इस कदर खोखले हो जाते हैं कि उनका सामाजिक मनोव्यव्हार सामान्य नहीं रहता है। वे प्रायः हिंसा, मारपीट, बलात्कार, डिप्रेशन, विहैवियर डिसऑर्डर, सेक्स मेनिक आदि के चंगुल में फंस जाते हैं। उन्हें नींद नहीं आती और हमेशा बेचैनी और माँसपेशियों में खिंचाव महसूस होता है। उनकी हंसती-खेलती दुनिया में रोज कोई न कोई हादसे होते हैं। जैसे-भुलक्कड़पन, जी मचलाना, आँखों के आगे अँधेरा छा जाना, पसीने से तर-बतर होना इत्यादि।
ऐसी नाजुक घड़ी में बच्चों के लिए सुरुचिपूर्ण और सर्जनात्मक लेखन अत्यावश्यक है। क्योंकि बच्चों के लिए लिखना बाजार और सत्ता के खि़लाफ बोलने से कमतर नहीं है! आजकल अधिसंख्य माता-पिता एवं अभिभावकों की आदत-सी बन गई है, हर विचार को आँकड़ेबाजी और फार्मूलेबाजी के गणित अथवा समीकरण में फांस लेना, घसीट लेना। दरअसल, हमारे बच्चे जिस भाषा और लहजे में आजकल अपनी मांग और फरमाइश रखने लगे हैं; जिद और कभी-कभी तो अनचाहा आक्रमण तक करने लगे है; वह बेहद चिंतनीय परंतु गौरतलब है। बच्चों के बोल-बर्ताव, व्यक्तित्व-व्यवहार, पसंद-नापसंद आदि का ढर्रा बड़ी तेजी से बदला है। इस अनपेक्षित बदलाव की मुख्य वजहें क्या हैं? यह जानना जरूरी है। प्रायः बच्चों में एक ऐब समान रूप से लग चुकी है कि वे कार्टूनजीवी हो चले हैं, तो किशोरवय छोटे उम्र से ही तेज संगीत सुनने और आधुनिकतम मौज-मस्ती के ठिकानों (रेव पार्टी, डिस्कोथिक, क्लब, बार, रेस्टोरेंट इत्यादि) में बेसुध नजर आ रहे हैं। आज की पीढ़ी तकनीक आधारित गैजेट की गिरफ्त में है। गेमिंग और ब्राउज़िंग के नए साधनों ने हजारों ऐसा रास्ता दिखा दिया है जिस पर चलना अपने को अपने ही हाथों बर्बाद कर देना है। तकनीक के आभासी मंच में उनका किरदार इतना उलझ गया है कि वह पृथ्वी को ग्लोब मान बैठे हैं और वही उनका पूरा सच और इतिवृत्त है। बाल साहित्य ने पुरानी पीढ़ी को ऐसा होने से बचाया था। उनकी कल्पनाशीलता में रंग भरा था। वह अपने जीवन में रचनात्मक बनने की प्रक्रिया में गतिशील और सहभागी थे, आज बाल-साहित्य ने अपना वह प्रभाव और आकर्षण खो दिया है जिससे दुनिया मनभावन, सरस और सजीव मालूम देती थीं।
हर चीज वह चाहे सामाजिक रूप से मान्य हो या अमान्य, उचित हो या अनुचित, नैतिक हो या अनैतिक, हमारे बच्चे और किशोर उनमें अंतर करना भूलते जा रहे हैं; पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों की कद्रदानी, मोह और ममता में हमने अपना बचपन गुजारा है; परिवार के लिए व्यक्तिगत इच्छाओं-आकांक्षाओं को समेटते हुए हम नित अपनी सोच और स्वप्न में आगे बढ़े हैं, जबकि आज के नौनिहाल उसे ठेंगा दिखा रहे हैं, हमारे सभ्यतानुसरणी पाठ, अनुशासन और सहज मानवीय संस्कार तक को अपनी भाषा में ‘आउटडेटेड’ बता रहे हैं; अर्थात् कुछ समय पहले तक हम जिन पारिवारिक-सामाजिक संस्कारों पर पेट के बल लोटते थे; वे अब हमारे बच्चों अथवा किशोरों को रास नहीं आ रहे हैं। यह माज़रा तकलीफदेह है। उससे भी तकलीफ़जनक पहलू यह है कि प्रायः बच्चों की दुनिया में हमसब अपनी आत्मा के साथ नहीं, अपने पद, रुतबे और हैसियत के साथ दाखिल होना चाहते हैं। यह घुसपैठ बच्चों की आत्मा पर चोट है। नतीजतन, पर्याप्त दुलार और लाड़-प्यार के अभाव में बच्चे खुद अपने माता-पिता और अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ दूरी बनाने लगते हैं। यह कटाव बच्चों के प्रति माता-पिता के लगाव में कमी होने का नतीजा है। बच्चों का मानस अजीबोगरीब व्यवहार करने लगता है। उनके दिमाग में अपने पैरेंटस की नकारात्मक छवि अंकित हो जाती है। वे माता-पिता को देखते ही सहम जाते हैं। लिहाजा, बच्चों और अभिभावकों के बीच संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यही आगे चलकर ‘जैनरेशन गैप’ बन जाता है। हम अक्सर उन पर गुमराह और अपसंस्कृतियों का शिकार हो जाने का आरोप मढ़ते हैं; लेकिन हम अपने खि़लाफ कोई कार्रवाई या कि चार्जशीट दायर नहीं करते। ऐसा क्यों? इसका जवाब बच्चों के लिए अधिक मायनेपूर्ण है; क्योंकि वे हमारे इन्हीं छोटी-छोटी आदत और व्यवहार से सर्वाधिक आहत होते हैं।
इसलिए यह समझना आवश्यक है कि जिन बातों को हम प्रायः मामूली मानकर नजरअंदाज कर देते हैं; वे मासूम और अबोध बच्चों को सबसे ज्यादा चोटिल और उनके मन-मस्तिष्क को दुखी करने वाले होते हैं। सबसे बड़ी दिक्कतदारी यह है कि बाजार और सत्ता के खिलाफ अधिसंख्य लोग बोलने, मुहिम छेड़ने, आंदोलनरत रहने की बातें कहते-सुनते हैं; लेकिन जब हम अपने घर के बच्चों का रिपोर्ट कार्ड देखते हैं, तो लाल-पिले होते हैं कि इस बार शत-प्रतिशत अंक क्यों नहीं लाए? क्या अब हम अपने बच्चों की ‘सोशल टीआरपी’ तय करने लगे हैं; उनकी योग्यता और काबिलियत का ‘मार्केट वैल्यू’ तैयार करने में भिड़ गए हैं; क्यों हमारे घर का बच्चा ‘क’ से कबूतर नहीं, ‘न’ से नल नहीं सीख रहा है; हमने कभी ध्यान दिया है? क्या हमने इस ‘वर्ड टरमिनेशन’ की आधुनिक संस्कृति पर कभी गौर किया है? जब हमारे बच्चे हमारी भाषा में ही रींज-भींज नहीं रहे हैं, खिल-पक नहीं रहे हैं, तो हुजूर, बड़े होकर वे हमको या आपको वृद्धाश्रम नहीं भेजेंगे, तो क्या आठों पहर आरती उतारेंगे?
इन तमाम विसंगतियों और विडम्बनाओं के बीच यह जान लेना अत्यंत आवश्यक है कि हमारा बड़ा होना, बड़ी बात करना और बड़े खतरों के लिए चिंतित होना वाजिब है; बाजार और सत्ता के खिलाफ मोर्चा लेना सही है; लेकिन जो बाजार और सत्ता हमारे बच्चों का बचपन छीन ले रही है; उनके भीतरी भाव और बोध को अभिव्यक्त कर सकने वाली सक्षम भाषा और उसकी सहज उच्चारणीयता को उनसे अलग कर दे रही है, जो उनके संज्ञान, समझ, चिंतन, कल्पना, स्वप्न आदि को पोसने वाली पारिवारिक घनिष्ठता, मेलजोल और बतरस पर ग्रहण लगा दे रही है; वैसी शिक्षा और शिक्षण-नीति के खिलाफ एकजुट होना; पूँजीवादी ताकतों और नवसाम्राज्यवादी विधानों की मुखालफत करने से कमतर नहीं है। विशेषतया, हिन्दीपट्टी के अधिसंख्य बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह कहकहे में विचार रखते हैं; कहकहे में अपने वैज्ञानिक उपलब्धियों को गिनाते हैं; कहकहे में साहित्य बखानते है; और कहकहे की शैली में ही आत्ममुग्ध और अतिरेकपूण व्याख्यान देने का भी आदी हो चुके हैं। लेकिन, जब वही शख़्सियत अपने घर में प्रवेश करते हैं, तो अपने बच्चों को उसी अंग्रेजीपन को साधने और उसके रंग में हरसंभव रंगने की सलाहियत देते हैं; जिसका वे बाहर में विरोध कर रहे होते हैं; अपनी रचनात्मकता में जिन प्रवृत्तियों पर टूट पड़ रहे होते हैं। ऐसे दोहरे चरित्र का अभिनय किसी नाटक या ‘सोप अपेरा’ कहे जाने वाले टेलीविजन धारावाहिकों के लिए, तो ठीक है; लेकिन अपने बच्चों के माता-पिता अथवा अभिभावक के रूप में हरगिज नहीं। मैं जिनकी बात कर रहा हूँ वे चाहे अपनी दुनिया में कितने भी बड़े तोप हों; लेकिन अपने बच्चों के समाने उनका कद-काठी हमेशा ठिगना होता है। जबकि हमारा अक़्स बच्चों के मन-मस्तिष्क में हमेशा ममतामयी और वात्सल्यपूर्ण चेष्टाओं की घानी में पेराया हुआ होना चाहिए। हमारी वैचारिकता एवं अंतःदृष्टि आंतरिक आत्मबल और संकल्पशक्ति में इस कदर बिलोई होनी चाहिए कि हमारे बच्चों को वह सुस्वादु भी लगे और उन्हें सेहतमंद भी बनाएँ। इस मौके पर याद आते हैं, रामदरश मिश्र; वे कहते हैं, मानीखे़ज कहते हैं:
‘‘तू है बड़ा, बड़ा रह गया भाई, मुझको छोटा ही रहने दे
तू बहता है महासिंध में, मुझे नदी में ही बहने दे
तू है पंडित सार्वभौम करता है महाज्ञान की बातें
मैं हूँ परम घरेलू मुझको लोगों के सुख-दुख कहने दे।’’
उपर्युक्त पंक्ति को अपने समय के संकटग्रस्त बच्चों से जोड़कर देखें, तो यहाँ परमघरेलू कहने का अर्थ दूसरा है। आज बच्चों पर बात या बच्चों के बारे में बात चिकनी-चुपड़ी अर्थ-संदर्भों में करना उचित नहीं है। आज बच्चों के कोमल मनोभाव और मनोवृत्तियों के साथ सही तालमेल और ताल्लुकात बिठाने का तजुर्बा भी हममें होने चाहिए। दरअसल, बाजारवाद की विकृतियों तथा उपभोक्तावाद के निरंतर प्रभाव ने साहित्य और कला के विकासात्मक प्रतिमानों, मौलिक संवेदनाओं तथा मनुष्य और प्रकृति के रागात्मक सम्बन्धों को जिस तरह नष्ट किया है; वह एक भयावह सचाई है। इस सचाई के जार से पीड़ित समाज का हरेक वर्ग है। हमारे बच्चों का बचपन और उनकी कोमल भावनाएं भी बुरी तरह प्रभावित अथवा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ढंग से प्रताड़ित हैं। यहां यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि साहित्य कभी भी देशकाल निरपेक्ष नहीं होता। परम्परा, इतिहासबोध व आधुनिकता के समन्वय से कई पीढ़ियों और यथार्थ के कई युग एक-साथ मिलकर हमारे समय के यथार्थ का निर्माण करते हैं। इस निर्मिति में मनोवैज्ञानिक संचेतना और संज्ञानात्मक प्रणाली भी शामिल है।
अतः हमारा चौकन्ना रहना जरूरी है। संचार माध्यमों की सहज पहुँच और सर्वसुलभ हस्तक्षेप(आक्रमण अधिक) ने हमारे बच्चों को अनाधिकृत ढंग से अपनी चपेट में ले लिया है। ऐसे बच्चे यांत्रिक मनुष्य अथवा मशीनी मानव बनने के लिए तो उपयुक्त हैं; लेकिन भारतीयता का संवाहक/संचारक बनने की अपनी काबिलियत, ऊर्जा और शक्ति खो चुके होते हैं। ऐसे में हमसब का बहसतलब होना अभिभावकत्व-धर्म है, तो दूसरी ओर अपनी परम्परा के प्रति विश्वास, निष्ठा, वास्तविक सम्मान और आदर भी। ऐसा होने पर हम कह सकते हैं कि आगत भविष्य में हमारे बाल-साहित्य की संभावनाएं अथाह-अनंत हैं; इस बाल-वाटिका में बेशुमार लहलहाते पौध अपनी रचनात्मक प्रतिभा और गरिमा के साथ गहगह करते हुए दिखाई देंगे; बशर्ते हमारे जमीनी बाल-साहित्यकारों को जी-रह सकने की जमीन मयस्सर हो; उन्हें पनपने-बढ़ने के उचित सुअवसर मिले; और सबसे अधिक उन्हें आर्थिक चिंताओं के व्यक्तिगत कार्यभार से मुक्ति दिलाई जाए। मैं हरिकृष्ण देवसरे, श्रीप्रसाद, कन्हैयालाल नंदन, प्रकाश मनु, दिविक रमेश, देवेन्द्र कुमार, क्षमा शर्मा, मनोहर वर्मा, शेरजंग गर्ग, सुरेन्द्र विक्रम जैसे जमीनी बाल-रचनाकारों के प्रति श्रद्धानवत होता हूँ, जिन्होंने बच्चों के लिए विपुल मात्रा में लिखा ही नहीं है, बल्कि ये लोग बच्चों के लिए बच्चों-सा गोल-मटोल-बौड़म-चंचल दिल-दिमाग भी अपने भीतर पोस-पाल कर बड़े जतन से रखते हैं।
राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, दोईमुख, अरुणाचल प्रदेश-791112,
rajeev.prasad@rgu.ac.in, 6909115086
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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